________________
*प्राकस व्याकरण * 1+00000000000000000000000000000rssaroknet00000rassroorkestendoor00000
राझो नलोपेन्त्यस्य श्रात्वं वा भयति सौ परे । राया। हे राया । पछे । प्राणा । देशे। रायायो । हे राय । हे रायं इति त शौरसेन्याम् । एवं हे अप्पं । हे अप्प ।।
अर्थ:---संस्कृत शब्द 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय 'सि' परे रहने पर सूत्र-संख्या १-११ से 'न' का लोप हो र अन्त्य 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'या' की प्राप्ति होती है। जैसे:-राना गया: वैकापक पल में सुत्र-मख्या ३.५६ से 'प्राण'
आदेश की प्राप्ति होने पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में राजा-रायाणो रूप में होता है। संबोधन एकवचन का उदाहरण:- हे राजन ई राया ! और हे राय ! शौरसेनी भाषा में मूत्र संख्या ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में 'हे रायं!' रूप भी होता है । इसी प्रकार से प्रात्मन्' शब्द भी राजन् के समान ही नकारान्त होने से इस 'मात्मन' शब्द के संबोधन के एकवचन में भी दो रूप होते हैं:-जैसे:हे आत्मन अप्प अथवा हे अप्प !" प्रथम रूप शौरसेनी भाषा को है; जब मि द्वितीय रूप प्राकृत भाषा का है !
राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप रोया और रायाणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप; एवं ३-४ से शेष शब्द राज के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात शेष रहे हुए 'श्रा' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय पाप्तव्य प्रत्यय 'सि''स' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय हलन्त 'स' का लोप होकर राया रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(राजा)रायाणी में सूत्र-संख्या १-१७० से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित 'ज' का लोप १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को प्राप्त; ३.५६ से प्राप्तांग रायन्' में स्थिन अन्त्य 'अन् के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्तांग 'रायाण' में सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतोय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-यो' प्रत्यय की प्राप्ति योका द्वितोय रूप रायाणो भी सिद्ध हो जोता है।
हे राजन् ! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसके प्राकृन रूप हे गया ! और हे राय ! होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त 'न' का लोप एवं ३-४ से शेष शब्द 'राज' के अन्य स्वर 'श्र' के स्थान पर 'आ' की प्राप्तिः १-७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुप 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'या' के स्थान पर 'या' को प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तांग 'राया' में अन्त्य 'श्रा' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप-हे राया ! और हे राय : सिद्ध हो जाते हैं।