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*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 160masterstudiosroorkestrostsssssssorrow.000000serrestrostressetosotor
द्वितीय रूप 'मामायरी' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७ में की गई है।
भ्राता संस्कृन प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप भाया और भायरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २.७६ से मूल संस्कृत शश्न 'घात' में स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'त' का लोप; ३.४८ से लोप हुए 'ल' के पश्चात शेष रहे हुर :अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१८० से प्राम'या के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और शेष साधानेका को भनि सूत्र संख्या ४-४४८ तथा १-११ से उपरोक्त 'जामाया' के समान ही होसार साप मानता है :
द्वितीय रूप-(भ्राता) भायशे में सूत्र-संख्या २-६ से मूल संस्कृत शब्द 'भ्रातृ' से स्थित्त 'र' का लोप; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति; १-१८० से आवेश-प्रात 'श्रर' में स्थित प्रथम 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रातगि 'भायर' में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भायरी सिद्ध हो जाता है।
फर्ता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप कप्ता और कत्तारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-० से मूल संस्कृत शब्द कत' में स्थित 'र' का लोप; २-८8 से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'त्' को 'द्वित्व' 'स' की प्राप्ति; ३-४८ से शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'बा' आदेश प्राप्ति; और शेष सानिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-४४८ तथा १-१५ से उपरोक्त 'जामाया' के समान हो होकर प्राकृत रूप 'कत्ता' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (कर्ता) कत्तारो में सूत्र-मख्या २-७६. से मूल संस्कृत शब्द 'क' में स्थित 'र' का लोप; -से लोप हुए 'र' के पश्चात् हे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४५ से शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'प्रार' आदेश प्राप्ति; और १.२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'कत्तार में संस्कृतीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'दो-' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कत्तारो सिद्ध हो जाता है।
पिता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप-(पूर्वोक्त पित्रा के अतिरिक) पिनागे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पिच' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए, 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर '' के स्थान पर 'श्री' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'पिलर' में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में दोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिभरी रूप सिद्ध झ जाता है।। ३-४६॥
राज्ञः ॥ ३-४९ ॥