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भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित
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(जयधवल, महाधवल)। श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
भाग-नवा
सम्पादको
विद्वतरत स्व० श्री पं० फूलचन्द्र
विद्वतरत्न स्व० श्री पं0 कैलाशचन्द्र
प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी मथुरा ( उत्तर प्रदेश)
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|| भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित
श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम्
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(जयधवल, महाधवल)
तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका [षष्ठोउधिकारः बन्धकः २]
नवा भाग
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विद्वतरत्न . स्व० श्री पं0 फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्य
सम्पादक जय महाबन्ध सहसम्पादक, जयधवल
सम्पादकौ
विद्वतरत्न स्व० श्री पं0 कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय
काशी
प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी-मथुरा (उत्तर प्रदेश)
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प्रकाशक
भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा
कार्यालय दूरभाष :
0565420711
प्रथम संस्करण 1963 (वीर निर्वाण 2489)
द्वितीय संस्करण 2000
(वीर निर्वाण 2526)
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मूल्सशीषित मल्य 250/- रूपये
मुद्रक: नरूला ऑफसेट प्रिन्टर्स
शाहदरा,
दिल्ली
熊
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| प्रथम संस्करण के प्रकाशन पर सम्पादक द्वारा अग्रलेख
कसायपाहुड के पाँचवें भाग अनुभाग विभक्ति को एक वर्ष पश्चात् ही प्रकाशित करते | हुए हमें हर्ष होना स्वाभाविक है। यह भाग भी डोंगरगढ़ के उदारमना दानवीर सेठ भागचन्द्र जी | के द्वारा दिये गये द्रव्य से ही प्रकाशित हुआ है और आगे के भाग भी उन्हीं के द्रव्य से प्रकाशित हो रहे हैं इसके लिये सेठ जी व उनकी धर्म पत्नी सेठानी नर्वदाबाई जी दोनों धन्यवाद के पात्र
सम्पादन आदि का भार पूर्ववत् पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री और हम दोनों ने वहन किया है। प्रेस सम्बन्धी सब झंझटों को पं० फूलचन्द्र जी ने उठाया है। एतदर्थ मैं पंडितजी का + भी आभारी हूँ।
काशी में गङ्गा तट पर स्थित स्व० बाबू छेदीलाल जी के जिन मन्दिर के नीचे के भाग में जयधवला कार्यालय अपने जन्म काल से ही स्थित है और यह स्व० बाबूसाहब के सुपुत्र बाबू. | गणेशदास जी और पौत्र बा० सालिगराम जी तथा बा० ऋषभचन्दजी के सौजन्य और धर्म प्रेम का परिचायक है, अतः मैं उनका भी आभारी हूँ।
नया संसार प्रेस के स्वामी पं० शिवनारायण जी उपाध्याय तथा उनके कर्मचारियों ने इस भाग का मुद्रण बहुत शीघ्र करके दिया, एतदर्थ वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
जयधवला कार्यालय
भदैनी, काशी दीपावली-2489
कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा. दि. जैन संघ
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भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ
संक्षिप्त इतिहास सन् 1933 में महामनीषी विद्वान स्व) पं० राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ के अदम्य उत्साह और विलक्षण सूझबूझ ने एक नयी संस्था को जन्म दिया। नाम था शास्त्रार्थ संघ। इस संघ में स्व० लाला सिब्बामल जैन का सहयोग था। 1933 में अम्बाला में स्थापित इस संस्था के द्वारा देश के अनेक नगरों में धर्म-संरक्षण की भावना से जैन धर्म के आलोचकों से सार्वजनिक शास्त्रार्थ किये गये। उसका परिणाम यह हुआ कि आलोचकों ने जैन धर्म की आलोचना बन्द कर दी।
शास्त्रार्थ संघ को सबसे बड़ी विजय तब मिली, जब आलोचकों के प्रमुख सन्यासी स्वामी कर्मानन्द जी ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया और जैन धर्म की प्रमाणिकता में "ईश्वर मीमांसा" नाम की एक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन संघ ने किया है।
सन् 1940 के लगभग, संघ का स्थान अम्बाला की जगह मथुरा में हो गया। चौरासी स्थित भगवान् जम्बू स्वामी की निर्वाण स्थली के समीप पं० राजेन्द्र कुमार जी और उनके सहयोगियों के द्वारा भव्य-भवन का निर्माण किया गया और संघ का नाम "शास्त्रार्थ-संघ" के स्थान पर "भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ" रखा गया। अब संघ का कार्य धर्म प्रचार था।
उस समय संघ भवन में हर समय 10-12 विद्वान रहा करते थे और पूरे देश में होने वाले सामाजिक, धार्मिक उत्सवों में उन विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। उन्हीं दिनों संघ में एक प्रकाशन विभाग की स्थापना हुई, जिसके द्वारा अनेक समाजोपयोगी एवं धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जिनमें कैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखी गयी "जैन धर्म" नाम का ग्रन्थ अब सातवें संस्करण के रूप में छप गया है। इन्हीं के द्वारा "तत्वार्थ सूत्र" की गौरवपूर्ण हिन्दी टीका लिखी है, जिसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है।
सन् 1950 के आस-पास संघ ने स्व० पंडित हीरालाल जी शास्त्री, अमरावती (महाराष्ट्र) ए. एन. उपाध्ये की प्रेरणा से "कसायपाहुडं" (जयधवल, महाधवल) ग्रंथराज के प्रकाशन की योजना बनायी। आर्थिक अभावों के होते हुए भी स्वर्गीय पं० फूलचन्द्र जी और पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के श्रम और सूझ-बूझ से मूल ग्रन्थ का हिन्दी में सरलीकरण किया गया। जिसे संघ ने 16 भागों में प्रकाशित कराया है।
उपरोक्त महाग्रन्थ के दो संस्करण हम कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित करा चुके हैं, और अब 10 भागों का पुर्नसंस्करण प्रकाशित करा रहे हैं। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री स्वरूप चन्द जी मारसंस, आगरा का इन प्रकाशनों में हमें भरपूर सहयोग मिला है। हमारे अन्य दातारों का भी हमें आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। आज संघ संस्थापक पं० राजेन्द्र कुमार जी तथा उनके सहयोगी पं० फूलचन्द्र जी, पं० कैलाशचन्द्र जी, पं० जगमोहन लाल जी नहीं है और अब संस्थाओं के संचालन में वो उत्साह भी नहीं रहा, फिर भी हमारी भावना है कि संघ-भवन और उसके प्रकाशन विभाग को किसी न किसी प्रकार संचालित रखा जाये। संघ का मुख पत्र "जैन सन्देश" पिछले 6. दशक से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। हमारी भावना है कि समाज के उत्साहीजनों का निरन्तर सहयोग मिलता रहे और संघ भवन से यह आलोक निरन्तर प्रकाशमान होता रहे।
प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी' भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ
चौरासी, मथुरा
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-: आभार :
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा को प्रमुख आर्ष ग्रन्थ " कसायपाहुडं" जयधवल महाधवल को सोलह भागों में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसके प्रकाशन का शुभारंभ 6 दशक पूर्व हो गया था, जिसके अन्तिम दो भाग 15 और 16 को प्रकाशित करवाने में अर्थाभाव की कमी महसूस की गई। बाद में सोलहवां भाग का प्रकाशन ब्र० श्री हीरालाल खुशालचन्द दोशी, मांडवे (सोलापुर) के आर्थिक सहयोग से किया गया। 16 भागों का वितरण क्रमशः न होने के कारण प्रथम दो और चार भाग को मथुरा में ही पुनर्प्रकाशन कराना पड़ा। अब जयधवला के 10 भागों का प्रकाशन अनिवार्य समझ कर श्री रतनलाल जी जैन, वन्दना पब्लिशिंग हाउस, अलवर (राज.) के सहयोग और परामर्श से इनका पुनर्प्रकाशन किया जा रहा है। इनके प्रकाशन में आर्थिक योगदान के लिये हमारे निम्न दानदाताओं ने उदारतापूर्वक दान देकर इस कार्य में अपना अमूल्य सहयोग दिया है इसके लिए संघ इन सभी सधर्मी बन्धुओं का आभार प्रकट करता है ।
1.
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श्री बलवंत राय जैन, भिलाई (म.
श्री स्वरूप चन्द जैन (मारसंस ), आगरा (उ. प्र.)
श्री रतन लाल जैन, अलवर (राज.)
श्री ताराचन्द जैन, अलवर (राज.)
श्री ओम प्रकाश जैन, कोसीकलाँ (उ. प्र.)
श्री भोलानाथ जैन, आगरा (उ. प्र. )
प्र. )
श्री निर्मल कुमार जैन, आगरा (उ. प्र. )
8.
श्री प्रदीप कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.)
9.
श्री ज्ञानचन्द जी खिन्दूका, जयपुर (राज.) 10. कान्ता बहन मनुभाई शाह, सोजीत्रा (गुजरात) 11. श्री मनुभाई छगन लाल शाह, सोजीत्रा (गुजरात)
प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी'
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विषय-परिचय
यह बन्धक नामका घटा अधिकार है। इसके बन्ध और संक्रम ये दो भेद हैं। जिस अनुयोग बारमें कर्मवर्गणाओंका मिथ्यात्व श्रादिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके कर्मरूप परिणमकर श्रात्मप्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप बन्धका व्याख्यान किया गया है बहबम्ब अधिकार है और जिसमें बन्धरूप मिथ्यात्व श्रादि कर्मोका प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से अन्य कर्मरूप परिणमनका विधान किया गया है वह संक्रम अधिकार है। इस प्रकार इस बन्धक अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दो विषयोंका व्याख्यान किया गया है। प्रश्न यह है कि बन्धक अधिकारमें बन्धका व्याख्यान हो यह तो ठीक है परन्तु उसमें संक्रमका व्याख्यान कैसे किया जा सकता है? समाधान यह है कि संक्रमका भी बन्धमें ही अन्तर्भाव होता है, क्यों कि बन्धके दो भेद हैएक अफर्मबन्ध और दूसरा कर्मबन्ध । जो कार्मणवर्गणाएं कमरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप परिणत होना यह अकर्मबन्ध है और कर्मरूप परिणत पुद्गलस्कन्धोंका एक कर्मसे अपने सजातीय अन्य कर्म का परिणभना कर्मबन्ध है। यही कारण है कि इस वन्धक अधिकारमें बन्ध और संक्रम दोनोंका समावेश किया है। इस विषयका विशेष व्याख्यान करने के लिए कदि पयडीश्रो बंधदि' २३ संख्यावाली मूलगाथा
आई है और इसी आधारपर प्राचार्य यतिवृषभने अपने उत्तर भेदों के साथ बन्धक अधिकारके अन्तर्गत बन्ध और संक्रम ये दो अधिकार सूचित किये हैं। उनमेंसे चारों प्रकारके बन्धका विस्तृत व्याख्यान अन्यत्र बहत बार या विस्तार से किया गया जानकर मुणधर श्राचार्य और यतिवृषभ श्राचार्य दोनोंने यहाँ उसका व्याख्यान न कर मात्र संक्रमका विशेष व्याख्यान किया है।
संक्रम यतिवृषभ श्राचार्यने संक्रमफा उपक्रम पाँच प्रकारका किया है-श्रानुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । उसके बाद संक्रमका निक्षेप करते हुए वह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, कान
और भावके भेदसे छह प्रकारका बतलाकर कौन नय किन निक्षेपरूप संक्रमोंको स्वीकार करता है इसका व्याख्यान किया है और अन्तमें क्षेत्रसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रमका खुलासा करनेके साथ नोश्रागमद्रव्यसंक्रमनिक्षेपके कर्म और नोकर्म ऐसे दो भेद करके तथा उनका संक्षेपमें व्याख्यान करते हुए कर्मसंक्रमके प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश ऐसे चार भेद करके और प्रकृतिसंक्रमको भी एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ऐसे दो भेद करके प्रकृतमें प्रकृतिसंक्रमसे प्रयोजन है यह बतलाफर उसके व्याख्यानका प्रारम्भ किया है।
प्रकृतिसंक्रम प्रकृतिसंक्रमके व्याख्यानमें २४, २५ और २६ संख्याकी तीन गाथाएँ आई हैं। उनमें से प्रथम गाथामें पाँच प्रकारके उपक्रम, चार प्रकारके निक्षेप, नयविधि और अाठ प्रकारके निर्गमका संकेत कर दूसरी गाथामें प्रकृतिसंक्रमके एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ऐसे दो भेद करके संक्रममें प्रतिगृह-विधि उत्तम और जघन्यके भेदसे दो प्रकारकी बतलाई है। तथा तीसरी गाथामें
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निर्गभके पाठ भेदोंका निर्देश करते हुए प्रकृतिसंक्रमके उक्त दोनों भेदोंमें संक्रम, असंक्रम, प्रतिग्रहविधि
और अप्रतिग्रहविधि इन चारोंको दो दो प्रकारका बतलाया है। यह तीन मूलगाथाओंका विषयस्पर्श है। प्राचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रों द्वारा इन गाथाश्रोंके प्रत्येक पदका स्वयं खुलासा किया है। तथा जयधवला टीकामें भी इसपर विशेष प्रकाश डाला गया है।
एकैकप्रकृतिसंक्रम श्रागे एकैकप्रकृतिसंक्रममें एकैकप्रकृति असंक्रम, प्रकृति प्रतिग्रह और प्रकृति अप्रतिग्रह इन अन्य तीन निगमोंको अन्तर्भूत करके उसका २४ अनुयोगद्वारोंके श्राश्रयसे निरूपण किया है। वे २४ श्रनुयोगद्वार ये हैं—समुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम, . अजघन्यसंक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सनिकर्ष, भाव और अल्पबहुत्व । इनमेंसे प्रारम्भके ११ अनुयोगद्वारोंका सूत्रकारने वर्णन नहीं किया है। जयधवलामें उनका उच्चारणाके अनुसार निर्देश किया गया है । उसके अनुसार खुलासा इस प्रकार है
समुत्कीर्तना-श्रोघसे सब प्रकृतियोंका संक्रम होता है। चारों गतियों में भी इस प्रकार जानना चाहिए । मात्र अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिमें सम्यक्वका असंक्रम है।
. सर्व नोसर्वसंक्रम-सब प्रकृतियोंका संक्रम करनेवालेके सर्वसंक्रम होता है और उनसे कम प्रकृतियोंका संक्रम करनेवालेके नोसर्वसंक्रम होता है।
उत्कृष्ट-अनुकृष्टसंक्रम-२७ प्रकृतियोंका संक्रम करनेवालेके उत्कृष्टसंक्रम होता है और इनसे कमका संक्रम करनेवालेके अनुत्कृष्टसंक्रम होता है।
जघन्य अजघन्यसंक्रम-सबसे कम प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले के जघन्यसंक्रम होता है और इससे अधिकका संक्रम करनेवालेके अजघन्यसंक्रम होता है। यहाँ संख्याकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट तथा जघन्य-अजन्यका विचार करना चाहिए। .
सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रवसंक्रम - श्रोघसे दर्शन मोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका सादि और अध्रवसंक्रम होता है, शेषका सादि श्रादि चारों प्रकारका संक्रम होता है। चारों गलियों में सबका सादि और अध्रुवसंक्रम होता है।
- एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व-इस अनुयोगद्वारमें मिथ्यात्व श्रादि २८ प्रकृतियोंके संक्रमके स्वामीका निर्देश किया है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वका संक्रम सब वेदकसम्यग्दृष्टि जीव और सासादनके बिना उपशमसम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। बेदकसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वका संक्रम करते हैं, चूर्णिके इस वचनका खुलासा करते हुए उसकी जयधवला टीकामें बतलाया है कि जिन वेदक सम्यग्दृष्टियोंके संक्रमके योग्य मिथ्यात्वकी सत्ता है, बेदक सम्यग्दृष्टियों में वे ही उसका संक्रम करते हैं। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके संक्रमके स्वामीका निर्देश इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। प्रसंगसे यह भी बतला दिया है कि दर्शन मोहनीयका चरित्रमोहनीयमें और चरित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें संक्रम नहीं होता। जयधवला टीकामें चूर्णिसूत्रोंके अर्थका स्पष्टीकरण कर इतना और बतलाया है कि चारों गतियोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। मात्र अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यकत्वका संक्रम सम्भव न होनेसे २७ प्रकृतियोंके संक्रमका निर्देश किया है।
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संघ संस्थापक स्व० श्री राजेन्द्र कुमार जी
न्यायतीर्थ
स्व० श्री पं० फूलचन्द्र जी
सिद्धान्त शास्त्री
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पं० कैलाश चन्द जी शास्त्री
सिद्धान्त शास्त्री
पं० जगन्मोहन लाल जी
शास्त्री, कटनी
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एक जीवकी अपेक्षा काल-इसमें एक जीवकी अपेक्षा २८ प्रकृतियोंके संक्रमके कालका निर्देश किया गया है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्वके संक्रमका जधन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर बतलाया है। जयधवला टीकामें श्रोघसे और प्रादेशसे चारों गतियों में एक जीवकी अपेक्षा २८ प्रकृतियों के संक्रमका काल तो बतलाया ही है। साथ ही इनके असंक्रमका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाया है।
एक जीवकी अपेक्षा अन्तर-इसमें एक जीवकी अपेक्षा २८ प्रकृतियोंके संक्रमके अन्तरकालका विधान किया है। उदाहरणार्थ मिथ्यात्व और सम्यकत्व इन दो प्रकृतियोंके संक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलप्रमाण बतलाया है तथा जयधवला टीकामें चारों गतियों में भी एक जीवकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंके संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है।
नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय-इस अनुयोगद्वारका प्रारम्भ करते हुए चूर्णिसूत्रमें नाना जीवोंसे कौन जीव लिये गये हैं ऐसी शंकाको ध्यानमें रखकर सर्वप्रथम यह सूचना की है कि जिन जीवोंके मोहनीय कर्मप्रकृतियोंकी सत्ता है वे ही यहाँ प्रकृत हैं। उसके बाद मिथ्यात्व श्रादि २८ प्रकृतियोंके संक्रामकों और असंक्रामकोंको ध्यानमें रखकर जहाँ जितने भंग सम्भव हैं उनका निर्देश किया है। जयधवला टीकामें चारों गतियों में इसका विचार अलगसे किया है।
___ भागाभाग-परियाण-क्षेत्र-स्पर्शन-इन चारों अनुयोगद्वारों पर चूर्णिसूत्र नहीं हैं। मात्र उचारणाके अनुसार जयधवला टीकामें इनकी मीमांसा की गई है । भागाभागमें २८ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके संक्रामक और असंक्रामक जीव सव जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं यह बतलाया है। परिमाणमें २८ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येक प्रकृतिके संक्रामक जीवोंकी संख्या अोघसे और चारों गतियोंमें कहाँ कितनी है यह बतलाया है। इसी प्रकार क्षेत्र अनुयोगद्वारमें क्षेत्रका और स्पर्शन अनुयोगद्वारमें स्पर्शनका विचार किया है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा काल-इसमें नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक प्रकृतिके संक्रमका काल सर्वदा बतलाया है । जयधवला टीकामें चारों गतियोंमें भी कालका निर्देश किया है ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- इसमें चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका द्वारा उक्त पद्धतिसे अन्तरका विधान किया है।
सन्निकर्ष- इसमें किस प्रकृतिका संक्रामक किस पद्धतिसे किस प्रकृतिका संक्रामक या असंक्रामक होता है यह बतलाया है । जयधवलामें चारों गतियोंकी अपेक्षा अलगसे व्याख्यान किया है।
भाव-इसपर चूर्णिसूत्र नहीं हैं । जयधवलामें बतलाया है कि सर्वत्र एक औदयिक भाव है।
अल्पबहुत्व-इसमें प्रत्येक प्रकृतिके संक्रामक जीवों की अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्देश किया है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि श्रोघसे अल्पबहत्वकी प्ररूपणा चूर्णिसूत्रों द्वारा तो की ही है, चारों गतियों और एकेन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा भी अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा चूर्णिसूत्रों द्वारा की गई है।
प्रकृतिस्थानसंक्रम
इस अनुयोगद्वारके प्ररूपणमें २७ से लेकर ५८ तक ३२ गाथाएँ श्राई है। इनमें संक्रम स्थान कितने हैं और वे कौन-कौन हैं, प्रतिग्रहस्थान कितने हैं और वे कौन कौन हैं, किन संक्रमस्थानोंका किन प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम होता है, इनके स्वामी कौन हैं, इनकी साद्यादि प्ररूपणा किस प्रकारकी है
और एक तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा काल आदि क्या. हैं इन सब बातोंमेंसे किन्हींका स्पष्ट खुलासा किया है और किन्हींका संकेतमात्र किया है।
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प्राचार्य यतिवृषभने इन गाथाओं में से प्रथम गाथापर ही चर्णिसूत्र लिखे हैं। उसमें भी इसका व्याख्यान करनेके पहले इस प्रकरणसम्बन्धी अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश किया है-स्थानसमुत्कीर्तना, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्ट संक्रम, अनुत्कृष्ट संक्रम, जघन्यसंक्रम, अजघन्यसंक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ।
इसके बाद प्राचार्य यतिवृषभने २७ संख्याक प्रथम गाथाका व्याख्यान करते हुए अपने चूर्णिसूत्रों द्वारा २८, २४, १७, १६ और १५ प्रकृतिकस्थान क्यों संक्रमस्थान नहीं हैं और शेष संक्रमस्थान कैसे हैं इसका विस्तारके साथ खुलासा किया है। २८ से लेकर ५८ संख्या तककी शेष ३१ गाथाश्रोंका विशेष स्पष्टीकरण जयधवला टीका द्वारा किया गया है। श्रागे पूर्वोक्त अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान प्रारम्भ होता है। उसमें भी स्थानसमुत्कीर्तना अनुयोगद्वारका व्याख्यान प्रथम गाथाके व्याख्यानके प्रसंगसे चूर्णिसूत्रोंमें पहले ही आ गया है, इसलिए यहाँ मात्र जयधवला द्वारा उसका. व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि श्रोघसे २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १६, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ६,८,७, ६, ५, ४, ३, २, और १ ये २३ संक्रमस्थान हैं । साथ ही इनमेंसे किस गतिमें कितने संक्रमस्थान होते हैं यह भी बतलाया है .
श्रागे जयधवलामें यह सूचना करके कि यहाँ सर्वसंक्रम, नोसर्वसक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम और अजधन्यसंक्रम ये स्थान संभव नहीं हैं इसके बाद सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि २५ प्रकृतिक संक्रमस्थान सादि अादि चारों प्रकार का है, शेष संक्रमस्थान सादि और अध्रुव ही हैं ।
एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व-इस पर मात्र एक चूर्णिमूत्र है। श्रोध और चारों गतियों की अपेक्षा संक्रमस्थानोंके स्वामीका विशेष निर्देश जयधवला टीका द्वारा किया गया है।
___एक जीव की अपेक्षा काल- इसमें चूर्णिसूत्रों द्वारा श्रोधसे एक जीव की अपेक्षा काल का , विचार किया है। चारों गतियोंसम्बन्धी विशेष व्याख्यान जयधवला टीकामें आया है।
एक जीव की अपेक्षा अन्तर-इसमें पूर्वोक्त विधि से अन्तर का कथन किया है। - नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय-यहाँ भी चूर्णि में जिनके प्रकृतियों की सत्ता है उन्हीं का अधिकार है यह बतला कर भंगविचय का निरूपण हुश्रा है। जयधवला में श्रोध से कुल भंगों का योग ३८७४२०४८६ बतलाया है।
भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वारों पर चूर्णिसूत्र नहीं हैं। जयधवला में उच्चारणाके अनुसार इनका व्याख्यान श्राया है जो नामानुसार है।
नाना जीवों की अपेक्षा काल-इसमें किस स्थान के संक्रामक का कितना काल है यह नाना जीवों की अपेक्षा चूर्णि और जयधवला टीका द्वारा बतलाया गया है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर- इसमें किस स्थानके संक्रामकोंका कितना अन्तर है यह नाना जीवों की अपेक्षा बतलाया है।
___ सन्निकर्ष-एक संक्रमस्थानके सद्भावमें दूसरा संक्रम स्थान संभव नहीं इसलिए सन्निकर्षका निषेध किया है।
भाव-इसमें सब संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीवों का श्रौदयिक भाव है, क्योंकि उदयको निमित्त कर ही संक्रम होता है यह बतलाया है।
अल्पब हुत्व-इसमें सब संक्रमस्थानोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है।
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भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि-भुजगारका समुत्कीर्तना श्रादि १३, पदनिक्षेपका स्वामित्व श्रादि ३ और वृद्धिका समुत्कीर्तना आदि १३ अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे कथन करके इन अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर प्रकृति संक्रमस्थानकी समाप्तिके साथ प्रकृतिसंक्रम समाप्त किया गया है।
यहाँ प्रसङ्गसे इतना उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कषायप्राभृतकी प्रकृति संक्रमस्थान सम्बन्धी २७ वीं गाथा से लेकर ३६ वीं गाथा तक १३ गाथाएँ श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिकी इसी प्रकरण सम्बन्धी १० वीं गाथा से लेकर २२ वीं गाथा तक १३ गाथाएँ कुछ रचनाभेद और कहीं-कहीं कुछ पाठभेदके साथ परस्पर मिलती जुलती हैं।
- पाठभेदके उदाहरण इस प्रकार हैं कषायप्राभृत
कर्मप्रकृति गाथा० सं०३० दिट्ठीगए।
१३ दिट्ठी कए ,, ३१ विरदे मिस्से अविरदे य
१५ णियमा दिट्ठीकए दुविहे , ३३ संकमो छप्पि सम्मचे
१६ सुद्धसासणमीसेसु " ३५ अट्ठारस चदुसु होति बोद्धव्वा १८ अट्ठारस पंचगे चउक्के य यहाँ इतना और उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कर्मप्रकृतिमें उसकी उक्त १३ गाथाओंमेंसे प्रारम्भकी २ गाथाओंको छोड़कर अन्तकी शेष ११ गाथाओंकी चूर्णि नहीं है। कषायप्राभूतमें भी यद्यपि उसकी २७ वी गाथा पर ही चूर्णिसूत्र उपलब्ध होते हैं पर वहाँ चूर्णिसूत्रों में प्रकृतिसंक्रमस्थानसम्बन्धी सभी गाथाओंकी सूत्रसमुत्कीर्तनाका स्पष्ट उल्लेख करके स्थानसमुत्कीर्तनामें एक गाथा आई है यह बतलाकर पुनः चूर्णिसूत्रोंमें २७ वीं गाथाको निबद्ध कर उसकी विशेष व्याख्या की गई है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि अचार्य यतिवृषभके विचारसे इन सभी मूल गाथाओंकी रचना गुणधर श्राचार्य ने ही की है।
स्थितिसंक्रम इस अधिकार में स्थितिसंक्रमके मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम ऐसे दो भेद करके अर्थपदका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि स्थितिके अपकर्षित होने, उत्कर्षित होने या अन्य प्रकृतिमें संक्रमित होनेका नाम स्थितिसंक्रम है। उसमें भी मूलप्रकृतियोंकी स्थितिका उत्कषण और अपकर्षण तो होता है पर परप्रकृतिसंक्रम नहीं होता, क्योंकि एक मूल प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप संक्रमित नहीं होती। तथा उत्तरप्रकृतियों की स्थिति का उत्कर्षण, अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण तीनों ही सम्भव है। इससे भिन्न स्थिति असंक्रम है यह तो स्पष्ट ही है। अर्थात् मूल या उत्तरप्रकृतियों की जिस स्थिति का संक्रम नहीं होता है वह स्थिति असंक्रम कहलाती है। . स्थिति अपकर्षण-श्रागे स्थिति अपकर्षण का विचार करते हुए सर्वप्रथम उदयावलीसे उपरिम समयवर्ती स्थिति का अपकर्षण होने पर उसका निक्षेप किन स्थितियों में होता है और कौन स्थितियाँ प्रतिस्थापनारूप होती है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि उदयावलीसे उपरिम समयवर्ती स्थितिका अपकर्षण होने पर उसका निक्षेप उदय समयसे लेकर उदयावलीके त्रिभाग तक होता है और उसके ऊपरके दो त्रिभाग अतिस्थापनारूप रहते हैं। किन्तु श्रावलिका प्रमाण कृतयुग्म असं होनेठे उसका अखंडरूप त्रिभाग प्राप्त करना शक्य नहीं हैं, इसलिए जयधवलामें बतलाया है कि बाबलिक प्रमाणमेंसे एक कम करके त्रिभाग करने पर जो लब्ध श्रावे उसमें एक मिला दे। यह तो निवेपका प्रमाण है और इसके सिवा शेष (एक कम प्रावलिके दो त्रिभाग मात्र) अतिस्थापनाका
। विसमें अपकर्षित द्रव्यका क्षेपण होता है उसका नाम निक्षेप है और निक्षेप तथा संक्रम
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स्थितिके मध्य जितनी स्थितियाँ होती हैं उनका नाम अतिस्थापना है। अपकर्षित द्रव्यका क्षेपण किस क्रमसे होता है इसका विचार करते हुए वहाँ बतलाया है कि उदय समयमें बहुत द्रव्यका क्षेपण होता है। उससे आगे निक्षेपके अन्तिम समय तक विशेषहीन विशेषहीन द्रव्यका क्षेपण होता है।
यह उदयावलिसे उपरितन स्थितिमें स्थित द्रव्यके अपकर्षणकी प्रक्रिया है। इस स्थितिसे भी उपरितन स्थितिका अपकर्षण होने पर निक्षेप तो जितना पूर्वमें बतलाया है उतना ही रहता है । मात्र अतिस्थापनामें एक समयकी वृद्धि हो जाती है । शेष सब विधि पूर्ववत् है। इस प्रकार उत्तरोत्तर उपरिम उपरिम स्थितिका अपकर्षण होने पर निक्षेपका प्रमाण वही रहता है। मात्र अतिस्थापनामें उत्तरोचर एक एक समयकी वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार अतिस्थापनाके एक प्रावलिप्रमाण होने तक यही क्रम चाल रहता है। इसके अागे सर्वत्र प्रतिस्थापनाका प्रमाण एक श्रावलि ही रहता है. परन्तु निक्षेपमें वृद्धि होने लगती है और इस प्रकार वृद्धि होकर उत्कृष्ट निक्षेप एक समय अधिक दो श्रावलि कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि जो जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर बन्धावलिके बाद अग्रस्थितिका अपकर्षण करता है उसका अतिस्थापनावलिको छोड़कर शेष सब स्थितियों में क्षेपण होता है, इसलिए उत्कृष्ट निक्षेपका उक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
____ यह निर्व्याघातकी अपेक्षा अपकर्षणका विचार है। व्याघातकी अपेक्षा विचार करने पर स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होते समय अतिस्थापना जहाँ जितना स्थितिकाण्डक हो एक समय कम तत्प्रमाण होती है। उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका प्रमाण श्रागममें अन्तःकोड़ाकोड़ी कम कर्मस्थितिप्रमाण बतलाया है, इसलिए इसमेंसे एक समय कम करनेपर शेष सब स्थिति अन्तिम फालिके पतनके समय प्रतिस्थापना रूप रहती है अतः उत्कृष्ट अतिस्थापना तत्प्रमाण होंनेमें कोई बाधा नहीं श्राती। विशेष खुलासा मूलसे जान लेना चाहिए । स्थिति उत्कर्षण-नूतन बन्धके सम्बन्धसे सत्तामें स्थित कर्मप्रदेशोंकी स्थितिका बढ़ना स्थिति
है। इसका भी व्याख्यान निर्व्याघात और व्याघातकी अपेक्षा दो प्रकारसे किया है। जहाँ पर कमसे कम एक श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निक्षेपके साथ एक श्रावलिप्रमाण अतिस्थापना होनेमें किसी प्रकारका व्याघात सम्भव नहीं है वह निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण और जहाँ पर उक्त निक्षेपके साथ एक श्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके प्राप्त होने में बाधा आती है वह व्याघातविषयक उत्कर्षण है। खुलासा इस प्रकार है-विवक्षित सावस्थितिसे एक समय अधिक स्थितिबन्ध होने पर उस स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि वहाँ अतिस्थापना और निक्षेप दोनोंका अत्यन्त प्रभाव है । विवक्षित सत्त्वस्थितिसे दो समय अधिक स्थितिबन्धके होने पर भी विवक्षित स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता। इस प्रकार विवक्षित सत्त्वस्थितिसे तीन समयसे श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक स्थितिबन्ध होने पर भी विवक्षित स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यद्यपि यहाँ पर श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण अतिस्थापना उपलब्ध होती है तो भी अभी निक्षेपका अत्यन्त अभाव होनेसे विवक्षित स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता। इसी प्रकार श्रागे भी जब तक श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक और स्थितिबन्ध प्राप्त न हो तब तक विवक्षित स्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि श्रतिस्थापनाके ऊपर निक्षेपका प्रमाण कमसे कम श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है, किन्तु अभी वह प्राप्त नहीं हुअा है। हाँ इतना अधिक और स्थितिबन्ध प्राप्त हो जाय तो विवक्षित स्थितिका उत्कर्षण होकर श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको छोड़ भागेके श्रावलिके असंख्यात भाग
स्थितिबन्धमें उसका निक्षेप होता है। यह व्याघात विषयक उत्कर्षणका जघन्य भेद है। यहाँ अतिस्थापना और निक्षेप दोनों ही अलग-अलग श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसके श्रागे एक श्रावलि होने तक अतिस्थापना बढ़ती है, निक्षेप उतना ही रहता है। तथा एक श्रावलिप्रमाण
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श्रतिस्थापनाके हो जाने पर निक्षेप बढ़ता है, अतिस्थापना उतनी ही रहती है। यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि जब तक अतिस्थापना एक श्रावलिसे कम रहती है तब तक व्याघातविषयक उत्कर्षण कहलाता है और पूरी एक श्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके होने पर निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण होता है। अव्याघातविषयक उत्कर्षणमें अतिस्थापना कमसे कम एक श्रावलिप्रमाण और अधिकसे अधिक उत्कष्ट श्राबाधाप्रमाण होती हैं। तथा निक्षेप कमसे कम श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और अधिकसे अधिक उत्कृष्ट श्राबाधा और एक समय अधिक एक श्रावलि न्यून उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण होता है। व्याघातविषयक जयन्य अतिस्थापना कमसे कम श्रावलिके असंख्थातवें भागप्रमाण और अधिकसे अधिक एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण होती है। तथा निक्षेप मात्र श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है।
मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम यह स्थिति अपकर्षण और स्थिति उत्कर्षणका सामान्य स्पष्टीकरण है। आगे मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमकी मीमांसा २३ अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर की गई है और इसके बाद भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इन अधिकारोंका अवलम्बन लेकर भी उसका विचार किया है। २३ अनुयोगद्वारोंके नाम ये हैं-श्रद्धाच्छेद, सर्व, नोसर्व, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रव, अध्रव, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यतः स्थिति जघन्य भी होती है और उत्कृष्ट भी होती है अतः इन अनुयोगद्वारोंके श्राश्रयसे विचार करते समय प्रत्येक अनुयोगद्वारको जघन्य और उत्कृष्ट इन दो भागोंमें विभक्त किया गया है। तथा स्थितिके अजघन्य भेदका जघन्यप्ररूपणाके अन्तर्गत और अनुत्कृष्ट भेदका उत्कृष्ट प्ररूपणाके अन्तर्गत विचार किया है। श्रद्धाच्छेदका प्रारम्भ करते हुए मात्र एक चर्णिसूत्र अाया है। शेष मूलस्थितिसंक्रमसम्बन्धी समस्त निरूपण जयधवला. टीका द्वारा किया गया है।
उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम
उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रममें २४ अनुयोगद्वार हैं। अनुयोगद्वारोंके नाम वही हैं जो मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमके कथनके प्रसंगसे बतला पाये हैं। मात्र यहाँ एक सन्निकर्ष अनुयोगद्वार बढ़ जाता है। २४ अनुयोगद्वारोंके कथनके बाद भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इन अधिकारोंका निरूपण होने पर उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रम समाप्त होता है।
प्रकृतियों की संक्रमसे उत्कृष्ट स्थिति दो प्रकारसे प्राप्त होती है—एक तो बन्धकी अपेक्षा और दुसरी मात्र संक्रमकी अपेक्षा । मिथ्यात्वका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और सोलह कषायोंका चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, अतः इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद क्रमसे दो श्रावलि कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और दो श्रावलि कम चालीस कोड़ाफोड़ी सागर बन जाता है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर बन्धावलिके बाद उदयावलिसे उपरितन निषेकोंका ही संक्रम सम्भव है, अतः यहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रभ अद्धाच्छेदमें अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेंसे दो-दो श्रावलिप्रमाण स्थिति ही कम हुई है। किन्तु नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ीसागर नहीं होता, इसलिए इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम अद्धाच्छेद बन्धावलि, संक्रमावलि और उदयावलि न्यून चालीस कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण ही प्राप्त होता है। कारण स्पष्ट है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उकृष्ट स्थितिसंकम अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण ही होता है, क्योंकि जो मिथ्या
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दृष्टि जीव मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्धकर श्रन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है, उसके मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिका ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रम होता है । इस प्रकार इन दोनों प्रकृतियोंकी जब यत्स्थिति ही मिध्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्त कम है तो इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद तो कम होगा ही यह उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेदका विचार है । जघन्य स्थिति संक्रम श्रद्धाच्छेद में इतना ही वक्तव्य है कि सम्यक्त्व और लोभ संज्वलनका स्वोदयसे क्षय होता है, इसलिए इनका जघन्य स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद एक स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि इन दोनों कर्मोंकी एक समय अधिक एक श्रावलिप्रमाण जघन्य स्थितिके शेष रहने पर उदयावलिसे उपरिम स्थितिका संक्रम बन जाता है । किन्तु शेष प्रकृतियोंका स्वोदयसे क्षय नहीं होता, इसलिए इनकी अन्तिम फालिका परोदयसे पतन होते समय जो श्रायाम होता है वही इनका जघन्य स्थिति संक्रम श्रद्धाच्छेद है | यह स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेदका विचार है । स्वामित्वका विचार इसी श्राधारसे कर लेना चाहिए । विशेष स्पष्टीकरण मूल में किया ही है। तथा इसी प्रकार शेष अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान भी मूलसे जान लेना चाहिए ।
अनुभाग संक्रम
कमी पने कार्यको उत्पन्न करनेकी शक्तिका नाम श्रनुभाग है और उसका अन्य स्वभावरूप बदल जाना अनुभागसंक्रम है । इसके मूलप्रकृति श्रनुभागसंक्रम और उत्तरप्रकृतिश्रनुभागसंक्रम ऐसे दो भेद हैं । उनमेंसे मूल प्रकृतिका अपकर्षण और उत्कर्षणके द्वारा अनुभागका बदल जाना मूलप्रकृतिश्रनुभागसंक्रम है तथा उत्तरप्रकृतियोंके अनुभागका उत्कर्षण, अपकर्षण और अन्य प्रकृतिसंक्रमके द्वारा अन्य अनुभागरूप परिणम जाना उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम है । इस प्रकार उक्त व्याख्यानसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पर अनुभागसंक्रमसे उत्कर्षण, अपकर्षण और अन्य प्रकृतिसंक्रम इन तीनों प्रकारसे अनुभागका परिवर्तन इष्ट है । उसमें सर्वप्रथम अनुभागं श्रपकर्षणका स्पष्टीकरण करते है ।
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अनुभागमपकर्षण - ऐसा नियम है कि जिस स्पर्धकका अपकर्षण होता है उससे नीचे नन्त स्पर्धक प्रतिस्थापनारूप होते हैं और उनसे नीचे श्रनन्त स्पर्धक निक्षेपरूप होते हैं । इसलिए प्रारम्भके जघन्य निक्षेप और जघन्य प्रतिस्थापनारूप स्पर्धकोंका अपकर्षण कभी नहीं होता यह सिद्ध होता है । यहाँ जघन्य निक्षेप और जघन्य प्रतिस्थापनासे उपरिम स्पर्धककी अपेक्षा यह कथन किया है । उस स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक अन्य सब स्पर्धकोंका अपकर्षण होना सम्भव है । इतना विशेष है कि व्याधातको छोड़कर सर्वत्र प्रतिस्थापना तो एक समान रहती है मात्र निक्षेपमें वृद्धि होती जाती है। जघन्य निक्षेप और जघन्य प्रतिस्थापनाका प्रमाण कितना है इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका जितना प्रमाण है उससे जघन्य निक्षेपका प्रमाण अनन्तगुणा है और उससे भी जन्य प्रतिस्थापनाका प्रमाण अनन्तगुणा है । यहाँ अनुभागका प्रकरण है, इसलिए यहाँ पर अनुभागकी अपेक्षा ही प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका विचार करना चहिए। तदनुसार जहाँ प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणासे लेकर उत्तरोत्तर अवस्थित चयकी हानि द्वारा दूनी हानि हो जाती है उस अवधि तकके श्रध्वानकी प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संज्ञा है । इस प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर में भव्यों से श्रनन्तगुणे अनन्त स्पर्धक होते हैं । इससे जघन्य निक्षेप और जघन्य प्रतिस्थापनाका प्रमाण अनुभागकी अपेक्षा कितना है यह स्पष्ट हो जाता है ।
यह तो जघन्य निक्षेप और जवन्य प्रतिस्थापनाका खुलासा है । उत्कृष्ट प्रतिस्थापना और उत्कृष्ट निक्षेपका विचार करते हुए वहाँ बतलाया हैं कि जवन्य प्रतिस्थापनासे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डक अनन्तगुणा होता है और उससे एक वर्गणा कम उत्कृष्ट प्रतिस्थापना होती है। यह उत्कृष्ट प्रतिस्थापना
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उत्कृष्ट अनुभागकाण्डककी अन्तिम वर्गणाके पतनके समय ही प्राप्त होती है। कारण कि जब अन्तिम वर्गणाका पतन होता है तब उसका निक्षेप अन्तिम वर्गणाके पतनके साथ ही निर्मूल होनेवाले उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको छोड़कर ही होता है, अन्यथा उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। यही कारण है कि यहाँ पर अन्तिम वर्गणासे हीन उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना बतलाई है। उत्कृष्ट निक्षेपका विचार करने पर वह उत्कृष्ट अतिस्थापनासे विशेष अधिक ही प्राप्त होता है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागके बन्ध करके एक श्रावलि बाद अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका अपकर्षण करने पर इसका निक्षेप जघन्य अतिस्थापनासे नीचे जितना भी अनुभागप्रस्तार है उस सबमें होता है। विचार करने पर निक्षेपरूप यह अनुभागप्रस्तार पूर्वोक्त उत्कृष्ट अतिस्थापनासे विशेष अधिक है। यही कारण है कि यहाँ पर उत्कृष्ट निक्षेपको उत्कृष्ट प्रतिस्थापनासे विशेष अधिक बतलाया है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि उत्कृष्ट अतिस्थापना तो व्याघातमें ही प्राप्त होती है परन्तु उत्कृष्ट निक्षेप श्रव्याघातमें ही प्राप्त होता है।
अनुभागउत्कर्षण-अवन्य प्रतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण अन्तिम स्पर्धकोंका उत्कर्षण नहीं होता। हाँ इन दोनोंके नीचे जो स्पर्धक है उसका उत्कर्षण हो सकता है। तथा इस स्पर्धकके नीचे जघन्य स्पर्धक पर्यन्त जितने भी स्पर्धक हैं उनका भी उत्कर्षण हो सकता है। मात्र सर्वत्र प्रतिस्थापना तो एक समान ही रहती है, निक्षेप बढ़ता जाता है। पहले अपकर्षणका निरूपण करते समय जघन्य और उत्कृष्ठ निक्षेप तथा जघन्य अतिस्थापनाका जो प्रनाण बतलाया है वही यहाँ पर भी समझना चाहिए । विशेष व्याख्यान न होनेके कारण यहाँ पर उसका स्पष्टीकरण नहीं किया है।
मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम यह उत्कर्षण, अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमविषयक जो प्ररूपणा की है उसे ध्यानमें रखकर वहाँ सर्वप्रथम २३ अनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिके श्राश्रयसे मूलप्रकृति अनुभागसंक्रमका विचार किया गया है। वे तेईस अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं-संज्ञा, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम, अजघन्यसंक्रम, सादि, अनादि, ध्रव, अध्रव, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, नानाजीवोंकी अपेक्षा काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ।
. इन २३ अनुयोगद्वारोंका विषय सुगम होनेसे इनपर चूर्णिसूत्र नहीं हैं। जयधवलामें भी साद्यादि चार, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर मात्र इन अनुयोगद्वारोंका ही स्पष्टीकरण किया गया है और शेष अनुयोगद्वारोंका विचार अनुभागविभक्तिके समान है यह बतलाकर उनका व्याख्यान नहीं किया है। इसी प्रकार भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिके अवान्तर अनुयोगद्वारोंका विचार करते हुए किसीका संक्षेपमें व्याख्यान कर दिया गया है और किसीका कथन अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना मात्र करके मूलप्रकृति अनुभागसंक्रमका कथन समाप्त किया गया है ।
उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रममें २४ अनुयोगद्वार हैं यह प्रतिज्ञा चूर्णिसूत्रमें ही की गई है । मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमके विषय परिचयके प्रसंगसे जिन २३ अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश किया है उनमें सन्निकर्षके मिलाने पर उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रमसम्बन्धी २४ अनुयोगद्वार हो जाते हैं। उनमें सर्वप्रथम संज्ञा अनुयोगद्वार है। इसका व्याख्यान करते हुए उसके घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा इस प्रकार दो भेद किये गये हैं। मिथ्यात्व अादि कर्मों के उत्कृष्ट आदि अनुभागसंक्रमरूप स्पर्धकोंमें कौन सर्वघाति है और कौन देशघाति है इसकी परीक्षाका नाम घातिसंज्ञा है, क्योंकि घातिकर्मोंके अनुभागबन्धको अपेक्षा
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सर्वघाति और देशघाति ऐसे दो भेद हैं। अतएव संक्रमकी अपेक्षा भी उसके दो भेद प्राप्त होते हैं। उसमें भी उन संक्रमरूप अनुभागस्पर्धकोंकी एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिकरूपसे मीमांसाका नाम स्थानसंज्ञा है। अन्यत्र लता, दारु, अस्थि और शैल ये संज्ञाएँ श्राई हैं । जहाँ मात्र लतारूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी एकस्थानिक संज्ञा है, जहाँ लता और दारुरूप या मात्र दारुरूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी द्विस्थानिकसंज्ञा है, जहाँ दारु और अस्थिरूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी त्रिस्थानिक संज्ञा है तथा जहाँ दारु, अस्थि और शैलरूप अनुभाग उपलब्ध होता है उसकी चतुःस्थानिक संज्ञा है। यहाँ मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंमेंसे किस प्रकृतिका अनुभाग घाति और स्थानकी अपेक्षा किस प्रकारका होता है इसका स्पष्टीकरण करते हए बतलाया है कि मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका अनुभाग सर्वघाति तो होता ही है । उसमें भी वह विस्थानिक, त्रिस्थानिक या चतुःस्थानिकरूप ही होता है। एकस्थानिक नहीं होता, क्योंकि एकस्थानिक अनुभाग नियमसे देशघाति होता है। उसमें भी उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे चतुःस्थानिक होता है और जघन्य अनुभाग नियमसे विस्थानिक होता है। शेष अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभाग विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक तीनों प्रकारका होता है। सम्यगमिथ्यात्व यद्यपि सर्वघाति प्रकृति है परन्तु उसका उत्कृष्ट श्रादि चारों प्रकारका अनुभाग द्विस्थानिक ही होता है। संज्वलन और पुरुषवेदके अनुभागका विचार अक्षपक और अनुपशामकके तो मिथ्यात्वके समान हो है । मात्र उपशामक और क्षपकके उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम द्विस्थानिक और सर्ववाति ही होता है जो अपूर्वकरणमें चढ़ते हुए प्रथम समयमें उपलब्ध होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक या एकस्थानिक तथा सर्वघाति या देशघाति दोनों प्रकारका होता है। इसका एकस्थानिक अनुभागसंक्रम अन्तरकरणके बाद एकस्थानिक अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके शुद्ध नवकबन्धके संक्रमणके समय और कृष्टिवेदक कालके भीतर उपलब्ध होता है। तथा देशघातिपना भी वहीं पर उपलब्ध होता है। इनका जघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति और एकस्थानिक होता है जो यथासम्भव नवकबन्धकी कृष्टियोंके संक्रमणके अन्तिम समयमें उपलब्ध होता है और अजघन्य अनुभागसंक्रम अनुत्कृष्ट एकस्थानिक या द्विस्थानिक तथा सर्वघाति या देशघाति दोनों प्रकारका होता है। अब रही सम्यक्त्व प्रकृति सो इसका अनुभागसंक्रम नियमसे देशघाति होकर एकस्थानिक या द्विस्थानिक होता है। उसमें उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम नियमसे विस्थानिक ही होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक या एकस्थानिक दोनों प्रकारका होता है । क्षपणाके समय इसकी स्थिति अाठ वर्षकी रहने पर वहाँसे लेकर एकस्थानिक अनुभाग होता है और इससे पूर्व द्विस्यानिक अनुभाग होता है। इसका जघन्य अनुभागसंक्रम नियमसे एकस्थानिक होता है, क्योंकि एक समय अधिक श्रावलिप्रमाण निषेक रहने पर एकस्थानिक जघन्य अनुभागसंक्रम उपलब्ध होता है। तथा अजघन्य अनुभागसंक्रम एफस्थानिक या द्विस्थानिक दोनों प्रकारका होता है। स्पष्टीकरण सुगम है। इस प्रकार संज्ञाके विचारपूर्वक पूर्वमें कहे गये अनुयोगद्वारोंके क्रमसे विचार कर उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम प्रकरण समाप्त किया गया है।
प्रदेशसंक्रम यह प्रदेशसंक्रम अधिकार है। इसका निर्देश करते हुए प्रारम्भ में बतलाया है कि मूल प्रकृति प्रदेशसंक्रम नहीं है । क्यों नहीं है इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बतलाया है कि ऐसा स्वभाव है। बात यह है कि ज्ञानावरण कर्म अपने सत्त्वकालमे ज्ञानावरणरूप ही रहता है, दर्शनावरण कर्म दर्शनावरणरूप ही रहता है। यही व्यवस्था अन्य कर्मोकी भी है। यही कारण है कि यहाँ पर मूलप्रकृति प्रदेशसंक्रमका निषेध किया है।
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उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रम उत्तर प्रकृतिप्रदेशसंक्रमका विचार करते हुए सर्वप्रथम उसके अर्थपदका उल्लेख करके बतलाया है कि जिस प्रकृतिके कर्मपरमाणु अन्य प्रकृतिमें ले जाये जाते हैं उस प्रकृतिका वह प्रदेशसंक्रम कहलाता है। जैसे मिथ्यात्वके कर्मपरमाणु सम्यक्त्वमें संक्रान्त किये जाते हैं, इसलिए वह मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम कहलाता है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंका भी प्रदेशसंक्रम जानना चाहिए । प्रदेशसंक्रमके विषयमें यह अर्थपद है। इसके अनुसार प्रदेशसंक्रमके पाँच मेद हैं। उनके नाम ये है-उद्वेलनासंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ।
उद्वलनासंक्रम-करण परिणामोंके बिना रस्सीके उकेलनेके समान कर्मपरमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप परिणम जाना उद्वेलनासंक्रम है। मोहनीय कर्ममें यह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो कर्मप्रकृतियोंका ही होता है। इसका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यह कहाँ होता है इसका विशेष खुलासा करते हुए बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव जब सम्यक्त्व परिणामको छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें जाता है तो मिथ्यात्वमें जानेके समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक वह सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वका अधःप्रवृचिसक्रम करता है। उसके बाद इन दोनों कर्मोंका उद्वेलनासंक्रम प्रारम्भ करता है। इसका काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतने काल तक इन कर्मोंका उबेलनाभागहारकेद्वारा प्रतिसमय विशेषहीन विशेषहीनक्रमसे प्रदेशसंक्रम करता है। उत्तरोत्तर इन कर्मोका द्रव्य घटता जाता है इसलिए प्रत्येक समयमें अपने पूर्व समयकी अपेक्षा विशेष हीन द्रव्यका ही संक्रम होता है ऐसा यहाँ अभिप्राय जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इन दोनों को अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके समय उपान्त्य फालिके पतन होने तक गुणसंक्रम और अन्तिम फालिके पतनके समय सर्वसंक्रम होता है।
विध्यातसंक्रम-वेदकसम्यक्त्वके कालमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक सर्वत्र मिथ्यात्व, और सम्यग्मिथ्यात्वका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके भी गुणसंक्रमके काल के बाद सर्वत्र उक्त प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है। इसका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। फिर भी यह उद्वेलनासंक्रमके भागहारसे असंख्यातगुणा हीन है। इसीप्रकार अन्य जिन प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है उसका विचार समझ कर कर लेना चाहिए।
अधःप्रवृत्तसंक्रम-बन्ध प्रकृतियोंका अपने बन्धके समय जो संक्रम होता है वह अधःप्रवृत्तसंक्रम है । श्वेताम्बर कर्मग्रन्थों में 'अधाप्रवृत्त' शब्दका संस्कृतमें रूपान्तर 'यथाप्रवृत्त' किया है। इसीप्रकार 'पडिग्गह' शब्दका रूपान्तर 'पतद्ग्रह' किया है। अधःप्रवृत्तसंक्रमका भागहार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उदाहरणार्थ चारित्रमोहनीयकी २५ प्रकृतियोंका अपने बन्धकालमें बध्यमान प्रकृतियोंमें अधाप्रवृत्तसंक्रम होता है।
गुणसंक्रम-प्रत्येक समयमें असंख्यात श्रेणीरूपसे होनेवाले संक्रमका नाम गुणसंक्रम है। यह दर्शनमोहनीयकी क्षपणा, चारित्रमोहनीयकी क्षपणा, उपशमश्रेणि, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे होता है । तथा सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अन्तिम काण्डकके पतनके समय होता है। मात्र अन्तिम कारटककी अन्तिम फालिके पतनके समय गुणसंक्रम नहीं होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
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[18] सर्वसंक्रम-सब कर्मपरमाणुओंका एकसाथ संक्रममा नाम सर्वसंक्रम है। यह उद्वेलना, विसंयोजना और क्षपणामें अन्तिम काण्डकी अन्तिम फालिके पतनके समय होता है। इसके भागहारका प्रमाण एक है।
अल्पबहुत्व-इन पाँचौं संक्रमोंके अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि उद्वेलनासंक्रममें कर्मपरमाणु सबसे स्तोक होते हैं, उनसे विध्यातसंक्रममें असंख्यातगुणे होते हैं, उनसे अधःप्रवृत्तसंक्रममें असंख्यातगुणे होते है, उनसे गुणसंक्रममें असंख्यातगुणे होते हैं और उनसे सर्वसंक्रममें असंख्यातगुणे होते हैं। कारणका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि इन पाँचों संक्रमोंका भागहार उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा हीन होता है। यही कारण है कि इन संक्रमोंमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा द्रव्य प्राप्त होता है। "
भागाभाग- श्रागे उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रमका कथन समुत्कीर्तना श्रादि २४ अनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थानके श्राश्रयसे किया जायगा यह बतलाफर २४ अनुयोगद्वारोंके मध्य भागाभागके जीवविषयक भागाभाग और प्रदेशविषयक भागाभाग ऐसे दो भेद करके स्वस्थान भागाभागका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि मिथ्यात्वके द्रव्यके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग सर्वसंक्रमका द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर बहुभाग गुणसंक्रमका द्रव्य है । शेष एक भाग विध्यात संक्रमका द्रव्य है। इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृतिके प्रदेशोंके सर्वसंक्रम, गुणसंक्रम और विध्यातसंक्रम ये तीन संक्रम ही होते हैं, अन्य दो संक्रम नहीं होते। कारण कि मिथ्यात्व उदलना प्रकृति न होनेसे इसका उद्वलना संक्रम सम्भव नहीं है और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व बन्धप्रकृति न होनेसे मिथ्यात्वका अधःप्रवृत्तसंक्रम भी सम्भव नहीं है।
____सम्यक्त्वप्रकृतिके द्रव्यके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग अधःप्रवृत्त संक्रमका द्रव्य है, शेष एक भागके असंख्यात बहुभाग करने पर उनमेंसे बहुभाग सर्वसंक्रमका द्रव्य है, शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग गुणसंक्रमका द्रव्य है तथा शेष एक भाग उद्वलना संक्रमका द्रव्य है। इस प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके प्रदेशोंके उक्त चार संक्रम ही होते हैं, विध्यातसंक्रम नहीं होता, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृति मात्र प्रतिग्रहप्रकृति है, संक्रमप्रकृति नहीं है। और विध्यात संक्रम सम्यग्दर्शनरूप अवस्थामें ही. उपलब्ध होता है, इसलिए सम्यक्त्व प्रकृतिमें विध्यातसंक्रमका विधान नहीं किया है।
सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसेब सर्वसंक्रमका द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग गुणसंक्रमका द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग अधःप्रवृतसंक्रमका द्रव्य है, शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग विध्यातसंक्रमका द्रव्य है तथा शेष एक भाग उद्वेलनासंक्रमका द्रव्य है। यहाँ पाँचों संक्रम बतलाये है। कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्यात्वकी अपेक्षा प्रतिग्रह प्रकृति है और सम्यक्त्व प्रकृतिकी अपेक्षा संक्रमप्रकृति है, इसलिए इसका विध्यातसंक्रम बन जानेसे इसके पाँचों संक्रम होनेका निर्देश किया है। बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पति और शोक इन प्रकतियोंके संक्रमोंका कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। मात्र इन प्रकतियोंका उद्वेलना संक्रम नहीं होता।
पुरुषवेद, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन और मायासंज्वलन इन प्रकृतियों के अपने अपने द्रव्यके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहभाग सर्वसंक्रमका द्रव्य है। शेष एक भाग अधःप्रवृत्तसंक्रमका द्रव्य है।
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[19] सम्यग्दृष्टि जीवके मात्र पुरुषवेदका ही बन्ध होता है और बन्धकालमें विध्यातसंक्रम सम्भव नहीं, इसलिए तो इसके विध्यातसंक्रमका विधान नहीं किया। यही बात क्रोधसंज्वलन आदि तीन प्रकृतियोंके विषयमें जान लेना चाहिए। तथा इन चारों प्रकृतियोंका अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें भी बन्ध होता है, इसलिए इनके गुणसंक्रमका विधान नहीं किया । इनका उद्वेलनासंक्रम नहीं होता यह तो स्पष्ट ही है। इस प्रकार इन प्रकृतियोंके शेष दो संक्रम होते हैं यह स्पष्ट हो जाता है।
हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन प्रकृतियोंके अपने-अपने द्रव्यके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभाग सर्वसंक्रमका द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभाग गुणसंक्रमका द्रव्य है और शेष एक भाग अधःप्रवृत्तसंक्रमका द्रव्य है। इन चारों प्रकृतियोंका श्राठवें गुणस्थानमें भी बन्ध होता है, इसलिए इनका भी विध्यातसंक्रम नहीं है, क्योंकि बन्धव्युच्छितिके बाद इनका-गुणसंक्रम होने लगता है। इनका उद्बलना संक्रम नहीं होता यह तो स्पष्ट ही है।
लोभसंज्वलनका मात्र अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि इसका एक तो नौवें गुणस्थानमें भी बन्ध होता है, दूसरे नौवें गुणस्थानमें अन्तरकरण क्रियाके बाद श्रानुपूर्वी संक्रम प्रारम्भ हो जाता है,
यह अपने उदयसे क्षयको प्राप्त होनेवाली प्रकृति है और चौथे यह उद्वेलना प्रकृति नहीं है, इसलिए इसके अन्य चारों संक्रमोंका निषेध कर मात्र अधःप्रवृत्तसंक्रमका विधान किया है। स्वोदयसे क्षयको तो सम्यक्त्व प्रकृति भी प्राप्त होती है पर उसमें जो गुणसंक्रम और सर्वसंक्रमका विधान किया है वह क्षपणाकी अपेक्षासे नहीं किया है। किन्तु उद्वेलनाके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन होते समय उपान्त्य समय तक उद्लनासंक्रम न होकर गुणसंक्रम होता है और अन्तिम समयमें सर्वसंक्रम होता हैं, इस अपेक्षासे इस प्रकृतिके गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम होनेका विधान किया है।
___ यह मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियों के पाँच संक्रमोंकी अपेक्षा भागाभागका विचार है। स्वामित्व आदि शेष अनुयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिक्षेप वृद्धि और स्थान इन अनुयोगद्वारोंका कथन विस्तारसे मूलमें किया ही है और इन अनुयोगद्वारों के विषयमें स्वतन्त्र वक्तव्य नहीं है, , इसलिए यहाँ पर अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है।
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विषय
अनुभागसंक्रस
मंगलाचरण अनुभागसंक्रमके दो भेद
श्रनुभाग संक्रमका लक्षण
मूलप्रकृति अनुभागसंक्रमका लक्षण
उत्तरप्रकृति श्रनुभागसंक्रमका लक्षण प्रकृतमें उपयोगी पदका निरूपण श्रर्थपदकी विशेष व्याख्या
अपकर्षणका कथन
कितने स्पर्धकों का अपकर्षण नहीं होता और किनका होता है
श्रल्पबहुत्व
प्रदेशगुणहानि स्थानान्तरका लक्षण उत्कर्षणका कथन
किन स्पर्धकोंका उत्कर्पण नहीं होता और
किनका होता है।
अल्पबहुत्व
मूलप्रकृति अनुभागसंक्रम
प्रकृतमें उपयोगी २३ श्रनुयोगद्वारोंके साथ भुजगार, पढनिक्षेप और वृद्धिके कथनकी सूचना संज्ञा दी भेदोका नामनिर्देश
सर्वसंक्रम श्रादि ६ श्रनुयोगद्वारों को श्रनुभाग विभक्तिके समान जाननेकी सूचना सादि श्रादि ४ श्रनुयोगद्वारोंका व्याख्यान स्वामित्व के दो भेद और उनका निरूपण कालके दो भेद और उनका निरूपण अन्तरके दो भेद और उनका निरूपण शेष श्रनुयोगद्वारोंको अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना
विषय-सूची
पृष्ठ
१
२
२
२
२
३
३.
४
*
५
६
Ε
[ 20 ]
Ε
१०
११
१२
१२
१२
१३
१४
१५.
१६
भुजगार अनुभागसंक्रम
समुत्कीर्तना श्रादि १३ श्रनुयोगद्वारोंकी सूचना १६
विषय
समुत्कीर्तनानुगम स्वामित्वानुगम
कालानुगम
अन्तरानुगम
नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम
भागाभागानुगम परिमाणानुगम
क्षेत्र और स्पर्शनको अनुभाग विभक्तिके समान जाननेकी सूचना
कालानुगम
अन्तरानुगम
भावानुगम
अल्पबहुत्वानुगम
पदनिक्षेपअनुभाग संक्रम
तीन अनुयोगद्वारोंकी सूचना
समुत्कीर्तनाको अनुभागविभक्ति के समान जानने की सूचना
स्वामित्वके दो भेद और उनका कथन श्रल्पबहुत्वको अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना
समुत्कीर्तना
स्वामित्व
वृद्धि अनुभाग संक्रम
१३ श्रनुयोगद्वारों की सूचना
काल
अन्तर श्रादि शेष श्रनुयोग द्वारों को श्रनुभागविभक्तिके समान जानने की सूचना
श्रल्पबहुत्व
उत्तरप्रकृति अनुभागसंक्रम
२४ श्रनुयोगद्वारोंके नाम
संज्ञाके दो भेद
घातिसंज्ञाका स्पष्टीकरण
पृष्ठ
१६
१६
१६
.१६
१७
१७
१७
१५
१८
१५
१८
१८
१६
१६
१६
१६
MMM
१६
१६
२०
२०
२०
२०
२०
२१
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________________
६६
६७
55
११२
[21] विषय
पृष्ठ विषय स्थानसंज्ञाका ,
२१ जघन्य अनुभागसंक्रम अल्पबहुत्व मोहनीयके अवान्तर भेदोंमें दोनों संज्ञाओंका नरकगतिमें जघन्य अनुभागसंक्रम अल्पबहुत्व ८८ विचार
२१ शेष गतियों में नरकगतिके समान जाननेकी सूचना ६२ गतिश्रादि मार्गणाओंके श्राश्रयसे दोनों संज्ञाओं एकेन्द्रियोंमें जघन्य अनुमागसंक्रम अल्पबहुत्व ६२ का विचार
२४.
भुजगारअनुभागसंक्रम सर्वसंक्रम श्रादि ६ अनुयोगद्वारों को अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना २६ १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना स्वामित्वके कहने प्रतिज्ञा.
अर्थपदके कहनेकी प्रतिज्ञा उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम स्वामित्व
भुजगारपदका अर्थ जघन्य अनुभागसंक्रम स्वामित्व
अल्पतरपदका अर्थ एक जीवकी अपेक्षा काल
३६
अवस्थितपदका अर्थ उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम काल
अवक्तव्यपदका अर्थ जघन्यअनुभाग संक्रमकाल
समुत्कीर्तना श्रादेश प्ररूपणा
स्वामित्व
६७ एकजीवकी अपेक्षा अन्तर
एक जीवकी अपेक्षा काल ४८
१०० उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम अन्तर
एक जीवकी अपेक्षा अन्तर
१०७ श्रादेशप्ररूपणाको अनुभागविभक्तिके समान .
भंगविचय जाननेकी सूचना
५२
भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शनको जघन्य अनुभागसंक्रम अन्तर
अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना ११४ अादेशप्ररूपणा
नाना जीवांकी अपेत्रा काल
११४ सन्निकर्षके कहनेकी प्रतिज्ञा
नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सन्निकर्ष
भाव
११६ जवन्य अनुभागसंक्रम सनिकर्ष
अल्पबहुत्व
११६ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
पदनिक्षेप उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम भंगविचय ६६ ३ अनुयोगद्वारोंके कहनेकी सूचना जघन्य अनुभागसंक्रम भंगविचय
प्ररूपणा
१२२ भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शनको उत्कृष्ट स्वामित्व अनुभागविभक्ति के समान जाननेका सूचना
जघन्य स्वामित्व नाना जीवोंकी अपेक्षा काल
उत्कृष्ट अल्पबहुत्व
१३८ उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम काल
जघन्य अल्पबहुत्व
१४० जघन्य अनुभागसंक्रम काल नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरउत्कृष्ट अनुभागसंक्रम अन्तर
३ अनुयोगद्वारोंके कहनेकी सूचना १४३ जघन्य अनुभागसंक्रम अन्तर
समुत्कीर्तना
स्वामित्व भाव
१४७ अल्पबहुत्व
अल्पबहुत्व उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम अल्पबहत्वको उत्कृष्ट
स्थान अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना ८३ चार अनुयोगद्वारोंके कहनेकी सूचना १५६
११४
७०
वृद्धि
१४३
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२१७
१६७
२३७
२५४
[22] विषय
पृष्ठ विषय समुत्कीर्तना
१५६ जघन्य और उत्कृष्ट संक्रम कालका एकसाथ प्ररूपणा ओर प्रमाणका एकसाथ कथन १५७ निरूपण
२१२ अल्पबहुत्व
१६२ जयघवलाद्वारा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट संक्रम स्वस्थान अल्पबहुत्व ६३. कालका निरूपण
२१२ परस्थान अल्पबहुत्व
१६३ जयधवला द्वारा जघन्य और अजघन्य संक्रम प्रदेशसंक्रम
कालका निरूपण अन्तरके कहनेको प्रतिज्ञा
२२३ 'मंगलाचरण
उत्कृष्ट संक्रमके अन्तरका विचार .२२३ प्रदेशसंक्रम कहनेकी प्रतिज्ञा
१६८ जघन्य संक्रमके अन्तरका विचार
२३० मलप्रकृतिप्रदेशसंक्रमका होना नहीं बनता १६८ सन्निकर्षके कहनेकी प्रतिज्ञा
२३७ उत्कृष्ट संक्रम सनिकर्ष उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रम जघन्य संक्रम सन्निकर्ष
२४३ प्रकृतमें उपयोगी अर्थपदका निर्देश १६८ उत्कृष्ट संक्रम परिणाम
२५२ अर्थपदके समर्थनमें उदाहरण व अन्यत्र
जघन्य संक्रम परिणाम
२५३ इसी प्रकार जाननेकी सूचना १६६ उत्कृष्ट-जघन्य संक्रम क्षेत्र
२५३ प्रदेशसंक्रमके पाँच भेद
१७० उत्कृष्ट संक्रम स्पर्शन उनके नाम
१७० जघन्य संक्रम स्पर्शन
२५८ उदलनासंक्रमका विशेष विचार १७० नानाजीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट संक्रमकाल
२६२ विध्यातसंक्रमका विशेष विचार
१७१ नानाजीवोंकी अपेक्षा जवन्य संक्रमकाल २६३ अधःप्रवृत्तसंक्रमका विशेष विचार
१७१ नानाजीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट संक्रम अन्तर २६४ गुणसंक्रमका विशेष विचार
१७२
नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य संक्रम अन्तर २६४ सर्वसंक्रमका विशेष विचार १७२
२६५ पाँचों संक्रमोंमें अल्पबहुत्व
१७२
अल्पबहुत्वके कहनेकी प्रतिज्ञा २४अनयोगद्वार व भुजगार आदिकी सूचना १७३ उत्कृष्ट संक्रम अल्पबहुत्व
२६५ ममत्कीर्तनाके दो मेद व उनका निरूपण १७३ नरकगतिमें उत्कृष्ट संक्रम श्रल्पबहत्व २६६ भागाभागके दो मेद १७४ शेष गतियों में जाननेकी सूचना
२७२ प्रदेशभागाभागके भी दो भेद
१७४ एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट संक्रम अल्पबहुत्व २७३ उत्कृष्ट प्रदेशभागाभाग १७४ जघन्य संक्रम अल्पबहुत्व
२७५ स्वस्थान भागाभाग १७४ नरकगतिमें जघन्य संक्रम अल्पबहुत्व
२८१ बघन्य प्रदेशभागाभागके जाननेकी सूचना १७५
तिर्यञ्चगतिमें नरकगतिके समान जाननेकी सर्वसंक्रम नोसर्वसंक्रम
१७७
सूचना उत्कृष्टसंक्रम श्रादि चारको प्रदेशविभक्तिके
देवगतिमें विशेष विचार समान जाननेकी सूचना .
१७६
एकेन्द्रियमें जवन्य संक्रम अल्पबहुत्व २८५ सादि श्रादि चार अनुयोगद्वार
१७६
भुजगार स्वामित्वके कहनेकी प्रतिज्ञा
१७६ उत्कृष्ट स्वामित्व
१७७ भुवगार विषयक अर्थपदके कहनेकी सूचना २८९ जयन्य स्वामित्व १६४ भुबमारपदका अर्थ
२८९ एक जीवकी अपेक्षा कालके कहनेकी प्रतिज्ञा २११ अल्पतरपदका अर्थ
२६०
भाव
२६५
२८४ २८५
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विषय
श्रवस्थितपदा अर्थ वक्तव्यपदका श्रर्थ
समुत्कीर्तना
स्वामित्व
एक जीवकी अपेक्षा काल
चार गतियोंमें कालका व्याख्यान
एकेन्द्रियोंमें कालका व्याख्यान
एक जीवकी अपेक्षा श्रन्तर चार गतियों में श्रन्तरका व्याख्यान
भागाभाग
परिमाण
क्षेत्र
स्पर्शन
काल
[23]
अन्तर
भाव
पृष्ठ
३२२
३२६
३२८
३४४
३४६
एकेन्द्रियों में श्रन्तरका व्याख्यान नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचय
३५१
नानाजीवकी अपेक्षा कालके जाननेकी सूचना ३५६
३५६
२६०
२६०
२६१
२६४
३०६
३५८
३५६
३५६
३६२
३६४
३७२
विषय
श्रल्पबहुत्व
पदनिक्षेप
तीन श्रनुयोगद्वार और उनके नाम
प्ररूपणाके दोनों भेदोंका कथन स्वामित्वके कहनेकी सूचना
उत्कृष्ट वृद्धि श्रादिका स्वामित्व
जघन्य वृद्धि श्रादिका स्वामित्व
अल्पबहुत्वकथन
उत्कृष्ट श्रल्पबहुत्व
जघन्य श्रल्पबहुत्व
वृद्धि
तीन श्रनुयोद्वार कहने की प्रतिज्ञा समुत्कीर्तना
स्वामित्व और अल्पबहुत्व
प्रदेशसंक्रमस्थान
दो अनुयोगद्वारोंके कहनेकी प्रतिज्ञा
प्ररूपणा
श्रल्पबहुत्व
पृष्ठ
३७३
३७६
३८०
३८१
३८१
३६७
४१८
४१८
४२८
४३०
४३०
४३७
४३८
४३६
Page #27
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सा
सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमणिदं
सिरि-भगवंतगुणहरभडारओवइड कसा य पा हु डं
तस्स सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्थ
बंधगो णाम छट्ठो अत्याहियारो
अणुभागभागमेतो वि जत्थ दोसस्स संभवो णत्थि । तं पणमिय जिणणाहं संकममणुभागगोयरं वोच्छं ॥१॥
जिनमें अणुके जघन्य अविभागप्रतिच्छेदके बराबर भी दोष सम्भव नहीं है उन जिननाथको नमस्कार कर अनुभागसंक्रम नामक अधिकारका कथन करता हूँ॥१॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * अणुभागसंकमो दुविहो-मूलपयडिअणुभागसंकमो च उत्तरपयडिअणुभागसंकमो च।
१. एदस्स सुत्तस्स 'संकामेदि कदि वा' ति गुणहरभडारयस्स मुहकमल विणिग्गयगाहासुत्तावयवपडिबद्धाणुभागसंकमविवरणे पयट्टैण जइवसहपुजपादेण पउत्तस्स पसण्णगंभीरभावेणावद्विदस्स विवरणं कस्सामो। तं जहा-अणुभागो णाम कम्माणं सगकज्जुप्पायणसत्ती । तस्स संकमो सहावंतरसंकंती। सो अणुभागसंकमो ति बुच्चइ । सो वुण दुविहो-मूलुत्तरपयडिपडिबद्धाणुभागसंकमभेदेण, तइयस्स संकमपयारस्साणुवलंभादो। तत्थ मूलपयडीए मोहणीयसण्णिदाए जो अणुभागो जीवम्मि मोहुप्पायणसत्तिलक्षणो तस्स
ओकड्डुक्कडणावसेण भावंतरावती मूलपयडिअणुभागसंकमो णाम । उत्तरपयडीणं च मिच्छत्तादीणमणुभागस्स ओकड्डुक्कड्डण-परपयडिसंकमेहि जो सत्तिविपरिणामो सो उत्तरपयडिअणुभागसंकमो ति भण्णदे। एवं दुधाविहत्तो अणुभागसंकमो इदाणिमवसरपत्तो ति विहासिजदि ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्यो ।
wimwwwxxxmmmm अनुभागसंक्रम दो प्रकारका है-मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम और उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम।
६१. अब गुणधर भट्टारकके मुखकमलसे निकले हुए गाथासूत्रके 'संकामेदि कदिं वा' इस अवयवसे सम्बन्ध रखनेवाले अनुभागसंक्रमके विवरणमें प्रवृत्त हुए पूज्यचरण आचार्य यतिवृषभके द्वारा कहे गये और प्रसन्न गम्भीरभावसे अवस्थित हुए इस सूत्रका विवरण करते हैं। यथा--कर्मों की अपने कार्यको उत्पन्न करनेकी शक्तिका नाम अनुभाग है। उसका संक्रम अर्थात् अन्य स्वभावरूप संक्रान्त होना अनुभागसंक्रम है। वह मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम और उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रमके भेदसे दो प्रकारका है, क्योंकि संक्रमका तीसरा भेद नहीं उपलब्ध होता। उनमेंसे मोहनीय संज्ञावाली मूल प्रकृतिका जीवमें मोहोत्पादक शक्तिरूप जो अनुभाग है उसका अपकर्षण
और उत्कर्षणके कारण अन्य अनुभागरूप परिणम जाना मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम कहलाता है। तथा मिथ्यात्व आदि उत्तर प्रकृतियोंके अनुभागका अकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमके द्वारा अन्य अनुभागरूप परिणमन होना उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रम कहलाता है। इस प्रकार दो भागोंमें विभक्त हा अनुभागसंक्रम इस समय विशेष व्याख्याके लिए अवसरप्राप्त है यह इस सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ-अनुभागसंक्रमका अर्थ स्पष्ट है। यहाँ पर जिस बातका स्पष्टीकरण करना है वह यह है कि मूल प्रकृतियोंमें परस्पर संक्रम नहीं होता, इसलिए यहाँ पर मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमके लक्षण कथनके प्रसंगसे वह अपकर्षण और उत्कर्षण इनके आश्रयसे होता है यह कहा है। किन्तु उत्तर प्रकृतियोंमें अपनी जातिके भीतर परस्पर संक्रम होनेमें कोई बाधा नहीं है , इसलिए उसके लक्षण कथनके प्रसङ्गसे वह अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रम इन तीनोंके आश्रयसे होता है यह कहा है।
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गा० ५८ ]
अणुभागसंकमसरूवणिद्देसो
३
६२. संपहि अणुभाग संकम सरूवजाणावणट्ठमट्ठपदं वुच्चदे, तेण विणा परूवणाए कीरमाणाए सिस्साणं पडिवत्तिगउरवप्पसंगादो ।
* तत्थ अट्ठपदं ।
६३. तत्थाणंतरणिद्दि मूलुत्तरपयडिसंबंध मेयभिण्णे अणुभागसंकमे विहासणिज्जे पुत्रं गमणीयमद्रुपद, अण्गहा भावविसयणिण्गयाणुप्पत्ती दो ति भणिदं होइ ।
* अणुभागो प्रोकडिदो वि संकमो, उक्कडिदो बि संकमो, अरणपयडिं णीदो वि संकमो ।
९४. एदाणि तिष्णि अट्ठपदाणि', एदेहि तस्स सरूवपडिवती । तं जहा - saisatara अणुभागो संक्रमववएस लहद्रे, अहियरसस्स कम्मक्खंधस्स तत्थ हीणरसत्तेग विपरिणामदंसणादो | अवत्थादो अवत्थंतरसंकंती संकमो ति । एवमुकडिदो अण्गपर्याडि दो विकम, तत्थ पुण्यावस्थापरिच्चाणुत्तरावत्थावत्तिदंसणादो । एत्थोकडकड्डणालक्खणमट्ठपदं मूलुत्तर पयडीणमणुभाग संकमस्स साहारणभावेण णिहिदूं, उहयस्थ वि तदुभयपत्तीए पडिसेहाभावादो । अण्गपयडिं णीदो वि अणुभागो संकमो ति एवं तइअमट्ठपद
8 २. अब अनुभागसंक्रमके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए अर्थपद कहते हैं, क्योंकि उसके बिना प्ररूपणा करने पर शिष्योंको समझने में कठिनाई जा सकती है ।
* उसके विषयमें अर्थपद ।
६३. 'तत्र' अर्थात् पहले जो मूलप्रकृति और उत्तरप्रतिके भेदसे दो प्रकारका अनुभाग संक्रम कह ये हैं उसका विशेष व्याख्यान करते समय पहले अर्थपद जानने योग्य है, अन्यथा अनुभागसंक्रमविषयक निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है ।
* अपकर्षित हुआ अनुभाग भी संक्रम है, उत्कर्षित हुआ अनुभाग भी संक्रम है। और अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ अनुभाग भी संक्रम है ।
९४. ये तीनों अर्थपद हैं, क्योंकि इनके द्वारा उस ( अनुभाग संक्रम ) के स्वरूपका ज्ञान होता है । यथा - अपकर्षणको प्राप्त हुआ अनुभाग संक्रम संज्ञाको प्राप्त होता है, क्योंकि अधिक रसवाले कर्मस्कन्धका अपकर्षण होने पर हीन रसरूपसे विशेष परिणमन देखा जाता है। एक अवस्थासे दूसरी अवथारूप संक्रान्त होना संक्रम है । यह अर्थ यहाँपर घटित हो जाता है, इसलिए इसे संक्रम कहा है। इसी प्रकार उत्कर्षणको प्राप्त हुआ और अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ अनुभाग भी संक्रम है, क्योंकि इन दोनों अवस्थाओं में भी पूर्व अवस्थाके त्याग द्वारा उत्तर
स्थाकी प्राप्ति देखी जाती है। यहाँ पर अपकर्षण - उत्कर्षणलक्षण अर्थपद मूलप्रकृतिअनुभागक्रम और उत्तर प्रकृतिअनुभागसंक्रम इन दोनोंको विषय करता है, इसलिए इसका इन दोनों के साधारण रूपसे निर्देश किया है, क्योंकि इसकी इन दोनोंमें प्रवृत्ति होनेमें कोई बाधा नहीं आती । किन्तु 'अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ अनुभाग भी संक्रम है' यह तीसरा अर्थपद उत्तरप्रकृति अनुभागसंक्रमको ही विषय करता है, क्योंकि मूलप्रकृतिमें उसकी प्राप्ति असम्भव है । इस प्रकार अपकर्षण
१. श्र०प्रतौ तिरिण वि श्रपदाणि इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बन्धगो ६ मुत्तरपयडिविसयं चेव, मूलपयडीए तदसंभवादो। एवमोकड्डणादिवसेणाणुभागसंकमसंभवं' परूविय तत्थोकड्डणाविहाणपरूवणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो
* ओकडणाए पख्वणा।
६५. ओकड्डुक्कड्डणा-परपयडिसंकमलक्खणेसु तिसु संकमपयारेसु ओकड्डणाए ताव पवुत्तिविसेसजाणावण?मेसा परूवणा कीरइ त्ति पइण्णावयणमेदं ।
* पढमफयं ण मोकडिजदि । ६६. कुदो ? तत्थाइच्छावणा-णिक्खेवाणमदंसणादो। * विदियफद्दयं णमोक्कडिजदि।
. ६७. तत्थ वि अंइच्छावणा-णिक्खेवाभावस्स समाणसादो। ण केवलं पढम-विदियफद्दयाणमेस कमो, किंतु अण्णेसि अणंताणं फयाणं जहण्णाइच्छावणामेत्ताणमेसो चेव कमो त्ति जाणावणमुत्तरसुतं
8 एवमणंताणि फहयाणि जहरिण या अइच्छावणा, तत्तियाणि फयाणि ण प्रोकड्डिजति ।
६ ८. एवं तदिय-चउत्थ-पंचमादिकमेण गंतूणाणताणि फद्दयाणि णोकड्डिजति । केत्तियाणि च ताणि ? जेत्तिया जहण्याइच्छावणा तेत्तियाणि। एतो उपरिमाणं वि आदिके वशसे अनुभागसंक्रमकी प्राप्ति सम्भव है इसका कथन करके उनमें से अपकर्षणका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अपकर्षणकी प्ररूपणा ।
६५. अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमरूप संक्रमके तीन भेदोंमेंसे अपकर्षणकी प्रवृत्ति विशेषका ज्ञान करानेके लिए यह प्ररूपणा की जा रही है इस प्रकार यह प्रतिज्ञावचन है ।
* प्रथम स्पर्धक अपकर्पित नहीं होता। ६६. क्योंकि वहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेप नहीं देखे जाते।
* द्वितीय स्पर्धक अपकर्षित नहीं होता।
६७. क्योंकि वहाँ पर भी प्रतिस्थापना और निक्षेपका अभाव पहलेके समान पाया जाता है। केवल प्रथम और द्वितीय स्पर्धकोंका ही यह क्रम नहीं है, किन्तु जघन्य अतिस्थापनारूप अन्य अनन्त स्पर्धकोंका भी यही क्रम है इस प्रकार इस बातके जताने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
___* इस प्रकार अनन्त स्पर्धक जो कि जघन्य अतिस्थापनारूप हैं उतने स्पधक अपकर्षित नहीं होते।
६८. इस प्रकार तीसरा, चौथा और पाँचवाँ आदिके क्रमसे जाकर स्थित हुए अनन्त स्पर्धक अपकर्षित नहीं किये जा सकते।
शंका-वे कितने हैं ? १. ता. प्रतौ संकम [संकम] संभवं इति पाठः ।
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गा० ५८]
अणुभागोककुणासरूवणिद्देसो अणंताणं फद्दयाणमोकड्डणा ण संभवदि ति पदुप्पाएदुमिदमाह
* अण्णाणि अणंताणि फद्दयाणि जहणणणिक्खेवमेत्ताणि च ण प्रोकडिजति ।
६६. आदीदो प्पहुडि जहण्याइच्छावणामेत्तफयाणमुवरिमफद्दयं ताव ण ओकडिजदि, तस्साइच्छावणसंभवे विणिक्खेवविसयादसणादो। तत्तो अणंतरोवरिमफद्दयं पि ण ओकड्डिजदि। एवमणंताणि फद्दयाणि जहण्णणिक्खेवमेत्ताणि ण ओकड्डिजति । कि कारणं ? णिक्खेवविसयासंभवादो । एत्तो उवरि ओकडणाए पडिसेहो णस्थि ति पदुप्पायणट्ठमिदमाह
ॐ जहणणो शिक्खेवो जहरिणया अइच्छावणा च तेत्तियमेत्ताणि फहयाणि आदीदों अधिच्छिदूण तदित्थफयमोकडिजह ।
६ १०. अइच्छावणा-णिक्खेवाणमेत्थ संपुण्णत्तदंसणादो। विवक्खियफयादो हेट्ठा जहण्याइच्छावणामेत्तमुल्लंछिय हेडिमेसु फद्दएसु जहण्गणिक्खेत्रमेत्तेसु जहण्णफयपजवसाणेसु तदित्यफद्दयोकड्डणासंभयो ति भणिदं होइ । एतो उपरिमफदएसु ण कत्थ वि ओकडणा पडिहम्मइ, जहण्णाइच्छावणं धुवं काऊण जहण्णणिक्खेवस्स फद्दयुत्तरकमेण
समाधान-जितनी जघन्य अतिस्थापना है उतने हैं।
इनसे उपरिम अनन्त स्पर्धकोंका भी अपकर्षण सम्भव नहीं है इस बातका कथन करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं
* जघन्य निक्षेपप्रमाण अन्य अनन्त स्पर्धक भी अपकर्षित नहीं होते।
६६. प्रारम्भसे लेकर जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण स्पर्धकोंसे भागेका स्पर्धक अपकर्षित नहीं होता, क्योंकि उसकी प्रतिस्थापना सम्भव होने पर भी निक्षेपविषयक स्पर्धक नहीं देखे जाते । उससे अनन्तर उपरिम स्पर्धक भी अपकर्षित नहीं होता। इस प्रकार जघन्य निक्षेपप्रमाण अनन्त स्पर्धक अपकर्षित नहीं होते।
शंका-इसका कारण क्या है ? समाधान-क्योंकि निक्षेपविषयक स्पर्धकोंका अभाव है।
अब इससे ऊपर अपकर्षणका निषेध नहीं है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
____ * प्रारम्भसे लेकर जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण जितने स्पर्धक हैं उतने स्पर्धकोंको उल्लंघनकर वहाँ जो स्पर्धक स्थित है वह अपकर्षित होता है। .
६ १०. क्योंकि यहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेप पूरे देखे जाते हैं। विवक्षित स्पर्धकसे पूर्वके जघन्य अतिस्थापनामात्र स्पर्धकोंको उल्लंघनकर उनसे पूर्वके जघन्य स्पर्धक तकके जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंमें वहाँपर स्थित स्पर्धकका अपकर्षण होना सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इससे उपरिम स्पर्धकोंका कहीं भी अपकर्षण होना बाधित नहीं है, क्योंकि जघन्य अतिस्थापनाको ध्रुव करके जघन्य निक्षेपकी उत्तरोत्तर एक एक स्पर्धकके क्रमसे वृद्धि देखी जाती है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बन्धगो ६ वड्डिदंसणादो ति परूवेदुमुत्तरसुत्तं भणइ
8 तेण परं सव्वाणि फयाणि प्रोकडिजति। ... ६ ११. तेग परं ततो उपरि सनागि चे फद्दयाणि उकस्सफद्दयपजंताणि ओकडिजंति,तत्थ तप्पवुत्तीए पडिसेहाभावादो। . ... ६ १२. संपहि जहण्णणिखेवादिपदाणं पमाणविसयणिण्णयजणणट्ठमप्पाबहुअं परूवेमाणो इदमाह- ..
* एत्य अप्पाबहुभं ।
६ १३. जहण्णुकस्साइच्छावणा-णिक्खेवादीणमोकड्डणासंबंधीणमण्णेसिं च तदुवजोगीणं पदविसेसाणमेत्युइसे थोवबहुत्तं वत्तइस्सामो ति पातणिकासुत्तमेदं ।
इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं____ * उससे आगे सबं स्पर्धक अपकर्षित हो सकते हैं। ..
६ ११. - 'तेण परं' अर्थात् उस विवक्षित स्पर्धकसे आगेके उत्कृष्ट स्पर्धक तकके सभी स्पर्धक अपकर्षित हो सकते हैं, क्योंकि उनकी अपकर्षणरूपसे प्रवृत्ति होनेमें कोई निषेध नहीं है। ...: विशेषार्थ-अनुभागकी दृष्टिसे अपकर्षणका क्या क्रम है इसका. विचार यहाँ पर किया गया है। इस सम्बन्धमें यहाँ पर जो निर्देश किया है उसका भाव यह हैं कि प्रथम जघन्य स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धक तो जघन्य निक्षेपरूप होते हैं अतएव उनका अपकर्षण नहीं होता। उसके आगे अनन्त स्पर्धक अतिस्थापनारूप होते हैं, अतपय उनका भी अपकर्षण नहीं होता। उसके आगे उत्कृष्ट स्पर्धकपर्यन्त जितने स्पर्धक होते हैं उन सबका अपकर्षण हो सकता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अतिस्थापनाके ऊपर प्रथम स्पर्धकका छापकर्षण होकर उसका निक्षेप अतिस्थापनाके नीचे जिन स्पर्धकोंमें होता है उनका परिमाण अल्प होता है, अतएव उनकी जघन्य निक्षेप संज्ञा है। उसके आगे निक्षेप एक-एक स्पर्धक बढ़ने लगता है। परन्तु अतिस्थापना पूर्ववत् बनी रहती है। किन्तु जिस स्पर्धकका अपकर्षण विवक्षित हो उसके पूर्व अनन्त स्पर्धक प्रतिस्थापनारूप होते हैं और प्रतिस्थापनासे नीचे सब स्पर्धक निक्षेपरूप होते हैं। उदाहरणार्थ एक कर्ममें कुल स्पर्धक १६ हैं। उनमेंसे यदि प्रारम्भके ४ स्पर्धक जवन्य निक्षेप हैं और ५ से लेकर १० तक छह स्पर्धक अतिस्थापनारूप हैं तो ११ वें स्पर्धकका छापकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से ४ तक के चार स्पर्धकोंमें होगा। १२ वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से ५ तकके ५ स्पर्धकोंमें होगा । १३ वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से ६ तकके ६ स्पर्धकोंमें होगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक स्पर्धकके प्रति निक्षेप भी एक-एक बढ़ता हुआ १६ वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप १ से लेकर ह तकके ६ स्पर्धकोंमें होगा। स्पष्ट है कि प्रतिस्थापना सर्वत्र परिमाणमें तदवस्थ रहती है, किन्तु निक्षेप उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता जाता है। यह अंकसंदृष्टि है । इसी प्रकार अर्थसंदृष्टि समझ लेनी चाहिए।
६ १२, अब जवन्य निक्षेप आदि पदोंके प्रमाणविषयक निर्णयको उत्पन्न करनेके लिए अल्पबहुत्वका कथन करते हुए इस सूत्रको कहते हैं
* यहाँ पर. अल्पबहुत्व । : ..
६ १३. प्रकृतमें अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट अंतिस्थापना तथा निक्षेप आदिके तथा उसमें उपयोगी पड़नेवाले पदविशेषोंके अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह पातनिकासूत्रहै।
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गा०५८]
पयदुवजोगी अप्पाबहुअं 8 सव्वत्योवाणि पदेसगुणहाणिहाणंतरफदयाणि ।।
१४. पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं णाम किं ? जम्मि उद्देसे पढमफद्दयादिवग्गणा अवट्ठिदविसेसहाणीए गच्छमाणा दुगुणहीणा जायदे तदवहिपरिच्छिण्णमद्धाणं गुणहाणिट्ठाणंतरमिदि भण्गदे । एदम्मि पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरे अणंताणि फद्दयाणि अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणमेत्ताणि भत्थि ताणि सव्वत्थोवाणि ति भणिदं होइ । .. ® जहएणो णिक्खेवो अणंतगुणो।
६१५. कुदो? तत्थाणताणमणुभागपदेसगुणहाणीणं संभवादो । कथमेदं परिच्छिण्णं ? एदम्हादो चेव सुत्तादो।
* जहरिणया अइच्छावणा अणंतगुणा। ६ १६. तत्तो वि अणंतगुणाणि गुणहाणिट्ठाणंतराणि विसईकरिय पयदृत्तादो। ® उक्कस्सयमणुभागकंडयमणंतगुण ।
६ १७. कुदो ? उक्कस्साणुभागसंतकम्मस्स अणंतताणं भागाणं उक्स्साणुभागखंडय सरूवेण गहणोवलंभादो।
ॐ उक्कस्सिया अइच्छावणा एगाए वग्गणाए ऊणिया । * प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक हैं। 8 १४. शंका-प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर किसे कहते हैं !
समाधान-जिस स्थान पर प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा अवस्थित विशेष हानिरूपसे जाती हुई दुगुनी हीन हो जाती है उस अवधि तकके अध्धानको गुणहानिस्थानान्तर कहते हैं। इस प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरमें अभव्योंसे अनन्तगुणे अनन्त स्पर्धक होते हैं। वे सबसे स्तोक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उनसे जघन्य निक्षेप अनन्तगुणा है। ६ १५. क्योंकि जघन्य निक्षेपमें अनन्त अनुभागप्रदेशगुणहानियां सम्भव हैं। शंका-यह कैसे जाना ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना।
* उससे जघन्य अतिस्थापना अनन्तगुणी है ।
६ १६. क्योंकि जघन्य निक्षेपमें जितने गुणहानिस्थानान्तर उपलब्ध होते हैं उनसे भी अनन्तगुणे गुणहानिस्थानान्तरोंको विषय कर इसकी प्रवृत्ति हुई है।
* उससे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डक अनन्तगुणा है।
६ १७. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभागोंका उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकरूपसे प्रहण किया गया है।
* उससे उत्कृष्ट अतिस्थापना एक वर्गणाप्रमाण न्यून है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बन्धगो६ १८. चरिमवग्गणपरिहीणुकस्साणुभागकंडयपमाणतादो । तं कथं ? उकस्साणुभागखंडए आगाइदे दुचरिमादिहेट्ठिमफालीसु अंतोमुहुत्तमेतीसु सव्वत्थ जहण्णाइच्छावणा चेव पुव्वुत्तपरिमाणा होइ, तकाले वाघादाभावादो। पुणो चरिमफालिपदणसमकाल चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए उकस्साइच्छावणा होइ, णिरुद्धचरिमवग्गणं मोत्तणाणुभागकंडयस्सेव सव्वस्स तत्थाइच्छावणासरूवेण परिणामदसणादो। एदेण कारणेण उक्कस्साइच्छावणा उकस्साणुभागखंडयादो एगवग्गणोमेत्तेण ऊणिया होइ। तं पि तत्तोएयवग्गणामेत्तेणब्भहियमिदि सिद्ध।
ॐ उकस्सणिक्खेवो विसेसाहियो।
१६. उकस्साणुभागं बंधियूणावलियादीदस्स चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए ओकडिजमाणाए रूवाहियजहण्णाइच्छावणापरिहीणो सयो चेवाणुभागपत्थारो उकस्सणिक्खेवसरूवेण लब्भइ । तदो घादिदावसेसम्मि रूवाहियजहण्णाइच्छावणामेत्तं सोहिय सुद्धसेसमेत्तेण उक्कस्साणुभागकंडयादो उक्कस्सणिक्खेवो विसेसाहिओ ति घेतव्यो ।
.६१८. क्योंकि उत्कृष्ट प्रतिस्थापना अन्तिम वर्गणासे न्यून उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकप्रमाण होती है।
शंका-सो कैसे ?
समाधान-उकृष्ट अनुभागकाण्डकके पतनके समय अन्तर्मुहूर्तप्रमाण द्विचरम आदि अधस्तन फालियों में सर्वत्र पूर्वोक्तप्रमाण जघन्य अतिस्थापना ही होती है, क्योंकि उस समय व्याघातका अभाव है। परन्तु अन्तिम फालिके पतनके समय अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाकी उत्कृष्ट अतिस्थापना होती है, क्योंकि उस समय विवक्षित अन्तिम वर्गणाको छोड़कर शेष समस्त अनुभागकाण्डकका ही वहाँ पर अतिस्थापनारूपसे परिणमन देखा जाता है। इस कारणसे उत्कृष्ट अतिस्थापना उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकसे एक वर्गणमात्र हीन होती है और वह अनुभागकाण्डक भी उस उत्कृष्ट अतिस्थापनासे एक वर्गामात्र अधिक होता है यह सिद्ध हुआ। - .
विशेषार्थ-उत्कृष्ट अतिस्थापना उत्कृष्ट अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय अन्तिम वर्गणाकी ही होती है। चूंकि उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकमें यह अन्तिम फालिकी अन्तिम वर्गणा भी सम्मिलित है, अतः यहाँ पर उत्कृष्ट अतिस्थापनाको उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकमें से अन्तिम वर्गणाको कम कर देने पर जो शेष रहे तत्प्रमाण बतलाया है। कारण यह है कि जब अन्तिम फालिका पतन होता है तब उसका निक्षेप उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको छोड़ कर होता है, अन्यथा उसका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता, इसलिए सूत्रमें उत्कृष्ट अनुभागकाण्डक जितना बड़ा होता है उसमेंसे विवक्षित अन्तिम वर्गणाको कम कर देने पर जो शेष रहे उतना उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण होता है यह कहा है।
* उससे उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है ।
६ १६. उत्कृष्ट अनुभागका वध करके एक श्रावलिके बाद अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका अपकर्षण होने पर एक अधिक जघन्य अतिस्थापनासे हीन सबका सब अनुभाग प्रस्तार उत्कृष्ट निक्षेपरूपसे उपलब्ध होता है, इसलिए जितने बड़े अनुभागकाण्डकका घात किया है उसके सिवा जो शेष है उसमेंसे रूपाधिक जघन्य अतिस्थापनामात्र अनुभागको घटा कर जो शेष रहे उतना उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकसे उत्कृष्ट निक्षेप अधिक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए।
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गा० ५८ ]
अत्थपरूवणा गया ।
उक्कडगाए परूवरणा
* उकस्सो बंधो विसेसाहियो ।
$ २०. केत्तियमेत्तेण ? रूत्राहियजहण्णाइच्छावणामेत्तेण । एवमोकडणासंकमस्स
* उक्कडगाए परूवणा ।
६ २१. एतो उक्कडगाए अचरिमफद्दयं अहिकीरदि त्ति भणिदं होइ ।
* चरिमफद्दयं ण उक्कड्डिज्जदि ।
९ २२. कुदो ? उवरि अइच्छावणा-णिक्खेवाणमसंभवादो ।
* दुचरिमफद्दयं पि ए उक्कडिज्जदि ।
२३. एत्थ कारणम इच्छावणा-णिक्खे वाणमसंभवो चैत्र वत्तव्यो ।
* एवमणंताणि फद्दयाणि ओसकिऊण तं फहयमुकडिज्जदि ।
ह
विशेषार्थ - एक ऐसा जीव है जिसने उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है उसके बाद एक वलि कालके जाने पर यदि वह अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका अपकर्षण करता है तो उस समय उस अपकर्पित अनुभागका जघन्य प्रतिस्थापनाको छोड़कर शेष सब अनुभाग में निक्षेप होगा । यहाँ पर एक तो प्रतिस्थापनामात्र अनुभागमें इसका निक्षेप नहीं हुआ। दूसरे स्त्रयंका अपकर्षण किया है इसलिए एक इसमें भी इसका निक्षेप नहीं हुआ । इस प्रकार रूपाधिक प्रतिस्थापनामात्र अनुभागको छोड़ कर शेष सब अनुभाग उत्कृष्ट निक्षेपका विषय है । अब इसकी यदि उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकसे तुलना करते हैं तो वह उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकसे विशेष अधिक ही प्राप्त होता है । कितना विशेष अधिक होता है इसका निर्देश टीकाकारने स्वयं किया है । उसका आशय यह है कि पूरे अनुभागमें से उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको और रूपाधिक जघन्य प्रतिस्थापनामात्र अनुभागको कम कर दो। इस प्रकार कम करनेसे जो शेष रहे वह अधिकका प्रमाण है । उत्कृष्ट अनुभाग काण्डक उत्कृष्ट निक्षेप इतना बड़ा होता है ।
* उससे उत्कृष्ट बन्ध विशेष अधिक है ।
२०. कितना अधिक है ? रूपाधिक जघन्य प्रतिस्थापनामात्र अधिक है ।
इस प्रकार अपकर्षणसंक्रमकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई ।
* उत्कर्षणकी प्ररूपणा ।
§ २१. आगे उत्कर्षणकी अपेक्षा अचरम स्पर्धकका अधिकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अन्तिम स्पर्धकका उत्कर्षण नहीं होता ।
२२. क्योंकि अन्तिम स्पर्धा कके ऊपर अतिस्थापना और निक्षेपकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । * द्विचरण स्पर्धकका भी उत्कर्षण नहीं होता ।
$ २३. यहाँ पर भी प्रतिस्थापना और निक्षेपकी प्राप्ति सम्भव नहीं है यही कारण कहना चाहिए ।
* इस प्रकार अनन्त स्पर्धक नीचे आकर जो स्पर्धक स्थित है उसका उत्कर्षण हो सकता है।
२
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६२४. एवं तिचरिम-चदुचरिमादिकमेणाणताणि फद्दयाणिजहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवमेत्ताणि हेढदो ओसरिदूण तदित्यफदयमुक्कड्डिअदि, तत्थाइच्छावणा-णिक्खेवाणं पडिवुण्णत्तदंसणादो । एत्तो हेट्ठिमफइयाणं जहण्णफद्दयपजंताणमुकड्डणाए णत्थि पडिसेहो। एत्थ जहण्णाइच्छावणा-णिक्खेवादिपदाणं पमाणविसयणिण्णयजणणडमप्पाबहुअसुत्तमाह- .
8 सव्वत्थोवो जहएणो णिक्खेवो।
६ २५. किंपमाणो एस जहण्णणिक्खेवो ? एयपदेसगुणहाणिट्ठाणतरफदएहितो अर्णतगुणमेत्तो।
* जहणिया अइच्छावणा अपंतगुणा । ६२६. ओकडणा-जहण्णाइच्छावणाए समाणपरिमाणत्तादो। * उकस्सो णिक्खेवो अणंतगुणो।
६. २७. मिच्छाइट्ठिणा उकम्साणुभागे बज्झमाणे जहण्णफद्दयादिवग्णणुक्कडणाए रूपाहियजहणाइच्छावणापरिहीणुकस्साणुभागवंधमेत्तुकस्सणिक्खेवदसणादो। एसो च ओकड्ड क्कड्डणासु समाणपरिमाणो ।
* उकस्सो बंधो विसेसाहिओ। ६२८. केत्तियमेतेण ? रूवाहियजहण्णाइच्छावणामेत्तैग।
६ २४. इस प्रकार त्रिचरम और चतुश्चरम आदिके क्रमसे जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपप्रमाण अनन्त स्पर्धक नीचे सरककर वहाँ पर स्थित स्पर्धकका उत्कर्षण हो सकता है, क्योंकि वहाँ पर प्रतिस्थापना और निक्षेप ये दोनों पूरे देखे जाते हैं। इससे लेकर जघन्य स्पर्धक पर्यन्त नीचेके सब स्पर्धकोंका उत्कर्षण होने में प्रतिषेध नहीं है। अब यहाँ पर जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेप आदि पदोंके प्रमाणविषयक निर्णयको उत्पन्न करनेके लिए अल्पबहुत्व सूत्र कहते हैं
* जघन्य निक्षेप सबसे स्तोक है। ६२५. शंका--इस जघन्य निक्षेपका क्या प्रमाण है ? समाधान-एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरसे उसका प्रमाण अनन्तगुणा है । * उससे जघन्य अतिस्थापना अनन्तगुणी है। ६२६. क्योंकि यह अपकर्षण विषयक जघन्य अतिस्थापनाके बराबर है। * उससे उत्कृष्ट निक्षेप अनन्तगुणा है।
६२७. क्योंकि यह मिथ्यादृष्टिके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेके बाद जघन्य स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका उत्कषर्ण करने पर रूपाधिक जघन्य प्रतिस्थापनासे हीन उत्कृष्ट अनुभागबन्धप्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप देखा जाता है । अपकर्षण और उत्कर्षण दोनों स्थलों पर इस निक्षेपका परिमाण बराबर है। * उससे उत्कृष्ट बन्ध विशेष अधिक है।
२८. कितना अधिक है ? रूपाधिक जघन्य प्रतिस्थापनाका जितना प्रमाण है उतना ...... अधिक है।
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गा० ५८ ]
भागसंकमेत वीस गदद्वाराणि
* ओकड्डुणादो उक्कड्डुणा दो च जहरिणया अइच्छावणा तुल्ला जहण क्खेिवो तुल्लो ।
२६. दाणि दो विसुताणि सुगमाणि । एवमुक्कड्डणाए अत्थपदपरूवणा समत्ता । परपयडिसकमे अइच्छावणा-णिक्खेवविसेसाभावादो तव्त्रिसयपरूवगा कया । एवमरणुभागसंकमस्स मूलुत्तरपयडिसंबंधितेण दुविहाविहत्तस्स परूवणाबीजमट्ठपदं काऊण जहा उद्देसो तहा गिद्देसो त्ति णायादो मूलपय डिअणुभागसंकमो चैत्र पढमं विहासियन्त्रो ति तप्परूवणाणिबंधणमुत्तरं सुत्तपबंधमाह
११
* एदेण अठ्ठपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो ।
९ ३० एदेणाणतरपरूविदेण्टुपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो ताव विहासणिजो । तत्थ च तेवीसमणिओगद्दाराणि णादव्त्राणि त्ति उवरिमसुत्तमाह
* तत्थ च तेवीसमणि ओगद्दाराणि सण्णा जाव अप्पाबहुए त्ति २३ । ६ ३१. एत्थ मूलप डिविक्क्खा ए सग्णियाससंभवाभावादो। सण्णादीणि तेवीसगणिता । किमेदाणि चेत्र तेत्रीसमणिओगद्दाराणि मूलपयडिअणुभागसंकमे पडिबद्धाणि, उदाहो अग्गो वि परूत्रणाभेदो तन्त्रिसयो अस्थि ति आसंकाय इदमाह - * भुजगारों पदणिक्खेवो वडि सि भाणिदव्वो ।
I
* अपकर्षण और उत्कर्षण दोनोंकी अपेक्षा जघन्य अतिस्थापना तुल्य है और जघन्य निक्षेप भी तुल्य है ।
२६. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार उत्कर्षणकी अपेक्षा अर्थपदप्ररूपणा समाप्त हुई । परप्रकृतिसंक्रममें अतिस्थापना और निक्षेपविशेषका अभाव होनेसे उसके विषयकी प्ररूपणा की है । इस प्रकार मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिके सम्बन्धसे दो भेदरूप अनुभागसंक्रमकी प्ररूपणा के बीजरूप अर्थपदको करके उद्देशके अनुसार निर्देश होता है इस न्यायका अनुसरण कर सर्व प्रथम मूलप्रकृतिसंक्रमका ही विशेष व्याख्यान करना चाहिए, इसलिए उसकी प्ररूपणा के कारणरूप उत्तर सूत्रको कहते हैं
* इस अर्थपदके अनुसार मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रम कहना चाहिये ।
३०. इस अर्थात् पहले कहे गये अर्थपदके अनुसार मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमका सर्व प्रथम व्याख्यान करना चाहिए। उसके विषय में तेईस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं यह बतलाने के लिए आका सूत्र कहते हैं
---
* उसके विषय में संज्ञासे लेकर अल्पबहुत्व तक तेईस अनुयोगद्वार होते हैं ।
३१. क्योंकि यहाँ पर मूलप्रकृतिकी विवक्षा होनेसे सन्निकर्ष सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ पर चौबीस अनुयोगद्वार न होकर तेईस अनुयोगद्वार ही होते हैं। संज्ञा आदिक तेईस अनुयोगद्वार पहले कह आये हैं । क्या मात्र ये तेईस अनुयोगद्वार ही मूलप्रकृतिअनुभाग संक्रम से सम्बन्ध रखते हैं या अन्य भी तद्विषयक प्ररूपणाभेद है ऐसी आशंका होने पर यह सूत्र कहा है ।
* तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ये तीन अनुयोगद्वार भी कहने चाहिए ।
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जयधवलासाहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६ ३२. पुनसुत्तुद्दिद्रुतेवीसमणिओगद्दाराणं चूलियाभूदेहि एदेहि तीहि अणियोगभेदेहि मूलपयडिअणुभागसंकमो अवगंतव्यो, अण्णहा तबिसयविसेसणिण्णयाणुप्पत्तीदो त्ति भणिदं होदि ।
६ ३३. संपहि एदेसि तेवीसमणिओगद्दाराणं सचूलियाणं सुगमत्तादो चुण्णिसुत्तयारेण णामुद्देसमेत्तेणेव परूविदाणमुच्चारणाइरियफ्रूविदविवरणमणुवत्तइस्सामो । तं जहा—मूलपयडिअणुभागसंकमे तत्थ इमाणि २३ तेवीस अणियोगद्दाराणि—सण्णा जाव अप्पाबहुए ति भुज० पदणिक्खेत्रो वड्डी चेदि। तत्थ सण्णा दुविहा–घादिसण्णा ठाणसण्णा च । तदुभयपरूषणाए अणुभागविहतिभंगो । सत्रसंकमो णोसन्धसंकमो उक्कस्ससंकमो अणुकस्ससंकमो जहण्णसंकमो अजहण्णसंकमो इच्चेदेसि च परूषणाए विहत्तिभंगो चेव, विसेसाभावादो।
३४. सादि-अणादि-धुव-अधुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेणय। ओघेण मोह० उक्क० अणुक० जह० अणुभागसंकमो कि सादि० ४ १ सादी अधुवो । अज० कि सादी० ४ १ सादी अगादी धुनो अधुरो वा । सेसासु मग्गणासु उक्क० अणुक० जह० अजह० सादी अद्ध वो च ।
६३२. पूर्व में निर्दिष्ट किये गये तेईस अनुयोगद्वारोंके चूलिकारूप इन तीन अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमको जानना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक विशेष निर्णय नहीं बन सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
___६३३. अब सुगम होनेसे चूर्णिसूत्रकारके द्वारा केवल नामोल्लेखरूपसे कहे गये चूलिकासहित इन तेईस अनुयोगद्वारोंके उच्चारणाचार्यद्वारा कहे गये विवरणको बतलाते हैं। यथा-मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रममें संज्ञासे लेकर अल्पबहुत्वतक ये तेईस अनुयोगद्वार होते हैं। तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ये तीन अनुयोगद्वार और होते हैं। उनमें संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । इन दोनोंका कथन अनुभागविभक्तिके समान है। तथा सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम और अजघन्यसंक्रम इनका कथन भी अनुभागविभक्तिके समान ही है, क्योंकि वहाँसे यहाँ कोई विशेषता नहीं है।
६३४. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे मोहनीयका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग संक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य अनुभागसंक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि, ध्रुव और अध्रुव है । शेष गतिसन्बन्धी मार्गणाओंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जवन्य और अजवन्य, अनुभागसंक्रम सादि और अध्र व है।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम और अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम कादाचित्क हैं। तथा जवन्य अनुभागसंक्रम क्षपकनोणिमें यथास्थान होता है अन्यत्र नहीं, इसलिए ये तीनों अनुभागसंक्रम सादि और अध्रुव कहे हैं। अब रहा अजवन्य अनुभागसंक्रम सो यह क्षायिकसम्यग्दृष्टिके उपशान्तमोह गुणस्थानमें नहीं होता। किन्तु वहाँसे किरने पर पुनः होने लगता है, इसलिए तो सादि है और उस स्थानको प्राप्त होनेके पूर्वतक अनादि है। तथा भव्योंकी अपेक्षा अध्र व और अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव है । इस प्रकार अजघन्य अनुभागसंक्रम चारों प्रकारका है। यह ओघप्ररूपणा
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गा० ५८ ]
अणुभागसंक मे सामित्त'
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९ ३५ सामित्तं दुविहं – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागसंकमो कस्स १ अण्णदरस्स उकस्सारणुभागं बंधिणावलियादीदस्स अण्णदरगदीए वट्टमाणयस्स । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुभागसंकमो कस्स १ अण्णदरस्स उक्कस्साणुभागं बंधियूणावलियादीदस्स । एवं सव्त्ररइय ० - सव्वतिरिक्ख ० - सन्यमणुस ० - सव्वदेवा त्ति । णत्ररि पंचि ० तिरि० अपज्ज०मणुस अपज्ज० - अणदादि सट्टा त्तिविहत्तिभंगो । एवं जाव० ।
1
३६. जहणए पदं । दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागको कस ? अण्णदरस्स खत्रयस्त समया हियावलियचरिमसमयसकसायस्स । एवं मसतिए । सेसमग्गणासु विहतिभंगो ।
है। आदेश से गतिसम्बन्धी सब मार्गणाओं में उत्कृष्ट आदि चारों भंग सादि और अध्रुव होते हैं, क्योंकि सब मार्गणाएँ कदाचित्क हैं, अन्य मार्गणाओं की अपेक्षा यदि विचार करें तो मात्र अचतुदर्शनमार्गणामें ओघ के समान भङ्ग जानना चाहिए तथा भव्यमार्गणा में ध्रुव भङ्ग नहीं होता । कारण स्पष्ट है ।
३५. स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओ और आदेश । श्रघसे मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जिसका एक आवलि काल गया है ऐसा अन्यतर गतिमें विद्यमान जीव उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जिसका एक अवलि काल गया है ऐसा अन्यतर नारकी जीव मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्य, सब मनुष्य और सब देवोंतें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेके बाद एक आवलि काल व्यतीत होने पर ही उसका संक्रम सम्भव है, इसलिए यहाँ पर बन्धावलिके बाद ही मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका स्वामित्व दिया है । श्रघसे तो यह बन ही जाता है । किन्तु चारों गतियोंके अवान्तर भेदोंमें जहाँ जहाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है उन मार्गणाओं में भी यह बन जाता है । मात्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनतादि कल्पों के देशों नें यह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें उसे अनुभागविभक्तिके उत्कृष्ट स्वामित्वके समान जाननेकी सूचना की है।
३६. जवन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— श्रघ और श्रादेश । श्रोघसे मोहनीयके वन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? जिसके सकषाय अवस्थामें एक समय अधिक श्रावलि काल शेष है ऐसा अन्तिम समय में विद्यमान अन्यतर क्षपक जीव मोहनीयके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष मार्गणाओं में अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - मोहनीयका जघन्य अनुभागसंक्रम क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके कालमें एक समय अधिक एक अवलि काल शेष रहने पर होता है, क्योंकि संक्रमके योग्य सबसे जघन्य अनुभाग यहीं
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[ बंधगो ६
-
९ ३७. कालो दुविहो – जह० उक० । उकस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य | मोह० उक० अणु० अणुभागसंकमो विहत्तिभंगो ।
३८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० जह० अणुभागसंकम ० के ० १ जह० उक्क० एयसमओ । अज० तिणि भंगा । तत्थ जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो, जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । मणुसतिए जह० अणुभागसंक० जह० उक्क० एयसमओ । अज० अणुभागसंक० जह० एयसमओ, उक्क० सगट्टिदी | सेसमग्गणासु विहत्तिभंगो ।
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पर पाया जाता है । यह अवस्था श्रोघसे तो सम्भव है ही, मनुष्यत्रिमें भी सम्भव है, क्योिं मनुष्यत्रिक ही क्षपकश्र ेणि पर आरोहण करते हैं, इसलिए मनुष्यत्रिमें तो श्रघप्ररूपणा के समान ही स्वामित्वके जाननेकी सूचना की है। मात्र अन्य गतियों में यह व्यवस्था नहीं बन सकती, इसलिए उनमें अनुभागविभक्तिके जघन्य स्वामित्वके समान जाननेकी सूचना की है।
९ ३७. काल दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसंक्रमका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रघसे मोहनीय के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके जघन्य और उत्कृष्ट कालका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है ।
विशेषार्थ — उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होकर एक आवलिके बाद अनुभागकाण्डकघात द्वारा उसका अन्तर्मुहूर्तमें संक्रम हो सकता है, इसलिए से इसका जंवन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट बाद अनुत्कृष्ट होने पर वह कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिक से अधिक ऐसे जीवके एकेन्द्रिय पर्यायमें चले जाने पर अनन्तकाल तक रहता है, इसलिए श्रवसे मोहनीयके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकालप्रमाण कहा है। सामान्य तिर्योंमें यह काल इसी प्रकार बन जाता है । मात्र इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट श्रनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है, क्योंकि जो अन्य गतिका जीव जीवनके अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कर रहा है उसके उस संक्रममें एक समय काल शेष रहनेपर यदि वह मर कर तिर्यश्चों में उत्पन्न हो जाता है तो सामान्य तिर्यश्नों में उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा जो तिर्यन जीवन के अन्तमें एक समय शेष रहने पर अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है उसके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय बन जाता है । इसी प्रकार अन्य गतियोंमें भी अनुभागविभक्तिके अनुसार काल घटित हो जाता है, इसलिए यहाँ पर उक्त सब मार्गणाओं में उत्कृष्ट कालको अनुभागविभक्ति के समान जाननेकी सूचना की है।
३८. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और आदेश । श्रघसे मोहनीयके जघन्यं श्रनुभागसंक्रमका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । जघन्य अनुभागसंक्रमके तीन भङ्ग हैं। उनमें जो सादि- सान्त भङ्ग है उसका जघन्य काल अन्तहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । मनुष्यत्रिकमें जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी काय स्थितिप्रमाण है । शेष मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - श्रघसे मोहनीयका जघन्य अनुभागसंक्रम दसवें गुणास्थानमें क्षपकके एक समय के लिए होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रथम बार उपशम खिसे उतर कर अन्तर्मुहूर्त में पुनः उपशमणि पर आरोहण कर उपशान्तमोह गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके अन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि यह विधि साधिक तेत्तीस सागरके अन्तरसे करता है उसके श्रजघन्य
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अणुभागसंकमें अंतरपरूवणा ३६ अंतरं दुविहं-जह० उक्क० । उकस्से पयदं। दुविहो णिसो—ओघेण आदेसेण य । ओषेण मोह० उक्क० अणुभागसंकमंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणु० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । सेसमग्गणासु विहत्तिभंगो।
४० जहण्गए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मोह० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । मणुसतिए मोह० जह० णस्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतोमुहुत्तं । सेसमग्गणासु विहत्तिभंगो ।
अनुभागसंक्रमका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर प्रमाण प्राप्त होनेसे यह दोनों प्रकारका काल उक्तप्रमाण कहा है। मनुष्यत्रिक अजघन्य अनुभागसंक्रमके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष सब काल ओघके समान ही घटित कर लेना चाहिए। मात्र अजघन्य अनुभागसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनीअपनी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उपशमश्रेणिपर आरोहण करानेसे कुछ कम अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। शेष गतिमार्गणाओंमें काल अनुभागविभक्तिके समान यहाँ बन जानेसे उसे उसके समान जाननेकी सूचना की है।
____६३६. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-एक बार मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके रुकनेके बाद पुनः उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध अन्तर्मुहूर्त के पहले नहीं होता ऐसा नियम है, अतः यहाँ पर ओघसे उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर अनन्त कालके बाद पुनः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धपूर्वक उसका संक्रम करता है उसके उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल देखा जाता है, अतः ओघसे उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। कोई क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें एक समयके लिए मोहनीयके अनुत्कृष्ट अनुभाग असंक्रामक होकर दूसरे समयमें मरकर देव होकर पुनः उसका संक्रामक हो जाय यह भी सम्भव है और कोई अन्य जीव मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर्मुहूर्त काल तक संक्रम करता रहे यह भी सम्भव है, इसलिए यहाँ पर मोहनीयके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है यह स्पष्ट ही है।
४०. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघ से मोहनीयके जघन्य अनुभागसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयके जघन्य अनुभागसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है। अजवन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
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४१. सेसाणमणिओगद्दाराणमणुभागविहत्तिभंगो | णवरि संकमालावो कायव्त्रो । एवं तेवीसमणिओगद्दार । णि समत्ताणि ।
६४२ भुगगारे ति तत्थ इमाणि तेरस अणिओगद्दाराणि - समुत्तिणा जाव अप्पा बहुए ति । समुत्तिणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओषेण अत्थि ० - अप्प० -अत्रट्ठि०० अत्त० संकामया । एवं मणुसतिए । सेसमग्णासु विहत्तिभंगो ।
भुज
६४३. सामित्ताणु ० दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघो विहत्तिभंगो । वरि अवत्त ० संक० कस्स १ अण्गद० जो इगित्रीससंतकम्मि ओवसामगो सव्त्रोवसामणादो परिवदमानगो देवो वा पढमसमयसंकामगो । एवं मणुसतिए । णवरि देवो तिण भाणियो । समम्गणासु विहत्तिभंगो ।
४४. कालो विहतिभंगो । णवरि अवत्त० जह० उक्क० एयसमओ |
४५. अंतराग० दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघो विहत्तिभंगो । वरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । मणुसतिए विशेषार्थ – मोहनीयका जघन्य अनुभागसंक्रम क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके होता है, इस लिए तथा अजवन्य अनुभागसंक्रमके मनुष्यों में भी यह इसी प्रकार बन
से तथा मनुष्यत्रिमें इसके अन्तरकालका निषेध किया है। जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका खुलासा अनुत्कृष्टके समान है। जाता है । मात्र जघन्य अन्तर एक समय नहीं बनता, क्योंकि स्वस्थानकी अपेक्षा उपशान्तमोहका मुहूर्त है। शेष कथन स्पष्ट ही हैं ।
का
६४१. शेष अनुयोगद्वारोंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि सत्कर्मके स्थान में संक्रमका श्रालाप करना चाहिए।
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इस प्रकार तेईस अनुयोगद्वार समाप्त हुए ।
६४२. भुजगार संक्रमका प्रकरण है । उसमें सनुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वतक तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोष और श्रादेश । श्रघ भुजगारसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक, अवस्थितसंक्रामक और अवक्तव्यसंक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिमें जानना चाहिए। शेष मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
४३. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोष और आदेश । श्रोघसे अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रमका स्वामी कौन है ? इक्कीस प्रकृतियोंका सत्कर्मवाला जो अन्यतर उपशामक जीव सर्वोपशमनासे गिर कर देव हो गया या प्रथम समय में संक्रामक हो गया वह अवक्तव्यसंक्रमका स्वामी है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य संक्रमका स्वामित्व कहते समय सर्वोपशमनासे गिरते हुए मर कर देव हो गया यह भङ्ग नहीं कहना चाहिए। शेष मार्गणाओं में अनुभाग विभक्तके समान भङ्ग है ।
४४. कालका भङ्ग अनुभागविभक्तके समान है। इतनी विशेषता है कि वक्तव्यसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
६४५. अन्तरानुगभकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और आदेश । श्रघसे अनुभागविभक्ति के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि वक्तव्य संक्रमका जघन्य अन्तरन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तैतीस सागर है । मनुष्यत्रिकमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
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गा०८]
अणुभागभुजगार संकमे णाणाजीवेहिं भंगविचयाणुगमादिपरूवणा
विहतिभंगो | णवरि अवत० जह० अंतोमु०, उक्क० पुव्त्रकोडी देखणा । सेसमग्गणाओ
1
विहतिमंगो |
४५.
noo मोह • भुज ०-अप्प ० - अवट्ठि ० संकामया णियमा अत्थि । सिया एदे च अवतव्त्रया च । मणुसतिए भुज० -अवडि० भयणिआाणि । सेसमम्गणाणं विहत्तिभंगो ।
1
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णाणाजीवभंगविचयागमेण दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओषेण
सिया एदे च अवत्तव्यओ च । णियमा अस्थि । सेसपदाणि
४६. भागाभागाणु ० दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघो विहत्तिभंगो । णवरि अवत्त • संका • अगतिमभागो । मणुसेसु विहत्तिभंगो । णवरि अवत्तव्य० असंखे ०भागो । मणुसपज ० - मणुसिणी • मोह० अवडि० संखेजा भागा। सेससंका • संखे० भागो । सेसमम्गणासु विहत्तिभंगो ।
६ ४७. परिमाणं विहत्तिभंगो । णवरि अवत • संखेजा ।
इतनी विशेषता है कि वक्तव्यसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। शेष मार्गणाओंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है।
विशेषार्थ - तामिकसम्यग्दृष्टि जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिक से अधिक साधिक तैंतीस सागरके अन्तरसे उपशमन पिर आरोहण करता है, इसलिए तो ओघसे अवक्तव्यसंक्रमका जधम्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा मनुष्यत्रिमें जघन्थ अन्तर तो श्रोघके समान ही प्राप्त होता है। मात्र उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिसे अधिक नहीं हो सकता। कारण स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है।
४५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश । भोसे मोहनीयके भुजगारसंक्रामक, श्रल्पतरसंक्रामक और अवस्थितसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्यसंक्रामक जीव है । कदाचित् ये: नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्यसंक्रामक जीव हैं। मनुष्यत्रिकों भुजगारसंक्रामक और अवस्थित संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। शेष मार्गणाओंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है।
६ ४६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोष और आवेश । श्रोषसे अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामक जीव सब जीवीके श्रमम्तवें भागप्रमाणं हैं। मनुष्यों में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामक जीव सब मनुष्यों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनिर्मि अपस्थितसंक्रामक जीव उक्त दोनों प्रकारके मनुष्योंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा शेष पदोंके संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। शेष मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । ४७. परिमाणका भङ्ग अनुभागविभवितके समान है । इतनी विशेषता है वक्तव्य संक्रामक जीव संख्यात हैं।
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गुणा जयधवलासहिद कासार्यपाहुंडगागागागणाः [ौधा Vाणाहर खेस पोसणं नहित्तिभंगोष्णिवस्वित्तसकामलींगस्सा असंखंभोली कायव्यो।
कोशी शाह! ४ाणकोली गहलिमंगो परिवेत्तठसका जीएसटणा उर्फ४ संखेजा, समय SEREE F S T I S TATO PER NPs-ope ... Ek ZI
THO ....६.५१. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । ..
SETE OULETTE
अभुई.. अतरै विहतिमैगी । ऐवर अविस सकाएक
Livratramg IFTTER विहात्तभगा अवत्त०सका जहरू एयस०, उक्क०वासपुधन।
Mणाणम्माण
यस टाइल वासंधान
SET ISTE OESTE ABITA TU .६ ५२. अप्पाबहुआणु० दावहाणिसी-आधण आदरण याआधण अवत्त०rok 197315 ISO UTILUGVETILISHTURE OFTETTE J570 संका० थावा।' अप्पद सका० अणतगुणाभूजसका."असूखे गुणा ।"अवासका LITTSO ESPÍŠE LUI SF.ETETE IF TUTETUESE SITE TUTT सख०गणा। सु सव्वत्थावा (०सकाव
सका असंखेश्गुणान' भुज
संका० असंखे०गुणा । अबढि०संका० संखे०गुणा । एवं मणुसपज मलुसिणासुर णवरि संखेजगुणं कायचं । सेसनणासु विहतिगी की णPTP .०४४
AMA
FJS
स्पशनका भंडअनुभागविभक्तिक सम्रामा शESPHएकाधि
इतना विराषता :
TESTINYSTE BRIEF कामना
मलए
अवक्तव्य संक्रामक जीवोंका क्षेत्र और स्पेशन लोकक सत्यति मागप्रमाण करना चाहिए भीमसिंह नाना सायकिअपक्षी कालको भङ्ग अनुभागैविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि अवतव्यसंक्रामकीका अधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्याते समय हो कागार TISF TEMP E RIA
मा अवक्तव्यसंक्रामक होते हैं, तो इसका जपत्य काय माक सम प्राप्त होता हौडामकि नाका जी, लगातार पहले समग्रमें अन्य जीव और दूसरे समयमें अन्य जीव इस क्रमसे संख्यात समय तक
अबक्तव्यपदके संक्रामक होते है तो इसका उत्कृष्ट काल सस्यति समय तक प्राप्त होता. मामापीर मामा मान्म FE
हे शी कथन स्पष्ट | FTE PRESSFER HIER TESTFIT It FET अन्दरकाशिङ्गस्थनमाविभक्तिसमान है। इतनी विशेषता है कि वक्तव्यसंकामको का सामेन्योर एक समय मोरामकृष्ठन्तर वर्षधरलप्रमाण हैं। FREE TREE
विशेपार्थ-उपशमश्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको ध्यानमें रख कर यहाँगाम अवक्तव्यसंकासकोंका सह अवर कहा है कोष कथा साथ ही है। ETHERS.33
TMENTव सर्वत्र सौदधिकार REFT TEPTET frag F r ee
का अल्पवहस्त्वामुगको अपेक्षा निर्देश दो कारेका है श्रोध और श्रादेश । यस अवक्तव्यसक्रामक जीव सबसस्तोक हैं म उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव अनन्तगुण हैं । भुजागीर संक्रामक जीव असख्यातगुणे हैं। उनसें अवस्थितसंक्रामक जीव 'सख्यातगुण है। मनुस्खा अवक्तव्येसंक्रमिक जीव सबसे स्तकि है। उमस अल्पतरसंक्रामक जाध' असंख्यातगुणे है ।हमसे मुबारसंक्रामक जीव असंख्यासगुणे हैं। उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव संख्यानगगे हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर असंख्याताणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । शेष मार्गणाओंमें अनुभागबिभक्तिके समान भङ्ग है।
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तदा उकस्त
गा०५८] अणुभागपदणिक्खेव-बडिसकमपरूवणा
५३. पदणिक्खेके ति तत्थइमाणि तिणि अणिओगहीराणि समुकित सामित्तमप्पाबहु० । समुक्त्तिणाए विहत्तिभंगी।- SIPTET .
LISTEN TO JIX LITTLE DE 1586
-जह०.उक्क०। उक०पयद । दविहीं णिसी-ओघणआदसंण य । ओषेण उकस्सिया वड्डी कस्स ? अग्णदरस्स जो तप्पाओग्गजहणयमणुभार्ग सकामेंतो
तदो उकस्सागुभांग पबद्धो तस्स आवलियांदीदस्स उक्क० SI S TITIK FTUFET". 1518 USTS LETTE ले उक्कस्सयमवहाण । उक० हाणी. कस्स.. अगदरण उकस्सागुभाग P
ROFESमाण ० अणुभागखेडए हद तस्स उकास्सया हाणी। एवं चदुसुगदासु। णवरि पंचिदियतिरिक्खअपज मणसअपज -आणदादि जाव सबट्ठा त्ति विहत्तिभंगो।
लागणार " ६५५. जहण्यए पयदं । विनिभAHTE E * 5. ५६. अप्पाबहुअं विहनिभंगो TEHRSTITE कि 38 मा ५७. वहिसंकमे तत्थ इमाणि तेइस अणियोगावराणि समुक्तियाजाव अपनाए ति। समुकितणाणु दुनिहो गिदेसोनमओयोमासेमाच ओघेणा मोहला भविाछव्यिहा वैशिहाणी असाचारामासतिगासेसमग्गणासविहचिमंगो । णाजागा ६५८. सामित्तं विहत्तिभंगो । पारि जल अगाडगो # IFFI . ३५ ४
mmy PIPER HITTETTE ६.५३. पदनिक्षेपका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगदार होते हैं समुल्लीतना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तमाका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। नाक DIF ...६५४. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण निर्देशादी प्रकारका है-श्रोध और आदेश । श्रोधसे उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौमाह अन्यतर- जिस जीवने तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागका संक्रमण करते हुए उस्कृष्टसिक्लशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया, एक अवलिके बाद वह उत्कृष्ट वृद्धिको "स्वाभीहा था.'यही जीव अनन्तर, समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कोन अन्यतर जिस जीवने उत्कृष्ट अनुमागका संक्रम करते हुए उस्कृष्ट अनुभागकाण्डका घात किया हाम्यह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और पानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक दवाम अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
माना .६ ५५. जवन्यका प्रकरण है। उसका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। .
६६६. अल्पबहुत्वका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समाHEE FIRF FTS *
.६ ५७. वृद्धिसंक्रमका प्रकरण है। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर, अल्पबहुत्व तक ये तरह अनुयोगद्वार होते हैं। समुत्कीर्तनानुणमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका श्रोध और आदेश । ओघसे मोहनीयके छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदकासकामक आवाह। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष मार्गणापि अनुमागविमुक्ति के समीन मङ्गहिषा
५८. स्वामित्वका भङ्गे अनुभागविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्यसक्रमका भङ्ग भुजगारके समान है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [बन्धगो ६ ६ ५६. कालो विहत्तिभंगो । णवरि अवत्त० भुजगारभंगो।
६६०. अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो च विहत्तिभंगो । णवरि अवत्त० भुजगारभंगो।
६१. अप्पाबहुआणु० दुविहो णिदेसो-ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह. सम्वत्थोवा अवत्त०संका० । अणंतभागहाणिसंका० अणतगुणा । सेसपदाणं विहत्तिभंगो । मणुस्समु सव्वत्थोवा अवत० । अणंतभागहा० असंखे०गुणा । उरि ओघं । एवं मणुसपज मणुसिणी० । णवरि संखेन्गुणं कायछ । सेसमग्गणासु विहत्तिभंगो।
६६२. ठाणाणमणुभागविहत्तिभंगाणुसारेण परूवणा कायया ।
- एवं मूलपयडिअणुभागसंकमो समत्तो। * तदोउत्तरपयडिअणुभागसंकर्म पउवीसअणियोगद्दारेहि वत्तइस्सामो।
६६३. तदो मूलपयडिअणुभागसंकमविहासणादो अणंतरं पुषपरूविदेण अद्रुपदेण उत्तरपयडिविसयमणुभागसंकमं वत्तहस्सामो ति एसा पइजा सुत्तयारस्स । तत्थाणियोगदाराणमियत्तावहारणहमिदं युत्तं 'चउवीसमणियोगदारेहि ति। काणि ताणि चउवीसअणिओगद्दाराणि १ सण्णा सव्यसंकमो णोसब्बसंकमो उक्स्ससंकमो अणुकरससंकयो जहण्गसंकमो
६५६. कालका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यका भङ्ग भुजगारके समान है।
६ ६०. अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भावका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यका भङ्ग भुजगारके समान है। .
