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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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के एकवचन के उदाहरण:--भत्त:-मत्तणो, मत्त स तथा वैकल्पिक पक्ष में भत्ताररूप रूप होता है । 'सुप्' सप्तमां त्रिभक्ति के बहुवचन का उदाहरण: भतृ पु=भत्त सु और वैकल्पिक पक्ष में भत्तारेसु होता है ।
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ऋकारान्त शब्द दो प्रकार के होते हैं; संज्ञा रूप और विशेषण रूप; तदनुसार इस सूत्र की वृत्ति में 'ऋदन्तानाम्' ऐसा बहुवचनात्मक उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि संज्ञारूप और विशेषण रूप दोनों प्रकार के ऋकारान्त शब्दों के अस्वस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'सि' और 'अम्' प्रत्ययों को छोड़कर शेष सभी प्रत्ययों का योग होने पर वैकल्पिक रूप से '' की प्राप्ति हो जाता हैं । जैसे:-- प्रथमा बहुत्रवन के प्रत्यय 'ज के उदाहरणः पि+जामातृ + इसि= जाभानुः = जामाउणो और भ्रातृ + कम भ्रातुः भाजणी इत्यादि । इस प्रकार से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन मे 'श' प्रत्यय, पंचमी विभक्ति के एक वचन में 'ङ' प्रत्यय पत्र विभक्ति के एकवचन में 'स' प्रत्यय और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सुप्' प्रत्यय प्राप्त होने पर ऋकारान्त संज्ञाओं के अन्य स्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है। तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रश्यय का उदाहरणः पितृ + टापित्रा = पिडा; तृतीया विभक्ति के बहुवचन में 'मिस्' प्रत्यय का उदाहरण: पितृभिः = पिऊहिं और सप्तमा विभक्ति के बहुवचन में 'सुप्' प्रत्यय का उदाहरण:-पितृषु = पिऊलु यो 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति का विधान समझ लेना चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र संख्या ३-४७ से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति भी होती है और ऐसा होने पर इन शब्दों की रूपावति अकारान्त शब्दों के अनुसार होता है । जैसे:- पितृ + जस पितरः पिचरी; इत्यादि ।
प्रश्नः -- 'सि' 'औ और अम् प्रत्ययों को प्राप्ति होने पर ऋकारान्त शब्दों में 'ऋ' के स्थान पर ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ?
उत्तरः- सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ+सिपिता का प्राकृत रूपान्तर 'पिया' होता है; 'अम्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ + श्रम् पितरम्' का प्राकृत रूपान्तर पिअर होता है; तथा प्रथमा विभक्ति और द्वितीय विभक्ति के द्विवचन में 'औ' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'पितृ + औ = पितरों का प्राकृत रूपान्तर 'विवश' होता है; अतव 'सि' 'अम्' और 'औ' प्रश्यों को इस विधान के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है ।
भर्त्तारः - संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप भत, भलो भत्तव, भत्तश्र और मशारा होते है इनमें से प्रथम रूप में सूत्र--संख्या २७६ से मूल संस्कृत शब्दमत में स्थित 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'तु की द्विश्व 'ल' की प्राप्ति; ३-४४ से अन्त्य 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'उ' स्वर की प्राप्ति और ३-४ से तथा ३-२० की वृति से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जस' प्रत्यय का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त तथा लुम (जस् प्रत्यय के कारण ) अन्त्य