________________
* नियोदय हिन्दी व्याख्या सहित かかるのかがですから
、
かかるか分からなのか से प्राप्त तथा लुप्त शस प्रत्यय के कारण से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप भतारे सिद्ध हो जाता है।
भर्चा संग्कृत तृतीयान्त एक वचन का रूप है । इसके प्राकृत रुप भत्तणा और भत्तारेण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या -७ से 'र' का लोप, २-१ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-४४ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३.२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'दा-या' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तुणा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रू।(भाभत्तारेण में सूत्र संख्या२-७ से 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए र' के पश्चात रहे हुए 'तु' को द्वित्व 'त' को प्राप्ति; ३-४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'धार' आदेश की प्राप्ति; ३. से तृतीया विभक्ति के एकवचन में सस्कृतीय 'टाया' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्वस्थ 'भत्तार' अंग के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भत्तारेण सिद्ध हो जाता है ।
भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्न बटुवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप भत्त हिं और भत्तारहिं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में 'भत मतु' अंग की सानिका इसी सूत्र में अपर कृतवतः तत्पश्चात् सूत्रसख्या-३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय मित् के स्थान पा प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.१६ से प्रान प्रत्यय 'हि' के पूर्व स्व भत्त' श्रम में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्थ . स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भत्तूहि सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(भन भिः) भत्तारेहि में 'भतृ भत्तार' श्रग की साधनिका इमी मूत्र में पर कृतवत्त तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-७ से तृतीया विमक्ति के बहुवचन में संस्कृनाय प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय हिं' के पूर्व स्थ 'भप्तार' श्रग में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति हो कर द्वितीय रूप भत्तारहि सिद्ध हो जाता है।
भर्तुः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप भगुणो, भत्ता , भत्त ब, भत्तू हि, भत्तू हिन्तो, तथा भत्ताराश्री भत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्ताराहिन्तो और भत्तारा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में 'भा,' अंग की सानिका इसी सूत्र में अपर कृतवतः तत्पश्चात् सूत्र-मख्या ३-२३ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में बैकल्पिक रूप से हो' प्रत्यय की प्रामि शेकर प्रथम रुप भत्तुणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ और पंचम रूपों में-अर्थात् भक्तो , भत्तू उ, मतहि और भत्तू हिन्तो में 'भातु' अंग की प्राप्ति इसो सूत्र में कृत साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल प्राप्त-अंग 'भत्तु में स्थित अन्त्य हृम्य स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर '' की प्राप्ति और ३-८ से तथा ३-२३ की