६६१. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनन्तभागहानिके संक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं। शेष पदोंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। मनुष्योंमें प्रवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनन्तभागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। ६६२ स्थानोंका अनुभागविभक्तिके भङ्गके अनुसार प्ररूपणा करना चाहिए।
इस प्रकार मूलप्रकृतिअनुभागसक्रम समाप्त हुआ। * अब चौबीस अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर उत्तरप्रकृतिअनुभागसंक्रमका कथन
करेंगे।
६६३. 'तदो' अर्थात् मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमका कथन करनेके बाद पूर्व में कहे गये अर्थपदके आश्रयसे उत्तरप्रकृतिविषयक अनुभागसंक्रमको कहेंगे इस प्रकार सूत्रकारकी यह प्रतिज्ञा है । वहाँ अनुयोगद्वारोंकी इयत्ताका निश्चय करनेके लिए 'चउवीसमणियोगद्दारेहिं' यह वचन कहा है । वे चौबीस अनुयोगद्वार कौन हैं ऐसा प्रश्न होने पर उनका नाम निर्देश करते हैं। यथा-संज्ञा, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्ट संक्रम, अनुत्कृष्ट संक्रम, जघन्य संक्रम, अजघन्य संक्रम, सादि
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे घादिसणा-हाणसण्णापरूपणा २१ अजहण्णसंकमो सादियसंकमो अणादियसकमो धुवसंकमो अद्ध वसंकमो एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं सणियासो णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाण खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भाषो अप्पाबहुअं वेदि । एदेसि च जुगवं वोत्तुमसत्तीदो कमावलंबणेण सण्णाणिओगद्दारमेव ताव विहासिदुकामो सुत्तमुत्तरं भणइ
* तत्थ पुवं गमणिज्जो घादिसण्णा च हाणसण्णा च।
६६४. 'तत्थ' तेसु चउवीसमणिओगद्दारेसु 'पुलं' पढमदरमेव ताव 'गमणिज्जा' अणुगंतवा घादिसण्णा च ठाणसण्णा च । एदेण सण्णाए दुविहत्तं पदुप्पाइदं । तत्थ घादिसण्णा णाम मिच्छत्तादिकम्माणमुक्कस्सादिअणुभागसंकमफइएमु देस-सव्वघादित्तपरिक्खा । ठाणसण्णा च तेसिमेवाणुभागसंकमफयाणं जहासंभवमेगट्ठाणिय-विट्ठाणिय-तिहाणिय-चउट्ठाणियभावगवेसणा । संपहि दोण्हमेदासिं सण्णाणं णिसं कुणमाणो सुंतकलावमुत्तरं भणइ___* सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं मोत्तूण सेसाणं कम्माणमणुभागसंकमो णियमा सव्वघादी वेडाणिो वा तिहाणिो वा चउट्ठाणिोवा ।
६६५. सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणमणुभागसंकमं मोत्तण सेसकम्माणं मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-बारसक०-अट्ठणोकसायाणभणुभागसंकमो उक्कस्सो अणु० जहण्णो अजहण्णो च सव्वघादी चेत्र, देसघादिसरूवेण सबकालमेदेसिमणुभागसंकमपवुत्तीए असंभवादो। सो वुण विट्ठाणिओ तिहाणिओ चउट्ठाणिओ वा । एयवाणियो णत्थि, सव्वधादित्तणेण तस्स संक्रम, अनादि संक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर सग्निकर्ष, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । किन्तु इनका एक साथ कथन करना असम्भव है, इसलिए क्रमका अवलम्बन लेकर संज्ञा अनुयोगद्वारको ही सर्व प्रथम कहनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं
* उनमें सर्व प्रथम घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा जानने योग्य है।
६६४. 'तत्थ' उन चौबीस अनुयोगद्वारों में 'पुव्वं' अर्थात् सर्व प्रथम घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा 'गमणिज्जा' अर्थात् जानने योग्य है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा संज्ञा दो प्रकारकी कही गई है। उनसे मिथ्यात्व आदि कर्मोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागसंक्रमरूप स्पर्धों से कौन स्पर्धक देशघाति हैं और कौन स्पर्धक सर्वघाति हैं इस प्रकारकी परीक्षा करना घातिसंज्ञा कहलाती है। तथा उन्हों अनुभागसंक्रमरूप स्पर्धकोंके एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिकभावकी गवेषणा करना स्थानसंज्ञा कहलाती है। अब इन दोनों संज्ञाओंका निर्देश करते हुए आगेका सूत्र
कलाप कहते हैं
___* सम्मक्त्व, चार संल्वलन और पुरुषवेदको छोड़ कर शेष कर्मों का अनुभागसंक्रम नियमसे सर्वघाति तथा द्विस्थानक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है।
६६५. सम्यक्ल्व, संज्वलन चार और पुरुषवेदके अनुभागसंक्रमको छोड़ कर मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषाय इन शेष कर्मों का उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति ही होता है, क्योंकि इनके अनुभागसंक्रमकी सर्वदा देशघातिरूपसे प्रवृत्ति होना असम्भव है । परन्तु वह अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक या चतुःस्थानिक होता
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promp> जयश्चवलासहिदे कसायपाहुडे [बन्धगो । पडिसिद्धताहो तपासासामसकसो वडागिलो वेब, तत्थ पयारतराणुवलंभारे। आणुकसामसंकमो मा बडाणिओ, विद्वाणिओ विहाणिो या, तिण्हमेदेसि भावणं तत्थ संभवादो जमाणभागसंस्मो विद्वामिओ चेक, तत्य पयारतासंभवादो। अजहण्णाणुभागसंकमो विट्ठाणिओ तिहाणिओ चउट्ठाणिओ वा, तिविहस्स वि भावस्स तत्थ संभवादो। एदेण सामण्णायगेण सम्मामिछत्तस्स वि सबघादितणावहारियस्स तिहाणिय-चउहाणियाणुभागसंकमाइप्पसंगे तारिणतारणहसतमाह FE TRवरि सम्मामिछत्तम वेवाणिओ चेव । - 3
६६६ सम्मानित उक्लम्साकस्स-जहण्णाजण्णायुभागसंकमी वेढाणियत्वेगावहारेयौं, दारुअसमाणापतिमभामे चेक सत्पादित्तेण तद॑णुभागस्स पञ्जवसिदचादो । एवमेदेसि सणाविसेसपरिक्खं काऊण संपहि परिसवेद-चदुसंजलणाणुभागसंकमस्स संण्णाविसेस
पदप्पायणमवारमसुत्तमाह
......*अक्खवग-अणवसामगस्स.चदुसज़लए-पुररसवदागास मिच्छत्तभंगी।
६७. कुंदो ? सवैधादितगण वि-त-बवाणियत्तणेण च भेदाभावादो। संपहि
सु तब्भेदसंभवपदप्पायणमिदमाह - है। एकस्थानिक नहीं होता क्योकिसकस्थानिक अनुभागसंक्रमका सर्वघाति होनेका निषेध है। उसमें भी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चतुःस्थानिक ही होता है, क्योंकि उसमें अन्य प्रकार नहीं उपलब्ध होता । परन्तु अनुत्कृष्ट अनुमांगसंक्रम चतुःस्थानिक) त्रिस्थानिक या द्विस्थानिक होता है. क्योंकि इसमें ये तीनों प्रकार सम्भव हैं जिन्य अनुभागसंक्रमविस्थानिकाही होता है क्योंकि इसमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। तया अजय अनुमानिसक्रम विस्थाभिक त्रिस्थानिक या चतुस्थिानिक होता है, क्योंकि इसमें उक्त तीनों प्रकारका अनुभगसक्रम सम्भव है। इस प्रकार इल सामान्य वचनके अनुसार सर्वघातिरूपसेनिश्चता किये गये। सम्यस्मिथ्यात्वमें भी त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक अनुभागसंक्रमका अतिप्रसङ्ग होने पर उसका निवारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है ITTEFERREE ।
TEE MPETES #इतनी विशेषता है कि सम्पमिथ्यात्वका अनुभागसंक्रम बिस्थानिक ही होता है।
६६. सम्यग्मिप्यास्त्रके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ठ, जघन्य और अजघन्य अनुभागसक्रमको द्विस्थामिक ही निश्चय करना चाहिए, क्योंकि दोरुसमान अनुभागसंक्रमके अनन्सवें भागम ही सर्वकातिरूपसे उसके स्त्रानुभागेका पर्यवसानां देखा जाता है। इस प्रकार इनकों की संज्ञा विशेषकी परीक्षा करके अब पुरुषवेद और चार संज्वलनोंके अनुभागसंक्रमकी संज्ञाविशेषका कथन करने के लिए -मोका सूत्र कहते हैं। RaptiSF E T
अक्षपक और अनुपशामक जीतके वार संज्वलना और पुरुषवेदके अनुमासंक्रमका भङ्ग मिथ्या समान है #Free ,
६७. क्योंकि सर्वघातिरूपसे तथा द्विस्थानिक, निस्थानिक और चतु:स्थानिकरूपसे मिथ्यात्वकी अपेच्छा उक्त कमों के अनुभागसंक्रममें भेद नहीं है। अब आपक और उपसमकोंमें जसका भेद सम्भव है इस बातका कथन करनेके लिए, यह सूत्र कहते हैं- एक) ।
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उत्तरपयडिऋणुभाषाको आदिमा असण्णापरूवणा
३
जीएफ | *खवगुणश्लामावासमभागसंकमा सन्यादी पा देसवादी वा agाणि वा यद्वाणि वा । -THE BI TAs propps #gy § ६८. एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । जहाँ गवसमिसे एदैसि सुँकस्साणुमासंक्रमो प्रेद्वाणिको सवादीचे, अपुरणीकेसनसमा तदुपलभा हो । अणुवस्सा णुमाको वेडापिओं एठ्ठा ओविणारी महासमादी या । एाणिओ कत्थीखगोटीसु, अमिरकरणी कादूपेणामिभागं गंधमापस्तमुद्धावयकमावत्या किडीवेदगकीसम्मंतरे। संपादितं की तस्व लक्ष्मण जहम्णा गुणुभागसंक्र दिशि दी एण्डागिओ' या महामित्रांवरसः किडीणां चारिमसमयका संगाप तदुक लंभादो । अजहण्णाणुभागसंकमो एयट्ठाणिओ वेट्ठाणिओ वा देसबादी वाडवाडी-रू, अयुक्तस्सस्सेव तदुवशंभादोः । एवप्रेदेखि शृण्णा चित्तेसं स्तवित्र संप्रति सस्मताणुभ्रा गृसंकमस्स सपनाविशेस विहासण्यचा
RR NO 15 SF
• सम्मर्ता अणुभागसंकमो विचमा बिसघायो । Lfsize BEDSE SPUR
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མགཏནི ཏ
* मात्र क्षपक और उपशामक जीवके उनका अनुभागसंक्रम सर्वघाति भी होता - और देशांत भी होता है। तथा दिस्थानिक भी होता है और एकस्थानिक भी होता है। - 1 TER S Refery FTS 13 TOTE 195
अब इस सूचका अर्थ कहते हैं । यथा— क्षपक और उपशामक जीवोंमें चार संज्वलन और परुषवेद इन पाँच कर्माका उत्कृष्ट अनुभागसँक्रम द्विस्थानिक और सर्वधाति ही होता है, क्योंकि अपूर्वकरणमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमै उसका उपलब्धि होती है। अनुष्कृष्ट अनुभागद्विस्थानिक भी होता है और एकस्थानिक भी होता है। “तथा सर्वघाति भी होता है और PES PREPE SUPE भी होता है । एका एकथानिक अनुभागक्रम कहाँ पर उपलब्ध होता दे में कई ने एक उप नः समाधान उपन पि और उपश्यामन सिमैं अन्तरकरण करके एकस्थानिक, अनुभागका करनेवाले जीव के युद्ध जबकी संक्रमरूप अवस्थामें और कृष्टिवेदककालके भीतर एकस्थानिक अनुभागसंक्रम उपलब्ध होता है तथा वहीं पर उसका देशघाविषना पाया जाता है । इन मका जघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति और एकस्थानिक होता है, क्योंकि यथासम्भव चकबन्धको कृष्टियोंक सकर्मक अन्तिम समय में वह उपलब्ध होता है। अजघन्य अनुभाग्रसंक्रम स्थानिक भ 'होता', 'और द्विस्थानिक भी होता है। तथा देशघाति भी होता है और सर्वधाति थी होता है, क्योंकि जिस प्रकार इन कनाक अनुष्टमें इन भेदाना उपलब्ध होती है उसी प्रकार के जाते हैं।" इस प्रकार इनकी संज्ञाविशेषका कथन करके अब 'सम्यक्त्वक जानुमक संज्ञाविशेषको व्याख्यान करने के लिए आपका सत्र क कहते * सम्यकत्वका अनुभागसंक्रम नियमसे देशघाति होता है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बन्धगो ६६. उक्कस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णमेदाणं सव्वेसिमेव देसघादितदसणादो । पहि एदस्सेव रट्ठाणसण्णाणुगमं कस्सामो । तं जहा
* एयहाणिो वेवाणिो वा। ६७० तदुक्कस्साणुभागसंकमो वेट्टाणिओ चेव, तत्थ लदा-दारुअसमाणाणुभागाणं दोई पि णियमेणोवलंभादो । अणुकस्सो वेढाणिओ एयट्ठाणिओ वा, देसणमोहक्खवणाए अनुरसद्विदिसंतकम्मप्पहुडि एयट्ठाणाणुमागदसणादो हेटा वेढाणियणियमादो। जहण्णाणुभागसंकमो णियमेणेयट्ठाणिओ, समयाहियावलियदंसणमोहक्लेवयम्मि तदुवलंभादो । अबह एयट्ठाणिओ वेढाणिओ वा, दुसमयाहियावलियदंसणमोहक्खवयप्पहुडि जावुकस्साणुभागो षि ताव अजहण्णवियप्पावट्ठाणादो।
७१. एवं सुताणुगर्म काऊण संपहि उच्चारणामुहेण सण्णाविहाणं वत्तइस्सामो । तं जहा–तत्थ दुविहा सण्णा-घाइसण्णा द्वाणसण्णा च । घाइसण्णाणु०दुविहो णिदेसोओषेण आदेसेण य। ओषेण मिच्छ०-सम्मामि०पारसक०-अदुणोकसायाणं उक०अणुक०-जह०-अजह०संक० सव्वघादी। पुरिसवेद-पदुसंजल० उक० सव्वघादी।
६६६. क्यींकि इसके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन सब भेदोंमें देशघातिपना देखा जाता है। अब इसीकी स्थानसंज्ञाका अनुगम करेंगे । यथा
* तथा वह एकस्थानिक भी होता है और द्विस्थानिक भी होता है।
६७०. उसका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक ही होता है, क्योंकि इसमें लता और दारू समान यह दोनों प्रकारका अनुभाग नियमसे पाया जाता है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक भी होता है और एकस्थानिक भी होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होते समय जब सम्यक्त्वका आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है तब वहाँ से लेकर उसका एकस्थानिक अनुभाग देखा जाता है । तथा इससे पूर्व द्विस्थानिक अनुभागका नियम है। जघन्य अनुभागसंक्रम नियमसे एकस्थानिक होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपण करनेवालेके उसकी क्षपणामें एक समय अधिक एक श्रावलि काल शेष रहने पर उसकी उपलब्धि होती है। अजघन्य अनुभागसंक्रम एकस्थानिक भी होता है और विस्थानिक भी होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें जब दो समय अधिक एक श्रावलि काल शेष बचता है तब वहाँसे लेकर प्रतिलोमक्रमसे उत्कृष्ट अनुभागके प्राप्त होने तक सब अनुभाग अजघन्य विकल्परूपसे अवस्थित है। . ६७१. इस प्रकार सूत्रोंका अनुगम करके अब उच्चारणाकी प्रमुखतासे संज्ञाका विधान करते हैं। यथा-प्रकृतमें संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घातिसंज्ञानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति है। पुरुषवेद और चार संज्वलनकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सर्वघाति है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सर्वधाति
१ ता० प्रतौ 'एदस्स वेढाण' इति पाठः ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे घादिसण्णा-हाणसण्णापरूवणा
२५ अणु० सव्वघादी देसघादी वा । जह० देसघादी । अज० सबघादी वा देसघादी वा । सम्म० उक०-अणुक०-जह०-अजह० देसघादी चे । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणी० पुरिसवेद० उ०-अणुक०-जह०-अजह० सव्वघादी। सेसमग्गंणासु विहत्तिभंगो।
६७२. ढाणसण्णाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०पारसक०-अट्ठणोक० उक० चउट्ठा० । अणु० चउट्ठा० तिहाणि० वेढाणिओ वा । जह० विद्वाणि । अज० विठ्ठाणि० तिहाणि० चउहाणिओ वा । सम्म०-सम्मामि०-चदुसंजल०पुरिसवेद० विहत्तिमंगो। एवं मणुसतिए। णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेद० छण्णोकसायमंगो । सेसमम्गणासु विहत्तिभंगो।
भी है और देशघाति भी है। जघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति है। वथा अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति भी है और देशघाति भी है। सम्यक्त्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम देशघाति ही है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जवन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति ही है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-मनुष्यिनीके पुरुषवेदकी सत्त्वव्युच्छित्ति छह नोकषायोंके साथ ही हो लेती है, इसलिए यहाँ पर मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका चारों प्रकारका अनुभागसंक्रम सर्वघाति ही बतलाया है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६ ७२. स्थानसंज्ञानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, या द्विस्थानिक होता है। जघन्य अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक होता है। तथा अजघन्य अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक या चतुःस्थानिक होता है। सम्यक्त्व, सम्यम्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
- विशेषार्थ-स्थानसंज्ञाके प्रसङ्गसे अनुभागको चार प्रकारका बतलाया है-एकस्थानिक, विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । केवल लताके समान अनुभागको एकस्थानिक अनुभाग कहते हैं, लता और दारुके समान मिले हुए अनुभागको विस्थानिक अनुभाग कहते हैं, दारु और मस्थिके समान मिले हुए अनुभागको त्रिस्थानिक अनुभाग कहते हैं तथा दारु, अस्थि और शैलके समान मिले हुए अनुभागको चतु:स्थानिक अनुभाग कहते हैं । लताके समान एकस्थानिक अनुभाग तथा लता और दारुके अनन्तवें भाग तकका विस्थानिकअनुभाग देशघाती होता है और शेष सब अनुभाग सर्वघाति होता है। पहले मिथ्यात्व आदि कर्मोमें किस कर्मका अनुभाग किस प्रकारका है इसका विचार कर आये हैं सो उसे इस विवेचनको ध्यानमें रख कर घटित कर लेना चाहिए। यद्यपि सम्यग्मिथ्यात्वमें केवल दारुके अनन्तवें भागप्रमाण मध्यका सर्वघाति अनुभाग ही उपलब्ध होता है। फिर भी उसे उपचारसे विस्थानिक संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार अन्यत्र सर्वघांति अनुभागों में द्विस्था निक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक संज्ञाओंकी सार्थकता घटित कर लेनी चाहिए। माना कि इन सर्वघाति अनुभागोंमें देशघातिकी सीमा तकका अनुभाग उपलब्ध नहीं होता फिर भी
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जयधवलासाहिदे कायम
[सं
१६. ७३. सव्वसंकमो गोसव्त्रसंकमो ट्रकस्त्रसंको भकासको संक अजहण्णसंकमो त्ति विहतिभंगो। सादि ० अपादि : ध्रुव : अद्भुवार, दुबिट्टो पिसो ओ मिच्छ, भङ्ककसाय सम्म १ सम्मामिक अणुक पटक जह
० सादी
शु
आदेसेण य । ओषेण अजहू० किं सादि ० ४ १ सादी अद्भुवो । अवक०, गवशोक अद्भुवो । अज० चचारि भंगा । आदेसेण सव्वं सव्वत्थ सादी
अद्भु
जहाँ वारुका बहुमानप्रमाण अन्तका सर्वधाति अनुभाग होता है उसकी उपचारसे द्विस्थानिक है | जहाँ पर यह और अस्थिके समान अनुभाग उपलब्ध होता है, इसकी त्रिस्थाि है। तथा जहाँ यह पूर्वका दोनों भेदरूप और शैलके समान होता है उसका उपचार'से चतुःस्थानिक संज्ञा है । यहाँ पर लता, दारु अस्थि और शैल य शब्द हैं। जो अपने उपमेयरूप अनुभागोंकी विशेषताको प्रकट करते हैं । स्थानसंज्ञाका निर्देश करते समय मनुष्यवियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायकि समान कहा है। सी इसका आशय इतना में है कि मनुष्यिनियम पुरुषवेदका लताके समान एकस्थानिक अनुभाग नहीं उपलब्ध होता । कारणका निर्देश हम धांति संज्ञाके प्रसङ्गसे विशेषार्थमें कर ही आये हैं। शेष कथन सुगम हैं। 3
ज
९ ७३. सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अमुत्कृष्टसक्रम, जघन्यसक्रम संक्रमका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है । सादि, अनादि, धव और अनुमापेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-बोध और आदेश । श्रोषसे मिध्यात्र, मार्क का और सामग्रमिध्यात्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और जघन्य अनुभागसंग जान है या अनादि है। न्या
क्या है ? सादि और अध्रुव है। आठ कषाय और नौ नोकषायोंका अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभागसंक्रम स्वादि और अध्रुव है। तथा अजघन्य अनुभाग संकस सादि आदि चारों भेदरूप है । आदेशसे सब अनुभागसंक्रम सर्वत्र सादि और अथवा विशेषार्थ — मिध्यात्व, श्रप्रत्याख्यायवाचकमित्यादियानामरचतुष्का संन्यवस्थ
और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट और अनुत्त अनुभात संत्रा, अदानिक हैं, इसलि ये दोनों यहाँ पर सादि और अध्रुव कहे गये हैं तथा सिया और वादा कपाय नमन्या और अजघन्य अनुभागसंक्रम भी कादाचित्क हैं। साथ ही सम्यक्त्त यो साम्य दोनों प्रकृतियाँ भी कादाचित्क हैं, इसलिए यहाँ पर बनाके जवत्य और अनुभाग संक्रमासादि और कहे गये हैं । अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो इनके भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग संक्रम कादाचित्क होनेसे सादि और अध्रुव जान लेने चाहिए। चार संवलन और नौ का जघन्य अनुभागसँक्रम अपनी अपनी क्षपणा होते समय जधन्य अनुभागक्रमण काल होता है और इसके पूर्व अजघन्य अनुभागसँक्रम होता है इसलिए तो जधन्य अनुभागसक्रम अनादि है तथा उपशममैमेिं उपशान्त दशामें यह संक्रम नहीं होता और उसके बाद गिरने पर होम लगता है, इसलिए इनका अजघन्य अनुभागसँक्रम सादि है। तथा मध्यकी अपेक्षा वह भार अभय अपना अधव । इस प्रकार इन तेरह प्रकृतियोंका अन्य अनुभाग कम स चाररूप बन जानेसे वह चार प्रकारका कहा है और इनका जघन्य अनुभागक्रम किलिमें ही होता है इसलिए ESE DISER वह सादि और अध्रुव कहा है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धचतुष्कका जघन्य अनुमासिक मापनः सयोजना होने पर एक आवलिके बाद द्वितीय श्रावली के प्रथम "समयम होता है, इसलिए यह भी सादि और ध्रुव कहा है तथा विसंयोजना होनेके पूर्व तक इन चारका "अजघन्य अनुभागसंक्रम नाद होता है और पुनः संयोजना होने पर जघन्यके बाद वह सादि होता है तथा भव्याक
DIR PETIRES PHIDIPUR BIDS का
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गा०५८]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे सामित्त सामित्तं ।
६ ७४. सामित्तमिदाणि कस्सामो ति पइण्णावक्मेदं । सब-णोसव्यसंकमादीणं सुत्ते किमढ णिद्देसो ण कदो ? ण, तेसिं सुगमाणं वक्खाणादो चेव पडिवत्ती होइ ति तदकरणादो। तं च सामित्तं दुविहं जहण्णकस्साणुभागसंकमविसयत्तेण । तत्थुक्कस्साणुभागसंकमविसयं ताव सामित्तं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
® मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकमो कस्स ? ६७५ सुगमं ।
* उकस्साणुभागं बंधिदूणावलियपडिभग्गस्स अण्णदरस्स ।
६७६. मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागमुक्कस्ससंकिलेसेण बंधियण जो आवलियपडिभग्गो तस्स पयदुक्स्ससामित्तं होइ । आवलियपडिभग्गं मोत्तण बंधपढमसमए चेत्र सामित्तं किण्ण दिजदे ? ण, अणइच्छाविय बंधावलियस्स कम्मस्स ओकड्डणादिसंकमणाणं पाओग्गत्ताभावादो ।सो वुण मिच्छत्तुकस्साणुभागबंधगो सण्गिपंचिंदियपजत्तमिच्छाइट्ठी सव्वसंकिलिट्ठो। अपेक्षा अध्रुव और अभव्यों की अपेक्षा वह ध्रुव होता है, इसलिए इन चारों प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागसंक्रमको भी सादि आदिके भेदसे चार प्रकारका कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
* स्वामित्वका प्रकरण है। ६ ७४. इस समय स्वामित्वका कथन करते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावचन है । शंका-सर्वसंक्रम और नोसर्वसंक्रम आदिका सूत्रमें निर्देश किसलिए नहीं किया ? ...
समाधान नहीं, क्योंकि वे सुगम हैं । व्याख्यानसे ही उनका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उनका सूत्रमें निर्देश नहीं किया ।
जघन्य अनुभागसंक्रम और उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमको विषय करनेवाला होनेसे वह स्वामित्व दो प्रकारका है। उनमेंसे उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमविषयक स्वामित्वका सर्व प्रथम कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? ६५. यह सूत्र सुगम है।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका बन्धकर प्रतिभग्न हुए जिसे एक आवलि काल हुआ है ऐसा अन्यतर जीव मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी है।
६७६. मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागको उत्कृष्ट संक्लेशसे बाँधकर जिसे प्रतिभग्न हुए एक श्रावलि हो गया है उसके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। ... शंका–प्रतिभग्न हुए एक आवलि कालको छोड़कर बन्ध होनेके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि बन्धावलिको बिताये बिना कर्ममें अपकर्षण श्रादि रूप संक्रमणों की योग्यता नहीं पाई जाती।
परन्तु मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला वह जीव संज्ञी पञ्चेद्रिय पर्याप्त मिथ्या
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ जइ एवं, अण्णत्थुक्कस्साणुभागसंकमो ण कयाई लब्भदि ति आसंकाए णिरायरण?मण्गदरविसेसणं कदं, तदुक्कस्सबंधेणाघादिदेण सह एइ दियादिसुप्पण्णस्स तदुवलंभे विरोहाभावादो। णवरि असंखेजवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु] मणुसोववादियदेवेसु च
ओघुकस्साणुभागसंकमो ण लब्भदे, तमघादेदूण तत्थुप्पत्तीए असंभवादो। एदेण सम्माइट्ठीसु वि मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंकमो पडिसिद्धो दट्ठव्यो, उकस्साणुभागं बंधिय आवलियपडिभग्गस्स कंडयघादेण विणा सम्मत्तगुणग्गहणाणुववत्तीदो। कधमेसो विसेसो सुत्तेणाणुवइट्ठो णजदे ? ण, वक्खाणादो सुत्तरादो तंतजुत्तीए च तदुवलद्धीदो। जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसकम्माणं पि उक्कस्ससामित्तं णेदव्वं, विसेसाभावादो ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं.
एवं सव्वकम्माणं। ६ ७७. सव्वेसिमुक्कस्साणुभागं बंधिदूणावलियपडिभग्गण्णदरजीवम्मि सामित्तपडिलंभस्स पडिसेहाभावादो। संपहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमबंधपयडीणमेस कमो ण संभवइ ति पयारंतरेण तेसि सामित्तणिद्देसो कीरदे
ॐ णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकमो कस्स ? दृष्टि और सर्वसंक्लिष्ट होता है। यदि ऐसा है तो अन्यत्र उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कभी भी नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार ऐसी आशंका होनेपर उसका निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'अन्यतर' विशेषण दिया है, क्योंकि घात किये विना उसके उत्कृष्ट बन्धके साथ एकेन्द्रियादि जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके प्राप्त होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात वर्षकी युवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें तथा जहाँके जो देव मर कर नियमसे मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं ऐसे आनतादिक देवोंमें ओघ उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसका घात किये बिना इन जीवोंमें उत्पन्न होना असम्भव है। इस वचनसे सम्यग्दृष्टि जीवोंमें भी मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका निषेध जान लेना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जिसे प्रतिभग्न हुए एक आवलि काल हुआ है ऐसा जीव काण्डकघात किये विना सम्यक्त्व गुणको ग्रहण नहीं कर सकता।
शंका-यह विशेषता सूत्रमें नहीं कही गई है, इसलिए उसे कैसे जाना जा सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे, सूत्रसे तथा सूत्रानुकूल युक्तिसे इस विशेषताका ज्ञान हो जाता है।
जिस प्रकार मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व है उसी प्रकार शेष कर्मोंका भी उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है. * इसी प्रकार सब कर्मों का उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए ।
६७७. क्योंकि सब कर्मोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागको बाँध कर प्रतिभग्न हुए जिसे एक श्रावलि काल हुआ है ऐसे अन्यतर जीवमें सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होनेमें कोई प्रतिषेध नहीं है । किन्तु जो बन्ध प्रकृतियाँ नहीं हैं ऐसी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंमें यह क्रम सम्भव नहीं है, इसलिए प्रकारान्तरसे उनके उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश करते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग
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उत्तरपयडिअणुभागसंकमे सामित्त ६ ७८. सुगमं ।
ॐ दसणमोहणीयक्खवयं मोत्तूण जस्स संतकम्ममत्थि तस्स? उक्कस्साणुभागसंकमो।
७६. कुदो ? दसणमोहक्खवयादो अण्णत्थ तेसिमणुभागखंडयघादाभावादो । जइ वि एत्थ सामण्णेण जस्स संतकम्ममत्थि ति वुत्तं तो वि पयरणवसेण संकमपाओग्गं जस्स संतकम्ममथि ति घेत्तव्यं, अण्णहा उव्वेल्लणाए आवलियपविट्ठसंतकम्मियस्स वि गहणप्पसंगादो। दसणमोहक्खवयस्स वि अपुवकरणपविट्ठस्स पढमाणुभागखंडए अणिल्लेविदे उक्कस्साणुभागसंकमो संभवइ । तदो दंसणमोहक्खवयं मोत्तणे त्ति कधमेदं घडदे ? ण, पढमाणुभागखंडए पादिदे संते जो दंसणमोहक्खवओ तस्सेव सुत्ते दंसणमोहक्खवयत्तेण विवक्खियत्तादो। अधवा दंसणमोहक्खवयं मोत्तणण्णस्स जस्स संतकम्ममत्थि तस्स णियमा उक्कस्साणुभागसंकमो, दंसणमोहक्खवयस्स पुण णस्थि णियमो, पढमाणुभागखंडए उक्कस्साणुभागसंकमाणुविद्ध घादिदे तत्थाणुकस्साणुभागसंकमुप्पत्तिदंसणादो ति एसो सुत्ताहिप्पाओ। एवमोघो समत्तो । आदेसेण सबमग्गणासु विहत्तिभंगो । एवमुक्कस्ससामित्तं । संक्रमका स्वामी कौन है।
६७८. यह सूत्र सुगम है।
* दर्शनमोहनीयके क्षपकको छोड़ कर जिसके उक्त कर्मो का सच पाया जाता है वह उनके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी है।
६७६. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकके सिवा अन्यत्र उक्त कर्मोंका अनुभागकाण्डकघात नहीं होता । यद्यपि यहाँ पर सूत्रमें सामान्यसे 'जिसके सत्कर्म है' ऐसा कहा है तो भी प्रकरणवश संक्रमके योग्य जिसके सत्कर्म है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा उद्वेलनाके समय श्रावलिके भीतर प्रविष्ट हुए सत्कर्मवालेके भी ग्रहणका प्रसङ्ग प्राप्त होता है ।
शंका-अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए दर्शनमोहनीयके क्षपकके भी प्रथम अनुभागकाण्डककी अनिलंपित अवस्थामें उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सम्भव है, इसलिए सूत्रमें 'दर्शनमोहनीयके क्षपकको छोड़ कर' यह वचन कैसे बन सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर प्रथम अनुभागकाण्डकका पतन करा देने पर जो दर्शन मोहनीयका क्षपक है वही सूत्रमें दर्शनमोहनीयके क्षपकरूपसे विवक्षित है । अथवा दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवालेको छोड़कर अन्य जिसके उक्त कम की सत्ता है उसके नियमसे उक्त कर्मों का उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है। परन्तु दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमसे अनुविद्ध प्रथम अनुभागकाण्डकका घात कर देने पर वहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है । इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई । आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है इस प्रश्नका समाधान करते हुए सूत्र में केवल इतना ही कहा गया है कि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके सिवा उनकी सत्तावाले अन्य सब जीव उनके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके स्वामी हैं।
१-क०प्रतौ मस्थि त्ति तस्स इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * एत्तो जहण्णयं। ८०. एत्तो उवरि जहण्णयमणुभागसंकमसामित्तं वत्तइस्सामो ति पइण्णावकमेदं । * मिच्छत्तस्स जहणणाणुभागसंकामो को होइ ?
६८१. किमेइदिओ वेइंदिओ तेइंदिओ चउरिदिओ पंचिंदिओ सण्गी असण्णी बादरो सुहुमो पजत्तो अपजत्तो वा इचादिविसेसावेक्खमेदं पुच्छासुत्तं । __ॐ सुहुमस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण अण्णदरो।
६८२. एत्थ सुहुमग्गहणेण सुहुमणिगोदअपजत्तयस्स गहणं कायव्वं, अण्गत्थ मिच्छत्तजहण्णाणुभागसंकमुप्पत्तीए अदंसणादो । सुहुमणिगोदपजत्तो किण्ण घेप्पदे १ ण, इस परसे दो प्रश्न खड़े हुए–प्रथम तो यह कि जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं कर रहे हैं, उनकी सत्तावाले ऐसे सब जीव यदि उनके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके स्वामी माने जाते हैं तो उद्वेलनाके समय जिनका सकर्म आवलिके भीतर प्रविष्ट होता है उनके आवलिप्रविष्ट कर्मका भी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम मानना पड़ेगा। टीकामें इस प्रश्नको लक्ष्य रख कर जो कुछ कहा गया है उसका भाव यह है कि यद्यपि सूत्रमें 'दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवालेको छोड़ कर जिसके सत्कर्म है' ऐसा सामान्य वचन कहा गया है पर उससे उद्वेलनाके समय प्रावलिप्रविष्ट सत्कर्मत्राले जीवोंको छोड़ कर अन्य सत्कर्मवाले जीवोंको ही ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि यह अर्थ कैसे फलित किया गया है सो उसका समाधान यह है कि आवलिप्रविष्ट कर्मका संक्रम आदि नहीं होता ऐसा ध्रुव नियम है, इसलिए इस नियमके अनुसार यह अर्थ सुतरां फलित हो जाता है । दूसरा प्रश्न यह है कि अपूर्वकरणमें प्रथम स्थितिकाण्डकघातके पूर्व उक्त कर्मोका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सम्भव है । ऐसी अवस्थामें 'दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवालेको छोड़ कर' यह वचन देना उचित नहीं है। उसका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यदि इतने अपवादको छोड़ दिया जाय तो दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक नहीं होता, इसलिए सूत्रमें अन्य सब अवस्थाओंको ध्यानमें रखकर 'दर्शनमोहनीयके क्षपकको छोड़ कर' यह वचन दिया है। शेप कथन सुगम है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। * आगे जघन्य स्वामित्वका कथन करते हैं ।
६८. इससे आगे अर्थात् उत्कृष्ट स्वामित्वके कथनके बाद जघन्य अनुभागसंक्रमके स्वामित्वको वतलाते हैं । इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है ।
* मिथ्यात्यके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ।
8 ८१. एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय,संज्ञी, असंज्ञी,बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त इनसे इसका स्वामी कौन है ? इत्यदि विशेषकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छासूत्र है। _* सूक्ष्म एकेन्द्रियके हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ अबस्थित अन्यतर जीव मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागांक्रमका स्वामी है।।
६ ८२. यहाँ सूत्रमें 'सूक्ष्म' पदके ग्रहण करनेसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यत्र मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती।
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गाँठ ]
'उत्तरपयडिप्रणुभाग संकमे सामित्तं
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1
LAUSES
तत्थतणर्जर्हण्णाणुभागस्स हृदसमुप्पत्तियस्स एत्तो अनंतगुणत्तोवलंभादो । ण तत्थ विसोहिबहुत्तमासकणिर्ज, मदविसोहीए वि अपजत्तयस्स बहुआरणुभाग घादसंभवादो । कुदो एवं ? जादिविसेसस्स तारिसत्तादौ । तदो 'हदसमुप्पत्तियकम्मेण जहण्णसामित्तविहाणमविरुद्धं । किं हृदसम्रुप्पचियं णाम ? हते समुत्पत्तिर्यस्य तद्वतसमुत्पत्तिकं कर्म । यावच्छक्यं तावत्प्राप्तघातमित्यर्थः । तं पुण सुद्दमणिगोद्रापज्जत्तयस्सः सब्बुक्कस्सविसोहीए पत्तघादं जहण्णाणुभागसंतकसं, तदुकस्सारणभागवंखादो अनंतगुणहीणं । तस्सेव जहण्णा रणुभागबंधादो अनंतगुणन्भहियं । तप्पा ओग्गा जपण गुरुस्सर्वं ब्रह्मणेण समाणमिदि घेत्तव्वं । एवंविहेण सुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियकम्मेणोवलक्खिओ जो जीव अणदूरो सो पयदजहण्णसामिओ होइ । एत्थ अण्णदरग्गहणेण सब्वजीवसमासाणं गहणमविरुद्धमिदि पदुप्पायणमुत्तरो सुत्तावयवो -
* एइंदिओ वाहदिओ वा तेइंदिओ वा चउरिंदिओ वा
mar
शंका
का सूक्ष्म निगोद पर्याप्तका सहस क्यों नहीं करते ?
समाधान:
नहीं, क्योंकि उनमें हृतसमुत्पत्तिक जघन्य अनुभाग इनसे अनन्तगुणा पाया
जाता है ।
सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंमें बहुत विशुद्विकी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अपर्याप्त जीवमें मन्द विशुद्विसे भी बहुत अनुभागका घात सम्भव है ।
शंका- ऐसा कैसे होता है ?
समाधान - क्योंकि यह जातिविशेष ही उस प्रकारकी है ।
इसलिए हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ उसके जघन्य स्वामित्वका विधान करना विरुद्ध नहीं है । दतसमुत्पत्तिक कर्म किसे कहते हैं ?
समाधानात होने पर जिसकी उत्पत्ति होती है उसे हतसमुत्पत्तिक कर्म कहते हैं । जहाँ तक शक्य हो वहाँ तक घातको प्राप्त हुआ कर्म यह इसका तात्पर्य है ।
TEST
12204630 SES
"सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे घातको प्राप्त हुआ वह कर्म जघन्य अनुभागसत्कर्मरूप होता है जो उसके उत्कृष्ट अनुभमबन्धसे अनन्तगुणा हीन होता है। तथा उसीके जघन्य अनुभागबन्धसे अनन्तगुणा अधिक होता है । तत्प्रायोग्य अजघन्य, अनुत्कृष्ट बन्धस्थानके समान होता है. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकारके सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्म से युक्त जो अन्यतर जीव है जघन्य स्वामी होता है । यहाँ पर 'अन्यतर' पदके ग्रहण करनेसे सब जीवसमासोंका ग्रहण अविरुद्ध हैः ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र वचन है
क
* एकेन्द्रिय अथवा द्वीन्द्रिय अथवा त्रीन्द्रिय अथवा चतुरिन्द्रिय अथवा पञ्चेन्द्रिय जीव मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंयगो ६
९८३. कुदो १ तेणेवाणुभागेण सव्त्रत्थुष्पत्तीए पडिसेहाभावादो | दंसणमोहक्खवयस्स चरिमाणुभागखंड मिच्छत्तजहण्णसामित्तं किण्ण दिष्णं ? तत्थतणाणुभागस्स एत्तो अनंतगुणत्तादो । कधमेदं परिच्छिण्णं १ एदम्हादो चेत्र सामित्तसुत्तादो ।
* एवमट्ठएणं कसायाणं ।
३२
८४. जहा मिच्छत्तस्स सुहुमेह दियहदसमुप्पत्तियकम्मेणण्णदरजीवम्मि जहण्णाणुभागसंकमसा मित्तमेवमट्ठकसा याणं पि कायन्त्रं, विसेसाभावादो । खायचरिमफालीए विसुद्धयरकरणपरिणामेहि घादिदावसिट्ठाणुभागस्स जहण्णभावो जुज त्ति रोहासंका कायन्त्रा, अंतरकरणादो हेट्ठा खवगाणुभागस्स सुहुमाणुभागं पेक्खिऊणाणंतगुणत्तणियमादो । * सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामो को होइ ?
८५. सुगमं ।
* समयाहियावलियमक्खीणदंसणमोहणी ।
९८६. कुदो एदस्स जहण्गभावो, १ पत्तसव्वुकस्सघादत्तादो अणुसमयोवणाए अजहणीकयत्तादो च ।
८३. क्योंकि उसी अनुभागके साथ सर्वत्र उत्पत्ति होनेमें कोई निषेध नहीं है ।
शंका – दर्शनमोहनीयके क्षपकके अन्तिम अनुभागकाण्डकके शेष रहने पर मिध्यात्वक जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया गया ?
समाधान क्योंकि वहाँका अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक अनुभागसे अनन्तगुण होता है ।
शंका- यह कैसे जाना ?
समाधान- इसी स्वामित्व सूत्रसे जाना ।
* इसीप्रकार आठ कषायोंका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए ।
८४. जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियके हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ स्थित अन्यतर जीवमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामित्व दिया है उसी प्रकार आठ कषायोंका भी करना चाहिए, क्योंकि उससे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि विशुद्धतर करणरूप परिणामोंके द्वारा क्षपककी अन्तिम फालिमें घात होकर शेष बचे हुए अनुभागका जघन्यपना बन जाता है सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरकरणकं पूर्व क्षपकसम्बन्धी अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा होता है ऐसा नियम है ।
* सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
८५. यह सूत्र सुगम है ।
* जिसके दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है वह सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है ।
८६. क्योंकि यहाँ पर अनुभागका सबसे उत्कृष्ट घात प्राप्त हो गया है। तथा प्रत्येक समयमें होनेवाली अपवर्तनासे यह अत्यन्त जघन्य कर लिया गया है, इसलिए इसका जघन्यपना बन
जाता ।
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उत्तरपयडिअणुभागसंकमे सामित्तं
* सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ?
८७. सुगमं ।
गा० ५८ ]
३३
* चरिमाणुभाग़खंडयं संछुहमा ।
§ cc.
दंसणमोहक्खत्रणाए दुचरिमादिहेट्टिमाणुभागखंडयाणि संकामिय पुणो सम्मा मिच्छत्तचरिमाणुभागखंडए वावदो जो सो पयदजहण्णसामिओ होइ, तत्तो हेट्ठा सम्मामिच्छत्तसंबंधिजहण्णाणुभागसंकमाणुवलंभादो ।
* अणंताणुबंधीणं जहणणाणुभागसंकामओ को होइ ?
८६. सुगमं ।
* विसंजोएदृण पुणो तप्पा ओग्गविसुद्ध परिणामेण संजोएदूणावलि - यादोदो ।
६०. किमडमेसो विसंजोयणाए १ पुणो जोयणाए पयट्टाविदो १ विद्वाणाणुभागसंतकम्मं सर्व्वं गालिय णत्रकधाणुभागे जहण्णसामित्तविहाणङ्कं । तत्थ वि असंखेज लोगमेत्तपडवादट्ठा तप्पा ओग्गजहण्णसंकिले साणु विद्धपरिणामेण संजुत्तो त्ति जाणावणङ्कं तप्पा ओग्ग
* सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
७. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तिम अनुभागकाण्डकका संक्रम करनेवाला जीव सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभाग संक्रमका स्वामी है ।
९८८. दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय द्विचरिम आदि अधस्तन अनुभागकाण्डका संक्रम करके जो सम्यग्मिथ्यात्यके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें व्यापृत है वह प्रकृतमें जघन्य स्वामी होता है, क्योंकि उससे पहले सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं उपलब्ध होता । * अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
8. यह सूत्र सुगम है ।
* विसंयोजनाके बाद पुनः तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम से उनकी संयोजना करके जिसे एक आवलि काल हुआ है वह अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है।
६०. शंका -विसंयोजनाके बाद इसे पुनः संयोजनामें क्यों प्रवृत्त कराया है ?
समाधान - सब द्विस्थानिक अनुभागसत्कर्मको गलाकर नवकबन्धसम्बन्धी अनुभागमें जघन्य स्वामित्वका विधान करनेके लिए विसंयोजना के बाद इसे पुनः संयोजनायें प्रवृत्त कराया है । उसमें भी असंख्यात लोक प्रमाण प्रतिपातस्थानों में से यह तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसम्बन्धी परिणामसे संयुक्त है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'तप्पा ओग्गविसुद्ध परिणामेण ' यह वचन कहा
१. श्रा० प्रतौ विसंयोजणा ता० प्रतौ विसंजोयणा [ ए ] इति पाठः ।
ሂ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बन्धगो ६
विसुद्धपरिणामेणेत्ति भणिदं, मंदसंकिलेसदाए चैव विसोहित्तेण विवक्खियत्तादो । तहा संजोए दूणावलियादीदो पयदजहण्णसामिओ होइ, संजुत्तपढमसमए णवकबंधस्स बंधावलियादीदस्स तत्थ जहण्णभोवेण संकंतिदंसणा दो । तत्तो उवरि सामित्तसंबंधोण कादु सकिजदे, विदियादिसमयसंजुत्तस्स संकिलेस वुडीए वडिदाणुभागबंधस्स तत्थ संकमपाओग्गत्तेण जहण्णभावाणुवलद्धीदो | मिच्छतादीणं व सुहुमस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण वि जहण्णसामित्तमेत्थ किण्ण कीरदे ? ण, तत्थतणचिराणाणुभागसंतकम्मस्स घादिदावसेसस्स एत्तो अनंतगुणत्तेण तहा कादुमसक्कियत्तादो । तदगंत गुणत्तावगमो कुदो ? एदम्हादो चैव सुत्तादो । अण्णा तत्थेव सामित्तविहाणत्तप्पसंगादो । एदेणाणताणुबंधिविसंजोयणा चरिमाणुभागखंडयम्मि जहण्णसामित्तविहाणासंका पडिसिद्धा, तत्थता । णुभागस्स हुमाणुभागादो वि अनंतगुणत्तदंसणा दो । खेदमसिद्धं, सुहुमाणुभागमुवरिं अंतरमकदे दु घादिकम्माणमिदि वयणेण सिद्धसरूवत्तादो । अदो चैव सामित्तविसयाणुभागस्स वि तत्तो बहुत्तमिदि णासंकणिजं, चिराणसंताभावेण णवकबंधमेत्तस्स पयत्तजणिदस्स तत्तो थोवभावसंकमेण णाइयत्तादो अंतोमुहुत्तसंजुत्ते वि सुहुमभ्स हेट्ठदो संतकम्ममिदि सुत्तत्रयणादो च । संजुत्तपढमसमए वि
३४
हैं, क्योंकि मन्द संक्लेशरूप परिणाम ही यहाँ पर विशुद्धिरूपसे विवक्षित किया गया है। उक्त प्रकारसे संयुक्त होकर जिसे एक श्रावलि काल हुआ है वह प्रकृतमें जघन्य स्वामी है क्योंकि संयुक्त होनेके प्रथम समय में जो नवकबन्ध होता है उसका एक आवलिके बाद वहाँ पर जघन्यरूपसे संक्रम देखा जाता है। इससे आगे जघन्य स्वामित्वका सम्बन्ध करना शक्य नहीं है, क्योंकि संयुक्त होनेके द्वितीय आदि समयोंमें संक्लेशकी वृद्धि हो जानेसे अनुभागबन्ध बढ़ जाता है, इसलिए उसमें संक्रमके योग्य जघन्यपना नहीं पाया जाता ।
शंका —मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों के समान सूक्ष्म एकेन्द्रियके हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ भी यहाँ पर जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं किया ?
समाधान — नहीं, क्योंकि घात करनेसे शेष बचा हुआ वहाँका प्राचीन अनुभागसत्कर्म इससे अनन्तगुणा होता है, इसलिए उसकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्व करना शक्य नहीं है । वह अनन्तगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
शंका
समाधान — इसी सूत्र से जाना जाता है। यदि ऐसा न होता तो वहीं पर स्वामित्वके विधान करनेका प्रसङ्ग आता है ।
इतने कथनसे अनन्तानुबन्धियोंके विसंयोजनासम्बन्धी अन्तिम अनुभागकाण्डकमें जघन्य स्वामित्व विधानविषयक शंकाका निराकरण हो जाता है, क्योंकि वहाँका अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रियके अनुभागसे भी अनन्तगुणा देखा जाता है । और यह बात सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि 'सुहुमाणुभागमुवरि अंतरमकदे दु घादिकम्माणं' इसबचनसे वह सिद्धस्वरूप ही है । यदि कोई ऐसी आशंका करे कि इस वचनसे तो स्वामित्वविषयक अनुभागका भी उस ( सूक्ष्म एकेन्द्रिय) के अनुभागसे अधिकपना वन जाता है सो ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्राचीन सत्कर्मका अभाव होनेसे प्रयत्नजनित जो नवकबन्ध होता है उसका उससे स्तोकरूपसे संक्रम होना उचित है तथा 'संयुक्त होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद भी सत्कर्म सूक्ष्म एकेन्द्रियके
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसँकमे सामित्तं
રૂપ
सेसकसायाणमणुभागो चिराणसंतसरूवो अगंताणुबंधिणत्रकबंधस्सुवरि संकमंतओ अत्थित्तेण पञ्चवट्ठेयं, 'बंधे संकमो' त्ति णायादो, बंधानुसारेणेत्र परिणदस्स तस्स जहण्णभावाविरोहित्तादो । दो दिगंतरपरिहारेणेत्येव सामित्तमिदि णिवरअं ।
* कोहसंजलणस्स जहएणाणुभागसंकामत्रो को होइ ? ६१. सुगमं ।
* चारिमाणुभागबंधस्स चरिमसमय पिल्लेवगो ।
६२. कोहवेदयस्स जो अपच्छिमो अणुभागबंधो सो चरिमाणुभागबंधो णाम । सो किट्टिसरूवो, कोहतदिय किट्टिवेदएण णिव्त्रत्तिदत्तादो । तस्स चरिमाणुभागबंधस्स चरिमसमयअणिल्लेगो त्ति भगिदे माणवेदगद्धाए दुसमयूणदो आवलियाणं चरिमसमए वट्टमाणओ घेत्तव्त्रो । सो पयदजहण्णसामिओ होइ । एत्थ जइ वि सुत्ते सोदएण सामित्त - मिदि विसेसिऊग ण भणिदं तो वि१ सोदणेत्र सामित्तमिह गहेयव्त्रं, सेसकसायोदएण चढिदखत्रयम्मि फद्दयसरूवेणेत्र पिल्ले विजमाणकोहसंजलणाणुभागस्स जहण्णभावाणुलद्धीदो । * एवं माण- मायासंजलण-पुरिसवेदाणं ।
सत्कर्मसे कम होता है' इस सूत्रवचन से भी वैसा होना उचित है । यद्यपि संयुक्त होने के प्रथम समय में ही शेष कषायका प्रचीन सत्तारूप अनुभाग अनन्तानुबन्धियोंके नवकबन्धके ऊपर संक्रम करता हुआ रहता है ऐसा निश्चित होता है, क्योंकि 'बन्ध में संक्रम होता है' ऐसा न्याय है । परन्तु वह बन्धके अनुसार ही परिणत हो जाता है, इसलिए उसके जघन्य होने में कोई विरोध नहीं आता, इसलिए अन्य विवक्षा के परिहारद्वारा प्रकृतमें ही जघन्य स्वामित्व बनता है यह कथन निर्दोष है । * क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६१. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तिम अनुभागबन्धका अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपक जीव क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है ।
६२. क्रोधवेदक क्षपकका जो अन्तिम अनुभागबन्ध है उसकी यहाँ 'चरमानुभागबन्ध' संज्ञा है । परन्तु वह कृष्टिस्त्ररूप है, क्योंकि क्रोधकी तीसरी कृष्टिके वेदक जीवके द्वारा वह निर्वृत्त हुआ है । उसको अन्तिम अनुभागबन्धका अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपक ऐसा कहने पर मानवेदक कालके दो समय कम दो आवलि कालके अन्तिम समयमें विद्यमान जीव लेना चाहिए। वह प्रकृतमें जवन्य स्वामी है । यहाँ पर सूत्रमें यद्यपि स्वोदयसे स्वामित्व होता है ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहा है तो भी यहाँ पर स्वोदय से स्वामित्वको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि शेप कषायों के उदयसे चढ़े हुए क्षपक क्रोधसंभलनका अनुभाग स्पर्वकरूपसे ही निर्लेपनको प्राप्त होता है, इसलिए उसमें जघन्यपना नहीं बन सकता ।
1
* इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए |
१. ता०प्रतौ 'भणिदं [ण] तो वि' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बन्धगो ६
६ ६३. खागचरिमाणुभागबंध चरिमसमय जिल्ले गम्मि जहण्णभावं पडि विसेसा - भावाद | वर माणसं जलगस्स कोह- माणोद एहि मायासंजलणस्स वि कोह- माण- मायासंजलणाणं तिण्हमण्णदरोदएण चढिदम्मि जहण्णसामित्तं होइ ।
* लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ६ ६४. सुगमं ।
* समयाहियावलियचरिमसमयसकसाच खवगो |
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६५. कुदो एत्थ जहण्णभावो १ ण, सुहुमकिट्टीए अणुसमयमणंतगुणहाणिसरूवेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालमोवविदाए तत्थ सुड्डु जहण्णभावेण संकमुवलंभादो ।
* इत्थवेदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? ६ ६६. सुगमं ।
* इत्थवेदक्खवगो तस्सेव चरिमाणुभागखंडएं वट्टमाणओ । ် ६७. एस्थिथिवेद विसेसणमणत्थयं, परोदएण वि सामित्तविहाणे विरोहाभावादो त्तिणासंकणि, उदाहरणपदंसणमेदस्स परूवणादो ।
९३. क्योंकि क्षपकसम्बन्धी अन्तिम अनुभागबन्धका अन्तिम समय में निर्लेपन करनेवाले जीवके वन्य अनुभागसंक्रम होता है इस अपेक्षासे क्रोधसंज्वलनसे यहाँ कोई बिशेषता नहीं है । इतनी विशेषता है कि क्रोध या मानके उदयसे चढ़े हुए जीवके मानसं ज्वलनका तथा क्रोध, मान और माया इन तीनमें से किसी एकके उदयसे चढ़े हुए जीवके मायासंज्वलनका जघन्य स्वामित्व होता है।
* लोभसंज्वलन के जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६४. यह सूत्र सुगम है ।
* एक समय अधिक आवलि कालके रहने पर अन्तिम समयवर्ती संक्रामक क्षपक जीव लोभसंज्वलन जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है ।
§ ६५. शंका —यहां पर जधन्यपना कैसे है ।
समाधान नह., क्योंकि सूक्ष्म कृष्टिकी उत्तरोत्तर प्रति समय अनन्तगुणहा निस्वरूप से अन्तर्मुहूर्त कालतक अपवर्तना होने के कारण वहाँ पर अत्यन्त जघन्यरूपसे संक्रम प्राप्त हो जाता है । * स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६६. यह सूत्र सुगम है ।
* उसीके अन्तिम अनुभाग काण्डकमें विद्यमान स्त्रीवेदी क्षपक जीव स्त्रीवेदके जघन्य अनुभाग संक्रमका स्वामी है ।
९६७ यदि कोई ऐसी आशंका करे कि यहां पर स्त्रीवेद विशेषण निरर्थक है, क्योंकि परोदयसे भी स्वामित्वका विधान करने पर कोई विरोध नहीं आता सो उसकी ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उदाहरण दिखलाने के लिए यह कथन किया है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिऋणुभागसंकमे सामित्तं
* एवुंसयवेदस्स जहण्णाणुभोगसंकामत्रो को होइ ?
६८. सुगमं ।
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* एवं सयवेदक्खवच तस्सेव चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाओ । ६ ६६. णेह खत्रयस्स णवंसयवेद विसेसणमणत्थयं, सोदएण सामित्तविहाणफलत्तादो । परोदण समितणिसो किण्ण कीरदे ? ण, तत्थ पुत्रमेत्र विणस्संतस्स णवुंसयवेदस्स
भावावद्धदो |
* छण्णोकसायाणं जहर णाणुभागसंकामओ को होइ ?
१००. सुगमं ।
* खवगो तेसिं चेव छष्णोकसायवेदणीयाणं चरिमे अणुभागखंड ए माओ ।
$ १०१. एत्थ चरिमाणुभागखंडए सव्त्रत्थ जहण्गाणुभाग संकमो अट्ठिदसरूवेण लग्भइति तत्थ जहण्णसामित्तं दिण्णं । एसो अत्थो णकुंसय-इत्थिवेदसा मित्तसुत्तेसु वि जोजेयत्रो । एवमोषेण जहण्णसामित्तं गयं ।
* नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६८ यह सूत्र सुगम है ।
* उसी के अन्तिम अनुभागकाण्डकमें स्थित नपुंसकवेदी क्षपक जीव नपुंसकवेद के जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है ।
६६. यहां पर क्षपकका नपुंसकवेद विशेषण निरर्थक नहीं है, क्योंकि स्वोदयसे स्वामित्वके विधान करनेका फल देखा जाता है ।
शंका-परोदयसे स्वामित्वका निर्देश क्यों नहीं करते हैं ।
समाधान — नहीं, क्योंकि परोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा हुआ जीव पहले ही नपुंसकवेदका नाश कर देता है, इसलिए उसके जघन्यपना नहीं बन सकता ।
* छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ?
१००. यह सूत्र सुगम है ।
* उन्हीं छह नोकषायवेदनीयके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान क्षपक जीव उनके जघन्य अनुभाग संक्रमका स्वामी है ।
१०१. यहां अन्तिम अनुभागकाण्डकमें सर्वत्र जघन्य अनुभागसंक्रम अवस्थितरूप से प्राप्त होता है, इसलिए उसमें जवन्य स्वामित्व दिया है । यह अर्थ नपुंसकवेद और स्त्रीवेदविषयक areबन्धी सूत्रोंमें भी लगा लेना चाहिए ।
इस प्रकार श्रोघसे जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६१०२. आदेसेण णेरइय० विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु०४ ओघं । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति विहत्तिभंगो। णवरि अणंताणु०४ ओघं। तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खर विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु०४ ओघं । एवं जोणिणीसु । णवरि सम्म० णत्थि। पंचितिरिक्खअपज०-मणुसअपज० विहत्तिभंगो। मणुस०३ ओघं । णवरि मिच्छ०-अट्ठकसाय० विहत्तिभंगो । मणुसिणीसु पुरिस० छण्णोकसायभंगो । देवाणं णारयभंगो। एवं भवण०-वाण । णवरि सम्म० णत्थि। जोदिसि. विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव णवगेवजा ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु०४ ओघं । उवरि विहत्तिभंगो । णवरि सम्म० ओघं। अणंताणु०४ जह• अणुभागसंकमो कस्स ? अणंताणुबंधि विसंजोएंतस्स चरिमाणुभागखंडए वट्टमाणयस्स । एवं जाव० ।
६ १०२. आदेशसे नारकियोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतष्कका भङ्गोषके समान है। इसी प्रकार पहली प्रथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नाकियोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि उनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्च और पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चद्विको अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त
और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिकों ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तरदेवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं है । ज्योतिषियों में दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है । सौधर्म कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। आगेके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका भङ्ग ओघके समान है। उनमें अनन् नुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? जो अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसया करनेवाला जीव अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान है वह उनके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नरकगति आदि गतिसम्बन्धी सब अवान्तर मार्गणाओं में जिन प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है उसका इतना ही तात्पर्य है कि जिस प्रकार अनुभागविभक्ति अनुयोगद्वारमें जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वका निर्देश किया है उसी प्रकार यहाँ जघन्य अनुभागसंक्रमकी अपेक्षा स्वामित्वका निर्देश कर लेना चाहिए। मात्र जिन प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्वमें अनुभागविभक्तिसे अन्तर है उनके जघन्य स्वामित्वका अलगसे निर्देश किया है । उदाहरणार्थ सामान्यसे नारकियोंमें सम्यक्त्वके अनुभागसत्कर्मका जघन्य स्वामित्व दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें स्थित जीवके और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुभागसत्कर्मका जघन्य स्वामित्व प्रथम समयमें संयुक्त हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवके बतलाया है। किन्तु इन अवस्थाओंमें यहाँ पर सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसंक्रमका
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गा०५८]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे एयजीवेण कालो 8 एयजीवेण कालो। ६१०३ सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं ।
® मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकामो केवचिरं कालादो होदि ? ६१०४. सुगमेदं पुच्छासुत्तं ।
* जहणणुकस्सेण अंतोमूहुत्तं ।
६१०५. जहण्णेण ताव उक्कस्साणुभागं बंधिदूणावलियादीदसंकामेमाणएण सबलहुमणुभागखंडए घादिदे अंतोमुहुत्तमेत्तो उकस्साणुभागसंकामयजहाणकालो लद्धो होइ । एत्तो संखेजगुणो उकस्सकालो होइ, उकस्साणभागं बंधिऊण खंडयघादेण विणा सुट्ठ बहुअं कालमच्छंतस्स१ वि अंतोमुहुत्तादो उपरिमवट्ठाणासंभवादो।
® अणुक्कस्साणुभागसंकामो केवचिरं कालादो होदि ?
६१०६. सुगमं । स्वामित्व नहीं बन सकता, क्योंकि न तो दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वके अनुभागका संक्रम सम्भव है और न ही संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुभागका संक्रम सम्भव है, इसलिए यहाँ पर नारकियोंमें इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसंक्रमके स्वामित्वको ओघके समान जाननेकी अलगसे सूचना की है। खुलासा जघन्य संक्रम प्रकरणके ओघको देख कर लेना चाहिए। इसी प्रकार अन्यत्र जहाँ जो विशेषता कही गई है उसका विचार कर लेना चाहिए। यहाँ पर योनिनी तिर्यञ्चों तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका निषेध किया है सो उसका वह तात्पर्य है कि इन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, इसलिए वहाँ सम्यक्त्वका और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं बनता। यह विशेषता द्वितीयादि पृथिवियोंमें और ज्योतिषी देवोंमें भी जाननी चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है।
* एक जीवकी अपेक्षा काल । ६ १०३. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकसंक्रामकका कितना काल है ? ६ १०४. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है।
६१०५. उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके एक आवलिके बाद संक्रम करता हुआ यदि अतिशीघ्र अनुभागकाण्डकका घात करता है तो भी उत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका जघन्य काल अन्तर्मत प्राप्र होता है। तथा उससे संख्यातगणा उत्कृष्ट काल होता है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके काण्डकघातके बिना यदि बहुत काल तक रहता है तो भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक रहना सम्भव नहीं है।
* इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ? ६१०६. यह सूत्र सुगम है १ श्रा०प्रतौ -मच्चंतस्स ता प्रतौ मच्चं (च्छ ) तस्स इति पाठः।।
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[ बन्धगो ६
* जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
§ १०७. उकस्साणुभागसंकमादो खंडयघादवसेणाणु कस्ससंकामयतमुत्रणमिय पुणो हिस्से काले उकस्साणुभागसं कामयत्तमुत्रगयम्मि तदुवलंभादो ।
* उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
११०८. उकस्साणुभागसंकमादो खंडयघादवसेणा णुकस्सभावमुत्रगयस्स एइ दियत्रियलिंदिएसु उक्कस्साणुभागबंधविरहिए असंखेजपोग्गलपरियट्टमेत्तकालमणुक्कस्सभावाव
* एवं सोलसकसाय- वणोकसायाणं । १०६. सुगममेदमप्पणासुतं ।
* सम्मत्त-सम्म।मिच्छुत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ।
११०. सुगमं ।
* जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
१११. तं जहा – एको णिस्संतकम्मियमिच्छा इट्ठी पढमसम्मत्तं पडवजिय सम्माइट्ठपढमसमए मिच्छत्ताणुभागं सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमात्रिय विदियसमयप्यहुडि
* जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।
९ १०७. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रमसे काण्डकघात के द्वारा अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रमको प्राप्त हो कर जो फिर भी अतिशीघ्र कालके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागके संक्रमको प्राप्त होता है। उसके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है ।
* तथा उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है ।
§ १०८. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रमसे काण्डकघातवश अनुत्कृष्ट अनुभागको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्धसे रहित एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण करनेवाले जीवके उतने काल तक मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभाग संक्रममें अवस्थान देखा जाता है ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका काल जानना चाहिए । १०६. यह अर्पणासूत्र सुगम है ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ?
११०. यह सूत्र सुमन है ।
* जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।
१११. यथा - जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं है ऐसा एक मिध्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर तथा सम्यग्दृष्टि होनेके प्रथम समयमें मिध्यात्वके भागको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणमा कर और दूसरे समय से उनके उत्कृष्ट
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडि अणुभागसंकमे एयजीवेण कालो
४१
तदुकस्साणुभागसं काम होण सव्वल हुं दंसणमोहक्खाणं पट्ठविय पढमाणुभागखंडयं घादिय अणुकस्साणुभागसंकामओ जादो, लद्धो सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुभागसंकामयजहण्णकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो |
* उक्कस्सेण वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
§ ११२. तं कथं १एको णिस्संतकम्मिय मिच्छाइट्ठी सम्मत्तं घेत्तणुकस्साणुभागसंकामओ जादो । तदो कमेण मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तकालं सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि उब्वेल्लेमाणो संमयाविरोहेण सम्मत्तं पडिवण्णो पढमछावट्ठि परिभमियमिच्छत्तं गंतूण पलिदोत्रम ० असंखे ० भागमेत्तकाल मुब्धेल्लणार परिणमिय पुत्रं व सम्मत्तं घेत्तूण विदियछावट्ठि परिभमिय तदवसाणे मिच्छत्तं पडिवण्णो सव्बुक्कस्सेणुव्वेल्लणकालेग सम्मत्तसम्मामिच्छाणि उव्वेल्लिहूण असंकामगो जादो, लद्धो तीहि पलिदो० असंखे ० भागेहि अन्भहियवेछावट्टिसागरोत्रममेतो पयदुक्कस्सकालो ।
* अणुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? ११३. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
अनुभागका संक्रामक होकर तथा अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक होकर और प्रथम भागकाण्डका घात करके अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक हो गया । इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व उत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो गया ।
* तथा उत्कृष्ट कोल साधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
$ ११२. शंका- यह काल कैसे प्राप्त होता है ?
समाधान- सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित एक मिध्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक हो गया । अनन्तर क्रमसे मिथ्यात्वको प्राप्त कर पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण काल तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता हुआ यथाविधि सम्यक्त्वको प्राप्त हो गया और प्रथम छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करके पुनः मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उक्त दोनों कर्मोंकी उद्वेलना करने लगा । पुनः पहले के समान सम्यक्त्वको प्राप्त करके और दूसरी बार छयासठ सागर काल तक उसके साथ भ्रमण करके उसके अन्तमें मिथ्यात्रको प्राप्त हो गया । तथा वहां सबसे उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके उनका असंक्रामक हो गया । इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्त्रका तीन बार पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छयासठ सागर कालप्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है ।
* उनके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ?
६ ११३. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
६
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४२ जयधवलासाहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ११४. दसणमोहक्खवणाए पढमाणुभागखंडयं घादिय तदणंतरसमए अणुकस्साणुभागसंकामयत्तमवगयस्स विदियाणुभागखंडयप्पहुडि जाव चरिमाणुभागखंडयचरिमफालि ति ताव सम्मामिच्छत्तस्स अणुकस्साणुभागसंकामयकालो घेत्तव्यो । एवं सम्मत्तस्स वि। णवरि जाब समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीओ ताव भवदि ।
एवमोघो समत्तो। ६ ११५. आदेसेण सव्वत्थ विहत्तिभंगो।
® एत्तो एयजीवेण कालो जहएणो।
६११६. एतो उकस्सकालणिदेसादो उपरि एयजीवेण जहण्णाणुभागसंकामयकालो विहासियव्यो त्ति वुत्तं होइ ।
* मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामो केवचिरं कालादो होदि ? .६११७. सुगमं । - जहएणुकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
६ ११८. जहण्णेण ताव सुहुमेह दियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण जहण्णओर अवट्ठाणकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो होइ । उकस्सेण हदसमुप्पतियं कादण सव्वुक्कस्सेण संतस्स हेट्टदो
११४. दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में प्रथम अनुभागकाण्डकका घात करके तदनन्तर समयमें जो अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक हो गया है उसके दसरे अनभागकाण्डकसे लेकर अन्तिम अनुभाग काण्डककी अन्तिम फालि तक तो सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रम करानेका काल ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी प्रकार सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका काल भी ग्रहण करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अपेक्षा दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें एक समय अधिक एक श्रावलि काल शेष रहने तक यह काल होता है।
. इस प्रकार श्रोध प्ररूपणा समाप्त हुई। ६ ११५. आदेशकी अपेक्षा सर्वत्र अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-अनुभागविभक्तिमें नरकगति आदि मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है वह अविकल यहाँ बन जाता है, इसलिए यहाँ पर उसे अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है।
* आगे एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल कहते हैं।
६ ११६. 'एत्तो' अर्थात् उत्कृष्ट कालका निर्देश करनेके बाद एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अनुभागके संक्रामकके कालका व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ? ६ ११७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
६ ११८. सर्व प्रथम जघन्य कालका खुलासा करते हैं-सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ जघन्य अवस्थान काल अन्तर्मुहूर्त है। अब उत्कृष्ट कालका खुलासा करते हैं
१ श्रा०प्रतौ जहएणदो ता. प्रतौ जहरणदो (श्रो) इति पाठः ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसंकमे एजीवे कालो
४३
अत्रणकालो जगकालादो संखेजगुगो घेतव्यो । तत्तो उवरि णियमेण बंधवुड्डीए
अजहण्णाणुभागसमुप्पत्तीदो ।
* अजहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ?
११६. सुगमं ।
* जहणणेण तोमुहुत्तं ।
६ १२०. जहण्गाणुभाग संकमादो अजहण्णसं कामयभावमुवणमिय पुणो सव्त्रजहण्गेण कालेग हदसमुप्पत्तीए कदे तदुवलंभादो ।
* उक्कस्से असंखेज्जा लोगा ।
१२१. एयवारं हदसमुप्पत्तियपाओग्गपरिणामेण परिणदस्स पुणो सेसपरिणामेसु उकस्सावट्ठाणकालो असंखे लोगमेत्तो होइ ।
* एवमट्ठकसायां ।
६ १२२. जहा मिच्छत्तस्स जहण्गाजहण्गाणुभाग संकामयकालो परूविदो तहा अडकायाणं पि परूवेयन्त्रो, सुहुमेह दियहदसमुप्पत्तियकम्मेण जहण्गस मित्तं पडि भेदाभावादो ।
* सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिर कालादो होदि ?
कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके सत्कर्मके नीचे सर्वोत्कृष्ट अवस्थान काल जवन्य कालकी अपेक्षा संख्यातगुणा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसके ऊपर बन्धकी वृद्धि हो जाने के कारण नियमसे जघन्य अनुभागकी उत्पत्ति हो जाती है ।
* उसके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ?
६ ११६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।
१२०. क्योंकि जघन्य अनुभागके संक्रमसे अजन्य के संक्रामकभात्रको प्राप्त होकर पुनः सबसे जघन्य कालके द्वारा हतसमुत्पत्तिक करने पर उक्त काल प्राप्त होता है ।
* उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है ।
§ १२१. क्योंकि एक बार हृतसमुत्पत्तिकके योग्य परिणामसे परिणत हुए जीवके शेष परिणामोंमें रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है ।
* इसी प्रकार मध्यकी आठ कषायोंका काल जानना चाहिए ।
§ १२२. जिस प्रकार मिध्यात्वके जवन्य और अजघन्य अनुभागके संक्रामकका काल कहा है उसी प्रकार आठ कषायों के कालका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी इतसमुत्पत्तिक कर्म के साथ जवन्य स्वामित्व उभयत्र समान है, इस अपेक्षासे दोनों स्थलोंमें कोई विशेषता नहीं है ।
* सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग के संक्रामकका कितना काल है ?
१ श्रा० प्रतौ तदो ता• प्रतौ तदो (हा) इति पाठः ।
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४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६१२३. सुगमं।
ॐ जहएणुकस्सेण एमसमत्रो।
६ १२४. कुदो ? समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयं मोत्तण पुवावरकोडीसु तदसंभवणियमादो।
* अजहणणाणुभागसंकामश्री केवचिरं कालादो होदि ? ६१२५. सुगमं
जहणणेण अंतोमुहत्तं । ६ १२६. णिस्संतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा सम्मत्ते समुप्पाइदे लद्धप्पसहावस्स सम्मत्ताजहण्णाणुभागसंकमस्स सबलहुखवणाए जहण्णाणुभागसंकमेण विणासिदतब्भावस्स तेतियमेत्तकालावट्ठाणदंसणादो।
8 उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६१२७. उकस्साणुभागसंकमकालस्सेव एदस्स परूवणा कायव्वा । * एवं सम्मामिच्छत्तस्स।
६१२८. जहा सम्मत्तस्स जहण्णाजहण्गाणुभागसंकामयकालपरूवणा कया तहा सम्मामिच्छत्तस्स वि कायव्वा ति भणिदं होइ । संपहि एत्थतणविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुतं
६ १२३.९यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६१२४. क्योंकि कालकी अपेक्षा एक समय अधिक श्रावलिसे युक्त दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवको छोड़कर उससे पूर्वके और आगके समयोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका संक्रम असम्भव है ऐसा नियम है।
* उसके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ? ६ १२५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तमुहूर्त है।
६ १२६. जो सम्यक्त्वकी सत्तासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वके उत्पन्न होने पर उसकी सत्ता प्राप्त करके सम्यक्त्वका अजघन्य अनुभागसंक्रम करने लगता है। तथा जो अतिशीघ्र क्षपणामें जघन्य अनुभागसंक्रमके द्वारा अजघन्य अनुभागसंक्रमको नष्ट कर देता है उसके उतने काल तक अजघन्य अनुभागसंक्रमका अवस्थान देखा जाता है।
* उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। ६ १२७. उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके कालके समान इसकी प्ररूपणा करनी चाहिए। * इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका काल जानना चाहिए ।
६ १२८. जिस प्रकार सम्यक्त्वके जघन्य और अजवन्य अनुभागके संक्रामकके कालका कथन किया है उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब यहाँ सम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
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गा० ५८] . उत्तरपयडिअणुभागसंकमे एयजीवेण कालो
* णवरि जहणाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? १२६. सुगमं । ॐ जहणणुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ६ १३०. दसणमोहक्खवयचरिमाणुभागखंडए तदुवलंभादो। * अणंताणुबंधोणं जहणणाणुभागसंकामो केवचिरं कालादो होदि ? ६१३१. सुगमं ।
ॐ जहएणु कस्सेण एयसमो।
६ १३२ विसंजोयणापुरस्सरं जहण्गभावेण संजुत्तपढमसमयाणुभागबंधसंकमे लद्धजहण्णभावत्तादो
* अजहपणाणुभागसंकामयस्स तिगिण भंगा।
६ १३३. तं जहा–अगादिओ अपञ्जवसिदो, अणादिओ सपजवसिदो, सादिओ सपजवसिदो चेदि । तत्थ मूलिल्लदोभंगा सुगमा त्ति तदियभंगगयविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं
* तत्थ जो सो सादिश्रो सपजवसिदो सो जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
६१३४. तं जहा—जहण्गादो अजहण्णभावमुवणमिय पुणो विसयलहुँ विसंजोयणाए परिणदो लद्धो पयदजहण्णकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो ।
* किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ?
६ १२६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
६ १३०. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें अम्तर्मुहूर्न काल पाया जाता है।
* अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ? ६१३१. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६ १३२. क्योंकि विसंयोजनापूर्वक संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है उसके संक्रममें जघन्यपना पाया जाता है।
* उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकके तीन भङ्ग हैं।
६१३३. यथा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । उनमेंसे मूलके दो भङ्ग सुगम हैं, इसलिए तृतीय भङ्गगत विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* उनमेंसे जो सादि-सान्त भङ्ग है उसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है।
६ १३४. यथा-जघन्यसे अजघन्यभावको प्राप्त होकर फिर भी जो अतिशीघ्र विसंयोजनाके द्वारा परिणत हुआ है उसके प्रकृत जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियहं ।
$ १३५. कुदो १ अद्धपोग्गल परियादिसमए पढमसम्मत्तं घेत्तरणुत्रसमसम्मत्तकाल - अंतरे चेय विसंजोय पुणो वि सव्वलहुं संजुत्तो होदूण आदि करिय अद्धपोग्गलपरियड' परिभमिय तदवसाणे अंतोमुहुत्तसेसे संसारे विसंजोयणापरिणदम्मि तदुवलंभादो ।
होदि ?
[ बंधगो ६
* चदुसंजलण-पुरिसवेदाण' जहणाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो
९ १३६ सुगमं ।
* जहण्णु कस्सेण एयसमत्रो ।
$ १३७. कुदो १ तिन्हं संजलणाणं पुरिसवेदस्स च चरिमाणुभागबंधचरिमफालीए लोहसंजणस्स विसमयाहियावलियसकसायम्मि तदुवलद्धीदो ।
* अजहणणाणुभागसंकामत्रो अण 'ताणुबंधीण भंगो ।
१३८. जहा अणुबंधीणमजहण्णाणुभाग संकामयस्स तिणि भंगा परूविदा तहा एदेसि पि परूवणा कायन्त्रा, विसेसाभावादो ।
* इत्थि एवुंसयवेद-छएणोकसायाणं जहण्णाणु भागसंकाम केवचिरं कालादो होदि ?
* उत्कृष्ट काल उपार्थपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
१३५. क्योंकि अर्वपुद्गलपरिवर्तन कालके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर और उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही विसंयोजनाकर फिर भी अतिशीघ्र संयुक्त होकर जिसने अनन्तानुबन्धियोंके अजवन्य अनुभागसंक्रमका प्रारम्भ किया है । पुनः उसके साथ कुछ कम अर्धपुग्दलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमणकर उक्त कालके अन्तमें संसार में अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर जो पुनः त्रिसंयोजना से परिणत हुआ है उसके उतना काल उपलब्ध होता है ।
* चार संज्वलन और पुरुषवेद के जधन्य अनुभाग के संक्रामकका कितना काल है ? ६ १३६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
१३७. क्योंकि तीन संज्वलन और पुरुषवेदसम्बन्धी अन्तिम अनुभागबन्धकी अन्तिम फालिके समय तथा लोभसंज्वलनकी भी सकषाय अवस्थामें एक समय अधिक एक आवलि काल शेप रहनेपर उक्त काल उपलब्ध होता है ।
* उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका अनन्तानुबन्धियोंके समान भङ्ग है ।
९ १३८. जिस प्रकार अनन्तानुबन्धियों के जघन्य अनुभागके संक्रामकके तीन भङ्ग कहे हैं उसी प्रकार इनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
* स्त्रीवेद, नपुंसक वेद और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना काल है ?
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गा० ५८ ]
उत्तरपअिणुभागसंकमे एयजीवेण कालो
१३६. सुगमं । * जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
$ १४०. कुदो ? खवगचरिमाणुभागखंडयम्मि अंतोमुहुत्सुकीरणद्धा पडिबद्धम्मि लद्धजहणभावत्तदो ।
* अजहण्णाण भागसंकामयस्स तिरिए भंगा ।
§ १४१. सुगममेदं ।
* तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जहणणेण अंतोमुहुत्तं । १४२. सव्त्रोवसामणादो परिवदिय सव्वजहण्णं तोमुहुत्तकालमजहण्णं संकामिय पुणो खवगसेटिं चढिय जहण्गभावेण परिणदम्मि तदुवलद्धीदो ।
* उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियहं ।
१४३. सव्त्रोवसामणादो परिवदिय अद्धपोग्गलपरियड परिभमिय तदवसाणे असंकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलंभादो ।
एवमोघो समत्तो ।
$ १४४. आदेसेण सव्वणेरइय० सव्यतिरिक्ख० मणुसअप ० -देवा जाव उवरिमवजातिवित्तिभंगो। मणुसतिए मिच्छत्त० अट्ठक० जह० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोनु० । अज० ज० एगसमओ, मिछत्त० अंतोमु०१, उक्क० सगट्ठिदी । सम्म० अट्ठक० - पुरिस० जह०
६ १३६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
१४०. क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उत्कीरणकालसे युक्त क्षपकसम्बन्धी अन्तिम अनुभागकाण्डकमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसंक्रमकी प्राप्ति हुई है।
* उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकके तीन भङ्ग हैं । ९ १४१. यह सूत्र सुगम है ।
* उनमेंसे जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है ।
१४२. क्योंकि सर्वोपशमनासे गिरकर और सबसे जघन्य अन्तमुहूर्त कालतक अजघन्य अनुभागका संक्रमकर जो पुनः क्षपकने शि पर चढ़कर जघन्य अनुभागका संक्रामक हुआ है उसके उक्त काल उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
९ १४३. सर्वोपशमनासे गिरकर तथा अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें जो उनका असंक्रामक हुआ है उसके उक्त काल उपलब्ध होता है ।
इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई ।
१४४. देशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, देव और उपरिम ग्रैवयकतक देवों में अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व और आठ कपायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अन्य अनुभागसंक्रमका आठ कषायों का एक समय तथा मिथ्यात्वका अन्तमुहूर्त और सबका उत्कृष्ट काल अपनी
१ श्रा० प्रतौ तोमु० । जह० ज० मिच्छ० एस० अंतोमु० इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
O
० यसमओ । अट्ठणोक० सम्मामि० जह० जहण्णु० अंतोमु० । तेसिं चेव अज० जह० एस ०, उक्क० सगट्ठिदी । अणुद्दिसादि सट्टा ति विहत्तिभंगो । एवं जाव० ।
* एत्तो एयजीवेण अंतरं ।
४८
अपनी कायस्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व, आठ कषाय और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा आठ नोकषाय और सम्यग्मिथ्यात्त्रके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है और सम्यक्त्व आदि उन्हीं सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अनुभाग विभक्ति के समान भङ्ग है । इसी प्रकार अनाहारकमार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ —यहाँ पर मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रमके कालका से निर्देश किया है । खुलासा इस प्रकार है - यह सम्भव है कि कोई जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियके हतसमुत्पत्तिक अनुभाग के साथ मनुष्यत्रिकमें कमसे कम एक समय तक और अधिक अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहे, इसलिए तो इनमें मिध्यात्व और मध्यकी आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा इनमें मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त इनकी जघन्य आयुकी अपेक्षा ठ कषायका जघन्य काल एक समय उपशमन शिकी अपेक्षा और सबका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण कायस्थितिकी अपेक्षा कहा है । सम्यक्त्व तथा चार अनन्तानुबन्धी और चार संज्वलन के जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय इस लिए कहा है, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग संक्रम एक समयके लिए ही प्राप्त होता है जो स्वामित्वको देख कर जान लेना चाहिए | तथा सम्यक्त्वके अजधन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा, अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय अपने स्वामित्वके अनुसार इनमें एक समय तक रखनेकी अपेक्षा तथा चार संज्वलनके अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय उपशमश्र णिकी अपेक्षा कहा है। इनके अजघन्य अनुभागसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट कार्यस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । सम्यग्मिथ्यात्व और आठ नोकषायके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त इसलिए कहा है, क्योंकि वह अपने - अपने अन्तिम काण्डकके पतन के समय होता है जो स्वामित्वको देख कर जान लेना चाहिए। तथा सम्यग्मिथ्वात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय उनकी अपेक्षा और आठ नोकषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय उपशमश्र णिकी अपेक्षा कहा है। इनके अजघन्य अनुभागसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कार्यास्थतिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । यहाँ पर जहाँ उद्वेलनाकी अपेक्षा एक समय काल कहा है। सो उसका यह भाव है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उद्वेलनासंक्रम में एक समय शेष रहने पर. मनुष्यत्रिक उत्पन्न करावे और इनके अजवन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य काल एक समय
वे । इसी प्रकार जहाँ पर उपशमश्र णिकी अपेक्षा एक समय काल कहा है सो इसका यह अभिप्राय है कि उपशमश्र णिमें उतरते समय यथा स्थान उस प्रकृतिका एक समय तक अजघन्य अनुभागसंक्रम करावे और दूसरे समय में मरण कराकर देवगतिमें ले जावे। शेष कथन अनुभागविभक्तको देख कर घटित कर लेना चाहिए ।
* आगे एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका कथन करते हैं ।
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०८]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे एयजीवेण अंतरं
६ १४५. अहियारसंभालणसुत्तमेदं सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स उक्कस्साणु भागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ९
१४६. सुगमं ।
* जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
१४७ तं जहा - उक्कस्साणुभागसंकामओ अणुकरसभावं गंतूण जहण्णमंतोमुहुत्तमंतरिय पुणो वि उकस्साणुभागस्स पुत्रं व संकामओ १ जादो, लद्धमुकस्साणुभाग संकामयजहणंतरमंतोमुहुत्तमेत्तं ।
* उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
१४८. तं कथं १ सण्णी पंचिंदिओ उक्कस्साणुभागं बंधिय संकामेमाणो कंडय घादेण अकस्से णिवदिय एइ दिएसु अनंतकालमच्छिद्रण पुणो सष्णिपंचिंदियपत्तएसुपजिय उकस्साभागं बंधिदूण संकामओ जादो तस्स लद्धमंतरं होई ।
* अणुक्कस्साण भागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
१४ सुगमं ।
* जहणकस्सेण अंतोमहुतं ।
४६
१४५. अधिकारी संम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर काल है ? १४६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
६ १४७. यथा— कोई उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागको प्राप्त होकर और जघन्य मुहूर्त काल तक उत्कृष्टका अन्तर करके फिर भी पहले के समान उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक हो गया । इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो गया ।
* उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । ९ १४८ शंका - वह कैसे ?
समाधान — कोई संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके उसका संक्रम करता हुआ तथा काण्डकघातके द्वारा अनुत्कृष्टको प्राप्त होकर और उसके साथ एकेन्द्रियोंमें अनन्त काल तक रह कर पुनः संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर तथा उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कर उसका संक्रामक हो गया । इस प्रकार उसका अन्तरकाल प्राप्त होता है ।
* उसके अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका कितना अन्तर है ?
§ १४६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
प्रतौ पुर्व [व] कामत्री श्रा० प्रतौ पुब्वं कामत्रो इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
$ १५० तं जहा – अणुवस्ससंकामओ उकस्स काऊतोमुहुत्तकालं उकस्समेव संकामिय पुगो कंडयघादेणाणुकस्ससंकामओ जादो, लद्धमंतरं होइ । णवरि जहणणंतरे इच्छिजमाणे सव्वल हुमेन कंडयधादो करावेयव्त्रो । उक्कस्संतरे विवक्खिए सव्त्रचिरेणतोमुहुत्तेण कंडवादो करायो ।
५०
* एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं ।
९ १५१. जहा मिच्छत्तुकस्सारणुभागसंकामयाणं जहण्गुकस्तरपरूत्रणा क्या तहा एदेसि पि कम्माणं कायन्त्रा ति भणिदं होइ । संपहि अणुकस्साणुभागसंकामयगयविसेसपरूवणडुमुत्तरमुत्तं—
* णवरि बारसकसाय-णवणोकसायाणमण कस्साणु भागसंकामयंतरं जहणण एयसमत्र ।
१५२. अप्पप्पणो सव्त्रोवसामणाए एयसमयमंतरिय विदियसमए कालं काऊण देवेपणपढमसम व संकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलंभादो ।
* अणं'ताण॒ष॑धीणमणुकस्साणुभागसंकामयंतरं जहणेण अंतीमहन्तं ।
§ १५०. यथा - मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाला जीव उसका उत्कृष्ट अनुभाग करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक उत्कृष्ट अनुभागका ही संक्रम करके पुनः काण्डकघातके द्वारा अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका जन्य और उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है । मात्र इतनी विशेषता है कि जघन्य अन्तरकी विवक्षा होने पर अति शीघ्र काण्डकघात कराना चाहिए। तथा उत्कृष्ट अन्तरकी विवक्षा होने पर बहुत बड़े अन्तर्मुहूर्त के द्वारा काण्डकघात कराना चाहिए ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका अन्तरकाल जानना चाहिए ।
१५१. जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका कथन किया है उसी प्रकार इन कर्मों का भी कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इन कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकसम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषायों और नौ नोकषायोंके अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है ।
१५२. क्योंकि अपनी-अपनी सर्वोपशामनाके द्वारा एक समयका अन्तर करके और दूसरे समयमें मरकर देवोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें पुनः इनका संक्रम प्राप्त होने पर उक्त कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है ।
* अनन्तानुबन्धियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसँकमे एयजीवेण अंतरं
५१
६१५३. तं कथं १ अणुकस्साणुभागं संकामेंतो विसंजोइय पुणो अंतोमुहुत्तेण संजुत्तो हो संकामगो जादो, लद्धमंतरं ।
* उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
§ १५४. तं कथं ? उत्रसमसम्मत्तकाल अंतरे अनंताधिं विसंजोएदूण वेछावट्ठीओ भमि मिच्छत्तं गंतू गावलियादीदं संकामेमाणस्स लद्धमंतरं । एत्थ सादिरेयपमाणमंतोमुहुत्तं । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साण भागसंकामयंतरं कालादो होदि ?
केवचिरं
8
१५५. सुगमं । * जहणेणेयसमओ ।
१५६. तं जहा —–सम्मत्तमुव्वेल्लमाणो उवसमसम्मत्ताहि हो होऊणंतरकरणं परिसमाजियमिच्छत्तपढमद्विदिचरिमसमयम्मि सम्मत्तचरिमफालिं संकामिय उसमवसम्मत्तग्रहणपढमसमए असं कामओ होऊ गंतरिय पुणो विदियसमए उकस्साणुभागसंकामओ जादो, लदूमंतरं होइ । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि जहणमंतरपरूत्रणा कायन्त्रा ।
६१५३. शंका - वह कैसे ?
समाधान — अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके और पुनः अन्तर्मुहूर्त में उनसे संयुक्त होकर उनका संक्रामक हो गया । इस प्रकार इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है ।
* उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । ६ १५४. शंका
वह कैसे ?
समाधान — क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके तथा दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करनेके बाद मिथ्यात्वको प्राप्त होकर एक श्रावलि - काल के बाद इनका संक्रम करनेवाले जीवके उक्त अन्तर काल प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर साधिकका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
६ १५५. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
९ १५६. यथा -- सम्यक्त्वकी उद्व ेलना करनेवाला कोई एक जीत्र उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख होकर तथा अन्तरकरणको समाप्त कर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति के अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिका संक्रम करके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें असंक्रामक हो गया और इस प्रकार उसका अन्तर करके पुनः दूसरे समय में उसके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार सम्यक्त्व के उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के जन्य अन्तरका भी कथन करना चाहिए ।
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પર
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियडें ।
१५७. तं कधं ? अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तं पडिवन्जिय सव्वलहुं मिच्छत्तं गंतूग सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय अंतरस्सादि कादूण उबड्डपोग्गलपरियट्ट परिभमिय पुणो थोवावसेसे संसारे उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो विदियसमयम्मि संकामओ जादो, लद्धमुक्कस्संतरमुवडपोग्गलपरियट्टमेत्तं ।
* अणुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १५८. सुगमं।
त्थि अंतरं। ६१५६. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाए लद्धाणुकस्सभावत्तादो।
एवमोघो समत्तो। १६०. आदेसेण सव्यमग्गणासु विहत्तिभंगो। * एत्तो जहएणयंतरं।
६१६१. उकस्साणुभागसंकामयंतरविहासणाणंतरमेतो जहण्गाणुभागसंकामयंतरं कायब्वमिदि वुत्तं होइ।
* उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६ १५७. शंका-वह कैसे ?
समाधान-अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होकर तथा अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वाकी उद्वेलना करके अन्तरका प्रारम्भ किया । पुनः उपार्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके संसारके स्तोक रह जाने पर पुनः उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर दूसरे समयमें उनका संक्रामक हो गया। इस प्रकार इनके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त हो जाता है ।
* इनके अनुत्कृष्ट.भनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है। $ १५८ यह सूत्र सुगम है।
* अन्तरकाल नहीं है। ६ १५६. क्योंकि इनका अनुत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें प्राप्त होता है।
इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई। ६ १६०. आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अनुभागविभक्तिमें नरकगति आदि मार्गणाओंमें एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकालका कथन किया है उसी प्रकार यहाँ भी उसे अविकल जान लेना चाहिए। अन्तरकालकी अपेक्षा उससे यहाँ पर कोई विशेषता नहीं है ।
* आगे जघन्य अन्तरका कथन करते हैं।
६१६१. उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकके अन्तरका कथन करनेके बाद आगे जघन्य अनुभागके संक्रामकके अन्तरका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे एयजीवेण अंतरं
ॐ मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ? ६१६२. सुगमं ।
ॐ जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
६१६३. तं जहा–सुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागसंकमादो अजहष्णभावं गंतूग पुणो वि अंतोमुहुत्तेण घादिय सबजहण्णाणुभागसंकामओ जाओ, लद्धमंतरं होइ ।
ॐ उक्कस्सेण असंखेजा लोगा।
६१६४. तं कधं ? जहण्णाणुभागसंकामओ अजहण्णभाव गंतूण तप्पाओग्गपरिणामटाणेसु असंखेजलोगमेतं कालं गमिय पुणो हदसमप्पत्तियपाओग्गपरिणामेण जहण्गभावमुवगओ तस्स लद्धमंतरं होइ ।
ॐ अजहणणाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६१६५. सुगमं ।
ॐ जहणणुकस्सेण अंतोमृहुत्तं ।
६ १६६. तं जहा-अजहण्णाणुभागसंकामओ जहण्णभावमुवगंतूण तत्थ जहण्णकस्सेगंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो अजहण्णभावेण परिणदो, तत्थ लद्धमंतरं होइ ।
* मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १६२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है।
६ १६३. यथा- सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिकरूप जघन्य अनुभागके संक्रमसे अजघन्य अनुभागको प्राप्त होकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त के द्वारा घात कर कोई जीव सबसे जघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । ६ १६४. शंका-वह कैसे ?
समाधान-क्योंकि जघन्य अनुभागका संक्रामक जो जीव अजघन्य अनुभागको प्राप्त होकर और तत्प्रायोग्य परिणामस्थानोंमें असंख्यात लोकप्रमाण कालको गमा कर पुनः हतसमुत्पत्तिक अनुभागके परिणामके योग्य जघन्य अनुभागको प्राप्त हुआ है उसके उक्त उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है।
* उसके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १६५ यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तम हते है।
६ १६६. यथा-अजघन्य अनुभागका संक्रामक कोई एक जीव जवन्य अनुभागको प्राप्त होकर और वहाँ जघन्य और उत्कृष्टरूपसे अन्तमुहूर्त काल तक रह कर पुनः अजघन्य अनुभागवाला हो गया। इस प्रकार उक्त अन्तर प्राप्त हो जाता है।
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५४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ * एवमट्ठकसायाणं।
६ १६७. कुदो ? सामित्तभेदाभावादो। एत्युवलब्भमाणथोवयरविसेसपदुप्पायणट्ठमिदमाह
* णवरि अजहएणाणुभागसंकामयंतर केवचिरं कालादो होदि ? ६१६८. सुगमं । * जहएणेण एयसमत्रो। ६ १६६. सव्वोवसामणाए अंतरिदस्स तदुवलंभादो।
® सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहएणाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि।
६१७०. सुगमं । * पत्थि अंतरं। ६ १७१. कुदो ? खवणाए जादजहण्णाणुभागसंकामयस्स पुणरुभवाभावादो।
अजहएणाणुभागसंकोमयंतरं केवचिरकालादो होदि ? ६१७२. सुगमं । * जहणणेण एयसमभो । उकस्सेण उवहपोग्गलपरियडें ।
इसी प्रकार आठ कषायोंका अन्तरकाल जानना चाहिए।
६ १६७. क्योंकि मिथ्यात्वके स्वामीसे इनके स्वामीमें कोई भेद नहीं है । अब यहाँ पर प्राप्त होनेवाली थोडीसी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* कितु इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ?
६ १६८. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
६ १६६ क्योंकि सर्वोपशमनाके द्वारा अन्तरको प्राप्त हुए जीवके उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है?
६ १७०. यह सूत्र सुगम है। * अन्तरकाल नहीं है। ६ १७१. क्योंकि क्षपणामें उत्पन्न हुए जघन्य अनुभागसंक्रमकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती। * उनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १७२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।
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५५
गा०५८] उत्तरपयतिमणुभागसंकमे एयजीवेण अंतरं
५५ ६१७३ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
* अणंताणुबंधीणं जहणणाणुभागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि? ६१७४. सुगमं।
जहएणण अंतोमुत्तं ।
६ १७५ तं जहा-अर्णताणुबंधीण संजुत्तपढमसमयणवकबंधमावलियादीदं जहण्णभावेण संकामिय तत्तो विदियादिसमएसु अजहण्णभावेणंतरिय पुणो वि सव्वलहुएण कालेण विसंजोयणापुव्वं तप्पाओग्गजहण्णपरिणामेण संजुत्तो होऊणावलियादिक्कतो जहण्णाणुभागसंकामओ जादो, लद्धमतरं होइ।
* उकास्सेण अपडपोग्गलपरियडें । ____१७६. तं जहा–पुव्वुत्तेणेव विहिणा आदि कोदूर्णतरिय उवड्डपोग्गलपरियट्ट परिभमिय थोवावसेसे सिज्झिदव्यए ति सम्मत्तं पडिवजिय अणंताणुबंधिविसंजोयणापुरस्सरं परिणामपञ्चएण संजुत्तो होऊण आवलियादिक्कतो जहण्णाणुभागसंकामओ जादो, लद्धमुकस्संतरं होइ।
* अजहण्णाणुभागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ? ६१७७. सुगमं । ६ १७३. ये दोनों सूत्र सुगम हैं। * अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६ १७४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तमु हूत है ।
$ १७५. यथा-अनन्तानुबन्धियोंके संयुक्त होनेके प्रथम समयमें हुए नवकबन्ध एक आपलिके बाद जघन्यरूपसे संक्रम करके तथा उसके बाद द्वितीयादि समयोंमें अजघन्य अनुभागसंक्रमके द्वारा उसका अन्तर करके फिर अतिशीघ्र कालके द्वारा विसंयोजनापूर्वक तत्प्रायोग्य जघन्य परिणामसे संयुक्त होकर एक पावलिके बाद जो पुनः जघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया उसके उक्त जघन्य अन्तर प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।
६ १७६. यथा--पूर्वोक्त विधिसे ही जघन्य अनुभागसंक्रमका प्रारम्भ करके और अन्तर करके उपार्धपुद्गलपरिवर्तन कालतक परिभ्रमण करके सिद्ध होनेके लिए स्तोक काल शेष रह जाने पर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक परिणामवश उससे संयुक्त होकर एक प्रावलिके बाद जघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार उक्त उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है।
* इनके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका कितना अन्तर है ? ६१७७. यह सूत्र सुगम है।
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[ बंधगो ६
* जहणणे अंतोमुहुत्तं ।
१७८. तं जहा - अजहण्णाणुभागसंकामओ अनंतारणुबंधीणं विसंजोयणाणमंतरिय विल संजुतो होऊग जहण्णाणुभागसंकामओ जादो, लद्धमंतरं ।
* उक्कस्सेण वेद्वावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
$ १७६. तं जहा — उबसमसम्मत्त कालब्भंतरे, चेय अनंतारणु० चउक्क विसंजोइय वेदयसम्मत्तं घेत्तण वेछावट्ठिसा गरोमाणि परिभमिय तदवसोणे मिच्छत्तं गंतूणावलियादीदं कामेमाणस्स लद्धमुकस्समंतरं होइ । एत्थ सादिरेयपमाणमंतोमुहुत्तं ।
* सेसाणं कम्माणं जहणणाणु भागसंका मयंतर केवचिर कालादो होदि ? १८०. सुगमं ।
* पत्थि अंतर |
९ १ ८ १. कुदो १ खत्रणाए जाद जहण्णाणुभागत्तादो ।
* अजहण्णाणु भागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ?
६१८२. सुगमं ।
५६
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
* जहणण एयसमत्रो ।
९ १८३. सव्त्रोवसामणाए एयसमयमंतरिय विदियसमए कालं काढूण देवेसुप्पण्णपढमसम संकामयत्तमुवगयम्मि तदुवलंभादो ।
* जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
§ १७८. यथा— अजघन्य अनुभागका संक्रामक जीव अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना द्वारा अन्तर करके फिर भी अतिशीघ्र संयुक्त होकर अजघन्य अनुभागका संक्रामक हो गया। इस प्रकार उक्त अन्तर प्राप्त हो जाता है ।
* तथा उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
§ १७६. यथा— उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके तथा वेदकस्तम्यकत्वको ग्रहण कर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर एक श्रावलिके बाद संक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। यहाँ साधिकका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है ।
* शेष कर्मों के जघन्य अनुभाग के संक्रामकका कितना अन्तर है ।
१०. यह सूत्र सुगम है ।
*
1
§ १८१. क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग क्षपरणामें होता है ।
* इनके अजघन्य अनुभाग के संक्रामकका कितना अन्तर है ?
$ १८२. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
९ १८३ . क्योंकि सर्वोपशमना द्वारा एक समयका अन्तर करके दूसरे समयमें मरकर देवों में
उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संक्रम करनेवाले जीवके उक्त अन्तर प्राप्त होता है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडि अणुभागसंकमे साण्णियासो
५७
* उक्कस्सेण अतोमुहुत्तं ।
१८४. सव्त्रोत्रसामणाए सव्वचिरकालमंतरिय पडिघादवसेण पुणो संकामयत्तमुनगयस्स पयदंतर समाणणोवलंभादो ।
एवमोघो समतो |
१८५. आदेसेण सव्त्रणेरइय० सव्यतिरिक्ख-मरणुस अपज ० सव्वदेवा त्तिविहत्ति - भंगो । मणुसतिए दंसणतिय - अनंतागु०४ विहत्तिभंगो । बारसक-गवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जहण्गु० अंतोमु० । एवं जाव० । * सख्णियासी
६ १८६. अहियारपरामरससुत्तमेदं सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागं संकायेंतो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जह संकामणियमा उक्कस्सयं संकामेदि ।
8 १८७. मिच्छत्तुकस्सा णुभागसंकामओ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सिया संतकम्मिओ सिया असंतकम्मिओ | संतकम्मिओ वि सिया संकामओ, आवलियपविट्ठसंतकम्मियस्स वि
* उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
$ १८४. क्योंकि सर्वोपशमनाके द्वारा अधिक काल तक अन्तर करके गिरने के कारण पुनः संक्रम करनेवाले जीवके प्रकृत अन्तरकाल पाया जाता है ।
इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई ।
§ १८५. आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें अनुभागविभक्तिकेसमान भङ्ग है । मनुष्यत्रिकमें दर्शनमोहनीयत्रिक और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है । अजधन्य अनुभाग संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रका अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — जो सूक्ष्म एकेन्द्रिथसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ मनुष्यत्रिकमें उत्पन्न होता है उसके मध्यकी आठ कषायका जघन्य अनुभागसंक्रम पाया जाता है। तथा चार संज्वलन और नौ नोकषायका जघन्य अनुभाग संक्रम क्षपकन गिमें उपलब्ध होता है, इसलिए मनुष्यत्रिकमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसंक्रमके अन्तरका निषेध किया है । तथा यहाँ पर उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उपशमश्र णिमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष अन्तर अनुभागविभक्तिके समान होनेसे उसके अनुसार जाननेकी सूचना की है।
* अब सन्निकर्षका कथन करते हैं ।
$ १८६. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाला जीव यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करता है तो वह नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है।
१८७. मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाला जींव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कदाचित् सत्कर्मवाला होता है और कदाचित् उनके सत्कर्म से रहित होता है । सत्कर्मवाला भी कदाचित् संक्रामक होता है, क्योंकि जिस जीवके उक्त कर्मोंका सत्कर्म श्रावलिके भीतर
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५८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ संभवोवलंभादो । जइ संकामओ णियमा सो उक्कस्सं संकामेइ, दंसणमोहक्खवणादो अण्णत्थ तदकस्णुणसभावाप्पत्तीदो।
* सेसाणं कम्माणं उकस्सं वा अणकस्सं वा संकामेदि।
8 १८८. कुदो ! मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंकामयम्मि सोलसक०-णवणोकसायाणमुक्कस्साणुभागस्स तत्तो छट्ठाणहीणाणुभागस्स वि विसेसपच्चयवसेण संभव पडि विरोहाभावादो।
* उकस्सादो अणुकस्सं छहाणपदिदं ।
६ १८६. उकस्साणुभागसंकम पेक्खिऊण छहाणपदिदमणुकस्साणुभागं संकामेइ त्ति वुत्त होइ । किं कारणं १ णिरुद्धमिच्छत्तुकस्साणुभागं संकामयम्मि विवक्खियपयडीणमणुभागस्स छठाणहाणिबंधसंभवं पडि विप्पडिसेहाभावादो। ए, मिच्छत्तेण सह सेसकम्माणं सण्णियासविहाणं काऊण तेसि पि पादेक्कणिरुंभणेण सणियासविहाणमेवं चेव कायव्वमिदि परूवेदुमुत्तरसुत्तमाह
* एवं सेसाणं कम्माणं णादूण णेदव्वं । ६ १६०. एदं संगहणयावलंबिसुत्त'। एदस्स विहासणद्वमुच्चारणाणुगममेत्थ कस्सामो ।
प्रविष्ट हो गया है ऐसे जीवका भी सद्भाव पाया जाता है। यदि संक्रामक होता है तो वह नियमसे उनके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणको छोड़ कर अन्यत्र उनका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं बनता।
* वह शेष कमों के उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रम करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रम करता है।
६१८८. क्योंकि जो मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कर रहा है उसके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके विशेष प्रत्ययवश उत्कृष्ट अनुभागके और उससे छह स्थान हीन अनुभागके पाये जानेमें कोई विरोध नहीं पाता।
* किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट अनुभाग छह स्थानपतित होता है।
६ १८६. उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमको देखते हुए छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि जो विवक्षित मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कर रहा है उसके विवक्षित प्रकृतियोंके छह स्थानपतित अनुभागबन्धके होनेका कोई निषेध नहीं है। इस प्रकार मिथ्यात्वके साथ शेष कर्मोके सन्निकर्षका विधान करके अब उन कर्मोमेंसे भी प्रत्येकको विवक्षित कर सन्निकर्षका विधान इसी प्रकार करना चाहिए ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इसी प्रकार शेष कर्मों की मुख्यतासे भी समिकर्ष जानकर कथन करना चाहिए।
६१६०. यह संग्रहनयका अवलम्बन करनेवाला सूत्र है। इसका व्याख्यान करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणका अनुगम करते हैं। यथा-सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे सण्णियासो
પE तं जहा–सण्णियासो दुविहो, जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स उक्क० अणभागसंका० सम्म-सम्मामि० सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि सिया संका० । जइ संका० णियमा उक्कस्सं । सोलसक०-णवणोक० णियमा संका० तं तु छट्ठाणपदिदं । एवं सोलसक०-णवणोक० । सम्म० उकस्साणुभाग० संका० मिच्छ० णियमा० तं तु छट्ठाणपदिदं। बारसक०-णवणोक. सिया तं तु छट्ठाणपदिदं । अणंताणु०४ सिया अत्थि० । जइ अस्थि सिया संका० तं तु छट्ठाणपदिदं । सम्मामि० णियमा उक्कस्सं । एवं सम्मामि० । णवरि सम्म० सिया अस्थि । जदि अस्थि सिया संका० । जइ संका० णियमा उक्क० । एवंणेरइय० । णवरि सम्मामि० णस्थि । सम्मा० ओघं । णवरि बारसक०-णवणोक० णियमा तं तु छट्ठाणपदिदा। एवं पढमा०
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उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोघसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो उनका कदाचित् संक्रामक होता है। यदि संक्रामक होता है तो नियमसे उनके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक होता है। किन्तु वह उनके उत्कृष्ट अनुभागका.भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो उनके छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सोलह कयाय और नौ नोकषायोंकी मख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक जीव मिथ्यात्वका नियमसे संक्रामक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो वह नियमसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। बारह कपाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् संक्रामक होता है। यदि संक्रामक होता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो वह नियमसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं । यदि हैं तो उनका कदाचित् संक्रामक होता है। यदि संक्रामक होता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो नियमसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । सम्यग्मिध्यात्वका नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्वप्रकृति कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो उसका कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् संक्रामक नहीं होता। यदि संक्रामक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति नहीं है। सम्यक्त्वकी मुख्यतासे भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि वह बारह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक होता है। यदि संक्रामक होता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो वह नियमसे छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । इसी प्रकार पहिली पृथिबी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ तिरिक्ख-पंचिंदियतिरि०दुग-देवा सोहम्मादि जाव सहस्सार ति। एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । णवरि सम्म० णस्थि । एवं जोणिणी-पंचितिरिक्खअपज०-मणुसअपज०भवण०-वाण०-जोदिसि० ति ।
६१६१. मणुसतिए ओघं । आणदादि जाव णवगेवजा. ति मिच्छ० उक्क० अणुभा० संका० सम्म० सिया अस्थि सिया णस्थि । जइ अस्थि सिया संका० । जइ संका० णियमा उक्क० । सोलसक०-णवणोक० णियमा उक्क० । एवं सोलसक०-गवणो० । सम्म० उक्क० अणुभा० संका० मिच्छ०-बारसक०-णवणोक० णियमा तं तु उक्स्सादो अणुक्कस्समणंतगुणहीणं । अणंताणु०४ सिया अस्थि । जदि अस्थि सिया संका० । जदि संका० तं तु उकस्सादो अणुक्कस्समर्णतगुणहीणं ।
६ १६२. अणुदिसादि सबट्ठा ति मिच्छ० उकस्साणु० संका० सम्म०-सोलसक०णवणोक० णियमा उकस्सं । एवं सोलसक०-णवणोक० । सम्म० उक्क० अणुभागसंका० बारसक०-णवणोक० णियमा तं तु उक्कस्सादो अणुक्कस्समणंतगुणहीणं । अणंताणु०४ सिया
लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृति नहीं है। इसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी देव, व्यन्तर देव और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
६ १६१. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकके सम्यक्त्व कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो कदाचित् संक्रामक होता है। यदि संक्रामक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । सोलह कवाय और नौ नोक पायों के नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकरायों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो वह अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् संक्रामक नहीं होता। यदि संक्रामक होता है तो कदाचित् उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और कदाचित अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो वह अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कुष्ट अनुभागका संक्रामक होता है।
६ १६२. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक जीव सम्यक्त्व, सोलह कपाय और नौ नोकषायोंके नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक जीव वारह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसँकमे सणयासो
६१
affar for । दि अस्थि सिया संका ० । जदि संका ० तं तु उक्कस्सादो अणुकरस
मतगुणहीणं । एवं जाव० ।
* जहपण
सरिणयासो ।
$ १६३. एत्तो जहण्गसण्णियासो कायव्यो त्ति भणिदं होइ । संपहि पयडि - परिवाडीए तणिदेसकरणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो—
* मिच्छत्तस्त जहण्ण शुभागं संकामेंतो सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं जड़ संकामओ णियमा अजहरणाणुभागं संकामेदि । १६४. कुदो ? मिच्छत्तजहण्णाणुभागसंकामयसु हुमेइ दियहदसमुप्पत्तियसंतकम्मियम्मिसम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सारणुभागसंकमस्सेव संभवदंसणा दो । * जहण्णादो अजहरण मांतगुणग्भहियं ।
१५. जहण्णादो अर्णतगुणन्भ हियमेवाजहण्णाणुभागं संकामेदि, सम्म-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सारणुभागस्स तत्थ वि विणट्टसरूवेण संकतिसादो ।
* कम्माणं जहणं वा अजहणणं वा संकामेदि ।
अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नही हैं। यदि हैं तो उनका कदाचित् संक्रामक होता है और कदाचित् संक्रामक नहीं होता । यदि संक्रामक होता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है तो अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार अनाहारकमार्गणा तक जानना चाहिए ।
* अब जघन्य अनुभागसंक्रमके सन्निकर्षका कथन करते हैं ।
$ १६३. आगे जघन्य अनुभागसंक्रम करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब प्रकृतियोंकी परिपाटीके अनुसार उसका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध है
* मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यदि संक्रामक होता है तो नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ।
१४. क्योंकि मिध्यात्वके सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मरूप जघन्य अनुभाग संक्रामक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम ही सम्भव देखा जाता है ।
* जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ।
१५. जबकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजधन्य अनुभागका ही संक्रम करता है, क्योंकि वहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागका अविनरूपसे संक्रम देखा जाता है।
* आठ कर्मो के जघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है और अजघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ १९६. कुदो! मिच्छत्तेण समाणसामियत्ते वि विसेसपच्चयवसेणेदेसिमणुभागस्स तत्थ जहण्णोजहण्णभावसिद्धीए विरोहाभावादो।
ॐ जहएणादो अजहएणं छट्ठाणपदिदं ।
६१६७. एत्थ छट्ठाणपदिदमिदि वुत्ते कत्थ वि जहण्णादो अणंतभागभहियं, कत्थ वि असंखेजभागब्भहियं, कत्थ वि संखेज्जभागभहियं, कत्थ वि संखेजगुणब्भहियं, कत्थ वि असंखेजगुणब्भहियं, कल्थ वि अणंतगुणब्भहियं च अजहण्णाणुभाग: संकामेदि ति घेत्तव्यं, अंतरंगपच्चयवसेण जहण्णभावपाओग्गविसए वि पयदवियप्पाणमुप्पत्तीए पडिबंधाभावादो।
_ सेसाणं कम्माणं णियमा अजहणणं । जहण्णादो अजहण्णमणतगुणभहियं ।
६ १६८. वृत्तसेसकसाय-णोकसायाणमिह म्गहण8 सेसकम्मणिदेसो। तेसिमेत्थ जहाणभावसंभवारेयणिरायरण8 णियमा अजहण्णवयणं । तत्थ वि अणंतभागभहियादिवियप्पसंभवणिरायरणट्ठमणतगुणब्भहियणिदेसो कदो। कुदो वुण तदणंतगुणब्भहियत्तमिदि णासंकणिजं, विसंजोयणाणुपुचसंजोगे खवणाए च लद्धजहण्णभावाणमणंताणुवंधियादीणमेस्थाणतगुणत्तसिद्धीए पडिसेहाभावादो।
१६६. क्योंकि इनके जघन्य अनुभागके संक्रमका स्वामी मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रमके स्वामीके समान है तो भी विशेष प्रत्ययवश वहाँ पर इनका अनुभाग जघन्य भी सिद्ध होता है और अजघन्य भी सिद्ध होता है, इसमें कोई विरोध नहीं आता।
* यदि अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थान पतित अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है।
६ १६७. यहाँ पर छह स्थानपतित ऐसा कहने पर जघन्यसे कहीं पर अनन्तवें भाग अधिक, कहीं पर असंख्यातवें भाग अधिक, कहीं पर संख्यातवें भाग अधिक, कहीं पर संख्यातगुणे अधिक, कहीं पर असंख्यातगुणे अधिक और कहीं पर अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्तरङ्ग कारण वश जघन्य अनुभागके योग्य स्थानमें भी प्रकृत विकल्पोंकी उत्पत्ति होनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
* शेष कर्मों के नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है जो जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है।
६१६८. पूर्व में कहे गये कर्मोंसे शेष कषायों और नोकपायोंका यहाँ पर ग्रहण करनेके लिए सूत्रमें 'शेष' पदका निर्देश किया है। उनका यहाँ पर जघन्य अनुभाग सम्भव है ऐसी आशंकाके निराकरण करनेके लिए नियमसे अजघन्य' यह वचन दिया है। उसमें भी अनन्तवें भाग आदि विकल्प सम्भव हैं, इसलिए उनका निराकरण करनेके लिए 'अनन्तगुणे अधिक' पदका निर्देश किया है। उनका अनुभाग अनन्तगुणा कैसे है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विसंयोजनाके बाद पुनः संयोगके समय तथा क्षपणाके समय जघन्य अनुभागको प्राप्त होनेवाले अनन्तानुबन्धी आदिके अनुभागसे यहाँ पर अनन्तगुणे सिद्ध होने में किसी प्रकारका प्रतिषेध नहीं है ।
१ ता० प्रा०प्रत्योः च जहण्णाणुभागं इति पाठः ।
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गा०५८]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे सण्णियासो * एवमहकसाया।
६ १६६. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णसण्णियासो कओ एवमढकसायाणं पि पादेकणिरुंभणाए काययो, विसेसाभावादो ति भणिदं होदि ।
ॐ सम्मत्तस्स जहणणाणु भागं संकानेंतो मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तभणंताणु बंधीणमकम्मंसियो।
२००. कुदो ? एदेसिमविणासे सम्मत्तजहण्णाणुभागसंकमुप्पत्तीए विप्पडिसिद्धत्तादो।
सेसाण कम्माण णियमा अजहरण संकादि। ६२०१. कुदो ? सुहुमहदसमुप्पत्तियकम्मेण चरित्तमोहक्खवणाए च लद्धजहण्णमावाणं तेसिमेत्य जहण्णभावाणुवलंभादो।
® जहण्णादो अजहण्णमणतगुणन्भहियं ।
( २०२. कुदो ? अट्ठकसायाणं हदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागादो सेसकसायणोकसायाणं पि खवणाए जणिदजहण्गाणुभागसंकमादो एत्थतणतदणुभागसंकमस्स तहाभावसिद्धीए विप्पडिसेहामावादो।
* इसी प्रकार मध्यकी आठ कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६ १६६. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी मुख्यतासे जघन्य सन्निकर्षका विधान किया है उसी प्रकार पाठ कगयोंकी अपेक्षा भी प्रत्येककी मुख्यतासे जघन्य सन्निकर्षका कथन करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वके कथनसे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
___ * सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सत्कर्मसे रहित होता है।
.. ६२००. क्योंकि इन मिथ्यात्व आदिका विनाश हुए बिना सम्यक्त्त्वके जघन्य अनुभाग संक्रमकी उत्पत्ति निषिद्ध है।
* शेष कमों के नियमसे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है।
६२०१. क्योंकि जिनमें सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बधी हतसमुत्पत्तिक कर्मके द्वारा और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके द्वारा जघन्यता प्राप्त हुई है उनका यहाँ अर्थात् सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसंक्रमके साथ जघन्यपना नहीं बन सकता।
* जो अपने जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है।
६२०२. क्योंकि आठ कषायोंके हतसमुत्पत्तिक रूपसे उत्पन्न हुए जघन्य अनुभागसे तथा शेष कषाय और नोकषायोंके भी क्षपणामें उत्पन्न हुए जघन्य अनुभागसंक्रमसे यहाँ पर उत्पन्न हुए
उनके जवन्य अनुभागसंक्रमका जघन्यपना निषिद्ध है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ॐ एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। वरि सम्मत्तं विजमाणेहि भणियव्वं ।
२०३. सम्मत्तसण्णियासे सम्मामिच्छत्तमविजमाणेहि मिच्छत्तदीहि सह भणिदं । एत्थ पुण सम्म्मत्तं विजमाणेहि सहाणंतगुणब्भहियाजहण्णाणुभागसंजुत्तं वत्तव्यमिदि भणिदं होइ।
* पुरिसवेदस्स जहएणाणुभागं संकामेंतो चदुण्हं कसायाणं णियमा अजहएणमणंतगुणब्भहियं ।
२०४. एत्थ चदुण्हं कसायाणमिदि वुत्ते संजल गचउक्कस्स गहणं कायव्वं, पुरिसवेदजहण्णाणुभागसंकमे णिरुद्धे सेसक०-णोकसायाणमसंभवादो । तेसिं पुण अजहण्णाणुभागमणतगुणब्भहियं चेव संकामेदि, उवरि किट्टिपज्जाएण लद्धजहण्णभावाणमेत्थ तदविरोहादो।
* कोधादितिए उवरिल्लाणं संकामो णियमा अजहएणमपंतगुणभहियं।
२०५. कोधादितिगे संजलणसण्णिदे णिरुद्धे हेडिल्लाणं णत्थि सण्णियासो, असंतकम्मिए तबिरोहादो। उवरिल्लाणमत्थि, कोहसंजलणे णिरुद्ध माण-माया-लोह
* इसी प्रकार सभ्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसंक्रमकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ पर जो सम्यक्त्व सत्कर्मवाले हैं उनके साथ यह सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
६२०३. सम्यक्त्वकी मुख्यतासे जो सग्निकर्ष होता है उसमें सम्यग्मिथ्यात्वसे रहित जीवोंके मिथ्यात्व आदिके साथ यह सन्निकर्ष कहा है। किन्तु यहाँ पर सम्यक्त्वसत्कर्म सहित जीवोंके साथ अनन्तगुणे अधिक जघन्य अनुभागसंक्रम संयुक्त सन्निकर्ष कहना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव नियमसे चार कषायोंके अनन्तगुणे अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है ।
६२०४. यहाँ पर 'चार कषायोंके' ऐसा कहने पर चार संज्वलनोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमके समय शेष कषायों और नोकपायोंका सद्भाव नहीं पाया जाता । मात्र तब चार संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका ही संक्रामक होता है, क्योंकि इनका कृष्टिरूपसे जघन्य अनुभागसंक्रम आगे पाया जाता है, इसलिए यहाँ पर उनके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागसंक्रमके होनेमें विरोध नहीं आता।
___ * क्रोधादि तीन संज्वलनोंके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव उपरिम संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है।
६ २०५. संज्वलन संज्ञावाले क्रोधादित्रिकके जघन्य अनुभागसंक्रमके समय पूर्ववर्ती सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष नहीं है, क्योंकि उनके सत्त्वसे रहित्त उक्त जीवके उनका सन्निकर्ष मानने में विरोध पाता है। हाँ उपरिम प्रकृतियोंका सन्निकर्ष है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभाग
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गा० ५८ ]
उत्तरपत्रिणुभागसंकमे सण्णियासो
संजलणाणं, माणसंजलणे णिरुद्धे माया - लोहसंजलणाणं, मायासंजलणे णिरुद्धे लोहसंजलणस्स संकमसंभवोवलं भादो । तत्थाजहण्णभावणियमो अनंतगुणब्भहियत्तं च सुगमं ।
* लोहसंजलणे णिरुडे पत्थि सरिणयासो ।
२०६. तत्थण्णेसिमसंभवादो । सेसकसाय - णोकसायाणं जहण्णसण्णियासो एदेणेव सुण देसामा सयभावेण सूचिदो ।
૬૫
९ २०७. संपहिएदेण सूचिदत्थस्स फुडीकरणमुच्चारणाणुगममिह कस्सामो । तं जहा - जहणए पदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ० जह० अणुभागसंका ० सम्म ०- सम्मामि० सिया अत्थि, सिया णत्थि । जदि अत्थि, सिया संका । जइ संका ० णिय ० अज ० गुणमयिं । असा० जह० अजहण्णं वा, जहण्णादो अज० छाणपदिदा । अट्ठक० - णत्रणोक० णिय० अज० अनंतगुणब्भ० । एवमट्ठक० ।
०
९ २०८. सम्म० जह० अणुभागसंका • बारसक० - णवणोक० णिय० अज० अनंतगुणभं । सेसं णत्थि । सम्मामि० जह० अणुभा० संका ० सम्म० - बारसक० - णवणोक० णियमा अज० अअंतगुणब्भ० । सेसा णत्थि । अनंताणुकोध० जह० अणु० संका० दंसणतिय - संक्रमके समय मान, माया और लोभसंज्वलनोंके, मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमके समय माया और लोभ संज्वलनों के तथा मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमके समय लोभसंज्वलनके संक्रमका सद्भाव पाया जाता है । वहाँ पर विवक्षित प्रकृतिके जघन्य अनुभागसंक्रमके समय उक्त अन्य प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभाग के संक्रमका नियम है और वह अनन्तगुणा अधिक होता है ये दोनों बातें सुगम हैं ।
* लोभस ज्वलन जघन्य
अनुभागस क्रमके समय
अन्य प्रकृतियोंका सन्निकर्ष
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$ २०६. क्योंकि वहाँ पर अन्य प्रकृतियाँ नहीं पाई जातीं। यह सूत्र देशामर्षक है । शेष कषायों और नोकषायोंकी मुख्यतासे जघन्य सन्निकर्षका इसी सूत्रसे सूचन हो जाता है ।
§ २०७. अब इससे सूचित हुए अर्थको प्रकट करने के लिए यहाँ पर उच्चारणाका कथन करते हैं । यथा - जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- श्रघ और आदेश । श्रघसे मिध्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसत्कर्म कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो वह इनका कदाचित् संक्रामक होता है। यदि संक्रामक है तो नियम अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। वह मध्यकी आठ कषायोंके जघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है और अजघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है । यदि वन्य अनुभागका संक्रामक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। शेष आठ कषाय और नौ नोकषायोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य अनुभाग के संक्रामकको विवक्षित करके सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
२०८. सम्यक्त्व जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव बारह कषायों और नौ नोकषायों के अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । वह शेषका सत्कर्मवाला नहीं है । सम्यग्मिध्यात्यके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों के tray कि जघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है । यह शेष प्रकृतियों के सत्कर्म से
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[बंधगो ६ बारसक०–णवणोक० णियमा अज० अर्णतगुणब्भ० । तिण्हं कसायाणं जह• अज० वा, जहणणदो अज० छट्ठाणपदिदा । एवं तिण्हं कसायाणं ।
६२०६. कोहसंज० जह० अणुसंका० तिण्हं संज० णिय० अज० अणंतगुणब्भ० । सेसं णत्थि । माणसंज० जह० अणु०संका० दोण्हं संज० णिय० अज० अणंतगुणब्भ० । सेसं णत्थि । मायासंज० जह० अणु०संका० लोभसंज० णियमा अज० अर्णतगुणब्भ० । सेसं णस्थि । लोहसंज० जह० अणुभागसंका० सेसाणमकम्मंसिगो।
६२१० णवंस जह० अणुभा० संका० सत्तणोक०-चदुसंज० णिय० अज० अणंतगुण० । इत्थिवेद० णिय० जह० । सेसं णत्थि । इथिवे० जह० अणु० संका० सत्तणोक०-चदुसंज० णिय० अज० अर्णतगुणब्भ० । णवंस० सिया अस्थि । जदि अस्थि णिय० जहणं । सेसं णत्थि । हस्स जह० अणु०संका० पंचणोक० णिय० जह । पुरिसवेद-चदुसंज० णिय० अज० अणंतगुणब्भहियं । सेसं णस्थि । एवं पंचणोक० । पुरिसवे. जह० अणुभागसंका० चदुसंज० णिय० अज० अणंतगुणब्भ० । रहित है। अनन्तानुबन्धीक्रोधके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव तीन दर्शनमोहनीय, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। अनन्तानुवन्धी मान अदि तीनके जघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है और अजघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतित अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंके जघन्य अनुभागको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
६ २०६. क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव शेष तीन संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। वह शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है। मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव माया आदि दो संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। वह शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है । मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव लोभसंज्वलनके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है । वह शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है । लोभसंज्वलनके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है।
६२१०. नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव सात नोकषायों और चार संजलनोंके अनन्तगणे अधिक अजघन्य अनभागका नियमसे संक्रामक होता है। स्त्रीवेदके जवन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। वह शेष प्रकृतियों के सत्कर्मसे रहित है ।स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव सात नोकषायों और चार संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका निममसे संक्रामक होता है । नपुंसकवेद कदाचित् है । यदि है तो नियमसे उसके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । वह शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है । हास्य प्रकृतिके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव नियमसे पाँच नोकषायोंके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। पुरुषवेद और चार संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका नियमसे संक्रामक होता है। वह शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है। इसी प्रकार शेष पाँच नोकषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना
। पुरुषवेदके जघन्य अनभागका संक्रामक जीव नियमसे चार संज्वलनोंके अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। वह शेष प्रकृतियोंके सत्कर्मसे रहित है। इसी
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसंकमे सण्णियासो
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सेत्थि । एवं मणुस ० ३ । णवरि मणुसिणी० णवंस० जह० अणुभागसंका ० इत्थवे ० णिय० अज० अनंतगुणभ० । इत्थिवेद ० जह० for । पुरिसंवेद० गोकसायभंगो ।
अणुभा० संका ० स ०
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२११. आदेसेण रइय० मिच्छ० जह० अणुभाग संका ० विहत्तिभंगो | णवरि सम्म० सिया अस्थि । जदि अत्थि सिया संका ० | जड़ संका ० णिय० अज० अनंतगुणन्भ ० | एवं बारसक० - णत्रणोक० । सभ्म० - अनंताणु०४ विहत्तिभंगो । एवं पढमाए तिरिक्ख० पंचि०तिरिक्ख ०२ - देवगादिदेवा । एवं चेत्र जोणिणी भवण ० त्राणत्रेतर० । णत्ररि सम्म० णत्थि । २१२. विदयादि सत्तमा त्ति मिच्छ० जह० अणु० संका • अनंतापु०४ सिया अस्थि । जदि अस्थि सिया संका० । जड़ संका ० जह० अजहण्णं वा, जहण्णादो अजहण्णं छापदिदं । बारसक० - णवणोक० णिय० जह० । एवं बारसक० -णवणोक० । अनंताणु०४ विहत्तिभंगो । एवं जोदिसि० । पंचि०तिरिक्खअपज ० - मणुस अपज० विहत्तिभंगो । सोहम्मादि जाव सात्ति विहत्तिभंगो । वरि अपञ्चकखाणकोह० जह० अणु ० संका ० प्रकार सन्निकर्ष के समान मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें नपुंसकवेद के जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव नियमसे स्त्रीवेद के अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होत । है । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका संक्रामक जीव नपुंसकवेदके सत्कर्मसे रहित है । पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है ।
२११. देशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृति कदाचित् है । यदि है तो उसका कदाचित् संक्रामक होता है । यदि संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायों के जघन्य अनुभागसंक्रमको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककेजघन्य अनुभाग के संक्रामककी मुख्यतासे भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चद्विक और देवगतिमें सामान्य देवोंमें जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार योनिनीतिर्यञ्च भवनवासी और व्यन्तरदेवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि इनमें सम्यक्त्वका भंग नहीं है ।
९ २१२. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिध्यात्वके जघन्य अ भागके संक्रामक जीवके अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् हैं । यदि हैं तो कदाचित् संक्रामक होता है । यदि संक्रामक होता है तो जघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है और अजघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा छह स्थानपतितत अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायों के जघन्य अनुभागसंक्रमको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । अनन्तनुबम्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसंक्रमको मुख्यकर भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है । इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ सम्म० सिया अस्थि । जदि अस्थि, सिया संका० । जदि संका० तं तु जहण्णादो अज० अणंतगुणब्भ० । एवं जाव० ।
*णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो–उक्कस्सपदभंगविचओ जहएणपदभंगविचओ च ।
६२१३. सुगममेदं णाणाजीवभंगविचयस्स जहण्णकस्साणुभागसंकामयविसयत्तेण दुविहत्तपदुप्पाइयं सुत्तं। संपहि दोण्हमेदेसिं भंगविचयाणमट्ठपदपरूवणं काऊण तदो उवरिमा परूवणा कायना ति जाणावणमुत्तरसुत्तमाह
तेसिमट्ठपदं काऊण। ६२१४. तेसिमणंतरणिदिवाणमुक्कस्स-जहण्णपदभंगविचयाणमट्ठपदं काऊण पच्छा तदोघादेसपरूवणा कायव्वा ति सुत्तत्थसंबंधो । किं तमट्ठपदं १ वुच्चदे–जे उकस्साणुभागसंकामया ते अणुक्कस्साणुभागस्स असंकामया । जे अणुकस्साणुभागसंकामया ते उकस्साणुभागस्स असंकम्मया । जेसि संतकम्ममत्थि तेसु पयदं, अकम्मेहि अव्ववहारो। एवं जहण्णाजहण्णाणं पि वत्तव्वं । एवमट्ठपदपरूवणं काऊणुकस्तपदभंगविचयस्स ताव णिदेसो कीरदे । तं जहा
है कि अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवके सम्यक्त्वसत्कर्म कदाचित् है । यदि है तो वह कदाचित् संक्रामक है। यदि संक्रामक है तो वह जघन्य अनुभागक्रा भी संक्रामक होता है और अजघन्य अनुभागका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है तो जघन्यसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए।
* नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है-उत्कृष्टपदभङ्गविचय और जघन्यपदभङ्गविचय ।
६२१३. नाना जीवविषयक भङ्गविचयके जवन्य और उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंके विषयरूपसे दो भेदोंका कथन करनेवाला यह सूत्र सुगम है । अब इन दोनों भङ्गविचयोंके अर्थपदका कथन करके उसके बाद आगेकी प्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* उनका अर्थपद करके प्ररूपणा करनी चाहिए।
हु २१४. अनन्तर पूर्व कहे गये उत्कृष्टपदभङ्गविचय और जघन्यपदभङ्गविचयका अर्थपद करके अनन्तर उनकी श्रोधप्ररूपण और आदेशप्ररूपणा करनी चाहिए इस प्रकार उक्त सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । वह अर्थपद क्या है ? कहते हैं जो उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक होते हैं वे अनुकृष्ट अनुभागके असंक्रामक होते हैं। जो अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक होते हैं वे उत्कृष्ट अनुभागके असंक्रामक होते हैं। जिनके सत्कर्म है उनका प्रकरण है, क्योंकि कर्मरहित जीवोंसे प्रयोजन नहीं है । इसी प्रकार जघन्य और अजवन्यकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। इस प्रकार अर्थपदका कथन करके उत्कृष्टपदभङ्गविचयका सर्वप्रथम निर्देश करते हैं
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभाग संकमे भंग विच
* मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा उक्कस्साणुभागस्स असंकामया । § २१५. कुदो? मिच्छत्तुकस्साणुभागसंकामयाणमद्भुवभा वित्तादो । एसो पढमभंगो १ । * सिया असंकामया च संकामओ च ।
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९ २१६. कुदो ? सव्वजीवाणमुक्कस्साणुभागस्स असंकामयाणं मम्मे कदाइमेयजीवस्स तदुक्कस्सारणुभागसंकामयत्तेण परिणदस्सुवलंभादो । एसो विदिओ भंगो २ ।
* सिया संकासया च संकामया च ।
$ २१७. कदाइमुक्कस्साणुभागस्सासंका मयसव्वजीवाणं मज्झे केत्तियाणं पि जीवाणमुकस्सारणुभागसंकामयभावेण परिणदाणमुवलंभादो । एवमेसो तइजो भंगो ३ |
९ २१८. एवमणुक्कस्साणुभागसंकामयाणं पि तिष्ण मंगा विवज्जासेण कायव्त्रा । तं जहा – मिच्छत्ताणुकस्साणुभागस्स सव्वे जीवा संकामया १, सिया एदे च असंकामओ च २, सिया एदे च असंकामया च ३ । कथमिदं सुत्तेणाणुवइङ्कं णव्त्रदे ? ण, उक्करसभंगविचएणेव जाणाविदत्तादो ।
* एवं सेसाणं कम्माणं ।
* कदाचित् सव जीव मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके असंक्रामक होते हैं ।
§ २१५. क्योंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव ध्रुव नहीं हैं । यह प्रथम
भङ्ग है १ ।
* कदाचित् नाना जीव असंक्रामक होते हैं और एक जीव संक्रामक होता है ।
§ २१६. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग के असंक्रामक सब जीवोंके बीच कदाचित् मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागके संक्रमरूपसे परिणत एक जीव उपलब्ध होता है । यह दूसरा भङ्ग है २ ।
* कदाचित् नाना जीव असंक्रामक होते हैं और नाना जीव संक्रामक होते हैं । ९ २१७. क्योंकि । कदाचित् उत्कृष्ट अनुभागके असंक्रामक सब जीवोंके मध्य में उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकरूपसे परिणत हुए कितने ही जीव उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार यह तीसरा भङ्ग ३ |
६ २१८. इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंके भी तीन भङ्ग पलट कर करने चाहिए । यथा— कदाचित् मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट अनुभाग के सब जीव संक्रामक हैं | कदाचित नाना जीव संक्रामक हैं और एक जीव असंक्रामक है २ । तथा कदाचित् नाना जीव संक्रामक हैं और नाना जीव असंक्रामक हैं ३ |
शंका- सूत्रमें नहीं कहा गया यह अर्थ कैसे जाना जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट भङ्गविचयसे ही इसका ज्ञान करा दिया गया है । * इसी प्रकार शेष कर्मों का जानना चाहिए ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ २१६. सुगममेदमप्पणासुत्तं । एदेण सामण्णणिदेसेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पि मिच्छत्तभंगाइप्पसंगे तत्थतणविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं
* णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं संकामगा पुव्वं ति भाणिदव्वं ।
६२२०. तं जहा–सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागस्स सिया सव्वे जीवा संकामया १, सिया एदे च असंकामओ च २, सिया एदे च असंकामया च ३। एवमणुकस्साणुभागसंकामयाणं पि विवजासेण तिण्हं भंगाणमालावो कायव्यो ति एस विसेसो सुत्तेणेदेण जाणाविदो।
एवमोघेणुक्कस्सभंगविचओ समत्तो । ६ २२१. आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो ।
जहएणाणुभागसंकमभंगविचो। ६२२२. सुगमं ।
ॐ मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहएणाणभागस्स संकामया च असंकामया च।
६२१६. यह अर्पणासूत्र सुगम है । इस सामान्य निर्देशसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें भी मिथ्यात्वके भङ्गोंका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होने पर उनमें विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक जीव पहले कहने चाहिए।
६२२०. यथा-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सब जीव संक्रामक हैं। कदाचित नाना जीव संक्रामक हैं और एक जीव असंक्रामक है २ तथा कदाचित नाना जीव संक्रामक हैं और नाना जीव असंक्रामक हैं ३। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंके भी विपर्यय क्रमसे तीन भङ्गोंका आलाप करना चाहिए। इस प्रकार यह विशेष इस सूत्रके द्वारा जतलाया गया है।
इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट भङ्गविचय समाप्त हुआ। ६२२१. आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-आशय यह है कि जिस प्रकार अनुभागसत्कर्मकी अपेक्षा अनुभागविभक्तिके आश्रयते मार्गणाओंमें भङ्गविचयका विचार कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। उससे यहाँ अन्य कोई विशेषता नहीं है।
* अब जघन्य अनुभागसंक्रमभङ्गविचयका कथन करते हैं। ६ २२२. यह सूत्र सुगम है।
* मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके नाना जीव संक्रामक होते हैं और नाना जीव असंक्रामक होते हैं ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंक मे श्रणुत्तणियोगद्वारसूयणा
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९ २२३. एदेसि कम्माणं जहण्णाणभागस्स संकामया असंकामया च णियमा अत्थि त्ति वृत्तं होइ । कुदो एवं सुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियकम्मेण लद्धजहण्णभावाणमेदेसिं तदविरोहादो |
* सेसाणं कम्माणं जहण्णाणुभागस्स सव्वे जीवा सिया असंका मया । ९ २२४. कुदो ? दंसण-चरित्तमोहक्खवयाणमर्णतारणुबंधिसंजोजयाणं च सव्त्रद्धभादो ।
* सिया
संकामया च संकामत्र च ।
९ २२५. कुदो ? असंकामयाणं धुवभावेण कदाइमेय वस्स जहण्णभावपरिणदस्स परिष्फुडमुवलंभादो ?
* सिया संकामया च संकामया च ।
$ २२६. कुदो ? असंकामयाणं धुवभावेण केत्तियाणं पि जीवाणं जहण्णाणु भागसंकामयभावपरिणदाणमुवलंभादो । एवमोघो समत्तो । आदेसेण सव्वं विहत्तिभंगो । एवं भंगविचओ समत्तो ।
२२७. एत्थे सूचिदभागाभाग - परिमाण खेत्त - फोसणाणं पि विहत्तिभंगो ।
६ २२३. इन कर्मों के जघन्य अनुभाग के संक्रामक और असंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- ऐसा क्यों है ?
समाधान—क्योंकि एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ जघन्यपनेको प्राप्त हुए इन जीवोंमें जघन्य अनुभाग के संक्रामक और असंक्रामक नाना जीवोंके सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता ।
* शेष कर्मों के जघन्य अनुभागके कदाचित् सब जीव असंक्रामक होते हैं ।
§ २२४. क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले और अनन्तानुबन्धी विसंयोजना करनेवाले जीव सर्वदा नहीं पाये जाते ।
* कदाअित नाना जीव असंक्रामक होते हैं और एक जीव संक्रामक होता है ।
२२५. क्योंकि जघन्य अनुभाग के असंक्रामक ये नाना जीव ध्रुवरूपसे और कदाचित् जघन्य अनुभागके संक्रामकरूपसे परिणत हुआ एक जीव स्पष्टरूपसे पाया जाता है ।
* कदाचित् नाना जीव असंक्रामक होते हैं और नाना जीव संक्रामक होते हैं ।
§ २२६. क्योंकि जवन्य अनुभाग के संक्रामक ये नाना जीव ध्रुवरूपसे और जघन्य अनुभागके संक्रामकभावसे परिणत हुए कितने ही जीव पाये जाते हैं। इस प्रकार श्रोघ कथन समाप्त हुआ । देशकी अपेक्षा सब कथन अनुभागविभक्तिके समान है ।
इस प्रकार भङ्गविचय समाप्त हुआ ।
§ २२७. यहाँ पर इस पूर्वोक्त कथन के द्वारा सूचित हुए भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शनको अनुभागविभक्तिके समान जानना चाहिए ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
विशेषार्थ —– यहाँ पर भागाभाग आदि चार प्ररूपणाओंको अनुभागविभक्तिके समान जानने की सूचना की है, अतः यहाँ पर क्रमसे उनका विचार करते हैं । यथा-भागाभाग दो प्रकारका हैजघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसका निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव सव जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं तथा अनुकृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । यह ओघ प्ररूपणा है । आदेश से इसी विधिको ध्यान में रखकर घटित कर लेना चाहिए । जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और आदेश । श्रोघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कंषायोंके जघन्य अनुभाग के संक्रामक जीव सब जीवोंके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा जघन्य अनुभागके संक्रामक जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं तथा जघन्य अनुभागके संक्रामक जीव सब rain बहुभाग प्रमाण हैं । यह श्रोघप्ररूपणा है । इसी प्रकार विचारकर प्रदेशसे जान लेना चाहिए ।
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परिमाण दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रघसे छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव असंख्यात हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीव असंख्यात हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीव संख्यात हैं । यह
प्ररूपणा है । इसी प्रकार आदेश से विचारकर जान लेना चाहिए। जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व और मध्यकी आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके संक्रामक जीव अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभाग के संक्रामक जीव संख्यात हैं तथा जघन्य अनुभागके संक्रामक जीव असंख्यात हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीव असंख्यात हैं तथा जघन्य अनुभाग के संक्रामक जीब अनन्त हैं । चार संचलन और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीव संख्यात हैं तथा अजघन्य अनुभागके संक्रामक जीव अनन्त हैं । यह प्ररूपणा है । इसी प्रकार आदेशसे विचार कर जान लेना चाहिए ।
क्षेत्र दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैऔर आदेश । श्रघसे छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोक के असंख्यात भागप्रमाण है तथा उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र सर्वलोक है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है यह प्ररूपणा है इसी प्रकार विचार कर आदेशसे जान लेना चाहिए। जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्व और आठ कषायों के जन्य और जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अन्य अनुभाग के संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग है । शेष प्रकृतियों के अन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा जघन्य अनुभाग संक्रामक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । यह श्रघप्ररूपणा है । इसी प्रकार विचार कर आदेशसे जान लेना चाहिए ।
स्पर्शन दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका - श्रोध और आदेश । घसे छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीवोंने लोकके
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गा ०५८ ]
उत्तरपयभागसंकमे णाणाजीवेहि कालो
* णाणाजीवेहि कालो ।
९ २२८. सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ?
२२. सुगमं ।
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* जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
§ २३०. तं कथं १ सत्तट्ठ जणा बहुगा वा बद्धकस्सारणुभागा सव्त्रजहणमंतोमुहुत्तमेत्तकालं संक्रामया होतॄण पुणो कंडय घादवसेणाणुकरसभावमुत्रगया, लद्धो सुत्तद्दिजहण्णकालो । * उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
श्रसंख्यातवें भाग, त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्र्सनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीवोंने लोक संख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। यह श्रघप्ररूपणा है । इसी प्रकार विचार कर प्रदेशसे जान लेना चाहिए। जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश ।
संक्रामक जीवोंने संक्रामक जीबने
से मिथ्यात्व और मध्यकी आठ कृपायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्त्र के जवन्य अनुभाग के लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा जघन्य अनुभाग के लोकके असंख्यातर्वे भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा अजघन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। यह प्रकार विचार कर आदेशसे जान लेना चाहिए ।
सब लोक क्षेत्रका
प्ररूपणा है । इसी
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं ।
९ २२८. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्यके उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीवोंका कितना काल है ?
६ २२६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।
६२३० शंका - वह कैसे ?
समाधान - सात आठ या बहुत जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेके बाद सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक उसके संक्रामक हुए। बाद में काण्डकघातवश अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक हो गये । इस प्रकार सूत्रमें निर्दिष्ट जघन्य काल प्राप्त होता है ।
* उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यावें भागप्रमाण है ।
१०
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
§ २३१. तं जहा – एयजीवस्सुकस्सा णुभागसंकमकालमंतोमुहुत्तपमाणं ठविय तप्पा ओग्गपलिदोवमा संखेज्जभागमेत्ततदणुसंधाणवारसलागाहि गुणेयव्यं । तदो पयदुक्कस्स
७४
कालमाणमुपदि ।
* अणुक्कस्साणुभागसंकामया सव्वद्धा ।
$ २३२. कुदो ? सव्नकालम विच्छिण्गपवाह सरूवेणेदेसिम वाणदंसणादो । * एवं सेसाणं कम्माणं ।
९ २३३. जहा मिच्छत्तस्स पयदकालणिदेसो कदो तहा सेसकम्माणं पि कायन्त्रो, विसेसाभावादो | सामण्णणिद्देसेणेदेण सम्मत्त सम्म मिच्छत्ताणं पि पयदकालणिद्देसाइप्पसंगे तत्थ विसेससंभवपदुष्पायणङ्कमिदमाह -
* एवरि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकामया सव्वद्धा । ९ २३४. कुदो ? सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सा णुभागसंकामयवेदगसम्म इट्ठीणमुव्वेल्लमाणमिच्छाकीणं च पवाहयोच्छेदावलंभादो |
* अणुक्कस्साणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ६२३५. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
§ २३१. यथा – एक जीवके उत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामकसम्बन्धी अन्तर्मुहूत कालको स्थापित कर उसे नाना जीवोंसम्बन्धी उत्कृष्ट कालको प्राप्त करनेके लिए पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण शलाकाओं से गुणित करना चाहिए। इस प्रकार करनेसे प्रकृत उत्कृष्ट काल उत्पन्न होता है । * उसके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है ।
९ २३२ क्योंकि सर्वदा अविच्छिन्न प्रवाहरूपसे मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट अनुभाग के संक्रामक जीवोंका अवस्था देखा जाता है ।
* इसी प्रकार शेष कर्मों का काल जानना चाहिए ।
६ २३३. जिस प्रकार मिथ्यात्व के प्रकृत कालका निर्देश किया है उसी प्रकार शेष कर्मोंका भी करना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । यह सामान्य निर्देश है। इससे सम्यक्त्व और सम्यग्मियात्वके प्रकृत कालके निर्देश में अतिप्रसङ्ग प्राप्त होने पर वहाँ कालकी विशेषताका कथन करने के लिए यह सूत्र कहते हैं
इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है।
§ २३४. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रमण करनेवाले बंदकसम्यदृष्टियोंके और उद्धं लना करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके प्रवाहकी व्युच्छित्ति नहीं पाई जाती । * उनके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक जीवोंका कितना काल है ? ९ २३५. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे णाणाजीवेहि कालो
७ ६२३६. दसणमोहक्खवणादो अण्णत्थ तदणुवलंभादो। एवमोघो समत्तो। आदेसेण सम्बत्थ विहतिभंगो।
* एत्तो जहएणकालो। २३७. सुगमं ।
मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहएणाणभागसंकामया केवचिरं कालादो होति?
६२३८. सुगमं । * सव्वडा।
२३६. कुदो ? सुहुमेइदियजीवाणं हदसमुप्पत्तियजहणणसंतकम्मपरिणदाणं तिसु वि कालेसु बोच्छेदाणुवलंभादो।
® सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं जहरणाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ?
६२४०. सुगमं।
ॐ जहणणेणेयसमत्रो। ६ २४१. कुदो १ सम्मत्तस्स समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयम्मि लोम
६ २३६. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके सिवा अन्यत्र यह काल नहीं पाया जाता । इस प्रकार ओघनरूपणा समाप्त हुई । आदेशसे सर्वत्र अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है ।
* अब जघन्य कालको कहते हैं । ६ २३७. यह सूत्र सुगम है।
* मिथ्यात्व और आठ कपायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंका कितना काल है ? . ६ २३८. यह सूत्र सुगम है।
* सब काल है।
६०३६. क्योंकि हतसमुत्पत्तिकरूप जवन्य सत्कर्मसे परिणत हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंका तीनों ही कालोंमें विच्छेद नहीं पाया जाता ।
___ * सम्यक्त्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके संक्रामक जीवोंका कितना काल है ?
६ २४०. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य काल एक समय है।
६२४१. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलि काल रहने पर एक समयके लिए सम्यक्त्वका, सकषाय अवस्थामें एक समय अधिक एक श्रावलिकाल शेष रहने पर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ संजलणस्स समयाहियावलियसकसायम्मि सेसाणं अप्पप्पणो णवकबंधचरिमफालिसंकमणावत्थाए लद्धजहण्णभावाणमेयसमयोवलद्धीए बाहाणुवलंभादो।
उकस्सेण संखेजा समया। ६२४२. कुदो ? संखेजवारमणुसंधाणवसेण तदुवलंभादो ।
सम्मामिच्छत्त-अट्ठणोकसायाणं जहपणाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ?
६२४३. सुगमं एदं।
ॐ जहणणुकस्सेण अंतोमहत्तं ।
६२४४. जहण्णेण ताव तेसिमप्पप्पणो चरिमाणुभागखंडयकालो घेत्तव्यो । उक्कस्सेण सो चेव छायादिद्रुतेण लद्धाणुसंधाणो घेत्तव्यो ।
* अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? ६ २४५. सुगमं । * जहणणेण एयसमश्रो।
हु २४६. कुदो ? विसंजोयणापुत्रसंजोगपढमसमए जहण्णपरिणामेण बद्धजहण्णाणुभागमावलियादीदमेयसमयं संकामिय विदियसमए अजहण्णभावपरिणदणाणाजीघेसु तदुवलंभादो।
एक समयके लिए संज्वलनलोभका तथा अपने-अपने नवकबन्धकी अन्तिम फालिकी संक्रमण अवस्थामें शेष प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागसंक्रम पाया जाता है, इसलिए जघन्य काल एक समय प्राप्त होने में बाधा नहीं आती।
* उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। ६ २४२. क्योंकि संख्यातबार किये गये अनुसन्धानवश उक्त काल प्राप्त हो जाता है ।
* सम्यग्मिथ्यात्व और आठ नोकषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका कितना काल है ?
६२४३. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है ।
६ २४४. जघन्यसे तो उनका अपने अपने अन्तिम अनुभागकाण्डकका काल लेना चाहिए। तथा उत्कृष्टसे वही काल छायाके दृष्टान्त द्वारा अनुसन्धान करते हुए ग्रहण करना चाहिए ।
* अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका कितना काल है ? ६ २४५. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य काल एक समय है।
६२४६. क्योंकि विसंयोजनापूर्वक संयोजना होनेके प्रथम समयमें जघन्य परिणामसे बन्धको प्राप्त हुए जघन्य अनुभागको एक आवलिके बाद एक समय तक संक्रमा कर दूसरे समयमें जो जीव अजघन्य अनुभागके संक्रमरूपसे परिणत हो जाते हैं उनके जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे णाणाजीवेहि कालो
* उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो।
६२४७. कुदो ? आवलि. असंखे०भागमेत्ताणं चेव णिरंतरोक्कमणवाराणमेत्थ संभवदंसणादो।
8 एदेसि कम्माणमजहरणाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? ६२४८. सुगमं।
8 सव्वडा।
६ २४६. एदं पि सुगमं । एवमोघो समतो । आदेसेण सधणेरइय०-सव्यतिरिक्ख मणुसअपज०-देवा जाव णवगेवजा ति हित्तिभंगो । मणुसेसु विहत्तिभंगो । णवरि इत्थि०णवंस० जह० जहण्णु० अंतोमु० । अज० सबद्धा। मणुसपज्ज०-मणुसिणी० मिच्छ०अटुक० जह० जह• एयस०, उक० अंतोमुहुत्तं । अज० सधद्धा । सेसं मणुसभंगो । णपरि मणुसिणी० पुरिस० छण्णोक भंगो । अणुदिसादि सबट्ठा त्ति विहत्तिभंगो । एवं जाव० ।
* उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६२४७. क्योंकि श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण ही निरन्तर उपक्रमणवार यहाँ पर सम्भव देखे जाते हैं।
* इन कर्मो के अजघन्य अनुभागके संक्रामकोंका कितना काल है ? ६ २४८. यह सूत्र सुगम है।
* सर्वदा है।
६ २४६. यह सूत्र भी सुगम है । इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और नौंवेयक तकके देवों में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । मनुष्योंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यात्व और आठ कवायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजवन्य अनुभागके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। शेष भङ्ग मनुष्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषाथे-मनुष्यों में जिसप्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बन जाता है उस प्रकार यह काल यहां नहीं बनता, क्योंकि यहाँ पर अन्तिम अनुभागकाण्डकके पतनका काल विवक्षित है, इसलिए वह जवन्य भी अन्तर्मुहूर्त कहा है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहुर्त कहा है। यहां इतना और विशेष जानना चाहिए कि मनुष्यिनियोंमें नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम नहीं होता, इसलिए 'मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकपायोंके समान है' ऐसा कहते समय पुरुषवेदके साथ नपुंसकवेदका उल्लेख नहीं किया है। शेष कथन सुगम है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * पाणाजीवेहि अंतरं। ६ २५०. सुगममेदमहियारपरामरससुत्तं । * मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालावो होदि ? ६ २५१. पुच्छासुत्तमेदं सुगमं । * जहणणेणेयसमझो।
हु २५२. तं जहा–मिच्छत्तकस्साणुभागसंकामयणाणाजीवाणं पाहविच्छेदबसेणेवसमयमंतरिदाणं विदियसमए पुणरुभवो दिट्ठो, लद्धमंतरं जहण्णेणेयसमयमेत्तं ।
* उक्कस्सेण असंखेना लोगा।
} २५३. कुदो ? उकस्साणुभागबंधेण विणा सजीवाणमेत्तियमेत्तकालमवट्ठाणसंभवादो।
* अणुक्कस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होवि ? ६२५४. सुगमं । * पत्थि अंतरं।
६२५५. कदो ? णाणाजीवविवक्खाए अणुकस्साणुभागसंकमस्स विच्छेदाणुवलद्धीदो।
* एवं सेसाणं कम्माणं । * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका कथन करते हैं। ६ २५०. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६२५१. यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तर एक समय है
६ २५२. यथा -मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामक नाना जीवोंका प्रवाहके विच्छेदवश एक समयके लिए अन्तर हो कर दूसरे समयमें उनकी पुनः उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है।
*उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
६ २५३. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध हुए बिना सब जीवोंका इतने काल तक अवस्थान देखा जाता है
* उसके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६ २५४. यह सूत्र सुगम है।
* अन्तरकाल नहीं है।
६ २५५. क्योंकि नाना जीवोंकी मुख्यतासे अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका कभी भी विच्छेद नहीं उपलब्ध होता।
* इसी प्रकार शेष कर्मों का अन्तरकाल जानना चाहिए ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे णाणाजीवेहि अंतरं
७६ ( २५६. सुगममेदमप्पणासुत्तं । संपहि एत्थतणविसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं ।।
ॐ वरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
६२५७. सुगमं । * पत्थि अंतरं।
२५८. एदं पि सुगमं । * अणुक्कस्साणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६२५६. सुगमं । * जहणणेण एयसमओ । ६२६०. दसणमोहक्खायाणं जहण्णंतरस्स तप्पमाणत्तोवलंभादो । * उक्कस्सेण छम्मासा।
६ २६१. तदुक्कस्सविरहकालस्स णाणाजीवविसयस्स तप्पमाणत्तादो। एवमोधो .. समत्तो।
६ २६२. आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो । * एत्तो जहएणयंतरें।
६२५६. यह अर्पणासूत्र सुगम है। अब यहाँ सम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ?
