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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * kredatorrorrentrorderertorrenderweetrorerotrostonomorror000+ प्रथम रूपयात ४-४४८ तथा १.११ से हाकर द्वितीय रुप भतारेसु भी सिद्ध हो जाता है।
पितरः संस्कृन प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप पिउणो और पिग होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूल-संस्कृत शब्द 'पित' में स्थित 'त' का सूत्र-मख्या १-१७७ से लोप, २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अ' श्रादेश की प्रामि; और ३.२२ मे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पिउणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(पितरपिग में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'पितृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४५ से लोप हुए 'ह' के पश्चात शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' पादेश की माप्ति, ३.१२ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति रही हुई होने से प्राप्तांग 'पिअर' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप पिझरा सिद्ध हो जाता है।
जामातुः संस्कृत पञ्चम्यन्त एक बचन को रूप है। इसका प्राकृत रूप जामाउणो होग है। इसमें मूल संस्कृत शब्द 'जामात' में स्थित 'त' का सूत्र संख्या १-१५७ से लोप; २-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'भू' के स्थान पर 'उ' आदेश की प्राप्ति और ३-२३ से पंचमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में (वैकल्पिक रूप से) 'गो' प्रत्यय की की प्राप्ति होकर जामाउणो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रातः संस्कृत पष्ठन्यत एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भाउणो होता है। इसमें मूल शब्द भ्रातृ में सूत्र संख्या २.७६ से 'र' का लोप; १-१६५ से 'त्' का लोप, २-४४ से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रह हुए '' के स्थान पर '' श्रादेश की प्राप्ति और ३-२३ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'कम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' प्रत्यय की मामि होकर भाउणी रूप सिद्ध हो जाता है।
पित्रा संस्कृत हतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पित्रणा माता है । मूल शरद पितृ में-सूत्र संख्या १-१७७ से 'तु' का लोप -४ से लोप हुए तू के पश्चात् शेष रहे हुए ऋ' के स्थान पर 'त' की प्रानि और ३.२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में मंस्कृतीय प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में पा प्रत्यय कर प्राप्ति होकर पिउणा रूप सिद्ध ो जाता है।
पितृभिः संस्कृत तृतीयान्न बहुवचन रूप हैं । इसका प्राकृत रूप दिन होता है । इसमें मिड' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुमार; ३-१६ से प्रासांग पिउ' में म्गित द्वस्व स्पर'' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ॐ' प्राप्ति और ३-० से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय मिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिकहिं रूप सिद्ध हो जाता है।