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* प्राकृत व्याकरण
हृम्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'भत्त सिद्ध होता है ।
द्वितीय रूप - ( भर्तारः = ) मणी में 'भत्तु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'भत्तुणी' सिद्ध हो जाता है ।
444064
+4444444
तृतीय रूप - ( मतारः = ) भत्तर में 'भतु' अंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् तत्पश्चात सूत्रसंख्या ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत रूप में '' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्तिः प्राप्त प्रत्यय 'डर' में 'ड्' इट वंशक होने से 'भत्त' अंग में स्थित अस्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा हो जाने से'' का लोग एवं पाप्त भत्' में 'अ'
प्रत्यय को संयोजना होकर तृतीय रूप 'भत्तउ' भी सिद्ध हो जाता है ।
चतुर्थ रूप (मर्तारः = ) भत्तश्रो में 'भत्तु' श्रंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और शेप साधनिका तृतीय रूप के समान ही सूत्र संख्या ३-२० से होकर एवं 'डोश्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चतुर्थ रूप-भत्तओं भी सिद्ध हो जाता है ।
पंचम रूप- 1- ( भर्त्तार:-) मतारा में सूत्र संख्या २७१ से मूल संस्कृत रूप 'भर्तृ' में स्थित 'र' का लोप २-८ह से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'तु' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्तिः ३ ४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस का प्राकृत में लांप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर पंचम रूप भत्तारा सिद्ध हो जाता है ।
भर्तृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप भत्त मत्त गो और भत्तारे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ७६ से 'र' का लोप २-८६ से लोप हुए र के पश्चात् रहे हुए 'तू' को द्वित्यन्त की प्राप्ति ३-५४ से मूल संस्कृत शब्द 'भ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर '' देश की प्राप्ति ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय शस् का में लीप और ३-१८ से प्राप्त एवं एवं लुप्त प्रत्यय शस् के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'ब' को दीघ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भन्न् सिद्ध हो जाता है ।
प्राकृत
द्वितीय-रूप- (भर्तृ न्= ) भत्तणो में 'भन्न रूप रंग की प्राप्ति प्रथम रूपवत् और ३०२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप संयो' प्रस्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप- (भर्तृ न्= ) भत्तारे में सूत्र संख्या २७१ से '' का लोप २०६२ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'त' को द्विल 'त्त' की प्राप्तिः २०४५ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आर' की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तष्य प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप और ३-१४