६ २५७. यह सूत्र सुगम है। . * अन्तरकाल नहीं है। ६ २५८. यह सूत्र भी सुगम है। * अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६ २५६. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६ २६०. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकोंका जघन्य अन्तर तत्प्रमाण उपलब्ध होता है। * उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
8 २६१. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका नाना जीवविषयक. उत्कृष्ट विरहकाल तत्प्रमाण है। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई।
६ २६२.अादेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। * आगे जघन्य अन्तरका कथन करते हैं।
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८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६२६३. सुगमं।
मिच्छत्तस्स अट्ठकसायस्स जहणाणुभागसंकामयाणं केवचिरं अंतरं ?
६२६४. सुगमं।
* त्यि अंतरं।
६२६५. कुदो ? पयदजहण्गाणुभागसंकामयाणं सुहुमाणं णिरंतरसरूवेण सबकालमवहिदत्तादो।
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-चदुसंजलण-णवणोकसायाणं जहण्णाणु. भागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
६२६६. सुगमं।
ॐ जहरणेणेयसमप्रो। * उक्कस्सेण छम्मासा।
६ २६७. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । संपहि एत्थतणविसेसपदुप्पायणदुमुत्तरसुत्तमाह
* णवरि तिषिणसंजलण-पुरिसवेदाणमुक्कस्सेण वासं सादिरेयं । ६ २६८. तं जहा–कोहसंजलणस्स उक्कस्संतरे विवक्खिए सोदएणादि कादूण ६ २६३. यह सूत्र सुगम है।
* मिथ्यात्व और आठ कपायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ?
६ २६४. यह सूत्र सुगम है।
* अन्तरकाल नहीं है।
६२६५. क्योंकि प्रकृत जघन्य अनुभागके संक्रामक सूक्ष्म जीव अन्तरके बिना सदा काल अवस्थित रहते हैं।
* सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ?
६२६६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
६ २६७. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। अब यहां सम्बन्धी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं.....
* इतनी विशेषता है कि तीन संज्जलन और पुरुषवेदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है।
६२६८. यथा-क्रोधसंजलनका उत्कृष्ट अन्तर विवक्षित होने पर स्वोदयसे अन्तरका प्रारम्भ
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिश्रणुभागसंकमे गाण जीवेहिं अंतर
छम्मासमंतराविय पुणो माण - माया - लोभोदएहिं चढाविय पच्छा सोदयपडिलं मेण सादिरेयवासमेतमंतरमुप्पाएयव्त्रं । एवं माण- मायासंजलणाणं पि पयदुक्कस्संतरं वत्तं । णारि माणसंजणस्स माया -लोभोद एहि मायासंजलणस्स च लोभोदरंग चढाविय अंतरावेयवं । कोहसंजणस्स संपुण्णदोवासमेत्तमंतरं किण्ण जायदे १ ण, सव्वत्थ छम्मासाणं पडिवुष्णासंधाणसरूवेणासंभवादो । एवं चैत्र पुरिसवेदस्स वि सोदएणादि काढूण परोदणंतरिदस्स सादिरेयवासमेत्तुकस्संतरसंभवो ददुव्वो ।
८९
* एवंसयवेदस्स जहण्णाणुभागसंकामयंतरमुकस्सेण संखेज्जाणि वासाणि ।
९ २६६. जंबुसयवेदोदऍणादि काढूण अणप्पिदवेदोदएण वासपुधत्तमेत्तमंतरिदस्स तदुर्लभादो ।
* अताणुबंधी जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६२७०. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमओ ।
६ २७१. पयदजहण्गाणुभागसंकामयाणमेय समयमंत रिदाणं पुणो वि तदनंतरसमए पादुब्भावविरोहाभावादो |
* उक्कस्सेण असंसेज्जा लोगा ।
करके तथा छह माहका अन्तर करा कर पुनः मान, माया और लोभके उदयसे चढ़ा कर पश्चात् स्वोदयका श्राश्रय करनेसे साधिक एक वर्षप्रमाण अन्तर उत्पन्न करना चाहिए। इसी प्रकार मान और मायासंज्वलनोंका भी प्रकृत उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि माननका माया और लोभके उदयसे तथा मायासंज्वलनका लोभके उदयसे चढ़ा कर अन्तर ले आना चाहिए ।
शंका - क्रोधसंज्वलनका पूरा दो वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान — नहीं क्योंकि सर्वत्र अनुसन्धानरूपसे पूरे छह माह असम्भव हैं। इसी प्रकार स्वोदयसे अन्तरका प्रारम्भ करके परोदय से अन्तरको प्राप्त हुए पुरुषवेदका मी साधिक एक वर्षप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर सम्भव जानना चाहिए ।
* नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्षप्रमाण है । § २६६. क्योंकि नपुंसकवेदके उदयसे अन्तरका प्रारम्भ करके अविवक्षित वेद के उदयसे बर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तरको प्राप्त हुए उसका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर उपलब्ध होता है ।
* अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६२७०. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
६ २७१. एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त हुए प्रकृत जघन्य अनुभाग के संक्रामकका फिर भी उसके अनन्तर समयमें प्रादुर्भाव होनेमें कोई विरोध नहीं आता ।
* उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है ।
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जयधवलासद्दिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६ २७२. जहण्णपरिणामेणादिं काद्णासंखेजलोगमेत्तेहिं अजहण्णपाओग्गपरिणामेहिं चैव संजोजयंताणं णाणाजीवाणमेदमुकस्संतरं लब्भदि ति वृत्तं होइ । संपहि सव्वेसि - मजहण्णाणुभागसंकामयाणमंतरविहाणमुत्तरमुत्तारंभो
८२
* एदेसिं सव्वेसिमजहरणाणुभागस्स केवचिरमंतरं ? ९ २७३. सुगमं ।
* णत्थि अंतरं ।
९ २७४. सव्वेसिमजहण्णाणुभागसंकामयाणमंतरेण विणा सव्त्रद्धमवद्वाणदंसणादो । raमोघ समत्तो ।
$ २७५. आदेसेण सव्वणेरइय- सव्यतिरिक्ख- मणुस अपज ० - सव्वदेवा त्ति विहत्तिभंगो । मसतिए ओघं । वरि मिच्छ० अट्ठक० जह० जह० एयसमओ, उक्क० असंखेजा लोगा । मसिणी खगपयडीणं वासपुधत्तं । एवं जाव० ।
९ २७२. जघन्य परिणाम से प्रारम्भ करके असंख्यात लोकमात्र अजघन्य अनुभागसंक्रमके योग्य परिणामोंसे ही संयोजना करनेवाले नाना जीवोंके यह उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब उक्त सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभाग के संक्रामकोंके अन्तरका विधान करनेके लिए आगे के सूत्रका आरम्भ करते हैं
1
* इन सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६ २७३. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तरकाल नहीं है ।
९ २७४. क्योंकि उक्त सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके संक्रामकका अन्तर कालके बिना सदाकाल अवस्थान देखा जाता है ।
इस प्रकार श्रघप्ररूपणा समाप्त हुई
§ २७५. आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । मनुष्यत्रिक में प्रोघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । मनुष्यिनियोंमें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ – मनुष्यत्रिमें अन्य सब अन्तरकाल श्रोघ के समान बन जाता है । मात्र मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकों के अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि से इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभाग के संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियों में इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागसंक्रम करनेवाले जीव सर्वदा बने रहते हैं । परन्तु मनुष्यत्रिककी स्थिति नारकी श्रादिके समान है, इसलिए इस विशेषताका निर्देश करने के लिए यहाँ पर उसका अलगसे उल्लेख किया है । तथा मनुष्यिती अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व प्रमाण काल तक क्षपक णि पर आरोहण न करें यह सम्भव है, इसलिए इममें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे अप्पा बहु
§ २७६. भावो सव्त्रत्थ ओदइओ भावो ।
* अप्पाबहुअं ।
§ २७७. सुगममेदमहियारसंभालणसुतं । तं च दुविहमप्पाबहुअं जहण्णुकस्साणुभागसंकमविसयभेदेण । तत्थुक्कस्सारणुभागसंकमप्पाबहुअमुकस्सा णुभागविहत्तिभंगादो ण जिदि ति तेण तदप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
८३
* जहा उकस्साणुभागविहन्ती तहा उकस्साणुभागसंकमो ।
६ २७८. जहा उकस्साणुभागविहत्ती अप्पाबहुअविसिट्ठा परूविदा तहा उकस्साणुभागसंकमो वि परूवेयत्रो, विसेसाभावादो त्ति भणिदं होदि ।
* एतो जहण्णयं ।
९ २७६. एत्तो उकस्साणुभागसंकम प्याबहुअविहासणादो उवरि जहण्णयमप्पा बहुअं सामो ति पावकमेदं । तस्स दुविहो णिद्देसो ओघादेस मेएण । तत्थोघणिसो ताब कीरदे । तं जहा
* सव्वत्थोवो लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो ।
६ २८०. कुदो १ हुमकिट्टिसरूवत्तादो ।
* मायासंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अांतगुणो ।
९ २७६. भाव सर्वत्र औदायिक भाव है।
* अब अल्पबहुत्वको कहते हैं ।
§ २७७. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमरूप विषयके भेदसे वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। उसमें उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमविषयक अल्पबहुत्व उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिविषयक अल्पबहुत्वसे भिन्न प्रकारका नहीं है, इसलिए उसके साथ इसकी मुख्यता करते हुए श्रागेका सूत्र कहते हैं—
* जिस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिविषयक अल्पबहुत्व है उसी प्रकार उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमविषयक अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
§ २७८. जिस प्रकार अल्पबहुत्वविशिष्ट उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका कथन किया है उसी प्रकार उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम अल्पबहुत्वका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें कोई अलग अलग विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* आगे जघन्य अल्पबहुत्वको कहते हैं ।
$ २७९. 'एतो' अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमविषयक अल्पबहुत्वका व्याख्यान करनेके बाद जघन्य अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है । उसका निर्देश दो प्रकारका है - भोष और आदेश । उनमेंसे सर्वप्रथम श्रोघका निर्देश करते हैं
* लोभसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम सबसे स्तोक है । 8 २८०. क्योंकि वह सूक्ष्म कृष्टिरूप है ।
* उससे मायासंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६ २८१. कुदो ? बादरकिट्टिसरूवेण पुयमेवाणियट्टिपरिणाभेहि लद्धजहण्णभावत्तादो।
माणसंजलणस्स जहणणाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
२८२. कुदो ? जहण्गसामित्तविसयीकयमायासंजलणचरिमणवकबंधादो जहाकममणंतगुणसरूवेणावट्ठिदमायातदिय-विदिय-पढमसंगहकिट्टीहितो वि माणसंजलणणवक्रबंधसरूवस्सेदस्साणंतगुणत्तदंसणादो।
* कोहसंजलणस्स जहएणाणुभागसंकमो अणंतगुणो।।
हु २८३. कुदो ? पुचिल्लसामित्तविसयादो हेट्ठा अंतोमुहत्तमोयरिय कोहवेदयचरिमसमयणकवंधचरिमसमयसंकामयम्मि जहण्णभावमुवगयत्तादो।
* सम्मत्तस्स जहएणाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
२८४. कुदो ? किट्टिसरूवकोहसंजलणजहण्णाणुभागसंकमादो फद्दयगयसम्मत्तजहण्णाणुभागसंकमस्साणतगुणब्भहियत्ते विसंवादाणुवलभादो।।
पुरिसवेदस्स जहणणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६ २८५. किं कारणं ? सम्मत्तस्स अणुसमयोवट्टणकालादो पुरिसवेदणवकबंधाणुसमयोवट्टणाकालस्स थोवत्तदंसणादो।
* सम्मामिच्छत्तस्स जहएणाणुभागसंकमो अणंतगुणो ।
६२८१. क्योंकि बादर कृष्टिरूप होनेसे इसने पहले ही अनिवृत्तिरूप परिणामोंके द्वारा जघन्यपना प्राप्त कर लिया है।
* उससे मानसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
६२८२. क्योंकि जघन्य स्वामित्वको विषय करनेवाले मायासंज्वलन सम्बन्धी अन्तिम नवकबन्धसे तथा यथाक्रम अनन्तगुणरूपसे स्थित हुई मायाकी तीसरी, दूसरी और पहिली संग्रह कृष्टियोंसे भी मानसंज्वलनके नवकबन्धरूप यह जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा देखा जाता है।
* उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६२८३. क्योंकि मानसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम जहाँ प्राप्त होता है उस स्थानसे पीछे अन्तर्मुहूर्त जा कर क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें हुए नवकबन्धका अन्तिम समयमें संक्रमण करनेवाले जीवके क्रोधसंज्वलनके अनुभागसंक्रमका जघन्यपना प्राप्त होता है।
* उससे सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६२८. क्योंकि कृष्टिरूप क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागसंक्रमसे स्पर्धकरूप सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा अधिक होता है इसमें कोई विसंवाद नहीं उपलब्ध होता।
* उससे पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
६ २८५. क्योंकि सम्यक्त्वके प्रतिसमय होनेवाले अपवर्तनासम्बन्धी कालसे पुरुषवेदके नवकबन्धका प्रतिसमय होनेवाला अपवर्तनासम्बन्धी काल स्तोक देखा जाता है।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे अप्पाबहुअं
८५ ___६२८६. कुदो ? देसघादिएयट्ठाणियसरूवादो पुजिल्लादो सबघादिविट्ठाणियसरूबस्सेदस्स तहाभावसिद्धीए णाइयत्तादो।
* अणंताणुबंधिमाणस्स जहणणाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
६२८७. किं कारणं ? सम्मामिच्छत्ताणुभागविण्णासो मिच्छत्तजहण्णफद्दयादो अणंतगुणहीणो होऊग लद्धावट्ठाणो पुणो दंसणमोहक्खवणाए संखेजसहस्समेत्ताणुभागखंडयघादसमुवलद्धजहण्णभावो एसो वुण णकधसरूवो वि सम्मामिच्छत्तेण समाणपारंभो होदण पुणो मिच्छत्तजहणगफद्दयप्पहुडि उबरि वि अणंतफद्द एसु लद्धविण्णासो अपत्तघादो च तदो अणंतगुणत्तमेदस्स सिद्धं ।
कोधस्स जहपणाणुभागसंकमो विसेसाहित्रो । ६२८८. कुदो ? पयडिविसे दो । केत्तियमेत्तेण १ तप्पाओग्गाणंतफद्दयमेत्तेण ।
ॐ मायाए जहपणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। ६ २८६. केत्तियमेत्तेण ? अणतफद्दयमेचेण । कुदो ? साभावियादो।
लोभस्स जहपणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। ६ २६०. एस्थ विसेसपमाणमणंतरणिद्दि हमेव । * हस्सस्स जहपणाणुभागसंकमो अणंतगुणो ।
६ २८६. क्योंकि देशघाति एक स्थानिकरूप पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमसे सर्वघाति द्विस्थानिकरूप इसका अनन्तगुणत्व न्यायप्राप्त है।
* उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६२८७. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागविन्यास मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे अनन्तगुणा हीन होकर अवस्थित है तथा दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें संख्यात हजारप्रमाण अनुभ काण्डकोंके घातसे जघन्यपनेको प्राप्त हुआ है। परन्तु अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभागविन्यास यद्यपि नवकवन्धरूप है और जहाँसे सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका प्रारम्भ होता है वहींसे इसका प्रारम्भ हुआ है तो भी मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे लेकर उसके ऊपर भी अनन्त स्पर्धकों तक यह पाया जाता है तथा इसका घात भी नहीं हुआ है, इसलिए यह अनन्तगुणा है यह सिद्ध होता है।
* उससे अनन्तानबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है।
२८८. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। कितना अधिक है ? तत्प्रायोग्य अनन्त स्पर्धकप्रमाण अधिक है।
* उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। ६२८६. कितना अधिक है ? अनन्त स्पर्धकमात्र अधिक है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है । ६ २६०. यहाँ पर भी जो विशेषका प्रमाण है उसका निर्देश अनन्तर पूर्व किया ही है । * उससे हास्यका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
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८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ गोध ६२६१. कुदो ? णकबंधसरूवादो पुबिल्लादो चिराणसंतसरुवस्सेदस्स तहामावसिद्धीए विरोहाभ वादो।
8 रदोए जहपणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६ २६२. कुदो ? सबथ रदिपुरस्सरत्तेणेव हस्सपवुत्तीए दंसणादो । * दुगुंछाए जहपणाणुभागसंकमो अपंतगुणो । ६ २६३. अप्पसत्थयरत्तादो। * भयस्स जहपणाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
६ २६४. दुगुछिदो देसच्चागमेत्तं कुणदि । भयोदएण पुण पाणचागमवि कुणदि ति तिवाणुभागतमेदस्स दट्टब्बं ।
सोगस्स जहणाणुभागसंकमो अर्थतगुणो। ६ २६५. कुदो १ छम्मासपजंततिबदुक्खकारणत्तादो।
* अरवीए जहएणाणुभागसंकमो अर्णतगुणो । ६२६६. कुदो ? पुरंगमकारणत्तादो।
* इत्थिवेदस्स जहपणाणुभागसंकमो अणतगुणो। ६ २६७. कुदो ? अंतोमुहुत्तं हेट्ठा ओयरिदूण पुवमेव खविदत्तादो। * पqसयवेदस्स जहषणाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
६ २६१. क्योंकि अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम नवकबन्धरूप है और इसका प्राचीन सत्तारूप है, इसलिए इसके अनन्तगुणे सिद्ध होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
* उससे रतिका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६ २६२. क्योंकि सर्वत्र रतिपूर्वक ही हास्यकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
* उससे जुगुप्साका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६२६३. क्योंकि यह अत्यन्त अप्रशस्त है।
* उससे भयका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६ २६४. क्योंकि जिसे जुगुप्सा हुई है वह मात्र जुगुप्साके स्थानका त्याग करता है। किन्तु भयवश यह प्राणी प्राणोंतकका त्याग कर देता है, अतएव जुगुप्सासे इसका तीव्र अनुभाग जानना चाहिए।
* उससे शोकका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६ २६५. क्योंकि यह छह माह तक तीब्र दुःखका कारण है। * उससे अरतिका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६२६६. क्योंकि यह शोकसे भी आगेका कारण है। * उससे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६ २६७. क्योंकि अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही इसका क्षय हो जाता है। * उससे नपुंसकवेदका अन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयढिअणुभागसंकमे अप्पा बहु
६ २६८. किं कारणं १ कारिसग्गिसमाणो इत्थिवेदाणुभागो | णवुंसयवेदा णुभागो पुट्ठावागग्गिसमाणो णाणंतगुणो जादो ।
८७
* अपच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अतगुणो ।
$ २६६. कुदो ! सुहुमेइ दियहदसमुप्पत्तियकम्मेण लद्धजहण्णाणुभागस्सेदस्स अंतरकरणे कदे खवगपरिणामेहि घादिदावसेसणवंसयवेदजहण्णा रणुभागसंकमादो अनंतगुणत्तसिद्धी
इयत्तादो |
* कोहस्स जहणणाणुभागसंकमो विसेसाहियो ।
* मायाएं जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ ।
* लोभस्स जहएणाणुभागसंकमो विसेसाहियो ।
९ ३००. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि ।
* पच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अंतगुणो । ९३०१. कुदो १ सयलसंजम घादित्तण्णहाणुववत्तीदो । देससंजमघादि अपच्चक्त्राणलोभ भागादो अनंतगुणत्ताभावे तत्तो अनंतगुणसयलसंजम घादित्तमेदस्स जुजदे, विप्पडिसेहादो |
* कोहस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहि ।
९ २६८. क्योंकि स्त्रीवेदका अनुभाग कारीषकी अग्निके समान है । परन्तु नपुंसकवेदका अनुभाग वाकी अग्नि के समान है, इसलिए यह अनन्तगुणा है ।
* उससे अप्रत्याख्यान मानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
९ २६६. क्योंकि इसका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्मरूपसे प्राप्त होता है और नपुंसक वेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अन्तरकरण करनेके बाद घात करनेसे जो शेष बचता है तत्प्रमाण होता है, इसलिए नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमसे अप्रत्याख्यानमानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा सिद्ध होता है यह न्याय प्त है ।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अप्रत्याख्यान मायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अप्रत्याख्यान लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम बिशेष अधिक है । ९३००. ये तीनों सूत्र सुगम हैं ।
* उससे प्रत्याख्यानमानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
३०१. क्योंकि अन्यथा यह सकलसंयमका घातक नहीं हो सकता । और देशसंयम का घात करनेवाले अप्रत्याख्यान लोभके जघन्य अनुभाग से इसे अनन्तगुणा नहीं माना जाता है तो देश संयमसे अनन्तगुणे सकलसंयमका घात इसके द्वारा नहीं बन सकता, क्योंकि ऐसा मानना निषिद्ध है।
* उससे प्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है ।
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जयधवला सहिदे कसा पाहुडे
* मायाए जहणाणभागसंकमो विसेसाहिओ । * लोभस्स जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ । ३०२. प्राणिति वित्ताणि सुगमाणि ।
* मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अंतगुणो । ६३०३. सयल पदत्यविसय सहहण परिणामपडिबंधित्तेण लद्धमाहप्पस्सेदस्स तहाभावविरोहाभावादो ।
$ ३०४. एवमोघेण जहण्णप्पा बहुअं परूविय एत्तो आदेसपरूवणमुत्तरं सुत्तपबंधमाह - * रियगईए सव्वत्थोवो सम्मत्तस्स जहणाणुभाग संकमो । ६ ३०५. कुदो देसघादिएयट्ठाणियसरूवत्तादो |
८५
[ बंधगो ६
* सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाण भागसंकमो अतगुणो । ९ ३०६. कुदो ? सव्त्रघादिविदु। णियसरूवत्तादो ।
*
ताण बंधिमाणस्स जहणणाणु भागसंकमो अतगुणो । ६ ३०७. कुदो ? सम्मामिच्छत्तुकस्सारणुभागादो अर्णतगुणभावेणावडिदमिच्छतजहण्णफद्दय पहुड उवरि वि लगाणुभागविण्णास स्सेदस्स तत्तो अनंतगुणत्तसिद्धीए पधाभावादो ।
* कोहस्स जहणाणु भागसंकमो विसेसाहिओ ।
* उससे प्रत्याख्यान मायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है
* उससे प्रत्याख्यान लोभका जधन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है । ६ ३०२ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं ।
* उससे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
६ ३०३. क्योंकि सकल पदार्थविषयक श्रद्धानरूप परिणामोंका रोकनेवाला होनेसे महत्त्वको प्राप्त हुए इसके अनन्तगुणे होने में कोई विरोध नहीं आता ।
३०४. इस प्रकार से जवन्य अल्पबहुत्वका कथन करके आगे श्रदेशका कथन करने के लिए आगेकी सूत्रपरिपाटीका कथन करते हैं
* नरकगतिमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम सबसे स्तोक है ।
९ ३०५. क्योंकि यह देशघाति एक स्थानिकस्वरूप है ।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
९ ३०६. क्योंकि यह सर्वघाति द्विस्थानिकस्वरूप है ।
* उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
९ ३०७. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसे अनन्तगुणरूपसे अवस्थित मिध्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे लेकर उससे भी ऊपर अवस्थित हुए इस अनुमागके सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभाग संक्रमसे अनन्तगुणे सिद्ध होने में कोई रुकावट नहीं है ।
* उससे अनन्तानुबन्धीको का जधन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है ।
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गा० ५८]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे अप्पाबहुअं ॐ मायाए जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ।
लोभस्स जहणाण भागसंकमो विसेसाहित्रो। ३०८. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि। * हस्सस्स जहएणाणु भागसंकमो अपंतगुणो।
६३०६. सुहुमे दियहदसमुप्पत्तियकम्मादो अणंतगुणहीणो पुविल्लो णवकबंधाणुभागसंकमो । एसो वुण सुहुमाणुभागादो अणंतगुणो, असण्णिपंचिंदियहदसमुप्पत्तियकम्मेण णेरइएसु लद्धजहण्णभावत्तादो । तदो सिद्धमेदस्स तत्तो अणंतगुणत्तं ।
* रदीए जहणणाणु भागसंकमो अणंतगुणो। ६ ३१०. एत्थ सामित्तभेदाभावे वि पुरंगमकारणत्तेणाणतगुणत्तमविरुद्धं ।
® पुरिसवेदस्स जहएणाणु भागसंकमो अणतगुणो ।
६३११. एत्थ कारणं रदी रमणमेत्तुप्पाइया पलालग्गिसण्णिहसतिविसेसो पुण पुवेदो तदो सामित्तविसयभेदाभावे वि सिद्धमेदस्सागतगुणब्भहियत्तं ।
* इत्थिवेदस्स जहरणाणु भागसंकमो अणतगुणो । ६३१२. किं कारणं ? कारिसग्गिसरिसतिब्वपरिणामणिबंधणत्तादो।
* उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। ६३०८. ये सूत्र सुगम हैं।
* उससे हास्यका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६३०६. अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिककर्मसे अनन्तगुणे हीन नवकबन्ध अनुभागसंक्रमरूप है और यह सूक्षम एकेन्द्रियसम्बन्धी अनुभागसे अनन्तगुणा है, क्योंकि यह असंज्ञी पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिकर्मके साथ नारकियोंमें जघन्यपनेको प्राप्त हुआ है, इसलिए यह अनन्तानुबन्धी लोभके जघन्य अनुभागसंक्रमसे अनन्तगुणा है यह सिद्ध होता है।
* उससे रतिका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
६३१०. यद्यपि हास्यके जघन्य अनुभागसंक्रम और रतिके जघन्य अनुभागसंक्रमके स्वामीमें भेद है फिर भी उससे आगेका कारण होनेसे इसके अनन्तगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
* उससे पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६३११. यहाँ पर कारण यह है कि रति रमणमात्रको उत्पन्न करनेवाली है। परन्तु पुरुषबेद पलालकी अग्निके समान शक्ति विशेषरूप है, इसलिए इनके स्वामीमें भेद न होने पर भी उससे इसका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है यह सिद्ध होता है।
* उससे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६३१२. क्योंकि यह कारीषकी अग्निके समान तीव्र परिणामोंसे उत्पन्न होता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ * दुगंछाए जहएणाण भागसंकमो अणंतगणो । ६३१३. कुदो ? पयडिविसेसेणेव तस्स तहाभावेणावट्ठाणादो।
भयस्स जहएणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६ ३१४. सुगममेदं, ओघादो अविसिट्ठकारणत्तादो। ॐ सोगस्स जहणणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६३१५. एदं पि सुगमं ओघसिद्धकारणतादो।
* अरदीए जहणणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६३१६. एदं च सुबोहं, ओघम्मि परूविदकारणत्तादो।
ॐ णवंसयवेदस्स जहपणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६३१७. किं कारणं १ इट्टगावागग्गिसरिसपरिणामकारणत्तादो। * अपञ्चक्खाणमाणस्स जहपणाणुभागसंकमो अणंतगुणो । ६३१८. कुदो! णोकसायाणुभागादो कसायाणुभागस्स महल्लत्तसिद्धीए णाइयत्तादो। * कोधस्स जहणणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ।
मायाए जहपणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। * लोमस्स जहणणाणुभागसंकमो विसेसाहित्रो।
* उससे जुगुप्साका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है । ६३१३. क्योंकि प्रकृतिविशेष होनेसे ही वह इस प्रकारसे अवस्थित है। * उससे भयका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
३१४. यह सुगम है, क्योंकि ओघप्ररूपणामें जो इसका कारण बतलाया है उसी प्रकारका कारण यहाँ भी प्राप्त होता है।
* उससे शोकका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है । ६३१५. यह भी सुगम है, क्योंकि ओघप्ररूपणामें इसके कारणकी सिद्धि कर आये हैं।
* उससे अरतिका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है । ६३१६. यह भी सुबोध है, क्योंकि ओघप्ररूपणामें इसका कारण कह आये हैं। * उससे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है । ६.३१७. क्योंकि अवाकी अग्निके समान परिणाम इसका कारण है। * उससे अप्रत्याख्यानमानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
६३१८. क्योंकि नोकषायोंके अनुभागसे कषायोंका अनुभाग अधिक है यह न्यायसिद्ध बात है।
* उससे अप्रत्याख्यानक्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान मायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानलोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है।
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६१
गा०५८
उत्तरपयडिअ णुभागसंकमे अप्पाबहुअं 5 ३१६. एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । ॐ पचखाणमाणस्स जहएणाणुभागसंकमो अणंतगुणो। ६ ३२०. कुदो १ सयलसंजमघादित्तण्णहाणुववत्तीए तस्स सब्भावसिद्धीदो । * कोहस्स जहएणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। * मायाए जहणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ।
ॐ लोभस्स जहणणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। ६३२१. एदाणि तिण्णि वि सुताणि पयडिविसेसमेत्तकारणावेक्खाणि सुगमाणि । ® माणसंजलणस्स जहणणाणभागसंकमो अणंतगुणो। ६ ३२२. कुदो ? जहाक्खादसंजमघादणसत्तिसमण्णिदत्तादो। * कोहसंजलणस्स जहणणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ। * मायासंजलपस्स जहषपाणुभागसंकमो विसेसाहियो । * लोभसंजलपस्स जहरणाणुभागसंकमो विसेसाहिओ।
१३२३. एत्थ सव्वत्थ पयडिविसेसो चेय विसेसाहित्तस्स कारणं ददुव्वं । विसेसपमाणं च अर्णताणि फद्दयाणि ति घेत्तव्वं ।
मिच्छत्तस्स जहरणाणुभागसंकमो अपंतगुणो।
६३१६. ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। * उससे प्रत्याख्यानमानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
६३२०. क्योंकि अन्यथा यह मान सकलसंयमका घाती नहीं हो सकता, इसलिए वह पूर्वोक्तसे अनन्तगुणा सिद्ध होता है।
* उससे प्रत्याख्यानक्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानमायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। ६३२१. प्रकृति विशेषमात्र कारणोंकी अपेक्षा रखनेवाले ये तीनो ही सूत्र सुगम हैं। * उससे मानसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। ६३२२. क्योंकि यह यथाख्यातसंयमका घात करनेवाली शक्तिसे युक्त है। * उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे मायासंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे लोमसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रस विशेष अधिक है।
६३२३. यहाँ पर सर्वत्र प्रकृतिविशेष ही विशेष अधिक होनेका कारण जानना चाहिए । और विशेषका प्रमाण अनन्त स्पर्धक हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
* उससे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ३२४. कुदो १ सयलपदत्थविसयसद्दहणलक्खणसम्मत्तसण्णिदजीवगुणघादणण्णहाणुववत्तीदो । एवं णिरयोघो सुत्तयारेण परूविदो। एसो चेव पढमषुढवीए वि कायव्यो, विसेसाभावादो । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव वत्तव्वं । सेसगईसु विणिरयोघालावो चेव किं चि विसेसोणुविद्धो काययो त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरमाह
* जहा णिरयगईए तहा सेसासु गदीसु।
६३२५. अप्पाबहुअं णेदवमिदि वकज्झाहारमेत्थ कादूण सुत्तत्थस्स समप्पणा कायव्वा । तदो एदम्मि देसामासियसुत्ते णिलीणत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा—मणुसतिए ओघभंगो । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेदजहण्णाणुभागसंकमो रदीए उवरि अणंतगणो काययो, छण्णोकसाएहि सह चिराणसंतसरूबण तत्थ जहण्णभावोवलंभादो। तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव सबट्ठा त्ति गिरयोघभंगो। पंचिं०तिरि०अपज्ज-मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। संपहि सेसमग्गणाणं देसामासयभावेण एइदिएसु थोवबहुत्तपदुप्पायणमुत्तरसुत्तमाह
9 एईदिएसु सव्वत्थोवो सम्मत्सस्स जहरणाणुभागसंकमो । (३२६. सुगमं । * सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणंतगुणो।
६३२४. क्योंकि सकल पदार्थविषयक श्रद्धानलक्षण सम्यक्त्व संज्ञावाले जीवगणका घात अन्यथा वन नहीं सकता । इस प्रलार सूत्रकारने सामान्यसे नारकियोंमें अल्पबहुत्वका कथन किया । इसे ही पहली प्रथिवीमें करना चाहिए, क्योंकि अोधप्ररूपणासे इसमें कोई विशेषता नहीं है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अब शेष गतियोंमें भी कुछ विशेषताको लिए हुए सामान्य नाकियाक समान आलाप करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* जिस प्रकार नरकगतिमें अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार शेष गतियोंमें उसका कथन करना चाहिए।
६३२५. 'अल्पबहुत्व ले जाना चाहिए' इस वाक्यका अध्याहार यहाँ पर करके सूत्रके अर्थकी समाप्ति करनी चाहिए । इसलिए इस देशामर्षक सूत्रमें गर्भित हुए अर्थका विवरण करते हैं। यथामनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसंक्रमको रतिके ऊपर अनन्तगुणा करना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर उसका छह नोकषायोंके साथ प्राचीन सत्कर्मरूपसे जघन्यपना पाया जाता है। सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है । अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षक रूपसे एकेन्द्रियों में अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसंक्रम सबसे स्तोक है। ६३२६. यह सूत्र सुगम है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसंक अप्पा बहु
९३
६ ३२७. सुगमं ।
* हस्सस्स जहण्णाणुभागसंकमो अतगुणो ।
९ ३२८. कुदो १ सव्त्रघादिविट्ठाणियत्ते समाणे वि संते सम्मामिच्छत्तस्स विसयीकय
दारुअसमाणातिमभागमुल्लंघिय परदो एदस्सावट्ठाणदंसणादो ।
* सेसाणं जहा सम्माइट्टिबंधे तहा कायव्वो ।
§ ३२६. एत्थ सम्माइट्टिबंधे ति णिद्देसेण सम्मत्ता हिमुहसव्वविसुद्धमिच्छा इडिजहण्णबंधस्स गहणं कायव्त्रं, अण्णहा अणंतारणुबंधियादीणं सम्माइट्टिबंधबहिन्भूदाणमप्पात्रहुअविहाणावत्तदो । विसोहिपरिणामोवलक्खणमेत्तं चेदं तेण विमुद्धमिच्छाइट्टिबंधे जारिसमप्पा बहुअं परूविदं तारिसमेवेत्थ सेसपयडीणं कायव्वं, विसोहिणिबंथणसुहुमेह दियहदसमुप्पत्तियकम्मेण लद्धजहण्णभावाणं तब्भावविरोहाभाबादो ति एसो सुत्तन्यसन्भावो ।
९ ३३० संपहि तदुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा — हस्सजहण्णाणुभागसंकमा दो उवरि रदीए जहणाणुभागसंकमो अनंतगुणो । पुरिसवेदस्स जहण्णा पु० अनंतगुणो । इत्थवेद ० जहण्णाणु० अनंतगुणो । दुगु छा० जहण्णा • अनंतगुणो । भय० जहण्णाणु० अनंतगुणो । सोग० जह० अनंतगुणो । अरदीए जह० अनंतगुणो । णव स० जह० अनंतगुणो ।
९३२७. यह सूत्र सुगम है ।
* उससे हास्यका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है ।
९३२८. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व और हास्य इन दोनोंका जघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति द्विस्थानिक रूप से समान है तो भी सम्यग्मिथ्यात्व के विषयरूप दारुसमान अनन्तवें भागको उल्लंघन कर आगे इसका अवस्थान देखा जाता है ।
* शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभाग संक्रमका अल्पबहुत्व जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि किया है उस प्रकार करना चाहिए ।
§ ३२९. यहाँ पर सूत्रमें 'सम्माइटिबंधे' ऐसा निर्देश करनेसे सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्धमिध्यादृष्टि जघन्य बन्धका ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा सम्यग्दृष्टिके बन्धसे बाहर हुए अनन्तानुवन्धी आदिके अल्पबहुत्वका विधान नहीं बन सकता है । यह कथन मात्र विशुद्ध परिणामोंका उपलक्षणरूप है । इसलिए विशुद्ध मिथ्यादृष्टिके बन्धमें जिस प्रकारका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकारका ही यहाँ पर शेष प्रकृतियोंका करना चाहिए, क्योंकि विशुद्धिनिमित्तक सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्मरूपसे जघन्यपनेको प्राप्त हुए उक्त प्रकृतियोंके अनुभागोंका विशुद्ध मिथ्यादृष्टिके बन्धके समान होनेमें कोई विरोध नहीं आता इस प्रकार यह इस सूत्र का अर्थ है ।
६ ३३०. अब उसकी उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा - हास्य के जघन्य अनुभाग संक्रमसे रतिका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। उससे पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुण है। उससे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग संक्रम अनन्तगुणा है। उससे जुगुप्साका जघन्य अनुभाग संक्रम अनन्तगुणा है। उससे भयका जघन्य अनुभाग संक्रम अनन्तगुणा है। उससे शोकका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। उससे अरतिका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है । उससे नपुंसक वेदका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। उससे अप्रत्याख्यानमानका जघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ अपच्चक्खाणमाण० जह० अणंतगुणो । कोधस्स जह. विसे० । मायाए जह० विसे० । लोभ० जह० विसे० । पच्चक्खाणमाण० जह० अणंतगुणो। कोध० जह० विसे० । मायाए जह० विसे० । लोभ० जह• विसे । माणसंज० अणंतगुणो। कोध० विसे० । माया० विसे । लोभ० विसे० । अणंताणु०माण० जहण्णाणु०सं० अणंतगुणो। कोह. विसे । मायाए० विसेसा० । लोह. विसे । मिच्छत्तस्स जह० अणंतगणो ति एवमेदीए दिसाए सेसमग्गणासु वि अप्पाबहुअं जाणिय कायव्यं ।
___ एवमप्पाबहुए समत्ते चउवीसमणिओगद्दाराणि समत्ताणि । ॐ भुजगारे त्ति तेरस अणिोगहाराणि।
६ ३३१. चउवीसमणियोगद्दारेसु परूविय समत्तेसु किमट्ठमेसो भुजगारसण्णिदो अहियारो समागओ?वुच्चदे–जहएणुकस्सभेयभिण्णाणुभागसंकमस्स सगंतोभाविदाजहण्णाणुकस्स वियप्पस्स अवत्थाभेयपदुप्पायणढमागओ, तदवत्थाभूदभुजगारादिपदाणमेत्य समुकित्तणादितेरसाणियोगद्दारेहि विसेसिऊण परूवणोवलंभादो।
ॐ तत्थ अट्ठपदं।
अनुभागसंक्रम अनन्तगुण है। उससे अप्रत्याख्यानक्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानमायाका जघन्य अनुमागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अप्रत्यानलोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानमानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। उससे प्रत्याख्यानक्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानमायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यान लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे मानसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धीमानका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुणा है। उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभागसंक्रम विशेष अधिक है । उससे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसंक्रम अनन्तगुण है। इस प्रकार इस दिशासे शेष मार्गणाओंमें भी अल्पबहुत्व जानकर करना चाहिए।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर चौदह अनुयोगद्वार समाप्त हुए। * भुजगार अधिकारका प्रकरण है। उसमें तेरह अनुयोगद्धार होते हैं।
६३३१. चौबीस अनुयोगद्वारोंका कथन समाप्त होने पर यह मुजगार संज्ञावाला अधिकार किसलिए आया है ? कहते हैं-जिसके भीतर अजघन्य और अनुत्कृष्ट भेद गर्भित हैं ऐसे जघन्य
और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारके अनुभाग संक्रमके अवस्थाभेदोंका कथन करनेके लिए यह अधिकार आया है, क्योंकि उसके अवस्थारूप भुजगार आदि पदोंका यहाँ पर समुत्कीर्तना आदि तेरह अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे पृथक पृथक् कथन उपलब्ध होता है।
* उस विषयमें यह अर्थपद है।
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स समुक्कित्तणा ६५
६ ३३२. तम्मि भुजगारसंकमे भुजगारादिपदाणं सरूवविसयगिणयजणणट्ठमट्ठपदं वण्णइस्सामो ति बुत्तं होइ । किं तमट्ठपदमिदि पुच्छासुत्तमाह
तं जहा। ६३३३. सुगमं ।
* जाणि एपिहं फद्दयाणि संकामेदि अणंतरोसकाविदे अप्पदरसंकमावो बहुगाणि त्ति एस भुजगारो।
६३३४. एदस्स भुजगारसंकमसरूवाणिरूवयसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-जाणि अणुभागफहयाणि एण्हिं वट्टमाणसमए संकामेदि ताणि बहुआणि । कत्तो ? अणंतरोसकाविदे अप्पदरसंकमादो अणंतरविदिक्कंतसमए थोवयरादो संकमपरिणदफद्दयकलावादो त्ति भणिदं होदि ? एस भुजगारो एवंलक्षणो भुजगारसंकमो ति दटुव्वो। थोवयरफद्दयाणि संकामेमाणो जाधे तत्तो बहुवयराणि फद्दयाणि संकामेदि सो तस्स ताधे भुजगारसंकमो त्ति भावत्यो।
* ओसक्काविदे बहुदरादो एएिहमप्पदराणि संकामेदि त्ति एस अप्पदरो।
हु ३३५. एत्थ ओसक्काविदसद्दो अणंतरवदिक्कतसमयवाचओ ति घेत्तव्यो । अथवा
६ ३३२. उस भुजगारसंक्रमके विषयमें भुजगार आदि पदोंका स्वरूपविषयक निर्णयको उत्पन्न करनेके लिए अर्थपदका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह अर्थपद क्या है ऐसी जिज्ञासाके अभिप्रायसे पृच्छासूत्रको कहते हैं
* यथा ६ ३३३, यह सूत्र सुगम है।
* जिन स्पर्धकोंको वर्तमान समयमें संक्रमित करता है वे अनन्तरपूर्व समयमें संक्रमको. प्राप्त हुए अल्पतर संक्रमसे बहुत हैं यह भुजगारसंक्रम है।
६३३४. अब भुजगारसंक्रमके स्वरूपका कथन करनेवाले इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-जिन अनुभागस्पर्धकोंका ‘एपिह' अर्थात् वर्तमान समयमें संक्रमण करता है वे बहुत हैं । किससे बहुत हैं ? 'अणंतरोसक्काविदे अप्पदरसंकमादो' अर्थात् अनन्तर व्यतीत हुए पूर्व समयमें संक्रमरूपसे परिणत हुए स्तोकतर स्पर्धककलापसे बहुत हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'एस भुजगारो' अर्थात् इस प्रकारके लक्षणवाला भुजगारसंक्रम है ऐसा जानना चाहिए। स्तोकतर स्वर्धकोंका संक्रम करनेवाला जीव जब उनसे बहुतर स्पर्धकोंका संक्रम करता है वह उसका उस समय भुजगार संक्रम होता है यह इसका भावार्थ है।
___ * अनन्तर पूर्व समयमें संक्रमको प्राप्त हुए बहुतर स्पर्धर्कोसे वर्तमान समयमें अल्पतर स्पर्धकोंको संक्रमित करता है यह अल्पतरसंक्रम है।
६ ३२५. इस सूत्रमें 'ओसक्काविद' शब्द अनन्तर व्यतीत हुए समयका वाची है ऐसा यहाँ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
बहुदरादो पुव्विल्लसमयसंकमादो एहिमोसकाविदे इदानीमपकर्षिते न्यूनीकृतेऽल्पतराणि स्पर्धकानि संक्रमयतोत्यल्पतरसंक्रम इति सूत्रार्थसंबंधः । सुगममन्यत् ।
* श्रसक्काविदे एहिं च तत्तियाणि संकामेदि त्ति एस अवट्ठिदसंकमो । $ ३३६. अनंतरव्यतिक्रान्तसमये वर्तमानसमये च तावतामेव स्पर्धकानां संक्रमोऽवस्थितसंक्रम इति यावत् ।
* श्रसक्काविदे असंकमादो एरिहं संकामेदित्ति एस अवन्त्तव्वसंकमो । § ३३७. ओसकाविदे अणंतरहेट्ठिमसमये असंकमादो संकमविरहलक्खणादो अवस्था - विसेसादो हमिदाणिं वट्टमाणसमये संकामेदि त्ति संकमपजाएण परिणामेदि त्ति एस एवंलक्खणो अवत्तव्त्रसंकमो । असंकमादो जो संकमो सो अवत्तव्त्रसंकमो त्ति भावत्थो ।
* एदेण अट्ठपदे सामित्तं ।
९३३८. एदेणाणंतरपरूविदेण अट्ठपदेण णिच्छिदसरूवाणं भुजगारादिपदाणं सामित्तमिदाणिं कस्सामो त्ति पहण्णावकमेदं । किमट्ठमेत्थ सामित्तादीनं जोणोभूदा सम्मुत्तिणा सुत्तारेण ण परूविदा ? ण, सुगमत्ता हिप्पाएण तदपरूवणादो ।
ग्रहण करना चाहिए । अथवा पहलेके समयमें किये गये बहुतर संक्रमसे 'एण्डिमोसक्काविदे' अर्थात् वर्तमान समय में अपकर्षित करने पर अर्थात् कम करने पर अल्पतर स्पर्धकोंको संक्रमित करता है यह अल्पतरसंक्रम है इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । शेष कथन सुगम है।
* अनन्तर व्यतीत हुए समयमें और वर्तमान समय में उतने ही स्पर्धकोंका संक्रम करता है यह अवस्थितसंक्रम है ।
९ ३३६. अनन्तर व्यतीत हुए समयमें और वर्तमान समयमें उतने ही स्पर्धकोंका संक्रम अवस्थितसंक्रम है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* अनन्तर व्यतीत हुए समयमें संक्रम न करके वर्तमान समयमें संक्रम करता है यह वक्तव्य संक्रम है ।
९ ३३७. 'सक्काविदे' अर्थात् अनन्तर व्यतीत हुए समयमें असंक्रमसे अर्थात् संक्रमविरहलक्षण अवस्थाविशेषसे श्राकर 'एण्डिं' अर्थात् वर्तमान समयमें 'संकामेदि' अर्थात् संक्रम पर्यायसे परिणत कराता है 'एस' अर्थात् इस प्रकारके लक्षणवाला अवक्तव्यसंक्रम है । असंक्रमरूप अवस्थाके बाद जो संक्रम होता है वह अवक्तव्यसंक्रम है यह इस कथनका भावार्थ है ।
* अब इस अर्थपदके अनुसार स्वामित्वका कथन करते हैं ।
९३३८. इस अनन्तर पूर्व कहे गये अर्थपदके अनुसार जिनके स्वरूपका निर्णय कर लिया है ऐसे भुजगार आदि पोंके स्वामित्वको इस समय बतलाते हैं, इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है । शंका- यहाँ पर स्वामित्व श्रादिकी योनिरूप समुत्कीर्तनाका सूत्रकारने कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान — नहीं, क्योंकि समुत्कीर्तनाका कथन सुगम है इस अभिप्रायले सूत्रकारने उसका कथन नहीं किया ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स सामित्त
६३३६. एत्थ वक्खाणाइरिएहिं समुकित्तणा कायव्वा । तं जहा-समुकित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेणादेसेण य । ओघो विहत्तिभंगो । णवरि बारसक०-णवणोक० अत्थि अवत्तासंकमो वि । एवं मणुसतिए। आदेसेण सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुअपज०सबदेवा त्ति विहत्तिभंगो । एवं समुकित्तणा गया ।
* मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो को होइ ?
६ ३४०. किं मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी देवो णेरइओ वा इच्चादिविसेसावेक्खमेदं पुच्छासुत्तं ।
मिच्छाइट्ठो अपणदरो। ६ ३४१. एत्थ मिच्छाइद्विणिदेसेण सम्माइटिषडिसेहो कओ। अण्णदरणिद्देसो चउगइगयमिच्छाइट्ठिगहणट्ठो ओगाहणादिविसेसपडिसेहट्ठो च। तदो मिच्छाइट्ठी चेव मिच्छत्ताणुभागस्स भुजगारसंकामओ त्ति सिद्धं ।
ॐ अप्पदर-अवहिदसंकामो को होइ ?
६३३६. अब यहाँ पर व्याख्यानाचार्यो को समुत्कीर्तना करनी चाहिए। यथा-समुत्कीर्तनानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघ प्ररूपणाका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवक्तव्यसंक्रम भी है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।।
विशेषार्थ-अनुभागविभक्तिमें सत्कर्मकी अपेक्षा जिस प्रकार ओघ और आदेशसे समुत्कीर्तनाका कथन किया है उसी प्रकार वह सब कथन यहाँ भी बन जाता है । मात्र उपशमश्रेणिमें बारह कषायों और नौ नोकषायोंका उपशम हो जानेके बाद जब तक ऐसा जीव उतरकर पुनः नीचे नहीं आता या मरकर देव नहीं होता तब तक संक्रम नहीं होता। उसके वाद संक्रम होने लगता है, इसलिए यहाँ पर ओघसे इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यसंक्रमका निर्देश अलगसे किया है। साथ ही यह संक्रम मनुष्यत्रिकमें बन जानेसे यहाँ पर इसे भी अलगसे बतलाया है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। * मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक कौन होता है ?
६ ३४०. मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, देव या नारकी इनमेंसे कौन होता है इत्यादि विशेषकी अपेक्षा रखनेवाला यह सूत्र है।
* अन्यतर मिथ्यादृष्टि होता है।
६३४१. यहाँ पर 'मिथ्यादृष्टि' पदके निर्देश द्वारा सम्यग्दृष्टिका निषेध किया है। चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टिके ग्रहण करनेके लिए तथा अवगाहना आदि विशेषका निषेध करनेके लिए 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है। इसलिए मिथ्यादृष्टि ही मिथ्यात्वके अनुभागका भुजगारसंक्रामक होता है यह सिद्ध हुआ।
* अल्पतर और अवस्थितसंक्रामक कौन होता है ? १३
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१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंध गो 8३४२. सुगम ।
* अण्णदरो।
६ ३४३. एसो अण्णदरणिदेसो मिच्छाइट्ठि-सम्माइट्ठीणमण्णदरग्गहणट्ठो, तत्थोभयत्थ वि पयदसामित्तस्स विप्पडिसेहाभावादो । तदो मिच्छाइद्री सम्माइट्ठी वा मिच्छत्तअप्पदरावद्विदाणं सामी होइ ति सिद्धं ।
अवत्तव्वसंकामो पत्थि। ३४४. कुदो ? मिच्छत्तस्स सव्वकालमसंकमादो संकमसमुप्पत्तीए अणुवलंभादो । * एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं ।।
४३४५. जहा मिच्छत्तस्स भुजगारादिपदाणं सामित्तविहाणं कदमेवं सेसकम्माणं पि कायव्वं, विसेसाभावादो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमिह पडिसेहो तत्थ विसेसंतरसंभवपदुप्यायणफलो। सो च विसेसो भणिस्समाणो। एत्थ वि थोषयरो विसेसो अत्थि ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तमाह
ॐ णवरि अवत्तव्वगो चअत्थि। ६ ३४६. वारसक०–णवणोकसायाणमुवसमसेढीए अणंताणुबंधीणं च विसंजोयणा
६ ३४२. यह सूत्र सुगम है। * अन्यतर जीव होता है।
६३४३. सूत्रमें यह 'अन्यतर' पदका निर्देश मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इनमेंसे अन्यतर जीवके ग्रहणके लिए आया है, क्योंकि उन दोनोंमें ही प्रकृत स्वामित्वका निषेध नहीं है। इसलिए मिश्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि कोई भी मिथ्यात्वके अल्पतर और अवस्थितसंक्रमोंका स्वामी है यह सिद्ध हुआ।
* मिथ्यात्वका अवक्तव्यसंक्रामक नहीं है।
६ ३४४. क्योंकि मिथ्वात्वकी सदाकाल असंक्रमरूप अवस्थासे संक्रमकी उत्पत्ति नहीं उपलब्ध होती।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मों का स्वामित्व जानना चाहिए।
६३४५. जिस प्रकार मिथ्यात्वके भुजगार आदि पदोंके स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार शेष कर्मों का भी करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वके स्वामित्व कथनसे इन कर्मोके स्वामित्व कथनमें कोई विशेषता नहीं है । यहाँ पर जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका निषेध किया है सो इन दोनों प्रकृतियोंमें विशेष फरक सम्भव है इतना कथन करना इसका फल है। और वह जो फरक है उसे आगे कहेंगे । यहाँ पर स्तोकतर विशेष है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यसंक्रामक भी होता है । ६३४६. क्योंकि बारह कपाय और नौ नोकषायोंका उपशमणिमें तथा अनन्तानुबन्धियोंका
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गा ५.८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसंकमे भुजगार संकमस्स सामित्त
हह
पुव्त्रसंजोगे अत्तव्त्रसंकमदंसणादो । तदो बारसक० - णवणोक० अवत्त ० संका० को होड़ ? सो सामणादो परिवदमाणओ देवो वा पढमसमयसंकामओ । अनंतागु० अवत्तव्यसंकामओ को होइ ! बिसंजोयणादो संजुत्तो होदू गावलियादिक्कतो त्ति सामित्तं कायव्यमिदि भावत्थो । एवमेदं परूविय संपहि सम्मत्त सम्मामिच्छत्तगयसामित्तभेदपदुप्पायणट्टमुत्तरसुत्तपबंधो
* सम्मन्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार संकामओ एत्थि । ६ ३४७. कुदो ! तदणुभागस्स वडिविरहेणावद्विदत्तादो । * अप्पदर अवत्तव्वसंकामगो को होइ ?
३४८. सुगमं ।
* सम्माइट्ठी अण्णदरो ।
६ ३४६. एत्थ सम्माइट्टिणिद्देसो मिच्छाइडिपडिसेहफलो, तत्थ पयदसामित्तसंभवविरोहादो । अण्णदरणिद्देसो ओगाहणादिविसेसणिरायरणफलो । तदो अणादियमिच्छाइट्ठी सादिछत्रीससंतकम्मिओ वा सम्मत्तमुप्पाइय विदियसमए अवत्तव्त्रसंकामओ होइ । अप्पदरसंकामओ दंसणमोहक्खाओ, अण्णत्थ तदणुवलंभादो ।
* अवद्विदसंकामओ को होइ ?
विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर अवक्तव्यसंक्रम देखा जाता है। इसलिए बारह कषाय और नौ नोकषायका वक्तव्यसंक्रामक कौन होता है ? जो सर्वोपशामनासे गिरनेवाला अथवा मरकर देव होता है वह प्रथम समयमें संक्रमण करनेवाला जीव इनका अवक्तव्यसंक्रामक होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यसंक्रामक कौन होता है ? विसंयोजनाके बाद संयुक्त होकर जिसका एक आवलि काल गया है वह इनका वक्तव्यसंक्रामक होता है । इस प्रकार यहाँ पर स्वामित्व करना चाहिए यह इसका भावार्थ है। इस प्रकार इसका कथन करके अब सम्यक्त्व और सम्यग्मध्यात्वगत स्वामित्रकी भिन्नता दिखलानेके लिए श्रागेकी सूत्रपरिपाटी आई है
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रामक कोई नहीं होता ।
९ ३४७. क्योंकि उनका अनुभाग वृद्धि से रहित होनेके कारण अवस्थित है । * अल्पतर और अवक्तव्यसंक्रामक कौन होता है ?
६३४८. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्यतर सम्यग्दृष्टि होता है ।
६ ३४६. यहाँ पर सम्यग्दृष्टिपदके निर्देशका फल मिथ्यादृष्टिका निषेध करना है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिको प्रकृत विषयका स्वामी होने में विरोध आता है। अन्यतर पदके निर्देशका फल अव गाहना आदि विशेषका निराकरण करना है। इसलिए अनादि मिध्यादृष्टि या छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला सादि मिध्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करके दूसरे समयमें अवक्तव्य संक्रमका स्वामी होता है। तथा श्रल्पतरसंक्रामक दर्शनमोहनीयका रूपक होता है, क्योंकि अन्यत्र अल्पतरपद नहीं
पाया जाता ।
* अवस्थितपदका संक्रामक कौन होता है ?
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१०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६३५०. सुगमं । .
* अणदरो।
६ ३५१. मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा सामिओ ति. भणिदं होइ । एवमोघेण सामित्तं गदं। मणुसतिए एवं चे। णवरि बारसक०-णबणोक० अवत्तसंकमो कस्स ! अण्णदरस्स सव्योवसामणादो परिवदमाणयस्स । सेसमग्गणासु बिहत्तिभंगो ।
एवं सामित्तं समत्तं 8 एत्तो एयजीवेण कालो।
$ ३५२. एतो सामित्तविहासणादो उवरिमेयजीवेण कालो विहासियव्यो, तदणंतरपरूवणाजोगत्तादो त्ति वुत्तं होइ ।
* मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामो केवचिरं कालादो होदि ? ६३५३. सुगम। * जहणणेण एयसमओ। ..
..
६ ३५०. यह सूत्र सुगम है। * अन्यतर जीव होता है।
६ ३५१. मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि कोई भी जीव स्वामी है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। इस प्रकार ओघसे स्वामित्व समाप्त हुआ।
मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्य संक्रमका स्वामी कौन है ? सर्वोपशमनासे गिरनेवाला अन्यतर जीव स्वामी है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ—ोघप्ररूपणामें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यपदका संक्रामक जो सर्वोपशामनासे गिरते समय विवक्षित प्रकृतियोंके संक्रमस्थलके आनेके पूर्व मरकर देव हो जाता है वह भी होता है। किन्त मनुष्यत्रिकमें यह इस प्रकारसे प्राप्त हुआ स्वामित्व सम्भव नहीं है। इतनी ही यहाँ पर ओघ प्ररूपणसे विशेषता जाननी चाहिए, इनमें शेष सब कथन ओघप्ररूपणके समान है यह स्पष्ट ही है । मनुष्यत्रिकको छोड़कर नरकगति, तिर्यञ्चगति और देवगति तथा उनके अवान्तर भेदोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग बन जानेसे उसे अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है । तथा इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें भी अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। * अब आगे एक जीवकी अपेक्षा कालको कहते हैं।
६३५२. 'एत्तो' अर्थात् स्वामित्वका कथन करनेके बाद आगे एक जीवकी अपेक्षा कालका ब्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि यह उसके अनन्तर कथन करने योग्य है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकका कितना काल है ? . ६ ३५३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमे एयजीवेण कालो १०१
६३५४. कुदो ! हेडिमाणुभागसंकमादो बंधवुड्डिवसेणेय समयं भुजगारसंकामओ होदूण विदियसमए अवट्ठिदसंकमेण परिणदम्मि तदुवलंभादो ।
ॐ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
६ ३५५. एदमणुभागट्ठाणं बंधमाणो तत्तो अणंतगुणवड्डीए वड्डिदो पुणो विदियसमए वि तत्तो अणंतगणवड्डीए परिणदो । एवमणतंगणवड्डीए ताव बंधपरिणामं गदो जाव अंतोमुहुत्तचरिमसमयो ति। एवमंतोमुहुत्तभुजगारबंधसंभवादो भुजगारसंकमुक्कस्सकालो वि अंतोमुहुत्तपमाणो ति णत्थि संदेहो, बंधाबलियादोदक्कमेणेव संकमपन्जायपरिणामदंसणादो ।
8 अप्पयरसंकामो केवचिरं कालादो होइ ? ६३५६. सुगमं ।
* जहणणुक्कस्सेण एयसमो ।
६ ३५७. तं जहा-अणुभागखंडयघादवसेणेयसमयमप्परयसंकामओ जादो विदियसमयअवविदपरिणाममुवगओ, लद्धो जहण्णकस्सेणेयसमयमेत्तो अप्पयरकालो ।
* अवहिदसंकामो केवचिरं कालादो होइ ? ६ ३५८. सुगमं।
ॐ जहपणेण एयसमओ।
६३५४. क्योंकि जो जीव अधस्तन अनुभागसंक्रमसे बन्धकी अनुभागवृद्धि वश एक समय तक भुजगारपदका संक्रामक होकर दूसरे समयमें अवस्थितसंक्रमरूप परिणत हो जाता है उसके मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट काल अन्तमु हूते है।
६ ३५५. विवक्षित अनुभागस्थानका बन्ध करनेवाला जीव उससे अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे वृद्धिको प्राप्त होकर पुनः दूसरे समयमें भी अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे परिणत हुआ। इस प्रकार अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे तब तक बन्धपरिणामको प्राप्त हुआ जब जाकर अन्तर्मुहूर्तका अन्तिम समय प्राप्त होता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक भुजगारबन्ध सम्भव होनेसे भुजगारसंक्रमका भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि बन्धावलिके व्यतीत होनेके बाद ही क्रमसे संक्रमपर्यायरूप परिणाम देखा जाता है।
* अल्पतर संक्रामकका कितना काल है ? ६ ३५६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६३५७. यथा-कोई जीव अनुभागकाण्डकघात वश एक समयके लिए अल्पतर पदक। संक्रामक हुआ और दूसरे समयमें अवस्थित परिणामको प्राप्त हुआ। इस प्रकार मिथ्यात्वके अल्पतरपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त हुआ।
* अधस्थितसंक्रामकका कितना काल है ? ६३५८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
PRAKAR
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१०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ३५६. तं जहा-एयसमयं भुजगारबंधेण परिणमिय तदणंतरसमए तत्तियंचेव बंधिय तदियसमए पुणो वि बंधवुडीए परिणदो होदण बंधावलियवदिकमे ताए चेव परिवाडीए संकामओ जादो लद्धो पयदजहण्णकालो।
* उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं
६३६०. तं जहा-एगो मिच्छाइट्ठी उवसमसम्मत्तं घेतण परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो। तत्थ मिच्छत्तस्स तप्पाओग्गमणुकस्साणुभार्ग बंधिय अंतोमुहुत्तकालं तिरिक्खमणुस्सेसु अवट्ठिदसंकामओ होदूण पुणो पलिदोवमासंखेजभागाउएसु भोगभूमिएसु उववण्णो तत्थावट्ठिदसंकमं कुणमाणो अंतोमुहुत्तावसेसे सगाउए वेदगसम्मत्तं पडिवन्जिय देवेसुववण्णो तत्तो पढमच्छावट्ठिमणुपालिय अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तमवद्विदसंकमाविरोहेण मिच्छत्तं. वा पडिवण्णो । पुणो वि अंतोमुहुत्तेण वेदगसम्मतं पडिवजिय विदियच्छावट्ठिमवविदसंकममणुपालेण तदवसाणे पयदाविरोहेण मिच्छत्तं गंतूणेकतीससागरोवमिएसु उववण्णो तदो णिप्पिडिदो संतो मणुसेसुववण्णो जाव संकिलेसं ण पूरेदि ताव अवट्टिदसंकमेणेवावद्विदो। तदो संकिलेसवसेण भुजगारबंधं काऊण बंधावलियवदिक्कमे तस्स संकामओ जादो लद्धो पयदुक्कस्सकालो दोअंतोमुहुत्तेहि पलिदोवमासंखेजभागेण च अब्भहियतेवट्ठिसागरोवमसदमेत्तो।
सम्मत्तस्स अप्पयरसंकाममो केवचिरं कालादो होदि ?
३५६. यथा-एक समय तक भुजगारबन्धरूप परिणमन करके दूसरे समयमें उतना ही बन्ध करके तीसरे समयमें फिर भी बन्धकी वृद्धिरूपसे परिणत होकर बन्धावलिके बाद उसी परिपाटीसे संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत जघन्य काल प्राप्त हुआ।
* उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ वेसठ सागर है।
६३६०. यथा-एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर परिणामवश मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहाँ मिथ्यात्वके तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्धकर अन्तमुहूर्तकाल तक तिर्यश्चों और मनुष्योंमें अवस्थितपदका संक्रामक होकर फिर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आयुवाले भोगभूमिजोंमें उत्पन्न हुआ। तथा वहाँ अवस्थितपदका संक्रम करता हुआ अपनी आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर तथा वेदकसम्यकत्वको प्राप्त होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर प्रथम छयासठ सागर कालतक उसका पालन करके अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यग्मिथ्यात्वको या अवस्थित संक्रममें विरोध न आवे इस प्रकार मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इसके बाद फिर भी अन्तर्मुहूर्तकालमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरे छयाछठ सागर काल तक अवस्थितसंक्रमका पालनकर उसके अन्तमें प्रकृत स्वामित्वके अविरोधरूपसे मिथ्यात्यको प्राप्तकर इकतीस सागरकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहाँसे निकलकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ तथा जब तक संक्लेशको नहीं प्राप्त हुआ तब तक अवस्थित संक्रमरूपसे अवस्थित रहा। अनन्तर संक्लेशवश भुजगारबन्ध करके बन्धावलिके व्यतीत होनेपर उसका संक्रामक हो गया। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त और पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक एकसौ ग्रेसठ सागरप्रमाण प्रकृत उत्कृष्ट काल प्राप्त हुआ।
* सम्यक्त्वके अल्पतरसंक्रामकका कितना काल है ?
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१०३
गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमे एयजीवेण कालो
६३६१. सुगमं । * जहएणेण एयसमओ।
६ ३६२. दंसणमोहक्खषणाए एयमणुभागखंडयं पादिय सेसाणुभागं संकामेमाणस्स पढमसमयम्मि तदुवलंभादो।
उक्कस्सेण अंतोमुत्तं ।
६ ३६३. कुदो १ सम्मत्तस्स अट्ठवस्सविदिसंतप्प डि जाव समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयो ति ताव अणुसमयोवट्टणं कुणमाणो अंतोमुहुत्तमेत्तकालमप्पयरसंकामओ होइ, तत्थ पडिसमयमणतगुणहाणीए तदणुभागस्स हीयमाणकमेण संकंतिदंसणादो।
* अवडिवसंकामो केवचिरं कालादो होइ ? ६३६४. सुगमं।
* जहणणेण अंतोमुहत्तं ।
६३६५. दुचरिमाणुभागखंडयं धादिय तदणंतरसमए अप्पयरभावेण परिणदस्स पुणो चरिमाणुभागखंडयुक्कीरणकालो सयो चावट्ठिदसंकामयस्स जहण्णकालत्तेण गहियव्यो ।
& उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६३६६. तं जहा—एको अणादियमिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पाइय विदियसमए
६३६१. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
६३६२. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाद्वारा एक अनुभागकाण्डकका पतन करके शेष अनुभागका संक्रमण करनेवाले जीवके प्रथम समयमें जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है।
६ ३६३. क्योंकि सम्यक्त्वके आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे लेकर जब तक दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें एक समय अधिक एक श्रावलि काल शेष रहता है तब तक प्रत्येक समयमें अनुभागकी अपवर्तना करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतरपदका संक्रामक होता है, क्योंकि वहाँ पर प्रत्येक समयमें अनन्तगुणहानिरूपसे सम्यक्त्वके अनुभागका हीयमानक्रमसे संक्रमण देखा जाता है।
* अवस्थितसंक्रामकका कितना काल है ? ६ ३६४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तमु हूते है ।
६३६५. क्योंकि द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात करके तदनन्तर समयमें अल्पतरपद से परिणत होकर पुनः अन्तिम अनुभागकाण्डकका जितना उत्कीरण करनेका काल है यह सभी अवस्थितसंक्रामकका जघन्य काल है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए।
* उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। ६ ३६६. यथा-कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर दूसरे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
अवत्तव्त्रसंकामओ होतॄण तदियादिसमएस अवद्विदसंकमं कुणमाणो उक्समसम्मत्तद्धाक्खएण मिच्छत्तं गदो । पलिदोत्रमासंखेजभागमेत्तकाल मुव्वेल्लणपरिणामेणच्छिदो चरिमुच्वेल्लगफालीए सह उबसमसम्मत्तं पडिवण्णो पुणो वेदयभावेण पढमछावट्टिमणुपलिय तदवलाणे मिच्छत्तेण पलिदोत्रमासंखेज्जभागमे तकालमट्ठिदसंकभेणच्छिदो पुत्रं व सम्मत्तपडिलंभेण विदियछात्रमगुपालेण तदवसाणे पुणो त्रि मिच्छत्तं गंतव्बेल्ल गाचारिमफालीए अदिसंकमस्स पञ्जवसाणं करेदि, तेण लद्धो पयदुकस्सकालो तीहि पलिदो० असंखे० भागेहि सादिरेयवेछावट्टिसागरोवममेत्तो ।
१०४
* अवत्तव्वसंकामत्र केवचिरं कालादो होइ ?
९ ३६७. सुगमं ।
* जहणणुक्कस्सेण एयसमत्रो ।
९ ३६८. असंक्रमादो संक्रामयभावमुवगयपढमसमए चैव तदुवलंभणियमादो । * सम्मामिच्छत्तस्स अप्पयर अवन्त्तव्वसंकामत्रो केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णुक्कस्से एयसमयं ।
९ ३६६. अवत्तव्त्रसंका मयस्स एयसमओ सम्मत्तस्सेव परूत्रेयन्त्रो । अप्पयरसंकामयस्स विदंसणमोहक्खणा अणुभागखंडयघा दाणंतरमेयसमयसंभवो ददुव्वो ।
समय में वक्तव्यपदका संक्रामक हुआ । पुनः तृतीय आदि समयों में अवस्थितसंक्रमको करता हुआ उपशमसम्यक्त्व कालका क्षय होनेसे मिध्यात्व में गया और पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उनारूप परिणामसे परिणत हुआ । फिर अन्तिम उद्व ेलना फालिके साथ उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः वेदकसम्यक्त्व के साथ थम छयासठ सागरप्रमाण कालको विताकर उसके अन्तमें मिध्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक अवस्थित संक्रमके साथ रहा । तथा पहलेके समान सम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरे छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वा पालन करके उसके अन्तमें मिथ्यात्व में जाकर उद्वेलनाकी अन्तिम फालिके पतनतक अवस्थित संक्रमके अन्तको प्राप्त हुआ । इस प्रकार इस विधि से प्रकृत उत्कृष्ट काल तीन बार पल्यके श्रसंख्यातवें भागों से अधिक दो छयासठ सागर कालप्रमाण प्राप्त हुआ ।
* अवक्तव्य संक्रामकका कितना काल है ? ९३६७. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
९३६८. क्योंकि संक्रम रहित अवस्थासे संक्रामकभावको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समय में ही वक्तव्य संक्रमकी प्राप्तिका नियम है ।
* सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर और अवक्तव्यसंक्रामकका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
९ ३६६. इसके अवक्तव्यसंक्रामकके एक समय कालका कथन सम्यक्त्वके समान ही करना चाहिए। तथा अल्पतर संक्रामकका भी एक समय काल दर्शनमोहनीयकी क्षपणा अनुभ घातके अनन्तर एक समय तक सम्भव है ऐसा जान लेना चाहिए।
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स एयजीवेण कालो
ॐ अवट्ठिदसंकामो केवचिरं कालादो होइ ? ६ ३७०. सुगमं। * जहपणेण अंतोमुहुत्तं । ६३७१. चरिमाणुभागखंडयुक्कीरणद्धाए तदुधलंभादो।
* उकसेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
६३७२. एदस्स सुत्तस्स अस्थपरूवणा सुगमा, सम्मत्तस्सेव सादिरेयवेछावद्विसागरोवममेत्तावट्ठिदुक्कस्सकालसिद्धीए पडिबंधाभावादो।
* सेसाणं कम्माणं भुजगारं जहणणेण एयसमो। ६ ३७३. सुगमं। * उकसेण अंतोमुहुत्तं। ६ ३७४. अणंतगुणवढ्ढिकालस्स तप्पमाणत्तोवएसादो । ® अप्पयरसंकामो केवचिरं कालादो होइ ? ६ ३७५. सुगमं । * जहएणुकसेण एयसमो । ६३७६. एदं पि सुगमं । एदेण सामण्णणिहेसेण पुरिसवेद-चदुसंजलणाणं पि अप्पयर
* अवस्थितसंक्रामकका कितना काल है ? ६ ३७०. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। ६३७१. क्योंकि अन्तिम अनुभागकाण्डकके उत्कीरण कालके भीतर यह काल उपलब्ध होता है। * उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है।
६३७२. इस सूत्रकी अर्थप्ररूपणा सुगम है, क्योंकि सम्यक्त्वके समान इसके अवस्थितपदके साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कालकी सिद्धि होनेमें कोई रुकावट नहीं आती।
* शेष कर्मो के भुजगारसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है । ६ ३७३. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। ६३७४. क्योंकि अनन्तगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण है ऐसा आगमका उपदेश है। * अल्पतरसंक्रामकका कितना काल है ? ६३७५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ६ ३७६. यह सूत्र भी सुगम है। यह सामान्य निर्देश है। इससे पुरुषवेद और चार
१४
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ संकामयुक्कस्सकालस्स एयसमयत्ताइप्पसंगे तण्णिवारणदुवारेण तत्थ विसेसपरूवणट्ठमुवरिमसुत्तद्दयमाह
* णवरि पुरिसवेदस्स उकसेण दोआवलियाओ समऊणाओ।
६ ३७७. कुदो ! पुरिसवेदोदयखवयस्स चरिमसमयसवेदप्पहुडि समयूणदोआवलियमेत्तकालं पुरिसवेदाणुभागस्स पडिसमयमणंतगुणहीणकमेण संकमदंसणादो।
8 चदुण्हं संजलणाणमुक्कस्सेण अंतोमहत्तं ।
हु ३७८. कुदो ? खवयसेढीए किट्टिवेदयपढमसमयप्पहुडि चदुसंजलणाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणाधादर्दसणादो।
* अवडिदं जहपणेण एयसमो । * उकस्सेण तेवहिसावरोवमसदं सादिरेयं । ६ ३७६. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
ॐ अवत्तव्वं जहणणुकतेणं एयसमो ।
६३८०. सुगमं । एवमोघो समतो। आदेसेण मणुसतिए विहत्तिभंगो। णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्तबमोघं । सेसमग्गणासु' विहत्तिभंगो। संज्वलनोंके भी अल्पतरसंक्रामकका उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त होने पर उसके निवारण द्वारा उस विषयमें विशेष कथन करने के लिए आगेके दो सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवलि है।
६३७७ क्योंकि पुरुषवेदके उदयसे क्षपकनेणिपर चढ़े हुए जीवके सवेदभागके अन्तिम समयसे लेकर एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल तक पुरुषवेदके अनुभागका प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी हानिरूपसे संक्रम देखा जाता है।
* चार संज्वलनोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।।
६३७८. क्योंकि क्षपकश्रेणिमें कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर चार संज्वलनोंके अनुभागका प्रत्येक समयमें अपवर्तनाघात देखा जाता है।
* अवस्थितसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है। * उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। ६३७६ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। * अवक्तव्यसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६३८०. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे मनुष्यत्रिकमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ-अनुभागविमक्तिमें न तो ओघसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवक्तव्य पदकी अपेक्षा कालका निर्देश किया है और न मनुष्यत्रिकमें ही इनके अवक्तव्यपदके
१. श्रा०प्रतौ सेससव्वममाणासु इति पाठः ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपअिणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स एयजीवेण अंतरं
* एत्तो एयजीवेण अंतरं ।
९ ३८१. सुगममेदमहियार संभालणसुत्तं ।
* मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ९ ३८२. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमत्रो ।
§ ३८३. तं जहा—भुजगारसंकामओ एयसमयमवद्विदसंकमेणंतरिय पुणो वि विदियसमभुजगार संकामओ जादो ।
* उक्कस्सेण तेवट्ठिसागरोवमसदं सादिरेयं ।
९ ३८४. तं जहा — भुजगारसंकामओ अवट्ठिदभावसुवणमिय तिरिक्ख मणुस्सेसु अंतोमुहुत्तमेत्तकालं गभिऊण तिपलिदो मिएसुववण्णो समट्ठिदिमणुवालिय थोवावसेसे जीविदव्यत्ति उवसमसम्मत्तं घेत्तृण तदो वेदगसम्मत्तं पडिवजिय पढम-विदियछावडीओ परिभमिय तदवसाणे समयाविरोहेण मिच्छत्तमुवणमिय एक्कत्तीस सागरोवमिएसु देवेसुववण्णो तत्तो चुदो मणुत्सेसुप्पज्ञ्जिय अंतोमुहुत्तेण संकिलेसं पूरिय भुजगारसंकामओ जादो । तत्थ
१०७
काका निर्देश किया है, क्योंकि इनका अभाव होनेके बाद पुनः इनका सत्त्व सम्भव नहीं है, इसलिए वहाँ इनका प्रवक्तब्यपद नहीं बन सकता । परन्तु अनुभागसंक्रम की दृष्टिसे इनका से वक्तव्यपद बन जाता है । तदनुसार मनुष्यत्रिकतें तो वह सम्भव है ही । यही कारण है कि यहाँ पर मनुष्यत्रिमें इनके अवक्तव्यपदका काल अलग से कहा । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
* आगे एक जीवकी अपेक्षा अन्तरको कहते हैं ।
९ ३८१. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
९ ३८२. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
.६३८३. यथा - भुजगारपदका संक्रम करनेवाला जीव अवस्थितपद द्वारा उसका एक समय के लिए अन्तर करके फिर भी दूसरे समयमें भुजगारपदका संक्रामक हो गया। इस प्रकार मिथ्यात्व के भुजगार संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है ।
६ ३८४. यथा - भुजगारपदका संक्रमण करनेवाला जीव अवस्थितपदको प्राप्त कर तथा तिर्यञ्चों और मनुष्यों में अन्तर्मुहूर्तकाल गमाकर तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ और अपनी स्थितिका पालनकर जीवन में थोड़ा काल शेष रहनेपर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर अनन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्तकर तथा पहले और दूसरे छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें आगममें जैसी विधि बतलाई है उसके अनुसार मिथ्वात्वको प्राप्तकर इकतीस सागरकी युवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहाँसे च्युत होकर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तमुहूर्तके द्वारा क्लेशको पूरे तौर प्राप्त करके भुजगारपदका संक्रामक हो गया। इस प्रकार वहाँ पर यह उत्कृष्ट
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१०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ लद्धमेदमुक्कस्संतरं वेअंतोमुहुत्ताहियतिपलिदोवमेहि सादिरेयतेवद्विसागरोवमसदमेत्तं ।
* अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ६३८५. सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
६ ३८६. तं कधं ? दंसणमोहक्खवणाए मिच्छत्तस्स तिचरिमाणुभागखंडयचरिमफालिं पादिय तदणंतरमप्पयरसंकमं कादूर्णतरिय पुणो दुचरिमाणुभागखंडयं धादिय अप्पयरभावमुवगयम्मि लद्धमंतरं होइ ।
* उकस्सेण तेवठिसागरोवमसदं सादिरेयं । ६ ३८७. कुदो ? अवट्ठिदसंकमकालस्स पहाणभावेणेत्थ विवक्खियत्तादो।
अवडिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ६ ३८८. सुगमं। ॐ जहपणेण एयसमओ। ६३८६. भुजगारेणप्पयरेण वा एयसमयमंतरिदस्स तदुवलंभादो। * उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
अन्तर दो अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर प्राप्त होता है ।
* अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६ ३८५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ६३८६. शंका-वह कैसे ?
समाधान—क्योंकि जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें मिथ्यात्वके त्रिचरम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिका पतनकर तथा उसके बाद अल्पतरसंक्रमको करनेके बाद उसका अन्तर करके पुनः द्विचरमानुभागकाण्डकका घात करके अल्पतरपदको प्राप्त हुआ है उसके मिथ्यात्वके अल्पतरपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । ६ ३८७. क्योंकि इसके अन्तररूपसे यहाँ पर अवस्थितसंक्रमका काल प्रधानरूपसे विवक्षित है । * अवस्थितसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६३८८. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
६३८६. क्योंकि भुजगार या अल्पतरपदके द्वारा एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त हुए अवस्थितपदका उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूत है।
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स एयजीवेण अंतरं १०६
३६०. कुदो १ भुजगारुकस्सकालेणंतरिदस्स तदुवलद्धीदो । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ? ६३६१. सुगमं ।
® जहएणुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
६ ३६२. एत्थ जहणतरे विवक्खिए सम्मतस्स चरिमाणुभागखंडयकालो घेत्तव्यो । सम्मामिच्छत्तस्स तिचरिमाणुभागखंडयषदणाणंतरमप्पदरं कादूर्णतरिय दुचरिमाणुभागखंडए पादिदे लद्धमंतरं कायव्वं । दोण्हमुक्कस्संतरे इच्छिज्जमाणे पढमाणुभागखंडयघादाणंतरमप्पयरं कादूर्णतरिय विदियाणुभागखंडए णिहिदे लद्धमंतरं कायव्वं ।
ॐ अवडिदसंकामयंतरं केवचिरं कालाने होइ ? ६ ३६३. सुगमं। * जहपणेण एयसमो । ६ ३६४. अप्पयरसंकमेणेयसमयमंतरिदस्स तदुवलद्धीदो। * उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियहूं। ६ ३६५. पढमसम्मत्तमुप्पाइय मिच्छत्तं गंतूण सव्वलहुं उब्बेल्लणचरिमफालिं पादिय
६ ३६०. क्योंकि भुजगारपदके उत्कृष्ट कालके द्वारा अन्तरको प्राप्त हुए अवस्थितपदका उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६३६१. यह सूत्र सुगम है।। * जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
६३६२. यहाँ पर जघन्य अन्तरकालके विवक्षित होनेपर सम्यक्त्वके अन्तिम अनुभागकाण्डकका काल लेना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वके त्रिचरम अनुभागकाण्डकके पतनके बाद अल्पतर करके तथा उसका अन्तर करके द्विचरम अनुमागकाण्डकके पतन होने पर अन्तर प्रप्त करना चाहिए । तथा दोनों प्रकृतियोंके अल्पतरपदके उत्कृष्ट अन्तरको लानेकी इच्छा होनेपर प्रथम अनुभागकाण्डकका घात करनेके बाद अल्पतरपद तथा उसका अन्तर करके द्वितीय अनुभागकाण्डकके समाप्त होनेपर अन्तर प्राप्त करना चाहिए।
* अवस्थित संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६ ३६३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है।
६४. क्योंकि अल्पतरपदके संक्रमद्वारा एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त हुए अवस्थितपदका उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है
* उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। ६ ३६५. क्योंकि प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके और पुनः मिथ्यात्वमें जाकर अति शीघ्र
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
अंतरिदस्स पुणो उबडपोग्गलपरियट्टावसाणे सम्मत्तुप्पायणतदियसमयम्मि पयदं तरसमाणणोत्र
दो ।
* अवन्त्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ?
६३६६. सुगमं ।
* जहणणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
६ ३६७. तं कथं ? पढमसम्मत्तप्पत्तिविदियसमए अवत्तव्त्रसंकमं कादूणावट्ठिदसंकमेणंतरिदस्स सव्वलहुमुव्वेल्लणाए णिस्संतीकरणानंतरं पडिवण्णसम्मत्तस्स विदियसमए लद्धमंतरं होई ।
* उक्कस्सेण उवढपोग्गलपरियहं ।
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६ ३६८. तं जहा - पढमसम्मत्तुप्पायणविदियसमए अवत्तव्त्रं काढूणंतरिय उपोग्गलपरियट्टावसाणे गहिदसम्मत्तस्स विदियसमए लद्धमंतरं होई ।
* सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो ।
$ ३६६. एत्थ सेसग्गहणेण च तमोहपयडीणं सव्वासिं संगहो कायव्वो । तेसिंमिच्छत्तभंगेण भुजगार-अप्पयरावट्ठिदसंकामयाणं जहण्णुक्कस्संतरपरूवणा कायव्या, विसेसा
उद्वेलनाकी अन्तिम फालिका पतन करके अन्तरको प्राप्त हुए अवस्थितपदके पुनः उपार्धपुद्गल परिवर्तन के अन्तमें सम्यक्त्वको उत्पन्न कर उसके तीसरे समय में प्रकृत अन्तरकालकी समाप्ति देखी जाती है ।
* अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ३६६. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवे भागप्रमाण है । ६ ३६७. शंका – वह कैसे ?
समाधान — प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके दूसरे समय में अवक्तव्य संक्रमको करके तथा स्क्रम द्वारा जो अन्तरको प्राप्त हुआ है और अतिशीघ्र उद्वेलनाके द्वारा सम्यक्त्व प्रकृतिका भाव करने के बाद सम्यक्त्वको प्राप्त हुए उस जीवके दूसरे समय में पुनः अवक्तब्य संक्रम करने पर उसका उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है ।
६३६८. यथा - प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके दूसरे समय में वक्तव्यसंक्रमको करने के बाद उसका अन्तर करके उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमारण कालके अन्तमें सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके दूसरे समयमें पुनः अवक्तब्यसंक्रम करने पर उक्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है । ।
* शेष कर्मों का भङ्ग मिथ्यात्वके समान है ।
§ ३६६. यहाँ पर सूत्रमें शेष पदके ग्रहण करनेसे चारित्रमोहनीयसम्बन्धी सब प्रकृतियोंका संग्रह करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि उनके मिथ्यात्व के भङ्गके समान भुजगार, अल्पतर और
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गा०५८ ]
उत्तरपयडि णुभागसंकमे भुजगार संकमस्स एयजीवेण अंतरं
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भावाद | वरि सव्वे सिमवत्तव्त्रसंकामयं तर संभागओ विसेसो अस्थि ति तदंतरपमाण
विणिण्णयमुत्तरमुत्त कलावमाह -
* णवरि अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ४०० सुगमं ।
* जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ४०१. बारसक० - णत्रणोक ० सosts सामणादो परिवदिय अत्तव्त्रसंकमं कादूतरिय पुणो विसबल हुमुत्रसमसेढिमारुहिय सन्वोवसामणं काऊण परिवदमाणयस्स पढमसमयम्मि लद्धमंतरं होई । अणतारणुबंधीणं विसंजोयणापुव्त्रसंजोगेणादिं कादूग पुणो वि अंतोमुहुत्तेण विसंजोजिय संजुत्तस्स लद्धमंतरं वत्तं ।
* उक्कस्सेण उवडपोग्गल परियहं ।
९ ४०२. पुव्यविहाणेणादिं कादूणद्धपोग्गलपरियड परिभमिय पुणो पडिवण्णभावम्मि तदुवलीद । एवमवत्तव्त्रसंकामयंतरं गयं । विसेसमेदेसिं परूविय अनंतापुबंधियमणं च विसेसजा परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
अवस्थितपदका संक्रम करनेवाले जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि इस कथनमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है । मात्र इन सब प्रकृतियोंके वक्तब्यपदके संक्रामकोंके अन्तरकालमें कुछ विशेषता है, इसलिये उस अन्तरके प्रभारणका निर्णय करनेके लिए गेका सूत्रकलाप कहते हैं
* मात्र इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ?
४००. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
§४०१. क्योंकि जो जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंका सर्वोपशमनासे गिरते हुए अवक्तब्यसंक्रम करके तथा उसका अन्तर करके फिर भी अतिशीघ्र उपशमश्र पि और सर्वोपशमना करके गिरते हुए अपने अपने संक्रमके प्रथम समयमें प्रवक्तब्यपद करता है उसके इसके वक्तब्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना पूर्वक होनेवाले संयोगद्वारा अवक्तव्यपदके अन्तरका प्रारम्भ कराके फिर भी अन्तर्मुहूर्त में विसंयोजनापूर्वक संयोजना करनेवाले के प्राप्त हुए अन्तरका कथन करना चाहिए ।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है।
४०२. क्योंकि पूर्व विधिसे इनके अवक्तव्यपद पूर्वक अन्तरका प्रारम्भ करके और उपार्ध पुद्गल परिवर्तनकाल तक परिभ्रमण करके पुनः अवक्तव्यपदके प्राप्त होने पर उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । इस प्रकार अवक्तव्यपदके संक्रामकोंके अन्तरका कथन किया । इस प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायसम्बन्धी विशेषताका कथन करके अब अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी अन्य विशेषताका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
-
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११२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* अणताणुबंधीणमवट्ठिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ?
९४०३. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमओ । ४०४. एदं पि सुगमं ।
[ बंधगो ६
* उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
९४०५. सुगमं । एवमोघो समत्तो । आदेसेण सव्वगहमग्गणावयवेसु विहत्तिभंगो । वरि मणुसतिए बारसक० - वणोक० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० पुत्रको डिपुधत्तं । * णाणाजीवेहि भंगविचओ ।
४०६. सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा भुजगारसंकामया च अप्पयरसंकामया च अवट्ठिदसंकामया च ।
१४०७. मिच्छत्तभुजगारादिपदाणं तिण्हमेदेसिं संकाम्या णाणाजीवा णियमा अस्थि ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो वुण सव्वद्धमेदेसिमत्थित्तणियमो ? अनंतजीवरासिविसयत्तेण पडिवोच्छेदामाबादो |
* अनन्तानुबन्धियोंके अवस्थित संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ९४०३. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है ।
६४०४. यह सूत्र भी सुगम है ।
* उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
६४०५. यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । आदेशसे सब गति सबन्धी अवान्तर भेदोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक में are कषाय और नौ नोकषायोंके वक्तव्यसंका मकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है ।
विशेषार्थ – कर्मभूमि के मनुष्यत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । इसलिए इसका प्रारम्भ और अन्तमें दो बार उपशमश्र णि पर चढ़ाने और उतारनेसे बारह कषाय और नौ नोकषायके वक्तव्यपदका मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है । शेष कथन स्पष्टी
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयको कहते हैं ।
९४०६. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक और अवस्थितसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं ।
४०७. मिथ्मात्वके भुजगार आदि इन तीनों पदोंके संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं ऐसा यहाँ पर सूत्रार्थका सम्बन्ध करना चाहिए ।
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गा ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स णाणाजीवेहिं भंगविचओ ११३
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णव भंगा। ६४०८. कुदो ? तदवट्ठिदसंकामयाणं धुवत्तेणअप्पयरावत्तव्ययाणं भयणिजंतदंसणादो।
ॐ सेसाणं कम्माणं सव्वजीवा भुजगार-अप्पयर-अवढिदसंकामया। ६४०६. कुदो ? तिण्हमेदेसि पदाणं धुवभाषित्तदसणादो।
8 सिया एदे च अवत्तव्वसंकामो च, सिया एदे च अवत्तव्वसंकामया च।
६४१०. कुदो ? पुबिल्लधुवपदेहिं सह कदाइमवत्तव्यसंकामयजीवाणमेगाणेगसंखाविसेसिदाणमद्धवभावेण संभवोवलंभादो। एवमोघेण भंगविचयो परूविदो। आदेसेण सामग्गणासु विहत्तिभंगो।
शंका-मिथ्यात्वके इन तीन पदवालोंके सर्वदा सद्भावका नियम कैसे है ?
समाधान—क्योंकि मिथ्यात्वके इन पदोंको करनेवाली अनन्त जीवराशि है, इसलिए उसका विच्छेद नहीं होता।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नौ भङ्ग हैं।
६४०८. क्योंकि इनके अवस्थितसंक्रामक ध्रुव होनेके साथ अल्पतर और अवक्तव्यपद भजनीय देखे जाते हैं।
विशेषार्थ—यहाँ पर अवस्थितपदकी अपेक्षा प्रत्येक संयोगी एक भङ्ग, अवस्थितपदके साथ दो पदोंमेंसे अन्यतरके संयोगसे द्विसंयोगी चार भङ्ग और त्रिसंयोगी चार भङ्ग ऐसे कुल नौ भङ्ग ले
आना चाहिए । मात्र सर्वत्र अवस्थित पदसे युक्त नाना जीव ध्रुव रखने चाहिए। तथा शेष पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येकके दो दो भङ्ग मिलाना चाहिए।
* शेष कमों के भुजगोरसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक और अवस्थितसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं।
६४०६. क्योंकि ये तीनों पद ध्रुव देखे जाते हैं।
* कदाचित् इन तीनों पदोंके संक्रामक नाना जीव हैं और अबक्तव्यपदका संक्रामक एक जीव है । कदाचित् इन तीनों पदोंके संक्रामक नाना जीव हैं और अवक्तव्यपदके संक्रामक नाना जीव हैं।
६४१०. क्योंकि पहलेके ध्रवपदोंके साथ कदाचित् एक और अनेक संख्याविशिष्ट अवक्तव्य संक्रामकोंका अध्रुवरूपसे सद्भाव उपलब्ध होता है। इस प्रकार ओघसे भंगविचयका कथन किया। आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ—यहाँ पर आदेशसे यद्यपि सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है। फिर भी मनुष्यत्रिकमें ओघके समान ही जानना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
S४११. भागाभाग - परिमाण खेत्त- फोसणाणं च विहत्तिभंगो कायव्वो । णवरि सव्वत्थ वारसक० - णवणोक० अवत्त० पयडिभुजगार संकमअवत्तव्त्रभंगो | * णाणाजीवेहि कालो ।
$ ४१२. अहियारसंभालणवयणमेदं सुगमं ।
११४
* मिच्छत्तस्स सव्वे संकामया सव्वद्धा ।
१४१३. कुदो ! मिच्छत्तभुजगारादिपदसंकामयाणं तिसु वि कालेसु वोच्छेदाभादो |
* सम्मत्त - सम्ममिच्छुत्ताणमप्पयरसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? ४१४. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमत्रो ।
४१५. कुदो ? दंसणमोहक्खवयणाणाजीवाणमेयसमयमणुभा गखंडयघादणवसेणप्पयरभावेण परिणदाणं पयदजहण्णकालोवलंभादो ।
* उक्कस्से संखेज्जा समया ।
४११. भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शनका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायों के अवक्तव्यपदका भङ्ग प्रकृतिभुजगार संक्रमके वक्तव्यपदके समान जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — अनुभागविभक्ति अनुयोगद्वार में इन अधिकारोंका जिसप्रकार कथन किया है, न्यूनाधिकता से रहित उसी प्रकार यहाँ पर कथन करनेसे इनका अनुगम हो जाता है । मात्र वहाँ पर सत्कर्मकी अपेक्षा विवेचन किया है और यहाँ पर संक्रम पदपूर्वक वह विवेचन करना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा कालको कहते हैं ।
६४१२. यह वचन अधिकारकी सम्हाल करनेके लिए आया है, जो सुगम है ।
* मिथ्यात्वके सव पदोंके संक्रामकोंका काल सर्वदा है ।
६ ४१३. क्योंकि मिथ्यात्वके भुजगार आदि पदों के संक्रामकोंका तीनों ही कालोंमें विच्छेद नहीं पाया जाता ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामकोंका कितना काल है ?
६ ४१४. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
§ ४१५. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय अनुभागकाण्डकघातवश एक समयके लिए
अल्पतरपदसे परिणत हुए नाना जीवोंके प्रकृत जघन्य काल उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स णाणाजीवहिं कालो ११५
६ ४१६. तेसिं चेव संखेज्जवारमणुसंधिदपवाहाणमप्पयरकालस्स तप्पमाणत्तोवलंभादो।
* गवरि सम्मत्तस्स उक्कसेण अंतोमुहुत्तं । ६ ४१७. कुदो ? अणुसमयोवट्टणाकालस्स संखेज्जवारमणुसंधिदस्स गहणादो । * अवढिदसंकामया सव्वडा।।
5 ४१८. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवद्विदसंकामयपवाहस्स सव्वकालमबोच्छिण्णसरूवेणावट्ठाणादो ।
* अवत्तव्वसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? ६४१६. सुगमं ।
* जहपणेण एअसमत्रो।
६४२० संखेजाणमसंखेज्जाणं वा णिस्संतकम्मियजीवाणं सम्मत्तुप्पयणाए परिणदाणं विदियसमयम्मि पुवावरकोडिववच्छेदेण तदुवलंभादो।
* उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। ६४२१. तदुवकमणवाराणमेत्तियमेत्ताणं णिरंतरसरूवेणावलंभादो । * अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयर-अवढिदसंकामया सव्वडा ।
६ ४१६. क्योंकि संख्यातबार प्रवाहक्रमसे अनुसन्धानको प्राप्त हुए उन्हीं जीवोंके अल्पतर पदका काल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है।
* इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तमु हुर्त है।
६ ४१७. क्योंकि संख्यात बार अनुसन्धानको प्राप्त हुए प्रति समयसम्बन्धी अपवर्तनाकालका यहाँ पर ग्रहण किया है।
* अवस्थितसंक्रामकोंका काल सर्वदा है।
६.१८. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिश्यात्वके अवस्थितसंक्रामकोंका प्रवाह सर्वदा विच्छिन्न हुए बिना अवस्थित रहता है।
* अवक्तव्यसंक्रामकोंका कितना काल है ? ६४१६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
६४२०. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित जो संख्यात या असंख्यात जीव सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें परिणत हुए हैं उनके दूसरे समयमें अवक्तव्य संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय उस अवस्थामें पाया जाता है जब इससे एक समय पूर्व या एक समय बाद अन्य जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न कर अवक्तव्यपदवाले न हों।
* उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४२१. क्योंकि सम्यक्त्क्के अन्तर रहित उपक्रमबार इतने ही पाये जाते हैं।
* अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदोंके संक्रामकोंका काल सर्वदा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६४२२. कुदो ? तिसु वि कालेसु वोच्छेदेण विणा एदेसिमवट्ठाणादो।
* अवत्तव्वसंकामया केवचिरं कालादो होति ? ६ ४२३. सुगमं।
ॐ जहएणेण एयसमग्रो।
६४२४. विसंजोयणापुबसंजोजयाणं केत्तियाणं पि जीवाणमयसमयमवत्तव्यसंकर्म कादण विदियसमए अवत्थंतरगयाणमयसमयमेत्तकालोवलंभादो।
ॐ उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज दिभागो। ६ ४२५. तदुवक्कमणवाराणमुक्कस्सेणेत्तियमेत्ताणमुवलंभादो।
* एवं सेसाणं कम्माणं । णवरि अवत्तव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण संखेजा समया।
६४२६. सुगमं । एवमोधो समत्तो । आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो। णवरि मणुसतिए बारसक०–णवणोक० अवत्त० ओघं ।
* एत्तो अंतरं।
६४२२. क्योंकि तीनों ही कालोंमें विच्छेदके बिना इन पदोंके संक्रामकोंका अवस्थान पाया जाता है।
* अवक्तव्यसंक्रामकोंका कितना काल है ? ६४२३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
६४२४. क्योंकि जो नाना जीव विसंयोजनापूर्वक संयोजना करके एक समयके लिए अवक्तव्यपदके संक्रामक होकर दूसरे समयमें दूसरी अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं उनके उक्त पदके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय पाया जाता है।
* उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६४२५. क्योंकि इनके उपक्रमणबार उत्कृष्टरूपसे इतने ही पाये जाते हैं।
* इसी प्रकार शेष कर्मों का काल जानना चाहिए । मात्र इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यसंक्रामकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है।
६४२६. यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंका काल ओघके समान है।
विशेषार्थ-ओघसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंका जो काल कहा है वह गतिमार्गणामें मनुष्यत्रिकमें ही घटित होता है, इसलिए यहाँ पर मनुष्यत्रिकमें यह भङ्ग ओघके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
* आगे नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरको कहते हैं।
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे भुजगारसंकमस्स णाणाजीवेहिं अंतरं ११७
६ ४२७. एत्तो उवरि णाणाजीवविसेसिदमंतरं परूवेमो त्ति पइण्णासुत्तमेदं ।।
ॐ मिच्छत्तस्स गाणाजीवेहि भुजगार-अप्पयर-अवहिदसंकामयाणं पत्थि अंतरं।
६४२८. कुदो ? सबद्धा त्ति कालणिद्देसेण णिरुद्धंतरपसरत्तादो।
8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामयंतरं केवचिर कालादो होइ?
४२६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
जहएणेण एयसमो, उक्कस्सेण छम्मासा। ६४३०. कुदो १ दंस गमोहक्खवयाणं जहण्णकस्सविरहकालस्स तप्पमाणत्तोवएसादो।
ॐ अवहिदसंकामयाणं णत्थि अंतर। ६ ४३१. कुदो ? सव्वकालमेदेसि वोच्छेदाभावादो।
ॐ अवत्तव्वसंकामयंतर जहएणेण एयसमझो, उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे।
४३२. कुदो ? णिस्संतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुवसमसम्मत्तग्गहणविरहकालस्स जहण्णुकस्सेण तप्पमाणत्तोवएसादो ।
६४२७. इससे आगे नाना जीवोंसे विशेषित करके अन्तरका कथन करते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है।
* नाना जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है।
६४२८. क्योंकि मि यात्वके इन पदोंके संक्रामक जीव सर्वदा पाये जाते हैं । इस प्रकार कालका निर्देश करनेसे इनके अन्तरका निषेध हो जाता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६४२६. यह पृच्छासूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
६ ४३०. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकोंका जघन्य और उत्कृष्ट विरहकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है।
* अवस्थितसंक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। ६४३१. क्योंकि इनका सर्वदा विच्छेद नहीं होता।
* अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौवीस दिन-रात है।
६४३२. क्योंकि इनकी सत्तासे रहित मिथ्यादृष्टियोंके उपशमसम्यक्त्वका विरहकाल जघन्व और उत्कृष्टरूपसे उक्त कालप्रमाण पाया जाता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयर-अवट्टिदसंकामयाणं पत्थि अंतरं। ६४३३. कुदो ? तबिसेसियजीवाणमाणंतियदंसणादो।
अवत्तव्वसंकामयंतर जहणणेण एयसमत्रो। * उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये।
६४३४. सुगममेदं सुत्तद्दयं । अणंताणुबंधिविसंजोयणाणं च संजुत्ताणं पि पयदंतरसंसिद्धीए बाहाणुवलंभादो।
* एवं सेसाणं कम्माणं।
६४३५. अणंताणुबंधीणं व बारसकसाय-णवणोकसायाणं पि भुजगारादिपदाणमंतरपरिक्खा कायव्वा त्ति सुगममेदमप्पणासुत्तं । अवत्तव्यसंकामयंतरं गओ दु थोवयरो विसेसो अत्थि ति तण्णिण्णयकरणट्ठमिदमाह
* णवरि अवत्तव्वसंकामयाणमंतरमुक्कस्सेण संखेजाणि वस्साणि ।
६४३६. कदो ? वासषुधत्तमेत्तक्कस्संतरेण विणा उवसमसेढिविसयाणमवत्तबसंकामयाणमेदेसि संभवाणुवलंभादो । एवमोघो समत्तो । आदेसेण सव्वमम्गणासु बिहत्तिभंगो। णवरि मणुसतिए बारसक०–णवणोक० अवत्त संकामयंतरमोघो त्ति वत्तव्यं ।
अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदोंके संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है।
६४३३. क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंके इन पदोंसे युक्त अनन्त जीव देखे जाते हैं। * अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर एक समय है। * उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौवीस दिन-रात है।
६ ४३४. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । तथा अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करके संयुक्त होनेवाले जीवोंके प्रकृत अन्तरकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं आती।
* इसी प्रकार शेष कर्मों का अन्तरकाल जानना चाहिए ।
६४३५. अनन्तानुबन्धियोंके समान बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भी भुजगार आदि पदोंके अन्तरकालकी परीक्षा करनी चाहिए इस प्रकार यह अर्पणासत्र सुगम है। मात्र अब संक्रामकोंके अन्तरमें थोड़ी सी विशेषता है, इसलिए उसके निर्णय करनेके लिए यह सूत्र कहते हैं
* मात्र इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्षप्रमाण है।
६४३६. क्योंकि उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है और उपशमश्रेणि हुए बिना इन कर्मों के प्रवक्तव्यपदके संक्रामकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता। इस प्रकार अोघप्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका अन्तरकाल ओघके समान है ऐसा कहना चाहिए।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडऋणुभागसंकमे भुजगार संकमस्स अप्पाबहु
९ ४३७. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । * अप्पाबहु । ९४३८. भुजगारादिपदसंकामयाणं मिदाणिं कस्सामो त्ति अहियार संभालणापरमिदं सुत्तं । * सव्वथोवा मिच्छत्तस्स अप्पयरसंकामया । ६ ४३६ कुदो ? एयसमयसंचिदत्तादो ।
* भुजगारसंकामया असंखेज्जगुणा । ६ ४४०.
पमाणबिसयणिण्णयसमुप्पा यणट्टमप्पा बहूअ
कुदो ? अंतमुत्तमेतभुजग र कालब्भंतरसंभवग्गहणादो ।
* अवट्ठिदसंकामया संखेज्जगुणा ।
§ ४४१. कुदो ? भुजगारकालादो अवदिकालस्स संखेजगुणत्तादो ।
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* सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अप्पयरसंकामया ।
९ ४४२. कुदो ? दंसणमोहक्खबयजीवाणमेव तदप्पयरभावेण परिणदाणमुवलंभादो ।
* अवत्तव्वसंकामया असंखेज्जगुणा ।
६ ४४३. कुदो ? पलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तणिस्संतकम्मियजीवाणमेयसमयग्मि सम्मत्तगणसंभवादो ।
§ ४३७. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है ।
* अब अल्पबहुत्वको कहते हैं ।
१४३८. भुजगार आदि पदोंके संक्रामकों के प्रमाणविषयक निर्णयके उत्पन्न करने के लिए इस समय अल्पबहुत्वको करते हैं इस प्रकार यह सूत्र अधिकारकी सम्हाल करता है ।
* मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामक जीव सवसे स्तोक हैं । ६४३६. क्योंकि इनका संचयकाल एक समय है ।
* उनसे भुजगार संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
§ ४४०. क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण भुजगारके भीतर भुजगारसंक्रामक [जितने जीव संभव हैं उनका ग्रहण किया है ।
* उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
६ ४४१. क्योंकि भुजगारपद के कालसे अवस्थितपदका काल संख्यातगुणा है ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं ।
६ ४४२, क्योंकि जो दर्शनमोहकी क्षपणा करते हैं वे ही अल्पतरभाव से परिणत होते हुए उपलब्ध होते हैं।
* उनसे अवक्तव्यसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
६ ४४३. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके एक समयमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव है ।
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[ बंधगो ६
* श्रवट्ठिदसंकामया असंखेजगुणा ।
४४४. कुदो ? संकमपाओग्गतदुभयसंतकम्मियमिच्छाइट्ठि- सम्माइट्ठीणं सव्वेसिमेव
दो।
* सेसाणं कम्माणं सध्वत्थोवा श्रवत्तव्वसंकामया ।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
§ ४४५. कुदो ! बार सकसाय-गणोकसायाणमवत्तव्त्रसंकामयभावेण संखेजाणमुवसामयजीवाणं परिणमणदंसणा दो । अनंताचंधीणं पि पलिदोत्रमा संखेन्जभागमेत्तजीवाणं तब्भावेण परिणदावलंभादो |
* अप्पयरसंकामया अतगुणा ।
९ ४४६. कुदो ? सन्यजीवाणमसंखेज्जभागपमाणत्तादो ।
* भुजगार संकोमया असंखेजगुणा ।
६ ४४७. गुणगारपमाणमेत्थ अंतोमुहुत्तमेतं संचयकालानुसारेण साहेयब्बं । * अवद्विदसंकामया संखेज्जगुणा ।
९ ४४८. कुदो भुजगारकालादो अवदिकालस्स तावदिगुणत्तोवलंभादो । raमोघो समत्तो ।
९ ४४६. आदेसेण मणुसेसु मिच्छ० सव्वत्थोवा अप्पयर संकामघा । भुजगारसंका ०
* उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
४४४. क्योंकि जिनके संक्रमके योग्य उक्त दोनों कर्मोंकी सत्ता है ऐसे मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि सभीका यहाँ पर ग्रहण किया है ।
* शेष कर्मों के अवक्तव्य संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं ।
९ ४४५. क्योंकि बारह कषाय और नौ नौकषायोंके
वक्तव्यपदके संक्रमभावसे परिणत
हुए संख्यात उपशामक जीव देखे जाते हैं। तथा अनन्तानुबन्धियोंके भी वक्तव्यसंक्रमसे परिणत हुए पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव उपलब्ध होते हैं ।
* उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं ।
§ ४४६. क्योंकि ये सब जीवों के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं ।
* उनसे भुजगारसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
§ ४४७. यहाँ पर गुणाकारका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त सञ्चयकालके अनुसार साध लेना
चाहिए ।
* उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
§ ४४८. क्योंकि भुजगारपदके कालसे अवस्थितपदका काल संख्यातगुणा पाया जाता है । इसप्रकार श्रोघप्ररूपणा समाप्त हुई ।
९ ४४६. देशसे मनुष्योंमें मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामक जीब सबसे स्तोक हैं। उनसे
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे अणियोगदारणामणिदेसो १२१ असंखेजगुणा । सोलसक०–णवणोक० सव्वत्थोवा अवत्त०संका० । अप्प०संका० असंखे०गुणा । भुज संका० असंखे०गुणा। अबढि संका० संखे०गुणा । सम्म०-सम्मामि० विहत्तिभंगो। एवं मणुसपज०-भणुसिणीसु । णपरि संखेजगुणं कायव्यं । सेसमग्गणासु विहत्तिभंगो।
एवमप्पाबहुए समत्ते भुजगारसंकमो त्ति समत्तमणिओगद्दारं । ॐ पदणिक्खेवे त्ति तिषिण अणियोगद्दाराणि ।
६४५०. पदणिक्खेवो ति जो अहियारो जहण्णकस्सबाहि-हाणि-अबढाणपदाणं परूवओ ति लद्धपदणिक्खेवववएसो तस्सेदाणिमत्थपरूवणं कस्सामो। तत्थ य तिण्णि अणियोगहाराणि णादव्याणि भवंति । काणि ताणि तिणि अणियोगद्दाराणि ति पुच्छावकमुत्तरं
* तं जहा६४५१. सुगमं।
परूवणा सामित्तमप्पाबहुअं च । ६ ४५२. एवमेदाणि तिणि चेाणिओगद्दाराणि पदणिक्खेवविसयाणि; अण्णेसिं तत्त्थासंभवादो । एदेसु ताव परूवणाणुगभं वत्तइस्सामो ति सुत्तमाह
भुजगारसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें अल्पबहुत्व है। इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । शेष मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर भुजगारसंक्रम अनुयोगद्वा समाप्त हुआ। . * पदनिक्षेपमें तीन अनुयोगद्वार होते हैं ।
६४५०. जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानपदोंका कथन करनेवाला होनेसे पदनिक्षेप इस संज्ञाको धारण करनेवाला पदनिक्षेप नामक जो अधिकार है उसकी इस समय अर्थप्ररूपणा करते हैं। उसमें तीन अनुयोगद्वार होते हैं । वे तीन अनुयोगद्वार कौन हैं इस प्रकारकी सूचना करनेवाले आगेके पृच्छावाक्यको कहते हैं
* यथा। ६४५१. यह सूत्र सुगम है। * प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व ।
६४५२. इस प्रकार पदनिक्षेपको विषय करनेवाले ये तीन ही अनुयोगद्वार हैं, क्योंकि अन्य अनुयोगद्वार वहाँ पर असम्भव हैं । इनमेंसे सर्व प्रथम प्ररूपणानुगमको बतलाते हैं इस अभिप्रायसे सूत्र कहते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * परूवणाए सव्वेसिं कम्माणमत्थि उक्कस्सिया वढी हाणी अवट्ठाणं ।
जहपिणया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं । ६ ४५३. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि , एवं सव्यकम्मविसयत्तेण परविदजहण्णकस्सबड्डि-हाणि-अवट्ठाणाणमविसेसेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु वि अइप्पसंगे तत्थ पट्टिसंकमाभावपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
ॐ वरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वड्डी पत्थि। ६४५४. कुदो ? तदुभयाणुभागस्स वड्डिविरुद्धसहावत्तादो । तम्हा जहण्णुक्कस्सहाणिअवट्ठाणाणि चेत्र सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमथि त्ति सिद्धं । एवमोघेण परूवणा समत्ता । आदेसेण सव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो । संपहि सामित्तपरूवणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो
* सामित्तं ।
६४५५. सुगममेदमहियारसंभालणवयणं । तं च सामित्तं दुविहं जहण्णकस्सपदविसयभेएण । तस्सुक्कस्सपदविसयमेव ताव सामित्तणिदेसं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ६४५६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं।
* प्ररूपणाकी अपेक्षा सब कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है।
* तथा सब कर्मो की जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अप्रस्थान है । ६४५३. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार सब कर्मो के विषयरूपसे कहे गये जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका सामान्यसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें भी अतिप्रसङ्ग होने पर वहाँ वृद्धिसंक्रमके अभावका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* मात्र इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्र और सम्यग्मिथ्यात्वको वृद्धि नहीं होती।
६४५४. क्योंकि उन दोनोंका अनुभाग वृद्विके विरुद्ध स्वभाववाला है। इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तथा उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान ही होते हैं यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार ओघसे प्ररूपणा समाप्त हुई। आदेशसे सब मार्गणाओंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । अब स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अब स्वामित्वको कहते हैं।
६४५५. अधिकारकी सम्भाल करनेवाला यह वचन सुगम है। जघन्य और उत्कृष्टपदोंको विषय करनेरूप भेदसे वह स्वामित्व दो प्रकारका है। उनमें से उत्कृष्ट पदविषयक स्वामित्वका ही सर्व प्रथम निर्देश करते हुए भागेका सूत्र कहते हैं
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? ६४५६. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंक मे पद क्खेि सामित्त
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* सरिणपाओग्गजहए गए अणुभागसंक्रमेण अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो तदो उक्कस्सयमणुभागं पबडो तस्स आवलियादीदस्स उक्कस्सिया वड्ढी |
§ ४५७, एत्थं सण्णिपाओग्गजहण्णाणुभाग संकमविसेसणमेड दिया दिपाओग्गजहण्गाणुभागसंकमपडिसेहट्ठ ं । किमड तप्पडिसेहो कीरदे ? ण, तदवस्थापरिणामस्स उकस्सारणुभागबंधविरोहित्तादो | उक्कस्ससंकिलेसं गदो ति णिद्देसेणाणुकस्ससंकिलेसपरिणामपडिसेहो कओ । किं फलो तप्पडिसेहो ? ण, उक्कस्ससंकिलेसेण विणा उकस्सारणुभागबंधोण होदि ति जाणवणफलता दो । एदस्सेव फुडीकरणडुमिदं वुच्चदेतदो उक्कस्सयमणुभागं पत्रद्धोति । तदो उकस्ससंकिलेस परिणामादो उकस्साणुभागं पजवसाणाणुभागबंधट्टाणं बंधिदुमाढत्तो ति
होदि | उकस्सा भागबंधपढमसमए चैत्र संकमपाओग्गभावो णत्थि, किंतु धावलियादीदस्स चैव होइ ति पदुपायणमिदमाह — तस्स आवलियादीदस्स उकस्सिया बढि ि एत्थ पिमाणमसंखेज लोगमेत्ताणि छट्टाणाणि अनंतर हेडिमसमय तप्पा ओग्गजहण्णचउणाणुभागसंकमे उकस्साणुभागबंधम्मि सोहिदे सुद्ध से सम्मि तप्पमाणदंसणा दो । एवमुकस्स
* संज्ञियोंके योग्य जघन्य अनुभागसंकमके साथ स्थित हुआ जो जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, बन्धसे एक आवलिके बाद वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है ।
४५७. यहाँ पर सूत्र में जो संज्ञियोंके योग्य जघन्य अनुभागसंक्रमरूप विशेषरण दिया है वह एकेन्द्रियादि जीवोंके योग्य जवन्य अनुभागसंक्रमका निषेध करनेके लिए दिया है । शंका-उसका निषेध किसलिए करते हैं ?
समाधान— नहीं, क्योंकि उस प्रकारकी अवस्थासे युक्त परिणाम उत्कृष्ट अनुभागबन्धका विरोधी है ।
सूत्र में 'उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ' इस प्रकारके निर्देशद्वारा अनुत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामका निषेध किया ।
शंका-उसके निषेधका क्या फल है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशके बिना उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता है इस बातका ज्ञान कराना उसका फल है ।
पुनः इसी बात स्पष्ट करने के लिए 'उससे उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया' यह वचन कहा है । 'तदो' अर्थात् उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाम से उत्कृष्ट अनुभागको अर्थात् अन्तिम अनुभागवन्धस्थानको बाँधने के लिए प्रारम्भ किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उत्कृष्ट अनुभागवन्धके प्रथम समयमें ही संक्रमके योग्य कर्म नहीं होता । किन्तु बन्धावलिके व्यतीत होने पर ही वह संक्रमके योग्य होता है इस बातका कथन करनेके लिए 'एक प्रावलि व्यतीत होने के बाद उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है' यह वचन कहा है । यहाँ पर वृद्धिका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थान हैं, क्योंकि अनन्तर अधस्तन समयके तत्प्रायोग्य जघन्य चतुःस्थान अनुभागसंक्रमको उत्कृष्ट अनुभागबन्धसे घटा देने पर शेष बचे हुए अनुभाग में असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थान देखे जाते हैं । इस प्रकार
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
वड्डी सामित्तविणिण्णयं काढूण संपहि एत्थ उकस्सावद्वाणस्स वि सामित्तविहाणमुत्तर
सुत्तायारो
* तस्स चेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं ।
९ ५५८. जो उकस्सीए सामित्तेण परिणदो तस्सेव तदनंतरसमए उकस्सयमवट्ठाणं दट्ठव्त्रं । कुदो ? तत्थुकस्सवपिमाणेण संकमडाणावट्ठाणदंसणादो । संपहि उकस्सहाणिविसयसा मित्तगवेसणद्वमुत्तरमुत्तं—
* उक्कस्सिया हांणी कस्स ?
६ ४५६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
* जस्स उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं तेण उक्कस्सयमणुभागखंडयमागाइदं तम्मि खंडये घादिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी ।
६ ४६०. जस्स उकस्सयमणुभागसंतकम्मं जादं तेण विसोहिपरिणदेण सव्वुक्कस्सयमरणुभागखंडयमागाइदं तदो तम्मि खंडये घादिजमाणे घादिदे तत्थुक्कस्सिया हाणी होइ, तत्थाणुभागसंतकम्मस्साणंताणं भागाणमसंखेजलोगमेत्तछाणावच्छिणाणमेकवारेण हाणि - दंसणादो | संपहि किमेसा उकस्सिया हाणी उकस्सवपिमाणा, आहो ऊणा अहिया वाि एवंविहसंदेहणिराय रणमुहेण अप्पा बहुअसाहणमेत्थ किंचि अत्थपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भण
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उत्कृष्ट वृद्धि स्वामित्वका निर्णय करके अब यहाँ पर उत्कृष्ट अवस्थानके भी स्वामित्वका विधान करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है
* तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है ।
९ ४५८. जो उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट वृद्धिके प्रमाणसे संक्रमका अवस्थान देखा जाता है । अब उत्कृष्ट हानिविषयक स्वामित्वका विचार करनेके लिए श्रागेका सूत्र कहते हैं
* उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ?
६ ४५६. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
* जिसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म है वह जब उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको ग्रहण कर उस काण्डका घात करता है तब वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है ।
९ ४६०. जिसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म विद्यमान है, विशुद्धि से परिणत हुए उसने सबसे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको ग्रहण किया । अनन्तर जब वह उस काण्डकका घात करते हुए पूरी तरहसे घात कर देता है तब उसके उत्कृष्ट हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर अनुभागसत्कर्मके असंख्यातलोकप्रमाण छह स्थानोंसे युक्त अनन्त भागोंकी हानि देखी जाती है । अब यह उत्कृष्ट हानि क्या उत्कृष्ट वृद्धि के बराबर है अथवा उससे न्यून या अधिक है इस प्रकार इस तरह के सन्देहको दूर करने के अभिप्राय से अल्पबहुत्वकी सिद्धि करनेके लिए कुछ अर्थप्ररूपणाको करते हुए आगेकी सूत्रपरिपाटीका कथन करते हैं
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
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* तप्पात्रोग्गजहणणाणुभागसंकमादो उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण जं बंधदि सो बंध बहुगो ।
§ ४६१. कत्तो एदस्स बहुत्तं विवक्खियं ? उवरि भणिस्समाणाणुभागखंडयायामादो । * जमणुभागखंडयं गेण्हइ तं विसेसहोणं ।
§ ४६२. केत्तियमेत्तेण १ तदणंतिमभागमेत्तेण । कुदो ? विदारणुभागस्स णिरवसेसघादसत्तीए असंभवादो ।
* एदमप्पाबहुत्रस्स साहणं ।
§ ४६३. एदमणंतरपरूविदमुकस्सबंधवुडीदो उक्कस्सा णुभा गखंडयसिसेसहीणत्तमुवरि भणिस्समाणमप्पा बहुअस्स साहणं, अण्णहा तण्णिष्णयोवायाभावादो त्ति भणिदं होइ । * एवं सोलसकसाय- एवणोकसायाणं ।
९ ४६४. जहा मिच्छत्तस्स तिण्हमुक्कस्सपदाणं सामित्तविणियो कओ एवमेदेसि पि कम्माणं कायव्त्रो, विसेसाभावादो ।
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी कस्स ?
४६५. सुगमं ।
* तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागसंक्रमसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त करके जिसका बन्ध करता है वह बहुत है ।
६४६१. शंका — किससे इसका बहुत्व विवक्षित है ?
समाधान-गे कहे जानेवाले अनुभागकाण्डक के आयामसे इसका बहुत्व विवक्षित है । * उससे जिस अनुभागकाण्डकको ग्रहण करता है वह विशेष हीन है ।
६४६२. कितना हीन है ? उसका अनन्तवाँ भाग हीन है, क्योंकि वृद्धिको प्राप्त अनुभागका पूरी तरह से घात करनेरूप शक्तिका होना असम्भव है ।
* यह वक्ष्यमाण अल्पबहुत्वका साधक है ।
९ ४६३. यह जो पहले उत्कृष्ट बन्धवृद्धि से उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकविशेषकी हीनता कही है सो वह आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वका साधक है, अन्यथा उनका निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकवायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए ।
६ ४६४. जिस प्रकार मिध्यात्व के तीन उकृष्ट पदोंके स्वामीका निर्णय किया उसी प्रकार इन कभी उक्त पदों के स्वामीका निर्णय करना चाहिए, क्योंकि इनके स्वामित्वके निर्णय करनेमें अन्य कोई विशेषता नहीं है ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? ४६५. यह सूत्र सुगम है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
* दंसणमोहणीयक्खवयस्स विदियअणुभागखंडयपढमसमयसंकामयस्स तस्स उक्कस्सिया हाणी |
$ ४६६. दंसणमोहक्खवणाए अपुव्त्रकरणपढमाणुभागखंडयं घादिय विदियाणुभागखंड माणस पढमसमए पयदकम्माणमुकरसहाणी होइ, तत्थ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमणुभागसंतकम्मरसागंताणं भागाणमेकवारेण हाणी होतॄणाणंतिमभागे' समवाण
दो |
* तस्स चेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं ।
६ ४६७. तस्स चैत्र उकस्सह । णिसामियस्स तदणंतरसमए उकस्सयमवद्वाणं होई, वडहा वित्तियमेते चैव तदवाणदंसणादो । एवमोघो समत्तो ।
$ ४६८. आदेसेण मणुसतिए ओवं । एवं रइयस्स । णवरि सम्मा मि० उक्क० हाणी णत्थि । सम्मत० विहत्तिभंगो | एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्खदुग - देवा सोहम्मद जाव सहस्सार ति । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेत्र । णवरि सम्मत्त ० उक्क० हागी णत्थि । एवं जोणिणि० - भगण० - चाण० - जोदिसिए ति । पंचिं० तिरिक्ख
* जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव द्वितीय अनुभाग काण्डका प्रथम समय में संक्रमण कर रहा है वह उनकी उत्कष्ट हानिका स्वामी है ।
§ ४६६. दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा प्रथम अनुभाग काण्डका घातकर जो दूसरे अनुभाग काण्डक में विद्यमान है अर्थात् जिसने दूसरे अनुभागकाण्डकके घातका प्रारम्भ किया है वह उसके प्रथम समय में प्रकृत कर्मोंकी उत्कृष्ट हानिका स्वामी है, क्योंकि वहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यके अनुभागसत्कर्म के अनन्त बहुभागों की एकबार में हानि होकर अनन्त भागप्रमाण अनुभाग में अवस्थान देखा जाता है ।
* तथा वही जीव अनन्तर समयमें उनके उत्कष्ट अवस्थानका स्वामी है ।
९ ४६७. जो उत्कृष्ट हानिका स्वामी है उसीके अनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है, क्योंकि वृद्धि और हानिके बिना उतने में ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के संक्रामकका स्थान देखा जाता है ।
इस प्रकार घ प्ररूपणा समाप्त हुई ।
४६. आदेश से मनुष्यत्रिक में के समान भङ्ग हैं। इसी प्रकार नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट हानि नहीं है । तथा सम्यक्त्वका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है। इसी प्रकार पहिली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि नहीं है । इसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवों में जानना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनादि
१ ता०प्रतौ ' -वारेण हो (हा) दूगारांतिभागे' श्रा० प्रती ' -वारेण होइदूगारांतिमभागे' इति पाठः ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
१२७ अपज०-मणुसअपज०-आणदादि सबट्ठा ति विहत्तिभंगो। एवं जाव० ।
___एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । ६४६६. संपहि जहण्णसामित्तविहासणट्ठमुवरिमो सुत्तसंदभो
मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी कस्स ? ६४७० सुगमं ।
* सुहुमेइंदियकम्मेण जहएणएण जो अणंतभागेण वड्डिदो तस्स जहएिणया वड्डी।
६४७१. जो जीवो सुहुमेई दियकम्मेण जहण्गएण अच्छिदो संतो परिणामपच्चएणाणंतभागेण वडिदो तस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति सुत्तत्थसब्भावो ।
कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकको छोड़कर अन्यत्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं होता, इसलिए सामान्य नारकी, प्रथम पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यश्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिका निषेध किया है । किन्तु इन मार्गणाओंमें कृतकृत्यबेदकसम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है और उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि भी देखी जाती है। फिर भी वह ओघके समान सम्भव न होनेसे उसे अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, योनिनी तिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इनमें सम्यग्मिथ्यात्वके समान सम्यक्त्वके जाननेकी सूचना की है। वहां सम्यक्त्य और सम्यग्मिथ्यात्वके सिवा अन्य सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है । अब रहीं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव ये मार्गणाएं सो इनमें अनुभागविभक्तिमें जिस प्रकार स्वामित्वका निर्देश किया है उसी प्रकार यहाँ स्वामित्वके प्राप्त होने में कोई . बाधा नहीं आती, इसलिए इनमें अनुभागविभक्तिके समान स्वामित्वके जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है।
___ इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ६४६६. अब जघन्य स्वामित्वका ब्याख्यान करनेके लिए आगेके सूत्रसंदर्भको प्रकाशमें लाते हैं
* मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? ६४७०, यह सूत्र सुगम है।
* जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्मके साथ उसमें अनन्तभागवृद्धि करता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है।
६४७१. जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ स्थित होता हुआ परिणमवश अनन्तभागवृद्धिको प्राप्त हुआ उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है इस प्रकार सूत्रार्थका सद्भाव है।
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भादो १
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* जहणिया हाणी कस्स ?
६४७२. सुगमं ।
* जो वाविदो तम्मि घादिदे तस्स जहणिया हाणी । ६ ४७३. सुहुमणिगोदजहण्गाणुभागसंकमादो जो वाविदो अणुभागो सव्जीवरासपडिभागिओ तम्मि चैव विसोहिपरिणामवसेण घादिदे तस्स जहण्णिया हाणी होड़, सियाभागस्सेव तत्थ हाणिसरूवेण परिणामदंसगादो। ण चाणंतिमभागस्स खंडवादो णत्थि ति पचवयं संसारावत्थाए छविहाए हाणीए खंडयवादस्स पवुत्तिअब्भुवगमादो । तस्स च णिबंधणमेदं चेत्र सुत्तमिदि ण किंचि विष्पडिसिद्धं ।
* एगदरत्थमवद्वाणं ।
९ ४७४. कुदो ? जहण -हाणीणमण्णदरस्स से काले अबट्ठा गसिद्धीए पबाहाणुव
* एवमठ्ठकसायाणं ।
४७५. सुगममेदमप्पणासुत्तं,
पत्तदो ।
[ बंधगो ६
मिच्छत्तादो
सामित्तमेदाभाव मेदेसिमवलंबिय
* जघन्य हानिका स्वामी कौन है ?
६४७२. यह सूत्र सुगम है ।
* अनन्तवृद्धिरूप जो अनुभाग बढ़ाया गया उसका घात करने पर वह जघन्य हानिका स्वामी है ।
९४०३. सूक्ष्म निगोदके जघन्य अनुभाग संक्रमसे सब जीव राशिका भाग देकर जो अनुभाग बढ़ाया गया उसका ही विशुद्ध परिणामवश घात करने पर उसके जघन्य हानि होती है, क्योंकि जघन्य वृद्धि के विषयभावको प्राप्त हुए अनुभागका ही वहाँ पर हानिरूपसे परिणमन देखा जाता है । अनन्त भागका काण्डकघात नहीं होता ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं, क्योंकि संसार अवस्था में छह प्रकारकी हानिरूपसे काण्डकघातकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है। और इस बातके ज्ञानका कारण यही सूत्र है, इसलिए कुछ भी विप्रतिपत्ति नहीं है ।
* तथा इनमें से किसी एक स्थान पर अनन्तर समयमें वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है ।
§ ४७४. क्योंकि जघन्य वृद्धि और जघन्य हानि इनमें से किसीका अनन्तर समयमें अक्स्थानरूप प्रवाह उपलब्ध होता है ।
* इसी प्रकार आठ कषायोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए ।
६४७५. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि मिध्यात्व से इनके स्वामियोंमें भेद नहीं है इस तथ्यका अवलम्बन कर इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है ।
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१२६.
गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
ॐ सम्मत्तस्स जहरिणया हाणी कस्स ? ६४७६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
* दसणमोहणोयक्खवयस्स समयाहियावलियअक्खीणदसणमोहणीयस्स तस्स जहरिणया हाणी ।
४७७. कुदो ? तत्थाणुसमयोवट्टणावसेण सुट्ठ थोत्रीभूदाणुभागसंतकम्मादो तक्काले थोवयराणुभागसंक्रमहाणिदंसणादो।
* जहएणयमवहाणं कस्स ? ६४७८. सुगमं ।
* तस्स चेव दुचरिमे अणुभागखंडए हदे चरिमअणुभागखंडए वहमाणखवयस्स।
६४७६. तस्स चे दंसणमोहक्खायस्स दुचरिमाणुभागखंडयं घादिय तदणंतरसमयतप्पाओग्गजहण्णहाणीए परिणदस्स चरिमाणुभागखंडयविदियसमयप्पहुडि जावंतोमुहुत जहणगावट्ठाणसंक्रमो होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो।
* सम्मामिच्छत्तस्स जहपिणया हाणी कस्स ? ६४८०.सुगमं ।
* सम्यक्त्वकी जधन्य हानिका स्वामी कौन है । ६४७६. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
* दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके जब उसकी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहता है तब वह सम्यक्त्वकी जघन्य हानिका स्वामी है।
६४७७. क्योंकि वहाँ पर प्रत्येक समयमें होनेवाली अपवर्तनाके कारण अत्यन्त थोड़े अनुभाग सत्कर्मसे उस समय स्तोकतर अनुभागकी संक्रम हानि देखी जाती है। ____ * इसके जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ?
६४७८. यह सूत्र सुगम है।
* जब वही क्षपक द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात होनेके बाद चरम अनुभागकाण्डकमें अवस्थित रहता है तब वही दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव उसके जघन्य अवस्थानका स्वामी है।
६४७६. द्विचरम अनुभागकाण्डकका घातकर अनन्तर समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य हानिरूपसे परिणत हुए उसी दर्शनमोहनीयके क्षपक जीवके अन्तिम अनुभागकाण्डकके दूसरे समयसे लेकर अन्तमुहूर्त काल तक जघन्य अवस्थानसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
* सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? ६४८०. यह सूत्र सुगम है ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
* दंसणमोहणीयक्खवयस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहरिया हाणी |
९४८ १. कुदो दुरिमाणुभागखंडयसंकमा दो अनंतगुणहाणीए हाइदूण चरिमाणुभागखंडयसरूवेण परिणदस्स पढमसमए जहण्णभावसिद्धीए वाहावलंभादो । * तस्स चेव से काले जहणणयमवद्वाणं ।
१३०
६ ४८२. तस्स चैव जहण्णहाणिसंकमसामियस्स से काले जहण्णयभवद्वाणं होड़, तत्थ जाणिमाव कमावद्वाणदंसणादो ।
* ताणबंधीणं जहणिया वड्डी कस्स ?
४८३. सुगमं ।
* विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण तप्पात्रोग्गविसुद्ध परिणामेण विदियसमए तप्पा ओग्गजहणणाणुभागं बंधिऊण आवलियादीदस्स तस्स जहरिया वड्डी |
९ ४८४. एदस्स सुत्तस्स अत्थो । तं जहा - अणताणुबंधिच उक्क विसंजोएदृण पुणो तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण मिच्छत्तं गंतूण विदियसमए त्रि तप्पा ओग्गविसुद्धपरिणामेण परिणदो संतो जो तप्पा ओग्गजहण्णाणुभागं बंधिऊणावलियादीदो तस्स पयदजहण्णसामित्त होइ ति
* जो दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव सम्यग्मिथ्यात्वके द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात कर चुकता है वह उसकी जघन्य हानिका स्वामी है ।
९४८१. क्योंकि द्विचरम अनुभागकाण्डकसंक्रमसे अनन्तगुणहानिद्वारा अन्तिम अनुभागकाण्डकरूपसे परिणत हुए जीवके प्रथम समयमें जघन्यभावकी सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं उपलब्ध होती ।
* तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है ।
६ ४८२. जघन्य हानिसंक्रमका स्वामी है उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है, क्योंकि वहाँ पर जघन्य ह निके प्रमाणरूपसे ही संक्रमका अवस्थान देखा जाता है ।
* अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ?
६ ४८३. यह सूत्र सुगम है ।
* जो विसंयोजना करके पुनः मिथ्यात्वमें जाकर तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामसे दूसरे समय में तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागका बन्ध कर एक आवलि काल व्यतीत करता है। वह उनकी जघन्य वृद्धिका स्वामी है ।
६४८४. इस सूत्र का अर्थ, यथा - अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके पुनः तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम के साथ मिध्यात्वमें जाकर दूसरे समय में भी तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामसे परिणत होकर जिसने तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागका बन्ध कर एक आवलि काल व्यतीत किया है उसके प्रकृत
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ग!० ५८ ]
उत्तरपर्याडप्रणुभागसँक पदणिक्खेवे सामित्त
सुत्तत्संबंधो । एत्थ तप्पा ओग्गविसुद्धपरिणामेणे ति णिद्देसो पढमसमयजहण्णाणुभागधादो विदियसमए जहण्णवुड्डिसंगहणडो । एत्थ पढमसमयजहण्णबंधादो विदियसमय तप्पा ओग्गजहण्णाणुभागबंधी कदमाए वड्डीए वढिदो ? अनंतगुणबड्डीए । कुदो एवं चैत्र ? संजुत्त पढम समय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तं तात्र अणंतगुणबड्डीए संकिलेस डिि परमइरिओवसादो | एवं वृत्तविहाणेण विदियसमए वड्ढिदूण तत्तो आवलियादीदस्स तस्स जहणिया बड्डी, अगइच्छाविदबंधावलियम्स णवकबंधस्स संक्रमपाओग्गभावाणुववत्तीदो । एत्थ मिच्छत्तस्सेव सुहुमहदसमुप्पत्तियकम्मादो अर्णतभागबड्डीए वड्डिदस्स जहण्णसामित्तं काव्यमिदि णासंका कायन्त्रा णत्रकबंधसरूवादो एदम्हादो तस्साणंतगुणत्तेण तहा कादुमसकियत्तादो । णानंतगुणत्तम सिद्धं, उवरिमसुत्तबलेण सिद्धसरूवत्तादो |
* जहरिणया हाणी कस्स ?
१३९
४८५. सुगमं ।
* विसंजोएऊण पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्त संजुते वि तस्स सुहमस्स हेट्ठदो संतकम्मं ।
जघन्य स्वामित्व होता है । इस प्रकार यह सूत्रार्थका सम्बन्ध है । यहाँ पर सूत्रमें 'तप्पा ओग्गविसुद्धिपरिणामेण' यह निर्देश प्रथम समय में होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धसे दूसरे समय में होनेवाली जन्य वृद्धि के संग्रह के लिए दिया है ।
शंका—यहाँ पर प्रथम समयके जघन्य बन्धसे दूसरे समयका तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध कौनसी वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है ?
समाधान — अनन्तगुणवृद्धिके द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है ।
शंका- ऐसा किस कारण से है ?
समाधान —क्योंकि संयुक्त होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक अनन्तगुणवृद्धिरूप से संक्लेशकी वृद्धि होती है ऐसा परम आचार्यो का उपदेश है ।
इस प्रकार उक्त विधि से दूसरे समय में वृद्धि करके वहाँसे एक आवलिके बाद स्थित हुए जीवके जघन्य वृद्धि होती है, क्योंकि अतिस्थापनारूपसे स्थापित बन्धावलि कालके भीतर नवकबन्ध संक्रमके योग्य नहीं होता । यहाँ पर मिथ्यात्व कर्मके समान सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिककर्म से जिसका अनन्तानुबन्धीचतुष्क अनन्तभागवृद्धि के द्वारा वृद्धिगत हुआ है उसके जघन्य स्वामिल करना चाहिए ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नवकबन्धरूप इससे वह अनन्तगुणा है, इसलिए वैसा करना अशक्य है । वह अनन्तगुणा है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उपरिम सूत्रके बलसे सिद्ध ही है ।
* उनकी जघन्य हानिका स्वामी कौन है ?
९४८५. यह सूत्र सुगम है । .
* बिसंयोजना करके तथा पुनः मिथ्यात्वमें जाकर संयुक्त होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल होने पर भी जिसके उक्त प्रकृतियोंका सत्कर्म सूक्ष्म एकेन्द्रियके सत्कर्मसे कम है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६४८६. पयदजहण्णसामित्तसाहणट्ठमिदं ताव पुवमेव णिद्दिट्टमट्ठपदं विसंजोयणापुन्वसंजोगविसयणवकबंथाणुभागस्स अंतोमुहुत्तकालभावियस्स सुहुमाणुभागादो अणंतगुणहीणतपदुप्पायणपरत्तादो । ण च तत्तो एदस्साणंतगुणहीणत्ताभावे तप्परिहारेणेत्थ सामित्तविहाणं जुत्त, तहा संते तत्थेव सामित्तविहाणे लाहदसणादो। एदेण पुचिल्लं पि जहण्णवड्डिसामित्तं समत्थियं दट्ठव्वं, एयंताणुवड्ढिचरिमाणुभागादो अणंतगुणहीणस्स तस्स सुहमाणभागदो हेट्ठदो समवट्ठाणे विसंवादाणुवलंभादो । एवमेदं सामित्तसाहणमट्ठपदं परूविय संपहि एत्थ जहण्णहाणिसंभवक्कमपदंसणट्ठमिदमाह
* तदो जो अंतोमुहुत्तसंजुत्तो जाव सुहुमकम्मंजहएणयं ण पावदि ताव घादं करेज्ज।
६४८७. जदो एवं तदो जो अंतोमुहुत्तसंजुत्तो जीवो सो जाव सुहुमकम्मं जहण्णं ण पावइ ताव संकिलेसादो विसोहिं गंतूणाणुभागखंडयधादं सिया करेज, संते संभवे सकारणसामग्गीवसेण तप्पवुत्तीए 'पडिबंधाभावादो। एदेण सुहुमाणुभागसंतकम्ममवोलीणस्स खंडयघादासंभवासंका पडिसिद्धा दट्टया । तत्तो हेट्ठा चेव एयंताणुवड्डिकालस्स परिच्छेद
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww
६४८६. प्रकृत जघन्य स्वामित्वकी सिद्धिके लिए पहले ही इस अर्थपदका निर्देश किया है, क्योंकि यह वचन विसंयोजनापूर्वक पुनः संयुक्त होनेपर अन्तर्मुहूर्तकाल तक होनेवाले नवकबन्धसम्बन्धी अनुभागके सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी अनुभागसे अनन्तगुणी हीनताके कथन करनेमें तत्पर है । यदि कहा जाय कि उससे यह अनन्तगुणा हीन नहीं है, इसलिए उसके परिहार द्वारा यहीं पर स्वामित्वका विधान करना युक्त है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वैसी अवस्थामें वहीं पर स्वामित्व का विधान करनेमें लाभ देखा जाता है । इस वचन द्वारा पूर्वोक्त जघन्य वृद्धिके स्वामित्वको भी समर्थित जान लेना चाहिए, क्योंकि वह एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम अनुभागसे अनन्तगुणा हीन है, इसलिए उसके सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी अनुभागसे कम होकर अवस्थित रहने में कोई विसंवाद नहीं पाया जाता । इस प्रकार स्वामित्वका साधन करनेवाले इस अर्थपदका कथन करके अब यहाँ पर जघन्य हानिके सम्भव क्रमको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* तदनन्तर अन्तमुहूर्त कालतक संयुक्त हुआ जो जीव जबतक जघन्य सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी कर्मको नहीं प्राप्त करता है तब तक घात करता है ।
६४८७. यतः ऐसा है अतः अन्तमुहूर्त कालतक संयुक्त हुआ जो जीव है वह जबतक जघन्य सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बधी कर्मको नहीं प्राप्त करता है तब तक संक्लेरासे विशुद्धिको प्राप्त करके कदाचित् अनुभागकाण्डकघात करता है, क्योंकि सम्भव होने पर अपनी कारणसामग्रीके कारण उसकी उत्पत्ति होनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इससे जिसका सूक्ष्म एकेन्द्रियसन्बन्धी अनुभागसत्कर्म अभी गत नहीं हुआ है ऐसे उस जीवके काण्डकघात असम्भव है ऐसी आशंकाका निषेध जान लेना चाहिए, क्योंकि उससे नीचे ही एकान्तानुवृद्धिके कालका सद्भाव स्वीकार किया गया
१. ता प्रतौ प [य] डि, पा प्रतौ पयडि इति पाठः ।
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
१३३ भुवगमादो। एवं च संभवो होइ ति कयणिच्छयो पयदजहण्णसामित्तविहाणमेत्येव जुत्तं पेच्छमाणो तण्णिद्धारणट्ठमुत्तरसुत्त भणइ
तदो सव्वत्थोवाणुभागे धादिजमाणे घादिदे तस्स जहणिया हाणी।
६४८८. जदो एस संभवो तदो तस्स अंतोमुहुत्तसंजुत्तमिच्छाइद्विस्स सत्थाणविसोहिणिबंधणखंडयघादपरिणदस्स जहणिया हाणी दट्टया ति सुत्तत्थसंबंधो। एत्थ सव्वत्थोवाणुभागे घादिज्जमाणे घादिदे त्ति वुत्ते छबिहाए हाणीए वि खंडयघादसंभवे जहण्णसामित्ताविरोहेणाणंतभागहाणीए खंडयघादेण परिणदो ति घेत्तव्यं ।
* तस्सेव से काले जहएणयमवहाणं ।
६४८६. तस्यैवानंतरनिर्दिष्टहानिसंक्रमस्वामिनः तदनंतरसमये जघन्यकमवस्थानमिति यावत् ।
* कोहसंजलणस्स जहरिणया वड्डी मिच्छत्तभंगो। ६४६०. ण एत्थ किंचि बोत्तव्यमस्थि,मिच्छत्तजहण्गवड्डिसामित्तसुत्तेणेव गयत्थादो ।
जहणिणया हाणी कस्स ? ६४६१. सुगमं ।
है। ऐसा सम्भव है ऐसा निश्चय करने के बाद प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान यहीं पर युक्त है ऐसा समझते हुए उसका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अनन्तर सबसे स्तोक घाते जानेवाले अनुभागके घातित होने पर वह जघन्य हानिका स्वामी है।
६४८८. यतः ऐसा सम्भव है अतः अन्तर्मुहूर्त काल तक संयुक्त हुए तथा स्वस्थान विशुद्धि निमित्तक काण्डकघातरूपसे परिणत हुए उस मिथ्यादृष्टि जीवके जघन्य हानि जाननी चाहिए इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध है । यहाँ पर सूत्र में 'सवत्थोवाणुभागे घादिजमाणे घादिदे' ऐसा कहने पर यद्यपि छह प्रकारकी हानि द्वारा काण्डकयात सम्भव है रो भी जवन्य स्वामित्वकी अविरोधिनी अनन्तभागहानिके द्वारा होनेवाले काण्डकबातरूपसे परिणत हुआ ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
* तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है ।
६४८६. जो अनन्तर हानिसंक्रमका स्वामी कह आये हैं उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* क्रोधसंज्वलनकी जघन्य वृद्धिके स्वामीका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है।
६४६०. यहाँ पर फुछ वक्तव्य नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धिके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रसे ही यह सूत्र गतार्थ हो जाता है।
* उसकी जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? ६४६१. यह सूत्र सुगम है।
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१३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * खवयस्स चरिमसमयबंधचरिमसमयसंकामयस्स ।
४६२. एत्थ चरिमसमयबंधो ति वुत्ते कोहतदियसंगहकिट्टिवेदयचरिमसमयबद्धणवकबंधाणुभागो धेत्तव्यो । तस्स चरिमसमयसंकामओंणाम माणवेदगद्धाए दुसमऊणदोआवलियचरिमसमए वट्टमाणो ति गहेयव्यं । तस्स कोधसंजलणाणुभागसंकमणिबंधणा जहणिया हाणी होइ।
ॐ जहएणयमवट्ठाणं कस्स ? ६४६३. सुगमं।
8 तस्सेव चरिम अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स। (४६४. तस्सेव खवयस्स जहण्णयमवट्ठाणं होइ त्ति सामित्तसंबंधो काययो । कदमाए अवत्थाए वट्टमाणस्स तस्स सामित्नाहिसंबंधो ? चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स । चरिमाणुभागखंडयं णाम किट्टिकारयचरिमावत्थाए घेत्तव्यं, उपरिमणुसमयोवट्टणाविसए खंडयघादासंभवादो। तदो दुचरिमाणुभागखंडयं घादिय चरिमाणुभागखंडयपढमसमए तप्पाओग्गहाणीए परिणदस्स विदियसमए पयदजहण्णसामित्तं दडव्यं ।
* अन्तिम समयमें हुए बन्धका अन्तिम समयमें संक्रम करनेवाला क्षपक जीव उसको जघन्य हानिका स्वामी है।
६४६२. यहाँ पर सूत्रमें 'अन्तिम समयमें हुआ बन्ध' ऐसा कहने पर उससे क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवालके अन्तिम समयमें बँधे हुए नवकबन्धका अनुभाग लेना चाहिए। उसका अन्तिम समयमें संक्रमण करनेवाला ऐसा कहनेसे मानवेदक कालके दो समय कम दो आवलिके अन्तिम समयमें विद्यमान जीव लेना चाहिए। उसके क्रोघसंज्वलनके अनुभागसंक्रमसम्बन्धी जघन्य हानि होती है।
* जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? ६४६३. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान वही जीव जघन्य अवस्थानका स्वामी है।
६४६४. वही क्षपक जघन्य अवस्थानका स्वामी है इस प्रकार स्वामित्वका सम्बन्ध करना चाहिए।
शंका-किस अवस्थामें विद्यमान हुए उसके स्वामित्वका सम्बन्ध होता है ?
