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अथवा रायम्स धरणं अर्थात् राजा का धन । यो उपरोक्त उदाहरणों से विदित होता है कि 'जस्' 'शस्' 'कसि और इस्' प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुई है।
* प्राकृत व्याकरण *
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राजान: संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप-रायाणो और राया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में | सूत्र संख्या १०९७७ में संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित 'न्' का लोप १-६८० स लोप हुए 'ज्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-११ से हलन्त 'न' का लोप; ३-१२ से प्राप्तांग 'राय' में स्थित अन्त्य 'थ' के स्थान पर 'आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यथ रहा हुआ होने से 'र' की प्राप्ति और ३-५० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्’ के स्थान पर प्राकृत में 'शो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायाणी सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप- ( राजान: =) राया में 'शय अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार; तत्पश्चात्, सूत्र संख्या ३-१२ से उपरोक्त रीति अनुसार हो अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति एवं प्राप्तांग 'राया' में ३-४ से प्रथम बिभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तत्र्य प्रत्यय 'जस' की प्राकृत में प्राप्ति और लोप स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूप राया भी सिद्ध हो जाता हैं ।
'चिन्ति' रूप की सिद्धि सत्र संख्या 2-२० में को गई है।
राज्ञः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप-रायाणो, राया और १८ होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में 'राय' अंग की प्राप्ति उपरोक्त साघनिका के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३०१२ से प्राशंग 'राय' में स्थित अन्त्य '' के स्थान पर 'आगे द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य 'शस' के स्थान पर प्राकृत में 'शो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप-रायाण सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप - ( राज्ञः = ) गया में 'राय' अंग को प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुपार सत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१० से राय में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'शसू' को प्राकृत में प्राप्ति एवं लोक स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूपराया भी सिद्ध हो जाता है ।
तृतीय रूप-(राज्ञः=) राए में सूत्र संख्या लोप; १-११ से अन्त्य हलन्त 'न' व्यञ्जन का स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया
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१-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित 'ज्' कह लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'रात्र' में स्थित अन्त्य 'अ' के विभक्त के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शासु' प्राकृत में प्राप्ति एवं लोपस्थिति प्राप्त होकर तृतीय रूप 'राम' भी सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है।