समाधान-अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान जीवके होता है । अन्तिम अनुभागकाण्डक कृष्टिकारककी अन्तिम अवस्था में होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आगे प्रत्येक समयमें होनेवाली अपवर्तनाके स्थलपर काण्डकघातका होना असम्भव है। इसलिए द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात करके अन्तिम अनुभागकाण्डकके प्रथम समयमें तत्प्रायोग्य हानिरूपसे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
* एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं ।
९ ४६५. कुदो ? वड्डीए मिच्छत्तभंगेण हाणि अवट्ठाणाणं पि खवयस्स चरिमसमयणवकबंधच रिमफालिविसयत्तेण चरिमाणुभागखंडयविसयत्तेण च सामित्तपरूवणं पडि विसेसाभावादो ।
* लोहसंजलणस्स जहणिया वड्डी मिच्छत्त भंगी ।
९ ४६६. सुगमं ।
* जहणिया हाणी कस्स ?
४७. सुगमं ।
१३५
* खवयस्स समयाहियावलि यसकसा यस्स ।
६ ४६८. समयाहियाबलियसकसायो णाम सुहुमसांपराओ सगद्धाए समया हियावलियसेसाए बट्टमाणो घेत्तव्यो । तस्स पयदजहण्णसामित्तं दव्वं एतो सुहुमदरहाणीए लोहसंजला भाग संकमणिबंधणाए. अण्णत्थावल द्वीदो ।
* जहण्णयमवट्ठाणं कस्स ? ४६६. सुगमं ।
* इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए ।
९ ४६५. क्योंकि वृद्धिकी अपेक्षा मिथ्यात्वके भङ्ग तथा हानि और अवस्थानकी अपेक्षा भी क्षपके अन्तिम समय में होनेवाले नवकबन्धके अन्तिम फालिके विपयरूपसे और अन्तिम अनुभागarusthaपरूपसे स्वामित्वके कथन करनेके प्रति कोई विशेषता नहीं है ।
* लोभसंज्वलनकी जघन्य वृद्धिके स्वामीका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है । ६४६६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य हानिका स्वामी कौन है ?
६४६७. यह सूत्र सुगम है ।
* जिस क्षपकके संज्वलनलोभकी क्षपणा में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है वह उसको जघन्य हानिका स्वामी है ।
९ ४६८. यहाँ पर 'समयाधिक आवलिसकसाय' पदसे अपने कालमें एक समय अधिक एक वलि काल शेष रहने पर विद्यमान सूक्ष्मसाम्परायिक जीव लेना चाहिये। उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए, क्योंकि इससे लोभ संज्वलन के अनुभागके संक्रमसे होनेवाली सूक्ष्म हानि अन्यत्र नहीं उपलब्ध होती ।
* जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है। ६४६६. यह सूत्र सुगम है ।
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१३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * दुचरिमे अणुभागखंउए हदे चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स ।
६५००. कोहसंजलणजहण्गावट्ठाणसंकमसामित्तसुत्तस्सेव गिरवयवमेदस्स सुत्तस्सत्थपरूवणा कायया।
* इत्थिवेदस्स जहरिणया वड्डी मिच्छत्तभंगो।
६५०१. कुदो ? सुहुमहदसमुप्पत्तियकम्मेण जहण्णएणाणंतभागवड्डीए पट्टिदम्मि सामित्तपडिलंभं पडि तत्तो एदस्स भेदाभावादो ।
* जहणिया हाणी कस्स ? ६५०२. सुगमं ।
चरिमे अणुभागखंडए पढमसमयसंकामिदे तस्स जहपिणया हाणी। ६५०३. इस्थिवेदस्स दुचरिमाणुभागखंडयचरिमफालिं संकामिय चरिमाणुभागखंडयपढमसमए वट्टमाणस्स जहणिया हाणी होइ, तत्थ खरगपरिणामेहि घादिदावसेसस्स तदणुभागस्स सुट्ट जहण्णहाणीए हाइदूण संकंतिदसणादो।
तस्सेव विदियसमए जहएणयमवहाणं । ६५०४. तस्सेव चरिमाणुभागखंडयसंकमे वट्टमाणखवयस्स विदियसमये जहण्णय
* द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात कर अन्तिम अनुभागकाण्डकमें विद्यमान जीव उसके जघन्य अवस्थानका स्वामी है।
६५००. क्रोधसंज्वलनके जघन्य अवस्थानरूप संक्रमके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रके समान ही पूरी तरहसे इस सूत्रके अर्थका कथन करना चाहिए ।
.* स्त्रीवेदकी जघन्य वृद्धिके स्वामित्वका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है।
६५०१. क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य हतसमुत्पत्तिक कर्मसे अनन्तभागवृद्धिमें विद्यमान जीव जवन्य स्वामी है इस दृष्टिसे मिथ्यात्वकी अपेक्षा इसमें कोई भेद नहीं है।
* जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? ६५०२. यह सूत्र सुगम है। - * अन्तिम अनुभागकाण्डकका प्रथम समयमें संक्रम करके स्थित हुआ जीव जघन्य हानिका स्वामी है।
६५०३. स्त्रीवेदके द्विचरम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिका संक्रम करके अन्तिम अनुभागकाण्डकके प्रथम समयमें विद्यमान जीवके जघन्य हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर आपक परिणामोंके द्वारा घात करनेसे शेष बचे हुए उसके अनुभागका अत्यन्त जघन्य हानिके द्वारा घात करके संक्रमण देखा जाता है।
* तथा वही दूसरे समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। ६५०४. अन्तिम अनुभागकाण्डकके संक्रममें विद्यमान उसी क्षपक जीवके दूसरे समयमें
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गा०ye
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे पदणिक्खेवे सामित्त
१३७ मवट्ठाणं होइ । कुदो ? पढमसमए जहण्णहाणिविसयीकाणुभागस्स विदियसमए तत्तियमेत्तपमाणेणावट्ठाणदंसणादो।
एवं णqसयवेद-छएणोकसायाणं। ६५०५. सुगममेदमप्पणासुत्तं । एवमोघो समत्तो ।
६५०६. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-बारसक०-णवणोक. जह० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स अणंतभागेण वडिदूण वड्डी, हाइदूण हाणी, एयदरत्थावट्ठाणं । अणंताणु०४ ओघं । सम्म० जह. कस्स ? अण्णदर० समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खदो-देवा सोहम्मादि जाव सहस्सार ति । एवं छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु । णवरि सम्म० णत्थि। एवं जोणिणी०-भवण०-वाण०-जोदिसि० । पंचिंतिरिक्खअपज-मणुसअपज. विहत्तिभंगो। मणुसतिय मिच्छ०-अट्ठक० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० सुहुमेइ दियपच्छायदस्स अणंतभागेण वढिदूण वड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावट्ठाणं । सम्म०-सग्मामि०-अणंताणु०४ ओघं । चदुसंजल०–णवणोक० ओघं।
जघन्य अवस्थान होता है, क्योंकि प्रथम समयमें जघन्य हानिके विषयभूत अनुभागका दूसरे समयमें उतने ही प्रमाणरूपसे अवस्थान देखा जाता है।
* इसी प्रकार नपुसकवेद और छह नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए। ६५०५. यह अर्पणासूत्र सुगम है।
___ इसी प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। . ६५०६. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अनन्तभागवृद्धिरूपसे वृद्धि करता है ऐसा अन्यतर जीव जघन्य वृद्धिका स्वामी है, तथा जो अनन्तभागहानिरूपसे हानि करता है ऐसा अन्यतर जीव जघन्य हानिका स्वामी है । तथा इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग आघ के समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जिसके दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष है वह उसकी जघन्य हानिका स्वामी है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेद्रियतिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्त्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार नीचेकी छह पृथिवियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें सम्यक्त्वका हानिसंक्रम नहीं होता। इसी प्रकार योनिनी तिर्यच, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च
अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जिसने सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायसे भाकर अनन्तभागवृद्धिरूप वृद्धि की है ऐसा अन्यतर तीन प्रकारका मनुष्य जघन्य वृद्धिका स्वामी है, अनन्तभागहानि करने पर यही अन्यतर मनुष्य जघन्य हानिका स्वामी है और इनमेंसे किसी एक स्थल पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्वात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका भङ्ग भी ओघके समान है । किन्तु इतनी
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१३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ णवरि सुहमेइ दियपच्छायदस्स अणंतभागेण वडिदस्स तस्स जह० बड्डो। मणसिणी० पुरिस० छण्णोकभंगो । आणदादि णवगेवजा ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म०-अणंताणु० देवोघं । अणुदिसादि सबढे त्ति विहत्तिभंगो । णवरि सम्म० देवोघं । अणताणु० जह० हाणिसंकमो कस्स ? अण्णद० अणंताणु०चउक्क विसंजोएतस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जह० हाणी । तस्सेव से काले जहण्णयमवट्ठाणं । एवं जाव० ।
अप्पाबहुअं। ६५०७. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं ।
सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उपस्सिया हाणी ।
६५०८. एत्थ सम्बग्गहणेण मिच्छताणुभागसंकमविसयाणमुकस्सवडि-हाणिअवट्ठाणपदाणं गहणं कायव्वं, तेसु सव्वेसु सव्वेहितो वा थोवा उक्क० हाणी । सा च उक० हाणी उकसाणु०खंडयपमाणा । विशेषता है कि जिसने सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर अनन्तभागवृद्धि की है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। आनत कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशषता है कि सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनो विशेषता है कि सम्यक्त्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य हानिसंक्रमका स्वामी कौन है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जो अन्यतर जीव द्विचरम अनुभागकाण्डकका घात कर देता है वह जघन्य हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ पर आदेशसे स्वामित्वको समझनेके लिए इन बातों पर विशेषरूपसे ध्यान रखना चाहिए कि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्यत्रिकमें ही होता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि और अवस्थान इन्हीं मार्गणाओंमें घटित होते हैं, गतिसम्बन्धी अन्य मार्गणाओंमें नहीं । यद्यपि मनुष्यत्रिकमें तो सम्यक्त्वकी हानि और अवस्थान दोनों बन जाते हैं। परन्तु गतिसम्बन्धी अन्य जिन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होता है उनमें इसकी केवल हानि ही बनती है और जिन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता उनमें इसकी हानि भी नहीं बनती । शेष कथन स्पष्ट ही है।
* अब अल्पबहुत्वको कहते हैं। ६५०७. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है। * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है।
६५०८. यहाँ पर सूत्रमें 'सर्व' पदके ग्रहण करनेसे मिथ्यात्वके अनुभागसंक्रमविषयक उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान इन तीनों पदोंका ग्रहण करना चाहिए। उन सबमें या उन सबसे उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है और वह उत्कृष्ट हानि उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकप्रमाण है।
१. ता०प्रतौ -मवट्टाणं ।.........एवं' इति पाठः ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयभागसंकमे पदणिक्खेवे अप्पा बहु
* वड्डी अवद्वाणं च विसेसाहियं ।
$ ५०६. उकस्सर्वाड्डि-अत्रट्ठाणाणि समाणविसयसामित्तेण तुल्लाणि होदूण तत्तो विसेसाहियाणि त्ति वृत्तं होइ । कुदो वुण तत्तो एदेसिं विसेसाहियणिच्छयो ? ण, वडिदाणुभागस्स णिरवसेसघादणसत्तीए असंभवेण तत्रिणिच्छयादो खेदमसिद्धं पुत्रमप्यावहुअसाहसामित्तमुपविट्ठपदावभवलेण तव्विणिण्णयसिद्धीदो ।
* एवं सोलसकसाय-एवणोकसायाणं ।
$ ५१०. सुगममेदम पण सुत्तं, विसेसाभावमस्सिऊण पयट्टत्तादो ।
* सम्मत्त-सम्म मिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी अवद्वाणं च सरिसं । ९ ५११. कुदो ? उकस्सहाणीए चेव उक्कस्सावडा एसा मित्तदंसणादो । वोघो समत्तो ।
५१२. आदेसेण विहत्तिभंगो ।
१३६
एवमुकस्सप्पाबहुअं समत्तं ।
* उससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक हैं ।
६ ५०६. उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान स्वामीके समान होनेसे तुल्य होकर भी उत्कृष्ट हानिसे विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-उससे ये विशेष अधिक हैं इसका निश्चय कैसे होता है ?
हुआ है।
समाधान — नहीं, क्योंकि बड़े हुए अनुभागका पूरी तरहसे घात करनेकी शक्ति न होनेसे उत्कृष्ट हानिसे ये दोनों विशेष अधिक हैं इसका निश्चय होता है और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि पहले अल्पबहुत्वकी सिद्धि करनेके लिए स्वामित्व सूत्र में कहे गये अर्थपदके अवलम्बन करनेसे उक्त विषय के निश्चयकी सिद्धि होती है ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए ।
§ ५१०. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि विशेषके अभाव के आश्रयसे यह सूत्र प्रवृत्त
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान सदृश हैं ।
$ ५११. क्योंकि उत्कृष्ट हानिके होने पर ही उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामित्व देखा जाता है । इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई ।
५१२. आदेश अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ — अनुभ. गविभक्तिमें आदेशसे सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका जिस प्रकार अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहाँ पर भी उसका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
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[ बंधगो ६
* जहणणयं ।
$ ५१३. उकस्सप्पा बहुअसमत्तिसमणंतरमिदाणिं जहण्णयमप्पाबहुअं वण्णइस्सामो त्ति पइण्णामुत्तमेदं ।
* मिच्छत्तस्स जहषिणया वड्डी हाणी अवट्ठाणसंकमो च तुल्लो । 8 ५१४. कुदो ? तिन्हमेदेसिं सुहुमहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागस्स अनंतिमभागे बिद्धतादो |
१४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* एवमकसायाणं ।
५१५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णवढि हाणि अवड्डाणाणमभिण्णत्रिसयाणं सरिसतमेवमेदेसि पि कम्माणं दट्ठव्त्रं ।
* सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा जहरिणया हाणी ।
९ ५१६. कुदो ? अणुसमयोवट्टणाए पत्तघादसम्मत्ताणुभागस्स समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयम्मि जहण्णहाणिभावमुवगयस्स सव्वत्थोवत्ते विरोहाणुवलंभादो |
* जहएणयमवद्वाणमणंतगुणं ।
५१७ कुदो ? अणुसमयोवट्टणापारंभादो पुत्रमेव चरिमाणुभागखंडयविसए जहण्णभावमुवगयत्तादो |
* अब जघन्य अल्पबहुत्वको कहते हैं ।
§ ५१३. उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी समाप्तिके बाद अब जघन्य अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है । .
* मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानसंक्रम तुल्य है । § ५१४. क्योंकि ये तीनों सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक जघन्य अनुभागके अनन्त भागमें प्रतिबद्ध हैं ।
* इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान संक्रमका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
५१५. जिस प्रकार मिध्यात्वके अभिन्न विषयवाले जघन्य बृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान समान हैं उसी प्रकार इन कर्मों के भी जानने चाहिए ।
* सम्यक्त्वकी जघन्य हानि सवसे स्तोक है ।
५१६. क्योंकि प्रतिसमय होनेवाली अपना के द्वारा घातको त हुआ सम्यक्त्वका अनु भाग दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर जघन्यपनेको प्राप्त हो जाता है, इसलिए उसके सबसे स्तोक होनेमें विरोध नहीं पाया जाता ।
* उससे जघन्य अवस्थान अनन्तगुणा है ।
§ ५१७. क्योंकि प्रति समय होनेवाली अपवर्तना के प्रारम्भ होनेके पूर्व ही अन्तिम अनुभागकाण्डकमें इसका जघन्यपना उपलब्ध होता है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसंक्रमे पदणिक्खेवे अप्पा बहु
* सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया हाणी अवद्वाणसंकमो च तुल्लो । $ ५१८. कुदो दो हमेदेसिं दंसणमोहक्खवयदुचरिमाणुभागखंडयपमाणेण हाइगुण लद्धजहण्णभावाणमण्गोणेण समाणत्तसिद्धीए विप्पडिसेहाभावादो ।
* अणंताणुबंधीणं सव्वत्थोवा जहरिया वडी |
$ ५१६. कुदो ? तप्पा ओग्गविसुद्धपरिणामेण संजुत्तविदियसमयणत्रकबंधस्स जहण्णभावे विवक्खियत्तादो ।
१४१
* जहणिया हाणी अवट्ठाणसंकमो च प्रणतगुणो ।
§ ५२०. कुदो ? अंतोमुहुत्तसंजुत्तस्स एयंतागुवडीए वहिदा भागविस सव्यत्थोवा भागखंडयघादे कदे जहण्णहाणि अट्ठाणाणं सामित्तदंसणा दो ।
* चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं सव्वत्थोवा जहरिणया हाणी । ६५२१. कुदो ? तिणिसंजलण - पुरिसवेदाणं सगसगचरिमसमयणवकबंधचरिमसमयसंक्रामयखत्रयम्मि लोभसंजलणस्स समय। हियावलियस कसायम्मि पयद जहण्णसामित्ताव
|
* जहणणयमवद्वाणं अतगुणं ।
* सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानसंक्रम तुल्य है ।
$ ५१८. क्योंकि दर्शनमोहके क्षपक जीवके द्विचरम अनुभागकाण्डकप्रमाण हानि होकर जघन्यपनेको प्राप्त हुए इन दोनोंमें परस्पर समानता की सिद्धि होनेमें किसी प्रकारकी विप्रतिपत्ति नहीं है।
* अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धि सबसे स्तोक है ।
§ ५१६. क्योंकि तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणाम से संयुक्त होनेके दूसरे समयमें हुआ नवकबन्ध वृद्धिरूपसे यहाँ पर विवक्षित है ।
* उससे जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानसंक्रम अनन्तगुणे हैं ।
५२०. क्योंकि संयुक्त होनेके बाद अन्तर्मुहुर्त काल तक एकान्तानुवृद्धिरूपसे जो अनुभागकी वृद्धि होती है उसमें सबसे स्तोक अनुभागकाण्डकघातके होने पर जघन्य हानि और अवस्थानका स्वामित्व देखा जाता है ।
* चार संज्वलन और पुरुषवेद की जघन्य हानि सबसे स्तोक है ।
९५२१. क्योंकि तीन संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व अपने अपने बन्धके अन्तिम समयमें हुए नवकवन्धका अपने अपने संक्रमके अन्तिम समयमें संक्रमण करनेवाले क्षपक जीव होता है और लोभसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व क्षपक जीवके सकषाय अवस्था में एक समय अधिक एक आवलि काल रहने पर होता है, अतएव प्रकृतमें इस जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया गया है।
* उससे जघन्य अवस्थान अनन्तगुणा है ।
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१४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६ ५२२. केण कारगेण ? चिराणसंतकम्मचरिमाणुभागखंडयम्मि पयदजहण्णावट्ठाणसामित्तावलंबणादो।
* जहणिया वड्डी अणंतगुणा । ६ ५२३. कुदो ? एत्तो अणंतगुणसुहुमाणुभागविसए लद्धजहण्णभावत्तादो।
* अट्ठणोकसायाणं जहणिणया हाणो अवट्ठाणसंकमो च तुल्लो थोवो।
$ ५२४. कुदो ! दोण्हमेदेसि पदाणमप्पप्पणो चरिमाणुभागखंडयविसए जहण्णसामित्तदंसणादो।
* जहणिया वड्डी अणंतगुणा। ६ ५२५. कुदो सुहुमाणुभागविसए पयदजहाणसामित्तसमुबलद्धीदो।
एवमोघो गदो। ६ ५२६. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-चारसक०-गवणोक० जह० बड्डी हाणी अवट्ठाणसंकमो च सरिसो। अणंताणु०४ ओघं । एवं सबणेरइय०-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय३-देवा जाव सहस्सार ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज-मणुसअपज० जह० विहत्तिभंगो । सणुसतिए ३ ओघं । णवरि मणुसिणीसु पुरिसघेद० छण्णोकसायभंगो।
६५२२. क्योंकि प्राचीन सत्कर्मसम्बन्धी अन्तिम अनुभागकोण्डकके समय प्राप्त होनेवाले प्रकृत जघन्य अवस्थानविषयक स्वामित्वका यहाँ पर अवलम्बन लिया गया है।
* उससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है।
६ ५२३. क्योंकि जवन्य अवस्थानसंक्रमसे अनन्तगुणे सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी अनुभागके आश्रयसे इसका जधन्यपना प्राप्त होता है।
* आठ नोकषायोंके जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानसंक्रम परस्पर तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं।
६५२ . क्योंकि इन दोनों पदोंका अपने अपने अन्तिम अनुभागकाण्डकके समय जघन्य स्वामित्व देखा जाता है।
* उनसे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है।।
६ ५२५. क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी अनुभागमें अनन्तभागवृद्धि होने पर प्रकृत जघन्य . स्वामित्व उपलब्ध होता है।
इस प्रकार अोध प्ररूपणा समाप्त हुई। ६५२६. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कपाय और नौ नोकषायोंके जघन्य बृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानसंक्रम तुल्य हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग आपके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके ढेवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनुभाग
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंक मे वड्डीए समुक्कित्तणा
१४३
आदादि जाव णवत्रजा त्तिविहत्तिभंगो । णरि अगंतागु०४ ओघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति मिच्छत्त० - सोलसक० गणोक० जह० हाणी अाणं च सरिसं । एवं जाव० ।
एवमप्पा हुए समते पदणिक्खेवो समत्तो ।
* वड्डीए तिरिए अणिओगद्दाराणि समु वित्तणा सामित्त मप्पाबहुत्रं च । ९५२७. पदणिक्खेवविसेसो वड्डी णाम । तत्थेदाणि तिणि चैवाणिओगद्दाराणि भवंति, सेसाणमेत्थेबंतब्भावदंसणादो | एवमुद्दिसमुत्तिणादि अणियोगदा रेसु समुत्तिणा ताव करदित्ति जाणावणमिदमाह -
* समुक्कित्तणा ।
६५२८. सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स अत्थि छव्विहा वड्डी, छव्विहा हाणी अवद्वाणं च । ५२६. काओ ताव छबड्डीओ' ? अनंतभागवद्वि-असंखेज्जभागवड्डि-संखेजभागवडिसंखेज्जगुणवद्वि-असंखेज्ञगुणवड्डि-अनंतगुणवसिण्णिदाओ । एवं हाणीओ वि वत्तव्त्राओ । तत्थ छबड्डीणं परूवणा जहा अणुभागविहत्तीए तहा णिरवसेसविभक्तिके समान भङ्ग है । मनुष्यत्रिमें ओघके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग छह नोकषायों के समान है । श्रनतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग घके समान है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य हानि और स्थान ये दोनों पद समान हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर पदनिक्षेप समाप्त हुआ ।
* वृद्धिमें तीन अनुयोगद्वार होते हैं— समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व |
§ ५२७. पदनिक्षेप विशेषको वृद्धि कहते हैं । उसमें ये तीन ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि शेष अनुयोगद्वारोंका इन्हीं में अन्तर्भाव देखा जाता है । इस प्रकार सूचित किये गये समुत्कीर्तना आदि अनुयोगद्वारों में से सर्व प्रथम समुत्कीर्तनाका कथन करते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए यह सूत्र कहते हैं
* अब समुत्कीर्तनाको कहते हैं ।
५२. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वकी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थान है । शंका- छह वृद्धियाँ कौन हैं ?
समाधान — अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवद्धि इन नामोंवाली छह वृद्धियाँ हैं ।
६५२६. इसी प्रकार छह हानियोंका भी कथन करना चाहिए। उनमें से छह वृद्धियोंकी प्ररूपणा जिस प्रकार अनुभागविभक्तिमें की है उसी प्रकार सबकी सब यहाँ पर करनी चाहिए,
१. श्रा० प्रतौ छत्रड्डीर्णं परूवणात्र इति पाठ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
मेथ विकायन्त्रा, विसेसाभावादो । संपहि हाणीणं परूवणे कीरमाणे सव्बुकस्साणुभागसंतकम्मिएण चरिमुव्यंके घादिदे पढमो अनंतभागहाणिवियप्पो होइ, तेणेव चरिम- दुचरिमुव्यंकेसु घादिदेसु विदिओ अनंतभागहाणिवियप्पो होइ । एवमणेण विहाणेण हेडा ओयारेयव्त्रं जात्र कंडयमेत्तमोइण्णस्स पच्छारणुपुत्रीए पढमसंखेञ्जभागवड्ढिड्डाणं ति । पुणो तेण सह उवरिमाणुभागे घादिदे असंखेजभागहाणिपारंभो होइ । एतो पहुड असंखेज्जभागहाणिविसओ जाव पच्छाणुपुत्रीए पढमं संखेजभागवड्ढिडाणमुप्पण्णं ति । एतो हेट्ठा घादेमाणस्स संखेज्जभागहाणिविसओ होण ताव गच्छइ जाव पच्छाणुपुत्रीए उकस्ससंखेजस्स सादिरेयद्धमेत्ता संखेज्जभागवड्डिवियप्पा परिहीणा त्ति । तत्थ पढमदुगुणहीणट्ठाणमुप्पञ्जइ । तो पहुडि संखेजगुणहाणीए विसओ होतॄण ताव गच्छइ जाव जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेतद्गुणहाणीओ ट्ठा ओदिण्णाओ त्ति । तत्तो प्यहुडि असंखेज गुणहाणिविसओ होदून तात्र गच्छइ जाव पच्छाखुपुब्बीए संखेजभागवड्डि वियप्पाणमसंखेजे भागे संखेजगुणवड्डि- असंखेजगुणवड्डिसयलद्धाणं तत्तो हेट्ठिमचदुवड्डि अद्वाणं च विसईकरिय चरिमट्ठकट्ठाणं पत्तो I एत्थ चरिमाणं मोत्तूण सेसरूवूणछट्टणमेत्तं कंडयघादं करेमाणस्स असंखेजगुणहणीए चरिमवियप्पो होइ त्ति भावत्थो । पुणो चरिमट्ठकट्ठाणेण सह कंडयघादं कुणमाणस्साणंतगुणहाणी पारभदि । तो पहुडि जाव सव्वुकस्साणुभागकंडयं ति ताव घादेमाणस्स, अनंतगुणहाणिविसओ होइ । तत्तो हेट्ठिमाणुभागस्स पजवसाणट्ठाणेण सह घादावलंभादो ।
क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अब हानियोंका कथन करने पर सबसे उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवके द्वारा अन्तिम ऊर्व कका घात करनेपर प्रथम अनन्तभागहानिरूप भेद होता है । उसके द्वारा अन्तिम और द्विचरम ऊव कोंका घात करने पर दूसरा अनन्तभागहानिरूप भेद होता है । इस प्रकार इस विधिसे नीचे काण्डकप्रमाण उतरे हुए जीवके पश्चादानुपूर्वी से प्रथम संख्यात भागवृद्धिरूप स्थानके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। पुनः उसके साथ उपरिम अनुभागका घात करनेपर असंख्यातभागहानिका प्रारम्भ होता है। यहाँ से लेकर पश्चादानुपूर्वीसे प्रथम संख्यातभागवृद्धिके उत्पन्न होने तक असंख्यात भागहानि के विषयरूप स्थान होते हैं। इससे नीचे घात किये जानेवाले अनुभाग के पश्चादानुपूर्वीसे उत्कृष्ट संख्यातके साधिक अर्धभागप्रमाण संख्यात भागवृद्धि के विकल्प परिहीन होने तक संख्यातभागहानिका विषय होकर जाता है। वहाँ पर प्रथम द्विगुण हीन स्थान उत्पन्न होता है । यहाँसे लेकर जघन्य परीतासंख्यातके अर्द्धच्छेदप्रमाण द्विगुणहानियाँ नीचे उतरने तक संख्यातगुणद्दानिका विषय होकर जाता है। वहाँसे लेकर पश्चादानुपूर्वीसे संख्यात भागवृद्धि के भेर्दोके असंख्यात बहुभागोंको संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिके सब अध्वानको तथा उससे नीचे चार वृद्धियोंके अध्वानको विषय करके अन्तिम अष्टाङ्कस्थानके प्राप्त होने तक असंख्यात -
हानिका विषय होकर जाता है। यहाँ पर अन्तिम अष्टांक स्थानको छोड़कर शेष एक कम घट्स्थानप्रमाण काण्डकघात करनेवाले जीवके असंख्यातगुणहानिका अन्तिम विकल्प होता है यह उक्त कथनका भावार्थ है । पुनः अन्तिम अष्टाङ्कस्थानके साथ काण्डकघात करनेवालेके अनन्तगुणहानिका प्रारम्भ होता है । यहाँ से लेकर सबसे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकके प्राप्त होने तक उसका घात करनेवालेके अनन्तगुणहानिका विषय होता है, क्योंकि उससे नीचे के अनुभागका अन्तिम स्थानके साथ घात नहीं उपलब्ध होता । इसी प्रकार अवस्थानसंक्रमकी सम्भावना का भी कथन करना
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गा०५८ ]
उत्तरपयडिप्रणुभागसंकमे वड्डीए समुक्कित्ता
१४५
एवमवट्ठाणसंकमस्स विसंभवो वत्तव्त्रो, वड्डि-हाणिविसय सव्त्रत्थोवावड्डाणपसरस्स पडिसेहाभावादो । अत्तव्वपदमेत्थ ण संभइ, मिच्छत्ताणुभागविसर तदवलंभादो ।
*सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमत्थि अांतगुणहाणी अवट्ठाणमवत्त व्वयं च ।
· चाहिए, क्योंकि वृद्धि और हानिरूप दोनों स्थानोंपर सर्वत्र ही अवस्थानके होने का निषेध नहीं है । अवक्तव्यपद यहाँ पर सम्भव नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व के अनुभागका आलम्लन लेकर उसकी उपलब्धि नहीं होती ।
विशेषार्थ – यहाँ पर मिध्यात्व के अनुभागसंक्रम में छह वृद्धियाँ, छह हानियाँ और अवस्थान संक्रम कैसे सम्भव है इसका ऊहापोह किया है। उनमेंसे छह वृद्धियोंका व्याख्यान अनुभागविभक्तिके समय कर आये हैं, इसलिए यहाँ पर छह हानियोंका ही मुख्य रूपसे विशेष विचार किया है। यहाँ पर जो कुछ कहा गया है उसका सार यह है कि जो उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म है उसको यदि घात किया जाय तो ऊपरसे घात करते हुए नीचे की ओर आया जायगा । उसमें भी सबसे जघन्य अनुभागकाण्डक अन्तिम ऊर्वक प्रमाण होगा। उससे बड़ा अनुभागकाण्डक चरम और द्विचरम ऊ प्रमाण होगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक ऊर्वकस्थानके द्वारा अनुभागकाण्डकका प्रमाण बड़ाते हुए जब तक काण्डकप्रमारण अर्थात् आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उर्वकस्थान नीचे उतरकर असंख्यातभागवृद्धिस्थान नहीं मिलता तब तक अनन्तभागहानि ही होती रहती है । यहाँ हानिका प्रकरण है, इसलिए ऊपरसे नीचे की ओर गये हैं और यही पश्चादानुपूर्वी है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि यहाँ पर अनन्तभागहानिमें जो अनुभागकाण्डकका प्रमाण कहा है सो
अन्तिम प्रमाण भी हो सकता है, चरम और द्विचरम ऊर्वकप्रमाण भी हो सकता है, चरम द्विचरम और त्रिचरम ऊर्वकप्रमाण भी हो सकता है और इस प्रकार उत्तरोत्तर अनुभागकाण्डकके प्रमाणमें वृद्धि करते हुए वह आवलिके असंख्यातवें भागके बर! बर चरमादि ऊर्वकप्रमाण भी हो सकता है । इतने ऊ प्रमाण अन्तिम अनुभागका घात होने तक अनन्तभागहानि ही होती है। हाँ इससे अधिक अनुभागका घात करने पर असंख्यातभागहानिका प्रारम्भ होता है जो जब तक संख्यात भागहानि स्थाननहीं प्राप्त होता है तब तक जाती है । उसके बाद संख्यातभागहानिका प्रारम्भ होता है जो जब तक संख्यातगुणहानिस्थान नहीं प्राप्त होता तब तक जाती है। यह संख्यात
हानिस्थान कितने स्थान नीचे जाने पर उत्पन्न होता है इसकी मीमांसा करते हुए बतलाया है। कि जहाँके संख्यातभागहानिका प्रारम्भ हुआ है वहाँसे उत्कृष्ट संख्यातके साधिक अर्धभागप्रमाण संख्यात भागवृद्धि के विकल्प कम करने पर यह संख्यातगुणहानिस्थान उत्पन्न होता है। इससे आगे जब तक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण संख्यातगुणहानियाँ होकर असंख्यातगुणहानि नहीं उत्पन्न होती है तब तक अनुभागकाण्डकघात संख्यातगुणहानिका ही विषय रहता है । उसके आगे अन्तिम अष्टाङ्कस्थानके पूर्व तक जितना भी अनुभागकाण्डकघात है वह सब असंख्यात गुणहानिका विषय रहता है । उसके आगे यदि अन्तिम अष्टाङ्कके साथ काण्डकघात करता है तो अनन्तगुणहानिका प्रारम्भ होता है । यहाँसे श्रागे जितना भी घात है वह सब अनन्तगुणहानिका ही विषय है । परन्तु यहाँ पर इतना विशेष समझना चाहिए कि काण्डकघातके द्वारा पूरे अनुभागका घात नहीं होता । यहाँ पर वृद्धियों और हानियोंके जितने स्थान उत्पन्न होते हैं उतने ही अवस्थानविकल्प भी बन जाते हैं । मात्र मिध्यात्वके अनुभागका अवक्तव्यसंक्रम कभी नहीं होता, क्योंकि इसके संक्रमका अभाव होकर पुनः संक्रमकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है ।
*सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनन्तगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्यपद होते हैं।
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१४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
बंधगो ६ . ६५३०. दसणमोहक्खवणाए अणंतगुणहाणिसंभवो हाणीदो अण्णत्थ सव्वत्थोवावट्ठाणसंकमसंभवो असंकमादो संकामयत्तमुवगयम्मि अवत्तव्यसंकमो तिण्हमेदेसिमेत्थ संभयो ण विरुज्झादे । सेसपदाणमेत्य णत्थि संभवो।
___ अणंताणुबन्धोणमथि छव्विहा वड्डी छव्विहा हाणी अवठ्ठाणमवत्तव्वयं च।
६५३१. मिच्छत्तभंगेणेत्र छब्भेयभिण्णवढि हाजोगमवट्ठाणस्स य संभवधिसयो गिरवसेसमेत्थाणुगंतव्यो । अवत्तव्यसंकमो पुण मिसंजोयणापुत्रसंजोगे दट्टयो।
ॐ एवं सेसाणं कम्माणं।
$ ५३२. एत्थ सेसग्गहणेण बारसक०-णवणोक०गहणं कायव्यं । तेसिमणंताणुबंधीणं व छववि-हाणि-अट्ठाणावत्तव्ययाणं समुकित्तगा कायया, विसेसाभावादो। णारि सव्योवसामणापडिवादे अबत्तासंभवो वत्तव्यो । एत्रमोघो समत्तो।।
५५३३. आदेसेण मणुसतिए ओघभंगो । सेससव्यमगणासु विहत्तिभंगो ।
५३०. दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें अनन्तगुणहानि सम्भव है, हानिके सिवा अन्यत्र सर्वत्र ही अवस्थानसंक्र । सम्भव है और असंक्रमसे संक्रमरूप अवस्थाको प्राप्त होने पर अवक्तव्यसंक्रम होता है । इस प्रकार इन तीनोंका सद्भाव यहाँ पर विरोधको नहीं प्राप्त होता। मात्र शेप पद यहां पर सम्भव नहीं है।
* अनन्तानुबन्धियोंके छह प्रकारको वृद्धियाँ, छह प्रकारको हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्यपद होते हैं। ।
६५६१. जिस प्रकार मिथ्यात्वक प्रसङ्गसे कथन कर आये हैं उसी प्रकार छह प्रकारकी वृद्धियों यह प्रकारकी हानियों और अवस्थानकी सम्भावना पूरी तरह से यहाँ पर जान लेना चाहिए। परन्तु अवक्त संक्रम विसंयोजनापूर्वक संयोगके होने पर जानना चाहिए।
* इसी प्रकार शेष कर्मों के विषय में जानना चाहिए।
६५३२. यहाँ पर शेष पदके ग्रहण करनेसे वा ह कपाय और नौ नोकपायोंका ग्रहण करना चाहिए । अर्थात् उनके अनन्तानुबन्धियोंके समान छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थान और अवक्तव्यपदोंकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए, क्योंकि उनके कथनसे इनके तथनमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि सर्वोपशमनासे गिरने पर अक्तव्यपद सम्भव है ऐसा कहना चाहिए।
इस प्रकार ओघनरूपणा समाप्त हुई। ६५३३. आदेशसे मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भड़ा है। शेष सब मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकर्म ओघप्ररूपणकी सव विशेषताएँ सम्भव होनेसे उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है । परन्तु गतिसम्बन्धी अन्य सब मार्गणाओंमें ओघसम्बन्धी सब प्ररूपणा घटित न होकर अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग बन जानेसे उनमें अनुभागविभक्तिके समान जाननेकी सूचना की है।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई।
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गा०५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंक मे बडीए सामित्त
१४७
* सामित्तं ।
५३४. समुत्तिणाणंतरं सामित्तमहिकयं ति अहियार संभालणमुत्तमे । * मिच्छ्रत्तस्स छविवहा वड्डी पंचविहा हाणो कस्स ? ९५३५. किमिच्छाट्ठिस्स आहो सम्माइट्टिस्स, किं वा दोहं पि पयदसामित्त मिदि पुच्छा क्या होड़ । एत्थ पंचविहा हाणि त्ति वृत्ते अगंतगुणहाणि मोत्तृण सेसपंचहाणीगं संगो कायो ।
* मिच्छाइट्ठिस्स अण्णयरस्स ।
९ ५३६. गात्र सम्माड्डिम्म मिच्छता भागविसयाीणमत्थि संभवो, तत्थ तब्धाभावादो | ण च वषेण विणा अणुभागसंक्रमस बढी लब्भदे, तहागुवलद्धीदो । तहा पंचविहा हाणी वितत्थ पन्थि, सुड्डु वि मंदविसोहीए कंडयघादं करेमाणसम्माइट्ठिम्भि अनंतगुणहाणिं मोत्तॄण संसपंचहाणीणमसंभवादो । तदो मिच्छाइट्ठिस्सेव णिरुद्धध्वनिपंचहाणीणं सामित्तमिद सुणिण्णीदत्थमेदं सुतं । अण्णदरग्गहणमेत्थोग | हणादिविसेसप डिसेकंद |
* अतगुणहाणो अवदिकमो कस्स ? ६५३७. सुगममं सुतं, पण्हमेत्तवावारादो ।
* अब स्वामित्वको कहते हैं ।
६५३१. समुत्कीर्तन के बाद स्वामित्व अधिकृत है, इसलिए अधिकारकी सम्हाल करने के लिए यह सूत्र आया है ।
* मिथ्यात्वको छह प्रकारकी वृद्धियों और पाँच प्रकारकी हानियोंका स्वामी कौन है ?
९५३५. क्या मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि या दोनों ही प्रकृतमें स्वामी हैं इस प्रकार पृच्छा की गई है । यहाँ पर पाँच प्रकारकी हानि ऐसा कहने पर अनन्तगुणहानिको छोड़कर शेष पाँच हानियोंका संग्रह करना चाहिए ।
* अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव उनका स्वामी है ।
§ ५३६. सम्यग्दृष्टिके तो मिथ्यात्यकी अनुभागविषयक छह वृद्धियोंकी सम्भावना है नहीं, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्वका बन्ध नहीं होता । और बन्धके विना अनुभागसंक्रमकी वृद्धि नहीं उपलब्ध होती, क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता । उसी प्रकार पाँच हानियाँ भी वहाँ पर नहीं हैं, क्योंकि अत्यन्त मन्द विशुद्धि भी काण्डकात करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तगुणहानिको छोड़कर शेष पाँच हानियाँ असम्भव हैं । इसलिए मिध्यादृष्टिके ही विवक्षित छह वृद्धियों और पाँच हानियोंका स्वामित्व है इस प्रकार इस सूत्र का अर्थ सुनिशीत है । यहाँ पर सूत्र में जो 'अन्यतर' पदका ग्रहण किया है सो वह अवगाहना आदि विशेषके निषेध के लिए जानना चाहिए ।
* अनन्नगुणहानि और अवस्थितसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६५.३७. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि प्रश्नमात्र में इसका व्यापार हुआ है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* अण्णयरस्स ।
९ ५३८. मिच्छाइट्ठि-सम्म इट्टीणमण्णदरस्स तदुभयविसयसा मित्तसंबधो
भद हो ।
[ बंधगो ६
* अण्णदरस्स ।
६५४२. कुदो ? मिच्छाइट्ठ-सम्माइट्ठीणं तदुवलद्धीए विरोहाभावादो |
* श्रवत्तव्वसंकमो कस्स ?
६५४३. सुगमं ।
* विदियसमयउवसमसम्माइ डिस्स |
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्तापमणतगुणहाणि संकमो कस्स १ ५३६. सुगममेदं सामित्तसंबंधविसेसा वेक्खं पुच्छासुतं ।
* दंसणमोहणीयं खवेंतस्स ।
५४०. कुदो दंसणमोहक्खवणादो अण्णत्थेदेसिमणुभागघादासंभवादो तदो अण्णविसयपरिहारेणेत्थेव सामित्तमिदि सम्ममवहारिदं ।
* अवट्ठाणसंकमो कस्स ?
६ ५४१. सुगमं ।
त्ति
* अन्यतर जीव उनका स्वामी है ।
६५३८. मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इनमें से अन्यतरके उन दोनोंके स्वामित्वका सम्बन्ध है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
६५४१. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्यतर जीव उसका स्वामी है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनन्तगुणहानिसंक्रमका स्वामी कौन है ?
§ ५३६. स्वामित्वके सम्बन्धविशेषकी अपेक्षा करनेवाला यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
* दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव उसका स्वामी है ।
६५४०. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके सिवा अन्यत्र इन प्रकृतियोंका अनुभागघात होना सम्भव है, इसलिए अन्य विषयके परिहार द्वारा यहीं पर स्वामित्व है इस प्रकार सम्यके प्रकारसे श्रवधारण किया ।
* उनके अवस्थानसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६ ५४२. क्योंकि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके उसकी उपलब्धि होनेमें विरोध नहीं आता ।
* उनके अवक्तव्यसंक्रमका स्वामी कौन है ?
६५४३. यह सूत्र सुगम है ।
* द्वितीय समयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उसका स्वामी है ।
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१४६
गा०५८)
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे वड्डीए सामित्त ६५४४. कुदो ? तत्थासंकमादो संकभप्पवुत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो। * सेसाणं कम्मा मिच्छत्तभंगो।
६५४५. कसाय-णोकसायाणमिह सेसभावेण णिद्देसो । तेसि पयदसामित्तविहाणे मिच्छत्तभंगो कायव्यो, तत्तो एदेसि सामित्तगयविसेसाभावादो ति सुत्तत्थो । णवरि अवत्तव्यसंकमसामित्तसंभवगओ तेसिं विसेसलेसो अस्थि त्ति तण्णिहेसकरणट्ठमुत्तरं सुत्तजुगलमाह
वरि अपंताणुबंधीणमवत्तव्वं विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण आवलियादीदस्स।
* सेसाणं कम्माणमवत्तव्वमुवसामेदूण परिवदमाणस्स। ६ ५४६. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुवोहाणि । एवमोघेण सामित्ताणुगमो कओ।
६५४७. संपहि सुत्तपरूविदत्थविसयणिण्णयकरणट्ठमेत्युच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा–सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओषेण आदेसेण य । ओघेण विहत्तिभंगो। णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० भुज०संकमावत्तचभंगो । एवं मणुसतिए । सेससव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो।
६५४८. संपहि सामित्तसुत्तेण सूचिदकालादिअणिओगद्दाराणं विहासण?
६५.४४. क्योंकि वहाँ असंक्रमसे संक्रमरूप प्रवृत्ति स्पष्टरूपसे पाई जाती है। * शेष कर्मों का भङ्ग मिथ्यात्वके समान है।
६५४५. यहाँ पर 'शेष' पद द्वारा कपायों और नोकषायोंका निर्देश किया है। उनके प्रकृत स्वामित्वका विधान करते समय मिथ्यात्वके समान भङ्ग करना चाहिए, क्योंकि उससे इनकी स्वामित्वगत कोई विशेषता नहीं है यह इस सूत्रका अर्थ है। मात्र अवक्तव्यसंक्रमके सम्बन्धसे स्वामित्वसम्बन्धी उनमें थोड़ीसी विशेषता है, इसलिए उसका निर्देश करनेके लिए आगेके दो सूत्र कहते हैं
. * किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसे विसंयोजनाके बाद पुनः मिथ्यात्वमें जाकर एक आवलि काल हुआ है वह अनन्तानुवन्धियोंके अवक्तव्यसंक्रमका स्वामी है।
* तथा उपशामनाके बाद गिरनेवाला जीव शेष कर्मों के अवक्तव्यसंक्रमका स्वामी है। ६५४६. ये दोनों ही सूत्र सुबोध हैं ।
___ इस प्रकार ओघसे स्वामित्वका अनुगम किया। ६५४७. अब चूर्णिसूत्रद्वारा कहे गये अर्थका निर्णय करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा-स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रमका भङ्ग भुजगारसंक्रमके अवक्तव्यके भङ्गके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । शेष सब मार्गणाओं में अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है।
६५४८. अब स्वामित्वसम्बन्धी सूत्रके द्वारा सूचित हुए कालादि अनुयोगद्वारोंका विशेष
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जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे
[ बंधगो ६
येत्युच्चारणाणुगतं वत्तस्सा मो— कालागुगमेग दुरिहो गिदेसो । ओग हिदिगो । परिवारसक० - वणोक० अवस० जह० एयसमओ । मतिय विहमिंगो । परि वारसक०- गणोक० अत्त० ओवं । सेसमग्गगल विहत्तियो ।
I
९ ५४६. अंतरा० दुविहो णि० । ओषेण विविबंगो । पारि र०६० अवत्त० भुज० संक्रमअत्तव्यभंगो | मणुपतिए शुजसं । गगासु
णोक०
विहतिभंगो |
५५०. णाणाजीवेहिभंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेत्तं पोषणं कालो अंतरं भावोति एसिमणिओगद्दाराणं विहत्तिभंगो | णारि सच्चत्य बारसक० - गायक० अ० भुजंगभंग | एमेदेसि सुगमाणमुल्लंघणं
कायापरिमं
सुतपबंधमाह -
१५.०
* अप्पाबहु
।
६५५१. अहियार संभालणमुत्तमेदं सुगमं ।
* सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स प्रांतभाग हाणिसंकामया ।
।
व्याख्यान करने के लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं। कालानुगमले निर्देश दो प्रकारका हैओ और आदेश | ओघ से अनुभागविभक्ति के समान भङ्ग है। इतना है कि बारह वाय और नौ नोकषायों के अवक्तव्य संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । मनुष्यत्रिकों अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि वाह काय और नौ नोकपायोंके अवक्तव्यसंक्रमका भङ्ग के समान है । शेष मार्गणाओं में अनुभागविभक्ति के समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ — अनुभागविभक्ति में बारह कपाय और नौ नोकपयोंका अवक्तव्यपद सम्भ नहीं है जो यहाँ से बन जाता है। इसलिए यहाँ श्रोप्ररूपणा में और मनुष्यत्रिकों इस पदका काल अलग से कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
९ ५४६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओ और आदेश । प्रोसे अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग हैं । इतनी विशेषता है कि ओपसे बारह कषाय और नौ नोकपायों के अवक्तव्य संक्रमका भङ्ग भुजगार संक्रमके अवक्तव्यपदके समान है। मनुष्यत्रिकों भुजगार संक्रामक के समान भङ्ग है। शेष मार्गला अनुभागविभक्तिके समान भक्त है। ५५०. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, और भाव इन अनुयोगद्वारों का अनुभागविभक्ति के समान है । बारह कपाय और नौ नोकायोंके वक्तव्य संक्रमका भङ्ग भुजगार संक्रामक
है । इस प्रकार अत्यन्त सुगम इन अनुयोगद्वारोंका उल्लंधन करके अल्पबहुत्वका कथन करने के लिए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
स्पर्शन, काल, अन्तर
ता है कि सर्वत्र वक्तव्यपदके समान
* अब अल्पबहुलको कहते हैं ।
६५५१. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यासकी अनन्तभागहानिके संक्रामक जीन रावसे स्तोक हैं ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडणुभागसंकमे वड्डी अप्पा बहु
९ ५५२. कुदो ? एगकंडयविसयत्तादो ।
* असंखेज भागहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा ।
१५१
४५३. चरिमुव्वंकडाणादो पहुडि अनंतभागहा णिअद्ध ( णमेगकंडयमेत्तं चेत्र होदि । देसिं पुण तारिसाणि अद्धाणाणि रूवाहियकंडयमेत्ताणि हवंति, तदो तव्त्रिसयादो पयदविसयो असंखेज्जगुणोति सिद्धमेदेसि तत्तो असंखेजगुणत्तं ।
* संखेज्जभागहाणिसंकामया संखेज्जगुणा ।
६५५४. तं जहा — वाहिय अनंतभागहाणि - असंखेज्जभागह। णिअद्वाणपमाणेण एगं संखेञ्जभागहाणिअद्धाणं कादूणेवंविहाणि दोणि तिष्णि चत्तारि ति गणिमाणे उक्कस्ससंखेज्जयस्स सादिरेयद्धमेत्ताणि अद्धाणाणि घेत्तण- संखेज भागहाणीए बिसओ होइ, सैनियमेत्तमद्धाणं गंतूण तत्थ दुगुणहाणीए समुप्पत्तिदंसणा दो । तदो विसयाणुसारेणुकस्ससंखेज्जयस्स सादिरेयद्धमेत्तो गुणगारो तप्पा ओग्गसंखेजरूवमेतो वा ।
* संखेज्जगुणहाणिसंकामया संखेज्जगुणा ।
९ ५५५. तं कथं ९ संखेज्जभागहाणिसंकामएहिं लंद्वद्वाणपमाणेणेयमद्वाणं काढूण तारिसाणि जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स रूवणद्धच्छेदणयमेत्ताणि जाव गच्छति ताव संखेज्जगुणहाणिविसओ चैत्र, तत्तो 'पहुडि असंखेजगुणहाणिसमुप्पत्ती दो । तदो एत्थ वि विसयानुसारेण रूवूणजहण्णपरित्तासंखेज्ञछेदणयमेत्तो तप्पा ओग्गसंखेजरूत्रमेत्तो वा गुणगारो ।
९५५२. क्योंकि ये एक काण्डकको विषय करते हैं ।
* उनसे असंख्यात भागहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
६५५३ . क्योंकि अन्तिम ऊर्वकस्थानसे लेकर अनन्तभागहानिका ध्यान एक काण्डकप्रमाण ही होता है । परन्तु इनके वैसे अध्वान एक अधिक काण्डकप्रमाण होते हैं, इसलिए उसके विषयसे प्रकृत विषय असंख्यातगुणा है । इस कारण इनका उनसे असंख्यातगुणत्व सिद्ध है ।
* उनसे संख्यातभागहानिके संक्रामक जीब संख्यातगुणे हैं ।
§ ५५४. यथा – एक अधिक अनन्तभागहानि और असंख्यात भागहानिके अध्वाप्रमाण एक संख्यातभागहानि ध्यानको करके इस प्रकार के दो, तीन, चार इत्यादि क्रमसे गिनने पर उत्कृष्ट संख्यातके साधिक अर्धमात्र अध्वानोंको ग्रहण कर संख्यातभागहानिका विषय होता है, क्योंकि तत्प्रमाण अध्वान जाकर वहाँ पर द्विगुणहानिकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए विषय के अनुसार उत्कृष्ट संख्यातका साधिक अर्धभागप्रमाण अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात अंक प्रमाण गुणकार होता है । * उनसे संख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
§ ५५५. क्योंकि संख्यातभागहानि के संक्रामकोंके द्वारा प्राप्त हुए अध्यानके प्रमाणसे एक अध्वानको करके वैसे अध्यान जब तक जघन्य परीता संख्यातके एक कम अर्धच्छेदप्रमाण हो जाते हैं तब तक संख्यातगुणहानिका ही विषय रहता है, क्योंकि वहाँसे लेकर असंख्यातगुणहानिकी उत्पत्ति होती है । इसलिए यहाँ पर भी विषय के अनुसार एक कम जघन्य परीता संख्यातके अर्धच्छेद प्रमाण अथवा तत्प्रायोग्य संख्यात प्रमाण गुणकार होता है ।
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१५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ॐ असंखेज गुणहाणिसंकामया असंखेनगुणा।।
६ ५५६. पुवाणुपुबीए चरिमसंखेजभागवडिकंडयस्सासंखेजदिमागे चेव संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणीओ समप्पंति । तेण कारणेण चरिमसंखेजभागवडिकंडयस्स सेसा असंखेजा भागा संखेजा संखेजगुणवड्डिसयलद्धाणं च असंखेजगुणहाणिसंकामयाणं विसयो होइ । तदो तत्थ विसयाणुसारेण अंगुलस्सासंखेजभागमेतो गुणगारो तप्पाओग्गासंखेजरूवमेत्तो वा।
* अणंतभागवडिसंकामया असंखेजगुणा। . .
५५७. तं कथं ? पुबुत्तासेसहाणिसंकामयरासी एयसमयसंचिंदो, खंडयघादाणं तस्समयं भोत्तणण्णत्थ हाणिसंकमसंभवादो। एसो वुण रासी आवलियाए असंखेजभागमत्तकालसंचिदो, पंचण्हं बड्डीणमावलियाए असंखेजदिभागमेतकालोवएसादो। तदो कंडयमत्तविसयत्ते वि संचयकोलपाहम्मेणासंखेजभागमेत्तमेदेसि सिद्धं । गुणगारपमाणमत्थासंखेजा लोगा ति वत्तब्बं । कुदो एवं चे ? हाणिपरिणामाणं सुट्ट दुल्लहत्तादो, वडिपरिणामाणमेव पायेण संभवादो।
ॐ असंखेजभागवडिसंकामया असंखेजगुणा।
* उनसे असंख्यातगुणहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
६५५६. पूर्वानुपूर्वीके अनुसार अन्तिम संख्यातभागवृद्धि काण्डकके असंख्यातवें भागमें ही संख्यातभागहानि और संख्यातगणहानि समाप्त होती हैं। इस कारणसे अन्तिम संख्यातभा वृद्धिकाडक शेप असंख्यात बहुभाग और संख्यातगुणवृद्धिका सकल अध्वान असंख्यातगुणहानिके संक्रामकोंका विषय है । इसलिए यहाँ पर विषयके अनुसार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा तत्प्रायोग्य असंख्यात अङ्कप्रमाण गुणकार है।
* उनसे अनन्तभागवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं।
५५७. क्योंकि पूर्वोक्त समस्त हानियोंकी संक्रामकराशि एक समयमें सञ्चित है, क्योंकि काण्डकघातोंके उस समबको छोड़कर अन्यत्र हानिसंक्रम सम्भव नहीं है । परन्तु यह राशि प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सञ्चित हुई है, क्योंकि पाँच वृद्धियोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका उपदेश पाया जाता है। इसलिए इसका विषय काण्डकमात्र रहते हुए भी सञ्चयकालको प्रमुखतासे पूर्वोक्त हानियोंके संक्रामक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं यह सिद्ध होता है । यहाँ पर गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है ऐसा कहना चाहिए।
शंका-ऐसा क्यों है ?
समाधान-क्योंकि हानिके कारणभूत परिणाम अत्यन्त दुर्लभ हैं। प्रायः करके वृद्धिके कारणभूत परिणाम ही सम्भव है।
* उनसे असंख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
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गां०५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसंकमे वड्डीए अप्पाबहु
५५८. दोण्हमावलियासंखेजभागमेत्तकालपडिबद्धत्ते समाणे संते वि पुब्विल्लकालादो एदस्स कालो असंखेञ्जगुणो, पुव्त्रिल्लकालस्स चेत्र असंखेञ्जगुणत्तं । कधमेसो कालगओ विसेसो परिच्छिण्णो ? महाबंधपरूविदकालप्पावहुआदो | अहवा विसयं पेक्खिऊणेदस्सा संखेअगुणतं समत्थेयव्वं ।
१५३
* संखेज भागवड्डिसंकामया संखेज्जगुणा ।
8 ५५६. को गुणगारो ? उकस्ससंखेअयस्स अद्धं सादिरेयं, विसयाणुसारेण तदुवलंभादो, तप्पाओग्गसंखेजरूवमेत्तोत्रकमणस कमगुणगारेण तदुवलंभादो ?
* संखेज्जगुणवड्डिसंकामया संखेज्जगुणा ।
§ ५६०. एत्थ वि बिसयं कालं च पहाणीकादृण पुव्त्रं व गुणगारसमत्थणा कायव्त्रा । * असंखेज्जगुणवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा ।
९५६१. को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेजदिभागो । तप्पा ओग्गसंखेजरूत्रमेत्तो वा विसय-कालाणमरणुसरणे जहाकमं तदुवलद्धीदो ।
* त्रणंतगुणहाणिसंकामया असंखेज्जगुणा ।
६५५८. यद्यपि दोनों वृद्धियोंका काल आवलिके असंख्यातवें भागरूपसे समान है तो भी पूर्वोक्त वृद्धिके काल से इसका काल असंख्यातगुणा है, इसलिए पूर्वोक्त वृद्धिके संक्रामकोंसे इसके संक्रामक असंख्यातगुणे सिद्ध होते हैं ।
शंका- यह कालगत विशेषता किस प्रमाणसे जानौ जाती है ?
समाधान — महाबन्धमें कहे गये कालविषयक अल्पबहुत्वसे जानी जाती है । अथवा विषयकी अपेक्षा इसके असंख्यातगुणे होनेका समर्थन करना चाहिए ।
* उनसे संख्यातभागवृद्धिके संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
५५. गुणकार क्या है ? उत्कृष्ट संख्यातका साधक अर्धभागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि विषयके अनुसार उसकी उपलब्धि होती है तथा तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्क प्रमाण उपक्रमण संक्रमगुणकारके द्वारा उसकी उपलब्धि होती है ।
* उनसे संख्यातगुणवृद्धि के संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
§ ५६०. थहाँ पर भी विषय और कालको प्रधान करके पहलेकै समान गुणकारका समर्थन करना चाहिए ।
* उनसे असंख्यातगुणवृद्धि के संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
५६१. गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण या तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्कप्रमाण गुणकार है, क्योंकि विषय और कालके अनुसार यथाक्रमसे उसकी उपलब्धि होती है ।
* उनसे अनन्तगुणहानिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
२०
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
§ ५६२. किं कारणं ? असंखेजगुणवढि कामयरासी आवलि० असंखे० भागमेतकालसंचिदो हो । किंतु थोक्सियो, एयछट्ठाण अंतरे चेय तव्त्रिसयणिबंधदंसणादो । अनंतगुणाकारासी पुण जइ वि एयसमयसंचिढ़ो तो वि असंखेज लोगमेतद्वाणपडिबद्धो । दो सिद्धदेसिं तत्तो असंखेजगुणत्तं ।
१५४
गुणवसिंकामया असंखेज्जगुणा ।
६ ५६३. को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं । कुदो दो हमे सिमभिणविसयत्ते व अनंतगुणवसिंकामयकालस्स अंतोमुत्तपमाणोवएसे सुत्तबलेण तव्विणिण्णयादो । * वडिदसंकामया संखेज्जगुणा ।
§ ५६४. कुदो ? अनंतगुणवड्डिकालादो अवट्ठिदसंकमकालस्स संखेञ्जगुणत्तावलंबणादो । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अांतगुणहाणिसंकामया । ९ ५६५. कुदो ? दंसणमोहक्खवयजीवाणं चेत्र तब्भावेण परिणामोवलंभादो ।
* अवत्तव्वसंकामया असंखेज्जगुणा ।
§ ५६२. क्योंकि असंख्यातगुणवृद्धिका संक्रमण करनेवाली राशि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा संचित होकर भी स्तोक विषयवाली होती है, क्योंकि एक षट्स्थानके भीतर ही उसके विषयका सम्बन्ध देखा जाता है । परन्तु अनन्तगुणहानिका संक्रमण करनेवाली राशि यद्यपि एक समयमें संचित हुई है तो भी असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानप्रतिबद्ध है, इसलिए उनसे ये श्रसंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ ।
९ ५६६. कुदो ? पलिदोत्रमासंखेजभागमेत्तजीवाणं तब्भावेण परिणदाणमुवलंभादो | * अवडिदसंकामया असंखेजगुणा ।
* उनसे अनन्तगुणवृद्धिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं।
६ ५६३. गुणकार क्या है ? अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यद्यपि इन दोनोंका विषय एक है तो भी अनन्तगुणवृद्धिके संक्रामकोंका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है इस उपदेशका निर्णय सूत्र के बलसे होता है ।
* उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
६५६४. क्योंकि अनन्तगुणवृद्धिके कालसे अवस्थितसंक्रमका काल संख्यातगुणा पाया
जाता है।
* सम्यक्त्र और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिके संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं ।
§ ५६५. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवोंका ही उस रूपसे परिणमन उपलब्ध
होया है ।
* उनसे अवक्तव्यसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
§ ५६६. क्योंकि पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण जीव उस रूपसे परिणमन करते हुए पाये
जाते हैं।
* उनसे अवस्थितसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे वड्डीए अप्पाबहुअं
१५५ ६ ५६७. कुदो ? तव्यदिरित्तासेससम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्मियजीवाणमवहिदसंकामयभावेणावट्ठाणदंसणादो । एत्थ गुणगारपमाणं अवलि० असंखे०भागमेत्तो घेत्तव्यो ।
8 सेसाणं कम्माणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वसंकामया।
६५६८. कुदो ? अणंताणुबंधीणं विसंजोयणापुचसंजोगे वट्टमाणपलिदोवमासंखेजभागमेत्तजीवाणं सेसकसाय-गोकसायाणं पिसव्यावसामणापडिवादपढमसमयमहिद्विदसंखेजोवसामयजीवाणमबत्तव्यभावेण परिणदाणमुवलद्धीदो।।
* अणंतभागहाणिसंकामया अणंतगुणा । ६५६६. कदो ? सबजीवाणमसंखेजभागपमाणत्तादो ।
8 सेसाणं संकामया मिच्छत्तभंगो।। ६५७०. सुगममेदमप्पणासुत्तं ।
एवमोघेणप्पाबहुअं समत्तं । ६५७१. आदेसेण मणुसतिए विहत्तिभंगो । णवरि बारसक०-णवणोक० अणंताणु० भंगो । सेससव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो । एवं जाव अणाहारि ति ।
. एवं वड्डिसंकमो समत्तो ।
६५६७. क्योंकि पूर्वोक्त दो पदवाले जीवोंके सिवा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मवाले शेष सब जीव अवस्थितसंक्रम करते हुए पाये जाते हैं। यहाँ पर गुणकारका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण लेना चाहिए।
* शेष कर्मों के अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं।
६५६८. क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंके विसंयोजनापूर्वक संयोगमें विद्यमान हुए पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव तथा शेष कषायों और नोकषायोके भी सर्वोपशमनासे गिरते हुए संक्रमके प्रथम समयमें स्थित हुए संख्यात उपशामक जीव अवक्तव्यभावसे परिणमन करते हुए उपलब्ध होते हैं।
* उनसे अनन्तभागहानिके संक्रामक जीव अनन्तगणे हैं। ६५६६. क्योंकि ये सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। * शेष पर्दोके संक्रामक जीर्वोका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। . ६५७०. यह अर्पणसूत्र सुगम है।।
इस प्रकार ओघसे अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६५७१. आदेशसे मनुष्यत्रिकमें अनुभागविभक्तिके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग अनन्तानुबन्धीके समान है । शेष सब मार्गणाओंमें अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है।
इस प्रकार वृद्धिसंक्रम समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
* एन्तो द्वाणाणि कायव्वाणि ।
९ ५७२. सणादिचवीसाणिओगद्दाराणं सभुजगार - पदणिक्खेव वड्डीर्ण समत्ति - समणंतरमेत्तो संकमद्वाणपरूवणा कायन्त्रा ति पहण्णावकमेदं । किमट्टमेसा द्वाणपरूवणा आगया? वीए पविछाड्डि-हाणीणभणतरवियप्पपदुप्पायणमा गया ? ण, वडिपरूवणाए चैत्र यत्तादो णिरत्थयमिदं, तत्थापरू विदबंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तिय-हदहद समुप्पत्तियभेदाणं पादेकमसंखेज लोग मेत्तछाणसरूवाणमिह परूवणोवलंभादो ।
जहा संतकम्मट्ठाणाणि तहा संकमट्ठाणाणि ।
६५७३. जहा संतकम्मट्ठाणाणि बंधसमुप्पत्तिया दिभेयभिण्णाणि अणुभागविहत्तीए सवित्रं परुवाणि तहा संकमद्वाणाणि वि एत्थाणुगंतव्त्राणि, दव्त्रट्ठियणयावलंबणेण तत्तो देसि विसेसाभावादो त भणिदं होदि ।
* तहा वि परूवणा कायव्वा ।
§ ५७४. तथापि पर्यायार्थिकनयानुग्रहार्थं तेषामिह पुनः प्ररूपणा कर्तव्यैवेत्यर्थः । संपहि तेसु परूविजमाणे तत्थ संकमट्ठाणपरूवणदाए इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि भवंति — समुत्तिणा परूवणा पमाणमप्यावहुअं च । तत्थ समुत्तिणा - सव्वेसिं कम्माणमत्थि
* अब इससे आगे अनुभागसंक्रमस्थानोंका कथन करना चाहिए ।
६ ५७२. भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिके साथ संज्ञा आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंका कथन समाप्त होनेके बाद आगे संक्रमस्थानोंका कथन करना चाहिए इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है ।
शंका- यह स्थानप्ररूपणा किसलिए आई है ?
समाधान - वृद्धि द्वारा कही गई छह वृद्धियों और छह हाक्यिोंके अवान्तर भेदोंका कथन करने के लिए यह प्ररूपणा आई है । वृद्धिप्ररूपणा के द्वारा काम चल जाता है, इसलिए इसका कथन करना निरर्थक है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर नहीं कहे गये अलग अलग प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानस्वरूप बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिकरूप भेदका यहाँ पर कथन पाया जाता है।
.* जिस प्रकार सत्कर्मस्थान हैं उसी प्रकार संक्रमस्थान हैं ।
६ ५७३. जिस प्रकार बन्धसमुत्पत्तिक आदिके भेदसे अनेक प्रकारके सत्कर्मस्थान अनुभागविभक्ति में विस्तार के साथ कहे हैं उसी प्रकार यहाँ पर संक्रमस्थान भी जानने चाहिए, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा उनसे इनमें विशेष भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* तो भी उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए ।
५७४. तथापि पर्याय। थिंकनयका अनुग्रह करनेके लिए उनकी यहाँ पर पुनः प्ररूपणा करनी चाहिए यह इसका तात्पर्य है । अब उनका कथन करने पर उनमेंसे संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा में ये चार अनुयोग द्वार होते हैं - समुत्कीर्तना, प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमें से समुत्कीर्तना
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे हाणाणि
१५७ बंधममुप्पत्तियसंकमाणाणि हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि च । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं णस्थि बंधसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि । एवं सुगमत्तादो समुकित्तणामुल्लंथिऊण परूवणं पमाणं च एकदो भण्णमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाढवेदि
ॐ उकस्सए अणुभागबंधहाणे एगं संतकम्मं तमेगं संकमट्ठाणं ।
६ ५७५. उक्कस्सए अणुभागबंधट्ठाणे एयं संतकम्ममेगो संतकम्मवियप्पो ति वुत्तं होइ, बंधाणंतरसमए बंधट्ठाणस्सेव संतकम्मववएससिद्धीदो। तमेव संकमट्ठाणं षि, बंधावलियवदिक्कमाणंतरं तस्सेव संकमट्ठाणभावेण परिणयत्तादो। तदो पञ्जवसाणबंधट्ठाणस्स संतकम्मट्ठाणताणुवादमुहेण संकमट्ठाणभावविहाणमेदेण सुनेण कयं ति दट्ठव्वं ।
* दुचरिमे अणुभागबंधठाणे एवमेव ।
६ ५७६. दुचरिमाणुभागबंधट्ठाणं णाम चरिमाणुभागबंधट्ठाणस्स . अणंतरहेट्ठिमबंधट्ठाणं तत्थ एवं चेव संतकम्मट्ठाण-संकमट्ठाणभावपरूवणा कायवा, अणंतरपरूविदण्णाएण तदुभयववएससिद्धीए पडिबंधाभावादो। एवं तिचरिमादिबंथट्ठाणेसु वि तदुभयभावसंभवो णेदव्यो ति परूवणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो
* एवं ताव जाव पच्छाणुपुव्वीए पढममपंतगुणहीणबंधट्ठाणमपत्तो त्ति ।
सब कर्मों के बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान, हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान और हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान होते हैं। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान । होते । इस प्रकार सुगम होनेसे समुत्कीर्तनाको उल्लंघन कर प्ररूपणा और प्रमाणका एक साथ कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं
* उत्कृष्ट अनुभागवन्धस्थानमें एक सत्कर्म होता है । वह एक संक्रमस्थान है।
६५७५. उत्कृष्ट अनुभागवन्धस्थानमें एक सत्कर्म अर्थात् एक सत्कर्मविकल्प होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि बन्धके अनन्तर समयमें बन्धस्थानको ही सत्कर्म संज्ञाकी सिद्धि है । तथा वही संक्रमस्थान भी है, क्योंकि बन्धावलिके व्यतीत होनेके बाद वही संक्रमस्थानरूपसे परिणत हो जाता है । इसलिए इस सूत्रके द्वारा अन्तिम बन्धस्थानका सत्कर्मस्थानके अनुवादकी मुख्यतासे संक्रमस्थानभावका विधान किया ऐसा जानना चाहिए।
* द्विचरम अनुभागबन्धस्थानमें इसी प्रकार जानना चाहिए।
६५७६. अन्तिम अनुभागबन्धस्थानके अनन्तर अधस्तन बन्धस्थानको द्विचरम अनुभागबन्धस्थान कहते हैं । वहाँ पर इसीप्रकार सत्कर्मस्थान और संक्रमस्थानभावका कथन करना चाहिए, क्योंकि अनन्तर कहे गये न्यायके अनुसार उक्त दोनों संज्ञाओंकी सिद्धिमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि बन्घस्थानोंमें भी उक्त दोनों भावोंका सम्भव जान लेना चाहिए इस प्रकारका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार किया है
* इस प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे जब तक प्रथम अनन्तगुणहीन बन्धस्थान नहीं प्राप्त होता तब तक जानना चाहिए।
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१५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ५७७. एवमणेण विहाणेण पच्छाणुषुब्बीए ताव णेदव्वं जाव पढममणंतगुणहीणबंधट्ठाणमपावेऊण तत्तो उपरिमर्दुकट्ठाणं पत्तो ति । कुदो ? तेसि सव्वेसिं बंधसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणत्त सिद्धीए पडिसेहाभावादो। तत्तो हेट्ठा वि एसा चेव परूवणा होइ, किंतु एत्थंतरे को वि विसेससंभवो अस्थि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाह
* पुव्वाणुपुवीए गणिजमाणे जं चरिममणंतगणं बंधहाणं तस्स हेट्ठा अणंतरमणंतगुणहीणमेदम्मि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि।
६ ५७८. एदस्स सुत्तस्स अत्थविहासणं कस्सामो। तं जहा-पुवाणुपुवी णाम सुहुमहदसमुप्पत्तियसव्वजहण्णसंतकम्मट्ठाणप्पहुडि छबड्डीए अवद्विदाणमणुभागबंधट्ठाणाणमादीदो परिवाडीए गणणा । ताए गणिजमाणे जं चरिममणंतगुणवंधट्ठाणं पजवसाणट्ठाणादो हेट्ठा रूवणछट्ठाणमेत्तमोसरिदूणवद्विदं तस्स हेट्ठा अणंतरमणंतगुणहीणबंधट्ठाणमपावेदूण एदम्मि अंतरे घादट्ठाणाणि समुप्पजंति । केत्तियमेत्ताणि ताणि त्ति वुत्ते असंखेजलोगमेत्ताणि त्ति तेसिं पमाणणिदेसो कदो। कदो ? रूवणट्ठाणपमाणउवरिमबंधट्ठाणेसु पादेकमसंखेजलोगमेत्ताणुभागघादहेदुविसोहिपरिणामेहिं घादिजमाणेसु रूवणछट्ठाणविक्खंभपरिणामट्ठाणायामहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं हदहदसमुप्पत्तिट्ठाणसहगयाणमसंखेजलोगत्ताणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो ।
६५७७. 'एवं' अर्थात् इस विधिसे पश्चादानुपूर्वी के अनुसार प्रथम अनन्त गुणहीन बन्धस्थानको नहीं प्राप्त करके उससे आगे अष्टांकस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए. क्योंकि उन सबके बन्धसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानत्वकी सिद्धिमें कोई प्रतिषेध नहीं है । इससे नीचे भी यही प्ररूपणा है। किन्तु यहाँ पर अन्तरालमें कुछ विशेष सम्भव है, इसलिए उसका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं- .
___ * पूर्वानुपूर्वीसे गणना करने पर जो अन्तिम अनन्तगुणित बन्धस्थान है और उसके नीचे अनन्तरवर्ती जो अनन्तगुणहीन वन्धस्थान है, इन दोनोंके मध्यमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं।
६५७८. इस सूत्रके अर्थका व्याख्यान करते हैं। यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी सबसे जघन्य हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थानसे लेकर छह वृद्धिरूपसे अवस्थित अनुभागवन्धस्थानोंकी प्रारम्भसे परिपाटीक्रमसे गणना करना पूर्वानुपूर्वी कहलाती है। उसके अनुसार गणना करने पर जो अन्तिम अनन्तगुणित बन्धस्थान अन्तिम स्थानसे नीचे एक कम छह स्थानमात्र उतरकर स्थित है। उसके नीचे अनन्तर अनन्तगुणहीन बन्धस्थानको नहीं प्राप्त करके इस अन्तरालमें घातस्थान उत्पन्न होते हैं । वे कितने होते हैं ऐसा पूछने पर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया, क्योंकि एक कम षट्स्थानप्रमाण उपरिम बन्धस्थानोंका अलग-अलग असंख्यात लोकप्रमाण अनभागघातके हेतभत परिणामोंके द्वारा घात करने पर हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंके साथ प्राप्त हुए असंख्यात लोकप्रमाण एक कम षट्स्थानप्रमाण विष्कम्भवाले तथा परिणामस्थानप्रमाण आयामवाले
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिअणुभागसं कमे! हाराणि
१५६
एदेसिं च परूवणा अणुभागविहत्तीए सवित्थरमगुगया त्ति रोह पुणो परूविज दे । संपहि एदेसिमसंखेज्जलोगमेत्तघादट्ठाणाणं बंधसमुप्पत्तियभावपडिसेहमुहेण संतकम्मसंकमट्ठाणत्तविहाणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* ताणि संतकम्मट्ठाणाणि ताणि चैव संकमट्ठाणाणि ।
-
§
५७६. ताणि समणंतरणिहिदुघादट्ठाणाणि संतकम्मट्ठाणाणि, हदसमुप्पत्तियसंतकम्मभावेणावट्ठिदाणं तब्भावा विरोहादो । ताणि चैव संकमट्ठाणाणि । कुदो ? तेसिमुप्पत्तिसमत रसमयप्प हुडि ओकडणादिवसेण संकमपञ्जायपरिणामे पडिसेहाभावादो । ताणि चेवे त्ति एत्थतणएवकारो ताणि संतकम्मसंकमट्ठाणाणि चेव, ण पुणो बंधट्टाणाणि ति अवहारणफलो । एवमेत्थंतरे घाद। णसंभवगयविसेसं पदुप्पाइय संपहि एतो हेमबंधट्ठा - पडिबद्धसंक मट्ठाणाणि परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* तदो पुणो बंधट्ठाणाणि संकमट्ठाणाणि च ताव तुल्लाणि जाव पच्छाणुपुव्वीए विदियमणंतगुणहीणबंधट्ठाणं ।
९ ५८०. तदो अतरणिद्द्घिाट्ठाणसमुप्पत्तिविसयादो हेट्टिमाणंतगुणहीणबंधद्वाणहुडि पुणो वि बंधट्टाणाणि संकमट्ठाणाणि च ताव सरिसाणि होदूण गच्छति जाव पच्छापुव्वी उड्डाणमेत्तमोसरिऊण विदियमणंतगुणहीणबंधट्टाणसंधिमपत्ताणि त्ति । कुदो ! तत्थ
हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं आता । इनकी प्ररूपणा अनुभागविभक्ति में विस्तारके साथ की गई है, इसलिए यहाँ पर पुनः प्ररूपणा नहीं करते । अब ये असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान बन्धसमुत्पत्तिकरूप नहीं होकर सत्कर्म और संक्रमस्थानरूप हैं इस बातका विधान करते हु का सूत्र कहते हैं
* वे सत्कर्मस्थान हैं और वे ही संक्रमस्थान हैं ।
§ ५७६. अनन्तर पूर्व कहे गये वे घातस्थान सत्कर्मस्थान हैं, क्योंकि वे हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मरूपसे अवस्थित हैं, इसलिए उनके उन रूप होने में कोई विरोध नहीं आता । और वे ही संक्रमस्थान हैं, क्योंकि उत्पत्ति होनेके अनन्तर समयसे लेकर अपकर्षण आदिके वसे उनका संक्रमपर्यायरूपसे परिणमन करनेमें कोई प्रतिबन्ध नहीं है । 'ताणि चेव' इस प्रकार यहाँ पर जो एवकार है सो इस अवधारणका यह फल है कि वे सत्कर्मस्थान और संक्रमस्थान ही हैं । परन्तु बन्धस्थान नहीं हैं । इस प्रकार यहाँ पर अन्तरालमें घातस्थानों में सम्भव विशेषताका कथन करके ब यहाँसे नीचे बन्धस्थानोंसे सम्बन्ध रखनेवाले संक्रमस्थानोंका कथन करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* वहाँ से लेकर पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके प्राप्त होने तक जितने बन्धस्थान और संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं वे सब तुल्य होते हैं ।
५८०. 'तदो' अर्थात् अनन्तर पूर्व कहे गये घातस्थानसमुत्पत्तिविषयसे नीचे जो अनन्तहीन बन्धस्थान है उससे लेकर पुनर्राप बन्धस्थान और संक्रमस्थान तब तक सदृश होकर जाते
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ तदुभयसंभवे विरोहाणुवलंभादो । संतकम्मट्ठाणत्तमेदेसि किण्ण परूविदं ! ण, अणुत्तसिद्धत्तादो । एवमेदासि परूवणं कादूण संपहि विदियअणंतगुणहीणबंधट्ठाणस्स उवरिल्ले अंतरे पुवं व घादट्ठाणाणि होति ति परवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ--
* विदियअपांतगुणहीणबंधट्ठाणस्सुवरिल्ले अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घाट्ठाणाणि । ___५८१. कुदो ? एगछट्ठाणेणणाणुभागसंतकम्मियमादि कादूण जाव पच्छाणुपुवीए विदियअट्ठकट्ठाणे ति ताव एदेसु हाणेसु घादिजमाणेसु पयदंतरे असंखेजलोगमेत्तघादट्ठाणाणमुप्पत्तीए परिप्फुडमुवलंमादो ।
__® एवमणंतगुणहोणबंधट्ठाणस्सुवरि अंतरे असंखेज लोगमेत्ताणि घावट्ठाणाणि।
६५८२. एवमणंतरपरूविदविहाणेण असंखेजलोगमेत्तघादट्ठाणाणि ति चरिमादिहेद्विमासेसअटुंकुव्बंकाणमंतरेसु अब्बामोहेण परूवेयवाणि ति भणिदं होदि । णवरि सुहुमहदसमुप्पत्तियजहण्णट्ठाणादो उपरिमाणं संखेजाणमटुंकुव्वंकाणमंतरेसु हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाण
हैं जब तक पश्चादानुपूर्वीसे षट्स्थानमात्र उतर कर दूसरे अनन्तगुणहीन बन्धस्थानकी सन्धिको नहीं प्राप्त होते, क्योंकि वहाँ पर उन दोनोंके सन्भक होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता।
शंका-ये सत्कर्मस्थान भी हैं ऐसा क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि यह बात बिना कहे ही सिद्ध है।
इसप्रकार इनका कथन करके अब द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके उपरिम अन्तरमें पहलेके समान घातस्थान होते हैं इस बातका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* द्वितीय अनन्तगुणहीनबन्धस्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं।
६५८१. क्योंकि षट्स्थानसे न्यून अनुभागसत्कर्मसे लेकर पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय अष्टांकस्थानके प्राप्त होने तक इन स्थानोंके घात करने पर प्रकृत अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थानोंकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे उपलब्ध होती है।।
* इस प्रकार प्रत्येक अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके अन्तरालमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं।
६५८२. इस प्रकार अनन्तर पूर्व कहे गये विधानके अनुसार अन्तिम आदि अधस्तन सब प्रयांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थानोंका व्यामोह रहित होकर कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म एकेन्द्रियसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक जघन्य स्थानसे लेकर उपरिम संख्यात अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें हत
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे द्वाणाणि
१६१ मुप्पत्ती णत्थि ति वत्तव्वं । सुत्तेण विणा कथमेदं परिच्छिादे ? ण, सुत्ताविरुद्धपरमगुरुपरंपरागयविसिट्ठोवएसबलेग तदवगमादो । संपहि उत्तत्थविसयणिण्णयदढीकरणट्ठमुवसंहारवक्कमाह
* एवमणंतगुणहीणबंधट्ठाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणणि भवंति पत्थि अपणम्मि।
६५८३. सुगममेदमुवसंहारवक्कं । णवरि अटुंकुव्वंकाणं विच्चालेसु चेव घादट्ठाणाणि होंति, णागत्थे त्ति जाणावणटुं 'णत्थि अण्णम्हि' ति भणिदं । एवमेदमुवसंहरिय संपहि बंध-संकमट्ठाणाणमण्गोण्णविसयावहारणक्कमपदंसणट्ठमिदमाह
* एवं जाणि बंधहाणाणि ताणि णियमा संकमट्ठाणाणि । ___६५८४. किं कारणं १ पुव्वुत्तेण णाएण सव्वेसिं बंधट्ठाणाणं संकमट्ठाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादो।
* जाणि संकमट्ठाणाणि ताणि बंधहाणाणि वा ण वा ।
६ ५८५. कुदो ? बंधट्ठाणेहिंतो पुधमूदघादट्ठाणेसु वि संकमट्ठाणाणमणुबुत्तिदंसणादो।
समुत्पत्तिक संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति नहीं होती ऐसा कहना चाहिए।
शंका-सूत्रके बिना इस तथ्यका ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूत्रके अविरोधी परम गुरुओंके परम्परासे आए हुए विशिष्ट उपदेशके बलंसे इस तथ्यका ज्ञान होता है।
अब उक्त विषयके निर्णयको दृढ़ करनेके लिए उपसंहाररूप सूत्रको कहते हैं- .
* इस प्रकार प्रत्येक अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके उपरिम अन्तरालमें असंख्यात लोकप्रमाण धातस्थान होते हैं, अन्यमें नहीं।
६५८३. यह उपसंहार वचन सुगम है। इतनी विशेषता है कि अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें ही घातस्थान होते हैं, अन्यत्र नहीं होते इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'एत्थि अण्णम्हि' यह वचन कहा है। इस प्रकार इसका उपसंहार करके अब बन्धस्थानों और संक्रमस्थानोंके परस्पर विषयका अवधारणक्रम दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार जो बन्धस्थान हैं वे नियमसे संक्रमस्थान हैं।
६५८४ क्योंकि पूर्वोक्त न्यायसे सब बन्धस्थानोंके संक्रमस्थानरूपसे सिद्धि होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
* तथा जो संक्रमस्थान हैं वे बन्धस्थान हैं भी और नहीं भी हैं।
६५८५. क्योंकि बन्धस्थानोंसे पृथग्भूत घातस्थानों में भी संक्रमस्थानोंकी अनुवृत्ति देखी जाती है।
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१६२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * तदो बंधहाणाणि थोवाणि।
६ ५८६. जदो एवं घादट्ठाणेसु बंधट्ठाणाणं संभवो णत्थि तदो ताणि थोवाणि ति भणिदं होइ।
8 संतकम्मट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि ।
६५८७. कुदो ? बंधट्ठाणेहितो असंखेजगुणघादट्ठाणेसु वि संतकम्मट्ठाणाणं संभवदंसणादो।
जाणि च संतकम्महापाणि ताणि संकमहापाणि । ६ ५८८. कुदो १ बंध-घादट्ठाणसरूवसंतकम्मट्ठाणाणं सव्वेसिमेव संकमट्ठाणत्तसिद्धीए अणंतरमेव परूविदत्तादो। एवमेत्तिएण पबंधेण संकमट्ठाणाणं परूवणं पमाणाणुगमं च कादूण संपहि तेसि सव्वाओ पयडीओ अस्सिऊण सत्थाण-परत्थाणेहि अप्पाबहुअपरूवण?मुत्तरसुत्तमाह
* अप्पाबहुअं जहा सम्माइडिगे बंधे तहा।
६५८६. जहा सम्मोइट्ठिबंधे बंधट्ठाणाणमप्पाबहुअं परूविदं सबकम्माणं तहा एत्थ वि संकमट्ठाणाणमप्पाबहुअं परूवेयव्यमिदि भणिदं होइ । एदेण सुत्तेण परत्थाणप्पाबहुमं सूचिदं । सत्थाणप्पाबहुअं पि देसामासयभावेण सूचिदमिदि घेत्तव्यं । तदो सत्थाण-परत्थाण
* इसलिए बन्धस्थान थोड़े हैं।
६५८६. यतः इस प्रकार घातस्थानोंमें बन्धस्थान सम्भव नहीं हैं अतः वे स्तोक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उनसे सत्कर्भस्थान असंख्यातगुणे हैं।
६५८७.क्योंकि बन्धस्थानोंसे असंख्यातगुणे घातस्थानोंमें भी सत्कर्मस्थानोंकी सम्भावना देखी जाती है।
* जो सत्कर्मस्थान हैं वे सक्रमस्थान हैं।
६५८८. क्योंकि बन्धस्थान और घातस्थानरूप सभी सत्कर्मस्थान संक्रमस्थान हैं इसकी सिद्धिका कथन पहले ही कर आये हैं। इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा संक्रमस्थानोंका कथन और प्रमाणानुगम करके अव उनकी सब प्रकृतियोंका आश्रय लेकर स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकारसे अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए भागेका सूत्र कहते हैं
* जिस प्रकार सम्यग्दृष्टिके बन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहाँ पर जानना चाहिए।
५८६. जिस प्रकार सम्यग्दृष्टिसम्बन्धी बन्ध अनुयोगद्वारमें सब कर्मों के बन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहाँ पर भी संक्रमस्थानोंके अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस सूत्रके द्वारा परस्थान अल्पबहुत्वका सूचन किया है। तथा देशामर्षक
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गा० ५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे हाणाणि
१६३ भेदेण दुविहं पि अप्पाबहुअमेत्य बत्तइस्सामो । तं जहा, सत्थाणे पयदं–मिच्छत्तस्स सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि । हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि। हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा। कारणं सुगमं । एवं सव्यकम्माणं । णवरि सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवाणि घादट्ठाणाणि, दंसणमोहक्खवणाए चेव तेसिमुवलंभादो। संकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ! एगरूवमेत्तेण । कुदो ! उक्कस्साणुभागट्ठाणस्स वि तत्थ पवेसुवलंभादो। एवं सत्थाणप्पाबहुअं समत्तं ।
५६०. संपहि परत्थाणप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। तं जहा-सव्वत्थोवाणि सम्मामि० अणुभागसंकमट्ठाणाणि । कुदो ? संखेजसहस्सपमाणत्तादो। सम्मत्त अणुभागसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । कदो ? अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो। हस्सबंधसमुप्पत्तियसंकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । हदसमुप्पत्तिय०टा० असंखेजगुणाणि । हदहदसमुप्पत्तिय०टा० असंखेजगुणाणि । रदीए बंधसमु०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । हदसमुप्प०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । पुरिसवेदस्स बंधसमुप्पत्तियसंकमडाणाणि असंखेजगुणाणि। हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । इथिवेदस्स बंधसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठा० असंखेजगुणाणि ।
भावसे स्वस्थान अल्पबहुत्वका भी सूचन किया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए स्वस्थान
और परस्थानके भेदसे दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वको यहाँ पर बतलाते हैं। यथा-स्वस्थानका प्रकरण है । मिथ्यात्वके बन्धसमुत्पत्तिक संक्रमस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिक संक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे है। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। कारण सुगम है। इसी प्रकार सब कर्मो के उक्त स्थानोंका अल्प बहुत्व जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके घातस्थान सबसे स्तोक हैं, क्योंकि बे दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें ही उपलब्ध होते हैं। उनसे संक्रमस्थान. विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं। एक अङ्कप्रमाण अधिक हैं, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागस्थानका भी उनमें प्रवेश देखा जाता है । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
६५६०. अब परस्थान अल्पबहुखको बतलाते हैं। यथा-सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागसंक्रमस्थान सबसे स्तोक हैं, क्योंकि वे संख्यात हजार हैं। उनसे सम्यकत्वके अनुभागसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अन्तर्मुहूर्तके समयप्रमाण हैं। उनसे हास्यके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातनुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे रतिके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे पुरुषवेदके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे इंतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थ न असंख्यातगुणे हैं । उनसे स्त्रीवेदके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं।
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१६४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
दुगु छाए बंधसमु०सं० डा० असंखेञ्जगुणाणि । हदसमुप्पत्तिय संक्रमट्ठा० असंखेञ्जगुणाणि । हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठा० असंखेज्जगुणाणि । भयस्स बंधसमुप्पत्तियसंकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । हदसमुप्पत्तियकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । हद हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सोगस्स बंध समुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेञ्जगुणाणि । हदसमुपत्तियसंकभट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठा ० असंखेज्जगुणाणि । अरदीए बंध समुपपत्तिकमा ० असंखेञ्जगुणाणि । हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेज गुणाणि । हदहदसमुप्पत्तिय संक्रमडा ० असंखेञ्जगुणाणि । णत्रुंसयवेदस्त बंध समुप्पत्तिय संक्रमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । हदसमुप्पत्तियसंकमट्ठा णाणि असंखेञ्जगुणाणि । हृदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । अपच्चक्खाणमा णस्स बंध समुप्पत्तियसंकमडाणाणि असंखेञ्जगुणाणि । कोधे० विसेसाहिया ० । मायाए विसेसा० । लोभे विसेसा ० । अपच्चक्खाणमाणस्स हदसमुप्पत्तियसंकमट्टा • असंखेज्जगुणाणि । कोहे० विसेसा ० । मायाए० विसेसा० । लोभे० विसेसा० । अपच्चक्खाणमाणस्स हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । कोहे० विसे० । मायाए० विसेसा० । लोभे० विसेसा० । पच्चक्खाणमाणस्स बंधसमु० संकमट्ठा • असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसे० ।
उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे जुगुप्स के बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे भयके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे शोकके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे है । उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रम स्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अरतिबन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं । उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे नपुंसक वेद के बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं | उनसे ह्तसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अप्रत्याख्यानमानके वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यानक्रोध के बन्धसमत्पत्तिक संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्याख्यानमायाके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्याख्यानलोभ बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्याख्यानमानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं | उनसे प्रत्याख्यानक्रोधके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे अप्रत्याख्यानमायाके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्याख्यान लोभ के हृतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्याख्यानमान के हत हतसमुत्पत्तिक संक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यानक्रोधके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमल्यान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमाया के तहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अप्रत्वाख्यानलोभके इतहतसमत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमान के बन्धसमत्यत्तिकसंक्रमस्थान असख्यातगुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यान कोधके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष
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गा०५८] उत्तरपयडिअणुभागसंकमे हाणाणि
१६५ लोभे विसे । पच्चक्खाणमाणस्स हदसमु०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । पच्चक्खाणमाणस्स हदहदसमुप्पत्तियसंकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । माणसंअलणस्स बंधसमु०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसे । लोहे विसे० । माणसंजलणस्स हदसम०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसेसा० । लोहे पिसे । माणसंजलण० हदहदसमु०संकमट्ठा० असंखेज्जगुणाणि। कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । अणंताणु०माणस्स बंधसमु०संकट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोहे विसे० । अर्णताणु०माणस्स हद०समु०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे । मायाए विसे० । लोहे विसे० । अणंताणु०माणस्स हदहदसमुप्प०संकमट्ठा० असंखेजगुणाणि । कोहे विसे० । मायाए विसे । लोहे
अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमायाके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानलोभके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यानक्रोधके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमायाके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानलोभके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमानके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यानक्रोधके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानमायाके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे प्रत्याख्यानलोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मानसंज्वलनके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे क्रोधसंज्वलनके वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे संज्वलनमायाके बन्धसमत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे संज्वलनलोभके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मानसंज्वलनके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे क्रोधसंज्वलनके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मायासंचलनके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे लोभसंज्वलनके हतसमत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मानसंज्वलनके हतहतसमत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे क्रोधसंज्वलनके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मायासंज्वलनके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे लोभसंज्वलनके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीमानके बन्धसमसत्तिक संक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीक्रोधके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीमायाके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे अनन्तानुबन्धीलाभके बन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानुबन्धी मानके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीक्रोधके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीमायाके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानन्धीलोभके हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । उनसे अनन्तानुबन्धीमानके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीमायाके हतहतसमुत्पत्तिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
विसे०
[ बंधगो ६ ० । मिच्छत्तस्स बंधसमुप्पत्तियसंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । हदसमुप्य० संकमणाणि असंखेखगुणाणि । हृदहदसमुप्प ० संकमट्ठा ० असंखेजगुणाणि । एत्थ सव्वत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा । बिसेसो च सव्वत्थासंखेज लोगपडिभागिओ घेत्तव्यो । जेसिं कम्मा - मणुभागसंतकम्ममणंतगुणं तेसिमभागसंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । जेसिं पुण विसेसाहियमणुभागसंतकम्मं सव्वेसिं संकमडाणाणि विसेसा हियाणि त्ति । एत्थमत्थपदं साहणं काऊणप्पा बहुगमिदं सकारणमणुमग्गिदं ।
एवमप्पा बहुअं समत्तं । तदो अणुभागसंकमद्वाणपरूवणा समत्ता । एवं 'संका मेदि कर्दि वा' त्ति एदस्स पदस्स अत्थं समाणिय अणुभागसंकमो समत्तो ।
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संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे अनन्तानुबन्धीलोभके हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। उनसे मिध्यात्व के वन्धसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकसंक्रमस्थान श्रसंख्यातगुणे हैं । यहाँ पर सर्वत्र गुणकार असंख्यात लोक और विशेष असंख्यात लोकका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना ग्रहण करना चाहिए। जिन कर्मोंका अनुभागसत्कर्म अनन्तागुणा है उनके अनुभागसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं । और जिनका अनुभागसत्कर्म' विशेष अधिक है उन सबके संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। इस प्रकार यहाँ पर अर्थपदका साधन करके इस अल्पबहुत्वका सकारण विचार किया ।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । अनन्तर अनुभागसंक्रमस्थान समाप्त हुआ । इस प्रकार 'काभेदि कदि वा' इस पदके अर्थका व्याख्यान करके अनुभागसंक्रम समाप्त हुआ ।
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सिरिंजइवसहाइरियविरइय-चुण्णिमुत्तसमणिदं
सिरि-भवंतगुणहरभडारओवइटें क सा य पा हु डं
तस्स
सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका
जयधवला
तत्थ
बंधगो णाम छट्ठो अत्याहियारो
पणमिय मोक्खपदेसं पदेससंकंतिविरहियं सवगयं । पयडिय धम्मुवएसं वोच्छामि पदेससंकमं णीसंकं ॥
प्रदेशके संक्रमणसे रहित और सर्वग मोक्षप्रदेशको अर्थात्, सिद्धपरमेष्ठीको प्रणाम करके धर्मोपदेशको प्रकट करते हुए निःशंक होकर प्रदेशसंक्रम अधिकारको कहता हूँ ॥१॥
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१६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
* पदेससंकमो ।
६ १. पयडि-विदि-अणुभागसंकमविहासणाणंतरमिदा णिभवसरपत्तो पदेससंकमो 'गुणatri at गुणविसि इदि गाहासुत्तात्रयवपडिबद्धो विहासियन्त्रो त्ति अहिया संभालणसुत्तमेदं । एवमहियस्स पदेससंकमस्स सरूवविसेसणिद्धारणमुत्तरो पुच्छाणिदेसो
* तं जहा ।
६ २. सुगमं ।
* मूलपदेससंकमो णत्थि ।
९ ३. कुदो सहावदो चैत्र मूलपयडीणमण्णोण्णविसयसंकंतीए असंभवादो । * उत्तरपयडिपदेससंकमो ।
§ ४. उत्तरपयडिपदेससंकमो अस्थि ति सुत्तत्थसंबंधो । कुदो तासिं समयाविरोहेण परोप्परविसयसंकमस्स पडिसेहाभावादो ।
अट्ठपदं ।
५. तत्थ उत्तरपयडिपदेससंकमे अट्ठपदं भणिस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं । किमट्ठ पद णाम ? तो विवखस्स पयत्थस्स परिच्छिती तमट्ठपदमिदि भणदे |
* अब प्रदेशसंक्रमको कहते हैं ।
१. प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम और अनुभागसंक्रमका व्याख्यान करनेके बाद इस समय गाथासूत्रके 'गुणहीणं वा गुणविसिद्ध" इस अवयवसे सम्बन्ध रखनेवाले अवसर प्राप्त प्रदेशसंक्रमका व्याख्यान करना चाहिए इस प्रकार यह सूत्र अधिकारकी सम्हाल करता है । इस प्रकार अधिकार प्राप्त प्रदेशसंक्रमके स्वरूपविशेषका निश्चय करनेके लिए आगेके पृच्छासूत्रका निर्देश करते हैं
* यथा
९२. यह सूत्र सुगम है ।
* मूलप्रकृतिप्रदेशसंक्रम नहीं है ।
६३. क्योंकि स्वभावसे ही मूल प्रकृतियोंके परस्पर प्रदेशोंका संक्रम असम्भव है । * उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रम हैं ।
६४. उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रम है, ऐसा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि उनके परमाणुओंका समयके विरोधपूर्वक परस्पर संक्रम होनेका निषेध नहीं है ।
* उस विषय में यह अर्थपद है ।
६५. वहाँ उत्तरकृति प्रदेशसंक्रमके विषयमें अर्थपदको कहते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा
वचन है ।
शंका- पद किसे कहते हैं ?
समाधान — जिससे विवक्षित पदार्थका ज्ञान होता है उसे अर्थपद कहते हैं। आगे उसे बतलाते हैं—
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे अट्ठपदं
१६६ ® जं पदेसग्गमएणपयडिं णिजदे जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गं णिज दि तिस्से पयडीए सो पदेससंकमो।
६६. जं पदेसग्गमण्णपयडि णिज्जदि सो पदेससंकमो ति सुत्तत्थसंबंधो । सो कस्स ? किंपडिग्गहपयडीए आहो पडिगेज्झमाणपयडीए ति आसंकिय इदमाह-'जत्तो पयडीदो' इच्चादि । जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गमण्णपयडि णिजदे तिस्से चेव पडिगेज्झमाणपयडीए सो पदेससंकमो होइ, णाण्णपयडीए ति भणिदं होइ । एदेण परपयडिसंकतिलक्खणो चेत्र पदेससंकमो ण ओकड्डक्कड्डणलक्षणो ति जाणाविदं, द्विदि-अणुभागाणं च ओकड्डक्कडणाहि पदेसग्गस्स अण्गभावावत्तीए अणुवलंभादो । संपहि एदस्सेवत्थस्स उदाहरणमुहेण फुडोकरण?मुत्तरसुत्तमाह
ॐ जहा मिच्छत्तस्स पदेसग्गं सम्मत्ते संछुहदि तं पदेसग्गं मिच्छत्तस्स पदेससंकमो ।
६७. 'जहा' तं जहा ति भणिदं होदि । मिच्छत्तसरूवेण द्विदं पदेसग्गं जदा सम्मत्तायारेण परिणमिजदि तदा पदेसग्गं . मिच्छत्तस्स पदेससंकमो होइ, गाण्णस्से ति भणिदं होइ ।
8 एवं सव्वत्थ ।
* जो प्रदेशाग्र जिस प्रकृतिसे अन्य प्रकृतिको ले जाया जाता है वह प्रदेशाग्र यतः ले जाया जाता है इसलिए उस प्रकृतिका वह प्रदेशसंक्रम है।
६६. जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृतिको ले जाया जाता है वह प्रदेशसंक्रम है इस प्रकार इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । वह किसका होता है, क्या प्रतिग्रह प्रकृतिका होता है या प्रतिग्राह्यमान प्रकृतिका होता है इस प्रकार आशंका करके 'जत्तो पयडीदो' इत्यादि वचन कहा है। जिस प्रकृतिसे वह प्रदेशाग्र अन्य प्रकृतिको ले जाया जाता है उसी प्रतिग्राह्यमान प्रकृतिका वह प्रदेशसंक्रम होता है, अन्य प्रकृतिका नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस वचन द्वारा परप्रकृतिसंक्रमलक्षण ही प्रदेशसंक्रम है, अपकर्षण उत्कर्षणलक्षण नहीं यह ज्ञान कराया गया है, क्योंकि जिस प्रकार अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा स्थिति और अनुभागका अन्यरूप होना पाया जाता है उस प्रकार उन द्वारा प्रदेशाग्रका अन्यरूप होना नहीं पाया जाता।
* जैसे मिथ्यात्वका प्रदेशाग्र सम्यक्त्वमें संक्रान्त किया जाता है, अतः वह प्रदेशाग्र मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम है।
६७. सूत्रमें 'जहा' पद 'तं जहा' के अर्थमें आया है ऐसा समझना चाहिए। मिथ्यात्वरूपसे स्थित हुआ प्रदेशाग्र जब सम्यक्त्वरूपसे परिणमाया जाता है तब वह प्रदेशाग्र मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम होता है, अन्यका नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६८. जहा मिच्छत्तस्स पदेससंकमो णिदरिसिदो एवं सेसकग्माणं पि सगसगपडिग्गहाविरोहेण णिदरिसेयव्यो ति भणिदं होइ ।
* एदेण अहुपदेण तत्थ पंचविहो संकमो।
६६. एदेणाणंतरपरूविदेण अट्ठपदेण उत्तरपयडिपदेससंकमे बिहासणिजे तत्थ इमो पंचविहो संकमवियप्पो णायचो ति भणिदं होइ
तं जहा। ६१०. सुगममेदं पयदसंकमवियप्पसरूवणिद्देसावेक्खं पुच्छावक्क ।
* उव्वेल्लणसंकमो विज्झादसंकमो अधापवत्तसंकमो गुणसंकमो सव्वसंकमो च।
६ ११. एवमेदे उव्वेल्लणादयो पंचवियप्पा पदेससंकमस्स होति ति सुत्तत्यसमुच्चयो। तत्थुव्बेल्लणसंकमो णाम करणपरिणामेहि विणा रज्जव्वेल्लणकमेण कम्मपदेसाणं परपयडि
८. जिस प्रकार मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमका उदाहरण दिया है उसी प्रकार शेष कर्मोका भी अपनी अपनी प्रग्रिह प्रकृतियोंके अविरोधरूपसे उदाहरण दिखलाना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-यहाँ पर प्रदेशसंक्रमका विचार चल रहा है। मूल प्रकृतियोंका तो परस्परमें संक्रम नहीं होता, उत्तर प्रकृतियोंका यथायोग्य संक्रम अवश्य होता है। तदनुसार जिस प्रकृतिके प्रदेश अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त किये जाते हैं उस प्रकृतिका वह प्रदेशसंक्रम कहलाता है। उदाहरण मूलमें दिया ही है । तात्पर्य यह है कि उत्कर्षण और अपकर्षण एक ही प्रकृतिमें होता है। पर प्रदेशसंक्रमके लिए दो प्रकारकी प्रकृतियाँ विवक्षित होती हैं। एक वे जिनमें अन्य प्रकृतियोंके प्रदेशोंका संक्रमण होता है, इन्हें प्रतिग्रह प्रकृतियों कहते हैं और दूसरी वे जिनके प्रदेशोंका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण होता है, इन्हें प्रतिग्राह्यमान प्रकृतियाँ कहते हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि अमुक प्रकृतियाँ प्रतिग्रहरूप हैं और अमुक प्रकृतियाँ प्रतिग्राह्यमान हैं इस प्रकार वे कुछ बटी हुई नहीं हैं। यथा समय समयानुसार सभी प्रकृतियाँ प्रतिमहरूप हैं और सभी प्रकृतियाँ प्रतिग्राह्यमानरूप हैं। आगममें नियम दिये हैं उनके अनुसार यह सब विधि जान लेनी चाहिये । इस विधिका विशेष विचार प्रकृतिसंक्रम अधिकारमें कर ही आये हैं, इसलिए पुनरुक्त दोषके भयसे यहाँ पर पुनः विचार नहीं किया है।
* इस अर्थपदके अनुसार प्रदेशसंक्रम पाँच प्रकारका है।
६६. इस पहले कहे गये अर्थपदके अनुसार उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रमका ब्याख्यान करने योग्य है। उसमें यह पाँच प्रकारका संक्रम जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* यथा। १०. प्रकृत संक्रमके भेदोंके स्वरूपके निर्देशकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छासूत्र सुगम है। * उद्वलनासंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ।
६११. इस प्रकार प्रदेशसंक्रमके ये उद्वेलना आदिक पाँच भेद होते हैं यह सूत्रार्थका समुषय है। उनमेंसे करणपरिणामोंके बिना रस्सीके उकेलनेके समान कर्मप्रदेशोंका परप्रकृतिरूपसे
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पी०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पंचविहसंकमसरूवणिदेसो सरूवेण संछोहणा । तस्स भागहारो अंगुलस्सासंखेज दिभागो। एदस्स विसयो वुच्चदे-तं जहा-सम्माइट्ठी मिच्छत्तं गंतूण जाव अंतोमुहुत्तं ताव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमधापवत्तसंकमं कुणइ । तत्तो परमुव्वेल्लणासंकमं पारभिय सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं विदिघादं कुणमाणस्स जाव पलिदो० असंखे०भागमेत्तो तदुव्वेल्लणाकालो ताव णिरंतरमव्वेल्लणभागहारेण विसेसहीणो पदेससंकमो होइ । विसेसहाणीए कारणं भञ्जमाणदव्वं समयं पडि विसेसहीणं होदूण गच्छदि ति वत्तव्वं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं चरिमट्टिदिखंडयम्मि गुणसंकमो सव्वसंकमो च जायदे । एवमुवेल्लणसंकमसरूवपरूवणं कयं ।।
१२. संपहि विज्झादसंकमस्स परूवणा कीरदे । तं जहा—वेदगसम्मत्तकालभंतरे सव्वत्येव मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताणं विज्झादसंकमो होइ जाव दंसणमोहक्खवयअधापवत्तकरणचरिमसमयो ति । उवसमसम्माइट्ठिम्मि वि गुणसंकमकालादो उपरि सव्वत्थ विज्झादसंकमो होइ । एदस्स वि भागहारो अंगुलस्सासंखे०भागो। णवरि उव्वेल्लणभागहारादो असंखेन्गुणहीणो। एवमण्णासि वि पयडीणं जहासंभवं विज्झादसंकमविसओ अणुगंतव्यो।
१३. संपहि अधापवत्तसंकमस्स लक्खणं वुच्चदे। बंधपयडीणं सगबंधसंभवविसए जो पदेससंकमो सो अधापवत्तसंकमो ति भण्णदे । तस्स पडिभागो पलिदो० असंखे०भागो। तं जहा-चरित्तमोहपयडीणं पणुवीसहं पि सगबंधपाओग्गविसए बज्झमाणपयडिपडिग्गहेण अधापवत्तसंकमो होइ। संक्रान्त होना उद्वेलनासंक्रम है । उसका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अब इसका विषय कहते हैं । यथा-सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका अधःप्रवृतसंक्रम करता है। उसके बाद उद्वेलनासंक्रमका प्रारम्भ कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिघात करनेवाले उसके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलना कालके अन्त तक निरन्तर उलना मागहारके द्वारा विशेष हीन प्रदेशसंक्रम होता है । यहाँ पर भज्यमान द्रव्य प्रत्येक समयमें विशेष हीन होता जाता है इसे विशेष हानिका कारण कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकमें गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम हो जाता है । इस प्रकार उद्वेलना संक्रमके स्वरूपका कथन किया।
६ १२. अब विध्यातसंक्रमका कथन करते हैं। यथा-वेदकसम्यक्त्वके कालके भीतर दर्शनमोहनीयकी क्षपणासम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय तक सर्वत्र ही मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वका विध्यातसंक्रम होता है। तथा उपशमसम्यग्दृष्टिके भी गुणसंक्रमके कालके बाद सर्वत्र विध्यातसंक्रम होता है। इसका भी भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाग है। इतनी विशेषता है कि उद्वेलनाके भागहारसे यह असंख्यातगुणा हीन है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंके भी यथासम्भव विध्यातसंक्रमका विषय जानना चाहिए।
१३. अब अधःप्रवृत्तसंक्रमका लक्षण कहते हैं-बन्धप्रकृतियोंका अपने बन्धके सम्भव विषयमें जो प्रदेशसंक्रम होता है उसे अधःप्रवृत्तसंक्रम कहते हैं। उसका प्रतिभाग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यथा-चारित्रमोहनीयकी पच्चीसों प्रकृतियोंका अपने बन्धके योग्य विषयों बध्यमान प्रकृतिप्रतिग्रहरूपसे अधःप्रवृत्तसंकृम होता है ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ धगो ६
९ १४. संपहि गुणसंकमस्स लक्खणं बुच्चदे । तं जहा – समयं पडि असंखेज्जगुणाए सेटीए जो पदेससंकमो सो गुणसंकमो ति भण्णदे । तं जहा - अपुव्त्रकरणपढमसमयप्पहुडि दंसणमोहक्खवणाए चरित्तमोहक्खवणाए उवसमसेढिम्मि अनंताणबंधिविसंजोयणाए सम्मत्तुप्पायणाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुव्वेल्लणचरिमखंडए च गुणसंकमो होइ । एदस्स बिभागहारो पलिदो ० असंखे० भागो होंतो वि अधापवत्तभागहारादो असंखे ० गुणहीणो । १५. संपहि सव्वसंकमस्स सरूवं बुच्चदे । तं जहा - सव्वस्सेव पदेसग्गस्स जो कमो सो सव्त्रसंकमो त्ति भण्णदे । सो कत्थ होइ ? उब्वेल्लणाए विसंजोयणाए खवणाए च चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालिसंकमो होइ । तस्स भागहारो एयरूत्रमेत्तो । एवमेसो पंचवि कमो सुत्देण णिोि । एत्थुवसंहारगाहा—
१७२
उब्वेल्लरण-विज्झादो श्रधापवत्त - गुणसंकमो चेय | तह सव्वसंकमो त्तिय पंचविहो संकमो यो ॥१॥
१६. एवमेदेसि पदेससंकमभेदाणं सरूवणिद्देसं काढूण संपहि तेसिं चेत्र दव्वगयविसेसजाणावण अप्पा बहुअमेत्थ कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* उव्वेल्लणसंकमे पदेसग्गं थोवं ।
$ १७. कुदो १ अंगुला संखेज्जभागपडिभागियत्तादो ।
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१४. अब गुणसंक्रमका लक्षण कहते हैं । यथा - प्रत्येक समय में असंख्यात गुणित - रूपसे जो प्रदेशसंक्रम होता है उसे गुणसंक्रम कहते हैं । यथा - पूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर दर्शन मोहनीयकी क्षपण में, चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में, उपश्रमश्रेणिमें, अनन्तानुबन्धीकी विसं योजनामें, सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें तथा सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना के अन्तिम काण्डकक्रम होता है । इसका भी भागहार पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणा हीन है ।
§ १५. अब सर्बसंक्रमके स्वरूपको कहते हैं । यथा - सभी प्रदेशोंका जो संक्रम होता है उसे सर्वसंक्रम कहते हैं। वह कहाँ पर होता है ? उद्वेलनामें, विसंयोजना में और क्षपणा में अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके संक्रमके समय होता है। उसका भागहार एक प्रमाण है । इस प्रकार यह पाँच प्रकारका संक्रम इस सूत्रद्वारा दिखलाया गया है । इस विषय में यहाँ पर उपसंहार गाथा
उद्व लनसंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम इस प्रकार पाँच प्रकारका संक्रम जानना चाहिये ॥१॥
§ १६. इस प्रकार इन प्रदेशसंक्रमके भेदोंके स्वरूपका निर्देश करके अब उन्होंकी द्रव्यगत विशेषताका ज्ञान कराने के लिए यहाँ पर अल्पबहुत्वको करते हुए श्रागेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* उद्वेलन संक्रम में प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है ।
§ १७. क्योंकि उसे लानेका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पंचविइसकमअप्पाबहुअणिदेसो १७३ .
ॐ विज्झादसंकमे पदेसम्ममसंखेज्जगुणं ।
६ १८. कुदो ? दोण्हमेदेसिगुलासंखेजभागपडिभागियत्ते समाणे वि पुचिल्लभागहारादो विज्झादभागहारस्सासंखेजगुणहीणत्तब्भुवगमादो।
* अधापवत्तसंकमे पदेसग्गमसंखेजगुणं । ६१६. कि कारणं ? पलिदोवमासंखेजभागपडिभागियत्तादो। ॐ गुणसंकमे पदेसग्गमसंखेनगुणं ।।
२०. किं कारणं ? पुबिल्लभागहारादो एदस्स असंखेजगुणहीणभागहारपडिवद्धत्तादो।
8 सव्वसंकमे पदेसग्गमसंखेनगुणं ।
६२१. किं कारणं ? एगरूवभागहारपडिबरादो । एवं दबप्पाबहुअमुहेण पंचण्हमेदेसि संकमभेदाणं भागहारविसेसो वि जाणाविदो। तदो एदेण सूचिदभागहारप्पाबहुअंपि विलोमक्कमेण णेदव्वं । एवमेदेसि संकमपभेदाणं सरूवपरूवणं कादूण संपहि एदेण अट्ठपदेण उत्तरपयडिपदेससंकमाणुगमे कायव्वे तत्थ इमाणि चउवीसमणिओगद्दाराणिसमुकित्तणा भागाभागो जाव अप्पाबहुए ति । भुजगार-पदणिक्खेव-वडि-हाणाणि च । तत्थ समुक्त्तिणा दुविहा जहण्णकस्सभेएण । तत्थुक्कस्से पयदं । दुविहो गिद्देसो-ओपेण आदेसेण य । ओघेण अट्ठावीसं पयडीणमत्थि उकस्सओ पदेससंकमो । एवं चदुगदीसु ।
* उससे विध्यातसंक्रममें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ।
६१८. क्योंकि इन दोनोंको लानेका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागरूपसे समान होने पर भी पहलेके भागहारसे विध्यातसंक्रमका भागहार असंख्यातगुणा हीन स्वीकार किया गया है ।
* उससे अधःप्रवृत्तसंक्रममें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । ६ १६. क्योंकि इसे लानेके लिए भागहार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे गुणसंक्रममें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ।
२०. क्योंकि पूर्व द्रव्यके भागहारसे यह द्रव्य असंख्यातगुणे हीन भागहारसे सम्बन्ध रखता है।
* उससे सनसंक्रममें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है।
६ २१. क्योंकि यह द्रव्य एक अङ्कप्रमाण भागहारसे सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार द्रव्योंके अल्पबहुत्वके द्वारा इन पाँच संक्रमभेदोंके भागहारविशेषका भी ज्ञान करा दिया है । इसलिए इस द्वारा रचित हुए भागहारोंके अल्पबहुत्वको भी विलोमक्रमसे ले जाना चाहिए। इस प्रकार इन संक्रमके भेदोंके स्वरूषका कथन करके अब इस अर्थपदके अनुसार उत्तरप्रकृतिप्रदेशसंक्रमका अनुगम करते समय उस विषयमें समुत्कीर्तना और भागाभागसे लेकर अल्पबहुत्व तक ये चौबीस अनुयोगद्वार होते हैं । तथा भुजगार, पदनिक्षेप वृद्धि और स्थान ये अनुयोगद्वार और होते हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश। ओघसे अट्ठाइस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम हे। इसी प्रकार च
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१७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ णवरि पंचिंदि तिस्क्खिअपज०-मणुसअपज० अणुद्दिसादि सब? ति सत्तावीसण्हं पयडीणं अस्थि उक्कस्सओ पदेससंकमो । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पिणेदव्यं ।
२२. भागाभागो दुविहो-जीवविसयो पदेसविसओ च । तत्थ जीवभागाभागमुवरि जहावसरमणुवत्तइस्सामो। पदेसभागाभागो ताव वुच्चदे । सो दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ च । उकस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओधेण मोह. अट्ठावीसंपयडीणं पदेसविहत्तिभागाभागभंगो। णवरि दंसणतियचदुसंजलणभागाभागे सम्मत्त-लोहसंजलणदव्यमसंखे०भागो।
६२३. एस्थ सत्थाणभागाभागे कीरमाणे मिच्छत्तदबमसंखेजाणि खंडाणि कादण तत्थ बहुभागा सव्वसंकमदळ होइ । .सेसमसंखेज्जे भागे कादूण तत्थ बहुभागा गुणसंकमदव्वं होइ। सेसेयभागो विज्झादसंकमद होइ। सम्मत्तदव्यमसंखेज्जे भागे कादूण तत्थ बहुभागा अधापवत्तसंकमदव्वं होइ । सेसमसंखेजे भागे काण तत्थ वहुभागा सव्वसंकमदव्वं होइ । सेसमसंखेज्जे भागे कादूण तत्थ बहुभागा गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसी प्रकार जघन्य प्रदेशसंक्रमका भी कथन करना चाहिए।
विशेषार्थ—पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति न होनेसे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट और जघन्य किसी प्रकारका प्रदेशसंक्रम नहीं पाया जाता। तथा अनुदिशादि देवोंमें मिथ्यात्वगुणस्थान न होनेसे सम्यक्त्वप्रकृतिका किसी भी प्रकारका प्रदेशसंक्रम नहीं पाया जाता । इन मार्गणाओंमें इसीलिए सत्ताईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसंक्रम कहा है। किन्तु इनके सिवा गतियोंके जितने अवान्तर भेद हैं उनमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनोंकी प्राप्ति सम्भव है, इसलिए उनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसंक्रम कहा है।
६२२. भागाभाग दो प्रकारका है-जीवविषयक भागाभाग और प्रदेशविषयक भागाभाग । उनमेंसे जीवभागाभागको यथावसर आगे बतलावेंगे। यहाँ पर प्रदेशभागाभागको कहते हैं। वह दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट भागाभाग प्रदेशविभक्तिके उत्कृष्ट भागाभागके समान है। इतनी विशेषता है कि तीन दर्शनमोहनीय और चार संज्वलनोंके भागाभागमें सम्यक्त्व और लोभसंज्वलनका द्रव्य असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६२३. यहाँ पर स्वस्थानभागाभागके करने पर मिथ्यात्वके द्रव्यके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण सर्वसंक्रम द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण गुणसंक्रमद्रव्य है। तथा शेष एक भागप्रमाण विध्यातसंक्रम द्रव्य है । सम्यक्त्वके द्रव्यके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण सर्वसंक्रमद्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सत्थाणभागाभागो गुणसंकमदव्वं होइ । सेसेयभागमेत्तमुव्वेलणसंकमदव्वं होइ । सम्मामिच्छत्तदव्यमसंखेज्जाणि खंडाणि कादण तत्थ बहुभागा सव्वसंकमदव्वं होइ । सेसमसंखेजाणि खंडाणि कादण तत्थ वहुखंडपमाणं गुणसंकमदच होइ । सेसमसंखे०खंडाणि कादूण तत्थ बहुभागा अधापवत्तसंकमदव्य होइ। सेसमसंखे०खंडाणि कादूण तत्थ बहुभागा विज्झादसंकमदब्य होइ । सेसेयभागमेत्तमुव्वेल्लगसंकमदव्य होइ । एवं बारसक०-इत्थि-णवंसयवेदारइ-सोगाणं । णवरि उव्वेल्लणसंकमो णत्थि। पुरिसवेद-कोह-माण-मायासंजलणाणमप्पप्पणो दबमसंखेजखंडाणि कादण तत्थ बहुभागा सव्वसंकमद होइ । सेसेयखंडपमाणमधापवत्तसंकमदम्ब होइ । हस्स-रइ-भय-दुगुंछाणमप्पप्पणो दबमसंखेजखंडाणि कादण तत्थ बहुखंडपमाणं सब्यसंकमदव्य होइ । सेसमसंखेजाणि खंडाणि कादूण तत्थ बहुखंडपमाणं गुणसंकमदव्य होइ । सेसेयभागमेत्तमधापवत्तसंकमद होइ । लोहसंजलणस्स णत्थि भागाभागविहाणं । किं कारणं ? एगो चेव अधापवत्तसंकमो ति । एवं मणुसतिए। आदेसभागाभागो जहण्णभागाभागो च जाणिदूण णेदव्यो । तदो पदेसभागाभागो समत्तो ।
२४. सव्वसंकमणोसव्वसंकमो ति दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडीणं सव्वुक्कस्सयं पदेसग्गं संकममाणयस्स सव्वसंकमो । तदूर्ण संकामेमाणस्स णोसव्वसंकमो । एवं जाव० ।
करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण गुणसंक्रमद्रव्य है । तथा शेष एक भागप्रमाण उद्वेलनासंक्रम द्रव्य है। सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण सर्वसंक्रम द्रव्य है। शथ एक भागके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण गुणसंक्रम द्रव्य है । शेष एक भागके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात भाग करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण विध्यातसंक्रमद्रव्य है । तथा शेष एक भागप्रमाण उद्वेलनासंक्रमद्रव्य है। इसीप्रकार बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, और शोकके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इन प्रकृतियोंका उद्वेलनासंक्रम नहीं होता। पुरुषबेद, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन और मायासंज्वलनके अपने अपने द्रव्यके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण सर्वसंक्रमद्रव्य है। तथा शेष एक भागप्रमाण अधःप्रवृत्तसंक्रमद्रव्य है । हास्य, रति, भय और जुगुप्साके अपने अपने दयके असंख्यात खंड करके उनमेंसे बहभागप्रमाण सर्वसंक्रमद्रव्य है। शेष एक भागके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुभागप्रमाण गुणसंक्रमद्रव्य है । तथा शेष एक भागप्रमाण अधःप्रवृत्तसंक्रमद्रव्य है। लोभसंज्वलनका भागाभागविधान नहीं है, क्योंकि इसमें एकमात्र अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । श्रादेश भागाभाग और जघन्य भागाभाग जानकर लेजाना चाहिए। इस प्रकार प्रदेशभागाभाग समाप्त हुआ।
६२४. सर्वसंक्रम और नोसर्वसंक्रमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सर्वोत्कृष्ट प्रदेशाप्रका संक्रम करनेवाले जीवके सर्वसंक्रम होता है। तथा इससे न्यून प्रदेशाग्रका संक्रम करनेवाले जीवके नोसर्वसंक्रम होता है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गण तक जानना चाहिए।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६२५. उक्कस्ससंकमो अणुकस्ससंकमो जहण्णसंकमो अजहण्णसंकुमो त्ति विहत्तिभंगो । णवरि कामयालावो कायव्यो ।
२६. सादि-अणादि-धुव-अद्भुवाणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क०-अणुक्क०-जह०-अजहण्णपदेससंकमो किं सादिओ ४ १ सादी अद्भवो। सेसपयडीणमुक्क०-जह०पदे० किं सादि०४ १ सादी अद्ध वो । अणु०-अजह०पदे० किं सादि०४ ? सादिओ अणादिओ धुवो अद्धयो वा । सेसमग्गणासु सव्वपय० उक्क०-अणुक्क०-जह०-अजह० पदे०संक० कि० सादि०४ ? सादी अद्ध वो । एवं जाव० ।
२७. एवमेदेसिमणिओगद्दाराणं सुगमत्ताहिप्पाएण परूवणमकादूण संपहि सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरं सुतपबंधमाह
एत्तो सामित्तं।
६२५. उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जयन्यसंक्रम और अजघन्यसंक्रमका भङ्ग प्रदेशविभक्तिके समान है। इतनी विशेषता है कि प्रदेशसत्कर्मके स्थान पर प्रदेशसंक्रमका आलाप करना चाहिए।
६२६. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रम क्या सादि है,अनादि है,ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। शेष प्रकृतियोंका उकृष्ट और जघन्य प्रदेसंक्रम क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि, और अध्रुव है। अनुत्कृष्ट और अजघन्य प्रदेशसंक्रम क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि, अनादि, धव और अध्रव है। शेष मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रम क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक यथायोग्य जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व प्रकूति सर्वदा प्रतिग्रह प्रकृति नहीं है,तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति ही सादि हैं, अतः इनके उत्कृष्ट श्रादि चारों सादि और अध्रव हैं । अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो इनका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम गुणितकर्माश जीवके और जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपितकर्माशजीवके यथायोग्य स्थानमें होते हैं, अतः ये भी सादि और अध्रुव हैं। तथा इनके अनुत्कृष्ट और अजघन्य प्रदेशसंक्रम उपशमश्रेणिके प्राप्त होनेके पर्व तक अनादि हैं, उपशमश्रोणिसे गिरनेके बाद सादि हैं तथा भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव और अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव हैं। गतिसम्बन्धी अवान्तर मार्गणाऐं कादाचित्क हैं, अतः इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि चारों सादि और अध्रुव हैं। इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें भी यथायोग्य जान लेना चाहिए।
६२७. इस प्रकार ये अनुयोगद्वार सुगम हैं इस अभिहायसे प्ररूपण न करके अब स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं
* आगे स्वामित्वको कहते हैं।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त ६२८. एत्तो अणंतरसामित्तमणुवत्तइस्सामो ति पइण्णासुत्तमेदं । * मिच्छत्तस्स उकस्सयपदेससंकमो कस्स ? ६२६. सुगमं। .
* गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वविदो।
६३०. जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीदो उव्वट्टिदो सो पयदुक्कस्ससंकमदव्यसामिओ होदि ति सुत्तत्थसंबंधो । किमट्ठमेसो तत्तो उवट्टाविदो ? ण, णेरइयचरिमसमए चेव पयदुक्कस्ससामित्तविहाणोवायाभावेण तहाकरणादो। कुदो तत्थ तदसंभवोचे ? मणुसगदीदो अण्णत्थ ईसणमोहक्खवणाए असंभवादो । ण च दंसणमोहक्खवणादो अण्णत्थ सव्वसंकमसरूवो मिच्छत्तुक्कस्सपदेससंकमो अत्थि तम्हा गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीदो उवट्टिदो त्ति सुसंबद्धमेदं ।
* दो तिषिण भवग्गहणाणि पंचिंदियतिरिक्खपजत्तएसु उववएणो।
६३१. किमट्ठमेसो पंचिंदियतिरिक्खेसुप्पाइदो ? ण सत्तमपुढवीदो उपट्टिदस्स दो-तिण्णिपंचिंदियतिरिक्खभवग्गहणेहिं विणा तदणंतरमेव मणुसगदीए उप्पजणासंभवादो।
२८. इससे आगे स्वामित्वको बतलावेंगे इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामी कौन है ? ६२६. यह सूत्र सुगम है। * जो गुणितकर्मा शिक जीव सातवीं पृथिवीसे निकला ।
६३०. जो गुणितकर्मा शिक जीव सातवीं पृथिवीसे निकला वह प्रकृत उत्कृष्ट संक्रमद्रव्यका स्वामी है ऐसा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
शंका-इस जीवको वहाँसे किसलिए निकाला है।
समाधान नहीं, क्योंकि नारकियोंके अन्तिम समयमें ही प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वके विधानका अन्य उपाय न होनेसे वैसा किया है।
शंका-वहाँ अर्थात् नरकमें उत्कृष्ट स्वामित्व असम्भव क्यों है ?
समाधान-क्योंकि मनुष्यगतिके सिवा अन्यत्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होना असम्भव है और दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके सिवा अन्यत्र सर्वसंक्रमरूप मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम पाया नहीं जाता, इसलिए गुणितकर्मा शिक जीव सातवीं पृथिवीसे निकला इस प्रकार यह सूत्र सुसम्बद्ध हैं।
* वहाँसे निकलकर तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें दो-तीन भव धारण करके उत्पन्न हुआ।
६ ३१. शंका-इसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें किसलिए उत्पन्न कराया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सातवीं पृथिवीसे निकला हुआ जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें दोतीन भव धारण किये बिना वहाँसे निकलनेके बाद ही मनुष्यगतिमें नहीं उत्पन्न हो सकता ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
* अंतोमुहुत्तेण मणुसेसु आगदो ।
९ ३२. पंचिदियतिरिक्खेसु तसट्ठिदि समाणिय पुणो एइ दिएसुप्पजिय अंतोमुहुत्त
काले मसग मागदो ति भणिदं होइ ।
* सव्वलहुं दंसणमोहणीयं खवेदुमाढतो ।
सव्वलहुणिद्देसेण गन्भादि अवस्सा णमंतो मुहुत्तम्भहियाणमुबरि
९ ३३. एत्थ दंसणमोहवणाए अब्भुट्टिदो त्ति घेत्तव्त्र ।
जाधे मिच्छतं सम्मामिच्छत्तं सव्वं संछुभमाणं संक्रुद्धं तावे तस्स मिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पससंकमो ।
३४. पुव्वत्तविहारोणागतूण मणुसे सुप्पञ्जिय सव्वलहुं दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिदेण जाधे मिच्छत्तसव्वदव्वमुदयावलियवज्जं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि सव्वसंकमेण संक्रुद्ध ताधे तस्स जीवस्स मिच्छत्तस्स उकस्सओ पदेससंकमो होइ । तत्थ गुणसेढिणिञ्जरासहिदगुणसंक्रमदव्वेणूणदिवढ गुणहाणिमेत्तुकस्ससमयपबद्धाणमेकवारेणेव सम्मामिच्छत्तसरूवेण संकतिदंसणादो ।
* सम्मत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? ३५. सुगमं ।
* पुनः अन्तर्मुहुर्तमें मनुष्योंमें आ गया ।
§ ३२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में त्रसस्थितिको समाप्त करके पुनः एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तकालमें ही मनुष्यों में आ गया यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है ।
* वहाँ अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हुआ ।
९ ३३. यहाँ पर सूत्रमें जो 'सव्वलहुं' पदका निर्देश किया है उससे गर्भसे लेकर आठ वर्ष और मुहूर्त के बाद दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हुआ ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
* जिस समय मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें सर्वसंक्रमरूपसे संक्रमित किया उस समय उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
३४. पूर्वोक्त विधि कर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपरणा के लिए उद्यत हुए उसने जब मिथ्यात्वके उदद्यावलिके सिवा अन्य सब द्रव्यको सम्यग्मिध्यात्वमें सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रमित किया तब उस जीवके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर गुणश्रेणि निर्जरा सहित गुणसंक्रम द्रव्यसे न्यून डेढ़ गुणहानिप्रमाण उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंका एक बारमें ही सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रम देखा जाता है ?
* सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशस क्रमका स्वामी कौन है ?
६ ३५. यह सूत्र सुगम है ।
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गा०५८) उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
१७६ ॐ गुणिदकम्मसिएण सत्तमाए पुढवीए णेरइएण मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्ममंतोमुहुत्तेण होहिदि त्ति सम्मत्तमुप्पाइदं, सव्वुक्कस्सियाए पूरणाए सम्मत्तं पूरिदं, तदो उवसंतडाए पुण्णाए मिच्छत्तमुदीरयमाणस्स पढमसमयमिच्छाइडिस्स तस्स उक्कस्सो पदेससंकमो।
६३६. एत्थ गुणिदकम्मंसियणिदेसेणागुणिदकम्मंसियपडिसेहो कओ। सत्तमपुढिविणेरइयणिहेसेण वि अणेरइयपडिसेहो अण्णपुढविणेरइयपडिसेहो च कओ ति दट्ठयो । मिच्छत्तस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं अंतोमुहुत्तेण होइदि ति सम्मत्तमुप्पाइदमिदि भणिदे अंतोमुहुनेण चरिमसमयणेरइयभावेण परिणमिय मिच्छत्तपदेससंतकम्ममुक्कस्सं काहिदि त्ति एदम्मि अवत्थाविसेसे तिण्णि वि करणाणि कादूण तेण पढमसम्मत्तमुप्पाइदमिदि वुत्तं होइ । सव्वुक्कस्सियाए पूरणाए सम्मत्तं पूरिदमिदि भणिदे सव्वजहण्णगुणसंकमभागहारेण सव्वुकस्सगुणसंकमपूरणकालेण च सम्मत्तमावरिदमिदि भणिदं होइ । एवं च पूरिदूण कमेण मिच्छत्तं पडिवण्णस्स पढमसमए चे पयदुक्कस्ससामित्तं होइ, णाण्णत्थे ति जाणावणटुमिदं वयणं-'तदो उवसंतद्धाए पुण्णाए मिच्छत्तमुदीरयमाणस्स' इचादि । एतदुक्तं भवति, तहा पूरिदसम्मत्तो तेण दव्वेणाविणद्वेणुवसमसम्मत्तकालमतोमुहुत्तमेत्तमणुपालेऊण तदवसाणे मिच्छत्तमुदीरयमाणो पढमसमयमिच्छाइट्ठो जादो। तस्स पढमसमयमिन्छाइहिस्स
* जिस गुणितकर्मा शिक सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तर्मुहूर्त वाद मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होगा, अतएव जिसने अन्तमुहूर्त पहले ही सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सबसे उत्कृष्ट पूरणाके द्वारा सम्यक्त्वको पूरित किया । तदनन्तर जो उपशमसम्यक्त्वके कालके पूरा होनेपर मिथ्यात्वकी उदीरणा कर रहा है ऐसे प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
३६. यहाँ पर 'गणितका शिक' पदके निर्देश द्वारा अगुणितकर्मा शिकका निषेध किया गया है। 'सातवीं पृथिबीका नारकी' इस पदके निर्देश द्वारा भी जो नारकी नहीं हैं या अन्य पृथिवियोंके नारकी हैं उनका निषेध किया गया जानना चाहिए । 'मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म अन्तमुहूतमें होगा ऐसी अवस्थामें सम्यक्त्वको उत्पन्न किया ऐसा कहने पर उससे इस अवस्थाविशेष में तीनों ही करणोंको करके उसने प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है। सबसे उत्कृष्ट पूरणाके द्वारा सम्यकत्वको पूरित किया ऐसा कहनेपर उससे सबसे जघन्य गुणसंक्रम भागहार और सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमकालके द्वारा सम्यक्त्वको पूरित किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार पूरित करके क्रमसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुए उस जीवके प्रथम समयमें ही प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, अन्यत्र नहीं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'तदनन्तर उपशमसम्यक्त्वके कालके समाप्त होने पर मिथ्यात्वकी उदीरण करनेवाले जीवके' इत्यादिरूपसे यह वचन दिया है। उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि जो उस प्रकारसे सम्यक्त्वको पूरितकर उस द्रव्यको नष्ट किये बिना अन्तमुहूर्तप्रमाण सम्यक्त्वके कालको पालनकर उसके अन्तमें मिथ्यात्वकी
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
पयदुक्कस्ससामित्ताहिसंबंधो त्ति । किं कारणमेत्थेवुक्कस्ससा मित्तं जादमिदि चे ९ सम्मत्तस्स तदवत्थाए मिच्छत्तगुणणिबंधण मधापवत्तसंकमपजाएण सव्वुक्कस्सएण परिणमणदंसणादो | संप दस्सेवत्थस्स फुडीकरणमुत्तरं सुत्ताबयवमाह -
१८०
* सी वुण अधापवत्तसंकमो ।
३७. सो वुण सामित्तसमयभाविओ अधापवत्तसंकमो चेत्र णाण्णो । कुदो एवं १ बंधसंबंधाभावे व सहावदो चेव सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं मिच्छाइट्ठिम्मि अंतोमुहुत्त - मेत्तकालमधापवत्तसंकमपवुत्तीए संभवबभ्रुवगमादो । एदेणुव्वेल्लणचरिमफालीए सामित्त - विहाणासंका पडिसिद्धा, अधापवत्तभागहारादो उब्वेल्लणकालब्भंतरणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णब्भत्थरासीए असंखेअगुणत्ता दो । तं कुदोवगम्मदे १ एदम्हादो चेव सुत्तादो | एत्थ सामित्तविसईकयदव्बस्स पमाणाणुगमे कीरमाणे दिवङ्कगुणह। णिगुणिदुकस्ससमयपबद्धं ठविय तत्तो गुणसंकमेण सम्मत्तस्सुवरि संकंतदव्वमिच्छामो त्ति किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारो तस्स भागहारत्तेण ठवेयव्त्रो । पुणो तत्तो पढमसमयमिन्छाइड्डिणा अधापवत्तेण संकामिददव्त्रमिच्छामो त्ति अधापवत्तसंकमभागहारो वि तस्स भागहारत्तेण ठवेयन्त्रो । एवं
उदीरणा करता हुआ प्रथम समयबर्ती मिथ्यादृष्टि हो गया उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका सम्बन्ध होता है ।
शंका-यहीं पर उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ इसका क्या कारण है ?
समाधान—क्योंकि उस अवस्था में मिथ्यात्वगुणनिमित्तक सर्वोत्कृष्ट अधःप्रवृत्त संक्रमरूप पर्यायके द्वारा सम्यक्त्वके द्रव्यका मिथ्यात्वरूपसे परिणमन देखा जाता है ।
* और वह अधःप्रवृत्तस क्रम होता है ।
३७. और वह स्वामित्व के समय होनेवाला अधःप्रवृत्तसंक्रम ही है, अन्य नहीं । * शंका — ऐसा क्यों होता है ?
समाधान —क्योंकि बन्धका सम्बन्ध नहीं होने पर भी स्वभावसे ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्तसंक्रमकी प्रवृत्तिकी सम्भावना स्वीकार की गई है।
इस द्वारा उनकी अन्तिम फालिकी अपेक्षा स्वामित्वके विधानकी आशंकाका निषेध हो गया, क्योंकि अधःप्रवृत्तभागहारसे उद्वेलनाकालके भीतर नानागुणहानिशलाकाओं की अन्योन्याम्यस्त राशि संख्यातगुणी होती है।
शंका- वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — इसी सूत्र से जाना जाता है।
यहाँ पर स्वामित्वरूपसे विषय किये गये द्रव्यके प्रमाणका अनुगम करने पर डेढ़ गुणहानिसे गुणित उत्कृष्ट समयबद्धको स्थापित कर उसमें से गुणसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्वके ऊपर संक्रान्त हु द्रव्यकी इच्छासे कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहारको उसके भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए। पुनः उसमेंसे प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा अधःप्रवृत्तके द्वारा संक्रम कराये
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गा०५८] . उत्तरपयडिपदेशसंकमे समित्त
१८१ ठविदे पयदुक्कस्ससामित्तविसईकयदव्यमागन्छदि । एवं सम्मत्तस्स सामित्ताणुगमं कादूण संपहि सम्मामिच्छत्तस्स सामित्तविहासणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ
* सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सो पदेससंकमो कस्स ? ६३८. सुगमं।
* जेण मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसग्गं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तेणेव जाधे सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते संपक्खित्तं ताधे तस्स सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सो पदेससंकमो।
६३६. एदस्स सामित्तसुत्तस्सावयवत्थपरूवणा सुगमा ति समुदायत्थविवरणमेव कस्सामो । तं जहा-जेण गुणिदकम्मंसिएण मणुसगइमागंतूण सबलहु दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिदेण जहाकममधापवत्तापुत्रकरणाणिवोलिय अणियट्टिकरणद्धाए संखेज्जदिभागसेसे मिच्छत्तस्स उक्स्सपदेसग्गं सगासंखे०भागभूदगुणसेढिणिज्जरासहिदगुणसंकमदव्यपरिहीणं सबसंकमेण सम्मामिच्छत्ते संपक्खित्तं तेणेव मिच्छत्तुक्कस्सपदेससंकमसामिएण जाधे सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते पक्खित्तं ताधे तस्स सम्मामिन्छत्तविसयो उकस्सओ पदेससंकमो होइ त्ति एसो सुत्तत्थसंगहो।
* अणंताणुबंधीणमुक्कस्सो पदेससंकमो कस्स ?
द्रव्यकी इच्छासे उसके भागहाररूपसे अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारको भी स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करने पर प्रकृत स्वामित्वका विषयभूत द्रव्य आता है। इस प्रकार सम्यक्त्वके स्वामित्वका अनुगम करके अब सम्मग्मिथ्यात्वके स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? ६३८. यह सूत्र सुगम है।
* जिसने मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त किया वही जब सम्यम्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
६३६. इस स्वामित्वसूत्रकी अर्थप्ररूपणा सुगम है, इसलिए समुदायरूप अर्थका विवरण ही करते हैं । यथा-जिस गुणितकमांशिक जीवने मनुष्यगतिमें आकर अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके, लिए उद्यत होकर क्रमसे अधःप्रवृत्त और अपूर्वकरणको विताकर अनिवृत्तिकरणके संख्यातवें भागके शेष रहने पर अपने असंख्यातवें भागरूप गुणिश्रेणि निर्जरासहित गुणसंक्रम द्रन्यसे हीन मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रको सर्वसंक्रमके द्वारा सम्यग्मिथ्याव्वमें प्रक्षिप्त किया। तथा मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामी वही जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वविषयक उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। इस प्रकार यह सूत्रार्थसंग्रह है।
* अनन्तानुबन्धियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
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१८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६४० सुगमं ।
* सो चेव सत्तमाए पुढवीए रइयो गुणिदकम्मंसिओ अंतोमुहुत्तेणेव तेसिं चेव उक्कस्सपदेससंतकम्मं होहिदि त्ति उक्कस्सजोगेण उक्कस्ससंकिले से चणीदो, तदो तेण रहस्सकाले सेसे सम्मत्तमुप्पाइयं । पुणो सो चेव सव्वलहुमणंताणुबंधीणं विसंजोएदुमादत्तो तस्स चरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंहमाणयस्स तेसिमुकस्सो पदेस संकमो ।
६ ४१. एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा—सो चेवाणंतरपरूविदलक्खणो सत्तमपुढवीए गेरइओ गुणिदकम्मंसिओ पयदकम्माणमुक्कस्सपदेससंकमसामिओ होइ ति तत्संबंधो । सो वुण कदमम्मि अवत्थाविसेसे कदरेण वावारविसेसेण परिणदो पयदुक्कस्ससंकमसामित्तमल्लियदि त्ति आसंकाए इदमुत्तरं 'अंतोमुहुत्ते ' इच्चादि । अंतोमुहुत्तेण णेरइयचरिमसमयम्मि तेसिं चैव अणतारणुबंधीणमोघुकस्सयं पदेससंतकम्मं होहिदि त्ति दम्म अंतरे जहासंभवमुकस्सजोगेणुकस्ससंकिलेससहगदेण परिणदो त्ति भणिदं होइ । किमट्ठे मेसो उकस्संजोगमुकस्ससंकिलेसं वा णिज्जदे ? ण, बंधेण बहुपोग्गलग्गहण बहुदव्वुकड्डणणिमित्तं च तहा करणादो । तदो तेण रहस्सकालेण सम्मत्तमुप्पादमिच्चादि सुत्तावयव
६४०. यह सूत्र सुगम है ।
* उसी सातवीं पृथिवीके गुणितकमाशिक नारकीके अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा उन्हीं अनन्तानुबन्धियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होगा । किन्तु अन्तर्मुहूर्त पहले ही वह उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेश से परिणत हुआ । अनन्तर उसने स्वल्प काल शेष रहनेपर सम्यक्त्वको उत्पन्न किया । पुनः वही अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करनेके लिए उद्यत हुआ उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रम करते समय अनन्तानुबन्धियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
४१. इस सूत्र के अर्थका कथन करते हैं। यथा- वहीं पहले कहे गये लक्षणवाला सातवीं पृथिवीका गुणितकर्मशिक नारकी जीव प्रकृत कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेसंक्रमका स्वामी है इस प्रकार सूत्रार्थका सम्बन्ध है | परन्तु वह किस अवस्थाविशेषमें किस व्यापार विशेष से परिणत होकर प्रकृत उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके स्वामित्वको प्राप्त करता है ऐसी आशंका होनेपर यह उत्तर है- 'अन्तर्मुहूर्तके द्वारा' इत्यादि । अन्तर्मुहूर्तके द्वारा नारकियोंके अन्तिम समयमें उन्हीं अनन्तानुबन्धियोंका घ उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होगा कि इसी बीच यथासम्भव उत्कृष्ट संक्लेशके साथ प्राप्त हुए उत्कृष्ट योगसे परिणत हुआ। यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका – यह उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशको किसलिए प्राप्त कराया गया है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि बन्धके द्वारा बहुत पुद्गलोंका ग्रहण करनेके लिए और बहुत पुद्गलोंका उत्कर्षण करनेके लिए उस प्रकार कराया गया है ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
१८३ कलावेण संकिलेसादो णियत्तिदूण विसोहिसमावरणेण पढमसम्मत्तमुप्पाइय तत्कालभतरे चेत्र अणताणुबंधिविसंओयणाए परिणदो त्ति जाणाविदं, अण्णहा पयदुक्कस्ससामित्तविहाणाणववत्तीदो । एवं विसंजोएमाणस्स तस्स णेरइयस्स चरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तेसिमर्णताणुबंधीणमुक्कस्सओ पदेससंकमो होदि, तत्थ सव्वसंकमेणाणताणुवंघिदव्यस्स कम्मट्ठिदिअब्भंतरसंगलिदस्स थोवणस्स सेसकसायाणमुवरि संकमंतस्सुक्कस्सभावसिद्धीए विरोहाभावादो।
अट्ठण्हं कसायाणमुक्कस्सो पदेससंकमो कस्स ? ६.४२. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसिओ सव्वलहुं मणुसगइमागदो, अट्ठवस्सिो खवणाए अब्भुढिदो, तदो अहण्हं कसायाणमपच्छिमहिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स अट्ठएहं कसायाणमुक्कस्सो पदेससंकमो।
६४३. गयत्थमेदं सुत्तं । एवमट्ठकसायाणं सामित्तविणिण्णयं कादण छण्णोकसायाणं पि एसो चेव सामित्तालावो काययो, विसेसाभावादो त्ति पदुप्पायणट्ठमप्पणासुत्तं भणइ
* एवं छपणोकसायाणं । ४४. सुगममेदमष्पणासुत्तं ।
'तदो तेण रहस्सकालेण सम्म्मत्तमुप्पाइदं' इत्यादि रूपसे जो सूत्र वचनकलाप कहा है सो उस द्वारा संक्लेशसे निवृत्त होकर विशुद्धिको १ भीतर ही अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनासे परिणत हुआ यह ज्ञान कराया गया है, अन्यथा प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता। इस प्रकार विसंयोजना करनेवाले उस नारकीके अन्तिम स्थितिकाण्डकको संक्रमित करनेके अन्तिम समयमें उन अनन्तानुबन्धियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर कर्मस्थितिके भीतर गल कर थोड़े कम हुए तथा शेष कषायोंके ऊपर संक्रमण करते हुए अनन्तानुबन्धीके द्रव्यके उत्कृष्टभावकी सिद्धिमें विरोध नहीं पाता। ___ * आठ कपायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
६ ४२. यह सूत्र सुगम है।
* कोई गुणितकर्मा शिक जीव अतिशीघ्र मनुष्यगतिमें आया । तथा आठ वर्षका होकर क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । अनन्तर आठ कपायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रम करते हुए उसके आठ कषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रभ होता है ।
६४३. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार आठ कपायोंके स्वामित्वका निर्णय करके छह नोकषायोंका भी इसी प्रकार स्वामित्वालाप करना चाहिए, क्योंकि उसमें कोई अन्य विशेषता नहीं है इस प्रकार कथन करनेके लिए अर्पणसूत्रको कहते कहते हैं
* इसी प्रकार छह नोकषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए। ६४४. यह अर्पणासूत्र सुगम है ।
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१८४
जयधवलास कसायपहिदेाहुडे
* इत्थवेदस्स उक्कस्सओ पदेस संकमो कस्स ?
४५. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसिो असंखेज्जवस्साउएस इत्थिवेदं पूरेण तदो कमेण पूरिदकम्मंसिओ खवणाए ऋभुडिदो, तदो चरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाण्यस्स तस्स इत्थिवेदस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो ।
६ ४६. एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा — गुणिदकम्मंसिओ पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्तकालेणूणियं कम्मट्ठिदिं बादरपुढविजीवेसु तसकाइएसु च समयाविरोहेणाणुपालेऊण तदो असंखेज्जवस्साउएस पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्ताउट्ठदीए समुप्पजिऊण तत्थ बुंसयवेदबंधवोच्छेदं काढूण तत्थ बंधगद्धाए संखेज्जे भागे इत्थिवेदबंधगद्धं पवेसिय बंधगद्धामाहप्पेणित्थिवेददव्त्रं पूरेमाणो गच्छदि जाव सगाउट्ठदिचरिमसमयो त्ति । एवमित्थि - वेददव्त्रमुक्कस्सं करिय तत्थेव कम्मट्ठिदिं समानिय तत्तो णिस्सरिऊण दसवस्ससहस्साउएसु देवेो । तत्थ · सम्मत्तं घेत्तण सगाउट्ठदिमणुपा लिय तत्तो चुदो मणुसेसुववण्णो । एवमित्थिवेदं पूरेदूण मणुसेसुववण्णस्स खवयचरिमफालीए सामित्तविहाणङ्कमिदं वयणं—'तदो कमेण पूरिदकम्मंसिओ' इच्चादि । एत्थ संचयागुगमे विहत्तिभंगो । वरि दिवड गुणहाणीणं संखेज्जाभागमेत्तित्थिवेदुकस्ससंचयदव्त्रं थोवूणमेत्थ सामित्तविसयीकयदव्यमिदि घेत्तव्यं,
[ बंधगो ६
* स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
९४५. यह सूत्र सुगम है ।
* कोई गुगितकर्माशिक जीव असंख्यात वर्षकी आयुवालों में स्त्रीवेदको पूरण करके अनन्तर क्रमसे पूरित कर्माशिक होकर क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । अनन्तर अन्तिम स्थिति - arusrat अन्तिम समयमें संक्रमित करनेवाले उस जीवके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
४६. अब इस सूत्र अर्थ कहते हैं । यथा - कोई एक गुणितकर्मशिक जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कालको बादर पृथिवी जीवोंमें और त्रसकायिकोंमें समय के अविरोधपूर्वक बिताकर अनन्तर असंख्यात वर्ष की आयुवालोंमें, पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाणास्थिति के साथ उत्पन्न होकर पश्चात् वहाँ पर नपुंसकवेदकी बन्धव्युच्छित्ति करके तथा उस बन्धककालके संख्यात बहुभागको स्त्रीवेद के बन्धककाल में प्रवेश करा के बन्धककाल के माहात्म्यवश स्त्रीवेदकेद्रव्यको पूरण करता हुआ अपनी आयुस्थितिके अन्तिम समयको प्राप्त होता है। इस प्रकार स्त्रीवेदके द्रव्यको उत्कृष्ट करके और वहीं पर कर्मस्थितिको समाप्तकर वहाँसे निकल कर दस हजार वर्षकी युवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । पश्चात् वहाँ पर सम्यक्त्वको ग्रहणकर और अपनी आयुस्थितिका पालनकर वहाँसे च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार स्त्रीवेदको पूर करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुए उस जीवके क्षपकसम्बन्धी स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिमें स्वामित्वका विधान करनेके लिए यह वचन आया है - 'तदो कमेण पूरिदकम्मंसिओ' इत्यादि । यहाँ पर सयका
अनुगम करने पर उसका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है । इतनी विशेषता है कि डेढ़ गुणहानियोंके कुछ कम संख्यात बहुभागप्रमाण स्त्रीवेदका उत्कृष्ट सञ्चयद्रव्य यहाँ पर स्वामित्वका विषय
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पा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
१८५ अधट्ठिदिगलणाए गुणसेढिणिजराए गुणसंकमेण च गदासेसदव्वस्स तदसंखेजदिभागपमाणत्तादो।
* पुरिसवेदस्स उक्कस्सो पदेससंकमो कस्स ? ६४७. सुगमं।
* गुणिदकम्मंसिओ इत्थि-पुरिस-णवंसयवेदे पूरेदूण तदो सव्वलहुं खवणाए अब्भुहिदो पुरिसवेदस्स अपच्छिमहिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स पुरिसवेदस्स उक्कस्सो पदेससंकमो।
६४८. एदस्स सुत्तस्सत्थे भण्णमाणे विहत्तिसामित्तसुत्ताणुसारेण वत्तव्यं, तिवेदपूरिदकम्भंसियम्मि सामित्तविहाणं पडि तत्तो एदस्स विसेसाभावादो। णवरि णqसयवेदं पक्खिविदूण जम्मि इत्थिवेदो पुरिसवेदस्सुपरि पक्खित्तो तदवत्थाए विहत्तिसामित्तं जादं । एत्थ पुण णवंसय-इत्थिवेदसव्यसंकमं पडिच्छिऊणंतोमुहुत्तादीदेण जन्मि समए पुरिसवेदचरिमफाली सव्वसंकमेण छण्णोकस एहि सह कोहसंजलणे पक्खित्ता ताधे पुरिसवेदुकस्सपदेससंकमसामित्तमिदि एसो एत्थतणो विसेसो । जण्णं च परोदएणेव सामित्तमेत्थ गहेयव्वं, सोदएण दीहयरपढमट्ठिदिम्मि गुणसेढीए बहुदव्यहाणिप्पसंगादो।
* एqसयवेदस्स उक्कस्सो पदेससंकमो कस्स ?
किया गया द्रव्य है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अधःस्थितिगलना, गुणश्रेणिनिर्जरा और गुणसंक्रमके द्वारा गया हुआ समस्त द्रव्य उसके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है।
* पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? ६४७. यह सूत्र सुगम है।
* कोई एक गुणितकमांशिक जीव स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेदको पूरण करके अनन्तर अतिशीघ्र क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । पुनः पुरुषवेदके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रम करनेवाले उस जीवके पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
६४८. इस सूत्रके अर्थका कथन करने पर वह अनुभागविभक्तिके स्वामित्वसूत्रके अनुसार कहना चाहिये, क्योंकि जिसने तीन वेदोंको पूरण किया है ऐसा कमांशिक जीव स्वामी है इस दृष्टिसे उससे इसमें कोई भेद नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदको संक्रमित कराके जहाँ स्त्रीवेद पुरुषवेदके ऊपर प्रक्षिप्त होता है उस अवस्थामें अनुभागविभक्तिसम्बन्धी स्वामित्व प्राप्त हुआ है । परन्तु यहाँ पर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका सर्वसंक्रम करके अन्तर्मुहूर्तके बाद जिस समय पुरुषवेदकी अन्तिम फालि सर्वसंक्रमके द्वारा छह नोकषायोंके साथ क्रोधसंज्वलनमें प्रक्षिप्त होती है उस समय पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व होता है इतनी यहाँ पर विशेषता है। दूसरी विशेषता यह है कि यहाँ पर परोदयसे ही स्वामित्व ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्वोदयसे प्रथम स्थितिके अपेक्षाकृत बड़ी होनेपर गुणश्रेणिके द्वारा बहुत द्रव्यकी हानिका प्रसङ्ग आता है।
* नसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
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१८६ जयधवनासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ४६. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसिओ ईसाणादो भागदो सव्वलहुँ खवेदुमाढत्तो, तदो एवंसयवेदस्स अपच्छिमहिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स णवुसयवेदस्स उक्कस्सो पदेससंकमो।
५०. जो गुणिदकम्मंसिओ जाव सक्क ताव ईसोणदेवेसु चेव णqसयवेदकम्म गुणेदण तत्व कम्मद्विदिं समाणिय तत्तो चुदो संतो मणसेसुप्पज्जिय सव्वलहुमट्ठवस्साणमंतोमुहुत्ताहियाणमुवा खरगसेढिमारुहिय अणियट्टिकरणद्धाए संखेज्जेसु भागेसु समइक्कतेसु णqसयवेदस्सापच्छिमट्ठिदिखंडयं पुरिसवेदस्सुवरि सव्यसंकमेण संछुहमाणयस्स .तस्स दिवड्डगुणहाणिमेत्तगुणिदसमयपबद्धाणं संखेज्जे भागे घेत्तण णवंसयवेदस्स उकस्सओ पदेससंकमो होइ त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो। एत्थ वि परोदएणेव सामित्रं दायब', सोदएण पढमट्ठिदीए गुणसेढिसरूवेण गलमाणयहुदव्वपरिरक्खणट्ठ।
* कोहसंजलणस्स उक्कस्सो पदेससंकमो कस्स ? ६५१. सुगमं ।
ॐ जेण पुरिसवेदो उक्कस्सो संछुडो कोधे तेणेव जाधे माणे कोधो सव्वसंकमेण संभदि ताधे तस्स कोधस्स उक्कस्सो पदेससंकमो।
६४६. यह सूत्र सुगम है।
* कोई एक गुणितकमांशिक जीव ईशान कल्पसे आकर अतिशीघ्र क्षय करनेके लिए उद्यत हुआ । अनन्तर नपुंसकवेदके अन्तिम स्थितिकाण्डकको अन्तिम समयमें संक्रमित करनेवाले उसके नपुसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
५०. जो गुणितकर्मा शिक जीव जब तक शक्य हो तब तक ईशानकल्पके देवोंमें ही नपुंसकवेदकर्मको गुणित करके तथा वहीं पर कर्मस्थितिको समाप्त करके वहाँसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । पुनः अतिशीघ्र अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षके बाद क्षपकोणिपर आरोहण करके अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे संख्यात बहुभागके व्यतीत होने पर नपुंसकवेदके अन्तिम स्थितिकाण्डकको पुरुषवेदके ऊपर सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रमित करता है उसके डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धोंके संख्यात बहुभागको ग्रहण कर नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है इस प्रकार यह यहाँ पर सत्रार्थसंग्रह है। यहाँ पर भी परोदयसे ही स्वामित्व देना चाहिए, क्योंकि स्वोदयसे प्रथम स्थितिके गुणश्रेणिरूप होनेके कारण बहुत द्रव्यका गलन सम्भव है, अतः उसकी रक्षा करना आवश्यक है। . * क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
६५१. यह सूत्र सुगम है।
* जिसने उत्कृष्ट पुरुषवेदको क्रोधमें संक्रमित किया है वही जीव जब क्रोधको सर्वसंक्रमके द्वारा मानमें संक्रमित करता है तब उसके क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
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गा० ५८] उत्तरपडिपदेससंकमे सामित्तं
१८७ ५२. जेण तिण्हं वेदाणं पूरिदकम्मंसिएण पुरिसवेदो उक्कस्सओ कोहसंजलणे संछुद्धो तेणेव तत्तो अंतोमुहुत्तमुवरि गंतूण जाधे कोधसंजलणणो सव्यसंकमेण माणसंजलणे संछुब्भदे ताधे तस्स जीवस्स कोहसंजलणविसयो उकस्सओ य एस संकमो होइ ति सुत्तत्थसंबंधो। परोदएणेव सामित्तावहारणमेत्थ वि कायव्यं; सोदएण सामित्तविहाणे पढमद्विदीए बहुदबहाणिप्पसंगादो। एवं कोहसंजलणस्स सामित्तपरूवणं काढूण संपहि माण-मायासंजलणाणं पि एसो चेव सामित्तालावो थोवयरविसेसाणुविद्धो कायव्यो ति पदुप्पायण?मुत्तरसुत्तद्दयमाह
8 एदस्स चेव माणसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कायव्वो। पवरि जाधे माणसंजलणो मायासंजलणे संछभइ ताधे।।
® एदस्स चेव माया- संजलणस्स उक्कस्सो पदेससंकमो कायव्वो। पवरि जाधे मायासंजलणो लोभसंजलणे संछुन्भह ताधे।
५३. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि माया-लोहोदएहि वड्डिदस्स माणसंजलणसामित्तं वत्तव्यं । लोभोदएणेव सेढिमारूढस्स मायासंजलणसामित्तं होइ ति दट्ठव्वं।
* लोभसंजलणस्स उक्कस्सो पदेससंकमो कस्स ?
५२. तीन वेदोंके कमांशको पूरित कर जिसने उत्कृष्ट पुरुषवेदको क्रोधसंज्वलनमें संक्रमित किया है वही जब वहाँसे अन्तर्मुहूत आगे जाकर क्रोधसंज्वलनको सर्वसंक्रमके द्वारा मानसंज्वलनमें संक्रमित करता है तब उस जीवके क्रोधसंज्वलनविषयक यह उत्कृष्ट संक्रम होता है इस प्रकार यह सूत्रार्थसम्बध है । यहाँ पर भी परोदयसे ही स्वामित्वका निश्चय करना चाहिए, क्योंकि स्वोदयसे स्वामित्वका कथन करने पर प्रथम स्थितिके द्वारा बहुत द्रव्यकी हानिका प्रसङ्ग आता है। इस प्रकार क्रोधसंज्वलनके स्वामित्वका कथन करके अब मान और मायासंज्वलनका भी यही स्वामित्वसम्बन्धी आलाप अपेक्षाकृत थोड़ी विशेषताको लिए हुए करना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके दो सूत्र कहते हैं__* इसी जीवके मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जब मानसंम्बलन मायासंज्वलनमें प्रक्षिप्त होता है उस समय मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
* तथा इसी जीवके मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि जब मायासंज्वलन लोभसंज्वलनमें संक्रमित होता है तब माया संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
६५३. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । इतनी विशेषता है कि माया और लोभके उदयसे श्रेणि पर आरोहण करनेवाले जीवके मानसंज्वलनका स्वामित्व कहना चाहिए । तथा मात्र लोभके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके मायासंज्वलनका स्वामित्व होता है ऐसा जानना चाहिए।
* लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
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१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ $ ५४. सुगमं ।
* गुणिदकम्मसिनो सव्वलहुं खवणाए अन्भुट्टिदो अंतरं से काले कादृण लोहस्स असंकामगो होहिदि त्ति तस्स लोहस्स उकस्सो पदेससंकमो।
६५५. एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा—जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए दव्यमुक्कस्सं कादूण समयाविरोहेण मणुसगइमागंतूण तत्थ तप्पाओग्गसंखेजवस्समेतदोमणुसभवग्गहणेसु चत्तारि वारे कसाए उवसामेऊण तदो सबलहुं खवणाए अब्भुढिदो तस्स अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स अंतरकरणं कादण से काले लोहस्सासंकामगो होहिदि ति एदम्मि अवत्थाविसेसे वट्टमाणस्स लोहसंजलणपदेससंकमो उत्तस्सओ होइ, अधापवत्तसंकमेण तत्थ दिवड्डगुणहाणिमेत्तगुणिदकम्मंसियसमयपबद्धाणमसंखेजदिभागस्स सेससंजलणाणमु वरि संकंतिदसणादो। किमट्ठमेसो चत्तारि वारे कसायोवसामणाए पयट्टाविदो १ ण, तत्थाबज्झमाणणqसयवेदारइ-सोगादिपयडीणं गुणसंकमदव्वपडिग्गहणटुं तहाकरणादो। तं कधमेदेण सुत्तेणाणुवइट्ठमेदं चदुक्खुत्तो कसायाणमुवसामणं लब्भदे ? ण, वक्खोणादो तदुवलद्धीए उवरि भणिस्समाणुकस्सवड्डिसामित्तसुत्तबलेण च तदवगमादो।
६५४. यह सूत्र सुगम है।
* जो गुणितकमांशिक जीव क्षपणाके लिए उद्यत हो करके तदनन्तर समयमें लोभका असंक्रामक हो जायगा उसके इस अवस्थामें रहते हुए लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
६५५. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा-जो गुणितकमांशिक जीव सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट द्रव्य करके समयके अविरोधपूर्वक मनुष्य गतिमें आकर और वहाँ पर तत्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण कालके भीतर दो मनुष्यभवोंको ग्रहण करके उनमें रहते हुए चार बार कषायांका उ करके अनन्तर अतिशीघ्र क्षपणाके लिए उद्यत हो तथा अनिवृत्तिकरणमें प्रवेशपूर्वक अन्तरकरण करके अनन्तर समयमें लोभका असंक्रामक होगा उसके इस विशेष अवस्थामें रहते हुए लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा डेढ़ गुणहानिगुणित सत्कर्मरूप समयप्रबद्धोंके असंख्यातवें भागका शेष संज्वलनोंके ऊपर संक्रम देखा जाता है।
शंका-इसे चार बार कषायोंकी उपशामनारूपसे किसलिए प्रवृत्त कराया है।
समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर नहीं बँधनेवाली नपुंसकवेद, अरति और शोक आदि प्रकृतियोंके गुणसंक्रमके द्वारा द्रव्यको ग्रहण करनेके लिए वैसा किया है।
__ शंका-इस सूत्रमें तो यह बात नहीं कही गई है फिर यह चार बार कषायोंकी उपशामना कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि एक तो व्याख्यानसे उसकी उपलब्धि होती है। दूसरे आगे कहे जानेवाले उत्कृष्ट वृद्धिसम्बन्धी स्वामित्वषिषयक सूत्रके बलसे इसका ज्ञान होता है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्तं
ह
§ ५६. एवमोघेण सब्त्रकम्माणमुकस्ससामित्तविणिण्णयं सुत्ताणुसारेण काढूण एत्तो एदेण सुत्तेण सूचिदादेसपरूवणट्ठ 'मुच्चारणागंथमिहाणुवत्तइस्सामो । तं जहा - सामित्तं दुविहं - जहणमुकस्यं च । उक्क० पयदं । दुविहो णिदेसो । ओघं मूलगंथसिद्धं । आदेसेण रइय० मिच्छ० -सम्मामि० उक० पदेससंकमो कस्स ? अण्णदरस्स गुणिदकम्म सियस्स जो . अंतोमुहुत्तमोसकिऊण सम्मत्तं पडिवत्रिय गुणसंकमेण सव्वुक्कस्सियाए पूरणाए पूरिदो से काले विज्झादं पडिहिदि ति तस्स उकस्सओ पदेससंकमो । सम्मत्त० सो चेव आलावो कायन्त्रो | णरि विज्झादं पडिदूतोमुहुत्तेण मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छादिट्ठिस्स उक्कस्सपदेससंकमो । जइ एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि सम्मत्तेग सह सामितणिद्देसो कायव्वो, अंगुलस्सासंखेज दिमाग पडिभागिय विज्झादगुणसंकमादो अधापवत्तसंकमदव्त्रस्सा संखेजगुणदंसणादोति । सचमेदं, जइ सम्मामिच्छत्तविसए विज्झादगुणसंकमो अंगुलस्सासंखेजभागपडिभागिओ त्ति एत्थ विवक्खिओ होज । णवरि ण तहाविहो एत्थ उच्चारणा हिप्पायो । किंतु मिच्छत्तस्सेव पलिदो ० असंखे ० भागमेत्तो सम्मामिच्छत्तगुणसंकमभागहारो ति एवंविहो उच्चारणाहिप्पाओ, अधापवत्तसंकमपरिहारेण तव्त्रिसयसा मित्तविहाणण्णहा णुववत्तीदो ।
५६. इस प्रकार सूत्रानुसार ओघ से सब कर्मों के उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्णय करके आगे इस सूत्र सूचित हुए आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाग्रन्थको बतलाते हैं । यथा - स्वामित्व दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है । निर्देश मूलग्रन्थसे सिद्ध है । प्रदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट 'प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर गुणितकर्माशिक जीव अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्तकर गुणसंक्रमके द्वारा सबसे उत्कृष्ट पूरणा के रूपसे पूरित हो अनन्तर समयमें विध्यातसंक्रमको प्राप्त होगा उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्व प्रकृतिका वही आलाप करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि विध्यातसंक्रमको प्राप्त कर जो अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व में गया उस प्रथम समयवता मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
शंका-यदि ऐसा है तो सम्यग्मिथ्यात्व के भी स्वामित्वका निर्देश सम्यक्त्वके साथ करन चाहिए, क्योंकि अङ्गलके असंख्यातवें भागरूपसे प्रतिभागको प्राप्त हुए विध्यातसंक्रम और गुणसंक्रमसे अधःप्रवृत्तसंक्रमका द्रव्य असंख्यातगुणा देखा जाता है ?
समाधान —यह सत्य है, यदि सम्यग्मिथ्यात्वके बिषयमें विध्यातसंक्रम और गुणसंक्रम यहाँ पर अङ्ग सख्यातवें भागका प्रतिभागी विवक्षित होता । परन्तु उस प्रकारका यहाँ पर उच्चारणाका अभिप्राय नहीं है । किन्तु मिध्यात्वके समान पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण समय - ग्मिन्यात्वका गुणसंक्रमभागहार है इस तरह इस प्रकारका उच्चारणाका अभिप्राय है, क्योंकि अन्यथा अधः प्रवृत्तसंक्रमके परिहार द्वारा तद्विषयक स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता। चूर्णिसूत्र के
१. ता० प्रतौ यस्स ( गट्ठ ) मुच्चारणा-, श्रा० प्रतौ णस्स नुच्चारणा- इति पाठः ।
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१६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ चुण्णिसुत्ताहिप्पाएण पुण सम्मामिच्छत्तविसयविज्झादगुणसंकमभागहारो अंगुलस्सासंखेजभागमेत्तो, उवरि भणिस्समाणुकस्सहा िसामितसुत्तबलेग तहाभूदाहिप्पायसिद्धीदो । तम्हा दोण्हमेदेसिमहिप्पायाणं थप्पभावेण वक्खाणं कायव्यं । सोलसक०-छण्णोक० उक० पदेससंकम० कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स जो अंतोमुहुत्तकम्मं गुणेहिदि ति सम्मत्तं पडिवण्णो। पुणो अणंताणु०चउक्क बिसंजोएदि तस्स विसंजोएंतस्स चरिमविदिखडयं चरिमसमयसंकामयस्स उक्क० पदे०संक० । तिहं वेदाणमुक्क० पदे० संक० कस्स ? अण्णद. जो पूरिदकम्मंसिओ णेरइएसु उववण्णो अंतोमु० सम्मत्तं पडिवण्णो, पुणो अणंताणु०चउक्त विसंजोएदि तस्स चरिमद्विदिखंडयचरिमसमयसंकामयस्स उक्क० पदे०संक० । एत्थ विज्झादसंकमेणिस्थि-णवुसयवेदाणमुक्कस्ससामित्तविहाणे उच्चारणाहिप्पाओ जाणिय वत्तव्यो, अण्णहा मिच्छट्ठिम्मि अधापवत्तसंकमेण तदुक्कस्ससामित्ते लाहदसणादो । एवं सत्तमाए ।
६५७. पढमाए जाव छट्टि ति मिच्छ०-सम्मामि० उक० पदेससंक० कस्स ? अण्णद. जो गुणिदकम्मंसिओ संखेजतिरियभवे अदिच्च अप्पप्पणो णेरइएसुववण्णो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो, सव्वुक्वस्सियाए पूरणद्धाए पूरिदण से काले विज्झादं पडिहिदि त्ति तस्स उक्क० पदे०संक० । सम्मत्त० सो चालायो। णवरि विज्झादं पडिदूण अंतोमु०
अभिप्रायसे तो सम्यग्मिथ्यात्वविषयक विध्यात और गुणसक्रम भागहार अङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि ऊपर कहे जानेवाले उत्कृष्ट हानिसम्बन्धी स्वामित्वविषयक सूत्रके बलसे उस प्रकारके अभिप्रायकी सिद्धि होती है, इसलिए इन दोनों ही अभिप्रायोंको स्थापित करके ब्याख्यान करना चाहिए।
सोलह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर गुणितकमांशिक जीव अन्तमुहर्त में कर्मो को गुणितकांशिक करेगा । किन्तु इसी बीच सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उस विसंयोजना करनेवाले जीबके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रमण करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तीन वेदोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर पूरितकमांशिक जीव नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूतमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुन। जो अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रमण करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। यहाँ पर विध्यातसंक्रमके द्वारा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करने पर उच्चारणाका अभिप्राय जानकर कहना चाहिए, अन्यथा मिथ्यादृष्टि जीवमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा उनके उत्कृष्ट स्वामित्वके प्राप्त करनेमें लाभ देखा जाता है। उसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए ।
६५७. पहिलीसे लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितका शिक जीव संख्यात तिर्यञ्चभवोंको उल्लंघन कर अपने अपने नारकियोंमें उत्पन्न हो अम्तमुहूर्तमें सम्ययत्वको प्राप्त हुआ। अनन्तर सबसे उत्कृष्ट पूरणकालके द्वारा पूरण करके अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त करेगा उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्वका वही आलाप है । इतनी विशेषता है कि विध्यातको प्राप्त करके अन्त
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
१६१ मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छादिहिस्स उक्क० पदे०संक० । सो वुण अधापवत्तसंकमो। सोलसक०-छण्णोक० उक्क० पदे०संक० कर.. ? जो गुणिदकम्मंसिओ संखेजतिरियभवे कादूण पयदणेरइएसु उववण्णो, अंतोमु० सम्मत्तं पडिवण्णो । पुणो अणंताणु०चउक्क विसंजोएदि तस्स चरिमे द्विदिखंडए चरिमसमयसंकामयस्स उक्क० पदे० संक० । तिण्हं वेदाणं णारयभंगो।
५८. तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय०३ मिच्छ०-सम्मामि० उक्क० पदे०संक० कस्स १ जो गुणिदकम्मंसिओ संखेज्जतिरियभवं कादर्णप्पप्पणो तिरिक्खेसु उववण्णो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवजिय सव्वुक्कस्सियाए गुणसंकमद्धाए पूरेदूण से काले विज्झादं पडिहिदि त्ति तस्स उक्क० पदेससंक० । सम्मत्तस्स सो चेव उवसंतद्धाए पुण्णाए मिच्छत्तं पडिवण्णो तस्स पढमसमयमिच्छादिहिस्स सम्मत्त० उक्क० पदे०संक० । सोलसक०-छण्णोक० उक्क० पदे०संक० कस्स ? अण्णद० जो गुणिदकम्मंसि० अप्पप्पणो तिरिक्खेसु उववण्णो सबलहं सम्मत्तं पडिवण्णो, पुणो अणंताणुबंधिचउक्त विसेजोएदि तस्स चरिमे द्विदिखंडए चरिमसमयसंकात० तस्स उक्क० पदे०संक० । पुरिसवे०-णवुस० णारयभंगो। णवरि अप्पप्पणो तिरिक्खेसुववजावेयव्यो। इथिवेद० उक्क० पदेससंक० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसि० अप्पप्पणो तिरिक्खेसु असंखेज्जवस्साउएसु उपवजिदूण पलिदो० असंखे०भागेण कालेण
मुहूर्तमें मिथ्यात्वमें गया उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। और वह अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । सोलह कपाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकमांशिक जीव संख्यात तिर्यञ्चभवोंको करके प्रकृत नारकियोंमें उत्पन्न हो अन्तमुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः जो अनन्तानुवन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रम करनेके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तीन वेदोंका भङ्ग नारकियोंके समान है।
५८. सामान्य तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिको मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्मा पिक जीव तिर्यञ्चोंके संख्यात भवोंको करके अपने अपने तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हो अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्तकर सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रम कालके द्वारा पूरण करके अनन्तर समयमें विध्यातसंक्रमको प्राप्त करेगा उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। सम्यक्त्वका वही आलाप है। किन्तु जो उपशमसम्यक्त्वके कालको पूराकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। सोलह कषाय
और छह नोकपायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर गुणितकमांशिक जीव अपने अपने तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हो, अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्तकर अनन्तर अनन् नुन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके संक्रम करनेके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके स्वामित्वका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अपने अपने तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न कराना चाहिए । स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकमांशिक जीव अपने अपने असंख्यात वर्षकी आयुवाले तियेञ्चोंमें उत्पन्न हो, पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा स्त्रीवेदको पूरण करके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
इत्थवेदं पूरेण सम्मत्तं पडिव० । पुणो अनंताणु ० चउक विसजोएदि तस्स चरिमे ट्ठिदिखंडए चरिमसमयसंकामयस्स तस्स उक्क० पदेस ० संक० ।
पढमसमयउबवण्णल्लयस्स
५६. पंचि०तिरिक्खअपज ० मरणुस अपज० सम्म० - सम्मामि० उक्क० पदे ० संक० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ तिरिक्खेसु उववण्णो, सव्वलहुँ सम्मत्तं पडिवण्णो, सव्बुक्कस्सियाए पूरणाए पूरेऊण मिच्छत्तं गदो, अविणट्टासु गुणसेढीसु मदो अपजत्तएसु उववण्णो तस्स उक्क० पदे०सं० | सोलसक० छण्णोक० उक्क० पदे ० संक ० कस्स ० १ जो गुणिदकम्मंसिओ संखेज्जतिरियभवं काढूण अपज्जत्तेसु उववण्णो तस्स अंतोमुहुत्तउत्रवण्णल्लयस्म तप्पा ओग्गविसुद्धस्स उक्क० पदेससंक० । तिष्णं वेदाणं उकस्सपदेससंकमो कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ अपज्जत्तरसु उबवण्णो तस्स अंतोमुहुत्तं उववण्णल्लयस्स तप्पा ओग्गविसुद्धस्स तस्स उक्कस्सपदेससंकमो ।
§ ६०. मणुसतिए औघं । णरि सम्मत उक० पदे ० संक० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ संखेज्जतिरियभत्रं काढूण तदो मरणुसेसु उत्रवण्णो सव्वलहु सम्मत्तं पडिवण्णो, सकस्सियाए पूरणाए पूरेदूण मिच्छत्तं गदो तस्स पढमस० मिच्छा० उक० पदे०सं० । अताणु ० चउक्कस्स वि एवं चेत्र मणुसेसुप्पाइय त्रिसंजोयणचरिमफालीए सामित्तं वत्तव्त्रं ।
§ ६१. देवेसु पढमपुढविभंगो । वरि पुरिसवेद ० उक्क० पदेस ० संक० कस्स ?
सम्यक्त्वको प्राप्त हो पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डका संक्रम करनेके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
६ ५६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिभ्यात्वका ऊत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्मींशिक जीव तिर्यञ्चों में उत्पन्न होकर, अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हो सबसे उत्कृष्ट पूरणा के द्वारा पूरण करके मिथ्यात्व में गया। फिर शियोंके नष्ट होने पहले मरकर अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । सोलह कषाय और छह नोकपायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्मशिक जीव तिर्यञ्चोंके संख्यात भव करके विवक्षित अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ, उत्पन्न होने अन्तर्मुहूर्तमें तत्प्रायोग्य विशुद्ध हुए उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। वेदोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो पूरितकर्मशिक जीव अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ, उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्तमें तत्प्रायोग्य विशुद्ध हुए उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है ।
६ ६०. मनुष्यत्रिमें धके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्मींशिक जीव तिर्यञ्चोंके संख्यात भव करके अनन्तर मनुष्योंमें उत्पन्न हो अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करके तथा सबसे उत्कृष्ट पूरणाके द्वारा पुरण करके मिध्यात्वमें गया उस प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भी इसी प्रकार मनुष्यों में उत्पन्न कराके विसंयोजनाकी अन्तिम फालिके पतन के समय उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिए ।
§ ६१. देवोंमें प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है । इतनी पिशेषता है कि पुरुषवेदका 'उत्कृष्ठ प्रदेश
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
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०
जो गुणिक मंसिओ ईसा गिएसु एवंस • पूरेदूण असंखेज्जवरसाउएसु पलिदो० असंखे ०भागमेत्तकालेण इत्थिवेदं पूरेदूण सम्मत्तं लङ्गूण पलिदोवमट्ठिदिएस देवेसु उववण्णो, तत्थ य भवट्ठिदिमणुपालेदूण अंतोमु० कम्मं गुणेहदि ति अनंतापु० चउक त्रिसंजोएदि तस्स चरिभे द्विदिखंडए चरिमसमयसंका ० तस्स उक० पदे ० संक० | णकुंसयवेद ० उक्क० पदे० संक० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ ईसाणिगेसु णवुंसवे० अंतोमु० पूरेहदि ति सम्मत्तं पडिवण्णो पुणो अताणु ० चउक० विसंजोएदि तस्स चरिमेट्ठिदिखंडए चरिमसमय संका ० ० तस्स उक्क० पदेससंक० । एवं सोहम्मीसाणे । भवण वाणवें - जोदिसि - सक्कुमारादि जाव सहस्सारे ति पढमपुढविभंगो ।
1
६२. आणदादि णवगेवज्जा त्ति मिच्छ० -सम्मामि० उक्क० पदे ० संक० कस्स १ अण्णद ० जो गुणिदकम्मंसिओ संखेज्जतिरियभवं काढूण मणुसेसु उबवण्णो, सव्चलहुं दव्त्रलिंगी जादो, अंतोमुहुत्तं मदो देवो जादो। अतोमु० सम्मत्तं पडिव० सव्बुकस्सगुणसंकमेण संकामेण से काले विज्झादं पडिहदि ति तस्स उक्क० पदे० संक० । सम्म० सो चैत्र भंगो । वरि उवसंतद्धाए पुण्णाए मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छादिट्ठिस्स उक्क० पदे ० संक० | सोलसक० छण्णोक० मिच्छत्तभंगो । णवरि सम्मत्तं पडिवजिऊण
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संक्रम किसके होता है ? जो गुणितकमाशिक जीव ऐशान कल्पके देवों में नपुंसकवेदको पूरण करके पुनः असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा स्त्रीवेदको पूरण करके तथा सम्यक्त्वको प्राप्त करके पल्यप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ और बहाँ पर भवस्थितिका पालन कर अन्तर्मुहूर्तमें कर्मको गुणितकर्माशिक करगा कि इसी बीच - अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम होता है । नपुंसक वेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकमांशिक जीव ऐशान कल्पके देवोंमें नपुंसक वेदको अन्तर्मुहूर्त में पूरण करेगा कि इसी बीच सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके संक्रम करने के अन्तिम समय में उत्कृष्ठ प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें पहिली पृथिवीके समान भङ्ग है ।
§ ६२. ध्यानरत कल्पसे लेकर नौ प्रवेयक सकके देवोंमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्मशिक जीब तिर्यध्चोंके संख्यात भोंको करके मनुष्व में उत्पन्न हो अतिशीघ्र द्रव्यलिङ्गी हो गया । पुनः अन्तमुहूर्तमें मरकर श्रानतादि कल्पोंका देव हो गया । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त हो सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमके द्वारा संक्रम करके अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त होगा उसके विध्यातको प्राप्त होनेके अनन्तर पूर्व समय में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्वका वही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि उपशमसम्यक्त्वके कालके पूर्ण होने पर मिथ्यात्वमें गया उस प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वको प्राप्तकर जो अनन्तर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकका
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जयधवलास कसायपहिदेाहुडे
[ बंधगी ६
पुणो अनंतापु० विसंजोएदि तस्स चरिमे डिट्ठदिखंडए चरिमसमय ० संकाम० तस्स उक० पदेस ० संक० । तिन्हं वेदाणमेवं चेत्र । णवरि पूरिदकम्मंसिओ मणुसे सुववज्जावेयव्त्रो ।
९६३. अणुद्दिसादि सा त्ति मिच्छ० सम्म मि० उक्क० पदेससंक० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ संखेज्जतिरियभवपरिब्भमणं काढूण मणुसेसु उत्रवण्गो, सन्चल हुँ सम्म पडिव०, अविणट्ठासु गुणसेढीसु मदो देवेसु उबवण्गो तस्स पढमसमयववण्ण०तस्स उक्क० पदे०सं० | सोलसक० - उण्णोक० एवं चैत्र । णरि देवेषु उपवजिऊग अंतोमुहुत्तं अताणु० चउक विसंजोएदि तस्स चरिभे ट्ठिदिखंडए चरिमसमयसंका ० तस्स उक्क० पदे ० संक० । एवं तिन्हं वेदाणं । णवरि पूरिदकम्मंसिओ मणुसेसु उववज्जावेदव्वो । एवं जाव अणाहारि ति ।
1
एवमुक्क० सामित्तं समत्तं ।
* एत्तो जहएएबं ।
९६४ तो उवरि जहण्णयं सामित्तमहिकयं ति अहियार संभालणवकमेदं । * मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेस संकमो कस्स ?
६५. सुगमं ।
संक्रम करनेके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तीन वेका इसी प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पूरित कर्मशिक जीवको मनुष्योंमें उत्पन्न कराना चाहिए ।
९६३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो गुणितकर्मशिक जीव तिर्यब्चोंके संख्यात भवोंमें परिभ्रमण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हो अतिशीघ्र सम्यत्वको प्राप्त हुआ । पुनः गुणश्रेणियोंके नष्ट होनेके पूर्व ही मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ, प्रथम समयमें उत्पन्न हुए उस देवके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । सोलह कषाय और छह नोकपायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जो देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त में अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके संक्रम करनेके अन्तिम समय में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। इसी प्रकार तीन वेदोंका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पूरित कर्माशिक जीवको मनुष्यों में उत्पन्न कराना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ ।
* आगे जघन्य स्वामित्वको कहते हैं ।
६ ६४. इससे श्रागे जघन्य स्वामित्व अधिकृत है इस प्रकार यह वचन अधिकारकी संम्हाल
करता है ।
* मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
९ ६५. यह सूत्र सुगम है ।
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હિપ
गां०५८]
उत्तरपयडिपदेशसंकमे समित्त खविदकम्मसिओ एइंदियकम्मेण जहणणएण मणुसेसु ागदो, सव्वलहुं चेव सम्मत्तं पडिवएणो, संजम संजमासंजम च बहुसो लभिदाउगो, चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता वेछावद्विसागरो० सादिरेयाणि सम्मत्तमणुपालिदं, तदो मिच्छत्तं गदो, अंतोमुहुत्तेण पुणो तेण सम्मत्तं लडं, पुणो सागरोवमपुथत्तं सम्मत्तमणुपालिदं, तदो दिसणमोहणीयक्खवणाए अभूहिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणस्स मिच्छत्तस्स जहएणो पदेससंकमो।
६६६. एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे। तं जहा-एत्थ खविदकम्म सियणिद्द सो सेसकम्मसियपडिसेहफलो । एइंदियकम्मेण जहण्णएणे ति वयणेण भवसिद्धियाणमभवसिद्धियाणं च साहारणमृदं खविदकम्मसियलक्खणमुवइटुं, सुहुमेह दिएस छावासयविसुद्धखविदकिरियाए कम्महिदिमेत्तकालमच्छिदस्स तदुभयसाहारणजहण्णेई दियकम्मसमुप्पत्तिदंसणादो । एवमेइ दिएसु कम्महिदि समयाविरोहेणाणुपालेऊण तदो मणुस्सेसु आगदो। किमट्ठमेसो मणुसगइमाणीदो १ सम्मत्तुप्पत्तियादिगुणसेढिणिज्जराहि बहुकम्मपोग्गलग्गालणं कादृण भवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मुप्पायणटुं । एदस्स चे अस्थविसेसस्स जाणावण?
* किसी एक क्षपितकमांशिक जीवने एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्भके साथ मनुष्योंमें आकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त किया, अनेकबार संयम और संयमासंयमको प्राप्त किया, चार बार कषायोंका उपशम किया, साधिक दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन किया, अनन्तर मिथ्यात्वमें गया, पुनः अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया और सागरपृथक्त्व कालतक सम्यक्त्वका पालन किया, अनन्तर दर्शनमोहनोयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ, अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान उसके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
६६६. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा- यहाँ पर 'क्षपितकमांशिक' पदके निर्देशका फल शेष कमींशिकोंका निषेध करना है। 'एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ' इस वचनसे भव्यों और अभव्योंके क्षपितकर्म'शिकका साधारणभूत लक्षण कहा गया है, क्योंकि जो सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें छह आवश्यकोंसे विशुद्ध क्षपित क्रियाके साथ कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा है उसके भव्य और अभव्य दोनोंके साधारणभूत एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्म पाया जाता है। इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थितिका समयके अविरोधसे पालनकर अनन्तर मनुष्योंमें आया ।
शंका-इसे मनुष्यगतिमें किसलिए लाया गया है ?
समाधान-सम्यक्त्वकी उत्पत्तिसे लेकर गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा बहुत कर्म पुद्गलोंका गालन करके भव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मको उत्पन्न करनेके लिये इसे मनुष्यगतिमें लाया गया है।
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१६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ मिदं वयणं—'सव्वलहुं सम्मत्त पडिवण्णो संजम संजमा जमे च बहुसो लहिदाउगो' ति । एइ दिएहितो आगंतूण मणुस्सेसुप्पज्जिय तस्थ अदुषस्साणमतोमुहुत्तष्महियाणमुवरि सम्मत्तं संजम च जुगवं पडिवन्जिय संजमगुणसेढिणिज्जरं कादण तदो कमेण पलिदो० असंखे०भागमेतसम्मत्त-संजमासंजमाणताण०विसंजोयणकंडयाणि थोषणट्ठसंजमकंडयाणि च कुणमाणो गुणसेढिणिज्जरावावारेण पलिदो० असंखे०भागमेतकालमच्छिदो ति वुत्तं होइ । 'चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता' इथेदेण वि सुत्तावयषेण चउण्हमेव कसायोवसामणवाराणं संभवो णादिरित्ताणमिदि जाणाविदं । एपं च गुणसेढिणिज्जराए जहण्णीकयदव्वस्स पुणो वि पयदसामित्तोबजोगिविसेसतरपदुप्पापणहमिदं वुत्तं छावद्विसागरो० सादिरेयं सम्मत्तमणुपालिदो ति। किमट्ठमेव सादिरेयं वेछावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालाविदो ? ण, तत्तियमेतमिच्छत्तगोपुच्छाणमधडिदिगलणेण णिज्जरं कादूण जहण्णसामित्तविहाणटुं तहाकरणादो। एवं छाबहिसागरोवमाणि परिभमिय तदो मिच्छत्तं गदो ति किमद्वं वुच्चदे १ ण, मिच्छत्तेणाणतरिदस्स पुणो सागरोवमपुधत्तमेत्तकालं सम्मत्तेणावट्ठाणविरोहादो । तदेव प्रदशयमाह-पुणो तेण सम्मत्तं लद्धमिच्चादि । णेदं घडदे,
इसी अर्थविशेषका ज्ञान करानेके लिए 'अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनेक बार संयम और संयमासंयमको प्राप्त किया, यह वचन पाया है। एकेन्द्रियोंमेंसे आकर तथा मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वहाँ आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त के बाद सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्तकर तथा संयमगुणश्रेणिनिर्जरा करके अनन्तर क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग वार सम्यक्त्व, संयमासंयम और अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनारूप काण्डकोंको करके तथा फल कम आठ संयमकाण्डकोंको करके गुणश्रेणिनिर्जराके व्यापार द्वारा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक स्थित रहा यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'चार बार कषायोंका उपशम किया' इत्यादि सूत्र बचन द्वारा भी कषायोंके चार ही उपशम बार सम्भव हैं अधिक नहीं यह ज्ञान कराया गया है। इस प्रकार गुणश्रेणिनिर्जरा द्वारा जिसने द्रव्यको जघन्य किया है उसके प्रकृत स्वामित्वमें उपयोगी और भी विशेषताका कथन करनेके लिए 'साधिक दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन किया, यह बचन कहा है।
शंका-इस प्रकार साधिक दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन किसलिए कराया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वकी तावन्मात्र गोपुच्छाओंकी अधःस्थितिगलनाके द्वारा निर्जरा करके जघन्य स्वामित्वका विधान करनेके लिए वैसा किया है।
शंका-इस प्रकार दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करके अनन्तर मिथ्यात्वमें गया ऐसा किसलिए कहते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वके द्वारा अन्तरको नहीं प्राप्त हुए उक्त जीवका पुनः सागरपृथक्त्व काल तक सम्यक्त्वके साथ रहनेमें विरोध आता है।
अतः इसी बातको दिखलाते हुए 'पुनः उसने सम्यक्त्वको प्राप्त किया' इत्यादि वचन
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१६७
गो०५८
उत्तरपडिपदेससंकमे सामित्त वेछावहिसा० सम्मत्तेणाबहिदजीवस्स पुणो सागरोवमपुधत्तमेतकालं परिभमणासंभवादो । ण एस दोसो, एदस्स सुत्तस्साहिप्पाए वेछावट्ठीओ सम्मण परिभमिदस्स वि पुणो सागरोवमपुधत्तमेत्तकाल सम्मसगुणेणावडाणसंभवदसणादो। ण विहत्तिसामित्तसुत्तेणेदस्स विरोहो आसंकणिज्जो; तत्तो उपएसंतरपदसणट्ठमेदस्स पयट्टत्तादो। एवं वेछावद्विसागरोवमबहिन्भूदसागरोवमपुधत्तमेत्तवेदयसम्मत्तकालमणंतरपरूविदोववत्तीए ति एसमणुपालिय अपच्छिमे मणुसभवग्गहणे देसूणपुत्रकोडिं संजमगुणसेढिणिज्जरं कादूण तदोदंसणमोहक्खवणाए अब्भुढिदो । एवं च दंसणमोहक्खवणाए अभुट्टियस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए मिच्छत्तस्स जहण्णपदेससंकमो होइ ति सामित्ताहिसंबंधो, तस्स ताधे विज्झादसकमेण जहण्णभावसिद्धीए विप्पडिसेहाभावादो। अधापवत्तकरणचरिमसमयादो उपरि सामित्तविहाणमेत्थ किण्ण कयं ? ण, तत्थ गुणसंकमपारंभेण संकमदव्वस्स जहण्णभावाणुववत्तीदो । हेट्ठा तरिहि अधापवत्तकरणविसोहीदो अर्णतगुणहीणविसोहीए विज्झादसंकमो जहण्णो होदि ति णासंकणिज्जं, विज्झादसंकमस्स परिणामविसेसणिरवेक्खत्तादो। कथमेदं परिच्छिन्ञ्जदे ?
शंका-यह वचन नहीं बनता, क्योंकि जो जीव दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहा है उसका पुनः सागर पृथक्त्व काल तक उसके साथ परिभ्रमण करना नहीं बन सकता ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस सूत्रके अभिप्रायसे जिसने दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्यके साथ परिभ्रमण किया है उसका फिर भी सागर पृथक्त्व काल तक सम्यक्त्व गुणके साथ अवस्थान होना सम्भव दिखाई देता है। प्रकृतमें प्रदेशविभक्तिविषयक स्वामित्व सूत्रके साथ इस सूत्रका विरोध है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उपदेशके दिखलानेके लिए यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है।
इस प्रकार दो छयासठ सागर कालके बाहर सागर पृथक्त्व काल तक वेदकसम्यक्त्व का पहले कहा गया काल बन जाता है, इसलिए उसका पालन कर अन्तिम मनुष्यभवमें कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक संयम गुणने णिनिर्जरा करके अनन्तर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । इस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है इस प्रकार स्वामित्वका अभिसम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा जघन्यभावकी सिद्धि में किसी प्रकारका निषेध नहीं है।
शंका-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसे ऊपर स्वामित्वका कथन यहाँ पर क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ पर गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जानेसे संक्रम द्रव्यका जघन्यपना नहीं बन सकता।
शंका-तो नीचे अधःप्रवृत्तकरणकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी हीन विशुद्धि होती है, अतः भधःप्रवृत्तकरण जघन्य हो जायगा ?
समाधान, ऐसी माशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विध्यातसंक्रम परिणामविशेषकी
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१६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ एदम्हादो चेव सुत्तादो। अंतोमुहुत्तमेत्तगुणसेढिणिजरालाहसंगहणटुं च अधापवत्तकरणचरिमसमए सामित्तविहाणं संजुत्तं पेच्छामहे ।
६७. एत्थ सामित्तविसईकयदव्वपमाणाणयणमेवं कायब। तं जहा—दिवड्डगुणहाणिगुणिदेइ दियसमयपत्रद्धं ठविय तत्तो उक्कड्डिददव्यामिच्छामो ति तस्सोकड्डक्कड्डणभागहारो अंतोमुहुत्तोवट्टिदो भागहारत्तेण ठवे ययो । पुणो उक्कडिददव्वादो सागरोवमपुधत्ताहियवेछावट्ठिसागरोवमकालभंतरे गलिदसेसदबमिच्छिय तकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी भागहारो ठवेयव्यो। एवं ठविदे सामित्तसमयगलिदसेसासेसमिच्छत्तदव्यमागच्छइ । एत्तो विज्झायसंकमेण संकामिददव्यमिच्छामो ति अंगुलस्सासंखेजदिभागमेतो विज्झादसंकमभागहारो अवहारभावेण ठधेययो । एवं ठविदे सामित्तविसइकयजहण्णदत्रमागच्छइ ।
सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहएणो पदेससंकमो कस्स ? - ६६८. सुगमं । * एसो चेव जीवो मिच्छत्तं गदो, तदो पलिदोवमस्स असंखेवदिभागं
अपेक्षा न करके होता है।
शंका—यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान—इसी सूत्रसे जाना जाता है । तथा अन्तमुहूर्त काल तक होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जराके लाभका संग्रह करनेकेलिए अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्वामित्वका कथन संयुक्त है ऐसा हम समझते हैं। .
६६७. यहाँ पर स्वामित्वक विषयभावको प्राप्त हुए द्रव्यका प्रमाण इस प्रकार लाना चाहिए। यथा-डेढ़ गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धको स्थापित कर उसमेंसे उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यकी इच्छा करके उसका अन्तमुहतसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए। पुनः उत्कर्षित द्रव्यमेंसे सागरपृथक्त्व अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कालके भीतर गलकर शेष बचे हुए द्रव्यको लानेकी इच्छासे उस कालके भीतर जितनी नाना गुणहानिशलाकाएँ हों उनकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करने पर स्वामित्व समयमें गलकर शेष बचा हुआ मिथ्यात्वका समस्त द्रव्य आता है । इसमेंसे विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रमको प्राप्त हुए द्रव्यको लानेकी इच्छासे अङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण विध्यातसंक्रमभागहारको भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करने पर स्वामित्वके विषयभावको प्राप्त हुआ जघन्य द्रव्य आता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? ६६८. यह सूत्र सुगम है। * यही जीव मिथ्यात्वमें गया। अनन्तर पन्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेस कमे सामित्त
१६६
गंतूण अप्पष्पणो दुरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयउव्वेल्लमाण्यस्स तरस जहणओ पदेससंकमो ।
६ ६६. एसो वातरणिद्दिष्ट्ठो मिच्छत्तजहण्णसामित्ताहिमुहो खविदकम्मंसियजीवो दंसणमोहक्खवणाए अणभुट्टिय पुत्रमेवतोमुहुत्तमत्थि त्ति संकिले समावरिय परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो तो अंतोमुहुत्तेणुव्वेल्लणमाढविय पलिदो० असंखे ० भागमेत्तकालं गंतूण जहाकममप्पप्पणो दुरिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमसमय उच्वेल्लमाणगो जादो तस्स पयदकम्माणं जहण्णसामित्तं होदि । चरिमुव्वेल्लगकंडयचरिमफालीए जहण्णसामित्तमेदं किण्ण दिvi ? ण, तत्थ सव्त्रसंकमेण संकमंताणं सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णभावविरोहादो | तो क्खहि चरिमट्ठिदिखंडयदुचरिमादिकालीसु पयदसामित्तविहाणं कस्सामो ति णासंकणिज्जं, तत्थ वि गुणसंक्रमसंभवेण जहण्गभावाणुत्रवतीदो ।
§ ७०. एत्थ जहण्णसामित्त विसई कयदव्त्रयमाणमेवमण गंतव्यं । तं जहा – छावट्ठिसागरोत्रमाणमादीए पढमसम्मत्तमुप्पाए तेग मिच्छत्तस्स दिवडुगुणहाणिमेत्तएइ दियसमयपत्रद्धेहिंतो सम्मत-सम्मामिच्छताणमुवरि गुणसंक्रमेण संका मिददव्त्रमुकडणपडिमा गिय
बताकर जब वह अपने अपने द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम समय में उलना करता है तब उसके उक्त कर्मो का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
६६. यही अनन्तर पूर्व कहा गया मिथ्यात्वके जघन्य स्वामित्व के अभिमुख हुआ क्षपितकर्माशिक जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत होने के अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही संक्लेशको पूरकर परिणामवश मिथ्यात्वमें गया । अनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें उद्वेलना आरम्भ करके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको बिताकर जब क्रमसे अपने अपने द्विचरम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उद्वेलना करनेवाला हुआ तब प्रकृत कर्मोंका जघन्य स्वामित्व होता है ।
* शंका — अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके समय यह जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया ?
समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रमको प्राप्त हुए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्यपना होने में विरोध आता है।
शंका- तो अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरम आदि फालियोंके समय प्रकृत स्वामित्वका कथन करना चाहिए ?
समाधान - ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर भी गुणसंक्रम सम्भव होनेसे जघन्यपना नहीं बन सकता ।
§ ७०. यहाँ पर जघन्य स्वामित्वके विषयभावको प्राप्त हुए द्रव्षके प्रमाणका अनुगम करना चाहिए । थथा - दो छयासठ सागरप्रमाण कालके प्रारम्भ में प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके जो मिथ्यात्वके डेढ़ गुणहानिप्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धों मेंसे गुणसंक्रम भागहारके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर द्रव्य संक्रमित होता है उसमेंसे उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
मिच्छामो त्ति अंतोमुहुत्तोत्रविदुकङ्कणभागहारपदुप्पण्णगुणसंकमभागहारो खविदकम्मंसियकम्मट्ठिदिसंचयस्स भागहारतेण ठवेयव्वो । एदं धेत्तण वेछावट्टिसागरोमाणि सागरोवमधत्तमेत्तकालं च अट्ठिदिगलगाए गालिदं ति तक्कालब्धंतरणाणागुणहाणिसला गाणमगोणत्थरासी एदस्स भागहारभावेण ठवेयव्वो । पुणो दीहुव्येल्लणकालपञ्जसाणे उलणसंकमेण सामित्तं जादमिदि उब्वेल्लणकालब्भंतरणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णभत्थरासी उल्लभागहारो च एदस्स भागहारतेण ठवेयव्त्रो । एवं ठविदे पयदसामित्तविसकयजहण्णदव्यमुपज्जदि त्ति घेत्तव्त्रं ।
* अणंताणुबंधीणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ?
९ ७१. सुगमं ।
* एइंदियकम्मेण जहणएण तसेसु आगदो, संजमं संजमासंजमं च बहुसो लडू चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएसु पलिदोवमस्स असंखे० भागमच्छिदो जाव उवसामयसमयपवडा णिग्गलिदा त्ति । तदो पुणो तसेसु गदो, सव्वलहुं सम्मत्तं लडं, अणंताणुबंधिणो च विसंजोइदा, पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्त संजोएदूण पुणो तेण सम्मत्तं
प्रतिभागकी इच्छा से अन्तर्मुहूर्तसे भाजित श्रपकर्षण- उत्कर्षण भागहारसे गुणित गुणसंक्रमभागहारको क्षपितकर्मशिकक कर्मस्थितिक भीतर सन्चित हुए सञ्चयके भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए । पुनः इसे प्राकर दो छयासठ सागर और सागरपृथक्त्व कालके भीतर अधः स्थितिगलनाके द्वारा द्रव्य गलित हुआ है, इसलिए उस कालके भीतर नाना गुणहा निशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिको इसके भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए । पुनः दीर्घ उद्वेलना कालके अन्त में उद्वेलना संक्रमके द्वारा स्वामित्व उत्पन्न हुआ है, इसलिए उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुईं नाना गुहा निशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्तराशिको और उद्वेलनाभागहारको उसके भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करनेपर प्रकृत स्वामित्वके विषयभावको प्राप्त हुआ जन्य द्रव्य उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए ।
* अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
९ ७१. यह सूत्र सुगम है ।
* जो एकेन्द्रियसम्बन्धी सत्कर्मके साथ सोंमें आया । वहाँ पर संयम और संयमासंयमको अनेक बार प्राप्तकर और चार बार कपायोंका उपशम कर अनन्तर एकेन्द्रियोंमें तावत्प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहा जब तक उपशामकसम्बन्धी समयप्रत्रद्धोंको गलाया । अनन्तर पुनः त्रसोंमें आया तथा अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना की । पुनः मिथ्यात्वमें जाकर और अन्तर्मुहुर्त काल तक संयुक्त होकर पुनः उसने सम्यक्त्वको प्राप्त किया । अनन्तर दो छ्यासठ सागर काल
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्यापदेससंकमे सामित्तं
लड, तदो सागरोवमवेद्वावट्ठीओ अणुपालिद, तदो विसंजोएदुमाढत्तो तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए अणं । णुबंधीणं जहणणओ पदेससंकमो ।
२०१
§ ७२. एत्थेइ दियजहण्गकम्मावलंबणं पयदसामियस्स खविदकम्मंसियत्तपदुप्पायणङ्कं । तसेसु तस्साणयणं संजम संजमा संजम - सम्मत्ताणंताणुबंधिविसंजोयणाकंडएहि बहुपोग्गल - गालङ्कं । चदुक्खुत्तो कसायोत्रसामणकरणं पि तदट्ठमेवे त्ति दट्ठव्वं । पुणो एवं दिएस पलिदो ० असंखे० भागमेत्तकालावणं पि उवसामयसमयपबद्धाणं तत्थतणट्ठिदिखंडयजणिदथूलयरगोवुच्छायारेणाधट्ठिदीए णिग्गालणङ्कं । तत्तो पुणो वि तसेसु आगमणन्भुवगमो सलहु सम्मतं पडवज्जावणफलो । तत्थाणंतारणुबंधिविसंजोयणं पि तेसिं णिस्ती - करणफलं । पुणो मिच्छत्तथावणमणंताणुबंधीणं विसंजोयणावसेणासन्भूदाणं संतकम्ममुप्पायणफलं । ण तदवलंबणस्स पयदाणुवजोगित्तमासंकणिज्जं, अणंतारणुबंधिचिराणसंतकम्मस्स णिम्मूलावणयणं काढूण पुणो मिच्छतं गयस्स अंतोमुहुत्तमेत्तणवकबंधसमयपबद्धेहिं सह सेसकसाएहिंतो तकालपडिच्छिददव्त्रं घेत्तूण पुणो सम्मत्तपडिलंभेण वेछावट्टिसागरोवमाणमणुपालणेण णिरुद्धदव्त्रस्स मुड्डु जहण्णीभावसंपादणाए पयदो जोगित्तसिद्धीदो । एवं वेछावट्टिसागरोवमाणि सन्मत्तमणुपालिय जहगीकयाणताणुबंधिकम्मो तदवसाणे
तक उसके साथ रहा । अनन्तर जब विसंयोजनाका आरम्भ करता है तब उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
६ ७२. यहाँ पर प्रकृत स्वामी क्षपितकर्मशिक होता है इस बातका कथन करनेके लिए एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मका अवलम्बन किया है । संयम, संयमासंयम, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंके विसंयोजनाकाण्डकोंके द्वारा बहुत पुद्गलोंके गलानेके लिए उक्त जीवको सोंमें लाया गया है। तथा इसीलिए चार बार कषायका उपशम कराया गया है ऐसा जानना चाहिए । पुनः उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धों के स्थितिकाण्डकोंसे उत्पन्न हुई स्थूलतर गोपुच्छाओंकी अधःस्थिति के द्वारा गलाने के लिए उसे एकेन्द्रियोंमें पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रखा है । अनन्तर वहाँसे फिर भी त्रसों में आगमन के स्त्रीकार के फलस्वरूप अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त कराया है । तथा वहाँ पर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करानेका फल भी उनका निसत्त्व करना है । पुनः मिथ्यात्वमें स्थापित करनेका फल विसंबोजनाके वशसे असद्भावको प्राप्त हुए अनन्ताबन्धियोंके सत्कर्मको उत्पन्न करना है । यहाँ पर उसका अवलम्बन करना प्रकृतमें उपयोगी नहीं है। ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंके प्राचीन सत्कर्मका निर्मूल अपनयन करके पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नवकबन्धके समयप्रबद्धोंके साथ शेष कषायोंमेंसे तत्काल संक्रमित हुए द्रव्यको ग्रहणकर पुनः सम्यक्त्वके प्राप्त होनेसे और उसका दो छयासठ सागर काल तक पालन करनेसे विवक्षित द्रव्यके अत्यन्त जघन्यरूपसे सम्पादन करनेमें प्रकृतमें उपयोगीपनेकी सिद्धि होती है। इस प्रकार दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालनकर जो अनन्तानुबन्धीकर्मको जघन्य करके उसके अन्तमें विसंयोजना करनेके लिए उद्यत हुआ है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
विसंजोए माढतो तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए विज्झादसंक्रमेण पयदकम्माणं जहण्णओ पदेसको हो ।
1
९ ७३. एत्थ जहण्णसामित्तविसईकयदव्त्रपमाणानुगमो एवं कायव्त्रो । तं जहा - दिवड्डगुणहाणिगुणिदएइ दियसमयपबद्धं ठत्रिय अंतोमुहुत्तोवट्टिदोकड्ड कड्डणभागहारपदुप्पण्णेण अधापवत्तसंक्रमभागहारेणोवट्टिदे संजुत्तपढमसमय पहुडि अंतोमुहुत्तमेत्तकालमधापवत्तसंकमेण सेकसा एहितो पडिच्छिद । णंतारणुबंधिदव्यमुक्कड्ड गपडिभागियमागच्छइ । पुणो वेछावट्ठिसागरोवमब्भंतरगलिद सेसदव्वमिच्छामो त्ति तकालब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणम० गोण्णभासजणिदरासिणा तम्मि ओट्टिदे गलिद सेसदव्यं होइ । तत्तो विज्झादसंक्रमेण गददव्त्रमिच्छामो त्ति अंगुलस्सासंखेज्जभागमेत्ततब्भागहारेण ओट्टिदे जहण्गसामित्तविसईकयदव्यमागच्छदि | अहवा एत्थ वि वेछावट्टिसागरोवमाणमत्रसाणे मिच्छत्तं णेदुणंतोमुहुत्तेण पुणो वि सम्मत्तपडिलंभेण सागरोत्रम पुधत्तमेत्तकालं गालिय विसंजोयणाए अन्भुट्ठिदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए जहण्णसामित्तमिदि एसो वि सुत्तयाराहिप्पाओ एदम्मि सुत्ते णिलीणो त्ति वक्खाणेयव्त्रो । कथमेदं व्त्रदे ? उवरि भणिस्समाणप्पा बहुअसुत्तादो । तत्व तस्सववत्ति भणिस्सामो ।
पदेससंकमो कस्स ?
* अहं कसायाणं जहणण उसके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा प्रकृत कर्मों का जघन्य प्रदेशक्रम होता है ।
९ ७३. यहाँ पर जघन्य स्वामित्व के विषयभावको प्राप्त हुए द्रव्य के प्रमाणका अनुगम इस प्रकार करना चाहिए। यथा - डेढ़ गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समप्रबद्धको स्थापितकर अन्तमुहुर्तसे भाजित श्रपकर्षण - उत्कर्षणभागहार से गुणित अधःप्रवृत्तसंक्रमभागहारसे भाजित करने पर संयुक्त होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा शेष कषायों में से संक्रमित हुआ अनन्तानुबन्धीका द्रय उत्कर्षणका प्रतिभागी होकर आता है । पुनः दो छयासठ सागर कालके भीतर गलित हुए शेष द्रव्यकी इच्छासे उस कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे उसके अपवर्तित करने पर गलित होनेके बाद शेष बचा हुआ द्रव्य आता है । पुनः उसमें से विध्यातसंक्रमके द्वारा गये हुए द्रव्यकी इच्छासे अङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण उसके भागहार के द्वारा भाजित करने पर जघन्य स्वामित्व के विषयभावको प्राप्त हुआ द्रव्य आता है। अथवा यहाँ पर भी दो छयासठ सागर कालके अन्तमें मिथ्यात्वमें ले जाकर - मुहूर्त बाद फिर भी सम्यक्त्वको प्राप्त कर और सागरपृथक्त्व काल तक उसके साथ रह कर विसंयोजना के लिए उद्यत हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व होता है । इस प्रकार यह भी सूत्रकारका अभिप्राय इस सूत्र में गर्भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व सूत्रसे जाना जाता है । उसकी उपपत्तिका कथन वहीं पर करेंगे ।
* आठ कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
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गा०५८ उत्तरपडिपदेससंकमे सामित्त
२०३ ६७४. सुगम।
* एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु ागदो, संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो, चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएमु गदो, असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलंति । तदो तसेसु ागदो, संजमं सव्वलहुं लडो, पुणो कसायक्खवणाए उवहिदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए अट्ठएहं कसायाणं जहएणो पदेससंकमो।
७५. एत्थ एई दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगमणकारणं पुन्वं व वत्तव्यं । एवमणेयवारं सम्मत्ताणविद्धसंजमादिपरिणामेहि गुणसेढिणिज्जरं कादूण पुणो चदुक्खुत्तो कसायोवसामणाए च वावदो। एत्थ . वि कारणं गुणसेढिणिज्जराबहुत्तं गुणसंकमेण बहुदव्वावणयणं च दट्टन्छ । एवमेत्थ गुणसेढिणिज्जराए बहुदनगालणं कादण पुणो वि मिच्छत्तपडिवादेणेइ दिएसु पइट्ठो त्ति जाणावणहमिदं वयणं-'तदो एईदिएसु गओ' ति । णेदं णिरत्थयं, पलिदो० असंखे०भागमेत्तमप्पयरकालं तत्थच्छिऊण ट्ठिदिखंडयघादवसेणवसामयसमयपबद्धं गालणाए सहलत्तदसणादो ति पदुप्पायण?मेदं वुत्तं—'असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो' इच्चादि । ण च तत्थतणबंधबहुत्तमस्सिऊण पयदत्थविहडावणं जुत्तं,
६७४. यह सूत्र सुगम है।
* जो एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया। संयमासंयम और संयमको बहुत वार प्राप्त किया। तथा चार बार कषायोंका उपशमं करके अनन्तर एकेन्द्रियोंमें गया। वहाँ उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोके गलनेमें लगनेवाले असंख्यात वर्ष काल तक रहा । अनन्तर त्रसोंमें आकर और अतिशीघ्र संयमको प्राप्त कर पुनः कषायोंकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें आठ कषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
६७५. यहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्मके साथ त्रसोंमें आनेके कारणका पहलेके समान कथन करना चाहिए । इस प्रकार अनेक वार सम्यक्त्वसे युक्त संयम आदि रूप परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरा करके पुनः चार बार कषायोंकी उपशामना करनेमें व्याप्त हुआ। यहाँ पर गुणश्रेणिनिर्जराके बहुत्वरूप और गुणसंक्रमके द्वारा बहुत द्रव्यके अपनयनरूप कारणको जानना चाहिए । इस प्रकार यहाँ पर गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा बहुत द्रव्यका गालन करके फिर भी मिथ्यात्वमें गिरकर एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट हुआ इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'अनन्तर एकेन्द्रियोंमें गया' यह बचन कहा है और यह वचन निरर्थक भी नहीं है, क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अल्पतर काल तक वहाँ रहकर स्थितिकाण्डकघातके वशसे उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंकी गलनेरूप सफलता देखी जाती है, इसलिए इस बातके कथन करनेके लिए 'असंख्यात वर्ष तक रहा' इत्यादि वचन कहा है। यदि कहा जाय कि वहाँ पर होनेवाले बहुत बन्धके आश्रयसे प्रकृत
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ बंधगो ६
irat fair तत्थ बहुत्तोवलंभादो । एवमुवसामयसमयपवद्धे गालिय तदो तसेसु आगदो, सव्वलहुं संजमं लद्धो । पुणो कसायक्खवणाए उबट्ठिदो ति । एतदुक्तं भवति - मणुसेसु पन्जिय गब्भादिअवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जिय देसूणपुव्वकोडिमेत्तकालं गुणसेढिणिज्जरमणुपालिय पच्छा अंतोमुहुत्त सेसे सिज्झिदव्त्रए कदासेसपरिकरो कसायक्खवणाए अन्भुट्ठिदो ति । एवमवदिस्स तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए बिज्झादसंकमेण अटुकसायाणं जहणओ पदेससंक्रमो होइ ति सामित्तसंबंध । एत्थुवसंहारपरूवणा सुगमा । एवमेदं सामित्तमुवसंहरिय एदेण सरिससामित्तालावाणमरदि- सोगाणमप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भण्णइ
एवमरइ- सोगाणं
$ ७६. सुगममेदमप्पणासुत्तं ।
-
* हस्स-रह-भय-दुर्गुद्वाणं पि एवं चेव । एवरि अपुव्वकरणस्सावलियपविट्ठस्स ।
§ ७७. हस्स-रइ-भय-दुगु छाणमेवं चेत्र खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवणाए सजणसामित्तं होइ । विसेसो दु अधापवत्तकरणं वोलिय अपुव्त्रकरणं पविट्ठस्स
अर्थ विघटित हो जाता है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ पर बन्धकी अपेक्षा बहुत निर्जरा उपलब्ध होती है । इस प्रकार उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गलाकर अनन्तर सोंमें आया और अतिशीघ्र संयमको प्राप्त हुआ । पुनः कषायोंकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्यमें उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्षके बाद सम्यक्त्व और संयमको युगपत् प्राप्त होकर कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक गुणश्रेणिनिर्जराका पालनकर पश्चात् सिद्ध होने के लिए काल शेष रहने पर पूरी तैयारीके साथ कषायोंकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । इस प्रकार अवस्थित हुए उसके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में विध्यातसंक्रमके द्वारा आठ कषायका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ऐसा यहाँ स्वामित्वका सम्बन्ध करना चाहिए। यहाँ पर उपसंहारकी प्ररूपणा सुगम है । इस प्रकार इस स्वामित्वका उपसंहार करके इसके स्वामित्व के सदृश कथनवाले अरति और शोककी मुख्यता करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* इसी प्रकार अरति और शोका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए ।
है
६ ७६. यह अर्पणा सूत्र सुगम
* हास्य, रति, भय और जुगुप्साका भी जघन्य स्वामित्व इसी प्रकार जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इन कर्मो का जघन्य स्वामित्व जिसे अपूर्णकरणमें प्रविष्ट हुए एक आवलि हुआ है उसके होता है ।
§ ७७. हास्य, रति, भय और जुगुप्साका इसी प्रकार क्षपितकर्मशिकविधिसे आकर क्षपणा के लिए उद्यत हुए जीवके जघन्य स्वामित्व होता है । विशेषता इतनी है कि अध:करणको बिताकर पूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके प्रथम आवलिके अन्तिम समयमें अधः प्रवृत्तसंक्रमके द्वारा यह
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
२०५ पढमावलियचरिमसमए अधापवत्तसंक्रमेणेदं सामित्तं कायनमिदि । जइ एवं, अपुधकरणचरिमसमए जहण्णसामित्तमेदेसिं दाहामो, अपुव्वगुणसेढिणिज्जराए णिजिण्णसेसाणं तत्थ सुङ जहण्णभावोववत्तोदो त्ति ण पचवट्ठाणं कायव्वं, तत्थतणगुणसेढिणिजरादो समयं पडि अरइ-सोगादिअवज्झमाणपयडीहितो गुणसंकमेण ढुक्कमाणदव्वस्सासंखेज्जगुणत्तेण तहा कादुमसकियत्तादो।
कोहसंजलणस्स जहएणो पदेससंकमो कस्स ? ७८. सुगमं ।
* उवसामयस्स चरिमसमयपबद्धो जाधे उवसामिज्जमाणो उवसंतो ताघे तस्स कोहसंजलणस्स जहएणो पदेससंकमो।
७६. अण्णदरकम्मसियलक्खणेणागंतूण उवसमसेढिमारूढस्स जाधे कोषसंजलणचरिमसमयजहण्णणवकबंधो बंधावलियवदिक्कतसमयप्पहुडि संकमणावलियम्भंतरे कमेणोवसामिज्जमाणो उवसंतो ताधे तस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ त्ति घेत्तव्यं ।
ॐ एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । ६८० जहा कोहसंजलणस्स उवसामयचरिमसमयणवकबंधसंकमणचरिमसमयम्मि जहण्णसासित्तं दिण्ण एवमेदेसि पि कम्माणं कायव्वं, विसेसाभावादो। स्वामित्व करना चाहिए। यदि ऐसा है तो अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें इन कर्मो का जघन्य स्वामित्व देना चाहिए, क्योंकि अपूर्व गणश्रेणिनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण होकर शेष बचे अनन्त कर्म परमाणुओंकी अत्यन्त जघन्यरूपसे उपपत्ति बन जाती है सो ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है, क्योंकि बहाँ होनेवाली गुणश्रेणि निर्जराकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें नहीं बंधनेवाली अरति और शोक आदि प्रकृतियोंमेंसे गुणसंक्रमके द्वारा प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होनेसे वैसा करना अशक्य है।
* क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? ६७८. यह सूत्र सुगम है।
* उपशामकके अन्तिम समयवर्ती समयप्रबद्ध जब उपशमको प्राप्त होता हुआ उपशान्त होता है तब उसके क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
६७६. अन्यतर क्षपितकमांशिकविधिसे आकर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ हुए जीवके जब क्रोधसंज्वलनका अन्तिम समयवर्ती जघन्य नवकबन्ध बन्धावलिके बाद प्रथम समयसे लेकर संक्रमणावलिके भीतर क्रमसे उपशमको प्राप्त होता हुआ उपशान्त होता है तब उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
* इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए।
८०. जिस प्रकार उपशामकके अन्तिम समयवर्ती नवकबन्धके संक्रमणके अन्तिम समयमें क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व दिया है उसी प्रकार इन कर्मों का भी जघन्य स्वामित्व करना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है।
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२०६ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ॐ लोहसंजलणस्स जहणणो पदेससंकमो कस्स ? ६८१. खविद-गुणिदकम्मंसियादिविसेसावेक्खमेदं पुच्छासुत्तं ।
* एइदियकम्मेण जहएणएण तसेसु आगदो, संजमासंजमं संजमं च बहुसो लडूण कसाएसु किं पि णो उवसामंदि। दोहं संजमडमणुपालिदूण खवणाए अब्भुढिदो तस्स अपुवकरणस्स श्रावलियपविट्ठस्स लोहसंजलणस्स जहएणो पदेससंकमो।
८२. एत्थेइदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगमणे बहुसो संजमादिपडिलंभे च कारणं पुवं परूविदमेव । संपहि सइपि कसाए णो उवसामेदि चि ऐत्थ कारणं वुन्चदेजइ चारित्तमोहोवसामयगुणसेढिणिज्जराणुपालणट्ठमेसो सेढिमारुहिजदे. तो तत्थाबज्झमाणपयडीहितो गुणसंकमेण पडिच्छिजमाणदव्वं गुणसेढिणिजरादो समयं पड़ि असंखेजगुणमत्थि । एवं संते लोहसंजलणस्स तत्थुवचओ चेवे त्ति । एदेण कारणेण कसाएसु कि पि णो उवसामेदि ति वुत्तं । तदो सेसगुणसेढिणिज्जराओ जहावुत्तेण कमेणाणुपालिय पुणो अंतोमुहुत्तसेसे सिज्झिदव्यए ति कसायक्खवणाए उवढिदो तस्स अधापवत्तकरणं वोलाविय अपुवकरणे आवलियपविट्ठस्स अधापवत्तसंकमेण लोहसंजलणजहण्णसामित्तं होइ ति एसो सुत्तत्थसब्भावो। ___ * लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ?
६८१. क्षपितकमांशिक और गुणितकमांशिक आदिरूप विशेषताकी अपेक्षा करनेवाला यह पृच्छासूत्र है। ___* जोएकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आकर तथा संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्तकर कषायोंका एक बार भी उपशम नहीं करता है। मात्र दीर्घकाल तक संयमका पालमकर क्षपणाके लिये उद्मत हुआ है उसके अपूर्वकरणमें प्रविष्ट होनेके आवलिके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
८२. यहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आनेका और अनेकबार संयम आदि प्राप्त करनेका कारण पहले अनेक बार कह ही आये हैं । तत्काल एकबार भी कषायोंका उपशम नहीं करता है' यह जो सूत्रवचन कहा है सो इसके कारणका निर्देश करते हैं-यदि चारित्रमोहके उपशामकसम्बन्धी गुणश्रेणिनिर्जराके पालन करनेके लिए यह जीव श्रेणिपर आरोहण करता है तो वहीं पर नहीं बँधनेवाली प्रकृतियोंमेंसे गुणसंक्रमके द्वारा संक्रमित होनेवाला द्रव्य गुणश्रेणिनिर्जराकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें असंख्यातगणा होता है और ऐसा होने पर लोभसंज्वलनका वहाँ पर उपचय ही होगा। इस कारणसे वह कषायोंका एक बार भी उपशम नहीं करता है ऐसा कहा है, इसलिए शेष गुणश्रेणिनिर्जराओंका यथोक्त क्रमसे पालनकर पुन सिद्ध होनेके लिए अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जो कषायोंकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणको बिताकर अपूर्वकरणमें एक आवलिकाल प्रविष्ट होने पर उसके अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा लोभसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका अर्थ है।
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गा० ५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्रों णणयवेदस्स जहणणो पदेससंकमो कस्स ? ८३. सुगमं ।
8 एइदियकम्मेण जहएणएण तसेसु आगदो तिपलिदोवमिएसु उववएणो, तिपलिदोवमे अंतोमुहुत्ते सेसे सम्मत्तमुप्पाइदं। तदो पाए सम्मत्तेण अपडिवदिदेण सागरोवमछावहिमणुपालिदेण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लडो, चत्तारि वारे कसाए उवसामिदा । तदो सम्मामिच्छत्तं गंतूण पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं घेत्तूण सागरोवमछावहिमणुपालिदूण मणुसभवग्गहणे सव्वचिरं संजममणुपालिदूण खवणाए उवढिदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए णqसयवेदस्स जहणणो पदेससंकमो।
८४. एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणा विहत्तिसामित्ताणुसारेण परूवेयव्या। णवरि वेछोवद्विसागरोवमाणमव ाणे मिच्छत्तं गंतूण सोदएण मणुसेसुप्पण्णस्स तत्थ सामित्तं दिण्णं, अण्णहा जहण्णसोमित्तविहाणाणुववत्तीदो। एत्थ पुण मिच्छत्तमगंतूण पुरिसवेदोदएणेव खवयसेढिमारुहमाणयस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए जहण्णसामित्तमिदि एसो विसेसो णायब्बो।
* नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? ६८३. यह सूत्र सुगम है।
* जो एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें ओया। वहाँ तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ। तीन पल्यमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वको उत्पन्न किया । अनन्तर वहाँसे लेकर सम्यक्त्वसे च्युत न होकर तथा छयासठ सागर काल तक उसका पालन करते हुए जिसने संयमासंयम और संयमको अनेकवार प्राप्त किया और चार बार कषायोंका उपशम किया । अनन्तर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त कर पुनः अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको ग्रहण कर और छयासठ सागर काल तक उसका पालनकर अन्तमें मनुष्यभवको प्राप्तकर चिरकाल तक संयमका पालन करते हुए जो क्षपणाके लिए उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
६८४. इस सूत्रके अर्यका कथन प्रदेशविभक्तिके स्वामित्वसूत्रके अनुसार करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दो छयासठ सागरके अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर स्वोदयसे मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवके वहाँ पर स्वामित्व दिया है, अन्यथा जघन्य प्रदेशस्वामित्व नहीं बन सकता। किन्तु यहाँ पर मिथ्यात्वमें नहीं जाकर पुरुषवेदके उदयसे ही क्षपकश्रेणि पर आरोहण करनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व दिया है इस प्रकार दोनोंमें इतना विशेष जान लेना चाहिए।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * एवं चेव इत्थिवेदस्स वि । णवरि तिपलिदोवमिएसु ए अच्छिदाउगो।
८५. एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो। एवमोघेण सनकम्माणं चुण्णिसुत्ताणुसारेण जहण्णसामित्तविहासणा कया । एत्तो एदेण सूदिदादेसजहण्णसामित्तविहासणट्ठमुच्चारणं बत्तइस्सामो । तं जहा
* ८६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो । ओघो मूलगंथसिद्धो । आदेसेण णेरइय० मिच्छ० जह० पदे०संक० कस्स ? अण्णद० जो खविदकम्मंसिओ विवरीयं गंतूण दीहाए आउट्ठिदीए उववजिदूण अंतोमुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो, पुणो अणंताणु०चउक्क विसंजोएदूण तत्थ भवट्ठिदिमणुपालिय से काले मिच्छत्तं गाहिदि त्ति तस्स जह० पदे०संक०। एवमित्थिणवंस०वेदाणं । सम्म०-सम्मामि० जह० पदेससंक० कस्स ? अण्णद० जो खविदकम्मंसि. विवरीदं गंतूग णेरइएसु उबवण्णो, दीहाए उत्घेल्लणद्धाए उव्वेल्लेऊण दुचरिमद्विदिखंडयस्स चरिमसमयसंकामेंतयस्स तस्स जह० पदे०संकमो। अणंताणु०चउक्क० जह० पदे०संक० कस्स ? अण्णदरो खविदकम्मंसिओ विवरीयं गंतूण णेरइएसु दीहाउद्विदिएसुववण्णो अंतोमुहुत्तं सम्मत्तं पडिवण्णो। पुणो जणंताणु०४ विसंजोएदण मिच्छत्तं गदो सव्वलहुं पुणो वि सम्मत्तं पडिवण्यो, तत्थ भवट्ठिदिमगुपालेऊण थोवावसेसे
* इसी प्रकार स्त्रीवेदका भी जघन्य संक्रमस्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ नहीं होता है।
८५. इस सूत्रका अर्थ सुगम है। इस प्रकार ओघसे चूर्णिसूत्रके अनुसार सब कर्मोंके जघन्य स्वामित्वका व्याख्यान किया । अब आगे इससे सूचित होनेवाले समस्त जघन्य स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा
६८६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघ मूल प्रन्थसे सिद्ध है। आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके और वहाँ भवस्थिति काल तक उसका पालन कर अनन्तर समयमें मिथ्यावको ग्रहण करेगा उसके जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के जघन्य प्रदेशसंक्रमका स्वामित्व जानना चाहिए। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकमांशिक जीव विपरीत जाकर नारकियोंमें उत्पन्न हुआ । तथा दीर्घ उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्वात्वकी उद्वेलना करके उसके अन्तिम समयमें द्विचरम स्थितिकाण्डकका संक्रम करता है उसके उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मा शिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी बिसंयोजना करके मिथ्यात्वमें गया। तथा फिर भी अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त कर वहाँ भवस्थिति काल तक उसका पालन करते हुए जीवनके थोड़ा शेष रहने पर जब मिथ्यात्वके अभिमुख होता है तब उसके
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सामित्त
२०६ जीविदव्बए ति मिच्छताहिमुहचरिमसमयसम्माइडिस्स जह० पदे०संक० । बारसक०भय-दुगुछाणं जह० पदे०संक० कस्स ? अण्णद० खविदकम्मंसिओ विवरीयं गंतूण णेरइएसु उबवण्णो तस्स पढमसमयउववण्णल्लयस्स जह० पदे०संकमो। पंचणोक० जह० पदे०संक० कस्स ? अण्णद० खविदकम्मंसियस्स विवरीयं गंतूण णेरइय० उववण्णस्स तस्स अंतोमुहुत्तबवण्णल्लयस्स तेसिं जह० पदे०संक० । एवं सत्तमाए ।
६८७. पढमादि जाव छट्टि ति मिच्छ०-इस्थिवे०-णवंस. जह० पदे०संक० कस्स ? अण्णद० खविदकम्मसि० विवरीयं गंतूग दीहाए आउहिदीए उज्जिदूण अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो। अणंताणु०चउक्क विसंजोएदण तत्थ भवविदिमणुपालिय चरिमसमयणिप्पिडिमाणयस्स तस्स जह० पदेससंकमो। सम्म० सम्मामि०-बारसक०सत्तणोक० णिरओघभंगो । अणंताणु०४ जह० पदेससंकमो कस्स ? अण्ण० खविदकम्मंसियस्स विवरीयं गंतूण दीहाए आउद्विदीए उअवजिदूण सम्मत्तं पडिवण्णो, पुणो अर्थताणु०चउक विसंजोएदूण संजुत्तो, तदो अंतोमुहुतसम्मत्तं पडिवण्गो, तत्थ भवहिदिमणुपालेदूण चरिमसमयणिप्पिदमाण० तस्स० जह० पदेससंक० ।
(८८.तिरिक्खाणं पढमपुढवीमंगो। णवरि तिपलिदोवमिएसु उववजावेयव्यो । णवरि इत्थि-णवंस० जह० पदे०संक० कस्प्त ? अण्गद० खविदकम्मंसि० खइयसम्माइट्ठी सम्यक्त्यके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मा शिक जीव विपरीत जाकर नारकियों उत्पन्न हुआ उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उक्त कर्मो का जवन्य प्रदेशसंक्रम होता है। पाँच नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मा शिक जीव विपरीत जाकर नारकियोंमें ऊत्पन्न हुआ उसके वहाँ उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त होने पर उसके अन्तिम समयमें उक्त कर्मो का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए।
६८७. पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तक नारकियों मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकांशिक जीव विपरीत जाकर दी आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तमुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके वहां भवस्थिति काल तक उसका पालन करते हुए रहा, उसके वहां से निकलनेके अन्तिम समयमें उक्त कर्मोका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्व, सम्यग्यिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंके जवन्य स्वामित्यका भङ्ग नारकियोंके समान है। अनन्तानुबधीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकौशिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ आयुवाले नारकियोंमें उत्सन्न होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुा । पुनः अनन्तानुबन्धीचतुश्ककी विसंयोजना करके संयुक्त हुा । तदनन्तर अन्तमुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हो वहाँ उसका भवस्थिति काल तक पालन कर जो निकल रहा है उसके वहाँसे निकलनेके अन्तिम समयमें अनन्तानुवन्धी चतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
६८. तिर्यञ्चोंमें जघन्य स्वामित्वका भङ्ग पहिली पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि इन्हें तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न कराना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि स्त्रीवेद और
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जयधवलास कसायपहिदेाहुडे
[ बंधगो ६
विवरीयं गंतूण तिरिक्खेसु तिपलिदोवमिसु उववण्णो तस्स चरिमसमयणिप्पिदमाण ० जह० पदे ० संकमो | एवं पंचि ० तिरिक्खतिए । णवरि जोणिणी ० इत्थिवे ० - णत्रु सयवेद मिच्छत्तभंगो ।
०
८६. पंचिं० तिरिक्ख अपज० - मणुस अपज ० सम्म० - सम्मामि ० जह० पदे ० संक ० कस्स ? अण्णद ० खविदकम्मंसि० विवरीयं गंतूण दीहाए उब्वेल्लणद्धाए उब्वेल्लमाणग अपत्त उववण्णो, जाधे दुचरिमट्ठिदिखंडयचरिमसमयसंकामओ जादो ताधे तस्स जह० पदे०संक० । सोलसक० -भय-दुगु छा० जह० पदे ० संक० कस्स ? अण्णद ० खविदकम्मंसि० विवरीयं गंतूण अपज० उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णल्लयस्स जहण्णपदेस संक्रमो । सत्तणोक० जह० पदे ० संक० कस्स ? अण्णद ० खविदकम्मंसि० विवरीयं गंतूग अपज ० अंतोमु० उत्रवण्णल्लयस्स० ।
६ ६०. मणुसतिए ओघं । णवरि मणुसिणी ० पुरिसवे ० भय - दुगु छभंगो |
६१. देवेसु मिच्छ० जह० पदे० संक० कस्स ? अण्णद० खविदकम्मंसि० विवयं गंतूण चवीससंतकम्मिओ दीहाए आउट्ठदीए उववज्जिय चरिमसमयणिप्पिदमाण ० तस्स जह० पदे ० संकमो । सम्म० - सम्मामि ० - बारसक० - गणोक० तिरिक्खभंगो | णरि
नपुंसक वेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मशिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जी बिपरीत जाकर तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यों में उत्पन्न हुआ उसके वहाँसे निकलने के अन्तिम समयमें उक्त कर्मों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यञ्चोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वका भङ्ग मिध्यात्व के समान है ।
§ ८६. पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेश संक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकमाशिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता हुआ अपर्याप्तकों में उत्नन्न हुआ। वह जब द्विचरम स्थितिकाण्डकका उसके अन्तिम समयमें संक्रमण करता है तब उसके उक्त कर्मो का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ, प्रथम समय में उत्पन्न हुए उशके उक्त कर्मोंका जघम्य प्रदेशसंक्रम होता है । सात नोकषायका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है? जो श्रन्यतर क्षपितकमांशिक जीव विपरीत जाकर अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ उसके वहाँ उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । १०. मनुष्यत्रिक में जघन्य स्वामित्वका भङ्ग श्रधके समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें पुरुषवेदका भङ्ग भय और जुगुप्साके समान है ।
६१. देवों में मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मशिक जीव विपरीत जाकर चौबीस सत्कर्मके साथ दीर्घ आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँसे निकलने के अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । सम्यक्त्व,
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गा० ५८ ]
उत्तरपढिपदेससंक मे सामित्त '
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जम्मि तिष्णि पलिदोवमाणि तम्मि तेत्तीसं सागरोवमा • उववज्जावेयव्त्रो । अनंताणु०चउक० जह० पदे ० संक० कस्स १ अण्णद० खविदकम्मंसियस्स विवरीयं गंतूण अट्ठावीससंतकम्म० सम्माइट्ठी० तेत्तीससागरोवमिएसु देवेसुववज्जिय चरिमसमयणिप्पिदमाण ० तस्स जह० पढ़े ० संक० । एवं सोहम्मादि णवगेवजा त्ति । णवरि सगट्टिदी | भवण० वाण०जोदिसि० पढमपुढविभंगो । अणुद्दिसादि सव्वट्टा त्ति मिच्छ० - अनंताणु ० ४ - इत्थवे ० ' - वुंस० देवोघं । सम्मामि० मिच्छत्तभंगो । बारसक० - पुरिसवेद-भय-दुगु छा० जह० पदे ० संक ० ६० कस्स १ अण्णद० खविदकम्मंसि० खइयसम्मादिट्ठिस्स विवरीयं गंतूण देवेसु पढमसमयउववण्णल्लयस्स । चदुणोक० जह० पदे०संक० कस्स ? अण्णद० खविदकम्मंसि० विवरीयं गंतूण खइयसम्मादिट्ठिदेवेस अंतोमुहुत्त उववण्णल्लयस्स तस्स जह० पदे ० संक० । एवं जाव० । एवं जहण्णयं सामित्तं समत्तं ।
* एयजोवेण कालो ।
सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग तिर्यनोंके समान है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर तीन पल्य कहे हैं वहाँ पर तेतीस सागरप्रमाण श्रायुवालोंमें उत्पन्न कराना चाहिए । अनन्तानुबन्धीयतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर अट्ठाईस सत्कर्मके साथ सम्यग्दृष्टि होकर तेतीस सागरकी युवाले देवों में उत्पन्न होकर वहाँ से निकलनेके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके उक्त कर्मोंका जबन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर नौ मैंवेयक तकके देवोंमें सब कर्मों का जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सब कर्मोंके जधन्य स्वामित्वका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । सम्यग्मिथ्यात्व जघन्य स्वामित्वका भङ्ग मिध्यात्वके समान है । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मा शिक्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव विपरीत जाकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उक्त कर्मों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। चार नोकषायका जघन्य प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्मशिक जीव विपरीत जाकर क्षायिक सम्यक्त्वके साथ देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल बिता चुका है उसके अन्तमुहूर्तके अन्तिम समयमें उक्त कर्मों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ ।
* एक जीवको अपेक्षा कालका कथन करते हैं ।
१. ता० श्रा० प्रत्यो: मिच्छ - इत्थिवे० इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६२. एतो एयजीवेण विसेसिओ कालो विहासिययो ति अहियारसंभालणवयणमेदं।
8 सव्वेसि कम्माणं जहण्णुकस्सपदेससंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ६३. सुगमं । ॐ जहण्णुकस्सेण एयसमझो।
६६४. कुदो ? सव्वेसि कम्माणं जहण्णुक्कस्सपदेससंकमाणमेयसमयादो उपरिमवट्ठाणासंभवादो। संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थविवरणमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहाकालो दुविहो-जह० उक्क० । उक्स्से पयदं । दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ० उक्क० पदे०संक० के० १ जहण्गक० एयस० । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि सादिरे । सम्मा० उक० पदेस०संका० जहण्णुक्क० एयस० । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० उक्क० पदे०संका० जहण्णुक्क० एयस० । अणु० जह० अंतोमु०, उक० बेच्छावहिसागरो० सादिरे । सोलसक०-णवणोक० उक्क० पदे०संका० केव० ? जहण्णक० एयस० । अणुक्क० तिण्णि भंगा । जो सो सादिओ सपजवसिदो जह• अंतोमु०, उक्क० उबड्डपोग्गलपरियट्ट।
६६२. आगे एक जीबकी अपेक्षा कालका व्याख्यान करते हैं इस प्रकार यह अधिकारकी सम्हाल करनेवाला वचन है।
* सब कर्मों के जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका कितना काल है ? ६६३. यह सूत्र सुगम है।
* जधन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६६४. क्योंकि सब कर्मोंके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमोंका एक समयसे अधिक काल तक अवस्थान पाया जाना असम्भव है। अब इस सूत्रके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थके विवरण
प उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-काल दो प्रकारका है, जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागरप्रमाण है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका कितना काल है ? जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकके तीन भङ्ग हैं। उनमेंसे जो सादि-सान्त भङ्ग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण हैं।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे एयजीवेण कालो
६५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० उक्क० पदे०संका० जहण्णक० एयस० । अणु० जह० अंतोमु०, उक्क० तेतीसं सागरो० देसूणाणि । सम्म० उक० पदे०संका० जहण्णुक्क० एयसमओ । अणु० जह० एयस०,उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि०-अणंताणु०४ उक० पदे०संका० जहण्णु० एयस० । अणु० जह० एयस०, उक्क० तेतीसं सागरोत्रमं ।
विशेषार्थ-स्वामित्वके अनुसार सब कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम एक समयके लिए होता है, इसलिए सर्वत्र इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। मात्र सब कर्मो के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके कालमें फरक है जिसका खुलासा इस प्रकार है-मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम मात्र सम्यग्दृष्टिके होता है और २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है । सम्यक्त्वका प्रदेशसंक्रम मिथ्यात्व गुणस्थानमें होता है । यतः मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और मिथ्यात्वमें रहते हुए सम्यक्त्वका अधिकसे अधिक सत्त्व पल्यके असंख्यातवें मागप्रमाण काल तक रहता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहुर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी होता है और उसकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टिके भी होता है । इन गुणस्थानोंमें कमसे कम रहनेका काल अन्तमुहूते है यह तो स्पष्ट ही है । साथ ही यदि काई जीव मध्यमें वेदक काल तक मिथ्यात्वमें रहकर मिथ्यात्वमें रहने के पहले और बादमें कुल मिलाकर दो छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहे । तथा वहाँसे आकर पुनः मिथ्यात्वमें सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके काल तक रहता हुआ उसका संक्रम करे तो यह सम्भव है। साथ ही सम्यक्त्वके साथ प्रथम छयासठ सागर कालमें प्रवेश करनेके पूर्व भी वह सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला होकर अपने संक्रमके उत्कृष्ट काल तक उसका संक्रम करे तो यह भी सम्भव है । इन्हीं सब बातोंका विचार कर यहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपणाके समय होता है। इसके पहले इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, इसलिए भव्योंकी अपेक्षा तो यह अनादि-सान्त और सादि-सान्त है। किन्तु अभव्योंके सदाकाल होनेके कारण अनादि-अनन्त है । सादि-सान्त विकल्प उन भन्योंके होता है जो उपशमणि पर आरोहण कर चुके हैं और ऐसे जीव या तो अन्तर्मुहूर्तमें क्षपकनेणि पर आरोहण कर अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्त कर देते हैं या उपार्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक उसके साथ रहते हैं, इसलिए यहाँ पर उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उपाधं पुदगलपरिवर्तनप्रमाण कहा है।
६५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ बारसक०-णवणोक० उक्क० पदे०संका० जहण्णक० एयस० । अणु० जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं० । एवं सवणेरइय० । णवरि सगढिदी। णवरि सत्तमाए अणंताणु०४ अणु० जह० अंतोमु० ।
६६६. तिरिक्खेसु मिच्छ० उक्क० पदे०संका० जहण्णु० एयस० । अणु० जह. अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । सम्म० णारयभंगो । सम्मामि० उक्क०
सागर है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी आयुस्थिति कहनी चाहिए। तथा इतनी और विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमहत है।
विशेषार्थ—सामान्यसे और प्रत्येक पृथिवीकी अपेक्षा सब नारकियोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपने स्वामित्व कालमें एक समयके लिए ही होता है इसलिए इसका सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किसी नारकीका सम्यग्दृष्टि होकर कम से कम अन्तमुहूर्त तक और अधिक से अधिक कुछ कम तेतीस सागर तक मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके साथ रहना सम्भव है, इसलिए यहाँ पर मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। यह सम्भव है कि कोई एक जीव सम्यक्त्वकी उद्वेलना करते हुए उसके संक्रममें एक समय शेष रहने पर नरकमें उत्पन्न हो और यह भी सम्भव है कि अन्य कोई जीव नरकमें उद्वेलनाके उत्कृष्ट काल तक वहाँ रहकर उसका संक्रम करे, इसलिए सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । मात्र उत्कृष्ट काल तेतीस सागर प्राप्त करनेके लिए अधिकतर समय तक वेदकसम्यक्त्वके साथ रखकर प्रारम्भमें और अन्तमें मिथ्यात्वमें रखकर उसका संक्रम कराके प्राप्त करना चाहिए । सोलह कषायों और नौ नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह तो स्पष्ट ही है । जघन्य कालका खुलासा इस प्रकार है-कोई एक अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजक जीव सासादनमें जाकर और अनन्तानुबन्धीका एक समय तक संक्रामक होकर अन्य गतिमें चला जाय यह सम्भव है. इसलिए इसके अनत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमक जघन्य काल एक समय कहा है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका जिस नारकीके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है वह उसके बाद कमसे कम अन्तमुहूर्त काल तक नरकमें अवश्य रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है । यह जघन्य और उत्कृष्ट काल सब नरकोंमें भी बन जाता है, इसलिए उनमें सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र प्रत्येक नरककी अलग अलग आयुस्थिति होनेसे उसका निर्देश अलगसे किया है। यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि सातवें नरकमें सम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वमें जाकर अन्तमुहूर्त काल व्यतीत हुए बिना मरणको नहीं प्राप्त होता, इसलिए वहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है।
६६६. तियेच्चोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेशसंक मे एयजीवेण कालो
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पदे० संका • जहण्णु० एयसमओ । अणु० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो ० सादिरेयाणि । सोलसक० - णवणोक० उक्क० पदे ० संका० जहण्णु० एयस० । अणु० जह० खुद्दाभवग्गहणं, अणंताणु०४ एयस०, उक्क० सव्वेसिमणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं पंचिदियतिरिक्खतिय० । णवरि जम्हि अनंतकालं तम्हि तिष्णि पलिदो० पुन्त्रकोडिधत्तेभहियाणि । सम्मा मि० अणु० जह० एयस ०, उक० तिण्णि पलिदो० पुव्वको डिपुध० ।
९ ६७. पंचिंदियतिरिक्खअपज० - मणुस अपज्ज० सत्तावीसं पयडीणं उक्क० पदे०
सम्यक्त्वका भङ्ग नारकियोंके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है, अनन्तानुबन्धीचतुष्कका एक समय है तथा सबका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर अनन्त काल कहा है वहाँ पर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहना चाहिए | तथा सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है ।
विशेषार्थ — तिर्यञ्चों में सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए इनमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । सम्यक्त्वका भङ्ग नारकियोंके समान है यह स्पष्ट ही है । सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके जघन्य काल एक समयका खुलासा नारकियोंके समान कर लेना चाहिए । उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहनेका कारण यह है कि उत्तम भोगभूमिमें वेदक सम्यक्त्वके साथ रखकर तो कुछ कम तीन पल्य काल प्राप्त हो ही जाता है। साथ ही इसके पूर्वतिर्थ पर्याय में सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता के साथ यथासम्भव अधिक से अधिक काल तक रखे और इस प्रकार साधिक तीन पल्य कास ले आवे । तिर्यञ्चोंमें रहनेके जघन्य काल और उत्कृष्ट कालको ध्यान में रख कर वहाँ सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जधन्य काल क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल कहा है । मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य काल एक समय नारकियोंके समान यहाँ भी बन जाता है, इसलिए उसका अलग से निर्देश किया है | पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य होनेसे उनमें अनन्तकालके स्थानमें इसे कहना चाहिए यह सूचना की है। इनके सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके उत्कृष्ट कालका निर्देश भी अलगसे इसी दृष्टिसे किया है । शेषं कथन सुगम है ।
६७. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें और मनुष्य अपर्याप्तकों में सत्ताईस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
संका • जहण्णुक० एयस० । अणु० जह० अंतोसु०, सम्म० -सम्मामि ० सव्वेसिमुक अंतोमु० ।
[ बंधगो ६
० एगस०,
1
६८. मणुसतिए मिच्छ० सम्म० तिरिक्खभंगो । सम्मामि :- सोलसक० णवणोक० उक० पदे ० संका • जहण्णु० एयस० । अणुक० जह० अंतोमु०, सम्मामि० अनंताणु ०४ एयस०, उक्क०' तिष्णि पलिदो ० पुव्त्रको ० ।
०
६ ६६. देवेसु मिच्छ० उक्क० पदेससंका • जहण्णुक्क० एयस०, अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं । एवं बारसक० - णवणोक० । सम्म० णारयभंगो । सम्मामि०-अणंताणु०४ उक्क० पदे०संका० जह०गु० एयस० । अणु० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरोत्रमं । एवं भवणादि णवगेवज्जा ति । णरि सगट्ठिदी । अणुद्दिसा दि सव्त्रट्ठा त्ति मिच्छ० - सम्मामि० उक्क० पदे ० संका ० जहष्णु० एयस० । अणु० जह०
जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
त्रिशेषार्थ — उक्त जीवोंपें एक मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होनेसे मिध्यात्वका प्रद ेशसंक्रम सम्भब नहीं, इसलिए उसके कालका निर्देश नहीं किया। शेष प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। मात्र सम्यक्त्व और सम्य मिथ्यात्वका जघन्य काल नारकियोंके समान एक समय भी वन जाता है, इसलिए उसका अलगसे निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है ।
६८. मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व और सम्यक्यका भङ्ग तिर्यञ्चों के समान है । सम्य मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानन्धी चतुष्कका एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है ।
विशेषार्थ – मनुष्यत्रिककी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य होनेसे इनमें सम्यग्मिभ्यात्त्र आदि छब्बीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहां है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जवन्य काल एक समय भी बन जाता है, इसलिए इसका अलग से निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है ।
§ ६६. देवोंमें मिथ्यात्त्रके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जवन्य काल अन्तम हूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकपायोंका भङ्ग जानना चाहिए। सम्यक्त्रका भङ्ग नारकियोंके समान है । सम्यग्मियात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार भवनवासी देवोंसे लेकर नौ प्रवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशले लेकस्सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में मिध्यात्व
१. ता० - श्रा० प्रत्योः श्रंतोमु०, उक्क० इति पाठः ।
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२१७ जहण्णविदी समय॒णा, उक्क. उकस्सद्विदी। सोलसक०'-णवणोक० उक्क० पदे०संका० जहण्णक० एयस० । अणु० जह० अंतोमु०, उक्क० उकस्सहिदी । एवं जाव० ।
६१००. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ० जह० पदे०संका० जहण्णुक्क० एयसमओ। अजह० जह• अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरो० सादिरेयाणि । सम्म० जह० पदे०संका० जहण्णक० एयस० । अज० जह• एयस०,उक० पलिदो० असंखे०भागो । सम्मामि० जह० पदे०संका० जहण्णु० एयस० । अजह० जह. अंतोमु०, उक्क० वेछावद्विसागरो० सादिरेयाणि । सोलसक०-णवणोक० उकस्सभंगो। और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समयकम जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारकमार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ देवोंमें सन्यक्त्वके जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर यहाँ पर मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागर कहा है। यह काल वारह कषाय और नौ नोकषायोंका भी वन जाता है, इसलिए उसे मिथ्यात्वके समान जाननेकी सूचना की है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके विषयमें भी जानना चाहिए । मात्र इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय नारकियोंके समान वन जानेसे यह एक समय कहा है। सम्यक्त्वका भङ्ग नारकियोंके समान है यह स्पष्ट ही है। भवनवासी आदि नौ वेयक तकके देवोंमें अन्य सब काल इसी प्रकार बन जाता है। मात्र तेतीस सागरके स्थानमें अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा भवनत्रिकमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट काल कहते समय वह कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए, क्योंकि इन देवोंमें सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते, अतएव वहाँ भवके प्रथम समयसे सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं होनेसे मिथ्यात्वका सम्यक्त्व प्राप्तिके पूर्व संक्रम नहीं बन सकता। अनुदिश आदिमें सब जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतएव उनमें सम्यक्त्वका प्रदेशसंक्रम सम्भव नहीं होनेसे उसका निर्देश नहीं किया। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण कहनेका कारण उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके एक समयको कम करना है। शेष कथन सुगम है।
१००. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है । सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्ध प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अंजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है।
विशेषार्थ-सब प्रकृतियोंका अपने-अपने जघन्य स्वामित्वके समय जघन्य प्रदेशसंक्रम १ ता०प्रतौ उक्कस्सहिदी...सोलसक० इति पाठः ।
२८
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२१८ जयधवनासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६१०१. आदेसेण जेरइय० मिच्छ० जह० पदे०संका० जहण्ण एयस० । अजह० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्म० ओघं। सम्मामि०. अर्णताणु०४ जह० पदे०संका० जहण्ण० एयस० । अजह० जह० एयस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सत्तणोकसांय० । णवरि अज० जह० अंतोमु० । बारसक०भय-दुगुछ० जह० पदे०संका० जहण्णु० एयस० । अजह० जह० दसवस्ससहस्साणि समयूणाणि, उक्क० तेतीसं सागरो । एवं सतमाए। णवरि बारसक०-भय-दुगुछ० अज० जह० वावीसं सागरो । अणंताणु०४ अंतोमु० ।
होता है, इसलिए उसका सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अब रहा अजघन्य प्रदेशसंक्रमके कालका विचार सो सम्यग्दर्शनका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर होनेसे मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्नुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है। यहाँ पर साधिक छयासठ सागरसे उपशम सम्यक्त्व और मिथ्यात्वकी क्षरणा होनेके पूर्व तकका वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल लेना चाहिए। उसमें भी जब तक मिथ्यात्वका संक्रमण होता रहता है उस समय तकका काल लेना चाहिए। सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जधन्य काल एक समय जघन्य संक्रमके एक समय पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त कराकर ले आना चाहिए। तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण इसके उत्कृष्ट उद्वेलना कालको ध्यान में रखकर ले आना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वके अजवन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर जिस प्रकार अनुत्कृष्टका घटित करके बतला आये हैं उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है।
६१०१. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ठ काल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यक्त्वका भङ्ग ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सात नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहर्त है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका एक समय कम दसहजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रबार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, भय और जुगुप्साके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल बाईस सागर है और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ- यहाँ व आगे सर्वत्र सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपने-अपने स्वामित्वकी अपेक्षा एक समय है यह स्पष्ट है, अतः उसका सर्वत्र उल्लेख न कर केवल अजघन्य प्रदेशसंक्रमके जघन्य व उत्कृष्ट कालका खुलासा करेंगे। नरकमें सन्यक्त्वका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरको ध्यानमें रखकर यहाँ पर मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। सम्यक्त्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जो काल ओघके समान बतलाया है वह यहाँ भी बन जाता है, अतः इस प्ररूपणाको यहाँ पर ओघके समान जाननेकी सूचना की है । सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल
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९ १०२. पढमाए जाव छट्टि त्ति मिच्छ० जह० पदे ० संका • जहण्णु० एयस० । अजह० जह० अंतोसु०, उक्क० सगट्टिदी देणा । सम्म० ओघं । सम्मामि ० - अनंताणु ०४ जह० पदे ० संका • जहण्गु० एयस० । अज० जह० एयस०, उक्क० सगट्ठिदी । एवं पंचणोक० | णवरि अज० जह० अंतोसु० । बारसक० -भय- दुगुछ० जह० पदे ० संका ० जणु ० यस० । अज० जह० जहण्णहिदी समयूणा, उक्क० उकस्सट्ठिदी । एवमित्थिबेदसय० । वरि अजह • जहण्णकस्सट्ठिदी भाणिदव्वा ।
एक समय ऐसे जीव के जानना चाहिए जो इसके उद्वेलनासंक्रममें एक समय शेष रहने पर नरकमें उत्पन्न हुआ है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जबन्य काल एक समय ऐसे जीवके जानना चाहिए जो अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाके बाद सासादनमें आकर तथा पुनः संयुक्त होकर एक समय एक आवलिकाल तक नरकमें रहकर अन्य गतिको प्राप्त हो गया है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर स्पष्ट ही है, क्योंकि यथा योग्य मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमें रखकर सम्यग्मिथ्यात्वका और मिथ्यात्व में रखकर अनन्तनुबन्धीचतुष्कका यह काल प्राप्त किया जा सकता है। सात नोकषायका उत्कृष्ठ काल अनन्तानुबन्धीके समान ही घटित कर लेना चाहिए। मात्र जघन्य कालमें फरक है । वात यह है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भवस्थितिमें अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहने पर जघन्य प्रदेशसंक्रम होकर अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में अजघन्य प्रदेशसंक्रम होना सम्भव है तथा पाँच नोकषायोंका नरकमें उत्पन्न होने के बाद जघन्य प्रदेशसंक्रम होने के पूर्व प्रथम अन्तर्मुहूर्त में अजघन्य प्रदेशसंक्रम होना सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसँक्रम भवके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। सातवें नरक में यह काल इसी प्रकार बन जाता है। मात्र वहाँ की जघन्य आय एक समय अधिक बाईस सागर है, इसलिए उनमें बारह कषाय, भय और जुगुष्माके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल बाईस सागर कहा है । इनमें से एक समय इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमका काल घटा दिया है । तथा जो सम्यग्दृष्टि अन्तमें मिध्यादृष्टि होता है वह सातवें नरकमें अन्तर्मुहूर्त हुए बिना मरण नहीं करता, इसलिए यहाँ अनन्तामुबन्धीच तुष्कके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
९ १०२. पहिली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिध्यात्वके जघन्य प्रदेश - संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल
मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्वका भङ्ग श्रोघके समान है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार पाँच नोकबायका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । वारह कषाय, भय और जुगुप्शाके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जधन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । श्रजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्यः काल एक समय कम अपनी-अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अपनी-अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए ! ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
११०३. तिरिक्खेसु उकस्सभंगो। णवरि हस्स -रदि- अरदि-सोग - पुरिसवे० जह० पदे० जहण्णु० एयस० । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । पंचिदियतिरिक्खतिय० उकस्सभंगो | णवरि हस्स -रदि- अरदि सोग - पुरिसवे ० अजह० जह० अंतोमु० ।
६ १०४. पंचिंदियतिरिक्खअपज ० - मणुस अपज : सोलसक० -भय- दुगु छा० जह० पदे ० संका ० जणु ० [० एयस० । अज० जह० खुद्दाभवग्गहणं समयूर्ण, उक्क० अंतोमु० । सम्म० - सम्मामि० जह० पदे०संका० जहण्णु० एयस० । अज० जह० एगस ०, उक्क ० अंतोमु० । सत्तणोक० जह० पदे० संका • जहण्गु० अंतोमु० ।
२२०
विशेषार्थ — पूर्व में सामान्य नारकियोंमें कालका स्पष्टीकरण कर आये हैं । उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । मात्र यहाँ पर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य व उत्कृष्ट काल जो जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है सो इसका कारण यह है कि इन नरकोंमें उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम जघन्य स्थितिवालोंमें नहीं होता, अतः यहाँ पर इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य व उत्कृष्ट काल जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है ।
१०३. तिर्यों में उत्कृष्टके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति, शोक और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अनन्त काम है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक उत्कृष्टके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, रति, शोक और पुरुषवेदके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थतिर्यों और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक हास्य आदि पाँच नोकषायका जवन्य प्रदेशसंक्रम ऐसे जीवके होता है जो क्षपितकर्माशिक जीत्र विपरीत जाकर तिर्यों में उत्पन्न होता है | उसमें भी उत्पन्न होने के अन्तमुहूर्तबाद होता है। तथा इसके पहले इन प्रकृतियोंका
तमुहूर्त तक जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, इसलिए यहाँ पर इन प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष सब काल अपने अपने स्वामित्वको ध्यान में रखकर उत्कृष्टके समान घटित कर लेना चाहिए ।
§ १०४. पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा के जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । जघन्य प्रदेश - संक्रामकका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्य है । सात नोकषायके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेश संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ — उक्त जीव में सोलह कषाय, मय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम प्रथम समयमें होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम तुल्लक
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गा०५८] ___ उत्तरपयडिपदेससंकमे एयजीवेण कालो
६१०५. मणुसतिए मिच्छ० सम्म तिरिक्खभंगो। सम्मामि०-सोलसक०णवणोक० जह० पदे०संका० जहण्ण० एयस० । अजह० जह० एयस०,+ उक० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुत्तेणब्भहियाणि ।
६१०६. देवेसु मिच्छ० पंचणोक० जह० पदे०संका० जहण्णु० एयसमओ। अजह. जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० । एवं सम्मामि०-अणताणु०४। णवरि अज० जह० एयस० सम्म० ओघं । बारसक०-चदुणोक० जह० पदे०संका० जहण्ण० एयस० । अजह० जह० दसबस्ससहस्साणि, उक० तेत्तीसं सागरोवमं ।
भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इनमें सन्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकी अपेक्षा एक समय तक संक्रम हो यह भी संभव है और कायस्थितिप्रमाण काल तक संक्रम होता रहे यह भी सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके अजवन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। सात नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम इन जीवोंमें अन्तमुहूर्त के बाद प्राप्त होता है । इसके पहिले अजघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। तथा जिसके जघन्य प्रदेशसंकम नहीं होता उसके कायस्थितिप्रमाण काल तक इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम होता रहता है । यतः ये दोनों काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हैं, अतः यहाँ इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है।
६१०५ मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व और सन्यक्त्वका मङ्ग तिर्यश्चोके समान है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है।
विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रमका काल तियञ्चोंके समान बन जानेसे उनके समान कहा है। सम्यमिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा और सोलह कषाय, भय व जुगुप्साके अजघन्य प्रदेश1. मका जघन्य काल एक समय उपशम श्रेणिसे उतरते समय एक समय इनका संक्रम कराकर
मरणकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए यहाँ पर इन प्रकृतियोंका यह काल एक समय कहा है। तथा उत्कृष्ट काल कायस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ठ है। यहाँ इतना पिशेष जानना चाहिए कि सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल इसकी सत्तावाले जीवको यथायोग्य सम्यक्त्व और मिथ्यात्वमें रख कर यह काल ले आना चाहिए।
६१०६. देवोंमें मिथ्यात्व और पाँच भोकषायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कंका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय है। सम्यक्त्वका भङ्ग
ओघके समान है । वारह कषाय और चार नोकषायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागरप्रमाण है।
विशेषार्थ देवोंमें सम्यक्त्वका जयन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है, इसलिए तो इनमें मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट
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२२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६१०७. भवणादि जाव णवगेवजा ति मिच्छ०-पंचणोक० जह० जहण्णु० एयस० । अज० जह० अंतोमु०, + उक्क. सगढ़िदी। एवं सम्मामि०-अणंताणु०४ । णवरि अजह० जह० एयस० । सम्म० ओघं । बारसक०-भय-दुगुछ० जह० प०सं० जहण० एयस० । अजह० जह० जहण्णद्विदी समयूणा, उक्क. उकस्सहिदी। इथिवे०णस० जह० प०संका० जहण्गु० एयस० । अजह• जहण्णुक्क० जहण्णुकस्सहिदी।
६१०८. अणुद्दिसादि सबट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि० जह० पदे०संका० जहण्गु० एयस० । अजह० जहण्णुक्क० जहण्णुकस्सहिदी । एवमिथि०-णस० । एवं वारसक०
काल तेतीस सागर कहा है । तथा तत्प्रायोग्य देवके देव होनेके अन्तमुहूर्त बाद पाँच नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, इसके पहले अन्तर्मुहूर्त तक अजघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । तथा अन्य देवोंकी पूरी पर्याय तक इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम सम्भव है, इसलिए यहाँ पर उक्त प्रकृतियोंके अजवन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका यह काल इसीप्रकार बन जाता है । मात्र जवन्य काल एक समय प्राप्त होता है सो इसका खुलासा सामान्य नारकियोंके समान कर लेना चाहिए । सम्यक्त्वका भङ्ग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है। बारह कषाय और भय व जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपितकर्मा शिक नारकीके प्रथम समयमें होता है। स्त्री व नपुंसक वेदका जवन्य प्रदेशसंक्रम तेतीस सागरकी आयुवालोंके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए बारह कषायादि उक्त प्रवृत्तियोंके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जवन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है।
६१०७. भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व ओर पाँच नोकषायों के जवन्य प्रदेशसंक्रामकका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजधन्य प्रदेशसंक्रामकका जवन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अजवन्य प्रदेशसंक्रामकका जवन्य काल एक समय है। सम्यक्त्वका मङ्ग ओघके समान है। बारह कषाय,भय और जुगुप्साके जवन्य प्रदेशसंक्रामकका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजवन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय कम जवन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ठ काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ--भवनवासी आदि देवोंमें बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसक्रम भवके प्रथम समयमें होता है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है जो अपने स्वामित्वको जानकर घटित कर लेना चाहिए।
६ १०८. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेस कमे एयजीवेण अंतरं
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भय - दुगु छ० - पुरिसवे ० । णवरि अजह० जह० जहण्णट्ठिदी समयूणा । अनंता ०४ हस्स - रदि - अरदि- सोग० जह० पदे ० संका० जहष्णु० एयस० । अजह० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० सगट्टिदी | णवरि सव्त्रट्ठे इत्थिवे ० - णवुंसवे ० - मिच्छ० - सम्मामि० सगदी समयूणा । एवं जाव० ।
0
अजह०
एवं कालागमो समत्तो ।
* अंतरं ।
१०६. सुगममेदमहियारसंभाल गवक' ।
* सव्वेसिं कम्माणमुक्कस्सपदेससंकामयस्स पत्थि अंतरं ।
जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदका जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय कम जवन्य स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुथन्धीचतुष्क, हास्य, रति, अरति और शोकके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य काल एक समय कम अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — अनुदिश आदिमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम दीर्घ युवालोंमें वहाँसे निकलने के अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल जघन्य स्थिति - प्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समय में ऐसे जीवोंके भी होता है जो जघन्य यु लेकर वहाँ पर उत्पन्न हुए हैं, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थितिप्रमाण विशेष रूपसे कहा है । उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । इन देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अजघन्य प्रदेशसंक्रम अन्तमुहूर्त तक होकर उनकी विसंयोजना होना सम्भव है । तथा वेदक सम्यग्दृष्टिके जीवन भर इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम होता रहता है, इसलिए तो इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। अब रहीं चार नोकषाय प्रकृतियाँ सो इनका जघन्य प्रदेशसंक्रम वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तमुहूत बाद होना सम्भव है, इसलिए इनके भी श्रजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। सर्वार्थसिद्धिमें यह काल इसी प्रकार घटित हो जाता है । मात्र वहाँ जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका भेद नहीं होनेसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम रिथतिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण प्राप्त होने से से अलग से कहा है । शेष कथन स्पष्ट है ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
* अव अन्तरका कथन करते हैं।
१०६. अधिकार की सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । * सब कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकोल नहीं है ।
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२२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६११०. होउ णाम खरगसंबंधेण लद्भुकस्समावाणं मिच्छत्तादिकम्माणमंतराभावो, ण वुण सम्मत्ताणताणुबंधीणमंतराभावो जुत्तो, तेसिमखवयविसयत्वेण लद्धक्कस्सभावाणमंतरसंभवे विप्पडिसेहाभावादो ?ण एस दोसो, गुणिदकम्मसियलक्खणेणेयवारं परिणदस्स पुणो जहण्गदो वि अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालभंतरे तब्भावपरिणामो णथि ति एवंविहा. हिप्पारणेदस्स सुत्तस्स पयट्टत्तादो । एसो ताव एको उवएसो चुण्णिसुत्तयारेण सिस्साणं परूविदो । अण्णेणोवएसेण पुण सम्मत्ताणताणुबंधीणं अंतरसंभवो अस्थि ति तप्पमाणावहारणटुं उत्तरसुत्तं भणइ
ॐ अधवा सम्मत्ताणताणुबंधोणं उकस्ससंकामयस्स अंतरं केवचिरं ?
६ १११. अण्णेणोवएसेण सम्मत्ताणताणुबंधीणमुक्कस्सपदेससंकामयंतरं संभवइ । पुण केवचिरमंतरं होइ ति पुच्छा कया होइ ।
जहणणेण असंखेजा लोगा। ६११२. गुणिदकम्मसियलक्खणेणागंतूण णेरइयचरिमसमयादो हेट्ठा अंतोमुहुत्तमोसरिय पढमसम्मतमुप्पाइय जहावुतपदेसे सम्मत्ताणताणुबंधीणमुक्कस्सपदेससंकमस्सादि
६ ११०. शंका-मिथ्यात्व आदि कर्मोका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपणा करनेवाले जीवके होनेके कारण इनके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर न होबो यह ठीक है। किन्तु सम्यक्त्व और अनन्तानुवन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरका अभाव युक्त नहीं है, क्योंकि इनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपकको विषय नहीं करता, इसलिए उनके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर सम्भव होनेसे उसका निषेध नहीं बनता ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि गुणितकर्मा शिक लक्षणसे एक बार परिणत हुए जीवके पुनः जघन्य रूपसे मी उसके योग्य परिणाम अर्धपुग्द्ल परिवर्तनप्रमाण कालके भीतर नहीं होता इस प्रकार ऐसे अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है।
यह एक उपदेश है जो सूत्रकारने शिष्योंके लिए कहा है। परन्तु अन्य उपदेशके अनुसार सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर सम्भव है, इसलिए उसके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
* अथवा सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
६ १११. अन्यके उपदेशानुसार सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंके उत्कृष्ट प्रदेशासंक्रामकका अन्तर सम्भव है । परन्तु वह कितना है यह पृच्छा इस सूत्र द्वारा की गई है।
* जघन्य अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
६११२. गुणितकर्मा शिक लक्षणसे आकर नारकीके अन्तिम समयसे पीछे अन्तर्मुहूर्त रहकर अर्थात् नारकीके अन्तिम समयके प्राप्त होनेके अन्तर्मुहूर्त पहिले प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्नकर यथोक्त स्थानमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम पूर्वक उसका अन्तर करके अनुत्कृष्ट
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे एयजीवेण अंतरं
૨૨૫ कादण अंतरिय अणुकस्सपरिणामेसु असंखे०लोगपमाणेसु तेत्तियमेत्तकालमच्छिऊण पुणो सव्वलहुँ गुणिदकिरियासंबंधमुवसामिय पुव्वुत्तेणेव कमेण पडिवण्णतब्भावम्मि तवलंभादो।
* उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियह ।
१११३. पुव्वुत्तविहाणेणेवादि करिय अंतरिदस्स देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालं परिममिय तदवसाणे गुणिदकम्मंसिओ होदूण सम्मत्तमुप्पाइय पुव्वं व पडिवण्णतब्भावम्मि तदुवलद्धोदो।
६११४. एवमोघेणुकस्सपदेससंकामयंतरसंभवासंभवणिण्णयं कादण संपहि एदेण सूचिददेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-अंतरं दुविहं जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ०-सम्मामि० उक्क० पदे० संका० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क. उवड्वपोग्गलपरियट्ट। णवरि सम्मामि० अणु० जह० एयस० । सम्म० मिच्छत्तमंगो। अणताणु०४ उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतोमु०, उक्क० वेछावद्विसागरो० सादिरेयाणि । बारसक०-णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० ।'
प्रदेशसंक्रमके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंमें उतने ही काल तक रहकर पुनः अतिशीघ्र गुणितक्रियाविधिको उपशमा कर पूर्वोक्त क्रमसे हो उक्त कर्मों के उत्कृष्ट भावके प्राप्त होने पर उक्त अन्तर प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
६ ११३. पूर्वोक्त विधिसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरका प्रारम्भ करके तथा कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें गुणित कर्मा शिक होकर तथा सम्यक्त्वको उत्पन्नकर पहिलेके समान उत्कृष्ट भावके प्राप्त होने पर उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है।
६११४. इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकके अन्तरसम्बन्धी सम्भवासम्भव भावका निर्णय करके अब इससे सूचित होनेवाले आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । ओघसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है । सम्यक्त्यका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमहर्स है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है।
१ ता० प्रतौ 'अणु० जह• अंतोमु• एयस०' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६११५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सम्मामि० उक्क० पदे०संक० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सम्म०-अणंताणु०४ । णवरि अणु० जह० अंतोमुहुत्तं । बारसक०-णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक्क० एयसमओ । एवं सचणेरइय०। णवरि सगहिदी देसूणा ।
विशेषार्थ--सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपणाके समय होता है इससे यहाँ पर उनके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है। अब रहा अनुत्कृष्टके अन्तरकालका विचार सो सादि मिथ्यादृष्टिका मिथ्यात्वमें रहनेका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त
और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी दर्शनमोहनीयका संक्रमण नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे भी मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त ले आना चाहिए। कोई सादि मिथ्यादृष्टि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक उसकी सत्तारहित रहता है। तथा कोई सादि मिथ्या दृष्टि प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वका सर्वसंक्रम द्वारा अभाव करके और दूसरे समयमें उपशम सम्यग्दृष्टि होकर तीसरे समयमें पुनः उसका संक्रम करने लगता है, इसलिए यहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। सम्यक्त्वका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है यह स्पष्ट ही है। मात्र यहाँ पर सम्यक्त्वकी सत्तावाले सादि मिथ्यादृष्टिको अन्तमुहूर्त तक सम्यक्त्वमें रख कर मिथ्यात्वमें ले जाकर जघन्य अन्तर घटित करना चाहिए। तथा उत्कृष्ट अन्तर उद्वेलनाके बाद उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक मिथ्यात्वमें रखकर तदनन्तर उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कराके पुनः मिथ्यात्वमें ले जाकर लाना चाहिए। विसंयोजनापूर्वक सम्यक्त्वका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है यह देखकर अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण कहा है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंका उपशम श्रेणीमें मरणकी अपेक्षा एक समय और चढ़कर उतरनेकी अपेक्षा अन्तमुहूर्त संक्रमका अन्तर बन जाता है, इसलिए यहाँ पर इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त
६११५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। बारह कषाय और नौ नोकपायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
विशेषार्थ—सामान्य नारकियों और प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल न होनेका कारण यह है कि इनमें दो बार इनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सम्भव नहीं। इसी प्रकार आगेकी मार्गणाओंमें भी जानना चाहिए। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके
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गा० ५८] उत्तरपयडिदेससंकमे एयजीवेण अंतरं
२२७ ६११६. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सम्मामि०-सम्म० उक्क०णत्थि अंतरं । अणु० जह० एगस०, सम्म० अंतोमु०, उक्क० उबड्डपोग्गलपरियट्ट। अणताणु०४ उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । बारसक०–णवणोक० उक्क० णत्थि अंतर । अणुक्क० जहण्णु० एयसमओ। अन्तरकालका खुलासा इस प्रकार है-यहाँ पर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम एक समयके लिए होता है इसलिए तो इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । तथा प्रारम्भमें और अन्तमें सम्यक्त्वमें रखकर मध्यमें कुछ कम तेतीस सागरकाल तक मिथ्यात्वमें रखनेसे मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होनेसे वह-तत्प्रमाण कहा है। तथा प्रारम्भमें और अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण करावे और मध्यमें उद्वेलना द्वारा उसका अभाव हो जानेसे कुछ कम तेतीस सागरकाल तक उसकी सत्ताके बिना रखे । इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र यह अन्तर मध्यमें कुछ कम तेतीस सागरकाल तक सम्यक्त्वके साथ रखकर प्राप्त करना चाहिए। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहनेका कारण यह है कि इसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम ऐसे जीवके होता है जो सम्यक्त्वसेच्यत होकर मिथ्यात्वके प्रथम समयमें स्थित है। यहाँ जो सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है वही इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तरकाल जानना चाहिए। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका काल एक समय है वही यहाँ इनके अनुत्कुष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल होता है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश संक्रमका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है । यह सामान्यसे नारकियोंमें अन्तरकालका विचार है। प्रत्येक पृथिवीमें यह अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र जहाँ पर कुछ कम तेतीस सागर कहा है वहाँ पर वह कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए।
६ ११६. तिर्यश्चों में मिश्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, सम्यक्त्वका अन्तमु हूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उवार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तरमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्त कुछ कम तीन पल्य है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
विशेषार्थ—यहाँ पर अन्य सब अन्तरकाल नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिए। केवल मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहनेका कारण यह है कि तिर्यश्च पर्यायमें कोई भी जीव इतने काल तक रहकर प्रारम्भमें और अन्तमें इनका संक्रम करे और मध्यमें न करे यह सम्भव है, इसलिए तो इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है, तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका ऐसा तिर्यञ्च ही असंक्रामक हो सकता है जिसने इनकी विसंयोजना की है और यह काल कुछ कम तीन पल्य ही हो सकता है, इसलिए तियञ्चोंमें इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
११७. पंचि०तिरि०३ मिच्छ० - सम्मामि० सम्म उक्क० पदे० संका० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एयस०, सम्म० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्त्रकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सोलसक० - णवणोक० तिरिक्खभंगो ।
११८. पंचिंदियतिरि० अपञ्ज० - मणुसअपज० पणुवीसपय० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जह० एयस० । सम्म० - सम्मामि० उक्क० अणुक्क० पदे ० संका ० णत्थि अंतरं ।
२२८
११६. मणुसतिए मिच्छ० - सम्मामि० सम्म० उक्क० पदे० संका ० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतोमु०, सम्मामि० एयस०, उक्क० तिष्णिपलिदो० पुव्वकोडिपुध० । अनंताणु०४ तिरिक्खभंगो । बारसक० - णवणोक० उक्क० पदे० संका० णत्थि अंतरं । अणुक• जहष्णु • अंतोसु० । णवरि पुरिसवे० तिण्णिसंज० अणु० जह० एयस० ।
११७. पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, सम्यक्त्वका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सोलह कषाय और नौ नोकषायका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है ।
विशेषार्थ — पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कार्यस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य होने से यहाँ पर मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
११८. पञ्चेन्द्रिय तिर्थ अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पचीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल
विशेषार्थ —— उत्कृष्ट स्वामित्वको देखनेसे विदित होता है कि इन जीवोंमें पच्चीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें न होकर मध्यमें होता है। साथ ही वह पर्याप्त पर्याय से आकर होता है, इसलिए इनमें पच्चीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरका तो निषेध किया है और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है । तथा शेष तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों प्रकारके प्रदेशसंक्रमका अन्तर सम्भव न होनेसे दोनोंके अन्तरका निषेध किया है।
११. मनुष्यत्रिमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्वका एक समय है और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पत्य है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग तिर्योंके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और तीन संज्वलनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिदेसक एयजीवेण अंतरं
उक्क० अंतोमु० । णवरि मणुसिणी पुरिसवे ० अणु० जहष्णु० अंतोमु० ।
१२०. देवगदीप देवेसु
२२६
मिच्छ० - सम्मामि० – सम्म० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एयस०, सम्म० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०४ सम्मत्तभंगो । बारसक० णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जह०पु० एयसमओ । एवं भवणादि जाव णवगेवजा त्ति । वरि सगट्ठिदी देणा ।
उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी और विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ — मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम गुणितकर्मा - शिक जीवके होता है और मनुष्यत्रिक पर्यायके चालू रहते जीवका दो बार गुणितकर्माशिक होना सम्भव नहीं है. इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है : अब रहा अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर काल सो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इनमें मिध्यात्व और सम्यक्त्व कर्मके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । कारण कि सम्यक्त्व गुण-स्थान में सम्यक्त्वका और मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता । परन्तु दोनों गुणस्थानोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । कारणका विचार श्रघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं । इन तीनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है यह स्पष्ट ही है जो अपनी अपनी कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके कराने से प्राप्त होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर तिर्यञ्चोंके समान यहाँ घटित हो जानेसे उसे अलग से नहीं कहा है। सो तिर्यञ्चों में इन प्रकृतियोंके अन्तरको जान कर यहाँ पर भी उसे साध लेना चाहिए । यहाँ पर बारह कषाय और नौ नोकषायके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपशमश्र णिकी अपेक्षास कहा है । कारण कि मात्र उपशमश्रेणिमें अन्तर्मुहूर्त काल तक इन प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता । किन्तु इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और तीन संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपक मेिं एक समयके लिए होता है । किन्तु इसके पहले और बाद में उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपशमश्र णिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कहा है । मात्र मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद के अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय नहीं बनता, क्योंकि परोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए जीवके पुरुषवेदकी क्षपरणाके अन्तिम समय में उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम प्राप्त होता है, इसलिए मनुष्यिनियों में इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
$ १२०. देवगतिमें देवोंमें मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, सम्यवत्वका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग सम्यक्त्वके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तर नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ वैयक्तकके देवोंमें कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिए ।
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२३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
। बंधगो ६ १२१. अणुदिसादि सव्वट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि०-अणताणु०४ उक० अणुक्क० णत्थि अंतरं । बारसक०–णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० जहण्णु० एयस० । एवं जाव० ।
* एत्तो जहणणयं।
६ १२२. एत्तो उक्कस्संतर विहासणादो उवरि जहण्णयमंतरमिदाणिं विहासइस्सामो त्ति अहियारसंभालणवक्कमेदं ।
* कोहसंजलण-माणसंजलण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णपदेससंकामयस्संतरं केवचिरं कालादो होदि ?
६१२३. सुगमं ।
विशेषार्थ-अपने अपने स्वामित्वको देखते हुए नारकियोंके समान देवोंमें भी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल नहीं बनता यह स्पष्ट ही है। तथा इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जो अलग अलग जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है सो उसे जिस प्रकार हम नारकियोंमें घटित कर बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए । मात्र यहाँ उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी कुछ कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही कहना चाहिए। अन्य कोई विशेषता न होनेसे इसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है।
६१२१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—उक्त देवोंमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें प्राप्त होता है । तथा अनन्तानुबन्धीका वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तमुहूर्त बाद विसंजोजनाके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर सम्भव नहीं होनेसे उसका निषेध किया है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भी वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद अपने स्वामित्वके अनुसार होता है, इसलिए वहाँ इनके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तर सम्भव न होनेसे उसका तो निषेध किया है और अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका एक समय अन्तर प्राप्त होनेसे जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका वह एक समय कहा है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल समाप्त हुआ। * इससे आगे जघन्य अन्तरकालका व्याख्यान करते हैं।
६ १२२. इससे अर्थात् उत्कृष्ट अन्तरकालके व्याख्यानके बाद अब जघन्य अन्तरकालका व्याख्यान करते हैं इस प्रकार यह सूत्रवचन अधिकारकी सम्हाल करता है।
* क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तरकाल कितना है ।
६ १२३. यह सूत्र सुगम है।
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२३१
गा०५८]
उत्तरपयडिदेससंकमे एयजीवेण अंतरं ® जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।
६१२४. तं जहा-चिराणसंतकम्ममेदेसिमुवसामिय घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धचरिमसमयणकवंधसंकामयचरिमसमयम्मि जहण्णसंकमस्सादि कादूण विदियादिसमएसु अंतरिय उवरिं चढिय ओइण्णो संतो पुगो वि सबलहुमंतोमुहुत्तेण विसुज्झिदूण सेढिसमारोहणं करिय पुवुत्तपदेसे तेणेव विहिणा जहण्णपदेससंकामओ जादो, लद्धमंतरं ।
* उकस्सेण उवड्यूपोग्गलपरिय।
। १२५. तं कथं १ पुव्वुत्तकमेणेवादि करिय अंतरिदो संतो देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालं परियट्टिदूण पुणो अंतोमुहुत्तसेसे संसारे उवसमसेढिमारुहिय जहण्णपदेससंकामओ जादो, लद्धमुक्कस्संतरं ।
8 सेसाणं कम्माणं जाणिऊण णेदव्वं ।
६१२६. सेसाणं कम्माणमंतरमत्थि णत्थि ति णादण णेदव्वमिदि सोदाराणमत्थ समप्पणं कयमेदेण सुत्तेण ।
६ १२७. संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थस्स परूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-जह० पयदं। दुविहो णिदेसो--ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ ०-सम्म०-सम्मामि० जह० पदे०संका० णस्थि अंतरं । अजह० जह० एयस०, उक्क. उबड्डपोग्गलपरियट्ट ।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहते है।
६ १२४. यथा-जो इन कर्मों के प्राचीन सत्कर्मको उपशमा कर घोलमान जघन्य योगके द्वारा अन्तिम समयमें बाँधे गये नवकबन्धके संक्रमके अन्तिम समयमें जघन्य संक्रमका प्रारम्भ करके और द्वितीयादि समयोंमें उसका अन्तर करके ऊपर चढ़कर उपशमणिसे उतर आया है। तथा फिर भी सबसे लघु अन्तमुहूर्तके द्वारा विशुद्ध होकर और उपशमणि पर आरोहण करके पूर्वोक्त स्थानमें जाकर उसी विधिसे उक्त कर्मों के जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक हुआ है इस प्रकार उक्त कर्मो को जघन्य प्रदेश संक्रमका जघन्य अन्तरकाल प्राप्त हो गया।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है।
१२५. वह कैसे ? पूर्वोक्त विधिसे ही जघन्य संक्रमका प्रारम्भ करके और उसका अन्तर करके कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके पुनः संसारके अन्तमुहूर्त प्रमाण शेष रहने पर उपशमणि पर आरोहण करके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक हो गया, इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हुआ।
* शेष कर्मों का अन्तरकाल जानकर ले आना चाहिए ।
६ १२६. शेष कर्मो का अन्तरकाल है या नहीं है ऐसा जानकर उसे ले आना चाहिए । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा श्रोताओंको अर्थका ज्ञान कराया गया है।
६१२७. अब इस सूत्र द्वारा सूचित हुए अर्थका कथन करने के लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेश
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२३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ अणंताणु०४ जह० णत्थि अंतरं। अजह• जह० एयस०, उक्क० वेछावहिसा० सादिरेयाणि । बारसक०-णवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुः। णवरि तिण्णिसंजल-पुरिसवे० जह० पदे०संका० जह• अंतोमु०, उक्क० उबड्डपोग्गलपरियट्ट।
संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जवन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तीन संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है।
विशेषार्थ—ोघसे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपित कर्मा शिक जीवके क्षपणाका प्रारम्भ कर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मि यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपितकर्मा शिक जीवके अन्तमें उद्वेलना करते हुए द्विचरमकाण्डकके पतनके अन्तिम समयमें होता है । यतः यह विधि दूसरी बार सम्भव नहीं है, इसलिए इन कर्मों के जघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है । इन कर्मों का जघन्य प्रदेशसंक्रम एक समयके लिए होता है इसलिए तो इनके अजघन्यप्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। तथा इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रारम्भमें और अन्तमें हो, मध्यमें न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपित कर्मा शिक जीवके उनकी विसंयोजना करते समय अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इसके अन्तरकालका निरोध किया है । तथा इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमका काल एक समय होनेसे इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और अधिकसे अधिक साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण काल तक इनका अभाव रहता है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। बारह कषाय, लोभसंज्वलन, छह नोकषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपितकर्मा - शिक जीवके क्षपणाके समय ही यथास्थान प्राप्त होता है, इसलिए इनके जवन्य प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल नहीं बननेसे उसका निषेध किया है । तथा इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य काल एक समय है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और उपशमश्रेणिमें इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका अन्तमुहूर्त काल प्राप्त होनेसे उत्कृष्टरूपसे वह तत्प्रमाण कहा है। अब रहे क्रोधसंज्वलन आदि तीन संज्वलन और पुरुषवेद सो इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण पहले मूलमें ही घटित करके बतला पाये हैं, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए। तथा इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बारह कषाय आदिके समान ही प्राप्त होता है, इसलिए इस अन्तरकालका कथन उनके साथ किया है।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे एयजीवेण अंतरं
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$ १२८. आदेसे ० गोरइय ० मिच्छ० सम्म० सम्मामि० - अनंताणु०४ जह० णत्थि अंतरं । अजह० जह० एयस०, मिच्छ० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो ० देसूणाणि । बारसक० -भय-दुगु छ० जह० अजह० णत्थि अंतरं । सत्तणोक० जह० पदे०संका ० णत्थि अंतरं । अजह० जहण्णु० एयसमओ । एवं सत्तमाए । पढमाए जाव छट्टि ति एवं चैव । वरि सगट्ठिदी देखणा । इत्थिवेद ० णवुंस० जह० अजह० पदे० संका ० णत्थि अंतरं । अनंताणु ०४ अजह० जह० अंतोमु० । 1
$ १२८. देशसे नारकियोंमें मिथ्यात्त्र, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तर है । सात नोकषायों के जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। पहली पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य और अजघन्य प्रदेश संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ — सामान्य नारकियोंमें और प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंमें सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल न होनेका कारण यह है कि इनमें इनका दोबार जघन्य प्रदेशसंक्रम सम्भव नहीं है । इसी प्रकार गतिमार्गणा के सब अवान्तर भेदों में भी जानना चाहिए । अजघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका खुलासा इस प्रकार है -- सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम एक समयके लिए होता है और आगे-पीछे अजघन्य प्रदेशसंक्रम होता रहता है, इसलिए तो इनके जघन्य प्रदेशसंकमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । तथा मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम अपने स्वामित्वके अनुसार सम्यक्त्वसे च्युत होनेके अन्तिम समयमें होता है और उसके बाद मिथ्यात्वका असंक्रामक हो जाता है, इसलिए मिथ्यात्व गुणस्थानके जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तकी अपेक्षा इसके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है सो इसे इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके उत्कृष्ट अन्तरकालके समान घटित कर लेना चाहिए। उससे इसमें कोई विशेषता न होनेके कारण इसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया हैं । बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए इनके दोनों प्रकारके प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल नहीं बननेसे उसका निषेध किया है। सात नोकपायका जघन्य प्रदेशसंक्रम एक समयके लिए होता है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यह सामान्य नारकियों और सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें अन्तरकालका विचार है । अन्य पृथिवियोंमें इसे इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र उनमें जो विशेषता है उसका अलग से उल्लेख किया है। बात यह है कि एक तो प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंकी भवस्थिति अलग अलग है इसलिए जहाँ भी अजघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है वहाँ वह अपनी अपनी भवस्थिति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ १२६. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० जह० पदे०संका० णत्थि अंतरं। अजह. जह० एयस०, मिच्छ० अंतोमु०, उक्क. उबड्डपोग्गलपरियट्ट । अणंताणु०४ जह० पदे०संका० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । बारसक० चदुणोक० जह. अजह० पदे०संका० णत्थि अंतरं । हस्स-रदि-अरदि-सोग-पुरिसवे० ज० पदे०संका० णस्थि अंतरं । अज० जहण्णु० एयस० । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिय३ । णवरि मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० जह० पदे०संका० णत्थि अंतरं। अज. जह० एयस०, मिच्छ० अंतोमु०, उक्क० तिणिपलिदो० पुवकोडिपुध० ।
प्रमाण जानना चाहिए । दूसरे इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम भवके अन्तिम समयमें प्राप्त होनेसे इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल नहीं बनता, इसलिए उसका निषेध किया है। तीसरे इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम भी भवके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है, अतः विसंयोजित अनन्तानुबन्धीके जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्तको ध्यानमें रखकर यहाँ पर इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है ।
६ १२६. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय हे, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य प्रमाण है । बारह कषाय और चार नोकषायों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। हास्य, रति, अरति, शोक और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्रमाण है।
विशेषार्थ-वहाँ पर अन्तरकालका सब स्पष्टीकरण प्रथमादि छह पृथिवियों के समान कर लेना चाहिए। जो थोड़ी-बहुत विशेषता है उसका खुलासा इस प्रकार है। तिर्यश्चोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम भवके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए यहां पर इन प्रकृतियोंको भी बारह कषाय, भय और जुगुप्सामें सम्मिलित कर उनके दोनों प्रकारके प्रदेशसंक्रमका निषेध किया है। एक विशेषता तो यह है । दूसरी विशेषता है तियञ्चोंकी कायस्थितिकी अपेक्षासे । बात यह है कि तिर्यञ्चोंकी कायस्थिति बहुत अधिक है, इसलिए उनमें मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। तीसरी विशेषता अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाकी अपेक्षासे । बात यह है कि तिर्यञ्चोंमें वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चककी विसंयोजनाका काल कुछ कम तीन पल्यसे अधिक नहीं है, इसलिए इनमें इन प्रकृतियों के अजघन्य प्रदेश
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे एयजीवेण अंतरं
२३५ १३०. पंचिं०तिरि०अपज०-मणुसअपज. सोलसक०-भय-दुगुंछा० जह० अजह० णत्थि अंतरं। सम्म-सम्मामि०२-सत्तणोक० जह० णथि अंतरं । अजह० जहण्णु० एयस०।
१३१. मणुसतिए दंसणतियस्स जह० पदेस०संका० णत्थि अंतरं । अजह. जह० एयस०, उक्क० तिगिपलिदो० पुचकोडिपुध० । अणंताणु०चउ० जह० पदे०. संका० णत्थि अंतरं। अज० जह० एयस०, उक्क० तिण्णिपलिदो० देसू० । णवकसायअट्ठणोक यि-जह०पदे०संका० णत्थि अंतरं। अजह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । तिण्णिसंजन-पुरिसवेद० जह० पदे०संका. जह. अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुध० अजह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि मणुसिणी०-पुरिसवे० जह० पदे०संका० णत्थि अंतरं । अजह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । संक्रमका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। यह सामान्य तिर्यञ्चोंकी अपेक्षा विशेषता क स्पष्टीकरण है। पञ्चेन्द्रियतिर्यचत्रिकमें अन्य सब अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता है। मात्र इनकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य होनेसे इनमें मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण प्राप्त होनेसे वह उतना कहा है।
६१३०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व, सन्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है।
विशेषार्थ—इन जीवोंमें सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य संदेशसंक्रम भवके प्रथम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम द्विचरम काण्डकके पतनके अन्तिम समयमें और सात नोकषायों का जघन्य प्रदेशसंक्रम इनमें उत्पन्न होनेके अन्तमुहूर्त बाद प्राप्त होता है। इस कारण यतः इनमें उक्त नौ प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है और अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है।
६१३१ मनुष्यत्रिकमें दर्शनमोहनीयत्रिकके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अज. घन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। नौ कषाय और आठ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तीन संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६१३२. देवगई देवेषु मिच्छ०-अनंतापु० चउ० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीस सागरो० देभ्रूणाणि । एवं सम्म० सम्मामि० । णवरि अज० जह० एयस० । बारसक० चदुणोक० जह० अज० णत्थि अंतरं । पंचणोक० जह० पदे० संका ० णत्थि अंतरं । अजह० जहण्णु० एयस० । एवं भवणादि जाव णवगेवजा ति । वरि सगदी देखणा ।
२३६
६१३३. अणुद्दिसादि सब्बट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि० - सोलसक० तिण्णिवे ०भय-दुगु ० जह० अजह० णत्थि अंतरं । हस्स - रइ-अरह-सोग ज० पदे ० संका ० णत्थि अंतरं । अजह • जहणु० एयस०, एवं जाव० ।
विशेषार्थ — साधारण श्रोधप्ररूपणा के समय जो अन्तरकाल घटित करके बतला श्राये हैं उसके अनुसार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए। मात्र कायस्थिति और इनमें वेदकसम्यक्त्वके साथ अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाकाल आदिकी अपेक्षा जो विशेषता आती है उसे अलग से जान लेना चाहिए ।
१३२. देवगति में देवोंमें मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है । बारह कषाय और चार नोकषायके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । पाँच नोकपायोंके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए ।
विशेषार्थ — देवोंमें मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसंक्रम भवस्थिति अन्तिम समय में प्राप्त होनेसे इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा इनमें उक्त प्रकृतियोंका अजघन्य प्रदेशसंक्रम कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक-से-अधिक कुछ कम इकतीस सागर काल तक न होकर इस कालके पूर्व और बादमें हो यह सम्भव है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियों के अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका यह अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम उद्वेलनाके समय द्विचरम काण्डक पतनके समय होता है, अतः इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम इसके बाद भी प्राप्त होनेसे इनके अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल यहां पर भी तिर्योंके समान बन जानेसे उसे उनके समान यहां पर भी घटित कर लेना चाहिए। विशेष खुलासा हम पहले कर ही आये हैं । भवनवासी आदिमें यह अन्तरकाल इसी प्रकार है । मात्र उनकी भवस्थिति अलग अलग होनेसे जहां कुछ कम इकतीस सागर अन्तरकाल कहा है वहाँ उसका विचार कर लेना चाहिए।
६१३३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषार, तीन वेद, भय और जुगुप्सा के जघन्य और श्रजघन्य प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । हास्य, रति, अरति और शोकके जघन्य प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अनन्तरकाल नहीं है । अजघन्य
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो
२३७ * सएिणयासो। ६ १३४. एत्तो उवरि सण्णियासो अहिकाओ ति अहियार पडिबोहण सुत्तमेदं ।
ॐ मिच्छत्तस्स उकस्सपदेससंकाममओ सम्मत्ताणताणुबंधीणमसंकाममो।
१३५. कुदो १ सम्माइडिम्मि सम्मत्तस्स संकमाभावादो, अर्णताणुबंधीणं च पुत्रमेव विसंजोइयत्तादो।
सम्मामिच्छत्तस्स णियमा अणुकस्सं पदेसं संकामदि। ६ १३६. कुदो १ मिच्छत्तुक्कस्सपदेससंकमं पडिच्छिऊण अतोमुहुरेण सम्मामिच्छतस्स उक्कस्स पदेससंकमुप्पत्तिदंसणादो।
उक्कस्सादो अणुकस्समसंखेज्जगुणहीणं । ६ १३७. कुदो ? सम्मामिच्छत्तुकस्सपदेससंकमादो सव्वसंकमसरूवादो एत्थतणसंकमस्स गुणसंकमसरुवस्स असंखे०गुणहीणत्ते संदेहाभावादो। प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-इन देवोंमें मि यात्व आदि २३ प्रकृतियोंमेंसे कुछका जघन्य प्रदेशसंक्र या तो भवस्थितिके प्रथम समयमें या अन्तिम समयमें प्राप्त होनेसे यहां इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा चार नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तमुहर्त बाद प्राप्त होता है। यतः यह एक पर्यायमें दो बार सम्भव नहीं है, इस लिए इनके जघन्य प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध कर अजघन्य प्रदेशसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल समाप्त हुआ। * अब सनिकर्षका अधिकार है।।
६ १३४. इससे आगे अर्थात् एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकालके कथनके बाद अब सन्निकर्ष अधिकार प्राप्त है इस प्रकार अधिकारका ज्ञान करानेवाला यह सूत्र है।
_*मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंका असंक्रामक होता है।
६ १३५. क्योंकि सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सम्यक्त्वका प्रदेशसंक्रमण नहीं होता और अनन्तानुबन्धियोंकी पहले ही विसंयोजना हो लेती है।
* वह सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रमण करता है।
६१३६. क्योंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमण करनेके अन्तमुहूर्त बाद सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रमणकी उत्पत्ति देखी जाती है।
* किन्तु वह अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा अनन्तगुणाहीन होता है।
६१३७. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सर्वसंक्रमस्वरूप है, और यहाँ पर होनेवाला संक्रम गुणसंक्रम स्वरूप है, अतः उससे यह असंख्यातगुण हीन है इसमें सन्देह नहीं है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ॐ सेसाणं कम्माणं संकामो णियमा अणुक्कस्सं संकामेदि ।
६१३८. कुदो ? सव्वेसिमप्पप्पणो गुणिदकम्मंसियक्खवयचरिमफालीसंकमे लद्धक्कस्सभावाणमेत्थाणुकस्सभावसिद्धीए विसंवादाभावादो।
* उक्कस्सादो अणुकस्सं णियमा असंखेज्जगुणहीणं ।
६ १३६. किं कारणं ? अप्पप्पणो खवयचरिमफालिसंकमादो एस्थतणसंकमस्स असंखेज्जगुणहीणतं मोत्तण पयारंतरा संभवादो।
* वरि लोभसंजलणं विसेसहीणं संकामेदि।
६१४०. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाविसए लोहसंजलणस्स अधापयत्तसंकमादो चरित्तमोहक्खवयसामित्तविसईकयअधापवत्तसंक्रमस्स . गुणसेढिणिज्जरापरिहोणगुणसंकमदनस्सासंखेज्जदिमागमेत्तेण विसेसाहियत्तदंसणादो।
8 सेसाणं कम्माणं साहेयव्वं ।
६१४१. सम्मत्तादिसेसपयडीणं एदेणाणुमाणेणुकस्ससण्णियासविहाणं जाणिऊण भाणिदामिदि सिस्साणमत्थसमप्पणं कयमेदेण सुत्तपदेण । संपहि एदेण सुत्तेण समप्पिदत्थस्स परिप्फुडीकरणट्ठमुच्चारणाणुगममिह कस्सामो। तं जहा–सण्णियासो दुविहो, जह० उक्कस्सओ च । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क०
* वह शेष कर्मों का संक्रामक होता हुआ नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रमण करता है।
६१३८. क्योंकि सबका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपने-अपने गुणितकर्मा शिक क्षपकसम्बन्धी अन्तिम फालिके संक्रमणके समय प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पर उनके प्रदेशसंक्रमके अनुत्कृष्टरूपसे सिद्ध होनेमें किसी प्रकारका विसंवाद नहीं है। ___* किन्तु वह अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपने उत्कृष्टकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हीन होता है।
६१३६. क्योंकि अपने अपने क्षपकसम्बन्धी अन्तिम फालिके संक्रमणसे यहाँ पर होनेवाला संक्रमण असंख्यातगुणा हीन होता है इसके सिवा प्रकृतमें अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है।
* इतनी विशेषता है कि लोमसंज्वलनको विशेषहीन संक्रमण करता है।
६१४०. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाविषयक लोभसज्वलनके अधःप्रवृत्तसंक्रमसे चारित्र मोहक्षपकसम्बन्धी स्वामित्वको विषय करनेवाला अधःप्रवृत्तसंक्रम गुणोणिनिर्जरासे हीन गुणसंक्रमद्रव्यके असंख्यातवाँ भाग अधिक देखा जाता है।
* शेष कर्मो का सनिकर्ष साध लेना चाहिए ।
६१४१. सम्यक्त्व आदि शेष प्रकृतियोंका भी इस अनुमानसे उत्कृष्ट सन्निकर्ष विधान जान कर कहना चाहिए। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा शिष्योंको अर्थका समर्पण किया गया है। अब इस सूत्रके द्वारा समपित अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं। यथा-सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो
२३६ पदे०संका० सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० णियमा अणुक्क० असंखे०गुणहीणं । णवरि सुत्ताहिप्पाएण लोहसंजलणं विसेसहीणं । एसो अत्यो उवरि वि जहासंभवमणुगंतव्यो । सम्म०-असंकामय० अणंताणुबंधी णत्थि । एवं सम्मामि० । णारि मिच्छ० णत्थि । सम्म० उक्क० पदे०संका० सम्मामि०-सोलसक० णवणोक० णियमा अणुक० असंखे०गुणहीणं मिच्छ० असंकाम।
१४२. अणंताणु०कोध० उक्क० पदे०संका० मिच्छ०-सम्मामि० बारसक०. णवणोक० णियमा अणुक० असंखेन्गुणहीणं । तिण्हं कसायाणं णिय० तं तुविट्ठाणपदिदं अणंतभागहीणं वा असंखे० भागहीणं वा । सम्म० असंका० । एवं तिहं कसायाणं ।
६१४३. अपच्चक्खाण-कोध० उक्क० पदे०संका० चदुसंज०-णवणोक० णियमा अणुक्क० असंखेन्गुणहीणं । सत्तकसा० णिय० तं तु विट्ठाणपदि० अणंतमागहो० असंखे०भागहीणं वा । सेसं णस्थि । एवं सत्तकसायाणं ।
६१४४. कोहसंज० उक० पदे०संका. दोसंजल० णियमा अणु० असंखे०है-श्रोध और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व, वारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इतनी विशेषता है कि चूर्णिसूत्रके अभिप्रायानुसार लोभसंज्वलनके विशेषहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । यह अर्थ आगे भी यथासम्भव जानना चाहिए। वह सम्यक्त्वका असंक्रामक होता है और उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व नहीं होता। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उसके मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं होता । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके असंख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। वह मिथ्यात्वका असंक्रामक होता है।
६१४२. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। अनन्तानुक्न्धी मान आदि तीन कषायोंका नियमसे संक्रामक होता है जो उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो कदाचित् अनन्त भागहीन और कदाचित् असंख्यात भागहीन इस प्रकार द्विस्थान पतित प्रदेशोंका संक्रामक होता है । वह सम्यक्त्वका असंक्रामक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१४३. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशका संक्रामक जीव चार संज्वलन और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातगणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सातकषायोंका नियम से संक्रामक होता है जो उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो कदाचित् अनन्तभागहीन और कदाचित् असंख्यात भागहीन द्विस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसके शेष प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं पाया जाता । इसी प्रकार सात कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६ १४४. क्रोधसंज्वलनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव दो संज्वलनोंका नियमसे असंख्यात
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ ब्धगो ६
गुणं । सेत्थि । माणसंज० उक्क० पदे ० संका० । मायासंजल० णिय० अणु० असंखे० गुणहीणं । सेसं णत्थि । मायासंज० उक० पदे० संका० सव्वेत्तिमसंकामगो । लोभसंज ० उक्क० पदेससंका ० तिणिसंज० - णत्रणोक० णिय० अणु० असंखे० गुणहीणं । सेत्थि ।
९ १४५. इत्थवे ० उक्क० पदे० संका० तिण्णिसंज० सत्तणोक० णियमा अणु० असंखे ०गुणहीणं । णवंस० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि णिय० अणु० असंखे० भागहीणं । णत्रुंस० उक० पदे० संका० तिष्गिसंज० अटुगोक० णिय अणु० असंखे०गुणहीणं । पुरिसवे० उक० पदे० संका० तिण्गिसंजल० णिय० अणुक० असंखे० गुणही ० छण्गोक०, णिय अणुक० असंखे ० भागहीणं ।
$ १४६. हस्सस्स उक० पदे० संका० पंचणोक० गिय० तं तु बिट्ठाणपडि ० अनंतभागही • असंखे ० भागही ०, पुरिसवे० णिय० अणुक० असंखे० भागही ०, तिह संजल • पिय० अणुक० असंखे०, गुणहीणं । एवं पंचणोक० ।
०
S १४७. आदेसेण रइय० मिच्छ० उक्क० पदे०संका ० सम्मामि० णिय ० उकस्सं । सोलसक० - णवणोक० पिय० अणुक० असंखे०गुणहीणं, एवं सम्मामि० सम्म ०
गुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसके शेष प्रकृति अर्थात् संज्वलन लोभका संक्रम नहीं है । मानसंज्वलन के उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव मायासंज्वलनके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसके शेष अर्थात् लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं है । मायासंज्वलन के उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सबका असंक्रामक होता है । लोभसंज्वलन के उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसके शेष प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है ।
९ १४५. स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव तीन संज्वलन और सात नोकषायोंके नियमसे श्रसंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इस जीव के नपुंसकवेदका सत्त्व कदाचित् कदाचि नहीं है । यदि है तो नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक हाता है । नपुंसक वेद के उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव तीन संज्वलन और आठ नोकषायों के नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृ प्रदेशका संक्रामक होता है । पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव तीन संन्वलनके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । छह नोकषायों के नियमसे असख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है ।
§ १४६.हास्यके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव पाँच नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तो नियमसे कदाचित् अनन्तभागहीन और कदाचित् श्रसंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । पुरुषवेदके नियमसे असंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । तीन संज्वलनोंके नियमसे असंख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पाँच नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१४७. देशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातगुणे
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो
२४१ उक० पदे०संका० सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० णिय० अणुक्क० असंखे गुणही०
१४८. अर्णताणु०कोह. उक० पदे०संका० मिच्छ० सम्मामि० णिय. अणुक० असंखेन्गुणही०, पण्णारसक०-छण्णोक० णिय० तं तु विट्ठाणपदिदं अर्णत. मागहीणं असंखे०भागहीणं । तिण्णं वेदाणं णिय० अणुक्क. असंखे०भोगहीणं । एवं पण्णारसक०-छण्णोक० ।।
६१४६. इत्थिवेद० उक्क० पदे०संका० सोलसक०-अटुणोक० णिय० अणुक्क० असंखे०भागही० । मिच्छ०-सम्मामि० णिय० अणु० असंखेगुणही० । एवं पुरिसणवंसयवेदाणं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख०-पंचि० तिरितिय-देवा भवणादि जाव णवगेवजा त्ति ।
१५०. पंचि०तिरि० अपज०-मणु०अपज० सम्म० उक० पदे०संका० सम्मामि० णिय० तं तु विट्ठाणपदिदं अणंतभागही. असंखे०भागहीणं वा । सोलसक०णवणोक० णिय० अणु० असंखे०भागही० । एवं सम्मामि० ।
हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है।
६१४८. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। पन्द्रह कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे कदाचित् अनन्तभागहीन और कदाचित् असंख्यातभागहीन इन द्विस्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । तीन वेदोंका नियमसे असंख्यात भागहोन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पन्द्रह कषाय और छह नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___ . ६१४६. स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके नियमसे असंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। मिथ्यात्क और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । यह सामान्य नारकियोंमें जो सन्निकर्ष कहा है इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चत्रिक, सामान्यदेव और भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
६ १५०. पञ्चेन्द्रिय तिर्थञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्वका नियमसे संक्रामक होता है । जो उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभागहीन या असंख्यातभागहीन द्विस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सोलह कपाय और नौ नोकषायोंके असंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्र इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३१
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६१५१. अनंतापु० कोध० उक० पदे० संका० पण्णा रसक० छण्णोक० णिय ० तंतु विद्वाणपद • अनंतभागही ० असंखे ० भागही ० । तिन्हं वेदाणं णिय० असंखे ० भागही ० । एवं पण्णारसक०० छण्णोकसायाणं ।
०
I
अणुक०
६१५२. इथिवे ० उक० असंखे ० भागही ० । एवं णवंस० अणुक्क० असंखे० ।
२४२
पदे ० संका० सोलसक० अट्टणोक० णिय ० एवं पुरिसवे ० । णवरि सम्म० सम्मामि० णिय ०
अणुक०
।
९ १५३. मणुसतिए ओघं । णवरि मणुसिणी - इत्थिवे ० उक० पदेससंका ० णवंस •
णत्थि ।
१५४. अदिसादि सव्वट्टा ति मिच्छ० उक्क० पदे ० संका ० सम्मामि० निय० तं तु विद्वाणपदि • अनंतभागही ० असंखे ० भागही ० वा । सोलसक० णवणोक०णिय ० अ० असंखे० गुणही ० । एवं सम्मामि० ।
०
१५५. अनंताकोध० उक्क० पदे० संका० मिच्छ० सम्मा मि० तिष्णिवे ० णिय० अणुक्क० असंखे ० भागही ० । पण्णा रसक० छण्णोक० णिय० तं तु विट्ठाणपदि ०
६ १५१. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव पन्द्रह कषाय और छह नोकषायका नियमसे संक्रामक होता है जो उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभागहीन या श्रसंख्यातभागहीन द्विस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । तीन वेदोंके नियमसे श्रसंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पन्द्रह कषाय और छह नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६ १५२. स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कषाय और आठ नोकषायों के नियम से असंख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे असंख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है ।
९ १५३. मनुष्यत्रिक श्रोघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवके नपुंसकवेद नहीं है ।
१५४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशों संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभागहीन या असंख्यात भागहीन द्विस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके नियमसे असंख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
$ १५५. अनन्तानुबन्धी क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और तीन वेदोंके नियमसे असंख्यात भागद्दीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है । पन्द्रह कषाय
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- २४३.
गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो अणंतभागही असंखे भागहो० । एवं पण्णारसक०-छग्णोक० ।
६१५६. इत्थिवे. उक्क० पदे०संका० मिच्छ०-सम्मामि०-सोलसक०-अट्ठणोक० णिय० अणुक० असंखे भागहीणं । एवं पुरिस० णवंस० । एत्थ सव्वत्थ तिवेदसण्णियासो परिसाहिय वत्तव्यो । एवं जाव० ।
एवमुकस्ससण्णियासो समत्तो । ॐ सव्वेसिं कम्माणं जहणणसपिणयासो वि साहेयव्वो।
६१५७. एदेण सुत्तेण जहण्णसण्णियासो ओघादेसभेयमिण्णो सवित्थरमेत्थाणुगंतव्यो ति सिस्साणमत्थसमप्पणं कयं होइ। संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थविवरणमुच्चारणाबलेणाणुवत्तइस्सामो। तं जहा-जह० पय० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मिच्छ० जह० पदे०संका० सम्मामि०-पुरिस-तिण्णिसंजल० णिय० अजह. असंखे० गुणब्भ० । णवक०-अट्ठणो० णिय. अज० असंखे०भागब्भहियं । सम्मामि० जह० पदे०संका० तेरसक०-अट्ठणोक० णियमा अज० असंखे भागभहियं । पुरिसवे..
और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभागहीन या असंख्यातभागहीन द्विस्थानपतित अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पन्द्रह कषाय और छह नोकषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१५६ स्त्रीवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकपायोंके नियमसे असंख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार सर्वत्र तीन वेदोंके सन्निकर्षको साधकर कहना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
___ इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। * सब कर्मों का जघन्य सन्निकर्ष भी साध लेना चाहिए।
६ १५७. श्रोध और आदेशके भेदसे भेदको प्राप्त हुआ जघन्य सन्निकर्ष विस्तारके साथ यहाँ पर साध लेना चाहिए । इस प्रकार इस सूत्रद्वारा शिष्योंको अर्थका समर्पण किया गया है। अब इस सूत्र द्वारा सूचित हुए अर्थके विवरणको उच्चारणाके बलसे बतलाते हैं। यथा-जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिश्यात्वके जघन्य प्रदेशो का संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व, पुरुषवेद और तीन संज्वलनों के नियमसे असंख्यातगुणे अधिक अजघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है। नौ कपाय और आठ नोकषायों के नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव तेरह कपाय और आठ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। पुरुषवेद और तीन संज्वलनके नियमसे असंख्यातगुणा
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२४४
जयधवलास हिदे कषायपाहुडे
[ बंधगो ६
तिण्णिसं ज० णिय० अज० असंखे० गुण भ० । एवं सम्म० । णरि सम्मा मि०
० अजह० असंखे ० भागब्भहियं ।
णिय ०
पदे०संका ० मिच्छ०- णत्रक० -अट्ठणोक० सम्माभि० - पुरिसवे० - तिष्णिसंज० णिय० तं तु विद्वाणपदि० अनंतभागन्भ०
।
$ १५८. अनंताणु० कोधस्स जह० णिय ० अजह ० असंखे० भागब्भहियं । अजह० असंखे० गुणभ० । तिन्हं कसा० शिय० असंखे ० भागभहियं वा । एवं तिहं कसायाणं १५६ अपच्चक्खाणकोह० जह० पदे ० संका ० इत्थवेद - णवुंस०-हस्स-रदिभय-दुगु छ० - लोहसंज० णिय ० असंखे ० भागभ० । पुरिसवे ० - तिष्णिसंज० णिय० अजह० असंखे० गुणग्भहियं । सत्तक ० -अरदि- सोग० णिय० तं तु विट्ठाणपदि ० अनंतभागभ० असंखे० भागब्भहि० वा । एवं सत्तकसाय अरदिसोगाणं ।
अजह०
8
९६०. कोहसंज० ० जह० पदे० संका० अट्ठक० पिय० अज० असंखे ० गुणन्भ ० मिच्छ० सिया अस्थि । जदि अत्थि णिय० अजह० असंखे० भागब्भ० । एवं सम्मामि० । वर असंखे ० गुणभ० । एवं माणसंजल० । णवरि पंचक० भाणिदव्वा । एवं माया
अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे श्रसंख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है ।
§ १५=. अनन्तानुवन्धी क्रोध के जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, नौ कषाय और आठ नोकषायके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सम्यग्मिथ्यात्व, पुरुषवेद और तीन संज्वलनोंके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है। तीन कषायोंके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थान पतिता जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता हैं । इसी प्रकार तीन कपायोंकी मुख्यतासे सनिकपं जानना चाहिए।
§ १५६. अप्रत्याख्यान क्राधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और लोभसंब्वलनके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । पुरुषवेद और तीन संज्ञलनके नियम से असंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सात कषाय, रति और शोकके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सात कषाय, अरति और शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
§ १६०. क्रोधसंज्वलनके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव आठ कषायके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसके मिथ्यात्व कदाचित् है । यदि है तो नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार अर्थात् मिध्यात्वके समान सम्यग्मिथ्यात्वका सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इसके असंख्यातगुण
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याडपदेससंकमे सणयासो
२४५
संजल ० | र दुविहं लोभं णिय० अजह० असंखे ०गुणन्भ० । लोहसंज० जह० पदे० संका० एक्कारसक० - तिण्णिवे० अरदि-सोग णिय० अजह ० असंखे० गुणभ० । हस्त-रदि-भय-दुगु छ० णियमा ० अजह० असंखे ० भागब्भ० ।
अज०
०
६१. इथिवे ० जह० पदे ० संका० णवक० सत्तणोक० णिय० अज० असंखे ०भागम० । तिष्णिसंज० - पुरिसवे ० णिय ० असंखे० गुणभ० | एवं णवुंस० । पुरिसवे • कोहसंजलभंगो । णवरि एकारसक० णिय० अजह० असंखे ० गुणन्भ ० । $ १६२. हस्सस्स जह० पदे ० संका ० एक्कारसक० - तिण्णिवे ० -अरदि- सो० णिय ० अज० असंखे० गुणभ० । लोहसंज० णिय अजह • असंखे ० भागब्भ० । रदि०भय-दुगुं० णिय० तं तु विद्वाणपदिदं असंखे ० भागब्भ० । एवं दि. भय-दुगु छ० ।
०
०
अनंतभागब्भ०
जह०
$ १६३. आदेसे० णेरइय ० - मिच्छ० अजह॰ असंखे०गुणन्भ० | बारसक० णवणोक० णिय
०
पदे ० संका ० सम्मामि ० णिय ० अजह० असंखे ० भागब्भ० ।
अधिक श्रजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार मानसंज्वलनकी मुख्यता से सन्निकर्ष कहना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इसके आठ कषायोंके स्थानमें पाँच कषाय कहलाना चाहिए। इसी प्रकार मायासंज्वलनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह दो प्रकारके लोभों के नियमसे असंख्यातगुण अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । लोभसंज्वलन के जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, तीन वेद, अरति और शोकके नियमसे असंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । हास्य, रात, भय और जुगुप्सा के नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है ।
१६१. स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव नौ कषाय और सात नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तीन संज्वलन और पुरुषवेद के नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। पुरुषवेद की मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग क्रोधसंज्वलन के समान है । इतनी विशेषता है कि यह ग्यारह कषायोंके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है ।
8 १६२. हास्यके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, तीन वेद, अरति और शोक के नियम से असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। लोभसंज्वलन के नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है । रति, भय और जुगुप्सा के नियमसे जघन्य प्रदेशों का भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
$ १६३. देशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे श्रसंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । बारह कषाय और नौ कषायों के नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यक्त्वके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
सम्म० जह० पदे० संका ० सम्मामि० णिय० अजह० असंखे ० भागब्भ० । सोलसक०णवणोक० णि० अज ० असंखे० भागब्भ० । मिच्छ० असंका० । एवं सम्मामि० । णवरि सम्म० असंका ० ।
सम्म० सम्मा मि० णिय ०
$ १६४. अनंताणु० कोधस्स जह० पदे ० संका ० अजह • असंखे० गुण भ० । बारसक० णवणोक० निय० अजह० असंखे ०३ तिन्हं कसायाणं णिय० तं तु विद्वाणपदि • अनंतभागब्भ० असंखे ० भागब्भ० वा । एवं तिन्हं कसायाणं ।
[० भागब्भ० ।
९ १६५. अपच्चक्खाणकोध० जह० पदे ० संका सम्म० सम्मामि ० - अनंताणु ० चउकभंगो । सत्तणोक० - अणतारणु०४ पिय० अजह० असंखे ० भागब्भ० दुगुं ० णिय० तं तु विद्वाणपदि ० अनंतभागब्भ० भय-दुगु छा० ।
एकारसक०-भयअसंखे ० भागन्भ० । एवमेकारसक ०
१६६. इथिवेद ० जह० पदे० संका० सम्म० सम्मामि० अणंताणु ०४ भंगो । सोलसक० - अट्टणोक० णिय० अजह० असंखे० भाग०भ० । एवं पुरिसवेद ० णव सवेद ० |
जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशका संक्रामक होता है । सोलह कषाय और नौ नोकषायों के नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । मिथ्यात्त्रका असंक्रामक होता है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह सम्यक्त्वका संक्रामक होता है । १६४. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है । बारह कषाय नोकषायके नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । कषाय नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
§ १६५. प्रत्याख्यान क्रोध के जघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भङ्ग अनन्तानुबन्धी चतुष्कके समान है । सात नोकषाय और अनन्तानुबन्धचतुष्कके नियमसे असंख्यात भागं अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्सा के नियमसे जघन्य प्रदेशों का भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक . होता है । यदि अजघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार ग्यारह कषाय, भय साकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
९ १६६. स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग अनन्तानुबन्धचतुष्कके समान है । सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो
२४७ १६७. हस्सस्स जह० पदे०संका० इत्थिवेदभंगो। णवरि रदीए णिय० तं तु विट्ठाणपदि० अणंतभागभ० असंखे भागःभ० । एवं रदीए । एवमरदिसोगाणं । एवं सत्तमाए । पढमाए जाव छट्टित्ति एवं चेव । णवरि अणंताणु०४ जह० पदे०संका० सम्म०असंका० । मिच्छ० णिय० अजह० असंखे०भागन्भ० । इत्थिवेद० जह० पदे०संका० मिच्छ०-बारसक०-अट्ठणोक० णिय० अजह० असंखे०भागाभ० । सम्मामि० णिय० अजह. असंखेगुणभ० । एवं णव॑सः ।
६१६८. तिरिक्ख-पंचितिरिक्खदुग० पढमपुढविभंगो । णवरि इत्थिवे०-णवुस० जह० पदे०संका० मिच्छ० सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ असंकाम० । जोणिणी पढमपुढविभंगो।
६१६६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० सम्म० जह० पदे०संका० सोलसक०-णवणोक० णिय० अजह० असंखे०भागभ० । सम्मामि० णिय० अज० असंखे०भागभहि० । सम्मामि० जह० पदे०संका० सोलसक०-णवणोक० णिय० अज० असंखे भागभ० ।
६ १६७. हास्यके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि रतिके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें जानना चाहिए। पहिली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशपता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संक्रामक जीव सम्यक्त्वका असंक्रामक होता है। मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, बारह कपाय और आठ नोकरायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजंघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेदको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१६८. सामान्य तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विकमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका असंक्रामक होता है। योनिनी तिर्यञ्चोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है।
६१६६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सम्यग्मिश्यात्वके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कपाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है।
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२४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ १७०. अणताणुकोध० जह० पदे०संका० बारसक०-णवणोक० णिय० अजह. असंखे० भाग-भ० । सम्म० सम्मामि० णिय० अजह० असंखे० गुणव्म । तिण्हं कसा० णिय० ते तु. विट्ठाणपदि० अणंतभागम० असंखे० भागम्भ० । एवं तिहं कसायाणं ।
६१७१. अपच्चक्खाणकोध० जह० पदे० संका० सम्म०-सम्मामि० अर्णताणु०चउक्कभंगो। अणंताणु०चउ०-सत्तणोक० णिय० अजह० असं भागबभ०-एक्कारसकभय-दुगु णियमा तं तु विट्ठाणपदि० अणंतभागभ० असंखे भागभ० वा । एवमेक्कारसके० भय-दुगुछ०।
६ १७२. इत्थिवेद० जह० पदे०संका० सोलसक० अट्ठणोक० णिय० अजह० असंखे०भागभः। सम्म०-सम्मामि० गिय० अजह० असंखेन्गुणन्भः। एवं पुरसवे० णवंस० । एवं हस्स-रदी० । णवरि रदि विट्ठाणपदि० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । एवं मणुसअपज्ज।
RANAanana
६ १७०. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तीन कषायोंके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१७१. अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिभ्यात्वका भंङ्ग अनन्तानुबन्धीचतुष्कके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्साके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए।
६१७२, स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके असंख्यात भाग अधिक अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेद की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार हास्यकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है इसके रतिका द्विस्थानपतित सन्निकर्ष कहना चाहिए । इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकष इसी प्रकार कहना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् तिर्यञ्च अपयाप्तकोंके समान मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भी सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो
, २४६ ६१७३. मणुसतिए ओघं। णवरि भणुसिणी० पुरिस० जह० पदे०संका० एक्कारसक०-इत्थिवेदणस०-अरदि-सोगाणं णिय० अजह० असंखेन्गुणब्भ० । लोभसंज० हस्स-रदि-भय-दुगुछा० णिय० अजह० असंखे भागब्भ० ।
६१७४. देवेसु तिरिक्खभंगो । एवं सोहम्मादि णवगेवजा ति । भवणवाणजोदिसि० णारयभंगो । अणुदिसादि सबट्ठा ति मिच्छ० जह० पदे०संका० सम्मामि० णिय० तं तु विट्ठाणपदि० अर्णतभागभ०, असंखे०भागम० । बारसक०-णवणोक० णिय० अज० असंखेमागभ० । एवं सम्मामि० ।
६१७५. अणताणु०कोध० जह० पदे०संका० मिच्छ० सम्मामि०-बारसक० णवणोक० णिय. अजह. असंखे भागभ० । तिण्डं क. णिय. तं तु विट्ठाणपदि० । एवं तिण्हं क०।
६ १७६. अपचक्खाणकोह. जह० पदे०संका० एकारसक०-पुरिसवे०-भयदुगुछा० णिय० तं तु विट्ठाणपदिदं। छण्णोक० णिय० अजह. असंखे०भागब्भ० ।
६ १७३. मनुष्यत्रिकमें श्रोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोकके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। लोभसंज्वलन, हास्य, रति, भय और जुगुप्साके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है।
६१७४. देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर नौमे वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में नारकियोंके समान भङ्ग है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्बकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१७५. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तीन कषायोंके जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१७६. अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। छह नोकषायोंके
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२५०
जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
[ बंधगो ६
एवमेकारसक० - पुरिसवे ० -भय-दुगुं ० ।
$ १७७. इत्थवे ० जह० पदे ० संका० बारसक० - अट्ठणोक० णिय० अजह० असंखे० भाग भ० । एवं वंस० । एवं हस्स० । णवरि रदीए विद्वाणपदि ० । एवं रदीए । एवमरदि- सोगाणं । एवं जाव० ।
१७८. एदम्मि जहणसण्णियासे कत्थ वि कत्थ वि पदविसेसे विसंवादो अत्थि, तत्थुच्चारणाइरियाहिप्पायमणुमाणिय विवरीयपदेसविण्णा सावलंबणेणाण्णहा
वासमत्थणा कायव्त्रा ।
९ १७६. संपहि एत्थुद्दे से सुगमत्ता हिप्पाएण चुण्णिसुत्तायारेण परूविदाणं णाणाजीवभंगविचयादी महमणियोगद्दाराणं उच्चारणाबलेण परूवणं वत्तइस्साम । तं जहा - णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो – नह ० उक० च । उक० पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसे ० | ओघे० सव्वपयडी उक्क० पदेसस्स सिया सव्वे असंकामया, सिया असंकामया च संक्रामओ च, सिया असंकामया च संकामया च ३ । अणुक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे संकामया, सिया संकामया च असंकामओ च, सिया संकामया च असं कामया च ३ । एवं चदुसु गदीसु । णवरि मणुस अपज० उक्क०
०
नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१७७. स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव बारह कषाय और आठ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेद की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार हास्यकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इसके रतिका द्विस्थानपतित सन्निकर्ष होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
१८. इस जघन्य सन्निकर्ष में कहीं-कहीं पदविशेषमें विसंवाद है सो वहाँ पर उच्चारणाचार्य के अभिप्रायका अनुमान करके विपरीत प्रदेशविन्यास के अवलम्बन द्वारा अन्य प्रकारसे उसकी अवस्थितिका विचार करना चाहिए ।
§ १७६. ‘अब इस स्थल पर सुगम हैं' इस अभिप्रायसे चूर्णिसूत्रकार द्वारा नहीं कहे गये 'नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय' आदि आठ अनुयोगद्वारोंका उच्चारणा के बलसे कथन करते हैं । यथा - नाना जीवों की अपेक्षा भङ्ग विचय दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकार है - श्रघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशों के कदाचित् सब जीव असंक्रामक हैं १, कदाचित् नाना जीव असंक्रामक हैं और एक जीव संक्रामक है २ तथा कदाचित् नाना जीव असंक्रामक हैं और नाना जीव संक्रामक है । ३ अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके कदाचित् सब जीव संक्रामक हैं १, कदाचित् नाना जीव संक्रामक हैं और एक जीव असंक्रामक है। २ तथा कदाचित् नाना जी संक्रामक हैं और नाना जीव असंक्रामक हैं ३ । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट
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गा० ५८ ]
उत्तरपतिपदेस कमे भागाभागो
अणुक० पदे ० संका • अड्ड भंगा । एवं जहण्णयं पि खेदव्वं ।
०
२५१
९१८०. भागाभागो दुविहो – जहण्णमुकस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० सम्म० - सम्मामि० उक्क० पदे ० संका० सव्वजीवाणं ० भागो ? असंखे ० भागो । अणु० असंखेज्जा १ भागा । सोलसक० -णवणोक० उक्क० पदे० संका • अनंतभागो । अणुक० अणंता भागा । एवं तिरिक्खा ० ।
६१८१. आदेसेण रइय० सव्यपयडी० उक्क० पदे ० संका • सव्वजी० असंखे०भागो । अणुक्क० असंखेज्जा भागा । एवं सव्त्ररइय- सव्त्रपंचिं० तिरिक्ख० - मणुसअपज ० -देवगदिदेवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुस्सेसु णारयभंगो । वरि मिच्छ० उक्क० पदे० संका ० संखे ० भागो । अणुक • संखेजा भागा। मणुसपञ्ज०• मणुसिणी ० - सब० देवा० सव्ववयडी उक्क० पदे० संका० संखे ० भागो । अणुक० संखेजा भागा । एवं जाव० ।
१८२. जहण्णयं पि उक्कस्तभंगेण दव्वं ।
प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके आठ भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार जघन्य संक्रमकी मुख्यतासे भी जानना चाहिए ।
१८०. भागाभाग दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सोलह कषाय और नौ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए ।
1
१८१. आदेश से नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण इसी प्रकार सब नारकी, सब पन्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्योंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
§ १८२. जघन्य प्रदेश भागाभागको भी उत्कृष्टके समान ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ — यद्यपि सामान्य मनुष्य असंख्यात हैं तथापि उनमें मिथ्यात्वके संक्रामक ( सम्यग्दृष्टि ) संख्यात हैं । उनमेंसे संख्यातवें भाग उत्कृष्ट प्रदेश संक्रामक है । शेष बहु भाग अनुत्कृष्ट प्रदेश संक्रामक है ।
१. ता० प्रतौ संखेब्जा इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६ १८३. परिमाणं दुविहं जह० उक० च । उक्कस्से पयदं दुविहो । णि० -- ओघे ० आदेसे ० | ओघेण मिच्छ० -सम्मामि० उक० पदे ० संका० केत्तिया ? संखेजा । अणुक्क ० त्ति ० १ असंखेजा | सम्म उक्क० अणुक० पदे ० का ० केत्तिया ? असंखेज्जा । अनंतागु० चक्क० उक्क० पदे ० संका० ति० ? असंखेजा । अणुक्क० केत्ति ० १ अनंता । एवं बारसक०-णवणोक० | णवरि उक्क० पदे ० संका० केत्ति ० ? संखेज्जा । ·
२५२
1
I
$ १८४. आदेसेण रइय० सव्त्रपयडी उक्क० अणुक्क० पदे ० संका केत्ति० ? असंखेजा । एवं सव्वणेरइय- सव्त्रपंचि ० - तिरिक्खमणुस अपज्ज० देवा भवणादि जाव सहस्सार ति । तिरिक्खेसु दंसणतिय उक्क० अणुक्क० केति ? असंखेजा । सोलसक० - णवणोक० उक्क० पदे०संका० केत्ति ० ? असंखेजा । अणुक्क० केत्ति ० १ अनंता । मरणसेसु मिच्छ॰ उक्क० अणुक्क० पदे ० संका • केत्तिया ? संखेज्जा | सेसकम्माणमुक० केत्ति० ? संखेजा । अणुक्क असंखेजा । मणुसपज्ज० - मरणुसिणी सव्वदेवा उक्क० अणुक० पदे०संका • केत्ति ० १ संखेज्जा । आणदादि अवराइदा त्ति सव्वपयडी उक्क० पदे ० संका ० केत्ति ० १ संखेजा । अणुक्क० पदे ० संका० केति ० १ असंखेज्जा । एवं जाय० ।
०
६१८३. परिमाण दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - प्रोध और आदेश । ओघसे मिध्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशों के सक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार बारह कपाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा परिमाण जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं ।
१८४. आदेश से नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में जानना चाहिए । सामान्य तिर्यञ्चों में दर्शनमोहनीयत्रिक के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं | सोलह कपाय और नौ नोकषायके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं ? अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके सक्रामक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । मनुष्यों में मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्राम जीव असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशों में संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । श्रानत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे परिमाणं
२५३ ६ १८५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे० । ओघे० मिच्छ०सम्म०-सम्मामि० जह० पदे०संका० केत्ति ? संखेजा। अजह० केत्ति० १ असंखे० । सोलसक०-णवणोक० जह० पदे०संका० केत्ति ? संखेजा। अजह० केत्ति० ? अणंता । एवं तिरिक्खा ।।
१८६. आदेसेण णेरइय० सव्यपयडी० जह० केत्ति० ? संखेजा। अजह ० केत्ति ? असंखेज्जा । एवं सव्यणेरइय०-सव्यपंचिंदिय-तिरिक्ख-मणुसअपज०-देवगइदेव भवणादि जाव अबराइद त्ति । मणुसेसु मिच्छ० जह० अजह० पदे०संका० केत्ति० ? संखेजा । सेसकम्माणं जह० संखेजा। अजह० केत्ति ? असंखेजा। मणुसपज०मणुसिणी० सचट्ठदेवा सव्वपयडी जह० अजह० पदे०संका० केत्ति० ? संखेजा। एवं जाव० ।
६१८७. खेत्तं दुविहं-जह० उक्क० च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण दंसणतिय उक्क० अणुक्क० पदे०संका० लोगस्स असंखे०भागे । सोलसक०-णवणोक० उक्क० पदे०संका० लोगस्स असंखे भागे। अणुक्क० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खेसु । सेसगइमग्गणासु सव्वपयडी उक० अणुक्क० पदे०संका० लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पिणेदव्वं ।
१५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए।
१८६. आदेशसे नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रकृतियोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी,
वेन्द्रिय तिन, मनष्य अपर्याप्त देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्योंमें मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष कर्मो के जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव संख्यात हैं । अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी
और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्णण तक ले जाना चाहिए। . ,
६ १८७. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे दर्शनमोहनीयत्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवों का क्षेत्र कितना है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। गतिसम्बन्धी शेष मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके
व भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार जघन्य क्षेत्रको भी ले जाना चाहिए।
सब पड़
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जयधवलास हिदे कषायपाहुडे
[ बंधगो ६
१८८. पोसणं दुविहं – जहण्णमुकस्सं च । उकस्से पयदं । दुविहो णिसो - ओघे० आदेसे ० | ओघेण मिच्छ० उक्क० पदे ० संका० केव० पोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो । अणुक्क० लोग० असंखे ० भागो अट्ठचोद्दस ० देसूणा । सम्म० सम्मामि० उक० पदे०संका • लोगस्स असंखे ० भागो अणुक० लोग० असंखे ० भागो, अट्ठचोद्दस भागा वा देणा सव्वलोगो वा । सोलसक० णत्रणोक० उक्क० पदेस० लोगस्स अक० सव्वलोगो ।
असंखे० भागो ।
२५४
संक्रामक जीव
विशेषार्थ — घसे सब प्रकृतियोंमेंसे किन्हीं प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संख्यात हैं और किन्हीं प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीव असंख्यात हैं, इसलिए इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। मात्र सोलह कषाय और पाय अष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव अनन्त हैं, इसलिए इनका सर्वलोक क्षेत्र प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें क्षेत्र प्ररूपणाको ओघ के समान जाननेकी सूचना की है। गतिसम्बन्धी शेष मार्गणाओंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए उनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आगे अनाहारक मार्गणा तक यह यथायोग्य इसी प्रकार घटित किया जाने योग्य है यह जानकर उसे इसी प्रकार जानने की सूचना की है । जघन्य क्षेत्रमें उत्कृष्टसे अन्य कोई विशेषता नहीं है ऐसा समझकर उसे भी इसी प्रकार ले जाने की सूचना की है।
६१. स्पर्शन दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग माण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सोलह कषाय और नौ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ — घसे एक सम्यक्त्व प्रकृतिको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रम अपनी अपनी क्षपणा के समय यथा योग्य स्थानमें होता है । सम्यक्त्व का भी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्वामित्व के अनुसार सातवें नरकके नारकीके होता है । यतः इन सब जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं है, अतः श्रघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। अब रहा अनुत्कृष्टका विचार सो मिध्यात्वका संक्रम सम्यग्दृष्टिके ही सम्भव है, अतः सम्यग्दृष्टियोंके स्पर्शनको देखकर मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट प्रदेशांके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा हे । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक चारों
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पोसणं ६१८६. आदेसेण णेरइएसु मिच्छ० उक्क० अणुक्क० पदेससंकाम० लोगस्स असंखे० । सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० पदे०संका० लोगस्स असंखे०. भागो । अणुक्क० लोगस्स असंखे०भागो छ चोद्दस भागा वा देसूणा । एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । णयरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं ।।
६१६०. तिरिक्खेसु मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदे०संका० लोग० असंखे०भागो। अणुक्कस्स० लोग० असंखे०भागो छ चोदस० देसूणा । सम्म०-सम्मामि०-उक्क० पदे०.
गतियोंके जीव होते हैं, परन्तु उनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता। मात्र अतीत काल की अपेक्षा इनका स्पर्शन या तो विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और एकेन्द्रिय आदिके मारणान्तिक समुद्घात और उपपादपदकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण बन जाता है। यह देखकर इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण कहा है। तथा सोलह कषाय और नो नोकषायोंका प्रदेश संक्रमण निर्बाधरूपसे सर्वत्र सर्वदा होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन वर्तमान और अतीत दोनों प्रकारके कालोंकी अपेक्षा एकमात्र सर्वलोक कहा है।
६१८६. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय
और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकियोंमें स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कइना चाहिए । पहली पृथिवीमें स्पर्शनका भङ्ग क्षेत्रके समान है।।
विशेषार्थ— मिथ्यात्वका संक्रमण सम्यग्दृष्टि ही करता है और नरक सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं है इसलिए तो नारकियोंमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा शेष प्रकृतियोंका संक्रमण मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदके समय भी सम्भव है, किन्तु नारकियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, इसलिए यहाँ पर शेष सब प्रकतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और असनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें यह स्पर्शन इसी प्रकार बन जाता है । मात्र त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागके स्थानमें अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली पृथिवीके सब नारकियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। इनका क्षेत्र भी इतना ही है . इसलिए यहाँ पर पहली पृथिवीमें स्पर्शनको क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है । शेष कथन सुगम है।
६१६०. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
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२५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ संका० लोग० असंखे भागो। अणुक० लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सोलसक०णवणोक० उक्क० पदेससंकामएहि लोग० असंखे भागो। अणुक्क० सव्वलोगो वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि पणुवीसं पयडीणं अणु० लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज. एवं चेव । णवरि मिच्छत्तं णस्थि । मणुसतिए एवं चेव । णवरि मिच्छ० उक्क० अणुक्क० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो।
सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पच्चीस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय तियेञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका संक्रमण नहीं होता । मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि तिर्यच्चोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम छहबटे चौदह भाग प्रमाण है, इसलिए सामान्य तिर्यश्चों में मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और त्रसनाली के कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता वाले तिर्यञ्चोंका बर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और मारणान्तिक समु. द्धात आदिकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन सर्वलोक प्रमाण है, इसलिए सामान्य तिर्यञ्चोंमें इनके अनुस्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सर्व लोक प्रमाण कहा है । सोलह कपाय और नौ नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन सर्वलोक प्रमाण दोनों कालोंकी अपेक्षासे है यह स्पष्ट ही है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकर्म और सब स्पर्शन तो सामान्य तिर्यञ्चोंके समान बन जाता है। मात्र इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्वलोक प्रमाण होनेसे इनमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक प्रमाण कहा है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में अन्य सब स्पर्शन तो तिर्यञ्चत्रिकके समान बन जाता है । मात्र इनमें एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होनेसे मिथ्यात्वका संक्रमण सम्भव नहीं है, इस लिए उसका निषध किया है। मनुष्यत्रिकमें अन्य सब स्पर्शन तो उक्त अपयोप्तककि समान बन जाता है । मात्र इनमें सम्यग्दृष्टि जीव होनेके कारण मिथ्यात्वका संक्रमण सम्भव है । परन्तु इनमें ऐसे जीवोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग से अधिक प्राप्त न होनेके कारण मि यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका भी उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पोसणं
२५७ ६१६१. देवेसु मिच्छ० उक्क० पदे०संका०लोग असंखे०भागो। अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोदस०देसूणा । सेसकम्माणमुक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो, अट्ठ णवचोदस० देसूणा । णवरि पुरिस०-णबुंस० उक्क० पदे०संका० अट्ठचोदस० देसूणा । एवं सोहम्मीसाण ।
६१६२. भवण-वाणवे०-जोदिसि० मिच्छ० उक्क० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अद्भुट्ट अट्ठचोदस० देसूणा । सेसकम्माणं उक्क० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो । अणुक० लो० असंखे०भागो, अद्वट्ठअट्ठ-णव-चोद्दसन्देसूणा ।
६ १६१. देवोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण
और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके कुछ कम आठ और नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि पुरुपवेद और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि देवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण होनेसे इनमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन उक्त क्षेत्र प्रमाण कहा है। देवोंका उक्त स्पर्शन तो है ही। मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा इनका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम नौ वटे चौदह भागप्रमाण है
और इन सब स्पर्शमोंके समय शेप सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रम होता है, इसलिए यहाँ पर देवोंमें शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा वसनाली के कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। यहाँ पर पुरुषवंद और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके स्पर्शनमें अन्य प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके स्पर्शनसे कुछ विशेषता है, इसलिए उसका निर्देश अलगसे किया है । बात यह है कि सौधर्म और ऐशान कल्पकी अपेक्षा सामान्य देवोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विहारवत्स्वस्थान आदिके समय भी सम्भव है, इसलिए इनमें उक्त कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन वसनालीके कुछ कम आठ वटे चौदह भागप्रमाण बन जानेसे वह अलगसे कहा है। यह स्पर्शन सौधर्म और ऐशान कल्पमें अविकल घटित हो जाता है, इसलिए इसे सामान्य देवोंके समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है ।
१६. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन और आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
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२५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ १६३. सणक्कुमारादि अच्चुदा ति सबपयडि. उक्क० पदे०संका० लोग० असंखे भागो। अणुक्क० सगपोसणं । उवरि खेत्तं । एवं जाव० ।
१६४. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० जह० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो। अजह० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोद्द० देसूणा । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोद्द० देसूणा सव्वलोगो वा । सोलसक०-णवणोक० जह० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो। अजह सबलोगो।
विशेषार्थ--सम्यग्दृष्टि उक्त देवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण होनेसे इनमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। शेष कर्मों के अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका संक्रम उक्त देवोंकी सब अवस्थाओंमें भी सम्भव है, इसलिए उनमें उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६१६३. सनत्कुमारसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन अपने-अपने कल्पके स्पर्शनके समान जानना चाहिए। आगे नौ प्रैवेयक आदिमें स्पर्शन क्षेत्रके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-आगे सनत्कुमार आदि कल्पोंमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि देवोंके स्पर्शनमें कोई फरक नहीं है, इसलिए वहाँ सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन एक साथ कहा है । साथ ही जिस कल्पमें जो स्पर्शन है वही प्राप्त होता है, इसलिए उसे अपने-अपने स्पर्शनके समान जाननेकी सूचना की है । नौ प्रैधेयक आदिमें स्पर्शन क्षेत्रके समान होनेसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके स्पर्शनको क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है । शेष कथन सुगम है।
६१६४. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग-प्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनालीके कुछ कम आठबटे चौदह भाग प्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजवन्य प्रदेशके संक्रामक जीवोंने सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व का जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपित कमांशिक जीवके क्षपणाके समय होता है, इसलिए इसके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा इसके अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन जो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है सो इसका खुलासा
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पोसणं
રહ ६ १६५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० जह० अजह० पदे०संका० लोग० असंखे० भागो। सेसा० जह० लोग० असंखे०भागो। अजह० लोग० असंखे०भागो, छचोइस भागा वा देसूणा । एवं विदियादि जाव सत्तमा ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत।
F१६६. तिरिक्खेसु मिन्छ० जह० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो। अजह लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा। सम्म०-सम्मामि० जह० अजह.
जैसा इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके समय कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी कर लेना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य और अजघन्य प्रदेशसंक्रम एकेन्द्रियादि जीवोंके भी सम्भव है। किन्तु ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अतीत स्पर्शन विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्धात व उपपादपदकी अपेक्षा सर्वलोकप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम अधिकतरका क्षपणाके समय और कुछका उपशमनाके समय प्राप्त होता है । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इन कर्मो के जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम कुछ गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंको छोड़कर प्रायः सब जीव करते हैं, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा है ।
६ १६५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघर, और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ! तथा अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीके नारकियोंमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है।
विशेषार्थ-नरकमें सर्वत्र सम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसंक्रम क्षपितकमांशिक जीवोंके यथास्थान होता है और ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेप कथन सुगम है।
६१६६. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्या
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२६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ पदे०संका० लोग० असंखे०भागो सब्बलोगो वा । सोलसक०-गवणोक० जह० पदे०. संका० लोग० असंखे भागो। अजह० सव्वलोगो।
१६७. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खभंगो । सोलसक०-णवणोक० जह० खेत्तं । अजह० पदे०काम० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा। एवं पचिंदियतिरिक्ख०अपज्ज०-मणुसअपज । णवरि मिच्छ० णस्थि । एवं मणुसतिए । णवरि मिच्छ० जह० अजह० पदे०संका० लोग० असंखे०भागो।
तवें भागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम उत्तम भोगभूमिमें क्षापतकमांशिक जीवके अन्तिम समयमें सम्भव है । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इनमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। तथा सम्यग्दृष्टि तिर्थञ्चोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन वसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण है अतः इनमें मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिश्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवेंभागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि सम्यक्त्वका जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारका स्पर्शन तो मिथ्यादृष्टियोंके होता ही है । सम्यग्मिथ्यात्वका भी यह संक्रम मिथ्यादृष्टियोंके सम्भव है और मिथ्यादृष्टि तियेचोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य संक्रमके स्वामित्व पर अलग-अलग विचार करने पर विदित होता है कि इन प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं बन सकता इसलिए यह उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है । तथा इनका अजघन्य प्रदेशसंक्रम एकेन्द्रियादि सब तिर्यञ्चोंके सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य प्रदेशोंक संक्रामक जीवोंका स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा है।
६५६७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यच्चोंके समान है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लाकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि ये मिथ्यात्वक संक्रामक नहीं होते । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनमें मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-सामान्य तिर्यन्चोंमें मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी मुख्यतासे ही कहा है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामकोंका जो स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चोंमें है वह
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उत्तरपय डपदैससंकमे पोसणं
२६१
९ १६८. देवेसु मिच्छ० जह० पदे० संका० लोगस्स असंखे० भागो । अजह० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोदस० देसूणा | सम्म० सम्मामि० जह० अजह० पदे ०संका ० लोग० असंखे ० भागो, अट्ठणत्र चोहस० देखणा । सेसाणं जह० खेत्तं । अजह० [लोग • असंखे ०] अट्टणव चोदस० देसूणा । एवं सव्वदेवाणं । वरि सगपोसणं दव्धं । वरि जोदिसि० सम्म० सम्मामि० जह० पदे ० संका० लोग० असंखे० भागो, अट्ठचोद० दे० | अजह ० लो० असंखे०भागो अद्भुट्ठअट्टण चोदस० देखणा । एवं जाव० ।
अट्ठ
गा० ५८
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें भी बन जाता है । इसलिए इनमें उक्त तीनों प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशों के संक्रामकोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा हैं। सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होने से उसे क्षेत्रके समान जानने की सूचना की है । तथा उक्त तिर्यञ्चों के सर्वत्र इनका जघन्य प्रदेशसंक्रम सम्भव है, अतः उक्त तिर्यञ्चोंके स्पर्शनको देखकर यहाँ पर इनके जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में यह स्पर्शन
विल बन जाता है इसलिए उनमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक के समान जानने की सूचना की है । मात्र इनमें मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता, इसलिए उसका निषेध किया है। मायके जघन्य और अजवन्य प्रदेशों के संक्रामक जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं और मनुष्योंमें ऐसे जीवोंका स्पर्शनं लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो तीनों प्रकारके मनुष्यों में सम्भव है । मात्र इस विशेषता को छोड़कर अन्य सब स्पर्शन इनमें उक्त अपर्याप्त जीवोंके समान बन जानेसे उनके समान जानने की सूचना की है।
१६८. देवों मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बंटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके स्पर्शनका भङ्ग क्षेत्रके समान है ।
जघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी कार सब देव जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन ले जाना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य प्रदेशोंक सक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेश के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा नालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नो बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ – ज्योतिषी देवोंको जघन्य आयु पल्यके आठवें भागसे कम नहीं होती, अतएव इनमें इसके पूर्व मारणान्तिक समुद्घात सम्भव नहीं है । यही कारण है कि इनमें सम्यक्त्व और
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२६२ जयधवलासहिदे कषायपाहुडे
[बंधगो ६ ६१६६. कालो दुविहो-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्स्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० उक्क० पदे०संका० केवचिरं० १ जह० एयसमओ। उक० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । सम्म०अणंताणु० चउक्क० उक्क० पदे०संका० जह० एयस० । उक्क० आवलि० असंखे०. भागो । अणुक्क० सधद्धा ।
६ २००. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडी० उक्क० पदे०संका० जह० एयस० । उक० आवलि० असंखे०भागो। अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सत्रणेरइय-सव्यतिरिक्ख०-देवा जाव सहस्सार ति । मणुसतिय आणदादि सब्वट्ठा ति सबपयडी० उक्क० पदे०संका०
सम्यग्मिध्यात्यके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण न बतलाकर मात्र लोकके असंख्यातवें भामप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण बतलाया है। शेष कथन सुगम है।
६१६६. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व
और अनन्तानुबन्धी चतष्कके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ—ोघसे मि यात्व आदि २३ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम मनुष्योंमें क्षपणाके समय प्राप्त होता है । यह सम्भव है कि नाना मनुष्य एक साथ इनका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम करें और दूसरे समयमें अन्य मनुष्य न करें। साथ ही यह भी सम्भव है कि नाना मनुष्य अलग-अलग संख्यात समय तक इनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करते रहें, इसलिए इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सातवें नरकके नारकी करते हैं। ये जीव एक समय तक इनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करके द्वितीयादि समयोंमें अन्य जीव न करें यह तो सम्भव है ही। साथ ही यहाँ पर सम्यक्त्वका उपक्रमणकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इनका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम इतने काल तक भी सम्भव है, इसलिए ओघसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवो .. जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । सभी अट्ठाईस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है।
६२००. आदेशसे नारकियोंमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य देव और सहस्त्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिक और आनतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जवन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे कालो
२६३
जह० एयस० । उक्क० संखेजा समया । अणुक० सव्वद्धा । मणुस अपज० सत्तावीसं पडी उक० पदे०संका ० जह० एयसमओ । उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अक० जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । णवरि सम्म० -सम्मामि० अणुक० जह० अंतोमु० । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो - णवरि सम्म० सम्मा मि० अणुक० जह० एयस० । एवं जाव० ।
१ २०१. जहण्ण पदं । दुविहो णि० - ओघे० - आदेसे ० | ओघेण सबपयडी० जह० पदे ० संका ० जह० एस० । उक्क० संखेज्जा समया । अजह० सव्वद्धा । एवं चदुसु दी व मज्ज० अजह० अणुक० भंगो | णवरि सोलसक० -भय-दुगु छा० अजह०
I
काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है । मनुष्य अपर्याप्तकों सत्ताईस प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्यकाल मुहूर्त उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ — यहाँ पर जिन मार्गणाओं की संख्या संख्यातसे अधिक है उनमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा जिनका परिमाण संख्यात है उनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है यह स्पष्ट ही है मात्र इसका एक अपवाद है वह यह कि आनतकल्पसे लेकर अपराजित विमान तक देव यद्यपि परिमाण संख्यात होते हैं फिर भी इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बतलाया है सो इसका कारण स्वामित्वसम्बन्धी विशेषता है । बात यह है कि इनमें गुणितकर्मशिक मनुष्य याकर सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेश संक्रम करते हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही बनता है । सर्वत्र सब प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । मात्र मनुष्य अपर्याप्तकों का जघन्य काल अन्तउत्कृष्ट कापल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इनमें सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवों के जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इसमें इतनी और विशेषता है कि यह सान्तर मार्गणा होनेसे इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीव एक समय तक रहें और दूसरे समयमें संक्रामक हो जायँ यह सम्भव हैं, इसलिए यह काल एक समय कहा है ।
१ २०१. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और प्रदेश । श्रघसे सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके अजघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंके कालका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। इतनी और विशेषता है कि
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
२६४
जह० खुद्दाभव० समऊणं । एवं जाव० ।
६२०२. अंतरं दुहिं- - जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो गि० - ओघे० आदे० । ओघेण सत्रपडी० उक० पदे० संका० जह० एयसमओ उक्क० अनंतकालमसं खेज्जा पोग्गल परियट्टा । अणुक० णस्थि अंतरं । एवं चदुसु, गदीसु । णवरि मणुस अपज्ज० अणुक० जह० एयस० । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं जाव० ।
६ २०३. एवं जहण्यं पि खेदव्यं । णारि ओघे तिग्निसंजल० पुरिस० जह० एयसमओ उक्क० सेढीए असंखे० भागो । एवं मणुसतिए । णवरि मरणुसिणी ० पुरिस ० उकस्सभंगो ।
सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा के जघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय कम चुल्लक भवग्रहणप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ - - मनुष्य पर्याप्तकों सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम भव प्रथम समय में होता है. इसलिए इनमें इनके जघन्य प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
२०२. अन्तर दो कारका है - जवन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका अन्तरकाल नहीं हैं। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाणए है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
२०३. इसी प्रकार जघन्य प्रदेशसंक्रामकों के अन्तरकालको भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि ओघसे तीन संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर श्रेणी असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में पुरुषवेदका भङ्ग उत्कृष्टके समान हैं ।
विशेषार्थ — ओघसे नाना जीव सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक एक समय के अन्तरसे हों वह तो सम्भव है ही । साथ ही गुणित कर्माशिक जीवोंके उत्कृष्ट अन्तरकालको देखते हुए वे अनन्तकाल तक न हों यह भी सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है । इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके संक्रामक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है । चारों गतियाँ निरन्तर मार्गणाएँ होनेसे उनमें भी यह अन्तरकाल बन जाता है। इसलिए उनमें श्रधके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र मनुष्य पर्याप्त सान्तर मार्गणा है, इसलिए उनमें उक्त मार्गणा के अन्तरकालके अनुसार सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशों के संक्रामक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल कहा है । यहाँ पर उत्कृष्ट की अपेक्षा जिस प्रकार विचार किया है उसी प्रकार जघन्यकी अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिए । जो इसमें विशेषता है उसका अलग से निर्देश कर दिया है ।
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गा०५८
उत्तरपडिपदेससंकमे अप्पाबहुश्र
२६५ ६२०४. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो। * अप्पाषहुध । ६ २०५. सुगममेदमहियारसंभालण वक्त । * सव्वत्थोवो समत्ते उकस्सपदेससंकमो। (२०६. कुदो ? सम्मत्तदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडपमाणत्तादो।
* अपच्चक्खाणमाणे उकस्सो पदेससंकमो असंखेज्जगुणो ।
६२०७. कुदो ? मिच्छत्तसयलदव्वादो आवलियाए असंखेज्जभागपडिभागेण परिहीणदव्यं घेत्तूण सव्वसंकमेणेदस्सुक्कस्ससामित्तविहाणादो। एत्थ गुणगारो गुणसंकममागहारपदुप्पण्णअधापवत्तभागहारमेत्तो। .
* कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
६ २०८. कुदो ? दोण्हमेदेसि सामित्त भेदाभावे वि पयडिविसेसमेत्तेण तत्तो एदस्साहियभावोवलद्धीदो।
ॐ मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो। * लोभे उक्कस्संपदेससंकमो विसेसाहिओ। ॐ पञ्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहियो। * कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६२०४. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है । * अल्पबहुत्वका अधिकार है। ६ २०५. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है । * सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है।
६ २०६. क्योंकि सम्यक्त्वके द्रव्यको अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित करने पर वह उसमेंसे एक भागप्रमाण है।
* उससे अप्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२०७. क्योंकि मिथ्यात्वके समस्त द्रन्यसे श्रावलिके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे हीन द्रव्यको ग्रहण कर सर्वसंक्रमके आश्रयसे इसके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया गया है।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६ २०८. क्योंकि इन दोनोंके स्वामीमें भेद नहीं होने पर भी प्रकृतिविशेषके कारण उसमें इसका अधिकपना उपलब्ध होता है।
* उससे अप्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ३४
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२६६
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
* मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । * लोभे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । * अणताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहियो । * कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
[ बंधगो ६
* मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
* लोभे उक्कस्सपदेस संकमो विसेसाहिओ ।
२०६. दाणि सुत्ताणि पयडिविसेसमेत्तकारणपडिबद्धाणि सुगमाणि । * मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो· विसेसाहिओ ।
९ २१०. केत्तियमेत्तेण ? आवलि० असंखे ० भागेण खंडिदेय खंडमेत्तेण ।
* सम्मामिच्छत्ते उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
$ २११. मिच्छतं कामिय पुणो जेण कालेन सम्मा मिच्छत्तं सव्त्रसंकमेण संकामेदि तकालव्भंतरे णट्ठासेसदव्त्रं सम्मामिच्छत्तमूलदव्यादो असंखेजगुणहीणं ति कट्टु, तत्थ तम्मि सोहि सुद्धसमेत्ते विसेसाहियत्तमिदि वृत्तं होइ ।
* लोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो अतगुणो । ९ २१२. कुदो देसघादित्तादो ।
* उससे प्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यानलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अनन्तानुबन्धीमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अनन्तानुबन्धीक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अनन्तानुबन्धीमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अनन्तानुबन्धीलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । २०६. ये सूत्र प्रकृति विशेषमात्र कारण से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए सुगम हैं । * उससे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
२१०. कितना अधिक है ? आवली के असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्धश्रवे उतना अधिक है ।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
§ २११. मिध्यात्वको संक्रमण करके पुनः जितने कालमें सम्यग्मिथ्यात्वका सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रमण करता है उस कालके भीतरं नष्ट हुआ समस्त द्रव्य मिथ्यात्व के मूल द्रव्यसे असंख्यात गुणाहीन है ऐसा समझकर उसे उसमेंसे कम कर देने पर जो शेष बचे उतना विशेष अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अनन्तगुणा है । १२१२. क्योंकि यह देशघाति प्रकृति है ।
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उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पा बहुअं
* हस्से उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो ।
९ २१३. कुदो ? दोहं देसघादित्ताविसेसेवि अधापवत्तसव्त्रसंकमविसयसामित्त - भेदावलंबणेण तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो ।
* रदीए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । ९ २१४. पयडिविसेसेण ।
गा० ५८ ]
२६७
* इत्थिवेदे उक्कस्सपदेससंकमो संखेज्जगुणो ।
२१५. कुदो १ हस्सरइबंधगद्ध दो संखेज्जगुणकुरवित्थिवेदबंधगद्धाए संचिदत्तादो । * सोगे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
६ २१६. एत्थ वि अद्धा विसेसमस्सिऊण संखेज्जभागाहियत्तं दट्ठव्वं कुरवित्थिवेदबंधगद्धादो रइयाणमरदिसोगबंधगद्धाए संखेजभागन्भहियत्तदंसणादो ।
* अरदोए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
६ २१७. पयडिविसेसमेत्तमेव कारणमेत्थाणुगंतव्वं ।
* एवुंसयवेदे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहियो ।
६ २१८. कुदो ? अद्धाविसेसमस्सिऊण हस्सरइबंधगद्धाए संखेज्जभागसंचयस्स अहियत्वलंभादो ।
* उससे हास्यका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
६ २१३. क्योंकि देशघातिरूपसे दोनोंमें भेद नहीं है तो भी अधः प्रवृत्तसंक्रम और सर्वसंक्रमविषयक स्वामित्वरूप भेदका अवलम्बन करनेसे उस प्रकारकी सिद्धि होनेमें कोई विरोध नहीं आता ।
* उससे रतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । ६२१४. इसका कारण प्रकृति विशेष है ।
* उससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है ।
§ २१५. क्योंकि हास्य और रतिके बन्धककालसे संख्यातगुणे कुरुक्षेत्रसम्बन्धी स्त्रीवेदके बन्धककाल द्वारा इसका समय हुआ है ।
* उससे शोकका उत्कृष्ट प्रदेशसञ्चय विशेष अधिक है ।
§ २५६. यहाँ पर भी कालविशेषका आश्रय कर संख्यातभाग रूपसे अधिकता जाननी चाहिए, क्योंकि कुरुक्षेत्र में स्त्रीवेद के बन्धककालसे नारकियोंमें अरति-शोकका बन्धककाल संख्यातवें भाग अधिक देखा जाता है ।
* उससे अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
२१७. यहाँ पर प्रकृतिविशेष मात्र कारण जानना चाहिए ।
* उससे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
२१८. क्योंकि कालविशेषका आश्रय कर हास्य रतिके बन्धककालसे संख्यात भागमें हुए सञ्चयमें विशेष अधिकता उपलब्ध होती है ।
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२६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * दुगुंछाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । ६ २१६. कुदो ? धुवबंधित्तादो। * भए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। हु २२०. सुगममेदं पयडिविसेसमेत्तकारणपडिबद्धत्तादो। ® पुरिसवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
६ २२१. कुदो १ दोण्हं धुवबंधित्तेण समाणविसयसामित्तपडिलमे वि पयडिविसेसमस्सिऊण पुग्विन्लादो एदस्स विसेसाहियत्तसिद्धीए विरोहाभावादो।
* कोहसंजलणे उकस्सपदेससंकमो संखेज्जगुषो।
६ २२२. को गुणगारो ? एगरूवचउभागाहियाणि छरुवाणि । कुदो ? कसायचउभागेण सह सयलणोकसायभागस्स कोहसंजलणायारेण परिणदस्सुवलंभादो। एत्थ संदिट्ठीए मोहणीयसव्वदव्वमेत्तियमिदि घेत्तव्वं ४० । तदद्धमेत्तं कसायदव्वमेदं २० । णोकसायदव्वं पि एत्तियं चेव होइ २० । पुणो एदस्स पंचभागमेत्तो पुरिसवेदुक्कस्ससंकमो एत्तिओ होइ ४ । एदं छग्गुणं करिय चउभागाहिए कदे कोहसंजलणदव्यमेत्तियं होइ २५ ।
माणसंजलणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६ २२३. केत्तियमेत्तेण १ पंचमभागमेत्तेण । तस्स संदिट्ठी ३० । * उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २१६. क्योंकि यह ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है। * उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २२०. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि यह प्रकृतिविशेषमात्र कारणसे सम्बन्ध रखता है। * उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२२१. क्योंकि दोनों ध्रुवबन्धी होनेसे इनका स्वामी समान विषयसे सम्बन्ध रखता है तो भी प्रकृति विशेषका आश्रय कर पूर्व प्रकृतिसे इसके विशेष अधिकके सिद्ध होनेमें कोई विरोध नहीं पाता।
* उससे क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है।
६२२२. गुणकार क्या हे ? एकका चतुर्थभाग अधिक छहरूप गुणकार है, क्योंकि कषायके चतुर्थभागके साथ नोकषायोंका समस्त भाग क्रोधसंज्वलनरूप से परिणत होता हुआ उपलब्ध होता है। यहाँ पर संरष्टिके लिये मोहनीयका समस्त द्रव्य ४० ग्रहण करना चाहिए । उसका अर्धमात्र कषायका द्रव्य इतना है २० । नोकषायोंका द्रव्य भी इतना ही होता है २०। पुनः इसका पाँचवाँ भागमात्र पुरुषवेदका उत्कृष्ट संक्रम इतना होता है ४ । इसे छहसे गुणा करके उसने इसका चतुर्थभाग अधिक करने पर क्रोधसंज्वलनका द्रव्य इतना होता है २५ ।
• उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२२३. कितना अधिक है ? पाँचवाँ भागमात्र अधिक है । उसकी संदृष्टि ३० है।
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२६६
गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं
. २६६ * मायासंजलणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो। ६ २२४. केत्तियमेत्तेण १ छबभागमेत्तेण । तस्स संदिट्ठी ३५ ।
एवमोघप्पाबहुअमुक्कस्सं समत्तं ।। ६ २२५. एत्तो आदेसप्पाबहुअपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तपबंधमाह8 णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंकमो।
६२२६. कुदो १ मिच्छत्तादो गुणसंकमेण पडिच्छिददव्यमघापवत्तभागहारेण खंडिदेयखंडपमाणत्तादो।
* सम्मामिच्छत्ते उकस्सपदेसंसंकमो असंखेज्जगुणो। - ६२२७. कुदो ? दोण्हमेयविसयसामित्तपडिलमे वि सम्मत्तमूलदब्बादो सम्मामिच्छत्तमूलदव्वस्सासंखेज्जगुणत्तमस्सिऊण तहाभावसिद्धीदो।
* अपचक्खाएमाणे उकस्सपदेससंकमो असंखेजगुणो। ६२२८. दोण्हमधापवत्तसंकमविसयत्ते वि . दरगयविसेसोवलंभादो। तं कधं ? मिच्छत्तदव्वं गुणसंकमभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तं सम्मामिच्छत्तदव्वं अधापवत्तभागहार पडिभागेण संकमदि । अपचक्खाणमाणदव्वं पुण मिच्छत्तादो पयडिविसेसहीणं होऊणाधापवत्तसंकमेण उक्कस्सं जादमेदेण कारणेण ततो एदस्सासंखेज्जगुणत्तं सिद्ध।
* उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २२४. कितना अधिक है ? छठवाँ भागमात्र अधिक है। उसकी संदृष्टि ३५ है।
इस प्रकार उत्कृष्ट ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६ २२५. आगे आदेश अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं* नरकगतिमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है।
६२२६. क्योंकि मिथ्यात्वके द्रव्यमें से गुणसंक्रमके द्वारा संक्रमित हुए द्रब्यको अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करके जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम है। - *उससे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२२७. क्योंकि दोनोंका स्वामित्व एक विषयको अवलम्बन करनेवाला है तो भी सम्यक्त्व के मूलद्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्वका मूल द्रव्य असंख्यात गुणा है, इसलिए उस प्रकारकी सिद्धि होती है।
* उससे अप्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२२८. क्योंकि ये दोनों अधःप्रवृत्तसंक्रमको विषय करते हैं तो भी द्रव्यगत विशेषता उपलब्ध होती है।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-मिथ्यात्वके द्रव्यको गुणसंक्रम भागहारके द्वारा भाजित करके जो एक भाग लब्ध आवे उतना सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य है जो अधःप्रवृत्तभागहारके प्रतिभागरूपसे संक्रमित होता है । परन्तु अप्रत्याख्यान मानका द्रव्य मिथ्यात्वसे प्रकृति विशेष रूपसे हीन होकर अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा उत्कृष्ट हुआ है। इस कारणसे उससे यह असंख्यात गुणासिद्ध होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * कोधे उपस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो । ॐ लोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो।
पञ्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिो । * कोहे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ॐ मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्र । ॐ लोहे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो। ६ २२६. एत्थ सव्वत्थ पयडिविसेसमेतमेव विसेसाहियत्तकारणमणुगंतव्वं ।
मिच्छुत्ते उक्कस्सपदेससंकमो असंखेजगुणो।
६ २३०. किं कारणं १ अधापवत्तसंकमादो पुचिन्लादो गुणसंकमदव्यस्सेदस्सासंखेज्जगुणत्ते विसंवादाणुवलंभादो।
ॐ अणंताणुबंधिमाणे उकस्सपदेससंकमो असंखेजगुणो ६२३१. केण कारणेण ? सव्वसंकमेण पडिलद्ध कस्स भावत्तादो।
कोधे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहियो । मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २२६. यहाँ सर्वत्र प्रकृति विशेषमात्र ही विशेष अधिकपनेका कारण जानना चाहिए। * उससे मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२३०. क्योंकि पहलेके अधःप्रवृत्तसंक्रमसे इस गुणसंक्रमद्रव्यके असंख्यातगुणे होनेमें विसंवाद नहीं पाया जाता।
* उससे अनन्तानुबन्धोमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । ६२३१. क्योंकि सर्वसंक्रमके द्वारा इसका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त हुआ है। * उससे अनन्तानुबन्धीक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं * लोभे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ( २३२. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * हस्से उकस्सपदेससंकमो अणंतगुणो।
६२३३. कुदो ? सबघादिपदेसग्गं पेक्खिऊण देसघादिपदेसग्गस्साणंतगणत्ते संदेहाभावादो।
ॐ रदोए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिो । ६२३४. पयडिविसेसेण।
इत्थिवेदे उकस्सपदेससंकमो संखेनगुणो। ॐ सोगे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। 8 अरदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिो । * णवुसयवेदे उकस्संपदेससंकमो विसेसाहियो। 8 दुगुंछाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिो । * भए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिश्रो। ॐ पुरिसवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६ २३५. एत्थ सव्वत्थ ओघाणुसारेण कारणमणुगंतव्वं ।
* उससे अनन्तानुबन्धीलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । ६२३२. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे हास्यका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अनन्तगुणा है।
६२३३. क्योंकि सर्वघाति द्रव्यको देखते हुए देशघाति द्रव्यके अनन्तगुणे होनेमें सन्देह नहीं है।
* उससे रतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । ६२३४. क्योंकि यह प्रकृति विशेष है। * उससे स्त्रोवेदका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है । * उससे शोकका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे नपुसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२३५. यहाँ पर सर्वत्र ओघके अनुसार कारण जानना चाहिए।
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२७२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* माणसंजलणे उक्कस्संपदेससंकमो विसेसाहिओ । ९ २३६. केत्तियमेत्तो विसेसो १ पुरिसवेददन्त्रस्स सादिरेयचउब्भागमेत्तो । * कोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । * मायासंजलणे उक्कस्सपदेस संक्रमो विसेसाहिओ ।
* लोहसंजलणे उक्कस्स पदेस संकमो विसे साहिओ ।
[ बंधगो ६
२३७. दाणि मुत्ताणि पयडिविसेसमेत कारणपडिबद्धाणि सुबोहाणि । एवं रियोघो परूविदो | एवं चैव सत्तसु पुढवीसु; विसेसाभावादो ।
* एवं सेसासु गदीसु दव्वं ।
९ २३८. एदेण सुत्तेण सेसगदीणमप्पा बहुअं सूचिदं । तं जहा — तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय देवा भवणादि जाव णवगेवज्जा त्ति णिरयोघो । अणुद्दिसाणुत्तरदेवेसु एवं चेव । raft सम्म कम थि; इत्थि - गवुंसयवेदाणं पि तत्थ विज्झादसंकमो चेवेत्ति विसेसमवहारिऊणप्पा बहुअमणुगंतव्र्व्वं । मणुसतिए ओघभंगो । पंचि०तिरिक्ख- अपज्ज० मणुसअपजस पुरदो भग्णमारोह दिय प्याबहुअभंगो |
I
* उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
९ २३६. विशेषका प्रमाण कितना है ? पुरुषवेदके द्रव्यका साधिक चतुर्थ भागमात्र विशेष प्रमाण है।
* उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
* उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
* उससे लोभसंज्वलनका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
२३७. ये सूत्र प्रकृतिविशेषमात्र कारणसे प्रतिबद्ध हैं, इसलिए सुगम हैं। इस प्रकार सामान्यसे नारकियों में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वका कथन किया । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए, क्योंकि उससे यहाँ पर अन्य कोई विशेषता नहीं है ।
* इसी प्रकार शेष गतियों में ले जाना चाहिए ।
६२३८. इस सूत्र द्वारा शेष गतियोंमें अल्पबहुत्वका सूचन किया है । यथा - सामान्य तिर्यन, पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक, सामान्यदेव और भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रवेयक तकके देवों में सामान्य नारकियों के समान भङ्ग है। अनुदिश और अनुत्तर देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका संक्रम नहीं है । तथा वहाँ पर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भी विध्यातसंक्रम ही है । इस प्रकार इस विशेषताको जानकर अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें श्रोघके समान भङ्ग है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें आगे कहे जाने वाले एकेन्द्रिय सम्बन्धी अल्पबहुत्व के समान भङ्ग है ।
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गा० ८
उत्तरपयांडपदेससंकमे अप्पाबहुअं
२७३
$ २३६. संपहि सेसमग्गणाणं देसामा सयभावेणिंदियमम्गणावयवमूदेयिंदिए पयदप्पा बहुअपरूवणट्टमुत्तरमुत्तपबंधमाढवेइ ।
* तदो एइंदिए सव्वत्थोवो सम्मत्ते उक्कस्सपदेससंकमो ।
§ २४०. तदो गइमग्गणप्पाबहुअविहासणादो अणंतरमेइ दिएतु अप्पा बहुअगवेसणे कीरमाणे तत्थ सन्वत्थोवो सम्मत्ते उकस्सपदेससंकमो त्ति वृत्तं होइ ।
* सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो ।
६ २४१. कुदो दो हमेदेसिं अधापवत्तेण सामित्तपडिलंभाविसेसे वि दव्वविसेसमस्सिऊण तत्तो एदस्सासंखेज्जगुणब्भहिय कमेणावाणदंसणादो ।
* अपच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो ।
६ २४२. एत्थकारणपरूवणाए णारयभंगो ।
* कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
* मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
* लोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहियो ।
* पच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेशसंकमो विसेसाहिओ । * कोहे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
§ २३६. अब शेष मार्गणाओं के देशामर्षकभाव से इन्द्रियमार्गणा के अवयवभूत एकेन्द्रियों में प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगे सूत्रप्रबन्धका आलोडन करते हैं
* इसके बाद एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है ।
२४०. इसके बाद अर्थात् गतिमार्गणा में अल्पबहुत्वका व्याख्यान करने के बाद एकेन्द्रियों में श्रल्पबहुत्व की गवेषणा करने पर वहाँ सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है यह उक्त कथा है |
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
६ २४१. क्योंकि इन दोनोंके अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा स्वामित्वके प्राप्त करनेमें विशेषता न होने पर भी द्रव्यविशेषकी अपेक्षा उससे इसका असंख्यातगुणे अधिकरूपसे अबस्थान देखा जाता है ।
* उससे अप्रत्याख्यानमानका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
§ २४२. यहाँ पर कारणका कथन करने में नारकियोंके समान कारण जानना चाहिए । * उससे अप्रत्याख्यानक्रोधका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अप्रत्याख्यानलोभका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यानमानका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यानक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
३५
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२७४
[बंधगोद
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
लोभे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। * अणंताणुबंधिमाणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
कोहे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो। ॐ मायाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। 8 लोभे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। * हस्से उकस्सपदेससंकमो अवंतगुणो।
रदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिो । ॐ इत्थिवेदे उकस्सपदेससंकमो संखेजगुणो।
सोगे उफस्सपदेससंकमो विसेसाहित्रो। * अरदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ॐ सयवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहियो । * दुगुंछाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ॐ भए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। * पुरिसवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ।
ERE
* उससे प्रत्याख्यानमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानलोभका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीमानका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उ.से अनन्तानुबन्धीक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीमायाका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीलोभका उत्कृष्ट प्रदेससंक्रम विशेष अधिक है। * उससे हास्यका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अनन्तगुणा है। * उससे रतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे शोकका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेससंक्रम विशेष अधिक है। * उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे भयंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे पुरुषवेदको उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
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२७५
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं माणसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। * कोहसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
मायासंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिो। * लोभसंजलणे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६२४३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं जाव० तदो उक्स्सपदेसप्पाबहुअं समत्तं । * एत्तो जहएणपदेससंकमदंडो ।
६ २४४. एत्तो उवरि जहण्णपदेससंकमपडिबद्धप्पाबहुअ-दंडओ कायव्यो ति अहियारसंभालणवकमेदं ।
8 सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहएणपदेससंकमो।
६२४५. सम्मामिच्छत्तादिसेससवपयडीणं जहण्गपदेससंकमेहितो सम्मत्तजहण्णपदेससंकमो थोवयरो ति सुत्तत्थो ।
ॐ सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो।
६२४६. कुदो ? दोण्हमेदेसि सामित्तभेदाभावे पि सम्मत्तमूलदव्यादो सम्मामिच्छत्तमूलदव्यस्सासंखेज्जगुणकमेणावट्ठाणदंसणादो । सम्मत्ते उव्वेल्लिदे जो सम्मामिच्छत्तब्वेलणकालो तस्स एयगुणहाणोए असंखेज्जदिभागपमाणतम्भुवगमादो च ।
* उससे मानसंज्वलनका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेप अधिक है। * उससे मायासंज्वलनका उत्कष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२४३. ये सूत्र सुगम हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
* इससे आगे जघन्य प्रदेशसंक्रम दण्डकका अधिकार है।
६२४४. इससे आगे जघन्य प्रदेशसंक्रमसे सम्बन्ध रखनेवाला अल्पबहुत्वदण्डक करना चाहिए । इस प्रकार अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र वचन है ।
* सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है।।
६२४५. सम्यग्मिथ्यात्व आदि शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशसंक्रमसे सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेश संक्रम स्तोक है यह इस सूत्रका अर्थ है।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२४६. क्योंकि इन दोनोंके स्वामित्वमें भेद नहीं होने पर भी सम्यक्त्वके मूल द्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्वके मूलद्रव्यका असंख्यातगुणित क्रमसे अवस्थान देखा जाता है। तथा सम्यक्त्वकी उद्वेलना होने पर जो सभ्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाकाल रहता है उसकी एक गुणहानि असंख्यातवें भागप्रमाण स्वीकार की गई है । अर्थात् वह काल एक गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ . * अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो।
२४७. कि कारणं १ विसंजोयणापुव्यसंजोगणवकबंधसमयपबद्धाणमंतोमुहुत्तमेत्ताणमुवरि सेसकसायाणमधापवत्तसंकममुक्कड्डणापडिभागेण पडिच्छिय सम्मत्तपडिलंभेण बेछावहिसागरोवमाणि परिहिंडिय तप्पज्जवसाणे विसंजोयणाए उवविदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए विज्झादसंकमेणेदस्स जहण्णसामित्तं जादं। सम्मामिच्छत्तस्स पुण बे छावद्विसागरोवमाणि सागरोवमपुधत्तं च परिभमिय दीहुब्वेन्लणकालेण उव्वेल्लेमाणस्स दुचरिमविदिखंडयचरिमफालीए उव्वेल्लणभागहारेण जहण्णं जादं । तदो उव्वेल्लणभागहारमाहप्पेणण्णोण्णभत्थरासिमाहप्पेण च सम्मामिच्छत्तदव्वादो एदमसंखेज्जगुणं जादं।
• कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ® मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। * लोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६२४८. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * मिच्छत्ते जहएणपदेससंकमो असंखेनगुणो।
६ २४६. किं कारण; अणताणुबंधीणं विसंजोयणापुत्रसंजोगेणणवकबंधस्सुवरि अधापवत्तभागहारेण पडिच्छिदसेसकसायदव्वस्सुक्कड्डणापडिभागेण बेछावद्विसागरोवमगालणाए
* उससे अनन्तानुबन्धीमानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यात गुणा है।
६२४७. क्योंकि विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर अन्तमुहूर्त कालके भीतर जो नबकबन्धके समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं उनके ऊपर शेष कषायोंके अधःप्रवृत्तसंक्रमको उत्कर्षणके प्रतिभागरूपसे निक्षिप्त करके सम्यक्त्वकी प्राप्ति द्वारा दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें विसंयोजनाके लिए उपस्थित हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा इसका जघन्य स्वामित्व हुआ है । परन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका दो छयासठ सागर और सागरपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करके दीर्घ उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना करनेवाले जीवके द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके प्राप्त होने पर उद्वेलनाभागहारके आश्रयसे जघन्य स्वामित्व प्राप्त हा है, इसलिए उद्वेलनाभागहारके माहात्म्यवश और अन्योन्याभ्यस्तराशिके माहात्म्यवश सम्यग्मिध्यात्वके द्रव्यसे इसका द्रव्य असंख्यातगुणा हो गया है।
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीमायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीलोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२४८. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२४६. क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंका विसंयोजनापूर्वक संयोगद्वारा नवकबन्धके ऊपर अधःप्रवृत्तभागहार द्वारा प्राप्त हुए शेष कषायोंके द्रव्यके उत्कर्षण-अपकर्षणभागहाररूप प्रतिभागके
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं
२७७ जहण्णसामित्तं जादमेदस्स पुण अधापवत्तभागहारेण विणा कम्मद्विदिजहण्णसंचयादो उक्कड्डिददव्वस्स सादिरेयबेछावद्विसागरोवमाणमधट्टिदिगालणाए जहण्णभावो संजादो तेण कारणेणाणताणुबंधिलोभजहण्णपदेससंकमादो मिच्छतजहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो णेदं घडदे, मिच्छत्तस्सेवाणताणुबंधीणं बेछा वहिसागरोवमबहिन्भूदसागरोवमपुधत्तमेत्तकालगालणाभावादो। ण, सागरोवमपुधत्तकालपडिबद्धण्णोण्णभत्थरासीए अधापवत्तभागहारादो असंखेज्जगुणहीणत्तावलंबणेण पयदप्पाबहुअसमत्थाणं वि जुत्तिमंतयं । उव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासीदो वि असंखेजगुणहीणस्स तस्स सागरोवमपुधत्तपडिबद्धण्णोण्णब्भत्थरासीदो असंखेज्जगुणतविरोहादो। तम्हा जहावुत्तेण णाएण हेवरि णिवदेयव्यमेदेणप्पाबहुएणे त्ति ?ण एस दोसो, अणंताणुबंधीणं मिच्छत्तभंगेण सागरोवमपुधत्तं गालिय विसंजोयणाए अब्भुट्ठिदम्मि जहण्णसामित्तावलंबणादो। ण सागरोवमपुधत्तपरिब्भमणटुं बेछावट्ठीणमवसाणे मिच्छत्तभुवणमंतस्स सेसकसाएहितो अधापवत्तसंकमेण बहुदव्यपडिच्छणमेत्थासंकणिज्ज; तस्स वयाणुसारित्तब्भुवगमादो । ण सामित्तसुत्तेण सह विरोहो विः तत्थ सागरोवमपुधत्तणिदेसाभावे वि एदम्हादो चेव तदत्थित्तसमत्थणादो। आश्रयसे दो छय सठ सागर काल तक गलने पर जघन्य स्वामित्व प्राप्त हुआ है। परन्तु इसका अधःप्रवृत्त भागहारके बिना कर्मस्थितिके भीतर हुए जघन्यसंचयमेंसे उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यको साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण काल तक अधःस्थितिके द्वारा गलाने पर जघन्यपना प्राप्त हुआ है। इस कारण अनन्तानुबन्धीलोभके जघन्य प्रदेशसंक्रमसे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
शंका-यह अल्पबहुत्व घटित नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्वके समान अनन्तानुबन्धियोंका दो छयासठसागरके बाहर सागरपृथक्त्व काल तक गलन नहीं होता ? यदि सागरपृथक्त्वकालसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्योन्याभ्यस्त राशि अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणी हीन है इस बातका अवलम्बन करनेसे प्रकृत अल्पबहुत्वका समर्थन किया जाय सो ऐसा करना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उद्वेलनाकालके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भी असंख्यातगुणेहीन उसके सागरपथक्त्वकालसे प्रतिबद्ध अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणे होनेका विरोध है । इसलिए यथोक्त न्यायके अनुसार इस अल्पबहुत्वको नीचे-ऊपर निक्षित करना चाहिए ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वके समान सागरपृथक्त्व काल तक गलाकर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनाके लिए उद्यत होने पर जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन किया है । यदि कोई ऐसी आशंका करे कि सागरपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करनेके लिए दो छयासठ सागर कालके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके शेष कषायोंमें से अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा बहत दव्य संक्रमित हो जाता है सो यहाँ पर ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आयको व्ययके अनुसार स्वीकार किया है। इससे स्वामित्व सूत्रके साथ विरोध आता है यह कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि स्वामित्व सूत्रमें यद्यपि सागर पृथक्त्वका निर्देश नहीं है तो भी इससे ही उस के अस्तित्वका समर्थन होता है।
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२.१८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * अपचक्खाणमाणे जहएणपदेससंकमो असंखेजगुणो। ६ २५०. कुदो ? बेछावद्विसागरोवमपरिभमणेण विणा लद्धजहण्णभावत्तादो। * कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहित्रो। * मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * लोहे जहषणपदेससंकमो विसेसाहिो । ॐ पञ्चक्खाणमाणे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। 8 कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिो। ॐ लोभे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६ २५१. एत्थ सव्वत्थ विसेसपमाणमावलि० असंखे० भागेण खंडिदेयखंडमेत्तं ।
ॐ बुंसयवेदे जहएणपदेससंकमो अणंतगुणो।
६ २५२. जइवि तिपलिदोवमाहियबेछावढिसागरोवमाणि परिगालिय णqसयवेदस्स जहण्णसामित्तं जादं, तो वि पुचिल्लदव्वादो अणंतगुणमेव णवंसयवेददव्यं होइ; देसघाइ पडिभागियत्तादो।
ॐ इत्थिवेदे जहण्णपदेससंकमो असंखेजगुणो । * उससे अप्रत्याख्यानमानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२५०. क्योंकि दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण किये बिना इसका जघन्यपना प्राप्त होता है।
* उससे अप्रत्याख्यानक्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानमायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यानलोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानमानका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानक्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानमायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानलोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२५१. यहाँ पर सर्वत्र विशेष अधिकका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित कर जो एक भाग लब्ध आवे उतना है । ___* उससे नपुसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम अनन्तगुणा है ।
.६२५२. यद्यपि तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागरको गलाकर नपुंसकवेदका जघन्य स्वामित्व उत्पन्न हुआ है तो भी पहलेके द्रव्यसे नपुंसकवेदका द्रव्य अनन्तगुणा ही है, क्योंकि प्रतिभाग होकर इसे देशघातिका द्रव्य मिला है।
* उससे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यात गुणा है ।
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२७६
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुश्र ६२५३. कुदो १ णवंसयवेदजहण्णसामियस्से वित्थिवेदजहण्णसामियस्स तिसु पलिदोवमेसु परिब्भमणाभावादो।
ॐ सोगे जहएणपदेससंकमो असंखेजगुणो।
६ २५४. कुदो? इत्थिवेदजहण्णसामियस्सेव पयदजहण्णसामियस्स बेछावट्टिसागरोत्रमाणमपरिब्भमणादो।
अरदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। . ६ २५५. कुदो ? पयडिविसेसेणेव सव्वकालमेदेसिमण्णोणं पेक्खिऊण सव्वत्थ विसेसहीणाहियभावेणावट्ठाणदंसणादो ।
* कोहसंजलणे जहएणपदेससंकमो असंखेज्जगुणो .
( २५६. कुदो ? विज्झादभागहारोवह्रिददिवड्डगुणहाणिमेत्तेइन्दियसमयपबद्धेहितो अधापवत्तभागहारो वट्टिदपंचिंदिय समयपबद्धस्सासंखेज्जगुणत्तुवलंभादो ।
ॐ माणसंजलणे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। . ६ २५७. किं कारणं १ कोहसंजलणदव्वमेयसमयपद्धस्स चउब्भागमेत्तं । माणसंजलणदव्वं पुण तत्तिभागमेत्तं, तेण विसेसाहियं जाद।।
* पुरिसवेदे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। २५८. कुदो ? समयपबद्धदुभागपमाणत्तादो।
६२५३. क्योंकि नपुंसकवेदके स्वामीके समान स्त्रीवेदका स्वामी तीन पल्यके भीतर परिभ्रमण नहीं करता।
* उससे शोकका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२५४. क्योंकि स्त्रीवेदके जघन्य स्वामीके समान प्रकृत जघन्य स्वामी दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण नहीं करता।
* उससे अरतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२५५. क्योंकि प्रकृतिविशेषके कारण ही सर्वदा इनका एक दूसरेको देखते हुए सर्वत्र विशेषहीन अधिक रूपसे अवस्थान देखा जाता है।
* उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
६२५६. क्योंकि विध्यातभागहारसे भाजित डेढ़गुणहानिमात्र एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धोंसे अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित पञ्चे न्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध असंख्यातगुणे उपलब्ध होते हैं।
* उससे मानसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२५७. क्योंकि क्रोधसंज्वलनका द्रव्य एक समय प्रबद्धके चौथे भागप्रमाण है। परन्तु मानसंज्वलनका द्रव्य उसके तृतीय भागप्रमाण है, इसलिए यह उससे विशेष अधिक है।
* उससे पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२५८. क्योंकि यह समयप्रबद्धके द्वितीय भागप्रमाण है।
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२८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * मायासंजलणे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ।
६२५६. कुदो ? दोहं पि समयपबद्धमाणत्ताविसेसे वि णोकसायभागादो कसायभागस्स पयडिविसेसमेत्तेणाहियत्तदंसणादो।
ॐ हस्से जहएणपदेससंकमो असंखेज्जगुणो।
६ २६०. कुदो ? अधापयत्तभागहारो बद्विददिवड्डगुणहाणिमेत्तेई दियसमयपबद्धेसु असंखेज्जाणं पंचिदियसमयपबद्धाणमुवलंभादो।
® रदीए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ५ २६१. केत्तियमेत्तेण ? पयडिविसेसमेत्तेण । ॐ दुगुंछाए जहएणपदेससंकमो संखेजगणो । २६२. कुदो ? हस्सरदिपडिवक्खबंधकाले वि दुगुछाए बंधसंभवादो।
भए जहएणपदेससंकमो विसेसाहित्रो। ६२६३. कुदो? पयडिविसेसादो। ॐ लोभसंजलणे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिो ।
६२६४. केत्तियमेत्तेण ? चउभागमेत्तेण। कुदो?णोकसायपंचभागमेत्तेण भयदव्वेण कसायचउभागमेतलोहसंजलणजहण्णसंक्रमदधे ओवहिदे सचउभागेगरूवागमदंसगादो।
* उससे मायासंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२५६. क्योंकि दोनोंके ही समयप्रबद्धोंके प्रमाणमें विशेषताके नहीं होने पर भी नोकषायके भागसे कषायका भाग प्रकृतिविशेष होनेके कारण अधिक देखा जाता है।
* उससे हास्यको जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
६२६०. क्योंकि अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित डेढ़ गणहानिप्रमाण एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धोंमें असंख्यात पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं ।
* उससे रतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२६१. कितना अधिक है ? प्रकृति विशेषमात्र अधिक है। * उससे जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है ।
६२६२. क्योंकि हास्य और रतिकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंक बन्धके समय भी जुगप्साका बन्ध सम्भव है।
* उससे भयका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
२६३. क्योंकि यह प्रकृति विशेष है। * उससे लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
६२६४. कितना अधिक है ? चतुर्थ भागमात्र अधिक है, क्योंकि नोकषायोंके पाँचवें भागमात्र भयके द्रव्यसे कषायोंके चतुर्थ भागमात्र लोभसंज्वलनके जघन्य संक्रमद्रव्यको भाजित करने पर चतुर्थभागके साथ एक पूर्णाङ्ककी प्राप्ति देखी जाती है (41x%3D%3D१)।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं
२८१ २६५. एवमोघप्पाबहुअं परूविय संपहि आदेसपरूवणाए णिरयगइपडिबद्धमप्याबहुअं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।।
* णिरयगईए सव्वत्योवो सम्मत्ते जहएणपदेससंकमो। ६२६६. सुगमं ।
8 सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो। ६२६७. एदपि सुगम, ओघम्मि परूविदकारणत्तादो। * अणंताणुबंधिमाणे जहएणपदेससंकमो असंखेज्जगुणो। ६२६८. एत्थ वि कारणमोघपरूवणाणुसारेण वत्तव्यं । * कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * लोभे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ । ६२६६. एदाणि तिणि वि सुत्ताणि सुबोहाणि । * मिच्छत्ते जहएणपदेससंकमो असंखेनगुणो।
६ २७०. दोण्हमेदेसि जइवि थोवण तेत्तीससागरोवमेत्तगोवुच्छागालणेण सम्माइटिचरिमसमयम्मि विज्झादसंकमेण जहण्णसामितमविसिटुं तो वि पुचिल्लादो एदस्सासंखेज्जगुणत्तमविरुद्धं, अधापवत्तभागहारसंभवासंभवं कय विसेसोवत्तीदो।
६२६५. इस प्रकार ओघ अल्पबहुत्वका कथन करके अब आदेश अल्पबहुत्वका कथन करने पर नरकगतिसे सम्बद्ध अल्पबहुत्वको करते हुए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं
* नरकगतिमें सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है । ६२६६. यह सूत्र सुगम है।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । .६२६७. यह भी सुगम है, क्योंकि ओवप्ररूपणाके समय इसके कारणका कथन कर आये हैं।
* उससे अनन्तानुबन्धीमानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । ६२६८. यहाँ पर भी कारणका कथन ओघप्ररूपणाके अनुसार कहना चाहिए । * उससे अनन्तानुवन्धी क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२६६. ये तीनों ही सूत्र सुबोध हैं। * उससे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
६ २७०. इन दोनोंका ही यद्यपि कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण गोपुच्छाओंके गलानेसे सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा जघन्य स्वामित्व अवस्थित है तो भी पहलेसे यह असंख्यातगुणा है इसमें कोई विरोध नहीं आता, क्योंकि अधःप्रवृत्तभागहारकी सम्भावना और असम्भावनाके निमित्तसे यह विशेषता बन जाती है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
अपञ्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो ।
६ २७१. किं कारणं ? खविद कम्मंसियल क्खरोणागंतूण गेरइ एसुप्पण्णपढमसमए
अधापवत्त संकमेणेदस्स सामित्तावलंबणा दो ।
२८२
* कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
* मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
* लोभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहियो । * पञ्चक्खाणमाणे जहणणपदेससंकमो विसेसाहिओ । * कोहे जहणपदेससंकमो विसेसाहियो ।
* मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
* लोभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहियो । विसेसपमाणमावलि०
६ २७२. एत्थ सव्वत्थ
घेतं ।
[ बंधगो ६
असंखे० भागपडिमा गियमिदि
* इत्थवेदे जहण्णपदेससंकमो अतगुणो ।
९ २७३. जइत्रि सम्मत्तगुणपा हम्मे णित्थीवेदस्स बंधवोच्छेदं काढूण तेत्तीससागरोवाणि देणाणि गालय विज्झादसंकमेग जहण्णसामित्तं जादं । तो विदेसघादिमाह - पेणातगुणत्त मेदस्स विल्लादोण विरुज्झदे |
* उससे अप्रत्याख्यानमानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
९ २७१. क्योंकि क्षपितकर्मा' शिकलक्षण से आकर नारकियोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें श्रधः प्रवृत्तसंक्रमके द्वारा इसके स्वामित्वका अवलम्बन किया गया है ।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
* उससे अप्रत्याख्यान मायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अप्रत्याख्यान लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यान मानका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे प्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान मायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
* उससे प्रत्याख्यान लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
६ २७२. यहाँ पर सर्वत्र विशेष का प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो लब्ध वे उतना लेना चाहिए ।
* उससे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम अनन्तगुणा है ।
६ २७३. यद्यपि सम्यक्त्वगुणके माहात्म्यवश स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति करके उसके साथ कुछ कम तेतीस सागर गलाकर विध्यातसंक्रमके द्वारा जघन्य स्वामित्व हुआ है तथापि देशघाति होनेके माहात्म्यवश इसका पूर्व प्रकृतिके प्रदेशसंक्रमसे अनन्तगुणा होना विरोधको नहीं प्राप्त होता ।
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२८३
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं * णवंसयवेदे जहएणपदेससंकमो संखेजगुणो। ६ २७४. कुदो ? बंधगद्धावसेणेदस्स तत्तो संखे०गुणत्तं पडि विरोहाभावादो। * पुरिसवेदे जहएणपदेससंकमो असंखेज्जगुणो।
६ २७५. कुदो ? खरिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण णेरइएसुप्पण्णस्स पडिवक्खबंधगद्धामेत्तगलणेण पुरिसवेदस्स अधापवत्तसंकमणिबंधणजहण्यसामित्तावलंभादो ।
ॐ हस्से जहएणपदेससंकमो संखेज्जगुणो।
६ २७६. कुदो ? पुरिसवेदबंधगद्धादो हस्सरइबंधगद्धाए संखेज्जगुणकमेणावट्ठाणदसणादो।
रदीए जहपणपदेससंकमो विसेसाहिओ। २७७. पयडि विसेसमेत्तेण। ॐ सोगे जहण्णपदेससंकमो संखेजगु०। ६ २७८. कुदो ? बंधगद्धापडिवद्धगुणगारस्स तहाभावोवलंभादो ।
अरदोए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६ २७६. केत्तियमेत्तेण ? पयडि विसेसमेण ।
ॐ दुगुंछाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६२८०. केतियमेत्तेण हस्सरदिवंधगद्धा पडिबद्धसंखेज्जदिभागमेत्तेण ।
* उससे नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है । ६२७४. क्योंकि बन्धककालके वशसे इसके उससे संख्यातगुणे होनेमें विरोध नहीं आता। * उससे पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
२५. क्योंकि क्षपितकमांशिक लक्षणसे आकर नारकियों में उत्पन्न हए जीवके प्रतिपक्ष बन्धककालके गलनेसे पुरुषवेदके अधःप्रवृत्तसंक्रम निमित्तक जघन्य स्वामित्व उपलब्ध होता है।
* उससे हास्यका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है।
६२७६. क्योंकि पुरुषवेदके बन्धक कालसे हास्य-रतिके बन्धककालका संख्यात गुणित रूपसे अवस्थान देखा जाता है।
* उससे रतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २७७. क्योंकि इसका कारण प्रकृति विशेषमात्र है। * उससे शोकका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है । ६२७८. बन्धक कालसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणकारकी इस प्रकारसे उपलब्धि होती है। * उससे अरतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २७६. कितना अधिक है ? प्रकृति विशेषमात्र अधिक है।
* उससे जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२८०. कितना अधिक है ? हास्य-रतिके बन्धककालके संख्यातवें ग अक्कि है।
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२८४
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
* भए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । ६ २८१. केत्तियमेतेण १ पय डिविसेसमेत्तेण ।
* माणसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहियो । २८२. केत्तियमेतेण १ चउब्भागमेत्तेण ।
* कोहसंजलणे जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । * मायासंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहियो ।
[ बंधगो ६
* लोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
1
९ २८३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं णिरयोघजहण्णप्पाबहुअं गयं । एसो चैव अप्पा बहुआलावा सत्तसु पुढवीसु अणुगंतव्त्रो, विसेसाभावादो | * जहा पिरयगईए तहा तिरिक्खगईए ।
२८४. सुगममेदमप्पणा सुत्तमप्पा बहुआलावगयत्रिसेसाभावमस्सिऊण पयट्टत्तादो । तदो खेरइयगईए अप्पा बहुगमणूणाहियं तिरिक्खगईए वि जोजेयव्त्रं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए मणुसतिए ओघभंगो | णवरि मरणुस्सिणीसु मायासंजलणस्सुवरि पुरिसवेदजहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । तदो हस्से जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । सेसमोघभंगेण णेदव्वं । पंचिं० तिरि०अपञ्ज • मणुस अपज्जत्तएस एवं दियभंगेणप्पा बहुअ मुवरि कस्सामो |
1
* उससे भयका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
२८१. कितना अधिक है ? प्रकृतिविशेषमात्र अधिक है ।
* उससे मानसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
§ २८२. कितना मात्र अधिक है ? चतुर्थभागमात्र अधिक है । * उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
* उससे मायासंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
* उससे लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
६२८३. ये सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार सामान्य नारकियोंका जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त
हुआ । यही अल्पबहुत्वका कथन सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है।
* जिस प्रकार नरकगतिमें है उसी प्रकार तिर्यञ्चगतिमें जानना चाहिए ।
§ २८४. यह अर्पणासूत्र सुगम हैं, क्योंकि अल्पबहुत्वगत विशेषता नहीं है इस बातका आश्रय लेकर इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है। इसलिए नरकगतिमें जो अल्पबहुत्व है उसे न्यूनाधिकता के बिना तिर्यञ्चगतिमें भी लगाना चाहिए । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिक के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें मायासंज्वलनके ऊपर पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । उससे हास्यका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यावगुण हैं। शेष घभंगके साथ ले जाना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपया जीवोंमें अल्पबहुत्व एकेन्द्रियोंके समान आगे करेंगे । यतः यह प्ररूपणा तिर्यब्चगति सामान्य
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गा० ५८
उत्तरपय उपदेसकमे पाहु
२८५
जेसा तिरिक्खगड़सामण्णपणा देसामासिया तेणेसो सव्त्रो अत्थविसेसो एत्यंत भूदो ति goat | संपहि देवईए णाणत्तपदपायणमुत्तरसुत्तमाह
* देवगईए णाणत्तं; एवंसयवेदादो इत्थिवेदो असंखेज्जगुणो । ६ २८५. देवगईए विणिरयगईभंगेणपाबहुअंगदव्वं । तं सवेदजहणपदेस संक्रमादो उवरि इत्थिवेद जहण्णपदेस संकमो असंखेज्जगुणो कायव्त्रो ति । रिगईए तिरिक्खगईए च इथिवेदादो णवुंसयवेदस्स संखेज्जगुणत्तोवलं भादो । किं कारणमेदं गाणत मिदि चे बुच्चदे - मयवेदस्य तिपत्तिदोमिस गलिद सेसस्स वेलावसागरोवमपरिन्भमणेण देवगईए जहण्यसा मित्तं । इत्थवेदस्स पुण तिपलिदो मिएस अणुपाइय ओघभंगेण वेछावद्विसागरोमाणि गालाविय जहण्णसामित्तविहाणमेदेण कारणेण णाणत्तमेदं णादव्वं ।
§ २८६. एवं गइमग्गणाए अप्पाबहुअविणिण्णयं काढूण संवहि सेसमग्गणाणमुत्रलक्खणभावेइ दिए पयद्याबहुअपरूवणमुत्तरं सुत्तपबंधमवत्तइस्लामो | इंदिए सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहणपदेससंकमो । २८७. सुगमं ।
की मुख्यता से देशामर्पक है, इसलिए यह सब अर्थ विशेष इसमें अन्तर्भूत है ऐसा जानना चाहिए । अब देवगतिमें नानात्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* देवगतिमें इतना भेद है कि नपुंसकवेदसे खीवेद असंख्यातगुणा है ।
२८५. देवगति में भी नरकगतिके समान अल्पबहुत्व जानना चाहिए । परन्तु इतना भेद है कि नपुंसक वेद के जघन्य प्रदेशसंक्रमसे आगे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा करना चाहिए, क्योंकि नरकगति और तिर्यञ्चगतिमें स्त्रीवेदसे नपुंसक वेद संख्यातगुणा उपलब्ध होता है ।
शंका- नानात्वका क्या कारण है ?
समाधान- - कहते हैं - नपुंसकवेदका तीन पल्यकी आयुवालोंमें गलकर जो अन्तमें शेष बचता है उसके साथ दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण करने के अनन्तर देवगति में जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है | परन्तु स्त्रीवेदका तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न न कराकर घ समान दो छ्यासठ सागर काल गला कर जघन्य स्वामित्व कहा गया है । इस कारण से अल्पबहुत्व सम्बन्धी यह भेद जान लेना चाहिए ।
९ २८६ . इस प्रकार गतिमार्गणा में अल्पबहुत्वका लक्षणरूपसे एकेन्द्रिययोंमें प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन बतलाते हैं
निर्णय करके अब शेषमार्गणाओं के उपकरनेके लिए आगे के सूत्रप्रबन्धको
* एकेन्द्रियों में सम्यक्त्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम सबसे स्तोक है । ६२८७. यह सूत्र सुगम है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * सम्मामिच्छत्ते जहणणपदेससंकमो असंखेजगुणो। ६२८८. सुगममेदमोघादो अविसिट्ठकारणपरूवणतादो।
ॐ अणंताणुबंधिमाणे जहएणपदेससंकमो असंखेजगुणो ।
६ २८६. कुदो ? अधापयत्तभागहारवग्गेण खंडिददिवड्डगुणहाणिमेत्तजहण्णसमयपबद्धपमाणत्तादो । तं पि कुदो ? विसंजोयणापुव्यसंजोगेण सेसकसाएहितो अधापातसंकमेग पडिपिछदःवविदकम्मंसियदव्येण सह समयाविरोहेण सयलहुमेइदिएसुप्पण्णस्स पढमसमए अधापवत्तसंकमेण पयदजहण्गसामित्तावलंबणादो।
* कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिो । * मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिो । * लोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिो। ६२६०. एदाणि सुताणि सुगमाणि ।
ॐ अपचक्खाणमाणे जहएणपदेससंकमो असंखेजगुणो ।
६ २६१. कुदो? खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण दिवड्डगुणहाणिमेत्तजहण्णसमयबद्धेहिं सह एइंदिएसुप्पण्णपढमसमए अधापवत्तसंकमेण पडिलद्ध जहण्णभावत्तादो। एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारमेत्तो ।
* सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है। ६२८८. यह सूत्र सुगम हैं, क्योंकि इसके कारणका कथन ओघके समान ही है । * उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है।
६२८६. क्योंकि वह अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गसे भाजित डेढ़ गुणहानिमात्र जघन्य समयप्रबद्धप्रमाण है।
शंका-वह भी कैसे ? .
समाधान-क्योंकि विसंयोजनापूर्वक संयोगके कारण शेष कषायोंमें से अघःप्रवृत्त संक्रम प्राप्त हुए क्षपित कर्मा शिक द्रव्यके साथ यथाविधि अति शीघ्र एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए जीवके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा प्रकृत जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन किया गया है।
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । ६२६०. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे अप्रत्याख्यान मानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है ।
६२६१. क्योंकि क्षपितकर्मा शिक लक्षणसे आकर डेढ़ गुणहानिमात्र जघन्य समयप्रबद्धों के साथ एकन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा जघन्यपनेकी प्राप्ति होती है । यहाँ पर गणकार अधःप्रवृत्त भागहार प्रमाण है।
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गा०५८]
. उत्तरपयडिपदेससंकमे अप्पाबहुअं कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहित्रो। * लोभे जहएणपदेससंकमो विसेसाहित्रो। ॐ पच्चक्खाणमाणे जहएणपदेशसंकमो विसेसाहिओ। * कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। * लोभे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिो । ६ २६२. एदाणि सुत्ताणि पयडिविसेसमेत्तकारणगब्भाणि सुगमाणि । * पुरिसवेदे जहण्णपदेससंकमो अणंतगुणो। 9 २६३. कुदो ? देसघादिकारणावेक्खित्तादो।
* इत्थिवेदे जहएणपदेससंकमो संखेजगुणो । ६२६४. कुदो ? बंधगद्धावसेण तावदिगुणत्तोवलंभादो। * हस्से जहएणपदेससंकमो संखेज्जगुणो। ६ २६५. एत्थ वि बंधगद्धावसेण संखेजगुणत्तसिद्धी दट्ठव्या । * रदोए जहणणपदेससंकमो विसेसाहित्रो।
* उससे अप्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान मायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान मानका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान मायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे प्रत्याख्यान लोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६ २६२. इन सूत्रोंमें प्रकृति विशेषमात्र कारण गर्भित है, इसलिए ये सुगम हैं। * उससे पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम अनन्तगुणा है। ६२६३. क्योंकि इसका कारण देशघातिपना है। * उससे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है। ६२६४. क्योंकि बन्धककालवश उतने गुणेकी उपलब्धि होती है। * उससे हास्यका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है । ६२६५. यहाँ पर भी बन्धक कालवश संख्यातगुणे की सिद्धि जान लेनी चाहिए। * उससे रतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
९ २६६. पयडिविसेसवसेण विसेसाहियत्तमेत्थ दट्ठव्वं । * सोगे जहणणपदेससंकमो विसेसाहियो ।
§ २६७. कुदो ? पुव्विल्लबंधगद्धादो संखेज्जगुणबंधगद्धाए संचिददव्त्रानुसारेण संकमपवृत्ति अन्भुवगमादो ।
* अरदीए जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो ।
२६८. पडिविसेसमेत मेत्थ कारणं ।
* एवं सयवेदे जहणपदेससंकमो विसेसाहियो ।
२६. केत्तियमेत्तेण १ इत्थिपु रिसवेदबंधगद्धापरिसुद्धहस्सर दिबंधगद्धा पडिबद्धसंचयमेत्तेण ।
* दुर्गुछाए जहण्णपदेससंकमो विसे साहियो । ३००. त्तियमेत्ते ? इत्थपुरिसवेदबंधगद्धासंचयमेत्तेण । * भए जहणणपदेस संकमो विसेसाहिओ ।
९ ३०१. केत्तियमेत्तो विसेसो ? पयडिविसेसमेत्तो ।
* माणसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
९ ३०२. केत्तियमेत्तो विसेसो ? चउन्भागमेत्तो ।
* कोहे जहणपदेससंकमो विसेसाहित्र ।
[ बंधगो ६
§ २६६. प्रकृति विशेष होनेके कारण यहाँ पर विशेष अधिकपना जान लेना चाहिए । * उससे शोकका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यातगुणा है ।
२७. क्योंकि पूर्व प्रकृतिके बन्धक कालसे संख्यातगुणे बन्धक कालमें सञ्चित हुए द्रव्यके अनुसार संक्रमकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है ।
* उससे अरतिका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
६ २६८. प्रकृति विशेषमात्र यहाँ पर कारण है ।
* उससे पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
§ २६६. कितना अधिक है ? स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालसे न्यून हास्य रतिके बन्धक कालके भीतर जितना सञ्चय होता है उतना अधिक है ।
* उससे जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
३००. कितना अधिक है ? स्त्रीवेद-पुरुषवेदके बन्धककालमें हुआ सयमात्र अधिक है । * उससे भयका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
३०१. विशेषका प्रमाण कितना है ? प्रकृतिविशेषमात्र विशेषका प्रमाण * उससे मान संज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । ६ ३०२. विशेषका प्रमाण कितना है ? चतुर्थ भागमात्र विशेषका प्रमाण है । * उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है ।
है
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nt० ५८]
उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो ॐ मायाए जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ।
लोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६३०३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवमेइंदिएसु जहण्णप्पाबहुअं समत्तं । एदं चेव सव्ववियलिदिएसु पंचि०तिरिक्खमणुस-अपजत्तएसु वि विहासियव्वं, विसेसाभावादो । पंचिंदिएसु ओघभंगो । एवं जाव ।
___ एवं जहण्णपदेससंकमप्पाबहुअं समत्तं ।
__ तदो चउवोसमणिओगद्दाराणि समत्ताणि । * भुजगारस्स अट्ठपदं।
( ३०४. एत्तो पदेससंकमस्स भुजगारोकायव्यो; पत्तावसरत्तादो। तत्थ य ताब अट्ठपदं परूवइस्सामो त्ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तं ।
* एपिंह पदेसे बहुदरगे संकामेदि त्ति उसकाविदे, अप्पदरसंकमावो एसो भुजगारसंकमो।
६३०५. एदस्स सुत्तस्स पदसंबंधो एवं कायव्यो। तं जहा—उसकाविदे अणंतरविदिक्कतसमए अप्पयरसंकमादो थोबयरपदेससंकमादो एण्हिं वट्टमाणसमए बहुदरगे बहुवयरसंखावच्छिण्णे कम्मपदेसे संकामेदि त्ति एसो एवं लक्खणो भुजगारसंकमो दट्टयो
* उससे मायासंज्वलनका जघन्य देशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे लोभसंज्वलनका जघन्य देशसंक्रम विशेष अधिक है।
६ ३०३. ये सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इसे ही सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें समझ लेना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है। पञ्चेन्द्रियोंमें ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
इस प्रकार जघन्य प्रदेश संक्रम अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इससे चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए।
भुजगार अनुयोगद्वार * अब भुजगार के अर्थपदको कहते हैं।
६३०४. इससे आगे प्रदेशसंक्रमका भुजगार करना चाहिए, क्योंकि उसका अवसर प्राप्त है । उसमें भी सर्व प्रथम अर्थ पदको बतलाते हैं । इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र आया है।
* अनन्तर व्यतीत हुए समयमें हुए अल्पतर संक्रमसे वर्तमान समयमें बहुत प्रदेशका संक्रम करता है यह भुजगार संक्रम है।
६३०५. इस सूत्रका पदसम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिए । यथा-'ओसक्काविदे' अर्थात् अनन्तर व्यतीत हुए समयमें 'अप्पयरसंकमादो' अर्थात् स्तोकतर प्रदेश संक्रमसे 'एण्हि' अर्थात् वर्तमान समर में 'बहुदरगे' अर्थात् बहुतर संख्यासे युक्त कर्म प्रदेशोंको संक्रमित करता है इसलिए
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ त्ति । कुदो उण तारिसस्स संकमभेदस्स भुजगार-ववएसो १ ण, बहुदरीकरणं च भुजगारो त्ति तस्स तव्ववएसोववत्तीदो।
® एपिंह पदेसअप्पदरगे संकामेदि ओसकाविदे बहुदरपदेससंकमादो । एस अप्पयरसंकमो।
३०६. अत्रापि पूर्ववत्पदघटना, ततोऽयं सूत्रार्थः-इदानीमल्पतरकान् प्रदेशान् संक्रामयतीत्ययमल्पतरसंक्रमः । कुतोऽल्पतरत्वमिदानीतनस्य प्रदेशसंक्रमस्य विवक्षितमिति चेदनन्तरातिक्रान्तसमयसम्बन्धिबहुतरप्रदेशसंक्रमविशेषादिति ।
ॐ ओसकाविदे एण्हिं च तत्तिगे चेव पदेसे संकामेदि त्ति एस अवहिदसंकमो।
६३०७. अनन्तरव्यतिक्रान्तसमये साम्प्रतिके च समये तावत एव प्रदेशाननूनाधिकान् संक्रामयतीत्यतोऽवस्थितसंक्रम इत्युक्तं भवति ।। .. असंकमादों:संकामदि त्ति अवत्तव्वसंकमो।
६३०८. पूर्वमसंक्रमादिदानीमेव संक्रमपर्यायमभूतपूर्वमास्कन्दयतीत्यस्यां विवक्षायामवक्तव्यसंक्रमस्यात्मलाभ इत्युक्तं भवति । अस्य चावक्तव्यव्यपदेशोऽवस्थात्रयपति'एसो' अर्थात् इस प्रकारके लक्षणवाला भुजगार संक्रम जानना चाहिए।
शंका-इस प्रकारके संक्रमके भेदकी भुजगार संज्ञा क्यों है ?
समाधान नहीं, क्योंकि बहुतर करना भुजगार है, इसलिए इसकी भुजगार संज्ञा बन जाती है।
* अनन्तर व्यतीत हुए समयमें हुए बहुतर संक्रमसे वर्तमान समयमें अल्पतर प्रदेशोंका संक्रम करता है यह अल्पतर संक्रम है।
६ ३०६. यहाँ पर भी पहलेके समान पदघटना है, इसलिए सूत्रका अर्थ इस प्रकार होता हैइस समय अल्पतर प्रदेशोंको संक्रमाता है, इसलिए यह अल्पतर संक्रम है। इस समयके प्रदेशोंका अल्पतरपना किसकी अपेक्षासे विवक्षित है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि अनन्तर व्यतीत हुए समय सम्बन्धी बहुतर प्रदेशसंक्रम विशेषकी अपेक्षासे यह विवक्षित है ।
* अनन्तर व्यतीत हुए समयमें और वर्तमान समयमें उतने ही प्रदेशोंको संक्रमाता है यह अवस्थितसंक्रम है।
६३०७. अनन्तर व्यतीत हुए समयमें और वर्तमान समयमें न्यूनाधिकतासे रहित उतने ही प्रदेशोंको संक्रमाता है, इसलिए यह अवस्थित संक्रम है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* असंक्रमसे प्रदेशोंको संक्रमाता है यह अवक्तव्य संक्रम है। . .
६३०८. पहले असंक्रमरूप अवस्था थी उससे इस समय ही संक्रमरूप अभूतपूर्व पर्यायको प्राप्त होता है इस प्रकार इस विवक्षाके होने पर अवक्तव्य संक्रमका आत्मलाभ होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसकी अवक्तव्य संज्ञा अवस्थात्रयके प्रतिपादक शब्दोंके द्वारा अनभिलाप्य
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गा०५८]
उत्तरपयांडपदेससंकमे भुजगारो पादकैरभिलापैरनभिलाप्यत्वादिति प्रतिपत्तव्यम् ।
8 एदेण अट्ठपदेण तत्थ समुकित्तणा।
६३०६. एदेणाणतरं णिद्दिद्वेण?पदेण भुजगारसंकमे परूवणिज्जे तेरसाणियोगद्दाराणि तत्थ णादव्बाणि भवंति समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए ति । तत्थ ताव सामित्तादीणमणियोगद्दाराणं जोणीभूदा समुक्कितणा अहिकीरदि ति जाणाविदमेदेण सुत्तेण । तत्थ वि ओघादेसभेदेण दुविहणिद्देससंभवे ओघणिदेसं ताव कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।
मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवडिद-अवत्तव्व-संकामया अत्थि। ६३१०. मिच्छत्तस्स पदेसग्गभेदेहि चउहि मि पयारेहि संकामेंता जीवा अत्थि ति समुक्कित्तिदं होदि । तत्थेदेसि पदाणं संभवविसयो इत्थमणुगंतव्यो । तं जहा--अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे पढमसमये मिच्छत्तस्स विज्झादेणावत्तव्यसंकमो होइ । पुणो विदियादिसमएसु भुजगारसंकमो अवविदसंकमो अप्पयरसंकमो वा होइ जाव आवलियसम्माइट्ठि ति । तत्तो उपरि सव्वत्थ वेदयसम्माइडिम्मि अप्पयरसंकमो जाव दंसणमोहक्खवणाए अपुचकरणं पविट्ठस्स गुणस्संकमपारंभो ति गुणसंकमविसए सम्वत्थेव भुजगारसंकमो दट्टयो। उवसमसम्मत्तं पडिवण्णस्स वि पढमसमए अवत्तव्यसंकमो विदियादिसमएसु भुजगारसंकमो जाव गुणसंकमचरिमसमयो ति । तदो विज्झादसंकमविसए सव्वत्थ अप्पयरसंकमो त्ति घेत्तव्यं । होनेसे है ऐसा यहाँ जान लेना चाहिए ।
* इस अर्थपदके अनुसार प्रकृतमें समुत्कीर्तना कहते हैं।
६३०६. 'एदेण' अर्थात् अनन्तर निर्दिष्ट किये गये अर्थपदके अनुसार भुजगार संक्रमकी प्ररूपणा करने पर उसके विषयमें समुत्कीतेनासे लेकर अल्पबहत्व तक ये तेरह अनयोगद्वार उनमेंसे सर्व प्रथम स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंका योनिभूत समुत्कीर्तना अधिकृत है यह इस सूत्र द्वारा जताया गया है । उसमें भी ओघ और आदेशसे दो प्रकारका निर्देश सम्भव होने पर सर्व प्रथम ओघ निर्देशको करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं।
* मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामक जीव हैं।
६३१०. मिथ्यात्वके प्रदेशोंके इन चार प्रकारोंसे संक्रमण करनेवाले जीव हैं इस प्रकार इस सूत्र-द्वारा यह समुत्कीर्तना की गई है। उसमेंसे इन पदोंका सम्भव विषय यहाँ पर समझ लेना चाहिए। यथा-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके प्राप्त होने पर प्रथम समयमें मिथ्यात्वका विध्यात संक्रमके द्वारा अवक्तव्य संक्रम होता है। पुनः द्वितीयादि समयोंमें भुजगार संक्रम, अवस्थित संक्रम या अल्पतर संक्रम होता है । जो सम्यग्दृष्टिके एक आवलिप्रमाण काल जाने तक होता है। उसके आगे सर्वत्र वेदकसम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके गुण संक्रमके प्रारम्भ होने तक अल्पतर संक्रम होता है । गुणसंक्रमकी अवस्थामें सर्वत्र ही भुजगारसंक्रम जानना चाहिए। उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके भी प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रम होता है और द्वितीयादि समयोंमें गुणसंक्रमके अन्तिम समय तक भुजगार संक्रम होता है । इसके बाद विध्यातसंक्रमके होने पर सर्वत्र अल्पतरसंक्रम ग्रहण करना चाहिए।
पर ज्ञातव्य हैं
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[बंधगो ६ * एवं सोलसंकसाय-पुरिसवेद-भय दुगुंछाणं ।
६३११.एदेसिं च कम्माणं मिच्छत्तस्सेव भुजगार-अप्पयर-अवट्ठिद-अवत्तव्यसंकामयाणमत्थित्तं समुक्कित्तियबामदि भणिदं होइ। जत्थागमादो णिज्जरा थोवा, तत्थ भुजगारसंकमो, जत्थागमादो णिज्जरा बहुगी एयंतणिज्जरा चेव वा, तत्थ अप्पयरसंकमो। जम्हि विसए दोण्हं पि सरिसभावो, तम्हि अवविदसंकमो । असंकमादो संकमो जत्थ, तत्थावत्तव्यसंकमो त्ति पुव्वं व सबमेत्थाणुगंतव्यं । णवरि अवत्तव्यसंकमो बारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुछाणं सव्योवसामणापडिवादे अणताणुवंधोणं च विसंजोयणा [ण] अपुब्बसंजोगे दट्टव्यो ।
* एवं चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-इत्थिवेद-णबुंसयवेद-हस्स-रह-रहसोगाणं । णवरि अवढिदसंकामगा पत्थि।।
६ ३१२. संपहि भुजगार-अप्पदरावत्तव्बसंकामयसंभवो एदेसु सुगमो त्ति कट्ट अवविदसंकमासंभवे किं चि कारणपरूवणं कस्सामो। सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं ताव गावट्टिदसंकमसंभवो; बंधसंबंधेण विणा तेसिमागमणिज्जराणं सरिसीकारणो वायाभावादो। इत्थिवेदादीणं पि सांतरबंधीणं सगबंधकाले भुजगारसंकमो चेत्र; णिज्जरादो तत्थागमस्स बहुत्तोवलंभादो। अबंधकाले वि अप्पयरसंकमो चेव; पडिसमयं तेसिं पदेसग्गस्स तत्थ
* इसी प्रकार सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए।
६३११. इन कर्मों के मिथ्यात्वके समान भुजगार,अल्पतर,अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंके अस्तित्वका समुत्कीर्तन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जहाँपर आगमके अनुसार निर्जरा स्तोक है वहाँ पर भुजगारसंक्रम होता है, जहाँ पर आगमके अनुसार निर्जरा बहुत हैएकान्तसे निर्जरा ही है वहाँपर अल्पतरसंक्रम होता है. जहाँपर दोनोंकी ही समानता है वहाँपर अवस्थितसंक्रम होता है और जहाँपर असंक्रम अवस्थाके बाद संक्रम है वहाँपर अवक्तव्यसंक्रम होता है । इस प्रकार पहलेके समान सब यहाँ पर जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका अवक्तव्यसंक्रम सर्वोपशामनासे गिरने पर और अनन्तानुबन्धियोंका अवक्तव्यसंक्रम विसंयोजनापूर्वक संयोगके होने पर जानना चाहिए।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है इनके अवस्थित संक्रामक जीव नहीं हैं।
६३१२. अब इन प्रकृतियों के विषयमें भुजगार,अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकोंकी जानकारी सुगम है इसलिए अवस्थित संक्रमकी सम्भावनामें जो कुछ कारण है उसका - कथन करते हैंसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका तो अवस्थितसंक्रम इसलिए सम्भव नहीं है, क्योंकि बन्धके सम्बन्धके बिना उनके आगमन और निर्जराको एक समान करनेका कोई उपाय नहीं है । स्त्रीवेद आदि भी सान्तर.बन्ध प्रकृतियोंका अपने बन्धकालमें भुजगारसंक्रम ही होता है, क्योंकि वहाँ पर निर्जराकी अपेक्षा प्रदेशोंका आगमन बहुत देखा जाता है। अबन्धकालमें भी अल्पतरसंक्रम ही होता है, क्योंकि प्रति समय वहाँ पर उनके प्रदेशोंकी निर्जराको छोड़कर सन्चय नहीं पाया जाता।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो गलणं मोत्तण संचयाणुवलद्धीदो। तदो ण तेसिमवद्विदसंक्रमसंभवो ति । किं कारणमेदेसिं बंधकाले आगमणिज्जराणं सरिसत्ताभावो चे वुच्चदे-इत्थिवेद-हस्स-रदीणमेयसमयणिज्जरा समयपबद्धस्स संखेज्जदिभागमेती होइ । णqसयवेदारइसोगाणं पि संखेज्जभागूणसमयपबद्धमत्ता होइ; बंधगद्धापडिभागेण संचयगोवुच्छाणमवट्ठाणब्भुवगमादो। आगमो पुण सव्वेसिमेयसमयपबद्धो संपुण्णो लब्भदे; तत्कालियणवकबंधस्स णिप्पडिवक्खमेदेसि बंधकाले समागमणदंसणादो । एदेण कारणेण परावत्तणपयडीणमवद्विदसंकमो णत्थि त्ति सिद्धं पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालं पिरंतरबंधेण विणा आगमणिज्जराणं सरिसभावाणुप्पत्तीदो।
एवमोघसमुक्त्तिणा गदा । ६ ३१३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-अणंताणु०४चउक्क०-सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमोघं । बारसक०-पुरिसवेद-भय-दुगुछ० अत्थि भुज० अप्प० अवढि० । इत्थि. णउंस० हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमस्थि भुज० अप्प० । एवं सत्रणेरइयतिरिक्ख४ देवा भवणादि जाव णगेवजा ति पंचिंदियतिरिक्खमणुसअपज्ज० सम्म०-सम्मामि० तिण्णिवेद-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमत्थि भुज० अप्प०। [मिच्छ०]सोलसक० भयदुगुछ० अत्थि भुज०अप्प० अबढि० । मणुसतिए ओघं । अणुद्दिसादि सबट्ठा त्ति मिच्छ०-सम्मामि०-इस्थिइसलिए इनका भी अवस्थितसंक्रम सम्भव नहीं है ।
शंका-इनका बन्धकालमें आगमन और निर्जरा समान नहीं होते इसका क्या कारण है ?
समाधान-स्त्रीवेद हास्य और रतिकी एक समयमें होनेवाली निर्जरा समयप्रबद्धके संख्यातवें भागप्रमाण होती है। नपुंसकवेद, अरति और शोककी मी संख्यातवाँ भाग कम समयप्रबद्धप्रमाण निर्जरा होती है, क्योंकि बन्धककालको प्रतिभाग करके सञ्चय गोपुच्छाओंका अवस्थान उपलब्ध होता है। परन्तु उक्त सभी कर्मोकी आय सम्पूर्ण एक समयप्रबद्धप्रमाण उपलब्ध होती है, क्योंकि इन कर्मोंके बन्धकालके भीतर तत्काल होनेवाले नवकबन्धका प्रतिपक्षके बिना आ मन देखा जाता है। इस कारणसे बदल-बदल कर बंधनेवाली प्रकृतियोंका अवस्थितसंक्रम नहीं होता यह सिद्ध हुआ, क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक निरन्तर बन्धके बिना आगमन और निर्जराकी समानता नहीं बन सकती।
इस प्रकार ओघसमुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६३१३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओषके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामक जीव हैं । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक जोक हैं । इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यञ्चचतुष्क, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्च न्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति और शोकके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक जीव हैं । मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार अल्पतर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ णवंस० अत्थि अप्प० । अणंताणु०४-चदुणोक० अत्थि भुज० अप्प० । बारसक०पुरिसवेद-भय-दुगुछा० अत्थि भुज० अप्प० अवट्ठिः । एवं जाव० ।
सामित्तं ।
३१४. एवं समुक्कित्तिदाणं भुजगारादिपदाणमिदाणिं सामित्तमहिकीरदि त्ति अहियारसंभालणमेदेण कयं होइ। तस्स दुविहो णिद्द सो ओघादेसभेएण। तत्थोघेण पयडि परिवाडीए भुजगारादिपदाणं मित्त विहाणं कुणमाणो पुच्छावकमाह ।
* मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामो को होइ ? ६३१५. सुगम।
* पढमसम्मत्तमुप्पादयमाणगो पढमसमए अवत्तव्वसंकामगो। सेसेसु समएसु जाव गुणसंकमो ताव भुजगारसंकामगो।
६३१६. पढमसम्मत्तमुप्पादेमाणगो तदुप्पत्तिपढमसमए मिच्छत्तस्सावत्तव्वसंकमं कुणइ । पुनमसंकेतस्स तस्स ताघे 'चेच सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण . संकंतिदसणादो ।
सेसेसु पुण विदियादिसमएसु भुजगारसंकामगो होदि जाव - गुणसंकमचरिमसमओ • ति । कुदो ? पडिसमयमसंखेज्जगुणाए सेढीए गुणसंकमेण मिच्छत्तपदेसग्गस्स तत्थ संकंति
AAAAAA.A.A.ALAN
और अवस्थित संक्रामक जीव हैं । मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतरसंक्रम जीव हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क और चार नोकषायोंके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक जीव हैं । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितसंक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए।
* अब स्वामित्वका अधिकार है।
६ ३१४. इस प्रकार जिनकी समुत्कीर्तना की है ऐसे स्वामित्व आदि पदों का इस समय स्वामित्व अधिकृत है इस प्रकार इस सूत्र द्वारा अधिकारकी सम्हाल की गई है। उसका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघको अपेक्षा प्रकृतियोंके क्रमानुसार भुजगार आदि पदोंके स्वामित्वका विधान करते हुए पृच्छावाक्यको कहते हैं
* मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक कौन है ? ६३१५. यह सूत्र सुगम है।
* प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला जीव प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रामक है। शेष समयोंमें गुणसंक्रमके होने तक भुजगार संक्रामक है।
६३१६. प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला जीव उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्वका अवक्तव्यसंक्रम करता है, क्योंकि पहले संक्रमित नहीं होनेवाले उसका उस समय ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वरूपसे संक्रमण देखा जाता है। परन्तु द्वितीयादि शेष समयोंमें गुणसंक्रमके अन्तिम समय तक भुजगार संक्रामक होता है, क्योंकि प्रत्येक समयमें असंख्यात गुणित श्रेणिरूपसे गुणसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वके प्रदेशोंका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
दंसणादो | एवं पढमसम्मत्तप्पत्तीए विदियादिसमएस अंतोमुहुत्तमेत्तगुणसंकमकालपडिबद्धं भुजगार संकमसामित्तं परूविय - पयारंतरेण वि तस्स संभवपदुष्पायणमुवरिमत्तं मणइ । * जो वि दंसणमोहणीयक्खवगो पुव्वकरणस्स पढमसमयमादिं कादूण जाव मिच्छ्रुत्तं सव्वसंकमेण संछुहदि त्ति ताव मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो ।
२६५
$ ३१७. जो विदंसणमोहणीय खत्रगो सो वि मिच्छत्तस्स भुजगार संकामगो होदित्ति एत्थ पदाहिसंबंधी । तत्थ वि अधापवत्तकरणपढमसमयप्पहुडि भुजगार संकमसामित्ताइप्प संगे तण्णिवारणमिदं वुत्तमपुव्यकरणघढमसमयमादि काढूण इच्चादि । अपुत्रकरणद्धार सव्वत्थ अणियट्टिकरणद्धाए च जाव मिच्छत्तस्स सव्त्रसंकम समयो ? ताव अंतमुत्तमेत्तकालं गुणसंक्रमेण भुजगार संकामगो होइ त्ति भणिदं होइ । वसो विदियो सामित्तपयारो शिद्दिट्ठो । संपहि तदियो वि पयारो मिच्छत्तभुजगारपदेस संक्रामयस्स संभवइति पदुप्पाएमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाह
* जो वि पुव्वुप्परणेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तमागदो तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स जं बंधादो आवलियादोदं मिच्छत्तस्स पदेसग्गं तं विज्झादसंकमेण संकामेदि । श्रावलियचरिमसमयमिच्छाइडिमादिं काढूण देखा जाता है । इस प्रकार प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होने पर द्वितीयादि समय में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण गुणसंक्रमकालसे सम्बन्ध रखनेवाले भुजगार संक्रम सम्बन्धी स्वामित्वका कथन करके प्रकारान्तरसे भी वह सम्भव है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
* और जो भी दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव है वह अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर जिस स्थान पर सर्वसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वका संक्रमण करता है उस स्थान तक मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक है ।
1
§ ३१७. जो भी दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव है वह भी मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रामक होता है इस प्रकार यहाँ पर पदसम्बन्ध करना चाहिए। उसमें भी अधः प्रवृत्तकरण के प्रथम समयसे लेकर भजगार संक्रमके स्वामित्वका अतिप्रसङ्ग प्राप्त होने पर उसका निवारण करनेके लिए " पूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर' इत्यादि वचन कहा है । अपूर्वकरणके काल में सर्वत्र और निवृत्तिकरण के कालमें जब जाकर मिथ्यात्वका सर्व संक्रम होता है वहाँ तक अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणसंक्रमके द्वारा भुजगार संक्रामक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार यह दूसरा स्वामित्व प्रकार निर्दिष्ट किया है । अब मिथ्यात्वके भजगार प्रदेश संक्रामकाका तीसरा प्रकार भी सम्भव है इस बातका कथन करते हुए आगे सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
-
* तथा जो भी पूर्वोत्पन्न (वेदक ) सम्यक्त्वके साथ मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमें आया है उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके बन्धकी अपेक्षा जो एक आवलि पूर्वके अर्थात् द्विचरमावलि मिथ्यात्वके प्रदेश हैं उन्हें विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रमाता है । आवलिके
१. विसयो ता० ।
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३६६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
बंधगो ६
जाव चरिमसमयमिच्छाइट्ठि त्ति । एत्थ जे समयपबद्धा ते समयपबडे पढमसमयसम्माइट्ठित्ति ण संकामेह । सेकालप्पहुडि जस्स जस्स बंधावलिया पुरणा तदो तदो सो संकामिज्जदि । एवं पुव्वुष्पाइदेण सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जइ तं दुसमयसम्माइट्ठिमादिं काढूण जाव आवलियसम्माइट्ठिति तावमिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो होज्ज ।
§ ३१८. एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा - जो जीवो पुव्वुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तं गंतूण पुणो अविणट्ठवेदगपाओग्गकालब्भंतरे चैव सम्मत्तमुवगओ तस्स पढमसमयसम्म इट्ठस्स मिच्छत्तं चिराणसंतकम्मं सव्वमेव संकमपाओग्गं होइ । तं पुण सो विज्झादसंकमेणावत्तव्त्रभावेण संकामेदि त्ति पण तत्थ भुजगारसंकमसंभवो । किंतु मिच्छाइट्ठिचरिमावलियणवकबंध समयपत्रद्धे अस्सिऊण तस्स विदियादिसमएस भुजगारसंकमो संभवइ । तं कधमावलियचरिमसमयमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव चरिमसमयमिच्छाइट्ठति । एत्यंतरे जे बद्धा समयपत्रद्धा ते पढमसमयसम्माइट्ठी ण संकामेइ । कुदो १ तत्थ तेसि बंधावलियाएं असमत्तीदो। णवरि आवलियचरिमसमयमिच्छाइट्टिणा बद्धसमयपबद्धो तत्थ संकमपाओग्गो होदि; मिच्छाइट्ठिचरिमसमए पूरिदबंधावलियत्तादो । जइ एवं, तमादि चरम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि तक इस अन्तकालमें जो समयमबद्ध हैं उन समयबद्धों को प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव नहीं संक्रमाता है तदनन्तर कालसे लेकर जिस जिसकी बन्धावलि पूर्ण होती जाती है वहाँ से लेकर उस उस समयबद्धको वह संक्रमाता है । इस प्रकार पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ जो सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस सम्यग्दृष्टिके दूसरे समय से लेकर सम्यग्दृष्टि होने के एक आवलि काल तक वह मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक है ।
1
§ ३१ . अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा- - जो जीव पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ मिध्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः नहीं नष्ट हुए वेदककालके भीतर ही सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवतीं सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका प्राचीन सत्कर्म सभी संक्रमणके योग्य है । परन्तु उसे वह विध्यातसंक्रमके द्वारा अवक्तव्य रूपसे संक्रमाता है, इसलिए वहाँ पर भुजगारसंक्रम सम्भव नहीं है। किन्तु मिध्यादृष्टिको अन्तिम आवलिके नवकबन्ध समयप्रबद्धों का आलम्बन लेकर उसके द्वितीयादि समयोंमें भजगार संक्रम सम्भव है ।
शंका- सो कैसे ?
समाधान — उक्त श्रावलिके चरम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होने तक इस अन्तराल में जो समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त हुए हैं उन्हें प्रथन समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव नहीं संक्रमाता है, क्योंकि वहाँ पर उनकी बन्धावलि समाप्त नहीं हुई है । इतनी विशेषता है कि उक्त आवलिके अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके द्वारा बन्धको प्राप्त हुआ समयप्रबद्ध
१. 'त' ता० । २. 'सुत्ते सूत्त" ता० ।
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गा० ८ ]
उत्तरपर्याढपदेससंकमे भुजगारो
२६७
1
कादूणे ति णेदं वयणं घडदे समयूणावलियचरिमसमयमिच्छाइट्ठिमादि कादूणे त्ति वत्तव्यं १ सच्चमेदं; आवलियचरिमसमय मिच्छाइट्ठिमुबलक्खणं कादृण सेससमयमिच्छाइट्ठीणं गहणणिमित्त ं सुत्ते तस्स णिद्देसो कदो । पर्वतादीनि क्षेत्राणीत्यादिवत् । तदो सम्मा इट्ठिपढमसमए असंकमपाओग्गाणं समयूणावलियमेत्त समयपबद्धाणं मज्झे सम्माss विदियसमय पहुडि जहाकमं बंधावलियवदिक्कतव सेण जस्स जस्स संक्रमपाओग्गभावो होइ सो सो समयपत्रद्धो संकामिज्जदि । एवं संकामिज्जमासु तेसु तं विदियसमयसम्मा
मादि का जाव आवलिय सम्माइट्ठि त्ति ताव एत्थं भुजगार संकमसंभवो होज । किं कारणं १ एत्थतणणिज्जरादो संकमपाओग्गभावेण दुकमाणसमयपबद्धस्स बहुत्ते संते भुजगार संक्रमसंभवस तत्थ परिष्कुडमुलंभादो । तदो एदम्मि विसए मिच्छत्तस्स भुजगारसंक्रमसामित्तं होइ ति सिद्धं । संपहि एत्थ भुजगार संकमो चेवेत्ति अवहारणपडिसेहमिदमाह -
* एहु सव्वत्थ आवलियाए भुजगार संकमो जहणणेण एयसमओ । उकस्सेणावलिया समयूषा ।
वहाँ पर संक्रमके योग्य होता है, क्योंकि उसकी मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय में बन्धावलि पूर्ण गई है।
शंका – यदि ऐसा है तो उससे 'लेकर' यह वचन नहीं बनता । किन्तु इसके स्थान में 'एक समय कम आवलिके अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिसे लेकर' ऐसा कहना चाहिए ?
समाधान - यह सत्य है । किन्तु श्रावलिके अन्तिम समयवती मिध्यादृष्टिको उपलक्षण करके शेष समयवर्ती मिथ्यादृष्टियोंका ग्रहण करनेके लिए सूत्रमें उक्त वचनका निर्देश किया है । जिस प्रकार लोक में पर्वतसे लगे हुए क्षेत्रका ज्ञान कराने के लिए 'पर्वतादि क्षेत्र' वचनका व्यवहार होता है उसी प्रकार प्रकृतमें जान लेना चाहिए ।
इसलिए सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में संक्रमके योग्य एक समय कम आवलिमात्र समयप्रबद्धोंमेंसे सम्यग्दृष्टिके दुसरे समयसे लेकर क्रमसे बन्धावलिके व्यतीत होनेके कारण जो जो समयप्रबद्ध संक्रमणके योग्य होता है वह वह समयप्रबद्ध संक्रमाया जाता है । इस प्रकार उन समयप्रबद्धों को संक्रामित करते हुए द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिसे लेकर सम्यग्दृष्टिके एक वलिकाल होने तक यहाँ पर भुमारसंक्रम सम्भव है, क्योंकि यहाँ पर होनेवाली निर्जरासे संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त होनेवाले समयबद्ध के बहुत होने पर वहाँ पर भुजगार संक्रमकी सम्भावना स्पष्टरूप से उपलब्ध होती है इसलिए इस स्थल पर जीव मिथ्यात्वके भुजगार संक्रमका स्वामी होता है यह सिद्ध हुआ । अब यहाँ पर भुजगार संक्रम है ही इस निश्चयका निषेध करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* मात्र सर्वत्र आवलिकालके भीतर भुजगारसंक्रम न होकर उसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवलि है ।
३८
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ बँधगो ६
६३१६. पुव्वत्तावलियमेत्तकालब्भंतरे सव्वत्थ भुजगारसंकमो चैवेति णावहारणमिद कायबं; किंतु आगमणिज्जरावसेण जहगणेणेयसमयमुकस्सेण समयुणावलियमेत्तकालं, दम्म विer भुजगार संकमो संभवदित्ति वृत्तं होइ ।
* एवं तिसु कालेसु मिच्छत्तस्स भुजगार संकामगो ।
S
३२०. एवमेदे चैव तरणिद्दिट्ठेसु तिसु उद्देसेसु मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो हो, णाणत् ति भणिदं होइ । संपहि एदेसिं चेव तिन्हं भुजगारसंकमविसयाणमुवसंहारमुण फुडीकरणमुत्तरपबंधमाह
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* तं जहा । ३२१. सुगमं ।
* उवसामग-दुसमयसम्माइडिमादिं काढूण जाव गुणसंकमो ति ताव पिरंतरं भुजगार संकमो । खवगस्स वा जाव गुणसंकमेण खविज्जदि मिच्छुतं तावणिरंतरं भुजगार संकमो । पुव्वुप्पादिदेण वा सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जदि तं दुसमयसम्माइट्टिमादि काढूण जाव आवलियसम्माट्ठि ति एत्थ जत्थ वा तत्थ वा जहणणेण एयसमयं, उक्कस्सेण आव
६३१६. पूर्वोक्त आवलिमात्र कालके भीतर सर्वत्र भुजगारसंक्रम होता ही है ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए किन्तु होनेवाली आय और निर्जरा के कारण जघन्यसे एक समय तक और उत्कृष्टसे एक समय कम एक आवलि तक इस कालके भीतर भुजगारसंक्रम सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* इस प्रकार तीन कालोंमें जीव मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक है ।
९ ३२०. इस प्रकार पहले बतलाये गये इन्हीं तीन स्थानोंमें जीव मिथ्यात्वका भुजगार संक्रामक अन्यत्र नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इन्हीं तीन भुजगारसंक्रम विषयोंका उपसंहार द्वारा स्पष्ट करने के लिए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* यथा
३२१. यह सूत्र सुगम है ।
* उपशामक सम्यग्दृष्टिके द्वितीय समयसे लेकर गुणस क्रमके अन्तिम समय तक निरन्तर भुजगार संक्रम होता है। अथवा क्षपकके जब तक गुणसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वकी चंपणा होती है तब तक निरन्तर भुजगारसंक्रम होता है । अथवा पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ जो सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उस सम्यग्दृष्टिके दूसरे सययसे लेकर सम्यग्दृष्टि एक आवलिकाल होने तक इस कालके भीतर जहाँ-कहीं जघन्यसे एक समय
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गा०५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
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लिया समयूणा भुजगारसंकमो होज्ज । एवमेदेसु तिसु कालेसु मिच्छुत्तस्स भुजगार संकमो ।
६३२२. दाणि सुत्ताणि सुगमाणि । देसि पुणरुत्तभावो ण आसंकणिज्जो; पुव्वुत्तत्थो व संहारमुहेण पयट्टाणं तहाभावविरोहादो । एवमेत्तिएण पबंधेण मिच्छत्तभुजगार संकमसामित्तं परूविय संपहि सेसपदाणं सामित्तविहाणमुत्तरपबंधमाह -
* सेसेसु समएसु जइ संकामगो अप्पयरसंकामगो वा श्रवत्तव्वसंकामगो वा ।
§ ३२३. पुव्वत्तोत्रसामगखागगुणसंकमकालं पुप्पण्णसम्मत्तमिच्छाइट्ठि पच्छायदवेदयसम्माट्ठि पढमावलिय विदियादि समय च मोत्तण सेसेसु समएस जई मिच्छत्तस्स कामगो तो जहासंभवं सो अप्पयरसंकामगो अवतव्य कामगो वा होदि त्ति घेतव्त्रो; पयारंत संभवादो |
* उवदिसंकामगो मिच्छत्तस्स को होइ ?
९ ३२४. सुगमं ।
* पुव्वुप्पादिदेष सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवज्जदि जाव आवलियसम्माइट्ठिन्ति एत्थ होज्ज अवट्ठिदसंकामगो अम्मि पत्थि । तक और उत्कृष्टसे एक समय कम एक आवलितक भुजगार संक्रम हो सकता है । इस प्रकार इन कालोंके भीतर मिथ्यात्वका भुजगार संक्रम होता है ।
§ ३२२. ये सूत्र सुगम हैं । ये सूत्र पुनरुक्त हैं ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त अर्थके उपसंहार द्वारा ये सूत्र प्रवृत्त हुए हैं, इसलिए पुनरुक्त दोष होने में विरोध आता है । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा मिथ्यात्व के भुजगारसंक्रमके स्वामित्वका कथन करके अब शेष पदों के स्वामित्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
* शेष समयों में यदि संक्रामक है तो या तो अल्पतरसंक्रामक होता है या अवक्तव्य संक्रामक होता है ।
३२३. पूर्वोक्त उपशामक और क्षपकके गुणसंक्रमके कालको छोड़कर तथा पूर्वोत्पन्न सम्यक्त्व पूर्वक मिध्यादृष्टि होकर जो पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ है उसकी प्रथमावलिके द्वितीयादि समयको छोड़कर शेष समयों में यदि मिथ्यात्वका संक्रामक होता है तो यथासम्भव वह अल्पतरसंक्रामक या अवक्तव्यसंक्रामक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्य कोई प्रकार नहीं है । * मिथ्यात्वका अवस्थित संक्रामक कौन है ?
९ ३२४. यह सूत्र सुगम है ।
* पूर्व उत्पादित सम्यक्त्वके साथ जो सम्यक्त्वको प्राप्त होता है वह सम्यग्दृष्टि होनेके एक आवलिकाल तक इस अवस्थामें अवस्थितसंक्रामक हो सकता है । अन्यत्र अवस्थितसंक्रामक नहीं होता ।
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३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ३२५. एदम्मि चेत्र पुव्वुप्पाइदसम्मत्तमिच्छाइद्विपच्छायदवेदगसम्माइडिपढमावलियविसयमिच्छाइट्ठिचरिमावलियणकबंधसंबंधेणागमणिज्जराणं सरिसत्तावलंबणेणावढिदसंकमसंभवो गाण्णत्थे ति सुत्तत्थ समुच्चयो।
* सम्मत्तस्स भुजगारसंकामगो को होदि ? ६३२६. सुगमं ।
* सम्मत्तमुव्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे द्विविखंडए सव्वम्हि चेव भुजगारसंकामगो।
६३२७. कुदो ? तत्थगुणसंकमणियमदंसणादो।
* तव्वदिरित्तो जो संकामगो सो अप्पयरसंकामगो वा अवत्तव्वसंकामगो वा।
६ ३२८. किं कारणं १ उव्वेल्लणचरिमट्ठिदिखंडयादो अण्णत्थ जहासंभवमप्पदरावत्तव्वसंकमाणं चेव संभवदंसणादो।
ॐ सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो को होइ ? ६३२६. सुगमं ।
* उच्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे द्विविखंडए सव्वम्हि चेव ।
६३२५. जिसने पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न किया वह मिथ्यादृष्टि होकर जब पुनः वेदकसम्यदृष्टि होता है तब उसके प्रथम आवलिमें मिश्यादृष्टिकी अन्तिम श्रावलिके नवकबन्धके सम्बन्धसे आय और निर्जराकी सदृशताका अवलम्बन लेनेसे अवस्थित संक्रमकी सम्भावना जाननी चाहिए अन्यत्र नहीं यह सूत्रका समुच्चय अर्थ है।
* सम्यक्त्वका भुजगारसंक्रामक कौन है ? ६३२६. यह सूत्र सुगम है।
* सम्यक्त्वकी उद्वलना करते हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकमें सर्वत्र ही जीव भुजगार संक्रामक है।
६३२७. क्योंकि वहाँ पर नियमसे गुणसंक्रम देखा जाता है।
* इसके सिवा जो संक्रामक है वह या तो अन्पतरसंक्रामक है या अवक्तव्य. संक्रामक है।
३२. क्योंकि उद्वेलनाके अन्तिम स्थितिकापडकके सिवा अन्यत्र यथासम्भव अल्पतर संक्रम और अवक्तव्य संक्रमकी ही सम्भावना देखी जाती है।
* सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रामक कौन है ? ६ ३२६. यह सूत्र सुगम है।
* उद्घलना करते हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकमें सर्वत्र ही सम्यग्मिध्यात्वका भुजगारसंक्रामक है।
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३०१
गा०५८]
उत्तरपयांडपदेससंकमे भुजगारो ६ ३३०. कुदो ? तत्थ गुणसंकमणियमदंसणादो ।
खवगस्स वा जाव गुणसंकमेण संछुहदि सम्मामिच्छत् ताव भुजगारसंकामगो।
६३३१. कुदो १ दंसणमोहक्खवयापुबकरणपडमसमयप्पहुडि जाव सव्वसंकमो त्ति ताव सम्मामिच्छत्तस्स गुणसंकमसंभववसेण तत्थ भुजगारसिद्धीए विसंवादाभावादो।
* पढमसम्मत्तमुप्पादयमाणयस्स वा तदियसमयप्पहुडि जाव विज्झादसंकमपढमसमयादो त्ति।
६३३२. णिस्संतकम्मिय मिच्छाइट्ठिणा पढमसम्मत्ते उप्पादिदे पढमसमयम्मि सम्मामिच्छत्तस्स संतं होदूण विदियसमए अवत्तव्वसंकमो होइ । पुणो तदियादिसमएसु गुणसंकमवसेण भुजगारसंकमो होदूण गच्छदि जाव विज्झादसंकमपारंभपढमसमयो ति । एवं णिस्संतकम्मिय मिच्छाइढि पडुच्च वुत्तं । संतकम्मिय मिच्छाइहिणा पुण उवसमसम्मत्ते समुप्पाइदे तप्पढमसमयप्पहुडि जाव गुणसंकमचरिमसमयो ति ताव भुजगारसंकमसामित्तम विरुद्धं दट्टव्वं; उव्वेन्लणसंक्रमादो गुणसंकमपारंभसमए चेव भुजगारसंभवं पडि विरोहाभावादो। एवमेसो सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारसंकमसामित्तविसयो तीहि पयारेहि णिहिट्ठो । जदो एदं देसामासियं तदो सम्माइद्विणः मिच्छत्ते पडिवण्णे तप्पढमसमयम्मि
६३३०. क्योंकि वहाँ पर गुणसंक्रमका नियम देखा जाता है ।
* अथवा क्षपकके जब तक गुणसंक्रमके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण होता है तव तक वह उसका भुजगारसंक्रामक है।
६३३१. क्योंकि दर्शनमोहनीयके क्षपकके अपूर्वकरणके पहले समयसे लेकर सर्वसंक्रम होने तक सम्यग्मिथ्यात्वका गुणसंक्रम सम्भव होनेसे वहाँ भुजगारकी सिद्धिमें कोई विसंवाद नहीं है। ___* अथवा प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर तीसरे समयसे लेकर विध्यातसंक्रमके प्रथम समयके प्राप्त होने तक सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रामक है।
६३३२. सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करने पर प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वका सत्व होकर दूसरे समयमें अवक्तव्यसंक्रम होता है । पुनः तृतीय आदि समयोंमें गुणसंक्रमवश भजगारसंक्रम होकर विध्यातसंक्रमके प्रारम्भके प्रथम समयके प्राप्त होने तक जाता है । यह सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा कथन किया है। सत्कर्म मिथ्यादृष्टि के द्वारा तो उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करने पर उसके पहले समयसे लेकर गुणसंक्रमके अन्तिम समय तक भुजगारसंक्रमका स्वामित्व निर्विरोध जानना चाहिए, क्योंकि उद्वेलनासंक्रमके बाद गुणसंक्रमके प्रारम्भ होनेके समयमें ही भुजगार सम्भव होनेके प्रति कोई विरोध नहीं आता । इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रमविषयक यह निर्देश तीन प्रकारसे कहा है। यतः यह देशामर्षक है अतः सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर उसके प्रथम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
अधावत्तसंक्रमेण भजगार संकमो होइ तहा उव्वेल्लमाण मिच्छाइट्टिणा वेदयसम्मत्ते गहिदे तस्स पढमसमए वि विज्झादसंकमेण भुजगार संकमसंभवो वत्तव्वो ।
* तव्वदिरित्तो जो संकागो सो अप्पदरसंकागो वा अवत्तसंकामगो वा ।
९ ३३३. पुव्वुत्त भुजगारसंकामणादो अण्णो जो संकामगो सो जहासंभवमप्पयरकामगो वा अत्तव्त्रसंकामगो वा होइ; तत्थ पयारंतरासंभवादो ।
* सोलसकसायाणं भुजगारसंकामगो अप्पदरसंकामगो अवट्ठिदसंकामगो अवन्तव्वसंकामगो को होदि ?
३०२
९ ३३४. सुगममेदं पुच्छावक्कं ।
* अण्णदरो ।
६ ३३५. अनंताणुबंधीणं ताव भुजगार संकामगो अष्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा होइ, मिच्छाइट्ठिम्मि णिरंतबंधीणं तेसिं तदविरोहा दो । सम्माइडम्मि वि गुणसंकमपरिणदम्मि सम्मत्तग्गहणपढमावलियाए वा विदियादिसमएसु तदुवलद्धीदो । अप्पयरसंक्रामओ वि अण्णयरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा होइ; उहयत्थ व अप्पयरसंभवे विरोहावभादो । तहा दामो वि अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सास सम्माट्ठी वा होइ; तत्तो अण्णत्थ तदणुवलंभादो । मिच्छाइट्ठिस्स सम्मत्तसमयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा भुजगारसंक्रम होता है । उसी प्रकार उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टिके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होने पर उसके प्रथम समय में भी विध्यातसंक्रम के द्वारा भुजगार संक्रम सम्भव है ऐसा कहना चाहिए ।
* उससे भिन्न जो संक्रामक है वह या तो अल्पतर संक्रामक है या अवक्तव्य संक्रामक है।
९ ३३३. पूर्वोक्त भुजगारसंक्रामकसे अन्य जो संक्रामक है वह यथासम्भव या तो अल्पतर संक्रामक है या वक्तव्यसंक्रामक है, क्योंकि वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
* सोलह कषायोंका भुजगारसंक्रामक, अल्पतरसंक्रामक, अवस्थितसंक्रामक और अवक्तव्यसंक्रामक कौन है ?
९ ३३४. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
* अन्यतर जीव है ।
६ ३३५. अनन्तानुबन्धियोंका तो भुजगार संक्रामक अन्यतर मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवके निरन्तर बँधनेवाली उक्त प्रकृतियोंका भुजगार संक्रम होनेमें कोई विरोध नहीं आता । सम्यग्दृष्टि जीवके भी गुणसंकम रूपसे परिणत होने पर या सम्यक्त्वको ग्रहण करने की प्रथम वलि द्वितीयादि समयोंमें भुजगार संक्रमकी उपलब्धि होती है। इनका श्रल्पतरसंक्रामक भी अन्यतर मिध्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव है, क्योंकि दोनों ही स्थलोंमें अल्पतरसंक्रमके होने में कोई विरोध नहीं पाया जाता। तथा अवस्थित संक्रामक भी मिथ्यादृष्टि या सासादन "सम्यग्दृष्टि जीव है, क्योंकि इन दो स्थानोंके सिवा अन्यत्र उसकी उपलब्धि नहीं होती ।
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उत्तरपयडिपदेससकमे भुजगारो
३०३ मुवगयस्स पढमावलियोए आयव्ययाणं सरिसत्तावलंबणेण मिच्छत्तस्सेव तेसिमवट्ठाणसंभवो किण्ण होइ ? ण, तत्थ मिच्छाइट्ठि चरिमावलियाए पडिच्छिददव्ववसेण भुजगारसंकमं मोत्तणावट्ठाणासंभवादो। संपहि अणंताणुबंधीणमवत्तव्यसंकामगो अण्णदरो ति वुत्ते विसंजोयणापुत्रसंजोगपढमसमयणकबंधमावलियादिक्कतं संकामेमाणयस्स मिच्छाइट्ठिस्स सासणसम्माइद्विस्स वा गहणं कायव्वं । एवं चेव सेसकसायाणं पि भुजगारादिपदाणमण्णदरसामिताहिसंबंधो अणुगंतव्यो । णवरि तेसिमवत्तव्यसंकामगो अण्णदरो सधोवसामणापडिवादपढमसमए वट्टमाणगो सम्माइट्ठो चे होइ जाण्णो ति वत्तव्यं । अण्णदरणिद्द सेण वि ओगाहणादि विसेसपडिसेहो दट्टव्यो ।
* एवं पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं ।
६३३६. कुदो ? भुजगारादिपदाणमण्णदरसामि पडि पुचिल्लसामित्तादो विसेसाभावादो। पुरिसवेदावद्विदसंकमसामित्तगओ को वि विसेससंभवो अस्थि ति तण्णिद्द सकरणट्ठमुत्तरं सुत्तमाह ।
ॐ वरि पुरिसवेद-अवहिदसंकामगो णियमा सम्माइट्ठी । ३३७. कुदो ? सम्माइट्ठीदो अण्णत्थ पुरिसवेदस्स णिरंतरबंधित्ताभावादो। ण च
शंका-जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसकी प्रथम आवलिमें आय और व्ययकी समानताका अवलम्बन करनेसे मिथ्यात्वके समान अनन्तानुबन्धियोंका अवस्थान क्यों सम्भव नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टिकी प्रथम आवलिमें मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम श्रावलिके द्रव्यके संक्रमित होनेके कारण वहाँ भजगारसंक्रमको छोड़कर अवस्थानसंक्रम सम्भव नहीं है ।
अब अनन्तानुबन्धियोंका अवक्तव्यसंक्रामक जीव अन्यतर होता है ऐसा करने पर विसंयोजना पूर्वक संयोगके प्रथम समयमें हुए नवकबन्धको बन्धावलिके बाद संक्रमण करनेवाले मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टिका ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार शेष कषायोंके भी भुज
दिपदोंका अन्यतर जीव स्वामी है उसका सम्बन्ध समझ लेना चाहिए। इतनी विशेषता है इनका प्रवक्तव्यसंक्रामक अन्यतर सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें विद्यमान सम्यग्दृष्टि जीव ही होता है, अन्य जीव नहीं ऐसा यहाँ पर कथन करना चाहिए । सूत्रमें अन्यतर पदका निर्देश करनेसे अवगाहना आदि विशेषका निषेध जान लेना चाहिए।
* इसी प्रकार पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका स्वामित्व जानना चाहिए।
६३३६. क्योंकि भुजगार आदि पदोंके अन्यतर जीवके स्वामी होनेकी अपेक्षा पहले कहे गये स्वामित्वसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। मात्र पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमके स्वामित्वमें कुछ विशेषता सम्भव है, इसलिए उसका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
___ * इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका अवस्थित संक्रामक नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव है।
६३३७. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके सिवा अन्यत्र पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध नहीं होता। और
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३०४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
निरंतरबंधेण विणा अवदिसंकमसामित्तविहाणसंभवो विरोहादो ।
* इत्थि एवं सयवेद-हस्स-रह- अरइ- सोगाणं भुजगार - अप्पदर अवत्तव्व संकमो कस्स ?
[ बंधगो ६
९३३८. सुगमं ।
* पणदरस्स ।
1
९ ३३६. एत्थण्णदरणिद्द सेण मिच्छाइट्ठि-सम्माइट्ठीणं गहणं कायन्त्रं भुजगारप्पदरसामित्ताणमुहत्थ वि संभवे विरोहाभावादो । तं जहा - मिच्छाइट्ठिम्मि तात्र अप्यप्पणी बंधगद्धामेत्तकालं भुजगार संकमो होइ; तत्थागमादो णिज्जराए थोवभावोवलंभादो । तं कथं ? इत्थवेद-हस्सरीणं तक्कालबंधावलिया दिक्कतणवकबंधो संपुण्णसमयपत्रद्धमेत्तो णिञ्जरागोबुच्छा वुण समयपबद्धस्स संखेज्जभागमेत्ती चैव बंधगद्धानुसारेण सव्वत्थ संचयसिद्धीदो । णवुंसयवेदारइसोगाणं पि णत्रकबंधागमादो तक्कालभाविगोवु च्छणिज्जरा संखेजभागहीणा । एदस्स कारणं बंधगद्धाणुसरणेण वत्तन्वं । एवं च संते भुजगार संकमसा मित्तमेत्था - विरुद्धं सिद्धं । बंधविच्छेदकाले पुण अप्पयस्संकमो चैत्र दोह; तत्थागमामावेणेयं त
निरन्तर बन्धके बिना अवस्थित संक्रमके स्वामित्वका विधान करना सम्भव नहीं है, क्योंकि उसमें विरोध आता है ।
* स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य संक्रम किसके होता है ?
९३३८. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्यतर जीवके होता है ।
३३. यहाँ पर अन्यतर पदका निर्देश करनेसे मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि भुजगार और अल्पतर संक्रमका स्वामित्व उभयत्र ही सम्भव होने में कोई विरोध नहीं आता । यथा - मियादृष्टिके तो अपने - अपने बन्धककालप्रमाण काल तक भुजगार संक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर आयसे निर्जरा स्तोक उपलब्ध होती है ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान — क्योंकि स्त्रीवेद, हास्य और रतिका बन्धावलिके बाद तात्कालिक जो नवकबन्ध है वह सम्पूर्ण समयबद्ध प्रमाण है । परन्तु निर्जरासम्बन्धीगोपुच्छा समय प्रबद्ध के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण ही है, क्योंकि बन्धककाल के अनुसार सर्वत्र सञ्चयकी सिद्धि होती हैं । नपुंसक वेद, और शोकके नवकवन्धके आयसे तत्कालभावी गोपुच्छाकी निर्जरा संख्यातवें भागहीन है । इसका कारण बन्धककालके अनुसार कहना चाहिए और ऐसा होने पर भुजगार संक्रमका स्वामित्व यहाँ पर अविरोध रूपसे सिद्ध होता है । बन्धविच्छेदके कालमें तो अल्पतरसंक्रम ही होता है, क्योंकि
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३०५ णिजरा-परिणदाणमेदेसि तदविरोहादो। एवं चेव सम्माइविम्हि वि तदुभयसामित्ताविरोहो दहव्यो । णवरि इत्थि-णवंसयवेदाणं सम्माइट्ठिम्मि बंधविरहियाणमप्पयरसंकमो चेवेत्ति गुणसंकमसिए तेसिं भुजगारसामित्तमवहारेयव्यं । सव्वेसिमबत्तव्यसंकमो सयोवसामणापडिवादपढमसमए दट्ठव्यो ।
एवमोघेण सामित्ताणुगमो समत्तो।। ६३४०. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० भुज० अप्प० अवढि० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठि० । अवत्त० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स पढमसमयसंकामयस्स सम्म० भुज० अप्प० संक० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्टि० अवत्त० संक० कस्स ? अण्णद० पढमसमयसंका० मिच्छाइट्ठि० सम्मामि० भुज० अप्प० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्टि० मिच्छाइट्टि वा । एवमवत्त० अणंताणु०चउक्क० भुज० अप्प० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठि० मिच्छाइद्विस्स वा । अबढि० संक० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइढि० । अवत्त० संक० कस्स ? अण्णद० मिच्छादिढि० पढमसमयसंका० बारसक०-भय-दुगुछा० ओघ । णवरि अवत्त० णस्थि । पुरिसवे० भुज० अप्प० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइडि. मिच्छाइट्ठिस्स वा । अबढि० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठो। इत्थीवे. गस० भुज०
~
~
वहाँ पर आयका अभाव हो जानेसे एकान्तसे निर्जरारूपसे परिणत हुए इन कर्मों के अल्पतरसंक्रमके होने में कोई विरोध नहीं आता। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवके भी इन दोनोंके स्वामित्वका अविरो जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता इसलिए वहाँ इनका अल्पतरसंक्रम ही है। तथा गुणसंक्रमके समय उनके भुजगारसंक्रमका स्वामित्व जानना चाहिए। सबका अवक्तव्यसंक्रम सर्योपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें जानना चाहिए।
__ इस प्रकार ओघसे स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ ६३४०. श्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होता है। प्रवक्तव्यसंक्रम होता है ? प्रथम समयमें संक्रमण करनेवाले अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होता है। सम्यक्त्वका भजगार और अल्पतर संक्रम किसके होता है. ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होता है। अवक्तव्यसंक्रम किसके होता है ? प्रथम समयमें संक्रमण करनेवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार और अल्पतरसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होता है । इसी प्रकार अवक्तव्यसंक्रमका स्वामित्व जानना चाहिए। अनन्तानुवन्धीच तुकका भजगार और अल्पतरसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होता है। अवस्थितसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर मिथयादृष्टिके होता है । अवक्तव्यसंक्रम किसके होता है ? प्रथम समयमै संक्रमण करनेवाले अन्यतर मिथ्यादृष्टिके होता है । बारह कषाय भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ.पर इनका प्रवक्तव्यसंक्रम नहीं है। पुरुषवेदका भजगार और अल्पतरसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होता है। अवस्थितसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भजगारसंक्रम
३६
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३०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ संक० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठि । अप्पद० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठि० मिच्छाइट्ठि० वा । हस्स-रह-अरइ-सोगाणं भुज० अप्प० संक० कस्स ? अण्णद० सम्माइडि. मिच्छाइढि०। एवं सत्रणेरइय-तिरिक्खपंचिंदिय-तिरिक्खतिय-देवगदिदेवभवणादि जाव णवगेवजा त्ति ।
३४१. पंचिंदियतिरिक्खअप्प०-मणुसअपज्ज०-सम्म०-सम्मामि०-सत्तणोक० भज. अप्पद. संक० कस्स ? अण्णद०-सोलसक०-भय-दुगुछ० भुज० अप्प० अबढि० संक० कस्स ? अण्णद।
६३४२. मणुसतिए ओघं । णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० देवो ति ण भाणिदव्यो । अणुदिसादि सम्वट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि० इथिवेद०-णवंस०-अप्प० अणताणु० चउक०, चदुणोक० भज० अप्प०-बारसक०-पुरिसवे-भय-दुगुछा० भज० अप्प० अवढि० संक० कस्स १ अण्णद० । एवं जाव० ।
कालो एयजीवस्स। ६३४३. भजगारादिपदविसयसामित्तविहासणाणंतरमेत्ते । एयजीवसंबंधिओ कालो भजगारादिपदाण विहासियव्यो ति अहियारसंभालणापरमिदं सुत्तं ।
* मिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? किसके होता है ? अन्यतर मिश्यादृष्टिके होता है। अल्पतरसंक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होता है। हास्य, रति, अरति और शोकका भुजगार और अल्पतर संक्रम किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिश्यादृष्टिके होता है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यन्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, सामान्यदेव और भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवों में जानना चाहिए।
६३४१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंका भजगार और अल्पतरसंक्रम किसके होता है ? अन्यतरके होता है। सोलह कक्षाय, भय और जुगुप्साका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितसंक्रम किसके होता है ? अन्यतरके होता है।
३४२. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवक्तव्यसंक्रम देवोंके होता है ऐसा नहीं कहना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका अल्पतर, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और चार नोकषायोंका भुजगार और अल्पतर, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितसंक्रम किसके होता है ? अन्यतरके होता है। इसी प्रकार अनाहारकमार्गेणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। * एक जीवकी अपेक्षा कालका अधिकार है। - ६३४३. भजगार आदि पदोंके स्वामित्वका व्याख्यान करनेके बाद आगे भुजगार आदि पदोंका एक जीव सम्बन्धी कालका व्याख्यान करना चाहिए। इस प्रकार अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र है।
* मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमका कितना काल है ?
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गा५८)
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३०७ ६ ३४४. सुगममेदमोघेण मिच्छत्तभजगारसंकामयस्स जहण्णुक्कस्सकालणिदेसावेक्खं पुन्छासुत्तं ।
* जहएणेण एयसमो ।।
६३४५. तं जहा--पुबुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छतादो वेदगसम्मत्तभागयस्स पढमसमए विज्झादसंकमे गावत्तव्यसंकमो होइ । पुणो विदियादीणमण्णदरसमए जत्थ वा तत्थ वा चरिमावलियमिच्छाइद्विणा वविदणबंधणवकबंधसमयपबद्ध बंधावलियादिक्कंतं भुजगारसरूवेण संकामिय तदणंतरसमए अप्पदरमवद्विदं वा गयस्स लग्गो' मिच्छत्तभुजगारसंकामयस्स जहण्णकालो एयसमयमेत्तो।
* उकस्सेण पावलिया समयूणा ।
६३४६. तं कधं ? पुव्वुप्पण्णसम्मतपच्छायदमिच्छाइद्विणा चरिमावलियाए णिरंतरमुदयावलियं पविसमाणगोवुच्छेहितो अभहियकमेण बंधिदूण वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमए अवत्तव्यसंकमो होदूण पुणो विदियादिसमएसु पुव्वुत्तणवकबंधवसेण णिरंतरं भुजगारसंकमे संजादे लग्गोर मिच्छत्तभुजगारसंकमस्स समयूणावलियमेत्तो उक्कस्सकालो। एवं ताव पुव्वुप्पण्णसम्मत्तमिच्छाइडिणवकबंधावलंबणेण समयूणावलियमेत्त-मिच्छत्त भुजगारसंकमुक्कस्सकालसंभवं परूविय संपहि गुणसंकमकालावेक्खाए अंतोमुहुत्तमेत्तो पयदुकस्स
६३४४. ओघसे मिथ्यात्वके भजगारसंक्रामकके जघन्य और उत्कृष्टकालके निर्देशकी अपेक्षा करनेवाला यह पृच्छासूत्र सुगम है।
* जघन्यकाल एक समय है।
६३४५. यथा-पहले उत्पन्न हुए सम्मक्त्वके साथ मिथ्यात्वसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा अवक्तव्यसंक्रम होता है। पुनः द्वितीय आदि समयोंमेंसे किसी समयमें जहाँ कहीं अन्तिम आवलिमें विद्यमान मिथ्यादृष्टिके द्वारा बढ़ाकर बाँधे गये नवकबन्ध समयप्रबद्धको बन्धावलिके बाद भुजगाररूपसे संक्रमा कर तदनन्तर समयमें अल्पतर या अवस्थितसंक्रमको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ।
* उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है।
३४६. शंका-वह कैसे ?
समाधान-पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे पीछे पाये हुए मिथ्यादृष्टिके द्वारा चरमावलिके निरन्तर उदयावलिमें प्रवेश करनेवाले गोपुच्छासे अधिक रूपसे बाँधकर वेदकसम्यक्त्वके प्रान होने पर उसके प्रथम समय में प्रवक्तव्यसंक्रम होकर पुनः द्वितीयादि समयों में पूर्वोक्त नवकबन्धके वशसे निरन्तर भुजगारसंक्रमके होने पर मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण उपलब्ध हुआ । इस प्रकार सर्वप्रथम पूर्वोत्पन्न सम्यक्त्वसे मिथ्यादृष्टि होकर वहाँ पर हानवाल नवकबन्धक अवलम्बनसे मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रमके एक समय कम एक आवलिप्रमाण उत्कृष्टकालको सम्भावनाका कथन करके अब गुणसंक्रम कालकी अपेक्षासे प्रकृत उत्कृष्ट काल
१. 'लो' ता०।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
! बंधगो ६ कालो होइ त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ ।
अधवा अंतोमुहुत्तं । ६३४७. तं जहा—दसणमोहमुवसामेंतयस्स वा जाव गुणसंकमो ताव णिरंतरं भुजगारसंकमो चेत्र; तत्थ पयारंतरासंभादो । सो च गुणसंकमकालो अंतोमुहुत्तमेतो तदो पयदुक्कस्सकालवलंभो ण विरुद्धो ।
* अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि? ६३४८. सुगममेदं । * एको वा समयो जाव प्रावलिया दुसमयूणा।
३४६. पुबुप्पण्णसम्मत्तपच्छायदमिच्छाइटि-चर-वेदयसम्माइट्ठि पढमावलियावेक्खाए एसो कालवियप्पो णिट्ठिो। तं जहा-तहाविहसम्माइट्ठिणो पढमसमए अवत्तव्वसंकामगो कादूण विदियसमयम्मि अप्पयरसंकमेण परिणमिय तदणंतरसमए चरिमावलियमिच्छाइटिबंधवसेण भुजगारमवद्विदभावं वा गयस्स लद्धो एयसमयमेत्तो अप्पयरकालजहण्णवियप्पो। एवं दुसमय-तिसमयादिकमेण णेदव्वं जाव आवलिया दुसमयूणा त्ति । तत्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे-पढमसमए अवत्तव्यसंकामगो होदूण विदियादि समएसु
अन्तर्मुहर्त प्रमाण होता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* अथवा उत्कृष्टकाल अन्तमुहू त है।
६३४७. यथा-दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके जब तक गुणसंक्रम होता है तबतक निरन्तर भुजगारसंक्रम ही होता है, क्योंकि गुणसंक्रमके समय अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है ।
और वह गुणसंक्रमका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, इसलिए प्रकृत उत्कृष्ट कालकी प्राप्ति विरोधको नहीं प्राप्त होती।
* अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ? ६३४८. यह सूत्र सुगम है। * एक समयसे लेकर दो समय कम आवलि तक काल है।
६ ३४६.पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे पीछे आकर जो मिथ्यादृष्टि हुआ है और बादमें जो वेदकसम्यग्दृष्टि हुअा है उसकी प्रथम प्रावलिकी अपेक्षासे यह कालका विकल्प निर्दिष्ट किया है। यथाप्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रामक होकर दूसरे समयमें अल्पतरसंक्रम रूपसे परिणमन कर उसके अनन्तर समयमें अन्तिम आवलिमें हुए मिथ्यादृष्टिके बन्धके कारण भुजगारसंक्रम या अवस्थितसंक्रमको प्राप्त हुए उस प्रकारके सम्यग्दृष्टिके अल्पतरसंक्रमका जघन्य विकल्परूप एक समय काल प्राप्त हुआ । इस प्रकार दो समय और तीन समय आदिके क्रमसे दो समय कम एक आवलिप्रमाण काल तक ले जाना चाहिए। उसमें अन्तिम विकल्पको कहते हैं-प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रामक होकर द्वितीयादि सब समयोंमें ही अल्पतर संक्रमको करके पुनः प्रथम आवलिके अन्तिम समयमें
१. 'होदूण' ताः।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३०६ सव्वेसु चेव अप्पयरसंकमं कादूण पुणो पढमावलियचरिमसमए भुजगारावट्ठिदाणमण्णयर संकमपज्जायं गदो लद्धो दुसमयूणावलियमेत्तो । मिच्छत्तप्पयरसंकम कादूण समयूणावलियमेतो अप्पयरकालवियप्पो किण्ण परूविदो ? ण, तहा कीरमाणे अप्पयरकालस्स ववच्छेदकरणोवायाभावादो।
* अधवा अंतोमुहुत्तं ।।
६ ३५०. तं जहा–बहुसो दिट्ठमग्गेण मिच्छाइट्ठिणा वेदगसम्मत्तमुप्पाइदं । तस्स पढमावलियचरिमसमए पुव्वुत्तेण णाएण भुजगारसंकम कादण तदो अप्पयरसंकमं पारमिय सव्वजहण्णेण कालेण मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमण्णदरगुणं गयस्स जहण्णेणंतोमुहुत्तपमाणो अप्पयरकालवियप्पो लब्भदे।।
8 तदो समयुत्तरो जाव छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
६ ३५१. तदो सबजहगंतोमुहुत्तमेत्तप्पदरकालादो समउत्तरादिकमेणप्पयरसंकमकालवियप्पो णिरंतरमणुगंतव्यो जाव सादिरेयछावद्विसागरोवममेत्तो तदुक्कस्सकालो समुवलद्धो ति । तत्थ सवपच्छिमवियप्पं वत्तइस्सामो । तं जहा–अणादियमिच्छाइट्ठिणा सम्मत्ते समुप्पाइदे अंतोमुहुत्तकालं गुणसंकमो होदि, तदो विज्झादे पदिदस्स णिरंतरमप्पयरसंकमो होदूण गच्छदि जावंतो मुहुत्तमेत्तुवसमसम्मत्तकालसेसो वेदगसम्मत्तकालो च देसूण छावढिसागरोवममेत्तो त्ति । तत्थंतो मुहुत्तसेसे वेदगसम्मत्तकाले खवणाए अब्भुट्ठिदस्सापुचभुजगार या अवस्थित इनमेंसे किसी एक संक्रमरूप पर्यायको प्राप्त हुआ। इस प्रकार मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रमका दो समय कम एक आवलिप्रमाण काल प्राप्त हुआ।
शंका-अन्तिम समयमें भी अल्पतरसंक्रमको करके अल्पतर संक्रमका एक समय कम एक प्रावलिप्रमाण काल प्राप्त किया जा सकता है वह यहाँ पर क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि वैसा करने पर अल्पतरसंक्रमके कालका विच्छेद करनेका कोई उपाय नहीं रहता। ___* अथवा अन्तमुहूर्तकाल है।
६३५०. यथा-जिसने बहुत बार मार्गको देखा है ऐसे मिथ्यादृष्टिने वेदकसम्यक्त्वको उत्पन्न किया वह प्रथमावलिके अन्तिम समयमें पूर्वोक्त न्यायके अनुसार भुजगारसंक्रमको करके अनन्तर अल्पतरसंक्रमका प्रारम्भ करके सबसे जघन्य काल द्वारा मिथ्यात्व या सम्यग्मिथ्यात्व इनमेंसे किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकार उसके अल्पतर कालका विकल्प जघन्यसे अन्तमुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है। ___ * इसके बाद एक एक समय बढ़ाते हुए साधिक छयासठ सागर काल प्राप्त होता है।
६३५१. 'तदो' अर्थात् सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालसे लेकर एक-एक समय अधिकके क्रमसे बढ़ाते हुए अल्पतरसंक्रम कालका विकल्प साधिक छयासठ सागरप्रमाण उसका उत्कृष्ट काल उपलब्ध होने तक निरन्तरक्रमसे जानना चाहिए । अब उसमें सबसे अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं। यथा-अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वको उत्पन्न करने पर अन्तमुहूते काल तक गुणसंक्रम होता है। उसके बाद विध्यातसंक्रमको प्राप्त हुए उसके निरन्तर अल्पतरसंक्रम अन्समुहूर्तप्रमाण उपशम
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३१०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ करणपढमसमए गुणसंकमपारंभेणाप्पयरसंकमस्स पज्जवसाणं होइ । तदो संपुण्णाछावट्ठिसागरोवममेत्तवेदगसम्मत्तकस्सकालम्मि अपुवाणियढिकरणद्धामेत्तमप्पयरसंकमस्स ण लभइ त्ति । तम्मि पुघिल्लोरसमसम्मत्तकालन्भंतरअप्पयरकालादो सोहिदे सुद्धसेसमेत्तेयसादिरेयछावद्विसागरोवमपमाणो पयदुक्कस्सकालवियप्पो समुबलद्धो होइ ।
* अवहिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ६३५२. सुगममेदं। * जहएणेण एयसमप्रो।
६ ३५३. पुव्वुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो पडिणियत्तिय वेदयंसम्मत्तमुवगयस्स पढमावलियाए विदियादिसमएसु जत्थ वा तत्थ वा एयसमयभागगणिज्जराणसरिसत्तर सेणावट्ठिदसंकमं कादूण तदणंतरसमए भुजगारमप्पयरभावं वा गयस्स एयसमयमेत्तावहिदसंकमजहण्णकालोवलंभादो।
* उक्कस्सेण संखेजा समया।
8 ३५४. तत्व सत्तट्ठसमएसु आगमणिजराणं सरिसत्तसंभवेण तेत्तियमेत्तावहिदसंकममुकस्सकालसिद्धीए विरोहाभावादो।
सम्यक्त्वका काल शेष रहने तक तथा कुछ कम छयासठ सागरप्रमाण वेदक सम्यक्त्वके कालके पूर्ण होने तक होता रहता है। उसमें वेदकसम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर क्षपणाके लिए उद्यत हुए उसके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ होनेसे अल्पतरसंक्रमका अन्त होता है । इसलिए वेदकसम्यक्त्वके सम्पूर्ण छयासठ सागरप्रमाणकालमें जो अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका काल है उतना अल्पतरसंक्रमका काल नहीं प्राप्त होता, इसलिए इस अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालको पूर्वोक्त उपशमसम्यक्त्वके भीतर प्राप्त हुए अल्पतरसंक्रमके कालमेंसे घटा देने पर जो काल शेष बचे उसे कुछ न्यून वेदकसम्यक्त्वके उत्कृष्टकालमें जोड़ देने पर साधिक छयासठ सागरप्रमाण प्रकृत उत्कृष्ट कालका विकल्प प्राप्त होता है।
* अवस्थितसंक्रमका कितना काल है ? ६ ३५२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
६३५३. पूर्वोत्पन्न सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें जाकर और वहाँसे निवृत्त होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम आवलिके द्वितीयादि समयोंमें जहाँ-कहीं एक समयके लिए आय और निर्जराके समान होनेके कारण अवस्थित संक्रमको करके उसके अनन्तर समयमें भुजगारसंक्रम या अल्पतरसंक्रमको प्राप्त होने पर अवस्थित संक्रमका जघन्य काल एक समय मात्र उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। ६३५४. वहीं पर आय और निर्जराके सात-आठ समय तक समान रूपसे सम्भव होनेके
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उत्तरपयांडपदैससंकमे भुजगारो
* अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि ?
६३५५. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेण एयसमत्रो ।
३५६. सम्माइट्ठिपढमसमयं मोतूणण्णत्थ तदभावविणिण्णयादो । * सम्मत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ९३५७. सुगमं ।
गा० ५८ ]
३११
* जहणणेण एयसमत्रो ।
९ ३५८. तं जहा – उल्लेमाणमिच्छाइट्टिणा सम्मत्ता हिमुहेण मिच्छत्तपढमट्ठिदिचरिमसमए चरिमुवेल्लणखंड यपढमफालिगुणसंकमेण संकामिदा । तदो अन्तरसमए सम्मत्तमुपाइय असंकामगो जादो लद्धो जहण्णेणेयसयमेत्तो सम्मत्त भुजगार संकामयकालो ।
* उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
९ ३५६. कुदो ? चरिमुव्वेल्ल कंडए सन्नत्थेव गुणसंक्रमेण परिणदम्मि पयदभुजगारमुकस्सकालरस तप्यमाणत्तोवलंभादो |
* अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ?
कारण अवस्थित संक्रमके उतने मात्र उत्कृष्ट कालकी सिद्धिमें कोई विरोध नहीं आता ।
* अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ।
६ ३५५. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
९ ३५६. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयको छोड़कर अन्यत्र मिध्यात्वका अवक्तव्य संक्रम नहीं होता ऐसा निर्णय है ।
* सम्यक्त्वके भुजगारसंक्रमका कितना काल है ?
६ ३५७. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
६३५८८. यथा - उद्वेलना करनेवाले और सम्यक्त्व के अभिमुख हुए मिध्यादृष्टि जीवने मिथ्याant प्रथम स्थिति अन्तिम समय अन्तिम स्थिति काण्डककी प्रथम फालिको गुणसंक्रमके द्वारा संक्रमित किया । उसके बाद अनन्तर समय में सम्यक्त्वको उत्पन्न करके वह असंक्रामक हो गया । इस प्रकार सम्यक्त्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया ।
* उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
६ ३५६. क्योंकि अन्तिम उद्वेलना काण्डकके सर्वत्र ही गुणसंक्रमरूपसे परिणत होने पर प्रकृत भुजगार संक्रमका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है ।
* अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ?
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३१२
जयधवलासहिदे फसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६३६०. सुगमं ।
जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ६ ३६१. सम्मत्तादो मिच्छत्तं गंतूण सबलहणतोमुहुत्तमेत्तकालमप्पयरसंकमण परिणमिय पुणो सम्मत्तमुवगंतूणासंकामयभावेण परिणदम्मि तदुवलंभादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेनदिभागो। ४३६२. कुदो ? सम्मत्तादो मिच्छत्तं गंतूण सव्वुक्कस्सेणुव्वेल्लणकालेणुव्बेल्लमाणयस्स तदुवलंभादो।
® अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ६३६३. सुगमं । * जहएणुकस्सेण एयसमो।
३६४. सम्मत्तादो मिच्छत्तमुवगयस्स पढमसमयादो अण्णत्थ तदभावविणिण्णयादो। * सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ६३६५. सुगमं ।
8 एको वा दो वा समया एवं समयुत्तरो उफस्सेण जाव चरिमुव्वे. ल्लणकंडयुकारणात्ति।
६ ३६०. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।।
६ ३६१. क्योंकि सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतर संक्रमरूपसे परिणमन करके पुनः सम्यक्त्वको उत्पन्न करके असंक्रामकभावसे परिणत होने पर उक्त काल उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६३६२. क्योंकि सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें जाकर सबसे उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलन। करनेवाले जीवके उक्त कालकी उपलब्धि होती है।
* अवक्तव्यसंक्रमका कितना काल है ? ६३६३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६३६४. क्योंकि सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयको छोड़कर अन्यत्र उसके अभावका निर्णय है।
* सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रमका कितना काल है ? ६३६५. यह सूत्र सुगम है।
* एक समय और दो समय भी है। इस प्रकार एक समय बढ़ाते हुए उत्कृष्ट काल अन्तिम उद्वलना काण्डकके उत्कीरण करनेमें जितना समय लगे उतना है ।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ६३६६. एत्थेयसमयपरूवणा ताव कीरदे। तं जहा–उव्वेल्लमाणमिच्छादिट्ठिणा मिच्छत्तपढमट्ठिदिचरिमसमए चरिमुव्येल्लणखंडयं पढमफालीए गुणसंक्रमेण संकामिदाए एयसमयं भुजगारसंकमो होदण सम्मत्तप्पत्तिपढमसमए अप्पयरसंकमो जादो लदो एयसमयमेतो सम्मामिच्छत्तभुजगारसंकमजहण्णकालो। 'दो वा समया' पुव्वं व उव्वेल्लेमाणएण दोसु समएसु चरिमुव्वेल्लगखंडयं संकामिय सम्मत्ते समुप्पाइदे तदुवलंभादो । एवं तिसमय-चदुसमयादिभुजगारसंकमकालवियप्पा समुप्पाएयव्वा जाव उकस्सेण अंतोमुहुत्तमेतचरिमुवेल्लगखंडयुकीरणद्धापमाणो सम्मामिच्छत्तभुजगारसंकामयकालो संजादो त्ति । संपहि सम्मामिच्छत्तस्स पयारंतरेणावि अंतोमुहुत्तमेतभुजगारुकस्सकालसंभवपदुप्पायणटुं सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।
अधवा सम्मत्तमुप्पादेमाणयस्स वा तदो खवेमाणयस्स वा जो गुणसंकमकालो सो वि भुजगारसंकामयस्स कायव्वो।
६३६७. कुदो ? गुणसंकमविसए भुजगारसंकमं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो।
8 अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ६३६८. सुगमं । ॐ जहपणेण अंतोमुहुत्तं ।
६३६६. यहाँ पर सर्व प्रथम एक समयकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-उद्वेलना करने वाले मिथ्याष्टिके द्वारा मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें अन्तिम उद्वेलना काण्डककी प्रथम फालिके गुणसंक्रमके द्वारा संक्रमित करने पर एक समय तक भुजगार संक्रम होकर सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके प्रथम समयमें अल्पतर संक्रम हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। अथवा दो समय काल है, क्योंकि पहलेके समान उद्वेलना करनेवाले जीवके द्वारा दो समय तक अन्तिम उद्वेलना काण्डकको संक्रमा कर सम्यक्त्वको उत्पन्न करने पर उक्त दो समय काल उपलब्ध होता है। इस प्रकार दो समय और तीन समय आदि भुजगार संक्रम कालके विकल्प उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त मात्र अन्तिम उद्वेलना काण्डकके उत्कीर्ण काल प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्व सम्बन्धी भुजगार संक्रामक कालके उत्पन्न होने तक उत्पन्न करने चाहिए। अब सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रमका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त प्रमाण प्रकारान्तरसे भी सम्भव है इस बातका कथन करनेके लिए भागेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अथवा सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवालेका तथा क्षपणा करनेवालेका जो गुण संक्रमका काल है वह भी भुजगार संक्रामकका करना चाहिए।
६ ३६७. क्योंकि गुणसंक्रममें भुजगार संक्रमको छोड़कर अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। * अल्पतर संक्रामकका कितना काल है ? ६३६८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
§ ३६६. सम्मामिच्छत्तादो वेदयसम्मत्तं मिच्छत्तं वा गंतूण तत्थ सव्त्रजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तकालमप्पयरसंकमं कादृण पुणो सम्मामिच्छत्तमुवणमिय असंकामयभावेण परिणदम्मि तदुवलंभादो | अहवा सम्मामिच्छत्तादो वेदयसम्मत्तं गं तू तो मुहुत्तमप्पयरसंकमं करिय सव्वलहुं खवणाए अन्भुट्ठिदस्स अपुव्यकरणपढमसमए भुजगार संकमपारंभेण पयदजहण्णकालो वत्तव्वो ।
* एयसमयो वा ।
$ ३७०. एदस्स संभवविसयो उच्चदे । तं जहा -: - चरिमुव्वेल्लणकंडयं गुणसंकमेण संकामेतएण सम्मत्तमुप्पा इदं । तस्स पढमसमए विज्झादेणप्पयरसंकमो जादो । पुणो विदियसमए गुणसंकमपारंभेण भुजगारसंकमो जादो, लद्धो एयसमयमेत्तो सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकमकालो । संपहि तदुकस कालणिद्देसकरणटुं सुत्तमोइण्णं ।
* उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
९ ३७१. तं जहा – अणादि यमिच्छाइ डिउवसम सम्मत्तमुप्पाइय गुणसंकमकाले वोलीणे विज्झादसंकमेणप्पयरपारंभ काढूण वेदयसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तूण छाबडिसागरोबमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्ठिदो तस्सापुव्त्रकरणप्पढमसमए गुणसंकमपारंभेण अप्पयरसं कमस्साभावो जादो । एवं सादिरेयछावट्टिसागरोवममेत्तो सम्मामिच्छत्तप्पयर संकमकालो लद्धो होइ । उवसमसम्मत्तकालब्भंतरे विज्झादं पदिदस्स असंखेज्ज
३१४
§ ३६६. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वसे वेदक सम्यक्त्व या मिथ्यात्वको प्राप्त कर वहाँ पर सबसे जघन्य मुहूर्त काल तक अल्पतर संक्रमको करके पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जो असंक्रामक भावको प्राप्त होता है उसके उक्त काल उपलब्ध होता है । अथवा सम्यग्मिथ्यात्व से वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतर संक्रम करके अतिशीघ्र क्षपणा के लिए उद्यत हुए जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जानेसे प्रकृत जघन्य काल कहना चाहिए ।
* अथवा जघन्य काल एक समय है ।
§ ३७०. यह कहाँ पर सम्भव है इसे बतलाते हैं । यथा - अन्तिम उद्वेलना काण्डकको गुणसंक्रमके द्वारा संक्रमित करनेवाले जीवने सम्यक्त्वको उत्पन्न किया । उसके प्रथम समयमें विध्यात संक्रमके द्वारा अल्पतर संक्रम हुआ । इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर संक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया। अब उसके उत्कृष्ट काल का निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर प्रमाण है ।
६ ३७९. यथा - एक अनादि मिध्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके गुण संक्रमके व्यतीत हो जाने पर विध्यात संक्रमके द्वारा अल्पतर संक्रमका प्रारम्भ करके तथा वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागर काल तक उसके साथ परिभ्रमण करके दर्शन मोहनी यकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । उसके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जाने से अल्पतरसंक्रमका अभाव हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंक मे भुजगारो
३१५
भागवड्डीए भुजगार संकमो चेव होइ, तत्थ सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छमाणदव्वं पेक्खिऊण मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तमागच्छमाणदव्यस्सा संखेज्जगुणत्तदंसणादो त्ति भर्णताणमाइरियाणमहिप्पारण देसूण छावट्टिसागरोत्रममेत्तो सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकमकालो होइ;. तत्थ सुत्ताविरोहो जाणिय वत्तव्यो ।
* अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि ?
३७२. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेण एयसमत्र ।
९ ३७३. एदं पि सुगमं ।
*ताणुबंधीणं भुजगार संकामगो केवचिरं कालादो होदि ।
९ ३७४. सुगमं ।
* जहण्णेण एयसंमयो ।
§ ३७५. कुदो ? मिच्छइट्ठिस्स एयसमयं भुजगार संकमेण परिणमिय बिदियसमए अप्पदरमवदिभावं वा गयस्स तदुवलंभादो |
* उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
९ ३७६. तं जहा - थावरकायादो आगंतूण तसकाएसुप्पण्णस्स जाव पलिदोवमा
काल साधक छठ सागर प्रमाण प्राप्त हो गया । उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर विध्यातसंक्रम को प्राप्त हुए जीवके असंख्यात भागवृद्धि के द्वारा भुजगारसंक्रम ही होता है, क्योंकि वहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्व में से सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको देखते हुए मिथ्यात्वमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वमें आनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा देखा जाता है ऐसा कथन करनेवाले आचार्यों के अभिप्रायानुसार सम्यग्मिथ्यात्त्रका अल्पतरसंक्रमकाल कुछ कम छयासठ सागरप्रमाण होता है सो यहाँ पर जिस प्रकार सूत्रसे विरोध हो ऐसा जानकर कथन करना चाहिए ।
* अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ?
९ ३७२. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ।
६ ३७३. यह सूत्र भी सुगम है ।
* अनन्तानुबन्धियोंके भुजगारसंक्रामकका कितना काल है ।
९ ३७४. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
९ ३७५. क्योंकि जो मिथ्यादृष्टि जीव भुजगारसंक्रमरूपसे परिणमन करके दूसरे समय में अल्पतर या अवस्थित भावको प्राप्त हो गया है उसके उक्त काल उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
§ ३७६. यथा— स्थावरकायमेंसे आकर त्रसकायिकों में उत्पन्न हुए जीवके पल्यके असंख्यातवें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
संखेज्जभागमेत्तकाली गच्छदि तात्र आगमो बहुगो, णिज्जरा थोवयरा होइ; तम्हा पलिदो - वमासंखेज्जभागमेत्तो पयदभुजगार संकमुकस्स कालो ण विरुज्झदे ।
* पदरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ?
९ ३७७. सुगमं ।
३१६
* जहण्णेण एयसमओ ।
९ ३७८. एदं पि सुगमं ।
* उक्कस्सेण बेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
९ ३७६. तं जहा - पुत्रं पलिदोत्रमा संखेज्जभागमेत्त कालमप्पयर संक्रमं काढूण पुणो सम्मतमुपाइय पढम त्रिदिय छाबडीओ१ जहाकममणुपालिय तदवसाणे अनंताणुबंधिविजया अभ्भुट्टिदेगा पुण्य करणाढम समए पारद्धगुणसंक्रमेणप्पयर संक्रमसंताणस्स विच्छेदो को | एमेसो पलिदोषमा संखेज्जभागेण सादिरेयवे छावट्टिसागरोवममेतो अणंताणुबंधीणमप्पयर संक्रमुकस्सकालो होइ ।
* श्रवट्ठिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ६३८० सुगमं ।
* जहणणेण एयसमश्र । ९ ३८१. एदं पि सुगमं ।
भागप्रमाणकालके जाने तक श्राय बहुत होती है और निर्जरा उसकी अपेक्षा स्तोक होती है, इसलिए प्रकृत भुजगार संक्रमका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण विरोधको नहीं प्राप्त होता । * अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ?
९ ३७७. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
९ ३७८. यह सूत्र भी सुगम है ।
* उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
६३६. यथा- पहले पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक अल्पतरसंक्रम करके पुनः सम्यक्त्वको उत्पन्नकर प्रथम और द्वितीय छयासठसागरका क्रमसे पालनकर उसके अन्त में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के लिए उद्यत हुए जीव पूर्वकरण के प्रथम समय में गुणसंक्रमका प्रारम्भकर अल्पतरसंक्रमकी सन्तानका विच्छेद किया । इस प्रकार अनन्तानुबन्धियोंके अल्पतरसंक्रमका यह उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण होता है ।
* अवस्थितसंक्रमका कितना काल है ?
६ ३८०. यह सूत्र सुगम 1
* जघन्यकाल एक समय है ।
९ ३ ८९. यह सूत्र भी सुगम है ।
१. 'च' ता० ।
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३१७
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो * उकस्सेण संखेज्जा समया।
६ ३८२. आगमणिज्जराणं सरिसत्तवसेण सत्तट्ठसमएसु अवडिदसंक्रमसंभवे विरोहाभावादो।
अवत्तव्वसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ६३८३. सुगमं । * जहएणुक्कस्सेण एयसमओ। ६ ३८४. विसंजोयणापुधसंजोगणबबंधावलियवदिक्कंतपढमसमए तदुवलंभादो।
ॐ बारसकसाय-पुरिसवेद-मय-दुगुंछाणं भुजगार-अप्पदरसंकमो केवचिरं कालादो होदि?
६३८५. सुगमं । * जहएणणेयसमभो।
६३८६. भुजगारादो अप्पयरमप्पयरादो वा भुजगारं गयस्स तदणंतरसमए पदंतरगमणेण तदुवलंभादो।
ॐ उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। ३८७. एइ दिएहितो पंचिदिएसु पंचिदिएहिंतो वा एइंदिएसुप्पण्णस्स जहाकम
* उत्कृष्ट काल संख्यात समय है।
६३८२. क्योंकि आय और निर्जराके समान होनेके कारण सात-आठ समय तक अवस्थितसंक्रम सम्भव है इसमें कोई विरोध नहीं आता।
अवक्तव्यसंक्रामकका कितना काल है ? ६३८३. यह सूत्र सुगम है। . * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
६३८४. क्योंकि विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर जो नवकबन्ध होता है उसकी बन्धावलिके व्यतीत होने के प्रथम समयमें उस कालकी उपलब्धि होती है ।
* बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ?
६३८५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
६३८६. क्योंकि भुजगारसे अल्पतरको या अल्पतरसे भुजगारको प्राप्त हुए जीवके तदनन्तर समयमें दूसरे पदको प्राप्त करनेसे उक्त काल उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६३८७. क्योंकि एकेन्द्रियोंसे पन्चेन्द्रियोंमें अथवा पन्चेन्द्रियोंसे एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए
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३१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ तदुभयकालस्स तप्पमाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादो। णवरि पुरिसवेदस्स सम्माइविम्मि तदुभयमुक्कस्सकालसंभवो दव्यो।
* अवट्ठिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? ६ ३८८. सुगमं । * जहएणेण एयसमत्रो। , ३८६. सुगममेदं । * उकस्सेण संखेजा समया।
६३६०. संखेज्जसमए मोत्तण तत्तो उवरि संतकम्मावट्ठाणाभावेण तदणुसारिणो संकमस्स वि तहाभावसिद्धीए विरोहादो।।
ॐ अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालावो होवि ? ६ ३६१. सुगमं ।
ॐ जहएणुकस्सेण एयसमभो। $ ३६२. सव्योवसामणापडिवादपढमसमयादो अण्णत्थ तदसंभवणिण्णयादो।
ॐ इत्थिवेदस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि। ६३६३. सुगम ।
जीवके यथाक्रम उन दोनों के काल के उक्त प्रमाण सिद्ध होनेमें विरोध नहीं आता। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके उक्त दोनों पदों का उत्कृष्ट काल सम्यग्दृष्टि जीवके सम्भव जानना चाहिए।
* अवस्थितसंक्रमका कितना काल है ? ६३८८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। ६ ३८६. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट काल संख्यात समय है।
६३६०. क्योंकि संख्यात समयको छोड़कर उससे अधिक काल तक सत्कर्मका समानरूपसे अवस्थानका अभाव होनेसे उसके अनुसार होनेवाले संक्रमका भी उससे अधिक काल तक सिद्ध होनेमें विरोध आता है। ..
* अवक्तव्यसंक्रमका कितना काल है ? ६ ३६१. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६३६२. क्योंकि सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयके सिवा अन्यत्र उसका होना असम्भव है ऐसा निर्णय है।
* स्त्रीवेदके भुजगारसंक्रमका कितना काल है ? ६३६३. राह सूत्र सुगम है।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेस संकमे भजगारो
३१६ * जहएणण पयसमो ।
६३६४. तं कधं ? अण्णवेदबंधादो एयसमयमित्थिवेदबंधं कादूण तदणंतरसमए पुणो वि पडिवक्खवेदबंधमाढविय बंधावलियवदिक्कंतसमए कमेण संकामेमाणयस्स एयसमयमेत्तो इथिवेदस्स भुजगारसंकमकालो जहण्णकालो होइ।
* उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
६ ३६५. सगबंधगद्धाए सवत्व बंधावलियादिक्कतसमयपबद्धसंकमवसेण तेत्तियमेतकालं भुजगारसिद्धीए णिव्याहमुबलंभादो । अधवा गुणसंकमकालो धेत्तव्यो।
* अप्पयरसंकमं केवचिरं कालादो होदि ? ६३६६. सुगम । * जहणणेण एगसमो ।
(३६७. तं जहा-इत्थिवेदं बंधमाणो एगसमयं पडिवक्सपयडिबंधं कादण पुणो वि इथिवेदं चेत्र बंधिय बंधावलियवदिक्कमे एगसमयमष्पयरसंकामगो जादो लद्धो एगसमयमेत जहण्णकालो।
* उक्कस्सेण घेछावहिसागरोवमाणि संखेनवस्सभहियाणि । * जघन्यकाल एक समय है । ६३६४. शंका-वह कैसे ?
समाधान—क्योंकि अन्य वेदके बन्धके बाद एक समय तक स्त्रीवेदका बन्ध करके उसके बाद दूसरे समयमें फिर भी प्रतिपक्ष वेदका बन्ध करके बन्धावलिको बिताकर अनन्तर समयमें क्रमसे संक्रमण करनेवाले जीवके स्त्रीवेदके भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। __* उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
.६३६५. क्योंकि अपने बन्धक कालमें सर्वत्र ही बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंका बन्धावलि के बाद संक्रम होनेसे भुजगार संक्रमका उतना काल निर्वाधरूपसे सिद्ध होता हुआ उपलब्ध होता है । अथवा यहाँ पर गुणसंक्रमका काल ग्रहण करना चाहिए।
* अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ? ६३६६. यह सूत्र सुगम है। . * जघन्य काल एक समय है।
६३६७. यथा-स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाला जीव एक समय तक प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध करके फिर भी स्त्रीवेदका ही बन्ध करके बन्धावलिके व्यतीत होने पर एक समय तक स्त्रीवेदका अल्पतरसंक्रामक हो गया। इस प्रकार एक समयमात्र जघन्य काल उपलब्ध हुआ।
* उत्कृष्ट काल संख्यात वर्ष अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है।
१. 'वास' ता० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६ ३६८. तं जहा — पढमसम्मत्तं गेण्हमाणो पुत्रमेत्र अंतोमुत्तमत्थि त्ति इत्थिवेदस्स अप्पदरसंकर्म कादून सम्मत्तमुप्पाइय तदो वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावमिप्पयर संकमेणापालिय तदवसाणे सम्मामिच्छत्तेणंतरिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेत्तण बिदियछावहिअप्पयर संक्रममणुपालेमाणो अपूण तेत्तीस सागरोत्रममेत्तकालं देवेसु भमिय तदो पुत्रको डाउअम से सुवण्गो तत्थ गन्भादिअडस्साणमंतो मुहुत्त भहियाणमुवरि दंसणमोहणीयं खवि पुव्त्रकोडिजीविदावसाणे तेत्तीससागरोत्रमियदेवे सुववज्जिय तत्तो कमेण चुदो संतो पुणो त्रिपुत्र कोडाउअमरणुसेसुत्रवण्णो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए खत्रणाए अभुट्ठिदो तस्स धापयत्तकरणचरिमसमए पयदप्पयरकालपरिसमत्ती जादा । तदो देणपुत्रको डीहि सादिरेयवे छावट्टिसागरोत्रममेत्तो पयदुक्कस्सकालो लदो हो ।
* अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो ?
३६६. सुगमं ।
* जहणुक्कस्सेण एयसमत्रो ।
४०० सव्त्रोवसामणापडिवादपढमसमए चैव तदुवलंभादो । * एवु सयवेदस्स अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो ? ४०१. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
३२०
९ ३८. यथा - प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाला कोई जीव अन्तर्मुहूतेकाल पहले स्त्रीवेदका अल्पतरसंक्रम करके और सम्यक्त्वको उत्पन्न करके उसके बाद वेदकसम्यक्त्वको उत्पन्न करके प्रथम छयासठ सागर काल तक अल्पतरसंक्रमको करते हुए उसके अन्त में सम्यग्भिथ्यात्यके द्वारा वेदकसम्यक्त्वका अन्तर करके इसके बार पुनः वेदक सम्यक्लको ग्रहण कर दूसरी बार छयासठ सागर काल तक अल्पतरसंक्रमको करते हुए आठ वर्ष कम तेतीस सागर काल देवों में व्यतीत कर उसके बाद पूर्वकोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । यहाँ पर गर्भ से लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के बाद दर्शन मोहनीय की क्षपणा करके पूर्वकोटिप्रमाण जीवन के अन्त में तैंतीस सागरकी आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर फिर वहाँ से क्रमसे च्युत होता हुआ फिर भी पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ जीवन में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर क्षण के लिए उद्य हुआ । उसके अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें प्रकृत अतर संक्रमकी समाप्ति हो गई। इसलिए प्रकृत उत्कृष्ट काल कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण प्राप्त हुआ ।
* अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ?
६३६६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
४०० क्योंकि सर्वोपशामना से गिरने के प्रथम समय में ही अवक्तव्य संक्रम उपलब्ध
होता है ।
* नपु ंसकवेदके अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ? ४०१. यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपडिपदेस संकमे भजगारो
३२१
* जहण्णेण एयसमभो ।
४०२. एदं पि सुगमं; इत्थिवेदप्पयरजहण्णकालैण समाणपरूवणत्तादो । *उकस्सेण बे छावद्विसागरोवमाणि तिरिण पलिदोवमाणि सादि
रेयाणि ।
९४०३. एदस्स वि कालस्स परूवणा इत्थिवेदप्पदरुकस्सकाले समाणा वरि पढमं तिपलिदोवमिसु पन्जिय णवुंसयवेदस्सप्पयर संक्रमं कुणमाणो तदवसाणे सम्मत्तलंभेण वेछावट्टिसागरोमाणि संखेज वस्सा हियाणि हिंडावेयन्त्रो ।
* सेसापि इत्थोवेदभंगो ।
९४०४. सेसाणि भुजगारावतव्त्रपदाणि णवुंसयवेदपडिबद्धाणि इत्थिवेदभंगेणाणुगंतन्त्राणि, भुजगारस्स जहण्ोण एयसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुचं, अत्रत्तव्वस्स जहण्णुकस्से एयसमओ त्ति देण भेदाभावादो ।
* हस्स-रह-अरइसोगाणं भुजगार- अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो
होदि ?
४०५. सुगमं ।
* जहण्णेण एयसमत्र ।
* जघन्य काल एक समय है ।
६४०२. यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि स्त्रीवेदके अल्पतरसंक्रमके जघन्य कालके समान इसका कथन है ।
* उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक दो छ्यासठ सागरप्रमाण है ।
९४०३. इस कालकी प्ररूपणा स्त्रीवेदके अल्पतरसंक्रमके उत्कृष्ट कालके समान है । इतनी विशेषता है कि सर्वप्रथम तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न होकर नपुंसकवेदके श्रल्पतरसंक्रमको करके उसके अन्तमें सम्यक्त्वकी प्राप्तिके साथ संख्यात वर्ष अधिक दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करावे |
* शेष पदों का भङ्ग स्त्रीवेदके समान है ।
§ ४०४. नपुंसकवेदसे सम्बन्ध रखनेवाले शेष भुजगार और अवक्तव्यपर स्त्रीवेद के भङ्गके समान जानने चाहिए, क्योंकि भुजगारसंक्रमका जघन्य काल एक समय है । और उत्कृष्ट काल मुहूर्त है तथा अवक्तव्यसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है इस प्रकार इस द्वारा दोनोंके कथन में कोई भेद नहीं है ।
* हास्य, रति, अरति और शोकके भुजगार और अन्पतर संक्रमका कितना
काल है ?
९४०५. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल एक समय है ।
४१
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३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६४०६. इत्थिवेदस्सेव एसो जहण्णकालो साहेयन्नो।
* उफस्सेण अंतोमुहुतं । .
६४०७. अप्पप्पणो बंधकाले भुजगारसंकमो होइ, पडिवक्खपयडिबंधकाले एदेसिमप्पयरसंकमो होदि ति पयदुक्कस्सकालसिद्धी वत्तव्या।
* अवत्तव्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि। ६४०८. सुगमं ।
जहएणुकस्सेण एयसमयो। ६४०६. सुगमं । एवमोघेण कालाणुगमो कादूण संपहि आदेसपरूवणमुत्तरसुत्त भणइ।
8 एवं चदुगदोसु भोघेण सादूण णेदव्यो।
६४१०. एवमेदीए दिसाए चदुसु वि गदीसुः भुजगारादिसंकमयाणं कालो ओघपरूवणाणुसारेण चितिय णेदव्यो ति वुत्त होइ । संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदमत्थमुच्चारणावलंबणेण वत्तइस्सामो। तं जहा-आदेसेण णेरइय०-मिच्छ० भुज० अवढि० अवत्त० संका० ओघं । अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० तेतीसं सागरोषमाणि देसूणाणि । सम्म० भुज० अवत्त० ओघं । अप्प० संका० जह• एयस० उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० भुज० संका० जह• एयसमओ। उक० अंतोमुहुत्त ।
६४०६. स्त्रीवेदके इन पदोंके जघन्य काल के समान यह जघन्य काल साध लेना चाहिए। * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते है।
६४०७. अपने अपने बन्धकालमें भजगारसंक्रम होता है तथा प्रतिपक्षप्रकृतिके बन्धकालमें इनका अल्पतरसंक्रम होता है इस प्रकार प्रकृत उत्कृष्ट कालकी सिद्धि कहनी चाहिए ।
* अवक्तव्य संक्रमका कितना काल है ? ६४०८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
६ ४०६. यह सूत्र सुगम है इस प्रकार ओघसे कालका अनुगम करके अब आदेश का कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार चारों गतियोंमें ओषसे साध कर ले जाना चाहिए ।
६४१०. 'एवं' अर्थात् इस दिशाके अनुसार चारों ही गतियोंमें भुजगार आदि संक्रामकोंका काल ओघप्ररूपणाके अनुसार विचार कर ले जाना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इ। सूत्रके द्वारा सूचित हुए अर्थको उच्चारणाका अवलम्बन लेकर बतलाते हैं । यथा-आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका काल ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यक्त्वके भुजगार और प्रवक्तव्य संक्रामकका काल ओघके समान है। अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सम्यग्मिश्यात्वके
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेस संकमे भुजगारो
३२३
अप्प ० संका ० जह० एयस० । उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवत० ओघं० । अता ०४ भुज० अवडि० अवत्त० संका० ओघं० । अप्प० संका० मिच्छत्तभंगो । बारसक० - पुरिसवेद-उ० गोकसाय ओधभंगो। णवरि अवत्त० णत्थि । इत्थवेद - एस० भुज० ओघं । अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० तेत्तीस सागरो० देनूणाणि । एवं सत्तमा । एवं छसु उवरिमासु पुढवीसु । गरि सगहिदी । अनंतागु०४ अप्पद०
तं
।
४११. तिरिक्खेसु मिच्छ० भुज० अवट्ठि० अवत्त० ओवं । अप्प० संका० जह० एस० । उक्क० तिण्णि पलिदो० देसुणाणि । सम्म० णारयभंगो । सम्मामि० भुज० अवत्त० संका० णारयभंगो । अप्प० संका० जह० एयस० । उक० तिगि पलिदो • देणाणि | अणु०४ भुज० अडि० अवत० ओघं । अप्प० संका० जह० एगस० । उक० तिगि पलिदो० सादिरेयाणि । वारसक० - पुरिसवेद - छपणोक०
०
भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्य संक्रामकका काल ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकका काल ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । बारह कषाय, पुरुषवेद और छहनोकपायोंका भङ्ग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर इनका वक्तव्य पद नहीं हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके भुजगार संक्रामकका भङ्ग ओघ के समान है । अल्पतर संक्रामकका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार छह ऊपरकी प्रथिनियोंनें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जहाँ तेतीस सागर कहा है वहाँ अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए | तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर संक्रामकका देशोनपना नहीं है ।
• विशेषार्थ — सामान्यसे नारकियोंमें और सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इनमें मिध्यास्त्र, सम्यग्मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है, क्योंकि इस कालके भीतर इनका सर्वदा अल्पतर संक्रम सम्भव है । शेष कालप्ररूपणा ओघको देखकर जो यहाँ सम्भव हो उसे घटित कर लेना चाहिए । जहाँ ओघ से काल में कुछ विशेषता है। उसका निर्देश किया ही है ।
§ ४११. तिर्यब्चोंमें मिध्यात्वके भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग के समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है ! सम्यक्त्वा भङ्ग नारकियों के समान है । सम्यग्मिथ्यात्व के भुजगार और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग नारकियों के समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पत्य है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायका भङ्ग नारकियोंके समान
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३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ णारयभंगो । इथिवेद-णवुस० भुज० संका० ओघं । अप्प० संका० जह• एयस० । उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि जोणिणो०-इत्थिवेद.. णस० अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० तिण्णि पनिदो० देसूणाणि।।
६४१२. पंचितिरिक्ख-अपज्ज० - मणुसअपज०-सम्म० - सम्मामि०-सत्तणोक० भुज० अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । सोलसक०-भय०-दुगुछा० भुज० संका० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । अबढि संका० जह० एयस० । उक्क० संखेजा समया । अप्प० संका० भुज० भंगो।।
४१३. मणुसतिए पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि जासिं अवत्त० संका० तासि जहण्णुक्क० । णवरि मणुस-मणुसपज०-इत्थिवे.--.स. अप्प० संका० बह०
है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके भुजगार संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है । अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है । इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यञ्चोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कछ कम तीन पल्य है
विशेषार्थ-तिर्यश्चोंमें और पञ्चे न्द्रिय तिर्यश्वत्रिकमें वेदकसन्यक्त्वका काल कुछ कम तीन पल्य है, इसलिए इनमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहनेका कारण यह है कि जिन तिर्यञ्चोंने पहले अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अल्पतर संक्रम किया उसके बाद वे तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर और वेदक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर जीवन भर उनका अल्पतर संक्रम करते रहे उनके इनके अल्पतर संक्रमका साधिक तीन पल्य उत्कृष्ट काल बन जाता है। इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट काल जो तीन पल्य कहा है सो वह क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षासे घटित कर लेना चाहिए । मात्र योनिनी तिर्यञ्चोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होते, इसलिए उनमें उक्त काल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है, क्योंकि उसका व्याख्यान ओघ प्ररूपणाके समय विशद रूपसे कर आये हैं।
६४१२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और सात नोकषायोंके भजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अल्पतर संक्रामकका भङ्ग भुजगारके समान है।
विशेषार्थ-उक्त मार्गणाओंकी एक जीवकी कायस्थिति ही अन्तर्मुहूत प्रमाण है, इसलिए यहाँ पर उसे ध्यानमें रखकर कालका निरूपण किया। शेष विचार ओघ प्ररूपणाको देखकर कर लेना चाहिए।
६४१३. मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें जिन प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यसंक्रामक होते हैं उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३२५ एय३० । उक० तिण्णि पलिदोवमाणि पुनकोडितिभागेण सादिरेयाणि ।
६४१४. देवेसु मिन्छ०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क.इत्थिवे०-णqस० णारयभंगो। णवरि अप्प० संका. जह० एयसः। उक. तेत्तीसं सागरोवमाणि । सम्मबारसक०-पुरिसवे०-छण्णोक० णारयमंगो । एवं भवणादि जाव णव गेवजा त्ति । णवरि सट्ठदी जाणियव्वा ।
६४१५. अणुदिसादि सव्वट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि०-इस्थिवे०-गवंस० अप्प० संका० जहण्णुक्क० जहण्णुक्कस्सट्ठिदी । अणंताणु०चउक्क० भुज० जहण्णुक० अंतोमु० । अप्प० संका० जह० अंतोमु० । उक्क० सगहिदी । बारसक०-पुरिसवे०-छष्णोक० देवोघं । इतनी और विशेषता है कि सामान्य मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद और नपुंस वेदके अल्पतरसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है
विशेषार्थ—सामान्य मनुष्य और मनुष्यपर्याप्त अधिकसे अधिक पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्यतक ही सम्यग्दृष्टि रहते हैं, इसलिए इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है।
६४१४. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें उक्त कर्मो के अल्पतरसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागर है । सम्यक्त्व, बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति जाननी चाहिए।
विशेषार्थ-देवोंमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल तेंतीस सागर है, इसलिए इनमें मिथ्यात्व आदि आठ कर्मों के अल्पतरसंक्रामकोंका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है । सौधर्म कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयकतकके देवोंमें भी यह काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। भवनत्रिकों में यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते फिर भी जो जीव वहाँ उत्पन्न होनेके पूर्व अन्तमुहूर्त तक अल्पतर बन्ध कर रहे हैं उनके वहाँ उत्पन्न होने पर और अतिशीघ्र सम्यक्त्वको स्वीकार कर लेने पर उनके भी इन कर्मों के अल्पतर संक्रामकोंका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण यह काल बन जाता है, इसलिए इनमें भी यह काल अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
६४१५. श्वनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुकके भुजगारसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अल्पतरसंक्रामकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
विशेषार्थ-उक्त देवोंमें सब जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इसलिए इनमें मिथ्यात्व आदि चारके अल्पतरसंक्रामकोंका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल
१. माणियन्वा ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
९ ४१६. एवं चदुसु गद्दीसु कालविणिण्णयं काढूण पुणो सेसमग्गणाणं देसा मासयभावेणि दियमग्गणावयवमूदेइ दिएसु पयदकाल विहासणमुत्तरं सुत्तपबंधमाह । * एइ दिएसु सव्वेसिं कम्माणमवत्तव्वसंकमो णत्थि |
६४१७. कुदो ? गुणंतरपडिवत्तिपडिवादणिबंधणस्स सव्वेसिमवत्तव्त्रसंकमस्सेई दिए असंभवादो । तदो तब्धिसयकालपरूवणं मोत्तण सेसपदविसयमेत्र कालणिद्द सं सामोति जाणादिमेण सुत्तेण । तत्थ य मिच्छत्तसंकमो एइ दिएसु णत्थि चेत्रेति कयणिच्छयो सेसपयडीणमेत्र भुजगारादिपदविसयकालानुसारेण विहाणदुमुत्तरं २
धमावे |
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार संकामो केवचिंर कालादो
होदि ?
४१८. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमत्रो ।
अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सम्यग्दृष्टिके गुणसंक्रमके समय भुजगारसंक्रम होता है, और गुणसंक्रमका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके भजगार संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । यहाँ पर इनके अल्पतर संक्रामकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है ।
६ ४१६. इसी प्रकार चारों गतियोंमें कालका निर्णय करके पुनः शेष मार्गणाओंके देशामर्षकरूपसे इन्द्रिय मार्ग के अवयवभूत एकेन्द्रियों में प्रकृत कालका व्याख्यान करने के लिए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
-
* एकेन्द्रियोंमें सब कर्मों का अवक्तव्य संक्रम नहीं है ।
४१७. क्योंकि अन्य गुणस्थानको प्राप्त होकर वहाँसे गिरनेके कारण होनेवाला सब कर्मों का अवक्तव्य संक्रम एकेन्द्रियोंमें असम्भव है । इसलिए तद्विषयककालकी प्ररूपणा छोड़कर शेष पदविषयकालका ही यहाँ पर निर्देश करते हैं इस प्रकार इस सूत्र द्वारा इस बातका ज्ञान कराया गया है । उसमें भी एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वका संक्रम नहीं ही होता ऐसा निश्चय करके शेष प्रकृतियोंके ही भुजगार आदि पदोंके काल के अनुसार व्याख्यान करनेके लिए आगे के सूत्र प्रबन्धका आलोडन करते है
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकका कितना काल है ? ४१. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
१. र ता० । २. र ता० ।
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गा०५८] उत्तरपयांडपदेससंकमे भुजगारो
३२७ ४१६. कुदो ? चरिमुवेलणखंडयदुचरिमफालीए सह तत्थुप्पण्णस्स विदियसमयम्मि तदुवलंभादो। दुचरिमुवेलणखंडयचरिमफालिसंकमादो चरिमुव्वेल्लणखंडय-. पढमफालि संकामिय तदर्णतरसमए ततो णिस्सारिदस्स वा तदुवलंभसंभवादो।
* उकस्सेण अंतोमुहुर्त ।। . ४२०. कुदो ? चरिमट्ठिदोखंडयउकीरणकालस्साणणाहियस्स भुजगारसंकम- . विसईकयस्स तत्थुवलंभादो।
* अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ६४२१. सुगमं ।
ॐ जहएणेण एयसमझो। $ ४२२. कुदो? दुचरिमुबेल्लणखंडय दुचरिमफालीए सह तत्थुववण्णयम्मि तदुवलद्धीदो।
® उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। ६ ४२३. कुदो १ अप्पदरसंकमाविणाभाविदीहुव्वेलणकालावलंबणादो। ॐ सोलसंकसाय-भयदुगुंछाणमोघ अपच्चक्खाणावरणभंणो।
६४१६. क्योंकि चरम उद्वेलना काण्डककी द्विचरम फालिके साथ वहाँ उत्पन्न हुए जीवके दूसरे समयमें उक्त प्रकृतियोंके भुजगार संक्रमका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। अथवा द्विचरम उद्वेलना काण्डककी चरम फालिके संक्रमके बाद चरम उद्वेलना काण्डककी प्रथम फालिको संक्रमाकर उसके अनन्तर समयमें वहाँसे निकले हुए जीवके जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
६४२०. क्योंकि एकेन्द्रियोंमें भुजगार संक्रमका विषयभूत चरम स्थिति काण्डकका उत्कीरणकाल न्यूनाधिकतासे रहित अन्तर्मुहूर्त प्रमाण पाया जाता है। . * अल्पतर संक्रामकका कितना काल है ?
६४२१. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है।
६४२२. क्योंकि द्विचरम उद्वलन काण्डककी द्विचरम फालिके साथ वहाँ पर उत्पन्न होने पर जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
६४२३. क्योंकि अल्पतर संक्रमके अविनाभावी दीर्घ उद्वेलन कालका अवलम्बन लिया गया है।
* सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका मङ्ग ओघ अप्रत्याख्यानावरणके समान है ।
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३२८ जयधवलासहिदेकसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ ४२४. कुदो १ भुजगार-अप्पदराणं जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो, अवढि० जह० एगस०, उक० संखेजा समया इच्चेदेण भेदाभावादो।
* सत्तणोकसायाणं ओघ-हस्स-रवीणं भंगो।
६४२५. कुदो ? भुज०अप्प० संकामयाणं जह एयसमओ, उक्क० अंतोमु० इच्चेदेण ततो भेदाणुवलंभादो।
* एयजीवेण अंतरं।
६४२६. एयजीवसंबंधिकालविहासणाणतरमेयजीवविसेसिदमंतरमेतो वत्तइस्सामो त्ति अहियारसंभालणसुत्तमेदं । तस्स य दुविहो णिदेसो; ओधादेसमेएण । तत्थोषणिदेस ताव कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।
* मिच्छत्तस्सं भुजगारसंकामयंतर केवचिरं कालादो होदि ? ६४२७. सुगमं ।
ॐ जहणणेण एयसमो वा दुसमओ वा; एवं पिरंतरं जाव तिसम. ऊणावलिया।
६४२८. तं जहा-पुव्वुप्पण्णसम्मत-मिच्छाइद्विणा वेदयसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमसमए अत्तव्वसंकमादो विदियसमयम्मि भुजगारसंकमे जादे आदिवार तदो
४२४. क्योंकि ओघसे अप्रत्यारव्यानावरणके भुजगार और अल्पतर संक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण तथा अवस्थित संक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । उससे इसमें कोई भेद नहीं है ।
* सात नोकषायोंके कालका भङ्ग ओघसे हास्य-रतिके समान है।
६४२५. क्योंकि ओघसे हास्य-रतिके भुजगार और अल्पतर संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टः काल अन्तमुहूर्त बतला आये हैं। उससे इसमें कोई भेद नहीं उपलब्ध होता।
* अब एक जीव को अपेक्षा अन्तरकालका अधिकार है।
६४२६. एक जीव सम्बन्धी कालका व्याख्यान करनेके बाद आगे एक जीव सम्बन्धी अन्तरकालको बतलाते हैं । इस प्रकार यह सूत्र अधिकारकी सम्हाल करता है। उसका निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । उनमेंसे सर्व प्रथम ओघ प्ररूपणाका निर्देश करते हुए आगेका
* मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकका अन्तर काल कितना है ? ६४२७. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य काल एक समय है, दो समय है । इस प्रकार निरन्तर क्रमसे तीन समय कम एक आवलि प्रमाण है।
६४२८. यथा- पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्या दृष्टि होकर वेदक सम्यक्त्वके प्राप्त करने पर उसके प्रथम समयमें हुए अवक्तव्यसंक्रमके बाद दूसरे समयमें भुजगार संक्रमके
१. श्रादीदिट्टा ता.।
-~
-~
~-
~
सूत्र कहते हैं
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
तदियसमए अप्पदरेणावट्ठिदेण वा अंतरियचउत्थसमए पुणो वि भुजगारसंकामगो जादो लद्धमेगसमयमेत्तं पयदजहणंतरं । दुसमयो वा पुत्रं व आदि काढूण दोसु समएसु विरुद्धपदेणंतरिय पुणो पंचसमयम्मि भुजगारसंकमपरिणदम्मि तदुवलद्धीदो । एवं तिसमय चदुसमयादिकमेणेद मंतरं वड्डाविय दव्वं जाव सम्माट्ठ - पढमावलियबिदियसमए पुव्वं व आदि काढूण पुणो तदियादिसमएस पणिवक्खपदसंकमेणंतरिय पढमा - वलिय चरिमसमए भुजगार संक्रमेण लद्धमंतरं काढूण ट्ठिदो ति । एवं कदे तिसमऊणावलियमेत्ता चैव पयदं तरत्रिया समयुत्तरकमेण लद्धा होंति; एत्तो उवरि लद्धमंतरकरणोवायाभावादो । एवं पुत्रप्पण्णसम्मत्तमिच्छा इट्ठिपच्छायद वेदयसम्माइट्ठिपढमावलियावलंबणेण तिसमऊणावलियमेत्तंतर-वियप्पपदुप्पायणं काढूण एतो अण्णत्थ जहणंतरमंतोमुहुत्तादो हेडा गोलभदि ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ |
३२६
* अधवा जहणणे अंतोमुहुत्तं ।
§ ४२६. तं कथं ? उवसमसम्मा इट्ठिगुणसंकमेण भुजगारं संकममादिं कादूण विज्झादेणंतरिय पुणो सन्चलहु दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्टिदो तस्सापुव्त्रकरण पढमसमए
होने पर उसका प्रारम्भ हुआ । अनन्तर तीसरे समय में अल्पतरसंक्रम या अवस्थितसंक्रमके द्वारा अन्तर करके चौथे समयमें फिरसे भुजगार संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया । अथवा दो समय अन्तर है, क्योंकि पहले के समान भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके उसके बाद दो समय तक विरुद्ध पदोंके द्वारा अन्तर करके पुनः पाँचवें समय में भुजगार संक्रमसे परिणत होने पर उक्त दो समय अन्तर कालकी उपलब्धि होती है । इस प्रकार तीन समय और चार समय आदिके क्रमसे अन्तर कालको बढ़ाकर सम्यग्दृष्टिकी प्रथम आवलिके द्वितीय समय में पहले के समान भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके पुनः द्वितीयादि समयोंमें प्रतिपक्ष पदोंके संक्रमण द्वारा उसका अन्तर करके प्रथम आवलिके अन्तिम समयमें भुजगार संक्रमके द्वारा अन्तरको प्राप्त करके स्थित होने तक ले जाना चाहिए। ऐसा करने पर एक एक समय अधिक के क्रमसे तीन समय कम एक आवलि प्रमाण ही प्रकृत अन्तर कालके विकल्प प्राप्त होते हैं, क्योंकि इनसे अधिक अन्तर करनेका अन्य कोई उपाय नहीं प्राप्त होता । इस प्रकार पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्त्रमें आकर पुनः वेदक सम्यग्दृष्टि हुए जीवके प्रथम आवलिके अवलम्बन द्वारा तीन समय कम श्रावलि प्रमाण अन्तर कालके विकल्पोंको उत्पन्न करके इसके सिवा अन्यत्र जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं उपलब्ध होता इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* अथवा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है ।
६४२६ शंका - वह कैसे ?
समाधान — कोई उपशम सम्यग्दृष्टि जीव गुणसंक्रमके द्वारा भजगार संक्रमका प्रारम्भ करके और विध्यात संक्रमके द्वारा उसका अन्तर करके पुनः अति शीघ्र दर्शनमोहकी क्षपण के लिए उद्यत हुआ । उसके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जाने से प्रकृत अन्तर
४२
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३३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ गुणसंकमपारंभेण पयदंतरपरिसमत्ती जादा लद्धो जहण्णेणंतोमुहुत्तमेत्तो पयदभुजगारं. तरकालो।
* उकस्सेण उवढपोग्गलपरियहूँ ।
६४३०. तं जहा?–एको अणादियमिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तं पडिवजिय गुणसंकमेण भुजगारसंकामगो जादो। तदो सबजहण्णगुणसंकमकाले बोलीणे अप्पयरसंकमेणंतरिय कमेण संकामगो होदूणद्धपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण परिभमिय तदवसाणे अंतोमुहत्तसेसे उवसमसम्मत्तं घेत्तण गुणसंकमवसेण भुजगारसंकामगो जादो लद्धो आदिन्लं तिल्लेहिं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं परिहीणद्धपोग्गलपरियट्ठमेतो पयदुक्कस्संतरकालो। - ® एवमप्पदरावहिदसंकामयंतरं।
६४३१. जहा भुजगारसंकामयंतरं परूविदमेवमेदेसि पि पदाणं परूवेयव्वं विसेसा. भावादो। णवरि जहण्णेणंतोमुहुत्तपरूवणा अप्पदरसंकमस्स२ जहण्णमिच्छत्तकालेणं. तरिदस्स परूवेयया । अवट्ठिदसंकमस्स वि पुव्वुप्पण्णसम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्त. मुवगयस्स पढमावलियाए चरिमसमए आदि कादूण पुणो सव्वजहण्णवेदयसम्मत्तकालसेसेण तप्पाओग्गजहण्णंतोमुहत्तपमाणमिच्छत्तकालेण चांतरिदस्स पुणो वेदयसम्मत्त
कालकी समाप्ति हो गई। इस प्रकार प्रकृत भुजगार संक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो गया।
* उत्कृष्ट अन्तर काल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। .
६४३०. यथा-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके गुणसंक्रमके द्वारा भुजगार संक्रामक हो गया। उसके बाद सबसे जघन्य गुणसंक्रमके कालके व्यतीत होने पर उसका अल्पतर संक्रमके द्वारा अन्तर करके तथा क्रमसे असंक्रामक होकर कुछ कम अर्धपुद्गन परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर उपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करके गुणसंक्रमके द्वारा भुजगार संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत उत्कृष्ट अन्तरकाल आदि और अन्तके दो अन्तमुहूतोंसे हीन अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त हो गया।
* इसी प्रकार अल्पतर और अवस्थित संक्रामकोंका अन्तर काल जानना चाहिए।
६४३१. जिस प्रकार भजगार मंक्रामकका अन्तर काल कहा है उसी प्रकार इन पदोंका भी अन्तर काल कहना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । अथवा इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तम हत कहना चाहिए। तथा अवस्थित संक्रमका भी, पहले.उत्पन्न हए सम्यक्त्वमे मिश्यात्वमें जाकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम प्रावलिके अन्तिम समयमें अवस्थित संक्रमको पन: शेष रहे सबसे जघन्य वेदकसम्यक्त्वके काल द्वारा तथा मिध्यात्वके तत्प्रायोग्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालके द्वारा उसका अन्तर फिराके पुनः वेदका सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसकी प्रथम श्रावलिके द्वितीय समयमें, अन्तर काल प्राप्त कर लेना चाहिए।
१. कुदो । ता० । २. कालस्स त ।
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गम०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भजगारो पडिल भपढमावलियाए विदियसमयम्मि लद्धमंतरं कायव्वं । एवमुक्कस्सेणुवढपोग्गलपरियट्टमेत्तंतरपरूवणाए वि जाणिय वत्तव्यं ।।
ॐ अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६४३२. सुगमं ।
ॐ जहपणेणंतोमुहुत्तं ।
६४३३. सम्माइटिपढमसमए आदि कादण विदियादिसमएसु अंतरियसव्वलहुं मिच्छत्तं गंतूण पडिणियत्तिय पडिवण्णतब्भावम्भितटुवलद्धीदो।
* उक्कस्सेण उवड्डुपोग्गलपरियह।।
६४३४. पढमसम्मत्तग्गहणपढमसमए लद्धप्पसरूवस्सावत्तव्यसंकमस्स पुणो मिच्छत्तं गंतूण सबुक्कस्सेणंतरेण सम्मत्तं पडिवण्णस्स पढमसमए लद्धमंतरमेत्थ कायव्वं ।
ॐ सम्मत्तस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६४३५. सुगम ।
ॐ जहपणेण पलिदोवमस्सासंखेजविभागो।
६४३६. तं जहा-चरिमुव्वेलणकंडयम्मि गुणसंकमेण पयदसंकमस्सादि करिय तदणंतरसमए सम्मत्तमुप्पाइय असंकामगो होदूर्णतरिय सबलहुं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणइसी प्रकार इनके उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कालकी प्ररूपणा भी जानकर करनी चाहिए।
* अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४३२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।
६४३३. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें उसका प्रारम्भ करके तथा द्वितीयादि समयों में अन्तर करके अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर और लौटकर पुनः अवक्तव्य संक्रमके प्राप्त होने पर उक्त अन्तरकान प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
६४३४. प्रथम सम्यक्त्वग्रहणके प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रमका स्वरूप लाभ किया । पुनः मिथ्यात्वमें जाकर और सबसे उत्कृष्ट कालतक यहाँ रहकर सम्यक्त्वको प्राप्त कर अवक्तव्यसंक्रम किया । इस प्रकार यहाँ अवक्तव्यसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त कर लेना चाहिए ।
* सम्यक्त्वके भुजगार संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४३५. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल पन्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६४३६. यथा-अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें गुणसंक्रमके द्वारा प्रकृत संक्रमका प्रारम्भ करके उसके अनन्तर समयमें सम्यक्त्वको उत्पन्न कर असंक्रामक होकर और उसका अन्तर
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
कालेणुव्वेल्लमाणयस्स चरिमट्ठिदिखंडए पढमसमए लद्धमंतरं होई । * उकस्सेण उवडपोग्गलपरियहं ।
§ ४३७. तं कधं ? अणादियमिच्छाइट्ठी सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहु मिच्छत्तं गंतूण जहण्णुव्वेल्लका लेणुव्वेल्लमाणो चरिमट्ठिदिखंडयम्मि भुजगार संकमस्सादि काढूणंत रिय देखणद्धपोग्गलपरियड' परिभमिय पुणो पलिदोवमा संखेजभागमेत्तसेसे सिज्झणकाले सम्मत्तं घेत्तण मिच्छत्तपडिवादेणुव्वेल्लेमाणयस्स चरिमे ट्ठिदिखंडए लद्धमंतरं कायन्त्रं । एवमादिल्लंतिल्लेहि पलिदो॰ असंखे० भागंतो मुहुत्तेहि परिहीणद्वयोग्गल परियमेत्तं पयदुकस्संतरमा होदि ।
* अप्पदरावत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १४३८. सुगमं ।
* जहणणे अंतोमुहुत्तं ।
४३६. अप्पयरस् ताव उच्चदे | मिच्छाइट्ठी सम्मत्तस्स अप्पयरसंकमं कुणमाणो सम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थ सव्वजहणंतोमुहुत्तमेत्तमंतरिय पुणो मिच्छत्तं गदो, तस्स बिदिय - समए लद्धमंतरं होई । अवत्तव्वसंकमस्स वि सम्मत्तादो मिच्छतं पडिवण्णस्स पढमसम
३३२
[ बंधगो ६
करके अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वेलना करनेवाले जीवके अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्रथम समय अन्तरकाल प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्श्वपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है ।
६ ४३७. शंका
—वह कैसे ?
समाधान — जो अनादि मिध्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करके तथा अतिशीघ्र मिध्यात्वमें जाकर जघन्य उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करता हुआ चरम स्थितिकाण्डक प्राप्त होने पर भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके तथा उसका अन्तर करके कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण परिभ्रमण करके पुनः सिद्ध होनेके कालमें पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण कर और मिथ्यात्वमें जाकर पुनः सम्यक्त्वकी उद्वेलना करते हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकमें स्थित होता है उसके भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर काल प्राप्त करना चाहिए । इस प्रकार प्रारम्भ और अन्तके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और अन्तर्मुहूर्तसे हीन अ पुद्गल परिवर्तन मात्र प्रकृत उत्कृष्ट अन्तरकालका प्रमाण होता है ।
* अल्पतर और अवक्तव्यसंक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ४३८. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
४३. उनमें से सर्व प्रथम अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल कहते हैं - एक मिपादृष्टि जीव सम्यक्त्वका अल्पतर संक्रम करता हुआ सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। वहाँ पर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालका अन्तर करके मिध्यात्वमें गया । उसके दूसरे समय में यह जघन्य अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार जो जीव सम्यक्त्वसे मिध्यात्वमें जाकर उसके प्रथम
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३३३
आदि कादूण सव्त्रजहण्णमिच्छत्तद्धमच्छिय सम्मत्तं घेत्तूण पुणो सव्वलहु मिच्छत्तं गदस्स पढमसमए लद्धमंतरं कायव्वं ।
* उकस्सेण उवडपोग्गलपरियहं ।
$ ४४०. तं कथं ? एको अणादियमिच्छाइट्ठी अद्धप्पोग्गलपरियट्टादिसमए सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहु परिणामपच्चएण मिच्छत्तमुवगओ तदो सम्मत्तस्सुव्वेल्लणावसेणप्पदरसंकर्म करेमाणो गच्छदि, जात्र सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेगुव्वेल्लेमाणयस्स दुचरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालिति । तत्तोप्पहुडिपयदंतरपारंभं काढूण देसूणमद्धपोग्गलपरियट्टं परियट्टिदूण तदवसाणे अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे सम्मत्तं पडिवण्णो संतो पुणो वि मिच्छत्ते पदिदो तस्स बिदियसमए अप्पयरसंकामयस्स लद्धमंतरं होइ । एवमवत्तव्त्रसंकामयस्स वित्त वर अद्धपोग्गलपरियट्टा दिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहु मिच्छत्तं पडिवण्णस्स पढमसमए पयदसंकमस्सादि काढूण पुणो दीहंतरेण सम्मतमुप्पाइय मिच्छत्त मुवगयस्स पढमसमयम्मि लद्धमंतरं कायव्वं ।
* सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार - अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
समयमें वक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ करके और सबसे जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रह कर तथा सम्यक्त्वको ग्रहण कर पुनः अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसके प्रथम समयमें अवक्तव्य संक्रम करता है उसके अवक्तव्य संक्रमका भी अन्तरकाल प्राप्त करना चाहिए ।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्थ पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है ।
- वह कैसे ?
१४४०. शंका
समाधान - एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रथम समय में सम्यक्त्व उत्पन्न करके अति शीघ्र परिणाम वश मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । अनन्तर सम्यक्त्वक उद्वेलनाके कारण अल्पतर संक्रमको करता हुआ वह भी सबसे जघन्य उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करता हुआ द्विचरमस्थिति काण्डककी अन्तिम फालिके प्राप्त होने तक जाता है। इसके बाद वहाँ से लेकर प्रकृत संक्रमके अन्तरकालका प्रारम्भ करके तथा कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें संसारमें रहनेका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रहने पर सम्यक्त्वको प्राप्त होकर पुनः मिथ्यात्वमें गया । उसके मिध्यात्वमें जाने के दूसरे समय में अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है। इसी प्रकार अवक्तव्य संक्रामकका भी अन्तर काल करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके और अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें ले जाकर उसके प्रथम समयमें प्रकृत संक्रमका प्रारम्भ करावे । पुनः दीर्घ अन्तरकालके बाद सम्यक्त्वको उत्पन्न कराके और मिथ्यात्वमें ले जाकर उसके प्रथम समयमें प्रकृत संक्रमका अन्तरकाल प्राप्त कर लेना चाहिए ।
* सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ।
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३३४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६४४१. सुगम । . जहएणण एयसमो ।
६४४२. तं जहा–चरिमुवेल्लणकंडयम्मि भुजगारसंकमस्सादि कादूण तदणंतरसमए सम्मत्तमुप्पाइय अप्पयरभावेणेयसमयमंतरिय पुणो वि बिदियसमए गुणसंकमवसेण भुजगारसंकामगो जादो लद्धमंतरं। अप्पयरस्स बुञ्चदे-दुचरिमुव्वेलणकंडयचरिमफालीए अप्पयरसंकमं कुणमाणो चरिमुवेलणखंडयपढमफालिविसयगुणसंकमेणेयसमयमंतरिय पुणो वि सम्मत्तुप्पत्तिपढमसमए अप्पयरसंकामगो जादो लद्धमंतरं ।
* उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियढें ।
६४४३. तं जहा-भुजगारसंकमस्स सम्मत्तभंगेण चरिमुव्बेल्लणकंडयम्मि आदि कादणंतरियस्स पुणो दीहतरेणसम्मत्ते समुप्पाइदे तदियसमयम्मि गुणसंकमवसेण लद्धमंतरं कायव्वं । अप्पयरसंकमस्स वि सम्मत-मंगेण पयदंतरपरूषणा कायया । णवरि दीहतरेण सम्मत्तं पडिवजिय गुणसंकमादो विज्झादे पदिदस्स लद्धमंतरं दट्ठवं ।
* अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरकालादो होदि ? ६४४४. सुगमं ।
६४४१. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६४४२. यथा-अन्तिम उद्वेलना काण्डकमें भुजगारसंक्रमका प्रारम्भ करके उसके अनन्तर समयमें सम्यक्त्वको उत्पन्न कराके उस समय हुए अल्पतरसंक्रमके द्वारा एक समयका अन्तर देकर पुनः दूसरे समयमें गुणसंक्रम होनेके कारण भुजगारसंक्रामक हो गया। इस प्रकार भुजगार. संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है । अब अल्पतर संक्रमका अन्तर काल कहते हैं-द्विचरम उद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिमें अल्पतर संक्रमको करता हुआ अन्तिम उद्वेलना काण्डककी प्रथन फालिविषयक गुणसंक्रमके द्वारा उसका अन्तर करके पुनः सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके प्रथम समयमें अल्पतर संक्रामक हो गया। इस प्रकार अल्पेतर संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हुआ।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है।
६४४३. यथा-सम्यक्त्व के समान इसके भुजगार संक्रमका अन्तिम उद्वेलना काण्डकमें प्रारम्भ करके तथा अनन्तर समयमें उसका अन्तर करके पुनः दीर्घ अन्तर देकर सम्यक्त्वके उत्पन्न कराने पर उसके तीसरे समयमें गुणसंक्रमके कारण भुजगार संक्रम कराके अन्तरकाल प्राप्त कर लेना चाहिए । तथा इसके अल्पतर संक्रमकी भी सम्यक्त्वके समान उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा कर लेनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि दीर्घ अन्तरके बाद सम्यक्त्वको प्राप्त कराके गुणसंक्रम होकर विध्यात संक्रमको प्राप्त हुए जीवके अन्तरकाल होता है ऐसा जानना चाहिए।
* अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४४४. यह सूत्र सुगम है।
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो
३३५ छजहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
४४५. तं कधं ? णिस्संतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा सम्मत्तमुप्पाइदं तस्स बिदियसमयम्मि अवत्तव्यसंकमस्सांदी दिट्ठा । तदो अंतरिय उवसमसम्मत्तकालावसाणे सासणं पडिवजिय मिच्छत्ते पदिदस्स पढमसमए लद्धमंतरं कायव्यं ।
* उक्कस्ससेण उवड्डपोग्गलपरियडें ।
६४४६. तं जहा—अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए सम्मत्तुप्पायणाए वावदस्स बिदियसमए आदी दिट्ठा । तदो दीहतरेणंतरिय अंतोमुहुत्तसेसे संसारकाले सम्मत्तुप्पत्तीए परिणदस्स बिदियसमयम्मि लद्धमंतरं होई ।।
* अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं ? ६४४७. सुगमं । .
® जहपणेण एयसमग्रो। ६४४८. भुजगारप्पदराणमणप्पिदपदेणेयसमयमंतरिदाणं तदुवलंभादो। * उकस्सेण बेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६४४५. शंका-वह कैसे ?
* समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यक्त्वको उत्पन्न किया उसके दूसरे समयमें श्रवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ दिखाई दिया। उसके बाद उसका अन्तर करके उपशम सम्यक्त्वके कालके अन्तमें सासादनको प्राप्त होकर मिथ्यात्वमें जाकर उसके प्रथम समयमें पुनः उसका अवक्तव्य संक्रम किया। इस प्रकार अन्तमुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर काल प्राप्त कर लेना चाहिए।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपापुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
६४४६. यथा-अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालके प्रथम समयमें सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें लगे हुए जीवके उसके दूसरे समयमें अवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ दिखलाई दिया । उसके बाद दीर्घ काल तक अन्तर देकर संसारमें रहनेका काल अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें परिणत हुए जीवके दूसरे समयमें पुनः अवक्तव्य संक्रम होनेसे उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त काल प्रमाण प्राप्त होता है।
* अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार और अन्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
४४८. क्योंकि अनपित पदके द्वारा अन्तरको प्राप्त हुए भुजगार और अल्पतर संक्रमको जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
१४४६. तं जहा - पंचिदिए भुजगार संकमस्सादि कादूई दिएस पलिदोवमासंखेजमागमेत्तप्पयर कोलेणंतरिय पुणो असष्णिपंचिदिएस देवेसु च समयाविरोहेण जाकममुपजय तदो सम्मत्तं घेत्तण बेछावट्टिसागरोवमाणि परिभमिय तदवसाणे मिच्छत्तं गंतूण भुजगार संकामगो जादो लद्धमंतरं पयदभुजगारसंक्रामयस्स पलिदोवमस्सा. संखेदिभागेण सादिरेयवेछा वहिसागरोवममेतमुकस्सेण संपहि अप्पयर संकमस्स उच्चदे । तं जहा – एक्को मिच्छाइट्ठी उवसमसम्मत्तं घेत्तण तक्कालब्भंतरे चैव विसंजोयणाए अमुट्ठिदो । तत्थापुत्रकरणपढमसमए पयदंतरस्सादि काढूण कमेण वेदयसम्मत्त' पडि - वजय पढम बिदियछावट्ठीओ सम्मामिच्छत्तंतरिदाओ जहाकममणुपालिय तदवसाणे परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो तत्थ वि पलिदोवमासंखेज भागमेत्तकालं भुजगारसंकाओ होण तदो अप्पयर संकामओ जादो लद्धमंतरमुकस्सेण पदयप्पयरसंकामयस् पुव्विल तोमुहुत्ते पच्छिल्ल पलिदोवमा संखेज्जदिभागेण च सादिरेयबेछावट्टिसागरोवममेत्तं । * अवद्विदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
३३६
४५०. सुगमं ।
* जहणणेणेयसमचो ।
§ ४५१. तं जहा – अबट्ठिदसंकमादो भुजगारमप्पदरं वा एयसमयं काढूण तदणंतरसम पुणो वि अवदि संकामओ जादो लद्धमंतरं ।
६४४६. यथा - - कोई एक जीव पञ्चेन्द्रियोंमें भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके एकेन्द्रियोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रह कर पुनः असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों और देवोंमे यथाविधि क्रमसे उत्पन्न होकर अनन्तर सम्यक्त्वको ग्रहण कर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर भुजगारसंक्रामक हो गया। इसप्रकार प्रकृत भुजगार संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छ्यासठ सागर प्रमाण प्राप्त हो गया । अब अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहते हैं । यथा— कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण कर उस कालके भीतर ही विसंयोजना के लिए उद्यत हुआ । वहाँ पर वह अपूर्व - करण के प्रथम समय में प्रकृत संक्रमके अन्तरकालका प्रारम्भ करके तथा क्रमसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सम्यग्मिथ्यात्वसे अन्तरित प्रथम और द्वितीय छयासठ सागर कालका क्रमसे पालन करके उनके अन्तमें परिणामवश मिध्यात्व में जाकर वहाँ पर भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक भुजगार संक्रामक होकर अनन्तर अल्पतर संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पहलेका अन्तर्मुहूर्त और बादका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण प्राप्त हो गया ।
* अवस्थितसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
६४५०. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
६ ४५१. यथा— अवस्थित संक्रमके बाद एक समय तक भुजगार या अल्पतर संक्रम करके उसके अनन्तर समयमें फिर भी अवस्थित संक्रामक हो गया। इस प्रकार जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया।
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो .
३३७ * उफस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरिया।
४५२. कुदो एयवारमवद्विदसकमेण परिणदस्स पुण्णे तदसंभवेणासंखेजपोग्गलपरियट्टमेत्तकालमुक्कस्सेणावट्ठाणभुवगमादो। असंखेज-लोगमेत्तमुक्कस्संतरमवडिदपदस्स परूविदमुच्चारणाकारेण कथमेदेण सुत्तेण तस्साविरोहो ति ण, उवएसंतरावलंबणेणाविरोहसमत्थणादो।
* अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? . ६४५३. सुगमं ।
* जहणणेण अंतोमुत्तं ।
६४५४. तं जहा-विसंजोयणापुब्बं संजोगे णाकबंधावलियादिक्कतपढमसमएआत्तत्रसंकमस्सादि कादूर्णतरिय पुणो सबलहुं सम्मत्तं पडिवजिय विसंजोएदूण संजुत्तस्स बंधावलियवदिक्कमे लद्धमंतरं होइ।।
* उकास्सेण उवडपोग्गलपरियहूँ । ६४५५. तं कधं १ अद्धपोग्गलपरियट्ठादिसमए सम्मत्तमुप्पाइय उवसमसम्मत्त* उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन के बराबर है।
६४५२. क्योंकि एक बार अवस्थित संक्रमसे परिणत हुए जीवके पुनः वह असम्भव होनेसे अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण स्वीकार किया गया है।
शंका-उच्चारणाकारने अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है, इसलिए सूत्रके साथ उसका अविरोध कैसे घटित होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उपदेशान्तरके अवलम्बन द्वारा अविरोधका समर्थन किया गया है।
* अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४५३. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है।
६४५४. यथा-विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर नवकबन्धावलिके व्यतीत होनेके प्रथम समयमें प्रवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ करके और उसका अन्तर करके पुनः अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करके विसंयोजनापूर्वक संयुक्त होनेके बाद बन्धावलिके व्यतीत होने पर पुनः अवक्तव्यसंक्रम होकर उसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। ६४५५. शंका-वह कैसे ? समाधान-अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालके प्रथम समयमें सम्यक्त्वको उत्पन्न करके
पुव ता०।
४३
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३३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ कालभंतरे चेवाणताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय सव्वलहुं संजुतस्स बंधावलियादिक्कतपढमसमए अवत्तव्यसंकमस्सादी दिट्ठा । तदो सव्वचिरमंतरिदूणद्धपोग्गलपरियट्टावसाणे अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मत्तमुप्पाइय विसंजोयणापुवं संजुत्तस्स बंधावलियादिक्कमे लद्धमंतरं होइ ।
पारसकसाय-पुरिसवेद-भयदुगुंछाणं भुजगारप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६४५६. सुगमं । . .
* जहणणेण एयसमओ। ६ ४५७. कुदो ? भुजगारप्पदराणमणप्पिदपदेणेयसमयमंतरिदाणं तदुवलद्धीदो। .
* उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेचविभागो।
६ ४५८. कुदो ? भुजगारप्पयराणमण्णोण्णुक्कस्सकालेणावद्विदकालसहिदेणंतरिदाणमुक्कस्संतरस्स तप्पमाणतोवलंभादो।
* अवडिवसंकामयंतरं केवचिरं कालादोहोदि ? ६४५६. सुगम । * जहणणेण एयसमओ।
उपशमसम्यक्त्व कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके अति शीघ्र संयुक्त हुए जीवके बन्धावलिके व्यतीत होनेके प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रमका प्रारम्भ दिखालाई दिया। उसके बाद बहुत दीर्घ काल तक उसका अन्तर करके अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वको उत्पन्न करके विसंयोजनापूर्वक संयुक्त हुए जीवके बन्धावलिके व्यतीत होने पर पुनः अवक्तव्य संक्रम होनेसे उसका उक्त अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है।
* बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
६४५६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६४५७. क्योंकि अनर्पित पद द्वारा एक समयके लिए अन्तरित किये गये भुजगार और अल्पतर पदोंका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६४५८. क्योंकि अवस्थित पदके कालके साथ एक दूसरेके उत्कृष्ट कालसे अन्तरको प्राप्त हुए भुजगार और अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट अन्त उक्त कालप्रमाण उपलब्ध होता है।
* अवस्थित संक्रामकका अन्तर काल कितना है ? ६४५६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
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२५ गा० ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
६ ४६०. भुजगारप्पदराणमण्णदरसं क्रमेणेयसमयमंतरिदस्स तदुवलद्धीदो । * उक्कस्सेण अणतकालसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
३३६
९ ४६१. सुगममेदं; अणंताणुबंधीणमवद्विदुकस्संतरपरूवणाए समाणत्ता दो । संपहि एदेण सुत्ते पुरिसवेदस्स वि असंखेजपोग्गलपरियट्टमेत्तावट्ठिदसंकमुकस्संतरावि१प्पसंगे तदसंभवपदुपायगदुवारेण तत्थ देगद्ध पोग्गल परियट्टमेनंतर विहासणमुत्तरमुत्तं भणइ । * णवरि पुरिसवेदस्स उचदुपोग्गलपरियहं ।
६ ४६२. कुदो १ सम्माइट्ठिम्मि चेत्र तदवट्ठिद संक्रमस्स संभवणियमादो । * सव्वेसिमवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ९ ४६३. सुगममेदं पुच्छावक ं ।
* जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
४६४. सव्वासामणापडिवाद जहणंतरस्स तप्यत्तोवलं भादो । * उक्कस्सेण उवठ्ठपोग्गलपरियहं ।
९ ४६५. अद्धपोग्गलपरियट्टा दिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय सामणापडिवादेणादि कादूणंत रिसस्स पुण्णो तदवसाणे अंतोमुहुत्तसेसे सन्त्रोवसामणा
सलहु सव्त्रोव -
६४६०. क्योंकि भुजगार और अल्पतर संक्रमके द्वारा एक समय के लिए अन्वर को प्राप्त अवस्थित संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल
परिवर्तनोंके बराबर है ।
४६१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि यह अनन्तानुबन्धियोंके अवस्थित संक्रमके उत्कृष्ट अन्तरके कथन के समान है। अब इस सूत्र द्वारा पुरुषवेदके भी अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होने पर वह असम्भव है इसके कथन द्वारा उसमें कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अन्तरका कथन करनेके लिए आागेका सूत्र कहते हैं.
* इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका उक्त अन्तरकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है ।
६ ४६२. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके ही पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमकी सम्भावनाका नियम है । * उक्त सब कर्मों के अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
६ ४६३. यह पृच्छा वाक्य सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
६ ४६४. क्योंकि सर्वोपशामना के प्रतिपातके जघन्य अन्तरकाल प्रमाण वह उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्श्वपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है ।
६४६५. अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके अतिशीघ्र सर्वोपशामनासे गिरनेके कारण अवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ करके उसके अन्तरको प्राप्त हुए जीवके पुनः अर्धपुद्गल परिवर्तनके अन्त में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रहने पर सर्वोपशामना के प्रतिपात
१. राई, ता० ।
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३४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ पडिवादेण लद्धमंतरमेत्थ कायव्वं ।
* इत्थिवेवस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालावो होवि ? ६४६६. सुगमं ।
® जहणणेण एयसमझो। ६४६७. सगबंधणिरुद्धयसमयमेतपडिवक्खबंधकालावलंबणेण पयदंतरसाहणं कायव्वं ।
ॐ उकस्सेण घेछावठिसागरोषमाणि संलेजवस्सन्महियाणि । ६४६८. कुदो ? तदप्पयरसंकमुकासकालस्स पयदंतरत्तेण विवक्खियत्तादो।
* अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालावो होदि ? ६४६६. सुगम ।
* जहणणेणेयसमभो। ६४७०. कुदो ? पडिवक्खबंधणिरुद्ध यसमयमेतसगबंधकालम्मि तदुवलंभादो । * उकास्सेण अंतोमुत्तं । ६४७१. कुदो ? सगबंधगद्धामेतभुजगारकालावलंबणेण पयदंतरसमत्थणादो । * अवत्तव्वसंकामयंतर केवचिरं कालादो होवि ?
द्वारा पुनः अवक्तव्य संक्रम प्राप्त होनेसे यहाँ पर उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त कर लेना चाहिए।
* स्त्रीवेदके भुजगार संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४६६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६४६७. अपने बन्धके रुकने पर प्रतिपक्ष प्रकृतिके एक समय तक होने वाले बन्धका अवलम्बन लेनेसे प्रकृत अन्तरकालकी सिद्धि कर लेनी चाहिए।
*उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्षे अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है। ६४६८. क्योंकि प्रकृत अन्तरकालरूपसे उसके अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट काल विवक्षित है। * अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४६६. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६४७०. क्योंकि प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके रुकने पर एक समय मात्र अपने बन्धकालमें उसकी उपलब्धि होती है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है।
६ ४७१. क्योंकि अपने बन्धकाल मात्र भुजगार कालका अवलम्बन लेनेसे:प्रकृत अन्तर कालका समर्थन होता है।
* अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है?
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३४१ ६४७२. सुगर्म ।
जहरणेण अंतोमुखतं । ६४७३. सुगम ।
उकस्सेण उघडपोग्गलपरियडें । ६४७४. एदपि सुगमं ।
ॐ णवुसयवेवभुजगारसंकामयंतर केवधिर कालादो होदि ? ६४७५. सुगमं । ॐ जहएणेण एयसमभो। ४७६. एदपि सुगमं ।
* उकस्सेण घेछावहिसागरोवमाणि तिपिण पलिदोवमाणि सादि. रेयाणि।
६४७७. कुदो ? तदप्पयरुक्कस्सकालस्स पयदंतरत्तेण विवक्खियत्तादो। * अप्पयरसंकायंतर केवचिरं कालादो होदि ? ॐ जहणणेण एयसममो। ॐ उकस्सेण अंतोमुहुतं । * प्रवत्तव्वसंकामयंतर केवचिर कालादो.होदि ?
-
~
६४७२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६४७३. यह सूत्र सुगम है। । * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपापुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। ६४७४. यह सूत्र भी सुगम है। • * नपुंसकवेदके भुजगार संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४७५. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६४७६. यह सूत्र भी सुगम है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पन्य अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है । ६४७७. क्योंकि उसके अल्पतर संक्रमका उत्कृष्टकाल प्रकृत अन्तरकाल रूपसे विवक्षित है। * अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? . * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। * अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
* जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । * उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियहं । ६४७८. दाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * हस्स-रइ-अरह-सोगाणं कालादो होदि ?
४७६. सुगमं ।
भुजगारअप्पयरसंकामयंतं केवचिर
* जहणणेण एयसमओ ।
६ ४८०. कुदो १ भुजगारप्पदराणमण्णोष्णोणंतरिदाणं तदुवलंभादो । उक्कस्सेष अंतोमुडुत्तं ।
[ बंधगो ६
४८१. पडिवक्खबंधगद्धाए सगबंधकालेण च जहाकममंतरिदाणं पयदभुजगारप्पयरसंकंमाणं तेत्तियमेत्तु कस्संतरसिद्धीए पडिबंधाभावादो । संपहि पुव्वुसुतणिद्दिट्ठेयसमयमेतजहांतरस्स फुडीकरणङ्कं सुतपबंधमुत्तरं भणइ ।
* कथं ताव हस्स-रदि-भरदिसोगाणमेयसमयमंतर ? ४८२. सुगममेदं सिस्सा हिप्पायासंकावयणं ।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है
!
६४७८. ये सूत्र सुगम हैं ।
* हास्य, रति, अरति और शोकके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ?
६४७६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है 1
४८०. क्योंकि एक दूसरेके द्वारा अन्तरको प्राप्त भुजगार और अल्पतर संक्रमोंका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
४८१. क्योंकि प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धक काल और अपने अपने बन्धककालके द्वारा यथाक्रम अन्तरको प्राप्त हुए प्रकृत भुजगार और अल्पतर संक्रमका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कालके सिद्ध होने में कोई रुकावट नहीं पाई जाती। अब पूर्वोक्त सूत्रमें निर्दिष्ट एक समयमात्र जघन्य अन्तरको स्पष्ट करनेके लिए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
* हास्य, रति, अरति और शोकका एक समय अन्तरकाल कैसे है ? ६४८२. शिष्योंके अभिप्रायको प्रगट करनेवाला यह आशंका वचनं सुगम हैं।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भजगारो
३४३ ॐ हस्स-रविभुजगारसंकामयंतर जइ इच्छासि, अरदि-सोगाणमेयसमय बंधावेदव्यो।
४८३. तं जहा-हस्सरदीओ बंधमाणो एयसमयमरेइ-सोगबंधगो जादो । तदो पुणो वि तदणंतरसमए हस्सरदीणं बंधगो जादो । एवं बंधिदूण बंधावलियवदिक्कमे बंधाणुसारेण संकामेमाणयस्स लद्धमेयसमयमेत्तभुजगारसंकामयंतरं ।।
* जइ अप्पयरसंकामयंतरमिच्छसि हस्सरदोमो एयसमयं बंधावेयव्वाओ।
६.४८४. एदस्स णिदरिसणं-एदो अरदिसोगबंधगो एयसमयं हस्सरदिबंधगो जादो । तदर्णतरसमए पुणो वि परिणामपच्चएणारदिसोगाणं बंधो पारद्धो। एवं बंधिऊण बंधावलिया दिक्कमेदेणेवर कमेण संकामेमाणयस्स लद्धमेयसमयमेतं पयदजहण्णंतरं । एदेणेव णिदरिसणेणारदिसोगाणं पि भुजगारप्पयरसंकामयंतरमेयसमयमेत्तं । हस्स-रइ-विवजासेण जोजेयव्वं । इस्थि-णqसयवेदाणं वि भुजगारप्पयरजहण्णंतरमेवं चे साहेयव्वं विसेसाभावादो।
* अवत्तव्वसंकामयंतर केवचिरं कालावो होदि ? ६४८५. सुगर्म ।
* हास्य और रतिके भुजगार संक्रामकका यदि अन्तर लाना इष्ट है तो अरति और शोकका बन्ध कराना चाहिए।
६४८३. यथा-हास्य और रतिका बन्ध करनेवाला जीव एक समयके लिए अरति और शोकका बन्ध करनेवाला हो गया। उसके बाद फिर भी उसके अनन्तर समयमें हास्य और रतिका बन्ध करनेवाला हो गया। इस प्रकार बन्ध करके बन्धावलिके व्यतीत होने पर बन्धके अनुसार संक्रम करनेवाले जीवके भुजगार संक्रमका एक समयप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है।
* यदि अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल लाना इष्ट है तो हास्य और रतिका एक समय तक बन्ध कराना चाहिए।
६४८४. इसका उदाहरण-अरति और शोकका बन्ध करनेवाला कोई एक जीव एक समय तक हास्य और रतिका बन्ध करनेवाला हो गया। उसके बाद अनन्तर समयमें उसने फिर भी परिणाम वश अरति और शोकका बन्ध प्रारम्भ किया। इस प्रकार बन्ध करके बन्धावलिके व्यतीत होनेके कारण क्रमसे संक्रम करनेवाले उसके प्रकृत जघन्य अन्तरकाल एक समयमात्र प्राप्त हो जाता है । इसी उदाहरणके अनुसार अरति और शोकके भी भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय मात्र हास्य और रतिको अरति और शोकके स्थानमें रखकर लगा लेना चाहिए। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके भी भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर काल इसी प्रकार साध लेना चाहिए, क्योंकि पर्वोक्त कथनसे इस कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४८५. यह सूत्र सुगम है।
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३४४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* जहण्णेण अंतोमुडुत्तं ।
९ ४८६. कुदो ? सव्वोवसामणापडिवाद जहणंतरस्स तप्यमाणोवलंभादो ।
* उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियहं ।
[ बंधगो ६
९ ४८७. कुदो १ तदुक्कस्सविरहकालस्स तप्यमाणत्तोवलंभादो । एवमोघेण सव्त्रपडीणं भुजगारादिपद संकामय जहण्णुकस्संतरपमाणविणिण्णयं काढूण संपहि तदादेस - परूवणाणिबंधणमुत्तरमुत्तपदमाह ।
* गदीसु च साहेयव्वं ।
४८८. एदीए दिसाए गदीसु च णिरयादिसु पयदंतरं विहाण मणुमा थिय दव्यमिदि वृत्तं होइ ।
४८६. संपहिएदेण बीजपदेण सूचिदत्थस्स उच्चारणाइरियपरूविद विवरणमणुवत्तसामो । त जहा -- आदेसेण णेरइयमिच्छत्तअनंताणु०४ भुज० अप्प० अवट्टि ० संका० जह० एयस० । अवत्त० जह० अंतोमु० । सम्म० भुज० जह० पलिदो ० असंखे ० भागो । अष्प ० अवत० संका० जह० अंतोमु० । सम्मामि० भुज० अप्प० संका ० जह० एयस० । अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० सव्वेसिं तेत्तीसं सागरोवमाणि
* जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
§ ४८६. क्योंकि सर्वोपशामना के प्रतिपातका जघन्य अन्तरकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तन
प्रमाण 1
६ ४८७. क्योंकि सर्वोपशामनाके प्रतिपातका उत्कृष्ट विरहकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है । इस प्रकार से सब प्रकृतियों के भुजगार आदि पदोंके संक्रामक जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल के प्रमाणका निर्णय करके अब उनकी आदेश प्ररूपणाको बतलाने वाले आगे सूत्रको कहते हैं
* इसी प्रकार चारों गतियोंमें अन्तरकाल साध लेना चाहिए ।
४८८. इसी दिशासे नारक आदि गतियोंमें प्रकृत अन्तरकालके विधानका अनुमान करके ले जाना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
६४८६. अब इस बीज पदसे सूचित होनेवाले अर्थका उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये विवरणको बतलाते हैं । यथा - आदेश से नारकियोंमें मिध्यास्त्र और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अत्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा उक्त सब प्रकृतियोंके अपने अपने सब पदोंके संक्रामक्कोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुष
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो
३४५ देसूणाणि । बारसक०-पुरिसवेद-भय-दुगुछ० भुज० अप्प० संका० जह० एयसमयो । उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अवढि० मिच्छत्तमंगो। इत्थिवेद-णqसवे. भुज० संका० मिच्छत्तभंगो। अप्प०संका० जह० एयस० । उक० अंतोमु० । चदुणोक० भुज. अप्प०संका० जह• एयसमओ। उक० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइएसु । णवरि सगहिदी देसूणा।
६४६०. तिरिक्खेसु मिच्छ० सम्म०-सम्मामि० ओघं । अर्णताणु०४ भुज० जह• एयस० । उक्क० तिण्णिपलिदो० सादिरेयाणि। अप्प०संका. जह• एयस० । उक्क० तिणिपलिदो० देसूणाणि । अबढि० अवत्त० ओघं। बारसक०-पुरिसवे.. भय-दुगुछ० भुज० अप्प० अवढि० ओघं । इथिवे. भुज० पुरिसवे० अवढि० जह. एयस० । उक० तिणिपलिदो० देसूणाणि। इथिवेद-अप्प०संका० ओघं । णस० भुज० संका० जह० एयस० । उक्क० पुचकोडी देसूणा । अप्प०संका० ओघं० । चदुणोक० भुज. अप्प० ओघं । वेद, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित पदका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके भजगार संक्रामकका भन मिथ्वात्वके समान है। अल्पतर संक्रा. मकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । चार नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए।
विशेषार्थ—पहले ओघप्ररूपणाके समय सब प्रकृतियोंके अलग-अलग पदोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका स्पष्टीकरण कर आये हैं । उसी प्रकार यहाँपर जिन प्रकृतियोंके जो पद सम्भव हैं उनके अन्तरकालको समझ लेना चाहिए। मात्र अोधप्ररूपणाके समय उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाते समय जहाँ सामान्य नारकियोंकी और प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे अधिक अन्तरकाल बतलाया है वहाँ नारकियोंमें कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति ले लेनी चाहिए।
६४६०. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर• काल कुछ कम तीन पल्य है । अवस्थित और प्रवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग पोषके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेदके भुजगार और पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है। स्त्रीवेदके अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। नपुंसकवेदके भुजगारसंक्रमका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अल्पतर संक्रामकका भङ्ग भोपके समान है। चार नोकषायों के भुजगार और अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओषके समान है।
४४
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जयधवलासहिदे कसायपाहुरे
[बंधगो६ ४६१. पंचिंदिय तिरिक्खतिए मिच्छ० भुज० अप्प० अववि० संका० जह. एयस० । अवत्त० जह• अंतोमु० । सम्म० भुज० जह० पलिदो० असंखे०मागो । अप्प० अवत्त० जह. अंतोमु० । सम्मामि० भज० अप्पयर०संका० जह० एयस० । अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० सव्वेसि तिणिपलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणन्महियाणि । अणताणु०४ भुज० अवढि० अवत्त० मिच्छतभंगो। अप्प०संका० जह• एयस० । उक्क० तिणिपलिदो० देसूणाणि । बारसक०-भय-दुगु भुज० अप्प०संका० ओघं० । अवढि०संका० मिच्छत्तभंगो, पुरिसवे. भज. अप्पसंका० ओघं। अवढि० जह० एयस०उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणां । इस्थिवे०-णस०-चदुणोक० तिरिक्खोघं ।
विशेषार्थ-यहाँपर अन्य सब प्ररूपणा ओघके समान होनेसे उसे देखकर घटित कर लेना चाहिए। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भजगार संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य कहनेका कारण यह है कि संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें इनका भुजगार करके बादमें अन्तर करके यथा योग्य तिर्यश्च सम्बन्धी पर्यायोंमें उत्पन्न होकर तथा अन्तमें तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर जीवनके अन्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्वानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करते हुए गुण संक्रम द्वारा पुनः मुजगारसंक्रम करनेसे यह अन्तरकाल साधिक तीन पल्य बन जाता है, इसलिए उक्त अन्तरकाल कहा है। उत्तम भोगभूमिके तिर्यचोंमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कराके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कराते समय अल्पतर संक्रम करावे। उसके बाद जीवनके अन्तमें संयुक्त होनेके बाद पुनः अल्पतर संक्रम करावे। इस प्रकार अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। इसमें पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य कहा है सो विचार कर लेना चाहिए। भोगभूमिज पर्याप्त तियञ्चोंमें नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होता इसलिए इनमें भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
६४६१. पन्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, सम्यक्त्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और इन सब प्रकृतियोंके उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । बारह कषाय. भय और जुगुप्साके भजगार और अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके.समान है। अवस्थित संक्रामकका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। पुरुषवेदके भजगार और अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है।
विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए यहाँ पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिन्यात्वके उक्त तिर्यञ्चोंमें सम्भव पदोंका
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
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४६२. पंचिं० तिरि • अपज० मरणुस-अपज० सम्म० सम्मा मि० भुज० अप्प० णत्थि अंतरं । सोलसक० -भय- दुगु छा० भुज० अप्प० अवट्ठि ० संका ० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । सत्तणोक० भुज० अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० ।
६ ४६३. मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवरि मणुस ० मणुसपञ्ज० - पुरिसवे ०अवडि० तिष्णिपलिदो० पुव्वकोडिपुधत्तेणन्महियाणि । णवरि बार सक०-णवणोक० अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं ।
उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। इतना अवश्य है कि उक्त कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें यथायोग्य इन पदोंकी प्राप्ति करा कर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य प्रमाण जिस प्रकार सामान्य तिर्यों में घटित करके बतलाया है उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए । इसी प्रकार अन्य अन्तरकाल भी प्रोघ प्ररूपणा और सामान्य तिर्यों में की गई प्ररूपणाको देख कर घटित कर लेना चाहिए । अन्य कोई विशेषता न होनेसे हम यहाँ पर अलगसे खुलासा नहीं कर रहे हैं।
४२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त है । सात नोकषायों में भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ — उक्त जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार और अल्पतर संक्रम उद्वेलना के समय ही सम्भव है और इनकी कायस्थिति मात्र अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके इन पदोंका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। शेष प्रकृतियों के यथा सम्भव पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है ।
६४६३. मनुष्यत्रिक में पञ्चेन्द्रियोंका तिर्यक्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंमें पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । इतनी और विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है ।
विशेषार्थ — पुरुषवेदका अवस्थित संक्रम नियमसे सम्यग्दृष्टिके होता है, इस लिए यहाँ पर मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंमें पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यद्यपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यनियों में अपनी कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें सम्यक्त्व उत्पन्न करा कर पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रमका यह अन्तरकाल प्राप्त करना सम्भव है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चों में शोषके समय यह अन्तरकाल प्राप्त करना सम्भव है, अन्यथा श्रोघप्ररूपणाकी व्याप्ति नहीं बन सकती। फिर भी उसका निर्देश न कर वह कुछ कम तीन पल्य ही क्यों कहा है यह अवश्य ही विचारणीय है। अभी हम इसका निर्णय नहीं कर सके हैं। मनुष्यत्रिकका उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होनेके बाद पुनः मनुष्य होना सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें बारह कषाय और नौ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
(बंधगो ६ ४६४. देवेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि०-अणंताणु०४-इत्थिःणस० णारयभंगो । णवरि जम्मि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि तम्मि० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक० पुरिसवे०-छण्णोक० णारयभंगो। एवं भवणादि जाव णवगेवजा ति । णवरि सगढिदी देसूणा।
६४६५. अणुदिसादि सव्वट्ठा ति मिच्छ० सम्मामि०-इत्थिवे..णवंस० णत्थिअंतरं । अणंताणु०४ भज० अप्प०संका गत्थि अंतरं । बारसक०-पुरिसवे०-भय-दुगुंछ. भज० अप्प० ओघं। अवढि० संका० जह० एयस० । उक्क० सगहिदी देसूणा । चदु. णोक० भुज० अप्प०संका० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । एवं गइमग्गणा समत्ता । नोकषायोंके प्रवक्तव्य संक्रमका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व, प्रमाण कहा है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका प्रवक्तव्य संक्रम उपशमश्रेणिमें होता है और उपशम श्रेणिका आरोहण कर्मभूमिज मनुष्योंमें ही सम्भव है।
विशेषार्थ (२)-पुरुषवेदको अवस्थितका अन्तर ओघमें अर्धपुद्गल परिवर्तन, सामान्य मनुष्य व मनुष्यपर्याप्तमें पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहनेका यह कारण ज्ञात होता है कि पुरुषवेद वाले मनुष्यके सम्यग्दर्शनमें पुरुषवेदको अवस्थित हो जाने पर मिथ्वात्वमें जाकर अन्तर हो गया पुनः जब वह पुरुषवेद वाला मनुष्य होकर सम्यक्त्व ग्रहण किया उसके पुनः पुरुषवेदको अवस्थित हुई। किन्तु अन्य जीवोंके सम्यक्त्व कालके प्रारंभ और अन्तमें पुरुषवेदको अवस्थित होनेसे अन्तर कहा है उनके मिथ्यात्व अवस्थामें पहुंचकर पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेपर पुरुषवेदको अवस्थितका अन्तर उपलब्ध नहीं होता। इसमें कारण क्या है यह समझमें नहीं आता। फिर भी अन्तरकाल उपर्युक्त दृष्टिसे कहा गया है यह बात समझमें आती है।
६४६४. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर कुछ कम तेतीस सागर कहा है वहाँ पर कुछ कम इकतीस सागर कहना चाहिए। बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ देवोंमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों गुणोंकी प्राप्ति नौ प्रैवेयक तक ही सम्भव है, इसलिए इनमें नारकियोंकी अपेक्षा इतनी विशेषता कही है। शेष कथन स्पष्ट है।
६४६५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके सम्भव पदोंका अन्तरकाल नहीं है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार
अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ बारह कषाय आदिके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेसे यहाँ इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। किन्तु इनके अवस्थित संक्रमका ऐसा कोई नियम नहीं है। वह एक समयके अन्तरसे भी हो सकता है और मध्यमें न
भारअ
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गा०५८]
उत्तरपयदेडिपससंकमे भुजगारो ६४६६. एत्तो सेसमग्गणाणं देसामासयभावेणिदियमग्गणेयरदेसभूदेएईदिएसु पयदंतरविहासणटुमुत्तरप्पबंधमाह।
8 एइंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पत्यि किंचि वि अंतरं।
६४६७. कुदो ? तत्थ संभवंताणं पिं भुजगारप्पदरपदाणं लद्धंतरकरणोवायामावादो।
सोलसकसाय-भय-दुछाणं भुजगार-अप्पयर-संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि? ६४६८. सुगमं ।
जहणणेण एयसमयो। ६ ४६६. भुजगारप्पदराणमण्णोण्णेणावडिदसंकमेण वा एयसमयमंतरिदाणं विदियसमये पुणो वि संभवं पडि विरोहामावादो।
उकस्सेण पतिदोवमस्स असंखेजविभागो। होकर जीवन के प्रारम्भमें और अन्तमें भी हो सकता है । यही कारण है कि यहाँ पर इनके अवस्थित संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण कहा है । चार नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर संक्रमका जघन्य संक्रमकाल एक समय और उत्कृष्ट संक्रमकाल अन्तमुहूर्त होनेसे यहाँ पर इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। ६४६६. अब शेष मार्गणाओंके देशामर्षक भावसे एक देशभूत एकेन्द्रिय मार्गणके एकेन्द्रियों में प्रकृत अन्तरकालका व्याख्यान करनेके लिए आगेके सूत्रप्रवन्धको कहते हैं
* एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कुछ भी अन्तरकाल नहीं है।
६४६७. क्योंकि वहाँ पर यद्यपि उक्त प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर संक्रम होते हैं फिर भी उनके अन्तर करनेका कोई उपाय नहीं पाया जाता।
* सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतरसंक्रामकका अन्तर काल कितना है?
६४६८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६४६६. क्योंकि परस्पर या अवस्थित संक्रमके द्वारा एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त हुए भुजगार और अल्पतरसंक्रम फिर भी सम्भव हैं इसमें कोई विरोध नहीं पाया जाता।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल पन्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। १. 'यदेस' ता।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ दंधगो ६
५००. कुदो १ भुजगारप्पयरकालागमुक्कस्सेण पलिदोवमासंखेज्जभागपमाणाणं जोहेदरपक्खाणं व परियत्तमाणाणमण्णोपणेणंतरिदाणमेइ दिए संभवे विरोहाभावादो । * अवट्ठिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होति ?
५०१. सुगमं ।
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* जहण्णेण एयस॑मत्रो ।
§ ५०२. भुजगारेप्पदराणमण्णदरेणेयसमयमंतरिदस्स तदुवलंभादो ।
* उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ६५०३. गयत्थमेदं सुत्तं; ओघेण समाणपरूवणत्तादो ।
* सेसाणं सत्तणोकसायाणं भुजगार- अप्पयर- संकामयंतरं केवचिरं लादो होदि ?
8
५०४. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमत्रो ।
९५०५. पडिवक्खबंघेण सगबंघेण च एयसमयमंतरिदस्स तदुवलंभादो । * उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
५००. क्योंकि : भुजगार और अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसके बाद वे शुक्ल और कृष्णपक्ष के समान परस्पर नियमसे अन्तरको प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए एकेन्द्रियोंमें इस अन्तरकालके प्राप्त होनेमें कोई विरोध नहीं आता ।
* अवस्थित संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६५०१. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अतरकाल एक समय है ।
६५०२. क्योंकि भुजगार और अल्पतरसंक्रमके द्वारा एक समयके लिए अन्तरको प्राप्त हुए इसका उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है । ६५०३. यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि इसकी प्ररूपणा ओघके समान है ।
* शेष सात नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ५०४. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
५०५. क्योंकि प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्ध से और अपने बन्धसे एक समयके लिए अन्तरको
प्राप्त हुए उक्त संक्रमोंका यह अन्तरकाल उपलब्ध होता है ।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भजगारो
३५१ ६५०६. परियत्तमाणबंधपयडीसु भुजगारप्पयरकालस्स अंतोमुहुत्तपमाणस्स अण्णोbणंतरभावेण समुवलद्धीए विसंवादाणुवलंभादो। एवमेदेण बीजपदेण सेसमग्गणा वि जाणिऊण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
* पाणाजीवेहि भंगविचयो। ६५०७. अहियारसंभालणपरमेदं सुत्तं ।
* अट्ठपदं कायव्वं ।
F५०८. तत्थ भंगविचये अद्रुपदं ताव कायन्वं; अण्णहा तबिसयणिण्णयाणुप्पत्तीदो।
ॐ जा जेसु पयडी अत्यि तेसु पयदं । ६५०६. जेसु जीवेसु जा पयडी अस्थि, तेसु चेव पयद। कुदो ? अकम्मेहि अव्ववहारादो।
* सव्वजीवा मिच्छत्तस्स सिया अप्पयरसंकामया च असंकामयाच।
६५१०. एत्थ सबजीवणिद्दे सेण मिच्छत्तसंतकम्मियसव्वजीवाणं गहणं कायव्वं । कुदो १ एवमणंतरणिहिट्ठपदसामत्थियादो। तेसु अप्पयरसंकामया असंकामया च णियमा अस्थि । कुदो ? मिच्छत्तप्पयर-संकामयवेदयसम्माइट्ठीणं तदसंकामय मिच्छाइट्ठीणं च सव्वकालमवट्ठाणणियमदंसणादो ।
8५०६. क्योंकि परिवर्तमान बन्ध प्रकृतियोंमें भुजगार और अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त प्रमाण है। उसके परस्पर अन्तरकाल रूपसे उपलब्ध होने में कोई विसंवाद नहीं पाया जाता । इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार शेष मार्गणाप्रोमें भी जानकर अनाहारक माणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल समाप्त हुआ। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग विचयका अधिकार है। ६५०७. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र है। * उसमें अर्थपद करना चाहिए।
६५०८. उसमें अर्थात् भङ्गविचयमें सर्व प्रथम अर्थपद करना चाहिए अन्यथा उसके विषय का निर्णय नहीं हो सकता।
* जिनमें जो प्रकृति विद्यमान है उनमें प्रकृत है।
६५०६. जिन जीवोंमें जो प्रकृति विद्यमान है उनमें ही प्रकृत है, क्योंकि कर्मरहित जीवोंका यहाँ उपयोग नहीं है।
* सब जीव मिथ्यात्वके कदाचित् अल्पतर संक्रामक हैं और असंक्रामक हैं।
६५१०. यहाँ पर सर्व जीव पदके निर्देश द्वारा मिथ्यात्वके सत्कर्म वाले सब जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अनन्तर निर्दिष्ट अर्थपदकी सामर्थ्यसे ऐसा ही निर्णय होता है। उनमें अल्पतर संक्रामक और असंक्रामक जीव नियमसे हैं, क्योंकि मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्राम वेदक सम्यग्दृष्टियों के और मिथ्यात्वके असंक्रामक मिथ्यादृष्टियोंके सर्वदा अवस्थानका नियम देखा जाता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ सिया एदेच, भुजगारसंकाममो च, अवडिवसंकामगो च, अवतव्यसंकामगो च।
६५११. तं जहा-सिया एदे च भुजगारसंकामगो च ? कदाइमप्पयरसंकामएहि सह भुजगारपजायपरिणदेयजीवसंभवोवलंभादो। सिया एदे च अवढिदसंकामगो च; पुग्विन्लेहि सह कामहिमिर अवविदपरिणामपरिणदेय-जीवसंभवोविरोहादो २। सिया एदे च अवत्तव्वसंकामगो च; कयाईधुवपदेण सह अवत्तव्वसंकमपन्जाएण परिणदेयजीवसंभवे विप्पडिसेहाभावादो ३ । एवमेयवयणेण तिण्णि भंगा णिहिट्ठा । एदे चेव बहुवयणसंबंधेण वि जोजेयव्वा । एवमेदे एयसंजोगभंगा परूविदा । संपहि एदे चेव दुसंजोगतिसंजोगवियप्पेहि सत्तावीसभंगसमुप्पत्तीए णिमित्तं होति ति जाणावणहमिदमाह ।
* एवं सत्तावीसभंगा। ६ ५१२. एवमेदेण कमेण सत्तावीसभंगा उप्पाएयव्वा । तेसिमुच्चारणा सुगमा ।
सम्मत्तस्स सिया अप्पयरसंकामया च असंकामया च णियमा। ६५१३. सम्मत्तस्स अप्पयरसंकामया णाम उव्वेल्लणाणमिच्छादिविणो असंकामया च वेदगसम्माइट्ठिणो सव्वे चे; तेसिमेय पाहणियादो । तेसिमुभएसिं णियमा अस्थित्त
* कदाचित् ये जीव हैं और एक एक भुजगार संक्रामक, अवस्थित संक्रामक और अवक्तव्य-संक्रामक जीव है।
६५११. यथा-कदाचित् ये जीव हैं और एक भुजगार संक्रामक जीव है, क्योंकि कदाचित् अल्पतर संक्रामक जीवोके साथ भुजगार पर्यायसे परिणत हुआ एक जीव सम्भव रूपसे उपलब्ध होता है। कदाचित् ये जीव हैं और एक अवस्थित संक्रामक जीव है, क्योंकि पूर्वोक्त जीवोंके साथ कदाचित् अवस्थित पर्यायसे परिणत हुए एक जीवके सम्भव होनेमें कोई विरोध नहीं है ।। कदाचित् ये जीव हैं और एक प्रवक्तव्य संक्रामक जीव है, क्योंकि कदाचित् ध्रुवपदके साथ प्रवक्तव्य संक्रामक पर्यायसे परिणत हुए एक जीवके सम्भव होनेमें कोई निषेध नहीं है ३ । इस प्रकार एक वचनके द्वारा तीन भङ्ग निर्दिष्ट किये गये हैं। तथा ये ही बहुवचनके साथ मी लगा लेने चाहिए। इस प्रकार ये एक संयोगी भङ्ग कहे । अब ये ही द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी विकल्पोंके साथ सत्ताईस भङ्गों की उत्पत्तिमें निमित्त होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार सत्ताईस भङ्ग होते हैं। ६५१२. इस प्रकार इस क्रमसे सत्ताईस भङ्ग उत्पन्न करने चाहिए। उनकी उच्चारणा
सुगम है।
. * सम्यक्त्वके कदाचित् अल्पतर संक्रामक और असंक्रामक जीव नियमसे हैं।
६५१३. सम्यक्त्वके अल्पतर संक्रामक उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव और असंक्रामक सभी वेदक सम्य दृष्टि जीव होते हैं, क्योंकि उनकी यहाँ पर प्रधानता है। उन दोनों प्रकारके जीवों का नियमसे अस्तित्व है यह सूत्र द्वारा जतलाया गया है। यदि ऐसा है तो यहाँ पर स्यात्
१.कया ता
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो
३५३ मेदेण सुत्तेण जाणाविदं । जइ एवं; एत्य सिया सद्दो ण पयोत्तयो ति णासंकणिजं, उवरिम-भयणिजभंगसंजोगासंजोगविवक्खाए धुवपदस्स वि कदाचिक्कभाव सिद्धीदो ।
सेससंकामया भजियव्वा । ६५१४. एत्थ सेससंकामया णाम भुजगारावत्तव्यसंकामया, ते च भयणिजा; सिया अत्थि, सिया णस्थि ति । कुदो ? तेसि कदाचिक्कभावदंसणादो। तदो एदेसिमेगबहुवयगविसेसिदाणमेग-दु-संजोगेणट्ठभंगसमुप्पत्ती वत्तया । धुवभंगेण सह सवेभंगा णव होति ।
ॐ सम्मामिच्छत्तस्स अप्पयरसंकामया णियमा।
६५१५. कुदो ? उव्वेल्लमाणमिच्छाइट्ठीणं वेदयसम्माइट्ठीणं च तदप्पयरसंकामयाणं सव्वकालमुवलंभादो। तदो एदेसिं 'ध्रुवभावेण सेससंकामयाणमेत्थ भयणी१ यत्तपदुप्पायणमुत्तरसुत्तमोइण्णं ।
8 सेससंकामया भजियव्वा ।
६५१६. एत्थ सेसग्गहणेण भुजगारावत्तव्यसंकामयाणमसंकामयसहिदाणं गहणं कायव्वं । ते भजिदया । कुदो ? तेसि धुवभाविताभावादो। तदो सत्तावीसभंगाणमेत्थुप्पत्ती वत्तव्या ।
सेसाणं कम्माणं अवत्तव्वसंकामगा च असंकामगाच मजिदव्वा । शब्दका प्रयोग नहीं करना चाहिए इस प्रकार यहाँ पर आशका नहीं करनी चाहिए क्योंकि आगेके भजनीय भङ्गोंके संयोग और असंयोगकी विवक्षा होने पर ध्रुवपदकी भी कादाचित्कभाव की सिद्धि होती है।
* शेष पदों के संक्रामक जीव भजनीय हैं ।
६५१४. यहाँ पर शेष पदोंके संक्रामकोंसे भजगार और अवक्तव्य संक्रामक जीव लिये गये हैं। वे भजनीय हैं अर्थात् कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते, क्योंकि उनका कादाचित्कभाव देखा जाता है । इसलिए एकवचन और बहुवचनसे विशेषताको प्राप्त हुए इनके एक संयोगी और द्विसंयोगी आठ भङ्गोंकी उत्पत्ति करनी चाहिए। ध्रुवभङ्गके साथ सब भङ्ग नौ होते हैं।
* सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामक जीव नियमसे हैं।
६५१५. क्योंकि उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सम्मग्मिथ्यात्व की अल्पतर संक्रम करते और वे सर्वदा पाये जाते हैं इसके लिए इनके ध्रुवभावके साथ शेष पदोंके संक्रामकोंकी भजनीयताका यहाँपर कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है।
* शेष पदोंके संक्रामक जीव भजनीय हैं।
६५१६. यहाँपर शेष पदके ग्रहण करनेसे असंक्रामकोंके साथ भुजगार और अवक्तव्य संक्रामकोंका ग्रहण करना चाहिए । वे भजनीय हैं, क्योंकि वे ध्रुव नहीं हैं। इसलिए सत्ताईस भङ्गोंकी उत्पत्तिका यहाँ पर कथन करना चाहिए ।
* शेष कर्मो के अवक्तव्यसक्रामक और असंक्रामक जीव भजनीय हैं। १'णि' ता०।
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૨૫૪ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
( बंधगो६ ६५१७. एत्थ सेसकम्मग्गहणेण सोलसकसाय-णवणोकसायाणं संगहो काययो । तेसिमवत्तव्यसंकामया असंकामया च भजियया । कुदो १ तेसि सव्वकालमत्थित्तणियमाणुवलंभादो।
8 सेसा णियमा।
६५१८. एत्थ सेसग्गहणेण भुजगारप्पयरावट्ठिदसंकामयाणं जहासंभवग्गहणं कायव्यं । ते णियमा अत्थि त्ति संबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं । एदेण सामण्णणिद्देसेण पुरिसवेदाद्विदसंकामयाणं पि धुवभावाइप्पसंगे तण्णिवारणमुहेण तेसिम वत्तपरूवणदृमुत्तरसुत्तमोइण्णं ।
* पवरि पुरिसवेवस्सावहिवसंकामया भजियव्वा । __६५१६. कुदो ? तेसिमद्धवभा वित्तेण सम्माइट्ठीसु कत्थवि कदाइभाविभावदंसणादो । तदो भुजगारप्पयरसंकामयाणं धुवभावेणावहिदावत्तव्वा । संकामयाणं भयणावसेण पुरिसवेदस्स सत्तावीसभंगा समुप्पाएदव्या । एवमोघेण भंगविचयो सम्बकम्माणं परूविदो । संपहि आदेसपरूवणट्टमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा
६५२०. आदेसेण णेरइय-मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० ओघं० । अणंताणु०४भुज. अप्प०संका० णिय० अस्थि । सेस पदाणि भयणिजाणि । बारसक०-पुरिसवे०
६५९७. यहाँपर शेष कर्मोंके ग्रहण करनेसे सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका ग्रहण करना चाहिए क्योंकि उनके सर्वदा अस्तित्वका नियम नहीं उपलब्ध होता।
* शेष पदोंके संक्रामक जीव नियमसे हैं।
६५१८. यहाँ पर शेष पदका ग्रहण करनेसे भजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकोंका यथा सम्भव ग्रहण करना चाहिए । वे नियमसे हैं ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। इस सामान्य निर्देशसे पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामकोंके भी ध्रुवपनेकी प्राप्तिका प्रसङ्गआया, इसलिए उसके निवारण करनेके अभिप्रायसे उनके अध्रवपनेका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रामक जीव भजनीय हैं।
६५१६. क्योंकि उनके अध्रुव होनेके कारण सम्यग्दृष्टियोंमें उनका कहीं पर कदाचित् सद्भाव देखा जाता है। इसलिए भुजगार और अल्पतर संक्रामकोंके ध्रुव होनेके कारण तथा अवक्तव्य संक्रामक तथा असंक्रामकोंके भजनीय होनेके कारण पुरुषवेदके सत्ताईस भङ्ग उत्पन्न करने चाहिए । इस प्रकार ओघसे सब कर्मोंका भङ्गविचय कहा । अब आदेशसे प्ररूपणा करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा
६५२०. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भजगार और अल्पतर संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतर संक्रामक
१ सेमाणि ता।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
રૂપણ भय-दुगुंछा० भुज०. अप्प०संका० णिय० अत्थि। सिया एदे च अवविदसंकामगो च, सिया एदे च अवट्ठिदसंकामया च ३। इत्थिवेद०-णवूस०-चदुणोक०-भुज०-अप्प०संका० णिय० अत्थि। एवं सव्वणेरइय० पंचि०तिरिक्खतिय देवा भवणादि जाव गवगेवजा ति।
६५२१. तिरिक्खेसु मिच्छ० सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ ओघं । बारसक०भय-दुगुछा० भुज० अप्प० अवढि० णिय० अस्थि । तिण्णिवेद-चदुणोक०-णारय. भंगो । पंचिंदियतिरिक्ख-अपज०-सम्म०-सम्मामि० अप्प० णिय० अस्थि सिया एदे च भुज० संकामगो च, सिया एदे च भुजगारसंकामगा च ३। सोलसक०-भय-दुगुंछा० भुज० अप्प०संका० णिय० अस्थि । अवढि०संका० भय-णिज्जा । तिण्णिवेद-चदुणोक० भुज० अप्पसंका० णियमा अस्थि ।
६५२२. मणुसतिए मिच्छ० सम्म०-सम्मामि०-इत्थि०-णवंस०-चदुणोक० ओघं । सोलसक०-पुरिसवे०-भय-दुगुंछा० भुज० अप्प०संका० णिय. अस्थि । सेसाणि भयणिजाणि पदाणि । मणुसअपज० सत्तावीस पयडीणं सधपदसंका० भय-णिज्जा । अणुद्दिसादि सबट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि०-इत्थिवेद०-णवूस० अप्प०संका० णिय०
नाना जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये हैं और एक अवस्थित संक्रामक जीव है २। कदाचित् ये हैं और एक नाना अवस्थित संक्रामक जीव हैं ३। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायके भुजगार और अल्पतर संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
६५२१. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं । तीन वेद और चार नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके अल्पतर संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये नाना जीव हैं और भजगार संक्रामक एक जीव है २ । कदाचित् ये नाना जीव हैं और भजगारसंक्रामक नाना जीव हैं ३ । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। अवस्थित संक्रामक जीव भजनीय हैं । तीन वेद और चार नोकषायोंके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं।
६५२२. मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक नाना जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंके सब पदोंके संक्रामक जीव भजनीय हैं । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामक नाना जीव नियम
१. 'पदाणि' इति ता० प्रतौ नास्ति।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ ० संका ० णिय० अत्थि भुज० संका० भय णिजा । बारसक०
३५६
अत्थि । अनंतागु०४ अप्प ०२ पुरिसवे ० छण्णोक० देवोधं । एवं जात्र० ।
* णाणाजीवेहि कालो एदाणुमाणिय ऐदव्वो ।
६५२३. एदेण सुत्तेण णाणाजीवेहि कालो भंगविचयादो साहिऊण वेदव्यो ति सिस्साणमत्थसमपणा कया होइ। ण केवलं कालागुगमों चेत्र दव्वो, किंतु भागाभाग-परिमाण -खेत-पोसणाणि वि एदाणुमाणियं दव्वाणि; सुत्तस्सेदस्स देसामा सयभावेणावगमादो । तदो उच्चारणावसेण तेसिमेत्थागमं कस्सोमो । तं जहाभागाभागा गमेण दुविहो णिद्द सो ओघादेस भेएण | ओघेण मिच्छ० सम्म० सम्मामि० अप्प ० का ० सव्वजीव० केवडिओ भागो ? असंखेज्जा भागा। सेसपदसंका ० सव्वंजी ० केव०-भागो ? असंखे० भागो । सोलसक० -भय- दुगु छा० अवत्त० सव्त्र ० के ० १ अनंतभागो । अडि० असंखे ० भागो । अप्प० संका ० संखे ० भागो । भुज० संका० संखेजा भागा । इत्थवेद-हस- दि० अवत्त० संका० अनंतभागो । भागो । अप्प ० संका ० संखेजा भागा । एवं पुरिसवे ० । णवरि अत्तभागो । णवुंसयवे ० -अरदि-सोग० अवत्त ० संका० से हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अल्पतर संक्रामक नाना जींव नियमसे हैं । भुजगार संक्रामक जीव भजनीय हैं । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग सामान्य देवों के समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
भुज० संका ० के ० १ संखे ०
अवट्ठि ० संका ० के ० ? सव्वजी० के० १ अनंतभागो ।
—
* नाना जीवोंकी अपेक्षा काल इससे अनुमान करके ले जाना चाहिए ।
1
६५.२३. इस सूत्र से नाना जीवोंकी अपेक्षा काल भङ्ग विचयके अनुसार साधकर ले जाना चाहिए । इस प्रकार शिष्योंके लिए अर्थकी समर्पणा की गई है। केवल कालानुगम ही नहीं ले जाना चाहिए किन्तु भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन भी इससे अनुमान कर ले जाना चाहिए, क्योंकि इस सूत्र को देशामर्षक भाव से अवस्थित स्वीकार किया गया है । इसलिए उच्चारणा के अनुसार उनका यहाँ पर अनुगम करते हैं। यथा-भागाभागानुगमसे निर्देश ओघ और आदेश के भेदसे दो प्रकारका है । श्रघसे मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतर संक्रामक जीव सब जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । शेष पदोंके संक्रामक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा के वक्तव्यसंक्रामक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं | अवस्थित संक्रामक जीव श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतर संक्रामक जीव संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । भुजगार संक्रामक जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । स्त्रीवेद, हास्य और रतिके
1
वक्तव्य संक्रामक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं । भुजगार संक्रामक जीव कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतर संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार पुरुषवेद की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थित संक्रामक जीव कितने हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवक्तव्य संक्रामक जीव सब जीवोंके कितने मागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । भजगार संक्रामक जीव कितने भागप्रमाण हैं ?
१. 'य' ता० ।
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गा० ८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३५७
भुज ० संका ० के ० ? संखेजा भागा । अप्प ० संका० सव्वजी० के० भागो ? संखेज दि
भागो ।
1
६५२४. आदेसेण रइय० - मिच्छ० सम्म० सम्मामि० ओघभंगो । अनंताणु ० ४ ओघं । णवरि अवत्त ० संका ० असंखे० भागो । बारसक० -भय-दुगु छा० ओघं । वरि अत्त० णत्थि । पुरिसवे ० अट्टि० असंखे० भागो । भुज ० संका ० संखे० भागो । अप्प ० संका ० संखेजा भागा । एवमित्थिवेद ० हस्स-रेदि० । वरि अवट्टि० संका ० णत्थि । णवुंस० - अरदि-सोग० ओघं । णवरि अवत्त ० संका ० णत्थि । एवं सव्वणेरइय ०पंचिदियतिरिक्खतियदेवगइदेवा भवणादि जाव सहस्सार ति ।
६५२५. तिरिक्खेसु ओघं । णवरि बारसक० णवणोक० अवत्त० संका ० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज० मणुस अपज० सम्म० सम्मा मि० भागो । अप्प ० संका ० असंखेजा भागा। सोलसक० णवणोक० अनंता ०४ अवत० णत्थि । पुरिसवेद ० अवट्ठि- संका ० णत्थि । ९५२६. मणुसेसु मिच्छ० अप्प ० संका० संखेजा भागा। सेसं संखे० भागो । सम्म० - सम्मामि० ओघं । सोलसक०-णवणोक० णारयभंगो । णवरि बारसक० णवणोक ०
भुज० संका ० असंखे ० तिरिक्खोघं । णवरि
संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । अल्पतर संक्रामक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं |
६५२४. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओधके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य संक्रामकै जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य संक्रामक जीव नहीं हैं। पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामक जीव . असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । भुजगार संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतर संक्रामक जीव संख्या बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेद, हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवस्थित संक्रामक जीव नहीं हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोकका भङ्ग श्रोघके समान हैं । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य संक्रामक जीव नहीं हैं। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में जानना चाहिए ।
$ ५२५. तिर्यों में घके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्य संक्रामक जीव नहीं हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्त्र के भुजगार संक्रामक जीव असंख्यातवें भांगप्रमाण हैं । अल्पतर संक्रामक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य संक्रामक जीव नहीं हैं । तथा पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामक जीव नहीं हैं ।
६५२६. मनुष्यों में मिध्यात्वके अल्पतर संक्रामक जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । शेप पदोंके संक्रामक संख्यातवें भाग मारण हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग श्रोघके समान
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ક जयधवनासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ अवत्त०संका० असंखे० भागो । एवं मणुसपजत्तमणुसिणि० । णवरि संखेनं कायव्वं ।
६५२७. आणदादि णव गेवजा ति मिच्छ० सम्म० सम्मामि० ओघं । अणंताणु०चउक्क० भुज० संखे० भागो । अप्प० संखेजा भागा। अवढि० अवत्त० असंखे० भागो। बार सक० पुरि वे०.भय-दुगुच्छा० भुज०संका० संखेजा भागा । अप्प०. संका० संखे० भागो । अवढि०संका० असंखे० भागो । एवमरदिसोगा० । णवरि अवढि० संका० णत्थि । णqसयवेद इत्थिवेद-हस्स-रइ० भुज० संखे० भागो। अप्प० संखेजा भागा । अणुद्दिसादि सबट्ठा ति मिच्छ० सम्मामि० इस्थिवे०-णवंस० णत्थि भागाभागो। अणंताणु०४ भुज०संका० असंखे० भागो। अप्प० असंखेजा भागा । बारसक० -पुरिसवे०-छण्णोक० आणदभंगो । णवरि सबढे संखेजंकायव्वं एवं जाव० । ..
६५२८. परिमाणाणुगमेण दुविहो णि सो ओघेण आदेसेण य । ओघेण दंसणतिय सव्वपद संका० केत्तिया ? असंखेजा । सोलसक०-णवणोक० सयपद० केतिया ? अणंता । णवरि अवत्त०संका० केति० १ संखेजा । अणंताणु०४ अवत्त० संका० है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके प्रवक्तव्य संक्रामक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए।
६५२७. आनत कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके भुजगारसंक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितसंक्रामक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि श्रवस्थितसंक्रामक जीव नहीं हैं । नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य और रतिके भुजगार संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद की अपेक्षा भागाभाग नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार संक्रामक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पतरसंक्रामक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग आनत कल्पके समान हैं। इतनी विशेषता है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
६५२८. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । मोघसे तीन दर्शनमोहनीयके सब पदोके संक्रामक जीव कितने हैं ? सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके संक्रामक जीव तिने हैं ? अनन्त हैं। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्य संक्रामक जीव असंख्यात हैं।
१. 'संखेज्जगुणं' ता०।
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गा ५८ उत्तरपडिपदेससंकमे भुजगारो
३५६ असंखेजा । पुरिसवे० अवढि० असंखेजा । एवं तिरिक्खा । णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त०संका त्थि ।
६५२६. आदेसेण णेरइय० सव्वपयडी० सव्यपद संका० केत्तिया ? असंखेजा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिं०-तिरिक्ख० मणुस-अपज०-देवगदिदेवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुसेसु णारयभंगो। णवरि सवपय० अवत्त० मिच्छत्त-सबपदसंका पुरिसवे० अवविदसंका० संखेजा । मणुसपज०.मणुसिणी० सव्वट्ठदेवा सव्वपय० सव्वपदसंका० केत्तिया ? संखेजा । एवं जाव० ।।
६५३०. खेत्ताणु० दुविहो णिद्द सो ओघेण आदेसेण य । ओघेण सवपदसंका० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । सोलसक०-भय-दुगुछ० अवत्त० लोग० असंखे० भागे। सेसपदसंका० सबलोगे । सत्तणोक०-अवत्त-पुरिसवे० अबढि० लोग० असंखे० भागे। सेसपदसंका० सव्वलोगे। एवं तिरिक्खा० । णवरि बारसक०.णवणोक० अवत्त० णत्थि । सेसगदीसु सव्वपयडी० सव्वपदसंका० लोगस्स असंखे० भागे । एवं जाव०।
६५३१. पोसणाणु० दुविहो णि० ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ० सवपदसं० लोग० असंखे० भागो, अट्ठचोइस० ( देसूणा )। सम्म०-सम्मामि० भुज०अप्प० पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रामक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामक जीव नहीं हैं।
६५२६. आदेशसे नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी. सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्योंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंके अवक्तव्यसंक्रामक जीव, मिथ्यात्वके सब पदोंके संक्रामक जीव और पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामक जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सव प्रकृतियोंके सब पदोंके संक्रामक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
8१३०.क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे दर्शनमोहनीयत्रिकके सब पदोंके संक्रामक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके अवक्तव्यसंक्रामकोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। शेष पदोंके संक्रामकोंका सब लोक क्षेत्र है। सात नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामकोंका और पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रामकोंका लोकके असंख्यावें भाग प्रमाण क्षेत्र है। शेष पदोंके संक्रामकोंका सब लोक क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामक नहीं हैं। शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके संक्रामकोका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
६५३१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ वटे
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जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
[ बंगधो ६ संका० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद्दस ० ( देसूणा ) सव्वलोगो वा । अवत्त ० संका ० लोग० असंखे ० भागो अट्ठबारह चोहस० ( दे० ) । अनंताणुबंधी ४ अवट्ठि ०१ अ० संका • लोग० असंखे० भागो अट्ठचोदस ० ( देखूणा ) । सेसपदसंका ० सव्वलोगो । बारसक०
वोक • सव्वपदसंका • सव्वलोगो । णवरि अवत० लोग० असंखे ० भागो । पुरिसवे ०
०
०
अव० संका • लोग० असंखे० भागो अट्ठचोद्दस ० ( देसूणा ) |
०
६५३२. आदेसेण रइय० मिच्छ० सव्वपद ० संका० लोग० असंखे० भागो । सम्म० सम्मामि० अवत्त० लोग ० असंखे ० भागो पंचचोद्दस ० ( देखणा ) । भुज० अप्प० संका० लोग० असंखे० भागो छत्तोहस० ( देखणा ) । सोलसक० णवणोक ० सव्वपदसं० लोग० असंखे ० भागो छ चोद्दस ० ( देसूणा ) । वरि अनंताणु० चउक अवत्त० पुरिस० अवट्ठि० संका० लोग० असंखे ० भागो । एवं सव्वणेरइय । णवरि सगपोसणं एवं सत्तमाए । वरि सम्म० सम्मामि० अवत्त ० संका • लोग० असंखे ० भागो । वरि पढमाए खेतभंगो ।
चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामकने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यसंक्रामक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रसनाली के कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष पदोंके संक्रामक जीवोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके संक्रामक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
९५३२. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व के सब पदोंके संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अवक्तव्यसंक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । भुजगार और अल्पतरसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सोलह कषाय और नौ नोकषायों के सब पदों के संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्यसंक्रामक और पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब नारकियो में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन करना चाहिए। सातवीं पृथिवीमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्य संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । इतनी और विशेषता है कि पहिली पृथिवीं में क्षेत्रके समान भङ्ग है ।
१. 'श्रवत्त' ता० ।
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भजगारो
३६१ ५३३. तिरिक्खेसु मिच्छ० भुज० अवढि०-अवत्त० संकाम० लोग० असंखे० भागो। अप्प०संका० लोग० असंखे० भागो छ चोइस० (देसूणा ) । सम्म०सम्मामि० भुज० अप्प०संको० लोग. असंखे०भागो, सव्वलोगो वा । अवत्त०संका० लोग० असंखे भागो, सत्त चोदस० ( देसूणा )। सोलसक०.णणोक० सवपदसंका० सबलोगो । णवरि अणंताणु०४ अवत्त० पुरिसवे० अवढि०संका० लोग० असंखे० भागो।
६५३४. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । सोलसक० णवणोक० सयपदसंका० लोग. असंखे०भागो, सव्वलोगो वा । णवरि अणंताणु० चउक्क० अवत्त० पुरिसवे० अवट्टि. इत्थिवे. भुज० लोग० असंखे०भागो। पुरिसवे० भुज० लोग० असंखे० भागो, छ चोइस० ( देसूणा)। एवं मणुसतिए । णवरि मिच्छ० अप्प० पुरिसवे. भुज० बारसक० णवणोक० अवत्त० लोग० असंखे० भागो। पंचि० तिरिक्ख अपज०-मणुसअपज० सत्तावीसं पयडीणं सवपदसं० लो० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा । णवरि इत्थिवेद० पुरिसवेद भुज० संका० लोग० असंखे० भागो।
mmmmmm ६५३३. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अल्पतरसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मि यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकक स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्य संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशेन किया है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके संक्रामकोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके प्रवक्तव्य संक्रामकोंने और पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
६५३४. पवेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि . अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य संक्रामक, पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रामक और स्त्रीवेदके भुजगार संक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदके भुजगारसंक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अल्पतर संक्रामक,पुरुषवेदके भुजगार संक्रामक तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंके प्रवक्तव्यसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगारसंक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
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३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ५३५. देवेसु मिच्छ० सव्वपदे संका० लोग० असंखे० भागो, अट्ट चोइस० देसूणा। सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० सव्वपदसंका० लोग० असंखे०भागो अढ णव चोदस० देसूणी। णवरि अणताणु०-चउक्क०-अवत्त० पुरिसवे० भुज० अवढि० इत्थिवे० भुज० संका० लोग० असंखे भागो अटुचोदस० देसूणा । एवं भवणादि जाव अच्चुदा त्ति । णवरि सगपोसणं जाणियव्वं । उवरि खेतभंगो।
६५३६. कालाणु० दुविहो णिहेसो-ओघे० आदेसे । ओघे० मिच्छ० भुज. संका० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अप्प० संका० सव्वद्धा । अवढि० अवत्त० संका० जह• एयसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। एवं सम्म० । णवरि अवढि० णत्थि । सम्मामि० भुज० जह. एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अप्प० संका० सव्वद्धा । अवत्त० संका० मिच्छत्तभंगो। अणंताणु०४ भुज०अप्प०-अवद्वि० संका० सव्वद्धा । अवत्त० मिच्छत्तभंगो। एवं बारसक०-भय-दुगुछा० । णवरि अवत्त० संका० जह. एयसमओ, उक्क० संखेजा समया । एवं पुरिसवेद० । णवरि
५३५. देवोंमें मिथ्यात्वके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा
सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य संक्रामके, पुरुषवेदके भुजगार और अवस्थितसंक्रामक तथा स्त्रीवेदके भुजगारसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर अच्युतकल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनाअपना स्पर्शन जानना चाहिए। आगेके देवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-यहाँपर हमने स्पर्शनका विशेष खुलासा नहीं किया है । इसका कारण इतना ही है कि स्वामित्व और अपने-अपने स्पर्शनको ध्यानमें रखकर विचार करने पर यहाँ जिस प्रकृतिके जिस पदकी अपेक्षा जितना स्पर्शन कहा है वह स्पष्ट रूपसे प्रतिभासित होने लगता है।
नाना जीवोंकी अपेक्षा काल ६५३६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण है। अल्पतरसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका अवस्थितपद नहीं है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरसंक्रमकोंका काल सर्वदा है। प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३६३ अवढि० संका० जह० एगस०, उक० आवलि० असंखे० भागो । एवमित्थिवे०-णवुस०चदुणोक० । णवरि अबढि० णत्थि ।
६५३७. आदेसेण णेरइय० दंसणतियस्स ओघं । अर्णताणु०४ अवढि० अवत. संका० जह० एगस०, उक्क० आवलि असंखे० भागो। भुज० अप्प० संका० सव्वद्धा । एवं बारसक०-पुरिसवे०-भय-दुगुछ० । णवरि अवत्त० पत्थि । एवमित्थिवेद-णवुस०चदुणोक० । णवरि अवढि० णत्थि । एवं सधणेरइयपंचिंदिय तिरिक्खतिय-देवगदि देवा भवणादि जाव णवगेवजा ति।
६५३८. तिरिक्खा० ओघं। णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज० सम्म०-सम्मामि० णारयभंगो। णवरि अवत्त० णत्थि । सोलसक०-णवणोक० णारयभंणो । णवरि अर्णताणु०४ अवत्त०-पुरिसवे० अवढि० णत्थि ।
६५३६. मणुसेसु मिच्छ० भुज० संका० जह. एयस० उक्क० अंतोमुहुतं । अप्प० संका० सम्बद्धा । अवढि० अवत्त० संका० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया । सम्म०-समाम्मि० भुज० अप्प० संका० णारयभंगो। अवत्त० मिच्छत्तभंगो। सोलसक० भय-दुगुंछा० णारयभंगो । णवरि अवत्त० मिच्छत्तभंगो । पुरिसवेद० अवढि० पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थिसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है।
६५३७. आदेशसे नारकियोंमें दर्शनमोहत्रिकका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतष्कके अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। भुजगार और अल्पतरसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, पन्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए।
६५३८. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका प्रवक्तव्यपद नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद नहीं है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका प्रवक्तव्यपद और पुरुष वेदका अवस्थितपद नहीं है।
५३६. मनुष्योंमें मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। अल्पतरसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। अवस्थित और प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतरसंक्रामकोंक भङ्ग नारकियोंके समान है । अवक्तव्य संक्रामकोंका भङ्ग मिथ्या. त्वके समान है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता
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३६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ अवत्त० संका० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया । सेसं सम्बद्धा । इथिवेद०. णवंसवे०-चदुणोक० ओघं । एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । जम्हि आवलि० असंखे० भागो तम्हि संखेजा समया। सम्म०-सम्मामि० भुज० संका. जह० एयस० उक्क० अंतोमु० । मणुस-अपज. सधपयडी० सव्वपदसंका० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०मागो। णवरि सोलसक०- भय-दुगुंछा० अबढि० जह० एयस०, आवलि. असंखेमागो।
५४०. अणुदिसादि सबट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि०-इत्थिवेद० णवंस० अप्प० संका० सम्बद्धा । अणंताणु०४ भुज० संका० जह• अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अप्प० संका० सम्बद्धा । बारसक०-पुरिसवे० उण्णोक० देवोघं । णवरि सव्वं? जम्मि आवलि० असंखे भागो तम्मि संखेजा समया । अणंताणु० चउक्क. भुज० संका० जह० उक० अंतोमु० । एवं जाव।
पाणाजोवेहि अंतरं। ६ ५४१. एत्तो गाणाजीवविसेसिदमंतरं भुजगारादि संकामयविसयमणुवत्तइस्सामो ति अहियारसंभालणवक्कमेदं । है कि अवक्तव्यसंक्रामकोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। पुरुषवेदके अवस्थित और प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। शेष पदोंके संक्रामकोंका काल सर्वदा है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग ओघके समान है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । मात्र जहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ संख्यात समय काल जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमहर्त है। मनुष्य अपर्यापकोंमें सब प्रकतियों के सब पदसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके अवस्थितसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६५४०. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकोंका काल सर्वदा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पेल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतर संक्रामकोंका काल सर्वदा है। बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ सर्वार्थसिद्धिमें संख्यात समय काल कहना चाहिए। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानमा चाहिए।
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका अधिकार है।
६५४१. अब आगे भुजगार आदि पदोंका संक्रामक करनेवाले नाना जीवों सम्बन्धी अन्तरको बतलाते हैं इस प्रकार अधिकार की सम्हाल करनेवाला यह वाक्य है।
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३६५
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ® मिच्छत्तस्स भुजगार-प्रवत्तव्व-संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो? ६५४२. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमझो।
$ ५४३. भुजगारसंकामयाणं ताव उच्चदे-एको वा दो वा तिष्णि वा एवमुक्कस्सेण पलिदो० असंखे० भागमेत्ता वा मिच्छाइट्ठी उबसमसम्म पडिवजिय गुणसंकमचरिमसमए वट्ठमाणा भुजगारसंकामया दिट्ठा, गट्ठो च तदणंतरसमए तेसिं पाहो । एवमेय. समयमंतरिदपवाहाणं पुणो वि णाणाजीवाणुसंधाणेणाणंतरसमए समुभवो दिट्ठो विणढमंतरं होइ । एवमवत्तव्यसंकामयाणं वि वत्तव्यं । णवरि सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए आदी कायया ।
* उक्कस्सेण सत्त राबिंदियाणि।। ६५४४. कुदो १ सम्मत्तग्गाहयाणमुक्कस्संतरस्स तप्पमाणतोवएसादो। * अप्पयरसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि । ६५४५. सुगमं । * पत्थि अंतरं।
* मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक जीवोंका अन्तरकाल कितना है? ६५४२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६५४३. सर्व प्रथम भुजगारसंक्रामकोंका अन्तरकाल कहते हैं-एक, दो या तीन इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर गुणसंक्रमके अन्तिम समयमें रहते हुए भुजगारसंक्रामक देखे गये और तदनन्तर समयमें उनका प्रवाह नष्ट हो गया । इस प्रकार एक समय तक प्रवाहका अन्तर देकर फिर भी नाना जीवोंके प्रवाह रूपसे अनन्तर समयमें उत्पत्ति देखी गयी । तथा इसके बाद वह प्रवाह भी नष्ट हो गया। इस प्रकार भुजगारसंक्रामक नाना जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है। इसी प्रकार प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका भी जघन्य अन्तर एक समय कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वको प्राप्त होने के प्रथम समयमें आदि करनी चाहिए।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है।
६५४४, क्योंकि सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल तत्प्रमाण है ऐसा उपदेश है।
* अल्पतर संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है। ६५४५. यह सूत्र सुगम है। * अन्तरकाल नहीं है।
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३६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ ५४६. कुदो ? तदप्पयरसंकामयाणं वेदयसम्माइट्ठीणमतुट्टसंताणक्कमेणावट्ठाणणियमदंसणादो।
* अवडिदसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ६५४७. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमभो।
६५४८.तं जहा-पुव्वुप्पण्णसम्मत्तमिच्छाइट्ठीणं केत्तियाणं पि अवविदपाओग्गसतकम्मेण सम्मत्तं पडिवण्णाणं पढमावलियाए-अवविदसंकर्म कादणेयसमयमंतरिदाणं पुणो तदर्णतरसमए केत्तियाणं पि अवडिदसंकामयाणमवट्ठाणेण विणासिदंतरंतराणं लद्धमंतरं कायव्वं ।
* उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा।
६५४६. कुदो ? एयवारमवहिदपरिणामेण परिणदणाणाजीवाणमेत्तियमेत्तुक्कस्संतरेण पुणो अवढिदसंकमहेदुपरिणामविसेसपडिलमादो ।
* सम्मत्तस्स भुजगारसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालावो होदि ? ६५५०. सुगमं ।
जहरणेण एयसमो ।
AAAAAAAmmmmmmmmmm
६५४६. क्योंकि मिथ्यात्वके अल्पतरसंक्रामक वेदकसम्यग्दृष्टिका अत्रुटित सन्तान रूपसे अवस्थान नियम देखा जाता है।
* अबस्थितसंक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६५४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
६५४८ यथा-जिन्होंने पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है ऐसे कितने ही मिथ्यादृष्टि जीव अवस्थित पदके योग्य सत्कर्मके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथम प्रावलिमें अवस्थित संक्रमको करके एक समयके लिए उसका अन्तर करते हैं तथा उसके अनन्तर समयमें कितने ही अवस्थित संक्रामक जीव अवस्थित पदके द्वारा अन्तरका विनाश करते हैं । इस प्रकार मिथ्यात्वके अवस्थित पदका एक समय जघन्य अन्तर प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्योत लोकप्रमाण है।
६५४६. क्योंकि एक बार अवस्थित परिणाम रूपसे परिणत नाना जीवोंका इतने मात्र उत्कृष्ट अन्तरकालके बाद पुनः अवस्थितःसंक्रमके हेतुभूत परिणाम विशेष उपलब्ध होते हैं।
* सम्यक्त्वके भुजगारसंक्रामक जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? ६५५०. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर काल एक समय है ।
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8
गा५८ उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३६७ ६५५१. कदो ? उव्वेल्लणाचरिमट्ठिदिखंडए भुजगारसंकम काणंतरिदाणमेय समयादो उवरि णाणाजीवावेक्खाए पुणो वि भुजगारपज्जायपरिणमणे विरोहाभावादो।
* उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये। $ ५५२. कुदो ? उज्वेल्लणापवेसयाणमुक्कस्संतरस्स तप्पमाणत्तोवएसादो।
अप्पयरसंकामयाणं पत्थि अंतरं।। ६५५३. कुदो ? सम्मत्तप्पयरसंकामयाणमुवेल्लणापरिणदमिच्छाइट्ठीणमवोच्छिण्णकमेण सव्वद्धमवट्ठाणणियमादो ।
* अवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि। ६५५४. सुगमं।
ॐ जहएणेण एयसमओ।
६५५५. सम्मत्तादो मिच्छत्तं पडिबजमाणणाणाजीवाणमयसमयमेत जहण्णंतरसिद्धीए विसंवादाभावादो।
* उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि ।
5 ५५६. कुदो ? सम्मत्तप्पत्तिपडिभागेणेव तत्तो मिच्छेत्त गच्छमाण जीवाणमुक्कस्संतरसंभवं पडि विरोहाभावादो। जइ एदमणंतरसुत्तणिहिट्ठभुजगारसंकमुक्कस्संतरेण
६५५१. क्योंकि उद्वेलना संक्रमके अन्तिम स्थिति काण्डकके समय नाना जीवोंने भुजगार संक्रम करके अन्तर किया। पुनः एक समयके बाद नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्य जीवोंका भजगार पर्यायरूपसे परिणमन करनेमें कोई विरोध नहीं पाता।।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन-रात्रि है।
६५५२. क्योंकि उद्वेलना संक्रममें प्रवेश करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल तत्प्रमाण है ऐसा उपदेश है।
* अल्पतर संकामक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है ।
६५५३. क्योंकि सम्यक्त्वका अल्पतर संक्रम करनेवाले ऐसे उद्वेलना संक्रम रूपसे परिणत हुए मिथ्यादृष्टि जीवोंका अविच्छिन्नक्रमसे सर्वदा अवस्थान नियम देखा जाता है।
* अवक्तव्य संक्रामक जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? ५५४. यह सूत्र * जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
६५५५. सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होने वाले नाना जीवोंके एक समय प्रमाण जघन्य अन्तरकालके सिद्ध होने में कोई विसंवाद नहीं उपलब्ध होता।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है।
६५५६. क्योंकि जितने जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं उसके अनुसार ही सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वकोप्राप्त होने वाले जीवोंके उत्कृष्ट अन्तरकाल सम्भव होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-यदि ऐसा है तो अनन्तर सूत्रमें निर्दिष्ट भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तर
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३६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
वि सत्तरादिदियमेत्तेण होदव्वं, उव्वेल्लणापवेसणाणुसारेणेव तत्तो णिस्सरणस्स णाइयत्तादो ति णासंकणिज ं । किं कारणं १ सम्मत्तादो मिच्छत्तं पडिवण्णसव्वजीवाणमुव्वेल्लणापवेसनियमाभावादो उब्वेल्लणाए पविद्वाणं पि सव्वेंसिमेव णिस्संतीकरणणियमाणन्भुवगमादो च ।
* सम्मामिच्छुत्तस्स भुजगार अवन्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
६५५७. सुगमं ।
* जहणणेण एयसमत्र ।
६ ५५८. कुदो ? पयदभुजगारावत्तव्त्रसंकामयणाणाजीवाणमेयसमयमंतरिदाणं पुणो णाणाजीवाणुसंधाणेण तदणंत्तरसमए तहाभावपरिणामाविरोहादो ।
* उक्कस्से सन्त राविंदियाणि ।
६५५६. कुदो ? सम्मत्तप्पादयाणमुकस्संतरस्स वि तन्भाव सिद्धीए पडिबंधाभावाद । देण सामगणिद्द सेणावत्तव्त्रसंकामयाणं पि पमदंतरा इप्पसंगे तत्थ पयारंतरसंभवपदुप्पायणद्वमुत्तरमुत्तमोइण्णं ।
* एवरि अवत्तव्वसंकामयाणमुक्कस्से चडवीसमहोरते सादिरेये ।
काल भी सात, रात्रि-दिन प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि उद्वेलना संक्रममें प्रवेश करनेवाले जीवोके अनुसार ही उसमें से निकलना न्याय प्राप्त है ?
समाधान — ऐसी आंशका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले सब जीवोंका उद्वेलनासंक्रममें प्रवेश करनेका कोई नियम नहीं है तथा उद्वेलनासंक्रम में प्रवेश करनेवाले सभी जीव निसत्त्व करते हैं ऐसा नियम भी नहीं स्वीकार किया गया है ।
* सम्यग्मिथ्यात्व भुजगार और अवक्तव्यसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६५५७. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
६ ५५८. क्योंकि प्रकृत भुजगार और अवक्तव्यसंक्रम करनेवाले नाना जीवोंके एक समयका अन्तर करने के बाद पुनः नाना जीवोंके क्रम परिपाटीसे तदनन्तर समयमें उस प्रकार के परिणाम के माननेमें कोई विरोध नही: श्राता ।
* उत्कृष्ट अन्तर सात रात्रि - दिन है ।
§ ५५६. क्योंकि सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवोंका जो उत्कृष्ट अन्तर हे उसके तद्भावकी सिद्धिं होनेमें कोई रुकावट नहीं आती। यहाँ इस सामान्य निर्देशसे अवक्तव्य संक्रामक जीवोंके भी प्रकृत अन्तरके प्रायः होनेपर वहाँपर प्रकारान्तर सम्भव है इसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है । यथा
* इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौवीस रात्रि-दिन है।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३६६ ५६०. णेदमुक्कस्संतरविहाणं घडतयमुवसमसम्मत्तग्गाहयाणमुक्कस्संतरस्स सत्तरादिदियपमाणं मोत्तूण सादिरेयचउच्वीसाहोरत्तपमाणताणुवलद्धीदी । एत्थ परिहारो उच्चदे-होउ णामोवसमसमत्तग्गाहीणं सत्तरादिदियमेत्तुक्कस्संतरणियमो, तत्थ विसंघादाणुवलंभादो । किंतु णीसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुवसमसम्मत्तं गेण्हमाणाणमेदमुक्कस्संतरमिह सुत्ते विवक्खियं, ससंत'कम्मियाणमुवसमसम्मत्तग्गहणे अवत्तव्वसंकमसंभवाणुवलंभादो ।
ॐ अप्पयसंकामयाणं णत्थि अंतरं ।
६५६१. कुदो ? सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकामयवेदयसम्माइट्ठीणमुव्वेन्लमाणमिच्छाइट्ठीणं च पवाहोच्छेदेण विणा सव्वद्धमवट्ठाणणियमादो।।
* अणंताणुबंधीएं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदसंकामयंतरं त्थि । ६५६२. कुदो ? सव्वद्धमेदेसिमवच्छिएणपवाहकमेणावट्ठाणदंसणादो।
® अवत्तव्वसंकामयाणमंतरं केवचिरं ? ६ ५६३. सुगमं । * जहएणेण एयसमो ।
F५६०. शंका यह उत्कृष्ट अन्तरकालका कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन प्रमाण इसे है, छोड़कर साधिक चौबीस दिन-रात्रिप्रमाण नहीं उपलब्ध होता ?
समाधान-यहाँ पर उक्त शंकाका परिहार करते हैं-उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंके सात रात्रि-दिनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकालका नियम होओ, क्योंकि इसमें कोई विसंवाद नहीं उपलब्ध होता । किन्तु जिन्होंने सम्यग्मिथ्यात्वको निःसत्त्व कर दिया है ऐसे उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले जीवोंका यह उत्कृष्ट अन्तरकाल यहाँ सूत्र में विवक्षित है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व की सत्तावाले जीवोंके उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करने पर अवक्तव्य संक्रम सम्भव नहीं है।
* अन्पतर संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है ।
६५६१. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर संक्रम करनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टियोंका तथा उसीकी उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टियों के प्रवाहका विच्छेद हुए बिना सर्वदा अवस्थान रहनेका नियम है।
* अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रम करनेवालोंका अन्तरकाल नहीं है।
६५६२. क्योंकि इनका सर्वत्र अविच्छिन्न प्रवाहक्रमसे अवस्थान देखा जाता है। * अवक्तव्य संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६५६३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। १. ता. प्रतौ सत्संत ( तस्संत ) इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६५६४. विसंजोयणादो संजुजंतमिच्छाइट्ठीणं जहण्णंतरस्स तप्पमाणत्तादो ।
® उकस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । ६५६५. अणंताणुबंधिविसंजोजयाणं व तस्संजोजयाणं पि उक्करसंतरस्स तप्पमाणत्तसिद्धीए विरोहाभावादी।
8 एवं सेसाणं कम्माणं ।
६५६६. सुगममेदमप्पणासुत्तं । एदेण सामण्णणिदेसेणावत्तव्यसंकामयाणं सादिरेय चउवीसअहोरत्तमेत्तुक्कस्संतराइप्पसंगे तण्णिवारणमुहेण तत्थ पयारंतरसंभवपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं ।
ॐ पवरि अवत्तव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण वासपुधत्तं ।
६५६७. किं कारणं? सव्वोवसामणापडिवादुक्कस्संतरस्स तप्पमाणत्तोवलंभादो। ण केवलमेत्तियो चेव विसेसो, किंतु अण्णो वि अस्थि ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ
® पुरिसवेदस्स भवद्विवसंकामयंतरं जहएणेण एयसमो । ६८. सुगममेदं। * उकस्सेण असंखेजा लोगा।
६५६४. क्योंकि विसंयोजनाके बाद संयोजनाको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य अन्तरकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन-रात्रि है।
६५६५. क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करनेवाले जीवोंके समान उनकी संयोजना करनेवाले जीवोंके भी उत्कृष्ट अन्तरकालके तत्प्रमाण सिद्ध होने में कोई विरोध नहीं आता।
* इसी प्रकार शेष कर्मोंके सम्भव पदोंका अन्तरकाल जानना चाहिए।
६५६६. यह अर्पणासूत्र सुगम है। इस सामान्य निर्देशसे अवक्तव्य संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन-रात्रिप्रमाण प्राप्त होनेपर उनके निवारण करनेके द्वारा वहाँपर प्रकारान्तर सम्भव है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है।
* इतनी विशेषता है कि अवनव्य संक्रामकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण है।
६५६७. क्योंकि सर्वोपशामनासे गिरनेका उत्कृष्ट अन्तरकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है। केवल इतनी ही विशेषता नहीं है, किन्तु अन्य विशेषता भी है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६५६८. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है ।
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गा ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भजगारो
३७१ ६५६६. कुदो ? एगवारं पुरिसवेदावद्विदसंकमेण परिणदणाणाजीवाणं सुट्ट बहुअं कालमंतरिदाणमसंखेजलोगमेत्तकाले बोलीणे णियमा तब्भावसंभवोत्रएसादो।
एवमोघो समत्तो।। ६५७०. संपहि आदेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो । अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसोओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ, भज० अवत्त संका० जह० एयस०, उक्क० सत्तरादिदियाणि। अप्प०संका० णत्थि अंतरं। अवढि संका० जह० एयस०, उक० असंखेजा लोगा । एवं सम्म-सम्मामि० । णरि अद्वि० णस्थि । सम्म० भुज० सम्मामि० अवत्त० ज० एगस०, उक्क० चउघीसमहोरत्ते सादिरेगे । अणंताणु०४ विहत्तिभंगो । एवं बारसक०-भय-दुगु छा० । णवरि अवत्त० जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । एवं पुरिसवेद० । णवरि अबढि संका. जह० एयस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवमित्थिवेद-णस०-चदुणोक० । णवरि अबढि णस्थि ।
६५७१. आदेसेण णेरइय० दंसणतियस्स ओघं । अणंताणु०चउक्क० ओघं । णवरि अहि० जह• एयसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं बारसक०-भय-दुगुछ०
५६६. क्योंकि एक बार पुरुपवेदके अवस्थित संक्रमरूपसे परिणत हुए नाना जीवोंका अत्यन्त बहुत काल तक अन्तर हो तो भी असंख्यात लोकप्रमाण कालके जाने पर नियमसे तद्भाव सम्भव है ऐसा उपदेश है।
इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई । ६५७०. अब आदेशका कथन करने के लिए उच्चारणाको बतलाते हैं-अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वके भुजगार और प्रवक्तव्य पदके संक्रामक जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है। अल्पतर संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थित संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें भी जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ इनका अवस्थित पद नहीं है तथा सम्यक्त्वके भुजगार और सम्यग्मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके संक्रामक जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन-रात्रि है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग विभक्तिके समान है। इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साके विषयमें भी जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण है । इसी प्रकार पुरुषवेदके विषयमें भी जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवस्थित संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंके विषयमें भी जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है।
६५७१. आदेशसे नारकियों में तीन दर्शनमोहनीयका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थित संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार बारह
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३७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ पुरिसवेद० । णवरि अवत्त० णत्थि । इत्थिवे०-णस०-चर्दुणोक. भुज०-अप्प० णत्थि अंतरं। एवं सवणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय३-देवगइदेवा भवणादि जाव णवगेवज्जा त्ति । तिरिक्खाणमोघं । णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० णत्थि । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० णारयभंगो। णवरि अणंताणु०चउक० अवत्त० पुरिसवे० अबढि० सम्म०सम्मामि० अवत्त० णत्थि । मिच्छत्तस्स असंका० ।
६५७२. मणुसतिए णारयभंगो। णवरि बारसक०-णवणोक० अबत्त० ओघं । मणुसअपज. सत्ताबीसं पयडीणं सवपदसंका० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। णवरि सोलसक०-भय-दुगुछा० अवढि० जह० एयस०, उक० असंखेजा लोगा। अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि०-इत्थिवे०-णस० अप्प०. संका० णत्थि अंतरं, णिरंतरं । अणंताणु०४ भुज०संका. जह० एयस०, उक्क० वासप्रधत्तं पलिदो० असंखे भागो। अप्प० णत्थि अंतरं। बारसक०-पुरिसवेद-छण्णोक० देवोघं । एवं जाव० ।
६५७३. भावो सव्वत्थ ओदइओ भोवो।
कषाय, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकबेद और चार नोकषायोंके भुजगार और अल्पतर पदका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यम्चत्रिक, देव गतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर नौग्रीवेयक तकके देवोमें जानना चाहिए। सामान्य तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवक्तव्यपद नहीं है। पन्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों में नारकियोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका प्रवक्तव्यपद, पुरुषवेदका अवस्थित पद तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका श्रवक्तव्यपद नहीं है । ये मिथ्यात्वके असंक्रामक होते हैं ।
६५७२. मनुष्यत्रिकमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्य संक्रामकोंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सत्ताईस प्रकृतियों के सब पदोंके संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके अवस्थित संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यातं लोक प्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद
और नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है निरन्तर हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानोंमें वर्ष पृथक्त्वप्रमाण और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरपदका अन्तरकाल नहीं है । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
६५७३. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो * अप्पाबहुअं।
६५७४. एतो भुजगारादिसंकामयाणमप्पाबहुअं भणिस्सामो ति वुत्तं होइ । तस्स दुविहो णिदेसो-ओघादेसभेदेण । तत्थोषणिद्दे सकरण?मुत्तरो सुत्तपबंधो।
8 सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अवडिवसंकामया।
६५७५. मिच्छत्तस्सावद्विदसंकामया णाम पुव्वुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तपडिवण्णपढमावलियवट्टमाणा उक्कस्सेण संखेजसमयसंचिदा ते सव्वत्थोवा; उवरि भणिस्समाणासेसपदेहितो थोवयरा ति वुत्तं होइ ।
अवत्तव्वसंकामया असंखेजगुणा। ६५७६. कथं संखेजसमयसंचयादो पुचिल्लादो एयसमयसंचिदो अवत्तव्यसंकामयरासी असंखेजगुणो होइ ति णेहासंकणिजं, कुदो ? सम्मत्तं पडिवजमाणजीवाणमसंखेजदिभागस्सेवावद्विदभावेण परिणामन्भुवगमादो। कुदो ? एवमवद्विदपरिणामस्स मुटु दुल्लहत्तादो।
ॐ भुजगारसंकामया असंखेजगुणा। ६ ५७७. किं कारणं ? अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचिदत्तादो।
* अल्पबहुत्वका अधिकार है।
६५७४. आगे भुजगार आदि पदोंके संक्रामकोंके अल्पबहुत्वको बतलाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमें से ओघका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध है
* मिथ्यात्वके अवस्थित संकामक जीव सबसे स्तोक हैं।
६५७५. जिन्होंने पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है ऐसे जो जीव मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त कर उसकी प्रथमावलिमें विद्यमान हैं और जो उत्कृष्ट रूपसे संख्यात समयोंमें सम्चित हुए हैं वे मिथ्यात्वके अवस्थित संक्रामक जीव हैं। वे सबसे स्तोक हैं। आगे कहे जानेवाले पदोंसे स्तोकतर हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उनसे अवक्तव्य संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं।
६५७६. शंका-संख्यात समयमें सन्चित हुई पूर्वकी राशिसे एक समयमें सञ्चित हुई अवक्तव्य संक्रामक राशि असंख्यातगुणी कैसे हो सकती है ?
समाधान-ऐसी यहाँ आशंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंका ही अवस्थितरूपसे परिणाम स्वीकार किया गया है। कारण कि इस प्रकार अवस्थित परिणाम अत्यन्त दुर्लभ है।
* उनसे भुजगार संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । ६५७७. क्योंकि.अन्तर्मुहूर्तकालमें इनका सञ्चय होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगा 8 अप्पयरसंकामया असंखेजगुणा। ६५७८. कुदो ? छावद्विसागरोवममेत्तवेदयसम्मत्तकालब्भंतरसंचयावलंबणादो । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वसंकामया। ६ ५७६. कुदो १ एयसमयसंचयावलंबणादो। * भुजगारसंकामया असंखेजगुणा। ६ ५८०. कुदो ? अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो। * अप्पयरसंकामया असंखेजगुणा ।
६५८१. कुदो १ सम्मामिच्छत्तस्स उव्वेल्लमाणमिच्छाइट्ठीहिं सह छावहिसागरो. वमकालभंतरसंचिदवेदयसम्माइद्विरासिस्स सम्मत्तस्स वि पलिदोवमासंखेजभागमेत्तव्वेल्लणकालभंतरसंकलिदरासिस्स गहणादो ।
* सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्वसंकामया।
६ ५८२. कुदो ? अणंताणुबंधीणं विसंजोयणापुवसंजोगे वट्टमाणाणमयसमयसंचिदं पलिदो० असंखे०भागमेत्तजीवाणं सेसाणं च सव्वोवसामणापडिवादपढमसमए पयट्टमाणसंखेजोवसामयजीवाणं गहणादो।
* अवढिदसंकामया अर्णतगुणा।
* उनसे अल्पतर संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं।
$ ५७८. क्योंकि छयासठ सागरप्रमाण वेदकसम्यक्त्वके कालके भीतर हुए सञ्चयका यहाँ अवलम्बन लिया गया है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अबक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। ६५७६. क्योंकि यहाँ पर एक समयके सञ्चयका अवलम्बन लिया गया है। * उनसे भुजगारसंक्रामक जीव असंख्यातगणे हैं। ६५८०. क्योंकि इनका सञ्चय अन्तर्मुहूर्तमें होता है। * उनसे अल्पतर संक्रामक जीव असंख्यातगणे हैं।
६५८१. क्योंकि सम्यग्मिथ्वात्वको उद्वेलना करनेवाली राशिके साथ छयासठ सागर कालके भीतर सञ्चित हुई वेदकसम्यग्दृष्टि राशिको तथा सम्यक्त्वकी अपेक्षासे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर सञ्चित हुई राशिको यहाँ पर ग्रहण किया है।
* सोलह कषाय, भय और जुगप्साके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं।
६५८२. क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंकी अपेक्षा विसंयोजनापूर्वक संयोगमें विद्यमान एक समयमें सञ्चित हुए पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंको तथा शेष कर्मोंकी अपेक्षा सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें विद्यमान संख्यात उपशामक जीवोंको यहाँ पर ग्रहण किया है।
* उनसे अवस्थित संक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ५८३. कुदो ? संखेजसमयसंचिदेइंदियरासिस्स पहाणीमावेणेत्थविवक्खिय त्तादो।
® अप्पयरसंकामया असंखेजगुणा । $ ५८४. किं कारणं ! पलिदोवमासंखेजभागमेत्तप्पयरकालसंचयावलंबणादो। * भुजगारसंकामया संखेजगुणा । ५८५. कुदो? धुवबंधीणमप्पयरकालादो भुजगारकालस्स संखेजगुणत्तोवएसादो। * इत्थिवेदहस्सरदीणं सव्वत्थोवा प्रवत्तव्यसंकामया।
६५८६. संखेजोवसामयजीवविसयत्तेण पयदावत्तव्वसंकामयाणं थोवभावसिद्धीए विरोहाभावादो।
® भुजगारसंकामया अणंतगुणा । $ ५८७. कुदो ? अंतोमुहुत्तमेससगबंधकालसंचिदेइंदियरासिस्स गहणादो।
अप्पयरसंकामया संखेजगुणा । $ ५८८. कुदो १ सगबंधकालादो संखेजगुणपडिवक्खबंधगद्धाए संचिदरासिस्स गहणादो।
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६५८३. क्योंकि संख्यात समयके भीतर सञ्चित हुई एकेन्द्रिय जीव राशिप्रधानरूपसे यहाँ पर विवक्षित है।
* उनसे अल्पतर संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं।
६५८४. क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अल्पतर कालके भीतर हुए सञ्चयका यहाँ पर अवलम्बन लिया गया है।
* उनसे भुजगारसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं।
६५८५. क्योंकि ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंके अल्पतर कालसे भुजगारकालके संख्यातगुणे होनेका उपदेश है।
* स्त्रीवेद, हास्य और रतिके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं।
६५८६. क्योंकि संख्यात उपशामक जीवोंके सम्बन्धसे प्रकृत अवक्तव्यसंक्रामक जीवोंके स्तोकपनेके सिद्ध होनेमें कोई विरोध नहीं आता। ___ * उनसे भुजगारसंक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं।
६५८७. क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अपने बन्धकालके भीतर सश्चित हुई एकेन्द्रिय जीव राशिको यहाँ पर ग्रहण किया है।
* उनसे अल्पतर संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं।
६५८८. क्योंकि अपने बन्धकालसे संख्यातगुणे प्रतिपक्ष बन्धक कालके भीतर सञ्चित हुई जीवरा शिको यहाँ पर ग्रहण किया है।
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- जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
* पुरिसवेदस्स सम्बत्थोवा अवक्तव्वसंकामया ।
५८९. सुगमं ।
[ बंधगो ६
*
दिसंकामया असंखेज्जगुणा ।
$ ५९०. कुदो ? पलिदोवमासंखेज भागमेत्तसम्माइट्टिजीवाणं पुरिसवेदावट्ठिद
संकमपजाएण परिणदाणमुवलंभादो ।
* भुजगार संकमया अतगुणा ।
$ ५९१. सगबंध कालब्भंतरसंचिदेइंदियरासिस्स गहणादो ।
* अप्पयर संकामया संखेज्जगुणा ।
९.५९२. पडिवक्खबंधगद्धा गुणगारस्स तप्यमाणत्तोवलंभादो । 'सयवेद-अरइ- सोगाणं सव्वत्थोवा भवत्तव्य संकामया ।
$ ५९३ . संखेजोवसामयजीवविसयत्तादो ।
* अप्पयरसंकामया अांतगुणा ।
$ ५९४. किं कारणं ? अंतोमुहुत्तमेत्तपडिवक्खबंधगद्धा संचि देइंदियरा सिस्स समवलंबणादो ।
* भुजगार संकामया संखेज्जगुणा ।
* पुरुषवेदके अवक्तव्य संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं ।
९ ५८६. यह सूत्र सुगम है।
1
* उनसे अवस्थित संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
५०. क्योंकि पुरुषवेदकी अवस्थित संक्रामक पर्यायरूपसे परिणत ऐसे पल्यके असंख्यातभागप्रमाण सम्यग्दृष्टि जीव उपलब्ध होते हैं ।
* उनसे भुजगार संक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं ।
५१. क्योंकि अपने बन्धकालके भीतर सञ्चित हुई एकेन्द्रिय जीवराशिको यहाँ पर ग्रहण किया है ।
* उनसे अन्पतर संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
$ ५२. क्योंकि प्रतिपक्ष बन्धककालका गुणकार तत्प्रमाण उपलब्ध होता है ।
* नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं । ५३. क्योंकि संख्यात उपशामक जीव इस पदके विषय हैं ।
* उनसे अन्पतर संक्रामक जीव अनन्तगुणे हैं ।
§ ५६४. क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रतिपक्षबन्धक काल के भीतर सचित हुई एकेन्द्रिय जीवराशिका यहाँ पर अवलम्बन लिया है ।
* उनसे भुजगार संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३७७ ६ ५६५. कुदो ? एदेसि कम्माणं पडिवक्खबंधगद्धादो सगबंधकालस्स संखेजगुणतोवलंभादो।
एवमोघप्पाबहुअं समत्तं । ६५६६. आदेसेण णेरइयदंसणतियमोघं । अणताणु०४ सव्वत्योवा अवत्त०संका० । अबढि०संका. असंखेजगुणा । अप्प०संका० असंखे०गुणा । भुज संका० संखे०गुणा । एवं बारसक०-भय-दुगुछा० । णवरि अवत्त० णत्थि । पुरिसवे० सबस्थोवा अट्ठि०संका० । भुज०संका० असंखे०गुणा। अप्पसंका० संखे०गुणा । एकमित्थीवेद-हस्स-रदि०। णवरि अबढि०संका० णत्थि। णवूस०-अरदि-सोग० सव्वत्थोवा अप्प०संका० । भुज०संका० संखे०गुणा । एवं सत्रणेरइय-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवगइदेवा भवणादि जाव सहस्सार ति। पंचितिरिक्खअपज०-मणुस. अपज. णारयभंगो । णवरि सम्म-सम्मामि०-अणंताणु०४ अवत्त० पुरिसवे० अबढि० पत्थि । मिच्छत्तस्स असंकामया । तिरिक्खाणमोघं । णवरि बारसक० णवणोक० अवत्त० पत्थि ।
६५६७. मणुसेसु मिच्छ० सव्वत्थोवा अवट्ठि० संका० । अवत्त०संका० संखे०.
६५६५. क्योंकि इन कर्मोंका प्रतिपक्ष बन्धककालसे अपना बन्धककाल संख्यात गुणा उपलब्ध होता है।
इस प्रकार ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६५६६. आदेशसे नारकियोंमें दर्शनमोहनीयत्रिकका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धियोंके अवक्तव्य संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित संक्रामक जीव असंख्यात गुणे हैं। उनसे अल्पतर संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार संक्रामक जीव संख्यात गुणे हैं । इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षासे जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद नहीं है । पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगार संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेद, हास्य और रतिकी अपेक्षासे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थित संक्रामक जीव नहीं हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोकके अल्पतर संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भजगारासंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, देवगतिमें देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवों में जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद तथा पुरुषवेदका अवस्थितपद नहीं है। तथा ये मिथ्यात्वके असंक्रामक होते हैं। सामान्य तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवक्तव्यपद नहीं है।
६५६७. मनुष्योंमें मिथ्यात्वके अवस्थित संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्य संक्रामकजीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर संक्रामक
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ३
गुणा । भुज० संका० संखे० गुणा I अप्प ० का ० संखे० गुणा । सम्म० - सम्मामि०अताyo १०४ णारयभंगो । बारसक०-भय-दुगु छा० अनंताणु ० ४भंगो । पुरिसवेद ० सव्वत्थोवा अवत्त० संका० । अवट्ठि ० संका ० संखे ० गुणा । भुज० संका ० असंखे ०गुणा । अप्प ० का ० संखे० गुणा । इत्थवेद-हस्स-रदि० सव्वत्थोवा अवत्त० संका० । भुज० संका • असंखे० गुणा । अप्प० संका० संखे० गुणा । णवुंसयवेद- अरदि-सोग० सव्त्रत्थोवा अवत्त ० संका० । अप्प० संका० असंखे० गुणा । भुज० संका ० संखे ० गुणा | एवं मणुस ० - मणु सिणी० । णत्ररि संखे० गुणं कायव्यं ।
६ ५६८. आणदादि जाव णत्रगेत्रजा त्ति मिच्छ० सम्म ०- सम्मा मि० चारसक०इत्थवे ० छण्णोक० देवोघं । अनंतापु०४ सन्वत्थोवा अवत्त० संका० । अबट्ठि० संका० असंखे० गुणा । भुज ० संका० असंखे० गुणा । अप्प० संका० संखे० गुणा । पुरिसवेद ० अपच्चक्खाणभंगो | णवुंस० इत्थीवेदभंगो । अणुद्दिसादि सव्बट्टा त्ति मिच्छ० सम्मामि०इत्थवे ० - बुंस० णत्थि अप्पाबहुअं । अनंतागु०४ सव्त्रत्थोवा भुज० संका० । अप्प०संका० असंखे० गुणा । बारसक० - पुरिसवेद - छण्णोक० आणदभंगो। णवरि सट्टे संखे कायन्त्रं । एवं जाव० ।
anurag समते भुजगारो समत्तो ।
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जीव संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग नारकियों के सम कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग अनन्तानुबन्धीचतुष्क के समान है । पुरुषवेद के वक्तव्य - संक्रामकजीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेद, हास्य और रतिके अवक्तव्य संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगार संक्रामक जीव असंख्यात हैं । 'अल्पतरसंक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं। नपुंसकवेद, अरति और शोकके अवक्तव्यसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार संक्रामक जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि इनमें संख्यातगुणा करना चाहिए ।
§ ५६८. श्रनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक के देवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यमिया, बारह कषाय, स्त्रीवेद और छह नोकषायोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके वक्तव्य संक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित संक्रामक जीव असंख्यात - गुगे हैं। उनसे भुजगारसंक्रामक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव संख्या - गुणे हैं । पुरुषवेदका भङ्ग अप्रत्याख्यानावरण के समान है। नपुंसकवेदका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका अल्पबहुत्व नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगारसंक्रामक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरसंक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं । बारह कषाय, पुरुषवेद और छह नोकषायों का भङ्ग आनतकल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर भुजगार समाप्त हुआ ।
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
३७६ * एत्तो पदणिक्खेवो। . ५६६. एतो भुजगारपरिसमत्तीदो अणंतरं पदणिक्खेवो अहिकओ ति दट्टयो। को पदणिक्खेयो णाम ? पदाणं णिक्खेगो पदणिक्खेवो । जहण्णुकस्सबड्डि-हाणि-अवट्ठाणपदाण सामितादिणिदेसमुहेण गिच्छपकरणं पदणिक्खेतो ति भण्णदे। एवमहियारसंभालणं कादूण संपहि तन्धिसयाणमणियोगद्दाराणमियत्ताबहारणमुत्तरसुत्तं भणइ
ॐ तत्थ इमाणि तिषिण अणियोगद्दाराणि।
हु ६००. तत्थ पदणिक्खेवे इमाणि भणिस्समाणाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि णादवाणि भवंति, अणियोगद्दारणियमेण विणा सव्वेसि अत्थाहियाराणं परूवणाणुवत्तीदो । काणि ताणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि ति पुच्छिदे तेसिं णामणिद्द सोकीरदे
* तं जहा ६६०१. सुगमं ।
ॐ परूवणासामित्तमप्पाबहुगं च ।
६६०२. एवमेदाणि तिण्णि चेवाणिओगद्दाराणि पयदत्थपरूवणाए संभवंति । तत्थ ताव परूषणं भणिस्सामो त्ति जाणावणद्वमुवरिमसुत्तणिहेसो
* आगे पदनिक्षेपका अधिकार है।
F५६६. 'एत्तो' अर्थात् भुजगारकी समाप्तिके बाद पदनिक्षेपका अधिकार है ऐसा यहाँ जानना चाहिए।
शंका-पदनिक्षेप किसे कहते हैं ?
समाधान—पदोंके निक्षेपको पदनिक्षेप कहते हैं। जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानरूप पदोंका स्वामित्व आदिके निर्देश द्वारा निश्चय करना पदनिक्षेप कहा जाता है।
इस प्रकार अधिकारकी सम्हाल करके अब तद्विषयक अनुयोगद्वारोंकी इयत्ताका निश्चय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं ।
६६००. उस पदनिक्षेपमें ये आगे कहे जानेवाले तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं, क्योंकि अनुयोगद्वारोंका नियम किये बिना सब अर्थाधिकारोंकी प्ररूपणा नहीं बन सकती। वे तीन अनुयोगद्वार कौन हैं ऐसा पूछने पर उनका नामनिर्देश करते हैं
* यथा । ६६०१. यह सूत्र सुगम है। * प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।
६६०२. इस प्रकार प्रकृत अर्थकी प्ररूपणामें ये तीन अनुयोगद्वार ही सम्भव हैं। उनमेंसे सर्व प्रथम प्ररूपणाका कथन करते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ * परवणा।
६६०३. सुगममेदमहियारपरामरसवक। सा वुण दुविहा परूवणा जहण्णुक्कस्सपदविसयभेदेण । तासि जहाकममोघणिदेसो ताव कीरदे
8 सव्वासिं पयडोणमुक्कस्सिया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं च अस्थि ।
६६०४. कुदो ? सव्वेसिमेव कम्माणं जहाणिद्दिढविसए सव्वुक्कस्सवडि-हाणिअवट्ठाणसरूवेण पदेससंकमपवुत्तीए बाहाणुवलंभादो।
* एवं जहणणयस्स वि णेदव्वं ।
६६०५. तं जहा-सव्वेसि कम्माणं जहणिया वड्ढी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । कुदो ? सबजहण्णवड्डि-हाणि-अवट्ठाणसरूवेण संकमपवुत्तीए सव्वत्थ पडिसेहाभावादी । एवं सामण्णेण जहण्णुकस्सवड्डि-हाणि-अवट्ठाणाणमत्थित्तं पदुप्पाइय संपहि जेसिमवट्ठाणसंभवो णत्थि तेसि पुध णिद्द सो कीरदे
* पवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-इत्थि-णवुसयवेद-हस्स-रह-भरइसोगाणमवहाणं पत्थि।
६६०६. कुदो ? सव्वकालमेदेसि कम्माणमागमणिजराणं सरिसत्ताभावादो । एवमोघपरूषणा गया। जहासंभवमेत्थादेसपरूवणा विकायया । तदो परूवणा समत्ता ।
* प्ररूपणाका अधिकार है।
६६०३. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है। जघन्य पदविषयक प्ररूपणा और उत्कृष्ट पदविषयक प्ररूपणाके भेदसे वह प्ररूपणा दो प्रकारकी हे । उनका यथाक्रमसे ओघनिर्देश करते हैं
* सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है।
६६०.४ क्योंकि सभी कर्मोंके यथानिर्दिष्ट विषयमें सर्वोत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान रूपसे प्रदेशसंक्रमकी प्रवृत्तिमें बाधा नहीं उपलब्ध होती।
* इसी प्रकार जघन्यका भी कथन जानना चाहिए।
६६०५. यथा-सभी कर्मोकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान है, क्योंकि सबसे जघन्य वृद्धि हानि और अवस्थानरूपसे संक्रमकी प्रवृत्ति होनेमें सर्वत्र प्रतिषेधका अभाव है। इस प्रकार सामान्यसे जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके अस्तित्वका कथन कर अब जिनका अवस्थान सम्भव नहीं है उनका अलगसे निर्देश करते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका अवस्थान नहीं है।
६६०६. क्योंकि इन कोंकी सदा काल आगमन और निर्जरामें सदृशता नहीं उपलब्ध होती। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। यहाँ पर यथासम्भव आदेश प्ररूपणा भी करनी चाहिए । इसके बाद प्ररूपणा समाप्त हुई।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिवखेवो
३०१ ॐ सामित्तं ।
६६०७. एत्तो उवरि सामित्तमहिकयं ति दट्टव्वं । तं पुण सामित्तं दुविहं-जहण्णयमुक्कस्सयं च । तत्थुक्कस्से ताव पयदं । तत्थ दुविहो णिद्द सो ओघादेसमेएण । तत्थोघपरूवणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो।
* मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वढी कस्स ? ६६०८. सुगमं । * गुणिदकम्मंसियस्स मिच्छत्तक्खवयस्स सव्वसंकामयस्स ।
६६०६. जो गुणिदकम्मंसियो सत्तमाए पुढवीए णेरइयो तत्तो उव्यट्टिदूण सव्वलहुं समयाविरोहेण मणुसेसुप्पन्जिय गम्भादिअदुवस्साणि गमिय तदो दंसणमोहक्खवणाए अब्भुद्विदो तस्स अणियट्टिअद्धाए संखेजेसु भागेसु गदेसु मिच्छत्तचरिमफालिं सव्वसंकमेण संछुहमाणयस्स पयदुक्कस्ससा मित्तं होइ । तत्थ किचूणदिवड्ढगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सवडिढसरूवेण संकमदंसणादो ।
* उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ६६१०. सुगम । * गुणिदकम्मंसियस्स सम्मत्तमुप्पाएदूण गुणसंकमेण संकामिदूण * स्वामित्वका अधिकार है।
६६०७. इससे आगे स्वामित्वका अधिकार है ऐसा, जानना चाहिए । वह स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे सर्व प्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है। उसके विषयमें ओघ और आदेशसे निर्देश दो प्रकारका है । उनमेंसे ओघका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रवन्ध है
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ६६०८. यह सूत्र सुगम है।
* जो गुणितकर्मा शिक मिथ्यात्वका क्षपक जीव सर्वसंक्रम कर रहा है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है ।
६६०६. जो गुणितकर्मा शिक सातवीं पृथिवीका नारकी जीव वहाँसे निकलकर अतिशीघ्र समयके अविरोध पूर्वक मनुष्योंमें उत्पन्न होकर और गर्भसे लेकर आठ वर्ष बिताकर अनन्तर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ उसके अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रम करते हुए प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि वहाँ पर कुछ कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबन्धोंका उत्कृष्ट वृद्धि रूपसे संक्रम देखा जाता है।
* उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ६६१०. यह सूत्र सुगम है। * जो गणितकर्मा शिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न कर गुणसंक्रमके द्वारा संक्रम
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३८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ पढमसमयविज्झादसंकामयस्स।
६६११. जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए णेरइयो अंतोमुहुत्तेण कम्ममुक्कस्सं काहिदि ति विवरीयभावमुवगंतूण सम्मत्तप्पायणाए वावदो तस्स सव्वुक्कस्सेण गुणसंकमेण मिच्छत्तं संकामेमाणयस्स चरिमसमयगुणसंकमादो पढमसमयविज्झादसकमे पदिदस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ। तत्थ किंचूणचरिमगुणसंकमदव्धस्स हाणिसरूवेण संभवदंसणादो।
9 उकस्सयमवहाणं कस्स ? ६६१२. सुगमं ।
8 गुणिदकम्मंसिओ पुव्वुप्पएणेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तं गदो, तं दुसमयसम्माइडिमादि कादूण जाव प्रावलियसम्माइहि त्ति एत्थ अण्णदरम्हि समये तप्पाओग्गउक्कस्सेण वड्डिं कादूण से काले तत्तियं संकममाणयस्स तस्स उकस्सयमवट्ठाणं ।।
६६१३. एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-जो गुणिदकम्मंसिओ सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहु मिच्छत्तं गदो। तत्तो पडिणियत्तिय तप्पाओग्गेण कालेण पुणो वेदयसम्मत्तं पडिवण्णो । तं दुसमयसम्माइट्ठिमादि कादूण जाव आवलियसम्माइहि ति एत्यंतरे समया
करके प्रथम समयमें विध्यात संक्रम करता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है ।
६६११. जो गुणितकर्माशिक सातवी पृथिवीका नारकी जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मको उत्कृष्ट करेगा, किन्तु विपरीत भावको प्राप्त होकर सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें व्याप्त हुआ उसके सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वका संक्रम करते हुए अन्तिम समयवर्ती गुणसंक्रमसे प्रथम समयवर्ती विध्यातसंक्रममें पतित होनेपर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि वहाँ पर कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम द्रव्यकी हानिरूपसे सम्भावना देखी जाती है ।
* उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? ६६१२. यह सूत्र सुगम है।
* जो पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वके साथ रहा है ऐसा जो गणितकर्मा शिक जीव मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे लेकर एक आवलि कालके भीतर किसी एक समयमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धि करके तदनन्तर समयमें उतना ही संक्रम करने पर उत्कृष्ट अवस्थान होता है ।
• ६६१३. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-जो गुणितकर्मा शिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करके अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । फिर उससे निवृत्त होकर तत्प्रायोग्य कालके द्वारा पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिसे लेकर एक आवलि प्रविष्ट सम्यग्दृष्टि होने तक इस कालके मध्य समयके अविरोध पूर्वक वृद्धिको करके तृतीय आदि किसी
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गा०५८
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३८३ विरोहेण वढि कादूण तदियादीणमण्णदरम्हि समए बट्टमाणस्स पयदसामितसंबंधो दहव्यो । तं जहा-तहा सम्मत्तं पडिवण्णस्स पढमसमए अवत्तव्यसंकमो होइ । पुणो विदियसमए तप्पाओग्गुकस्सएण संकमपज्जाएण पट्टिदस्स वडिढसंकमो जायदे । एसो च वड्डिसंकमो समयपबद्धस्सासंखेजदिभागमेत्तो। एवमेदेण तप्पाओग्गुकस्सेणासंखेजदिभागेण बड्डिदण से काले आगमणिज्जराणं सरिसत्तवसेण तत्तियं चेत्र संकामेमाणयस्स तस्स उक्कस्तयमवट्ठाणं होदि । एवं तदियोदिसमएसु वि तप्पाओग्गुकस्सेण संकमपज्जाएण पट्टिदण तदगंतरसमए तत्तियं चेव संकामेमाणयस्स पयदसा मित्तमविरुद्ध णेदव्यं जाय दुचरिमसमए तप्पाओग्गुकस्ससंकमवुड्डीए वढि कादूण? चरिमसमए उकसावट्ठाणपजाए परिणदावलियसम्माइडि ति एत्तियो चेवुकस्सावट्ठाणसामित्तविसए । एत्थ पढमसमयोवत्तव्यसंक्रमादो विदियसमयम्मि तत्तियं चेव संकामेमाणयस्स पयदुक्कस्सावट्ठाणसामित्तं किण्ण गहिदं ? ण, ववि-हाणीणमण्णदरणिबंधणस्स संकमावट्ठाणस्सेह विवक्खियत्तादो।
* सम्मत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ६६१४. सुगमं ।
* उध्वेल्लमाणयस्स चरिमसमए ।
६६१५. गणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तमुप्पाइय सव्वुक्कस्सियाए पूरणाए एक समयमें विद्यमान रहते हुए उसके प्रकृत स्वामित्वका सम्बन्ध जानना चाहिए। यथा-इस प्रकार सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रथम समयमें अवक्तव्य संक्रम होता है। पुनः दूसरे समय में तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्रम पर्यायरूपसे रहते हुए उसके वृद्धि संक्रम उत्पन्न होता है। यह वृद्धि संक्रम समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । इस प्रकार इस तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट
यातव भागरूपले वृद्धि होकर अनन्तर समयमे आय और निर्जराकी समानताके कारण उतने ही द्रव्यका संक्रम करनेवाले उस जीवके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में भी त्यायोग्य उत्कृष्ट संक्रम पर्यायसे वृद्धि करके तदनन्तर समयमें उतना ही संक्रम करनेवाले उसके प्रकृत स्वामित्व अविरुद्धरूपसे जानना चाहिए। जो कि द्विचरम समयमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्रम वृद्धि के द्वारा वृद्धि करके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अवस्थान पर्यायरूपसे परिणत हुए आवलि प्रविष्ट सम्यग्दृष्टि जीवके होने तक इतना ही उत्कृष्ट अवस्थानके विषयमें सम्भव है।
शंका- यहाँ प्रथम समयमें हुए अवक्तव्य संक्रमसे दूसरे समयमें उतना ही संक्रम करने वाले जीवके प्रकृत उत्कृष्ट अवस्थान संक्रम क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान--नहीं, क्योंकि वृद्धि और हानि इनमे से किसी एकका अवलम्बन लेकर हुश्रा संक्रम अवस्थान यहाँ पर विवक्षित है।
* सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? । ६६१४. यह सूत्र सुगम है।। * उद्वलना करनेवाले जीवके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। ६६१५. गुणितकर्मा शिक लक्षणसे आकर और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर तथा सर्वोत्कृष्ट १. ता० प्रतौ वडिढदूण इति पाठ ।
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३८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ सम्मत्तमावरिय तदो मिच्छत्तं पडिवजिय सव्वरहस्सेणुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लमाणयस्स चरिम. विदिखंडयचरिमसमए पयदुक्कस्ससामित्तं होइ । तत्थ किंचूणसव्वसंकमदव्वमेत्तस्स उक्कस्सवड्डिसरूवेणुवलद्धीदो।
* उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ६६१६. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसियो सम्मत्तमुप्पाएदूण लहुं मिच्छत्तं गो तस्स मिच्छाइहिस्स पढमसमए अवत्तव्वसंकमो विदियसमये उक्कसिया हाणी ।
६६१७. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-जो गुणिदकम्मंसियो अंतोमुहुत्तेण कम्म गुणेहदि त्ति विवरीयं गंतूण सम्मत्तमुप्पाइय सव्वुकस्सियाए पूरणाए सम्मत्तमावरिय तदो सव्वलहु मिच्छत्तं गदो तस्स बिदियसमयमिच्छाइद्विस्स उक्कस्सिया सम्मत्तपदेससंकमहाणी होइ । कुदो ? तत्थ पढमसमय-अधापवत्तसंकमादो अवत्तव्यसरूवादो विदियसमए हीयमाणसंकमदव्यस्स उवरिमासेसहाणिदव्वं पेक्खिऊण बहुत्तोवलंभादो। एत्थ चोदओ भणइ–णेदमुक्कस्सहाणिसामित्तं घडदे, एत्तो अण्णस्स हाणिदव्वस्स बहुत्तोवलंभादो । तं जहा-गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तमुप्पाइय मिच्छत्तं गंतूर्णतोमुहुत्तमधापवत्तसंकम कादण तदो उव्वेल्लणसंकमेण परिणदस्स पढमसमए उक्कस्सिया हाणी कायद्या, पुबिल्ल
पूरणाके द्वारा सम्यक्त्वको पूर कर अनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर सबसे लघु उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करनेवाले जीवके अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है. क्योंकि वहाँ पर कुछ कम सर्वसंक्रम प्रमाण द्रव्यकी उत्कृष्ट वृद्धिरूपसे उपलब्धि होती है।
* इसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ६ ६१६. यह सूत्र सुगम है।
* जो गणितकर्मा शिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें गया उस मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रम होता है और दूसरे समयमें उत्कृष्ट हानि होती है।
६६१७. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-जो गुणितकर्माशिक जीव अन्तर्मुहूर्त के द्वारा कर्मको गुणित करेगा; किन्तु विपरीत जाकर और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सर्वोत्कृष्ट पूरणाके द्वारा सम्यक्त्वको पूरकर अनन्तर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ उस द्वितीय समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर प्रथम समयमें होनेवाले अवक्तव्यरूप अधः प्रवृत्त संक्रमसे दूसरे समयमें हीयमान संक्रम द्रव्य उपरिम समस्त हानिरूप द्रव्यको देखते हुए वहुत उपलब्ध होता है।
- शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि यह उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व घटित नहीं होता, क्योंकि इससे अन्य हानि द्रव्य बहुत उपलब्ध होता है । यथा-गुणित कांशिक लक्षणसे आकर और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर गिथ्यात्वमें जाकर अन्तमुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्त संक्रम कर तदनन्तर उद्वेलना संक्रमरूपसे परिणत हुए उसके प्रथम समयमें उत्कृष्ट हानि करनी चाहिए,
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
३८५
हादिव्वादो एत्थतणहाणिदव्यस्सासंखेञ्जगुणत्तदंसणादो । तदो पुत्रिल्लविसयं मोत्तूत्थे सामितेण होदव्यमिदि ?ण एस दोसो, परिणामविसेसमस्सिऊण पयट्टमाणस्स संकमस्स बिदियसमयं मोत्तूण उवरि अनंतगुणसंकिलेसविसए बहुत्तविरोहादो । कुदो एदं road ? म्हादो चै सुत्तादो |
* सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डो कस्स ? ६६१८. सुगममेदं पुच्छावक ।
* गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स ।
६ ६१६. एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणाए मिच्छत्तभंगो । * उक्कस्सिया हाणी कस्स ?
६२०. सुगमं ।
* उप्पादिदे सम्मत्ते सम्मामिच्छात्तादो सम्मत्ते जं संकामेदि तं पदेसग्गमंगुलस्सासंखेज्जभाग पडिभागं । तदोउक्क सिसयाहाणी ण होदि ति ।
९ ६२१. एदस्साहिप्पाओ उवसमसम्मत्ते समुप्पादिदे मिच्छत्तस्सेव सम्मामिच्छत्तस्स वि गुणसंकमो अस्थि चैत्र, उवसमसम्मत्त विदिय समय प्पहुडि पडिसमयमसंखेजगुणाए क्योंकि पूर्वोक्त हानि द्रव्यसे यहाँ पर प्राप्त हुआ हानि द्रव्य असंख्यातगुणा देखा जाता है । इस लिए पूर्वोक्त विषयको छोड़कर यहाँ पर ही स्वामित्व होना चाहिए ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि परिणामविशेषका आश्रय कर प्रवर्तमान हुए संक्रमका दूसरे समय के सिवा श्रागे अनन्तगुणे संक्लेश के सद्भाव में बहुत होने का विरोध है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान —- इसी सूत्र से जाना जाता है ।
* सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? ६१८. यह पृच्छावाक्य सुगम है ।
* सर्वसंक्रम करनेवाले गुणितकर्माशिक जीवके होती है ।
६१. इस सूत्र की अर्थप्ररूपणा, जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि के स्वामीके प्रतिपादक सूत्रकी अर्थप्ररूपणा कर आये हैं, उसके समान है ।
* उत्कृष्ट हानि किसके होती है ?
६२०. यह सूत्र सुगम हैं ।
* सम्यक्त्वको उत्पन्न करने पर सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यक्त्वमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह द्रव्य अंगुल असंख्यातवें भागरूप भागहारसे लब्ध होता है, इसलिए यहाँ परे उत्कृष्ट हानि नहीं होती है ।
६६२१. इन सूत्रका अभिप्राय - उपशमसम्यक्त्वके उत्पन्न करने पर मिथ्यात्व के समान सम्यग्मिथ्यात्वका गुणसंक्रम है ही, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वके दूसरे समय से लेकर प्रत्येक समय में
૪૬.
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३८६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
(बंधगो ६ सेढीए सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तसरूवेण संकमपवुत्तीए वाहाणुवलंभादो। किंतु तहा संक्रममाणसम्मामिच्छत्तदव्यस्स पडिभागो अंगुलस्सासंखेजदिभागो। कुदो एदमवगम्मदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। एवं च संते तत्तो विज्झादसंकमे पदिदस्स उक्कस्सिया हाणी ण होइ, बिज्झाद-गुणसंकमादो विज्झादसंकमेण परिणदम्मि सव्वुक्क स्सियाए हाणीए संभवविरोहादो। तदो एदं मोत्तग विसयंतरे सामित्ताविहाणेण होदव्वमिदि । एवं च कयणिच्छयो तण्णिद्द सकरणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
* गुणिदकम्मंसिओ संम्मत्तमुप्पाएदूण लहुं चेव मिच्छत्तं गवो, ज़हरिणयाए मिच्छत्तद्धाए पुगणाए सम्मत्तं पडिवगणो, तस्स पढमसमयसम्माइडिस्स उक्कस्सिया हाणी।
६६२२. एदस्स साभित्तसुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा–गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तमुप्पाइय सव्वुकस्सगणसंकमेण सम्मामिच्छत्तमावरिय तदो लहुं चेव मिच्छत्तमुवगओ । किमट्ठमेसो मिच्छत्तमुवणिजदे ? अधापवत्तसंकमेण बहुदव्यसंक्रमं कादूण तत्तो सम्मत्तं पडिवण्णस्स पढमसमए विज्झादसंकमेणुकस्सहाणिसामित्तविहाणटुं। सेसं असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वरूपसे संक्रमकी प्रवृत्ति होने पर भी कोई बाधा नहीं उपलब्ध होती । किन्तु इस प्रकारसे संक्रमको प्राप्त होनेवाले सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका प्रतिभाग अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है।
और ऐसा होने पर उसके बाद विध्यातसंक्रममें पतित हुए उसकी उत्कृष्ट हानि नहीं होती, क्योंकि विध्यात और गुणसंक्रमसे विध्यातसंक्रमरूपसे परिणत होने पर सर्वोत्कृष्ट हानिके सम्भव होनेमें विरोध है। इसलिए इसे छोड़कर दूसरे स्थल पर स्वामित्वका विधान होना चाहिए इस प्रकार उक्त प्रकारका निश्चय करके उसका निर्देश करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं___* जो गुणितकर्मा शिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें गया । पुनः जघन्य मिथ्यात्वके कालके पूर्ण होने पर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट हानि होती है।
६ ६२२. इस स्वामित्व सूत्रका, अर्थ कहते हैं। यथा-गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको पूरा कर अनन्तर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ।
शंका-यह मिथ्यात्वको किसलिए प्राप्त कराया जाता है ?
समाधान-अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा बहुत द्रव्यका संक्रम करके अनन्तर सम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा उत्कृष्ट हानिके स्वामित्वका विधान करनेके लिए इसे सर्व प्रथम मिथ्यात्वको प्राप्त कराया जाता है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याडपदेससंकमे पदणिक्खेवो
सुत्ताणुसारेण वत्तं । एत्थ हाणिदव्त्रपमाणे आणि मागे सम्माइट्ठिपढमसययविज्झादसंकमदव्यमधापवत्तसं कमदव्यादो सोहिदे सुद्धसेसमेतं होइ त्ति वत्तव्वं । तदो विज्झादगुणमणिहाणिदव्वादो पयदहाणिदव्वमसंखेञ्जगुणमिदि तप्परिहारेणेत्थेव सामित - विाणमविरुद्धं सिद्ध । अधापवत्तसंक्रमादो उब्वेल्लणासंक्रमेण परिणदमिच्छाइट्ठिम्मि पयदुकस्ससामित्तावलंबणे सुट्टु लाहो दिस्सदि ति णासंकणिअं उब्वेल्लणाहिमुहस्स अधापवत्तसंक्रमादो एत्थतणअधापवत्तसंकमस्त परिणामपाहम्मेण बहुत्तोवलंभादो । खेदमसिद्धं, दादो चैत्र सोमित्तसुतादो तस्सिद्धीए ।
* अणंताणुबंधोणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ६६२३. सुगभं ।
"
३८७
* गुणदकम्म' सियस्स · सव्वसंकामयस्स ।
६६२४. गुणिक मंसियलक्खणेणागतूण सव्वलहुं त्रिसंजोयणाए अब्भुट्ठिदस्स चरिमफालीए सन्धसंक्रमेण पयदुकस्ससामित्तं होइ, तत्थ किंचूणकम्मट्ठिदिसंचयस्स वरूण संकंतिदंसणादो ।
* उक्क स्सिया हाणी कस्स ? ६२५. सुगमं
६६२३. यह सूत्र सुगम है ।
* सर्वसंक्रामक गुणितकर्माशिक जीवके होती है ।
शेष कथन सूत्र के अनुसार करना चाहिए । यहाँ पर हानिका द्रव्यप्रमाण लापर सम्यग्दृष्टि प्रथम समय के विध्यातसंक्रम द्रव्यको अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्रव्यमेंसे घटा देने पर जो शेष बचे उतना होता है ऐसा कहना चाहिए। इसलिए विध्यात और गुणसंक्रमसे उत्पन्न हुए हानिद्रव्यसे प्रकृत हानिद्रव्य असंख्यातगुणा होता है, इसलिए उसका परिहार करके यहीं पर स्वामित्वका विधान श्रविरुद्ध सिद्ध होता है । अधःप्रवृत्तसंक्रमसे उद्वेलनासंक्रमके द्वारा परिणत हुए मिध्यादृष्टि जीव में प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका अवलम्बन करने पर अच्छा लाभ दिखाई देता है। ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उद्वेलनाके अभिमुख हुए जीवके होनेवाले अधःप्रवृत्तसंक्रमसे यहाँ पर होनेवाला अधःप्रवृत्तसंक्रम परिणामोंके माहात्म्यवश बहुत उपलब्ध होता है। और यह सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी स्वामित्व सूत्रसे उसकी सिद्धि होती है ।
1
* अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ?
जीवके
६६२४. गुणितकर्मा' शिकलक्षण से आकर अतिशीघ्र विसंयोजना करनेमें उद्यत हुए: चरम फालिका सर्वसंक्रम करनेपर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि वहाँ पर कुछ कम कर्मस्थिति सञ्चयकी वृद्धिरूपसे संक्रान्ति देखी जाती है ।
* उत्कृष्ट हानि किसके होती है ?
६ ६२५. यह सूत्र सुगम है ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बधगी ६
* गुणिदकम्म सिओ तप्पा ओग्गउक्कस्सियादो अधपवत्तसंकमादो सम्मत्तं यडिवज्जिऊण विज्झादसंकामगो जादो, तस्स पढमसमयस॑म्माइट्ठिस्स उक्कस्सिया हाणी ।
९ ६२६. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मिच्छाइट्ठिचरिमसमए तप्पा ओग्गुकस्सएण अधापवत्तसंक्रमेण परिणमिय तदणंतरसमए सम्मत्तपडिलंभवसेण विज्झाद संकामगो जादो तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स पयदुक्कस्सहाणिसामित्ताहिसंबंधो । सेसं सुगमं । * उक्कस्सयमवट्ठाणं कस्स ?
३८८
६२७. सुगमं ।
* जो अधापवत्तसंकमेण तप्पा ओग्गुक्कस्सएण वडिदू अवट्ठिदो तस् उक्कस्सयमवट्ठाणं |
६६२८. जो गुणिदकम्मंसिओ तप्पा ओग्गुकस्सएणाधापवत्तसंक्रमेण विवक्खियसमयम्मि वडऊण तदणंतरसमए तेत्तियमेत्तेणावट्ठिदो तस्स पयदसमित्ताहिसंबंधोति सुत्तत्थसमुच्चयो । एत्थुक्कस्सहाणिविसय मुकस्सावद्वाणं गेण्हामो, पयदवसिय संकमा - वाणादो तस्सासंखेजगुणत्तसमुवलंभादो १ ण एस दोसो, गुणिदकम्मंसियलक्खणा गंतूण सम्मत्तमुप्पाइय उक्क सहाणीए परिणदस्स विदियसमए अवट्ठाणकरणोवायाभावादो । तं
* जो गुणितकर्माशिक जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमसे सम्यक्त्वको प्राप्त कर विध्यातसंक्रामक हो गया उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट हानि होती है ।
६ ६२६. क्योंकि गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट श्रधःप्रवृत्तसंक्रमरूपसे परिणम कर तदनन्तर समय में सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके कारण विष्यात संक्रामक हो गया उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके प्रकृत उत्कृष्ट हानिके स्वामित्वका अभिसम्बन्ध है । शेष कथन सुगम है ।
* उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ?
§ ६२७. यह सूत्र सुगम है ।
* जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा वृद्धि कर अवस्थित है उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है ।
६६२८. क्योंकि जो गुणितकर्माशिक जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा विवक्षित समय में वृद्धि करके तदनन्तर समय में उतने ही संक्रमरूपसे अवस्थित है उसके प्रकृत स्वामित्वका सम्बन्ध होता है यह सूत्रार्थका समुच्चय है ।
शंका – यहाँ पर उत्कृष्ट हानि विषयक उत्कृष्ट अवस्थानको ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रकृत वृद्धिविषयक संक्रमके अवस्थानसे वह असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है ?
समाधान — यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर और सम्यक्त्वको उत्पन्न कर उत्कृष्ट हानिरूपसे परिणत हुए जीवके दूसरे समय में अवस्थान करनेका कोई उपाय नहीं है।
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गा'५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेव
३८६.. पि कुदो ? तत्थ मिच्छाइटिवरिमावलियाए पडिच्छिददबवसेणावलियकालभंतरे वडिसंकमस्सेव दंसणादो।
* अट्ठकसायाणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ६६२६. सुगमं ।
ॐ गुणिदकम्मसियस्स सव्वसंकामयस्स । ६६३० गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सबलहुं खवणाए अब्भुट्ठिय सव्वसंकमेण परिणदम्मि पयदकम्माणमुक्कस्सिया वड्डी होइ, तत्थ सव्वसंकमेण किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणं पयदवविसरूवेण संकंतिदसणादो।
* उफस्सिया हाणी कस्स ? ६६३१. सुगमं ।
* गुणिदकम्मसियो पढमदाए कसायउवसामणडाए जाधे दुविहस्स कोहस्स चरिमसमयसंकामगो जादो, तदो से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी।
६६३२. 'दुविहस्स- कोहस्स' अट्ठसु कसाएसु दुविहस्स ताव कोहस्स पयदुक्कस्सहाणिसामित्तमेदेण सुत्तेण णिद्दिढं। तं जहा–गुणिदकम्मंसियो अण्णाहियगुणिदकिरियाए
शंका-यह भी कैसे ?
समाधान—क्योंकि वहाँ पर मिथ्यादृष्टि जीवकी अन्तिम आवलिमें संक्रामक हुए द्रव्यके कारण एक आकलि कालके भीतर वृद्धिका संक्रम ही देखा जाता है।
* आठ कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? . ६६२६. यह सूत्र सुगम है।
* सर्वसंक्रामक गणितकर्मा शिक जीवके होती है।
६६३०. गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर अतिशीघ्र क्षपणाके लिए उद्यत हो सर्वसंक्रमरूपसे परिणत होने पर प्रकृत कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है, क्योंकि वहाँ पर सर्वसंक्रमके द्वारा कुछ कम डेढ़ गुणहानिमात्र समयप्रबद्धोंका प्रकृत वृद्धिरूपसे संक्रम देखा जाता है।
* उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? ६६३१. यह सूत्र सुगम है।
* जो गुणितकर्मा शिक जीव सर्व प्रथम कषायोंके उपशामना कालके भीतर जब दो प्रकारके क्रोधका अन्तिम समयवर्ती संक्रामक हुमा और उसके बाद मर कर देव हुआ उस प्रथम समयवर्ती देवके उत्कृष्ट हानि होती है।
६६३२. 'दुविहस्स कोहस्स' इस पदका निर्देश कर सर्व प्रथम आठ कषायोंमेंसे दो प्रकारके क्रोधके प्रकृत उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। यथा-कोई एक
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३६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ आगंतूण मणुसेसुप्पन्जिय गम्भादिअट्ठवस्साणमुवरि पढमदाए कसायउवसामणाए उवविदो। एत्थ पढमदाए कसायउवसामणाए त्ति वयणं विदियादिकसायोवसामणाणं पडिसेहकरणटुं। तं पि गुणसंक्रमेण गच्छमाणदत्रपरिरक्खणट्ठमिदि घेत्तव्यं, अण्णहा गुणसंकमेण पयदकम्माणं बहुदवहोणिप्पसंगादो । तस्स कदमम्मि? अवत्थाविसेसे सामित्तसंबंधो ति वुत्ते बुच्चदे-जाधे दुविहस्स कोहस्स गुणसंक्रमेण संकामिजमाणयस्स चरिमसमयसंकामओ जादो, तदो से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवपजाए वट्टमाणयस्स पयदुक्कस्ससामित्ताहिसंबंधो । तत्थ गुणसंकमादो अधापवत्तसंकमेण परिणदस्स हाणीए उकस्समावदसणादो। तप्पाओगजहण्णअधापवत्तसंकमदव्ये सव्वुक्कस्सगुणसंकमदबादो सोहिदे सुद्धसेसदनपडिबद्धमेदमुक्कस्सहाणिसामित्तमिदि णिच्छेयव्वं ।
® एवं दुविहमाण-दुविहमाया-दुविहलोहाणं ।
६६३३. कुदो ? चरिमसमयगणसंकमादो अधापेवत्तसंक्रमपजाएण परिणदपढमसमयदेवम्मि सामित्तं पडि विसेसाभावादो। थोषयरो दु विसेससंभवो अत्थि ति तप्पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं
गुणितकर्मा शिक जीव न्यूनाधिकतासे रहित गुणित क्रियाके द्वारा आकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर आठ वर्षके बाद सर्व प्रथम कषायोंकी उपशामना करनेके लिए उद्यत हुआ। यहाँ पर 'पेढमदाए कसायउवसामणाए' यह वचन द्वितीय आदि बार कषायोंकी उपशामनाका प्रतिषेध करने के लिए दिया है। वह भी गणसंक्रमके द्वारा जानेवाले द्रव्यकी रक्षा करनेके लिए दिया है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा गुणसंक्रमके द्वारा प्रकृत कर्मो के बहुत द्रव्यको हानिका प्रसंग आता है। उसका किस अवस्थाविशेषमें स्वामित्वका सम्बन्ध है ऐसा पूछने पर कहते हैं-जब दो प्रकारके क्रोधका गुणसंक्रमके द्वार। संक्रम करते हुए अन्तिम समयवर्ती संक्रामक हुआ, फिर तदनन्तर समयमें मरकर देव हो गया उसके प्रथम समयसम्बन्धी देवपर्यायमें रहते हुए प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्वका सम्बन्ध होता है, क्योंकि वहाँ पर गुणसंक्रमसे अधःप्रवृत्तसंक्रमरूपसे परिणत हुए जीवके हानिका उत्कृष्टपना देखा जाता है। तत्प्रायोग्य जघन्य अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्रव्यको सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमके द्रव्यमेंसे घटाने पर शुद्ध शेष द्रव्यसे सम्बन्ध रखनेवाला यह उत्कृष्ट हानिविषयक स्वामित्व है ऐसा यहाँ पर निश्चय करना चाहिए।
* इसी प्रकार दो प्रकारके मान, दो प्रकारकी माया और दो प्रकारके लोभकी उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व है।
६६३३. क्योंकि अन्तिम समयसम्बन्धी गुणसंक्रमसे अधःप्रवृत्तसंक्रमपर्यायरूपसे परिणत हुए प्रथम समयवर्ती देवके स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। किन्तु कुछ थोड़ीसी विशेषता सम्भव है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
१ आ. प्रतौ कददव्वस्स ता.प्रतौ कदमम्मि (१) इति पाठः ।
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to ५८ ]
उत्तरपयडिपदेसकमे पदणिक्खेवो
३६१
* एवरि अप्पप्पणो चरिमसमयसंकामगो होदूण से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी ।
९ ६३४. सुगममेदं ।
* अहं कसायाणमुक्कस्संयमवद्वाणं कस्स १ ९ ६३५. सुगमं ।
* अधापवत्त संकमेण श्रवदिकामगो जादो तस्स उक्कस्सयमवद्वाणं ।
९ ६३६. एदस्स सुत्तस्सत्थे भण्णमाणे अनंतारणुबंधीणमुक्कस्सा वट्ट (णसामित्तसुत्तस्सेव परूवणा कायन्त्रा, विसेसाभावादो ।
तप्पा ओग्गउक्कस्सएण वड्डिदूप से काले
* कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ?
8
६३७. सुगमं ।
* जस्स उक्कस्सओ सव्वसंकमो तस्स उपस्सिया वड्डी ।
६ ६३८. गुणिदकम्मं सियलक्खणाणूणाहिएणागंतूण मणुसेसुप्पत्रिय सव्वलहु खवणाए अन्भुट्ठिदस्स कोहसंजलणचिराणसंतकम्मं सव्वसंकमेण संछुहमाणयस्स उक्कस्सओ
* किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना अन्तिम समयवर्ती संक्रामक होकर तदनन्तर समय में मरा और देव हो गया, इस प्रथम समयवर्ती देवके उत्कृष्ट हानि होती है।
६६३४. यह सूत्र सुगम है I
* आठ कषायोंका उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ?
६६३५. यह सूत्र सुगम है ।
* तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा वृद्धि करके तदनन्तर समय में अवस्थित संक्रामक हो गया, उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है
1
९६३६. इस सूत्र के अर्थका कथन करनेपर अनन्तानुबन्धियोंके उत्कृष्ट अवस्थानके स्वामित्व का कथन करनेवाले सूत्र के समान प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता
है।
* क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ?
६६३७. यह सूत्र सुगम है ।
* जिसके उसका उत्कृष्ट सर्वसंक्रम होता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है ।
६३८. न्यूनाधिकता से रहित गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर अतिशीघ्र क्षपणा के लिए उद्यत हो क्रोध संज्वलन के प्राचीन सत्कर्मका सर्वसंक्रमके द्वारा सक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । उसीके उत्कृष्ट बृद्धिके स्वामित्वका निश्चय करना
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३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ पदेससंकमो होइ । तस्सेव उक्कस्सवहिसामित्तमवहारेयव्वं, तत्थ किंचूणसव्यसंकमदबस्स उक्कस्सवविसरूवेण संकंतिदंसणादो।
तस्सेव से काले उक्कस्सिथा हाणी। ६६३६. तस्सेवाणंतरणिहिट्ठवडिसामियस्स तदणंतरसमए उक्कस्सिया हाणी होइ ति सामित्तसंबंधो काययो । कधं तत्थ हाणीए उकस्सभावो चे १ वुच्चदे-चिरोणसंतकम्मचरिमफालिं सबसंकमेण संकामिय तदणंतरसमए णवकबंधसंकममाढवेदि । तेण कारणेण तत्थुक्कस्सहाणिसामित्तसंबंधो ण विरुज्झदे । एत्थोवजोगिविसेसंतरपदुप्पायण?मुत्तरसुत्तमाह
ॐणवरि से काले संकमपाओग्गा समयपषडा जहपणा कायव्वा ।
६६४०. सव्वुक्कस्सपदेससंकमादो हाइदूण सुट्ट जहण्णपदेससंकमे पारद्धे उक्कस्सिया हाणी होइ, णाण्णहा । तदो सव्वुकस्सहाणिसंकमग्गहणटुं से काले संकमपाओग्गा णवकबंधसमयपबद्धा जहण्णा कायव्वा ति एदस्सस्थविसेसस्स परूवणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
*तं जहा।
चाहिए, क्योंकि वहाँ पर कुछ कम सर्वसंक्रमद्रव्यका उत्कृष्ट बृद्धिरूपसे संक्रम देखा जाता है ।
* उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट हानि होती है।
६६३६. जिस जीवके पूर्व में संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट वृद्धिके स्वामीका निर्देश किया है उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट हानि होती है इस प्रकार यहाँ पर स्वामित्वका सम्बन्ध करना चाहिए।
शंका-वहाँ उत्कृष्ट हानि कैसे सम्भव है ?
समाधान—क्योंकि प्राचीन सत्कर्मकी अन्तिम फालिका सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रम करके तदनन्तर समयमें नवकबन्धके संक्रमका प्रारम्भ करता है, इस कारणसे वहाँ पर उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व सम्बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होता। अब यहाँ पर उपयोगी दूसरी विशेषताका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि तदनन्तर समयमें संक्रमके योग्य समयप्रबद्धोंको जघन्य करना चाहिए।
६६४०. क्योंकि सबसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमसे घटाकर अति कम जघन्य प्रदेशसंक्रमका प्रारम्भ करने पर उत्कृष्ट हानि होती है, अन्यथा नहीं। इसलिए सबसे उत्कृष्ट हानि संक्रमको ग्रहण करनेके लिए तदनन्तर समयमें संक्रमके योग्य नवकबन्ध समयप्रबद्धोंको जघन्य करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वे समयप्रबद्ध कितने हैं अथवा उन्हें जघन्य कैसे करना चाहिए इस प्रकार इस अर्थविशेषका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* यथा।
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३६३
गा०५८
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो ६६४१. सुगमं ।
ॐ जेसिं से काले प्रावलियमेत्ताणं समयपबद्धाणं पदेसग्गं संकामिज हिदि ते समयपबद्धा तप्पाओग्गजहाणा ।
६६४२ एतदुक्तं भवति–जेसिमावलियमेतणवकबंधसमयपबद्धाणं बंधावलियादिक्कतसरूवाणं वड्डिसमयं पेक्खिऊणाणंतरसमए संकमो भविस्सदि ते समयपबद्धा सगबंधकाले चे तप्पाओग्गजहण्णजोणेण बंधावेयवा, अण्णहा सव्वुक्कस्सहाणीए असंभवादो। एदस्सेवत्थस्सोवसंहारबक्कमुत्तरं
* एदीए परूवणाए सव्वसंकमं संछुहिदण जस्स से काले पुव्वपरूविदो संकमो तस्स उक्कस्सिया हाणी कोहसंजलणस्स।
६६४३. गयत्थमेदं सुत्तं ।
8 तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं।
६६४४. तस्सेव हाणिसामियस्स से काले बंधावलियादिक्कतणवकबंधंतरसंबंधेण तेत्तियमेत्तं संकामेमाणयस्स उकस्सावट्ठाणसामित्तं दट्टव्यं, उक्कस्सहाणिपमाणेणेव तत्थावट्ठाणदंसणादो।
ॐ जहा कोहसंजलणस्स तहा माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । ६६४१. यह सूत्र सुगम है।
* उत्कृष्ट वृद्धिके अनन्तर समयमें आवलिमात्र जिन समयप्रबद्धोंके प्रदेशाग्र संक्रमित होंगे वे समयप्रबद्ध तत्प्रायोग्य जघन्य होते हैं ।
६६४२. कहनेका यह तात्पर्य है कि जो प्रावलिमात्र नवक समयप्रबद्ध बन्धावलिको उल्लंघन कर स्थित हैं उनका वृद्धि समयको देखते हुए अनन्तर समयमें संक्रम होगा उन समयप्रबद्धोंको अपने बन्धकालमें ही तत्प्रायोग्य जघन्य योगके द्वारा बन्ध कराना चाहिए, अन्यथा सर्वोत्कृष्ट हानि नहीं हो सकती । अब इसी अर्थका उपसंहार करते हुए आगेका वाक्य कहते हैं
. * इस प्ररूपणाके अनुसार सवसंक्रमके आश्रयसे संक्रम करके जिसके तदनन्तर समयमें पहले कहा हुआ संक्रम होता है उसके क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट हानि होती है।
६६४३. यह सूत्र गतार्थ है। * उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है ।
६६४४. उत्कृष्ट हानिके स्वामी उसी जीवके तदनन्तर समयमें बन्धावलिको उल्लंघन कर स्थित हुए दूसरे नवकबन्धके सम्बन्धसे उतने ही द्रव्यका संक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामित्व जानना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट हानिप्रमाण ही अवस्थान देखा जाता है। ___* जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार मान संज्वलन, माया संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानकी प्ररूपणा जाननी चाहिए ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६६४५. सुगममेदमप्पणासुत्तं।
• लोहसंजलणस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? F६४६. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसिएण लहुं चत्तारिवारे कसाया उवसामिदा, अपच्छिमे भवे दो वारे कसाए उवसामेऊण खवणाए अब्भुट्ठिदो जाधे चरिमसमए अंतरमकदं ताधे उकसिसया वड्डी।
६६४७. किमट्टमेसो गुणिदकम्मंसिओ चदुक्खुत्तो कसायोवसामणाए पयट्टाविदो ? अवज्झमाणपयडीहिंतो गुणसंकमेण बहुदव्यसंगहणटुं। तदो गणिदकम्मंसियलक्खणेण सत्तमपुढवीदो आगंतूण मणुसेसुववजिय गम्भादिअवस्साणमुवरि दोवारे कसायोवसामणाए परिणमिय पुणो मिच्छत्तपडिवादेण सव्वलहुं कालं कादूण मणुसेसु उबवण्णेण अपच्छिमे तम्मि मणुसभवग्गहणे दो वारे कसाया उवसामिदा । तदो हेट्ठा ओसरिदूण खत्रणाए अब्भुद्विदेण तेण जाधे चरिमसमए अंतरमकदं तस्स उक्कस्सिया लोहसंजलणपदेससंकमविसया वही होइ ति घेत्तव्वं, हेटिमासेससंकहितो तत्थतणसंकमस्स बहुत्तोवलंभादो।
उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ६६४५. यह अर्पणासूत्र सुगम है। * लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि किसकें होती है। ६६४६. यह सूत्र सुगम है।
* जिस गुणितकर्मा शिक जीवने अतिशीघ्र चार बार कषायोंकी उपशामना की है। उसमें भी अन्तिम भवमें दो बार कषायोंको उपशमा कर जो क्षपणाके लिए उद्यत हुआ । उसने जब अन्तिम समयमें अन्तर नहीं किया तब उसके संज्वलन लोभको उत्कृष्ट वृद्धि
होती है।
६६४७. शंका-इस गुणितकर्मा शिक जीवको चार बार कषायोंकी उपशामनाके लिए क्यों प्रवृत्त कराया है ?
समाधान- नहीं बँधनेवाली प्रकृतियोंमेंसे गुणसंक्रमके द्वारा बहुत द्रव्यका संग्रह करनेके लिए ऐसा किया है।
इसलिए गुणितकर्मा शिक लक्षणके साथ सातवीं पृथिवीसे आकर मनुष्यों में उत्पन्न हो गर्भसे लेकर आठ वर्षके बाद दोबार कषायोंकी उपशामनारूपसे परिणमा कर पुनः मिथ्यात्वमें गिरनेके साथ अतिशीघ्र मरकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अन्तिम उस मनुष्यभवमें दोबार कषायोंकी उपशामना की। तदनन्तर नीचे आकर क्षपणाके लिए उद्यत हुए उसने जब अन्तिम समयमें अन्तर नहीं किया तब उसके लोभसंज्वलनकी प्रदेशसंक्रमविषयक उत्कृष्ट वृद्धि होती है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पूर्वके समस्त संक्रमोंसे यहाँका संक्रम बहुत उपलब्ध होता है।
* उत्कृष्ट हानि किसके होती है ?
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ६६४८. सुगम।
* गुणिदकम्मसियो तिणि वारे कसाए उवसामेऊण चउत्थीए उवसामणाए उवसामेमाणो अंतरे चरिमसमय-अकदे से काले मदो देवो जादो, तस्स समयाहियावलियउववएणयस्स उक्कस्सिया हाणी।
६६४६. एदस्सत्थो वुच्चदे–जो गुणिदकम्मंसिओ चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेमाणो तत्थ तिणि वारे वोलाविय चउत्थीए उवसामणाए अंतरकरणमाढविय से काले अंतरं पिल्लेविहिदि ति कालं कादूण देवेसुववण्णो तस्स समयाहियावलियदेवस्स पयदुक्कस्सहाणिसामित्तं दद्वन्वं । किं कारणं ? अंतरचरिमफालीए गच्छमाणाए पडिच्छिदगुणसंकमदव्यं तत्कालियणवकबंधेण सहिदमावलियदेवभावेण संकामिय पुणो तदणंतरसमए पढमसमयदेवोववादजोगेण बद्धणत्रकबंधसमयपबद्धमधापवत्तसंकमेण तत्थ पडिच्छिददव्वेण सह संकामेमाणयस्स सव्वुक्कस्सहाणीए विरोहामावादो।
8 उकस्संयमवट्ठाणमपच्चक्खाणावरणभंगो। ६६५०. सुगमं।
* भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? ६६४८. यह सूत्र सुगम है।
* जो गुणितकर्मा शिक जीव तीन बार कषायोंको उपशमाकर चौथी उपशामनाके द्वारा उपशम करता हुआ अन्तिम समयमें होनेवाले अन्तरको किये बिना तदनन्तर समयमें मरा और देव हो गया उसके उत्पन्न होनेके एक समय अधिक एक आवलि होने पर उत्कृष्ट हानि होती है।
६६४६. इस सूत्रका अर्थ कहते है-जो गुणितकर्माशिक जीव चार बार कषायोंकी उपशामना करता हुआ उनमेंसे तीन बारोंको बिताकर चौथी उपशामनामें अन्तरकरणका प्रारम्भ कर तदनन्तर समयमें अन्तरको समाप्त करेगा कि मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ उस देवके एक समय अधिक एक श्रावलि काल होने पर प्रकृत उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व जानना चाहिए।
शंका-क्या कारण है ? .
समाधान-क्योंकि अन्तरकी अन्तिम फालिके जाते हुए संक्रमको प्राप्त हुए गुणसंक्रमके द्रव्यको तत्कालीन नवकबन्धके साथ एक आवलि कालतक देवभावके साथ संक्रमित कर पुनः तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती देवके उपपादयोगके साथ बँधे हुए नवकबन्धके समयप्रबद्धको अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा वहाँ संक्रमित किये गये द्रव्यके साथ संक्रम करनेवाले जीवके सबसे उत्कृष्ट हानि होनेमें विरोधको अभाव है।
* उत्कृष्ट अवस्थानका भङ्ग अप्रत्याख्यानावरणके समान है। ६६५०. यह सूत्र सुगम है। * भय और जुगुप्साको उत्कृष्ट धृद्धि किसके होती है ?
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३६६ जयधबलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६६५१. सुगमं । * गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स।
६६५२. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खरगसेढिमारुहिय सव्वसंकमेण परिणदम्मि सव्वुक्कस्सवद्विसंभवं पडिविरोहाभावादो।
* उक्कस्सिया हाणी कस्स ? ६६५३. सुगमं ।
* गुणिदकम्मंसिओ पढमदाए कसाए उवसामेमाणो भय-दुगुंछासु चरिमसमयअणुवसंतासु से काले मदो देवो जादो, तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी।
६६५४. गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पढमवारं कसायोवसामणं पट्टविय तत्थ भयदुगु'छासु चरिमसमयअणुवसंतासु सबुक्कस्सगुणसंक्रमेण परिणमिय तत्तो से काले कालं कादूण देवेसुप्पण्णस्स पढमसमए पयदुक्कस्सहाणिसामित्तं होइ, सव्वुक्कस्सगुणसंकमादो अधापवत्तसंकमेण परिणदम्मि तदविरोहादो ।
* उक्कस्सयमवहाणमपच्चक्खाणावरणभंगो। ६६५५. सुगममेदमप्पणासुत्तं ।
६ ६५१. यह सूत्र सुगम है। * सवेसंक्रामक गणितकर्मा शिक जीवके होती है।
६६५२, क्योंकि गुणितकर्मा शिक लक्षणसे आकर और क्षपकनेणि पर आरोहण कर सर्वसंक्रमरूपसे परिणत होने पर सबसे उत्कृष्ट वृद्धि के सम्भव होने में कोई विरोध नहीं आता।
* उत्कृष्ट हालि किसके होती है ? ६ ६५.३. यह सूत्र सुगम है।
* जो गणितका शिक जीव प्रथम बार कषायोंका उपशम करता हुआ भय और जुगप्साका अन्तिम समयमें उपशम किये बिना अनातर समयमें मरकर देव हो गया उस प्रथम समयवर्ती देवके उत्कृष्ट हानि होती है।
६६५४. गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर और प्रथम बार कषायोंकी उपशामनाकी प्रस्थापना कर वहाँ भय और जुगुप्साके अन्तिम समयमें अनुपशान्त रहते हुए जो सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमरूपसे परिणमन कर उसके बाद तदनन्तर समयमें मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ उसके प्रथम समयमें प्रकृत उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व होता है, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमके बाद अधःप्रवृत्तरूपसे परिणत होने पर उसके होने में कोई विरोध नहीं आता।
* उत्कृष्ट अवस्थानका भङ्ग अप्रत्याख्यानावरणके समान है। ६६५५. यह अर्पणा सूत्र सुगम है ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपेदेससंकमे पदणिक्खेवो
३६७ 8 एवमित्थि-णवंसयवेद-हस्स-रह-अरइ-सोगाणं ।
६६५६. जहा भयदुगुछाणमुक्कस्ससामित्तं परूविदं तहा एदेसि पि परूवेयव्वं । संपहि एदेण सामण्णणि सेणेदेसि कम्माणमवट्ठाणसंकमस्स वि अत्थित्तप्पसंगे तण्णिवारण?मुत्तरसुत्तं भणइ -
* वरि अवट्ठाणं णत्थि ।
६६५७. कुदो? परावत्तणपयडीणमेदासिमवट्ठाणसंभवाभावादो। एवमोघेणुकस्ससामित्तपरूवणा गया । एदीए दिसाए आदेसपरूवणा च विहासियव्वा ।
तदो उक्कस्ससामित्तं समत्तं । * मिच्छत्तस्स जहएिणया वडढी कस्स ? ६६५८. सुगममेदं पुच्छासुतं । एवं पुच्छाविसयीकयसामित्तणिदेसे कायव्वे तत्थ ताव सबकम्माणं साहारणभावेण जहण्णवडिहाणि-अवट्ठाणाणं पमाणावहारणट्ठमट्ठपदं परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* जस्स कम्मस अवहिदसंकमो अत्थि तस्स असंखेज्जा लोगपडिभागो वड्डी वा हाणी वा अवट्ठाणं वा होइ।
* इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए।
६६५६. जिस प्रकार भय और जुगुप्साके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया उसी प्रकार इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका भी कथन करना चाहिए। अब इस सामान्य निर्देशसे इन कर्मों के अवस्थान संक्रमका भी अस्तित्व प्राप्त होने पर उसका निवारण करनेके तिए आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि उक्त प्रकृतियोंका अवस्थान संक्रम नहीं है।
६६५७. क्योंकि परावर्तमान इन प्रकृतियोंका अवस्थान सम्भव नहीं है । इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। इसी पद्धतिसे आदेश प्ररूपणाका व्याख्यान कर लेना चाहिए।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। * मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ?
६६५८. यह पृच्छा सूत्र सुगम है । इस प्रकार पृच्छाके द्वारा विषय किये गये स्वामित्वका निर्देश करते समय उसमें सर्व प्रथम सब कर्मों के साधारण भावसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके प्रमाणका अवधारण करने के लिए प्रथेपदका कथन करते हए आगेके सूत्रप्रवन कहते हैं
___ * जिस कर्मका अवस्थित संक्रम होता है उस कर्मकी असंख्यात लोक प्रतिभा रूपसे वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है ।
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जयधवला सहिदे कसा पाहुडे
[ बंधगो ६
I
६ ६५६. एदस्स सुत्तस्सत्थो बुच्चदे - - जस्स कमस्स निरंतरबंधवसेणावट्ठिद संकमो संभवइ तस्स जहण्णवड्डि- हाणि-अवट्ठाणपमाणमसंखेज्जलोगपडिभागो होइ । किं कारणं ? अणसं कमपाओग्गपयडीसु एगेगसंतकम्मपक्खेवुत्तरकमेण संतकम्मवियप्पाणं पयदजहणवड्डि-हाणि-अबट्ठापणिबंधणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एत्थ विसेसणिण्णयमुवरिमसामणि से कस्साम । तदो जेसिं कम्माणमवद्विद संक्रमसंभवो अस्थि तेसिमसंखेज्जलोगपडिभागेण जहण्णवडिहाणिअवट्ठाणसामित्ताणुगमो कायन्वो त्ति सिद्धं । संपहि जेसि - मट्ठाणसंभवो णत्थि तेसिमेस कमो ण संभवदि त्ति पदुप्पायणट्टमुत्तरमुत्तमोहणं —
* जस्स कम्मस्स अवदिकमो पत्थि तस्स वड्डो वा हाणी वा असंखेज्जा लोगभागो ए लभइ ।
३६८
§ ६६०. किं कारणं १ तत्थ तदुवलंभकारणसंतकम्मवियप्पाणमगुप्पत्तीदो । तदो तत्थागम - णिज्जरावसेण पलिदो ० असंखे० भागपडिभागेण संतकम्मस्स वड्डी वा हाणी वा sts ति तदणुसारेणेव संक्रमपवुत्ती दट्ठव्वा ।
* एसा परूवणा अट्ठपदभूदा जहरिणयाए वड्डीए वा हाणीए वा
अवट्ठास्स वा ।
६६१. एस अनंतरणिद्दिट्ठा परूवणा जहण्णवड्डि-हाणि - अवट्ठागाणं सरूवावहारण
६५६. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - जिस कर्मका निरन्तर बन्ध होनेसे अवस्थित संक्रम सम्भव है उसकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका प्रतिभाग असंख्यात लोकप्रमाण होता है, क्योंकि अवस्थानसंक्रमके योग्य प्रकृतियोंमें एक एक सत्कर्म प्रक्षेप अधिक के क्रमसे प्रकृत जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान के कारणभूत सत्कर्म विकल्पोंकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता । यहाँ पर विशेष निर्णय आगे स्वामित्वका निर्देश करते हुए करेंगे, इसलिए जिन कर्माका अवस्थित संक्रम सम्भव है उनकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वका अनुगम असंख्यात लोकको प्रतिभाग बना कर करना चाहिए यह सिद्ध हुआ । तत्काल जिनका अवस्थान संक्रम नहीं होता उनका यह क्रम सम्भव नहीं है यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र आया है -
* जिस कर्मका अवस्थितसंक्रम नहीं होता इस कर्मके असंख्यात लोक प्रतिभाग रूप से वृद्धि और हानि नहीं उपलब्ध होता ।
§ ६६०. क्योंकि वहाँ पर उसकी उपलब्धिके कारणभूत सत्कर्म विकल्प नहीं उत्पन्न होते । इसलिए वहाँ पर आय और निर्जराके कारण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभागरूपसे सत्कर्मकी वृद्धि और हानि होती है, अतएव तदनुसार ही संक्रमकी प्रवृत्ति जाननी चाहिए । * यह प्ररूपणा जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानकी अर्थपदभूत है ।
६६६१. यह अनन्तर पूर्व कही गई प्ररूपणा जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वरूपका निचय करने के लिए अर्थपदभूत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस प्रकार कहे गये
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो
३९ मट्ठपदभूदा ति भणिदं होइ । संपहि एवं परूविदमट्ठपदमस्सिऊण पयदजहण्णसामित्तविहासणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो
8 एदाए परूवणाए मिच्छत्तसस जहरिणया वड्डी हाणी प्रवट्ठाणं वा कसस ?
६६६२. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । णेदमेत्थासंकणिजं, पुवमेव मिच्छत्तजहण्णवद्धिसामित्तविसयपुच्छाणिद्दे सस्स कयत्तादो पुणरुवण्णासो णिरत्थवो ति। कुदो ? अत्थपरूवणाए अंतरिदस्स्स तस्सेव संभालणटुं पुणवण्णासे दोसाभावादो पुबिल्लपुच्छाणिदेसेणासंगहियाणं हाणि-अट्ठाणसामित्ताणमेत्थ संगहोवलंभादो च ।
ॐ जम्हि तप्पाओग्गजहएणगेण संकमण से काले अवहिदसंकमो संभवदि तम्हि जहपिणया वड्डी वा हाणी वा से काले जहणणयमवट्ठाणं ।
६६६३. जम्हि विसए तप्पाओग्गजहण्णएण संकमेण परिणदस्स से काले अवविदसंकमपरिणामसंभवो तम्हि विसए पयदजहण्णसामित्तमणुगंतव्वं । कम्हि पुण विसये अर्थपदका आश्रय कर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध कहते हैं
* इस प्ररूपणाके अनुसार मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ?
६६६२. यह पृच्छासूत्र सुगम है । यहाँ पर यह शंका नहीं करनी चाहिए कि मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धिके स्वामित्वसम्बन्धी पृच्छाका निर्देश पूर्वमें ही कर आये हैं, इसलिए उसका पुनः उपन्यास करना निरर्थक है, क्योंकि अर्थप्ररूपणाके द्वारा व्यवधानको प्राप्त हुए उक्त कथनकी सम्हाल करनेके लिए पुनः उपन्यास करनेमें कोई दोष नहीं है तथा पूर्वमें किये पृच्छानिर्देशके द्वारा संगृहीत नहीं किये गये हानि आर अवस्थानसम्बन्धी स्वामित्वका यहाँ पर संग्रह उपलब्ध होता है, इसलिए भी कोई दोष नहीं है।
* जहाँ पर तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमसे तदनन्तर समयमें अवस्थान संक्रम सम्भव है वहाँ पर जघन्य वृद्धि या जघन्य हानि तथा तदनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है।
६६६३. जिस विषयमें तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमसे परिणत हुए जीवके तदनन्तर समयमें अवस्थित संक्रमके अनुरूप परिणामका संक्रम सम्भव है उस विषयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए।
शंका तो किस विषयमें मिथ्यात्वका तत्प्रायोग्य जघन्य संक्रमरूपसे अवस्थान संक्रम सम्भव है ?
समाधान-कहते हैं-जो जीव क्षपितकर्मा शिक लक्षणसे आकर पूर्वमें उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य कालके द्वारा फिरसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है वह प्रथम आवलिके द्वितीयादि समयों में अवस्थित संक्रमके योग्य होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी
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४००
जैयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ३ मिच्छत्तस्स तप्पाओग्गजहण्णसंकमेणावट्ठाणसंभवो ? वुच्चदे-खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुव्वुप्पण्णसम्मत्तादो मिच्छत्तमुवणमिय तप्पाओग्गेण कालेण पुणो वि वेदगसम्मत्तं पडिवण्णस्स पढमावलियाए विदियादिसमएसु अवद्विदसंकमपाओग्गो होइ, मिच्छाइद्विचरिमावलियणंवकबंधवसेण तत्थागम-णिजराणं सरिसीकरणसंभवादो। तदो तहाभूदसम्माइद्विपढमावलियावलंबणेण पयदसामित्तसमत्थणमेवं कायव्वं । तं जहा-तप्पाओग्ग
विदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुव्वुप्पण्णसम्मत्तादो मिच्छत्तं गंतूण पुणो सम्मत्तं पडिवण्णस्स पढमसमए तप्पाओग्गजहण्णं मिच्छत्तस्स पदेससंतकम्मट्ठाणं होइ ।
६६६४. संपहि एत्थ सम्माइट्ठिपढमसमए णिरुद्धसंतकम्मपडिबद्धसंकमट्ठाणाणं कारणभूदाणि असंखेजलोगमेतज्झवसाणट्ठाणाणि होति । तत्थ जहण्णज्झवसाणट्ठाणेण संकामेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणमुप्पजदि। पुणो तम्मि चेव जहण्णसंतकम्मम्मि असंखेजलोगभागवडिहेदुविदियज्झवसाणट्ठाणेण परिणमिय संकामिजमाणे अण्णं संकमट्ठाणमपुणरुत्तमुप्पजदि। एवमेदेण कमेण तदियादिअज्झबसाणट्ठाणाणि वि जहाकमं परिणमिय संकामेमाणस्सासंखेजलोगभागुत्तरकमेणेगेगसंकमट्ठाणपक्खेववडढीए णिरुद्धजहण्णसंतकम्मट्ठाणम्मि असंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणमपुणरुत्तणमुप्पत्ती वत्तव्वा ।
६६६५. संपहि एदेसु संकमट्ठाणेसु सम्माइट्ठिपढमसमयम्मि जहण्णसंकमट्ठाणमवत्तव्यभावेण संकामिय पुणो सम्माइडिविदियसमयम्मि विदियसंकमट्ठाणे संकामिदे जहण्णया वड्डी होइ, परिणामविसेसमस्सिऊण तत्थासंखेजलोगपडिभागेण संकमस्स
अन्तिम आवलिमें हुए नवकबन्धके कारण वहाँ पर आय और निर्जराका समान होना सम्भव है। अतः उस प्रकारके सम्यग्दृष्टिकी प्रथम आवलिके अवलम्बन द्वारा प्रकृत स्वामित्वका समर्थन इस प्रकार करना चाहिए । यथा-जो जीव क्षपितकर्मा शिक लक्षणसे आकर और पूर्व में उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें जाकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयमें मिथ्यात्वका तत्प्रायोग्य जघन्य प्रदेशसंक्रमस्थान होता है।
६६६४. यहाँ पर सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें विवक्षित सत्कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले संक्रम स्थानोंके कारणभूत असंख्यात लोकप्रमाण अध्यवसानस्थान होते हैं । वहाँ पर जघन्य अध्यवसानके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । पुनः असंख्यात लोकरूप भागवृद्धिके कारणभूत द्वितीय अध्यक्सानरूपसे परिणमन कर उसी जघन्य सत्कर्मका संक्रम क'ने पर दूसरा अपुनरुक्त संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार इस क्रमसे तृतीय आदि अध्यवसान स्थानोंको भी परिणमाकर संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यात लोक भाग अधिकके क्रमसे एक एक संक्रमस्थान प्रक्षेपवृद्धिके आश्रयसे विवक्षित जघन्य सत्कर्मस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अपुनरुक्त संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति करनी चाहिए।
६६६५. अब इन संक्रमस्थानोमेंसे सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें जघन्य संक्रमस्थानको अवक्तव्यरूपसे संक्रमाकर पुनः सम्यग्दृष्टिके दूसरे समयमें दूसरे संक्रमस्थानके संक्रमित कराने
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४०१ वहिदसणादो। अध पढमसमयम्मि विदियसंकमट्ठाणं संकामिय पुणो विदियसमयम्मि जहण्णसंकमट्ठाण१ जइ संकामेदि तो जहणिया हाणी होइ, जहण्णवहिमेत्तस्सेव तत्थ हाणिदंसणादो । अह जइ बिदियसमयम्मि जहण्णभावाविरोहेण वडिदण हाइदण वा पुणो तदियसमयम्मि आगमणिज्जरावसेण तत्तियं चेव संकामेदि तो तस्स जहण्णयमवद्वाणं होइ, दोसु वि समएसु अवद्विदपरिणामेण परिणदम्मि तदविरोहादो । एवमेसा थूलसरूवेण जहण्णवडि-हाणि अवट्ठाणाणं सामित्तषरूवणा कया ।
६६६६. संपहि सुहुमत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-पुव्वुत्तजहण्णसंतकम्महाणम्मि एगपरमाणुम्मि वडिदे सा चे पुत्रपरूविदसंकमट्ठाणपरिवाडी उप्पजदि । एवं दो-तिण्णिआदिसंखेजासंखेजाणंतपरमाणुसु वडिदेसु वि ताणि चे संकमट्ठाणाणि उप्पज्जति, तहाभूदसंतकम्मवियप्पाणं विसरिससंकमट्ठाणंतरुप्पत्तीए अणिमित्तत्तादो। पुणो केत्तियमेत्तपरमाणणं वड्डीए विसरिससंकमट्ठाणुप्पत्तिणिमित्तसंतकम्मवियप्पुप्पत्ती होइ ति वुत्ते वुच्चदे-जं जहाणसंतकम्मट्ठाणम्मि पडिबद्धजहण्णसंकमट्ठाणं तं तस्सेव विदियसंकमट्ठाणादो सोहिय सुद्धसेसमसंखेचलोगेहि भागे हिदे तत्थ भागलद्धमेत्ते जहण्णसंतकम्मट्ठाणस्सुवरि वड्डिदे पढमसंकमट्ठाणपरिवाडीए उबरि बिदियसंकमट्ठाणपरिवाडिउप्पायणकारणभूदं विदियं संतकम्मट्ठाणमुप्पज्जदि। विज्झादभागहारमसंखेजलोगवग्गं च अण्णोण्णपर जवन्य वृद्धि होती है, क्योंकि परिणामविशेषका आश्रय कर वहाँ असंख्यात लोक प्रतिभागसे संक्रमकी वृद्धि देखी जाती है। तथा प्रथम समयमें द्वितीय संक्रमस्थानको संक्रमाकर द्वितीय समयमें जघन्य संक्रमस्थानको यदि संक्रमित करता है तो जघन्य हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर जघन्य वृद्धिमात्रकी ही हानि देखी जाती है । तथा यदि दूसरे समयमें जघन्यभावके अविरोध पूर्वक य वृद्धि या हानि करके पुनः तीसरे समयमें आय और व्ययके कारण उतनेका ही संक्रम करता है तो उसके जघन्य अवस्थान होता है, क्योंकि दोनों ही समयों में अवस्थित परिणाम रूपसे परिणत होने पर जघन्य अवस्थानके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। इस प्रकार यह स्थूलरूपसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानकी स्वामित्व प्ररूपणा की।
.६६६६. अब सूक्ष्म अर्थका कथन करते हैं। यथा-पूर्वोक्त जघन्य सत्कर्मस्थानमें एक परमाणुकी वृद्धि होने पर वही पहले कही गई संक्रमस्थान परिपाटी उत्पन्न होती है । इस प्रकार दो, तीन आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओंकी वृद्धि होने पर भी वे ही संक्रामस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इस प्रकारके सत्कर्म विकल्प विसदृश दूसरे संक्रमस्थानकी उत्पत्तिमें निमित्त नहीं हैं। पुनः कितने परमाणुओंकी वृद्धि होने पर विसदृश संक्रमस्थानकी उत्पत्तिके कारणभूत सत्कर्म विकल्पकी उत्पत्ति होती है ऐसा पूछने पर कहते हैं-जघन्य सत्कर्मस्थानमें प्रतिबद्ध जो जघन्य संक्रमस्थान है उसे उसीके दूसरे संक्रमस्थानमेंसे घटाकर जो शेष बचे उसमें असंख्यात लोकका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसे जघन्य सत्कर्मस्थानके ऊपर बढ़ाने पर प्रथम संक्रमस्थानकी परिपाटीके उपर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटीको उत्पन्न करनेका कारणभूत दूसरा
१. आप्रतौ पढमसयम्मि जहण्णसंकमाढणं इति पाठः।
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४.२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ गुणं करिय जहण्णसंतकम्मट्ठाणे भागे हिदे तत्थ जं भागलद्धं तम्मि तत्व जहण्णसंतकम्मट्ठाणम्मि पडिरासिय पक्खित्ते बिदियसंतकम्मट्ठाणमुप्पजदि ति वुत्तं होइ । कुदो एदं णबदे ? उवरिमसंकमट्ठाणपरूवणाए णिबद्धचुण्णिसुत्तादो। एदिस्से संतकम्मवड्डीए संतकम्मपक्खेवो ति सण्णा।
६६६७. संपहि एवंविहपक्खेवुत्तरसंतकम्मट्ठाणमस्सिऊण पयदजहण्णवद्धि हाणिअवट्ठाणाणमेवं सामित्तपरूवणा कायव्वा । तं जहा-जहण्णपरिणामट्ठाणेण परिणमिय संपहि णिरुद्धपक्खेवत्तरसंतकम्मट्ठाणं संकामेमाणस्स एत्थतणजहण्णसंकमट्ठाणं होदि । होतं पि जहण्णसंतकम्मट्ठाणपडिबद्धजहण्णसंकमट्ठाणादो असंखेजमागभहियं होदण तस्सेव विदियसंकमट्ठागादो वि असंखेजभागहीणं होदूण चेहदि । किं कारणं ? तत्थतणसंकमट्ठाणविसेसस्सासंखेजदिमागभूदसंतकम्मपक्खेवे बिज्झादभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तेण पविल्लजहण्णसंकमट्ठाणादो एदस्स बिदियपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणस्समहियत्तदसणादो । एवं होइ ति कादूण सम्माइट्ठिपढमसमयम्मि पढमसंकमट्ठाणपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणमवत्तव्यभावेण संकामिय पुणो विदियसमयम्मि विदियसंकमट्ठाणपरिवाडीए जहण्णसंकमट्ठाणे संकामिदे जहणिया वड्डी होइ ।
सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है। विध्यातभागहारको और असंख्यात लोकके वर्गको परस्पर गुणित कर उसका जघन्य सत्कर्मस्थानमें भाग देने पर वहाँ जो भाग लब्ध आवे उसे वहीं पर जघन्य सत्कर्मस्थानको प्रति राशिकर मिला देने पर दूसरा सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे संक्रमस्थान प्ररूपणामें निबद्ध चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है । इस सत्कर्म वृद्धिकी सत्कर्म प्रक्षेप यह संज्ञा है।
६६६७. अब इस प्रकार प्रक्षेप अधिक सत्कर्मस्थानका आश्रय लेकर प्रकृत जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वकी इस प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए। यथा-जघन्य परिणामस्थानरूपसे परिणमन कर अब विवक्षित प्रक्षेप अधिक सत्कर्मस्थानका संक्रम करनेवाले जीवके यहाँका जघन्य संक्रमस्थान होता है । जो होता हुआ भी जघन्य सत्कर्मस्थानसे प्रतिबद्ध जघन्य संक्रमस्थानसे असंख्यातवा भाग अधिक होकर तथा उसीके दूसरे संक्रमस्थानसे भी असंख्यातवाँ भाग हीन होकर स्थित है, क्योंकि वहाँके संक्रमस्थानविशेषके असंख्यातवें भागरूप सत्कर्मप्रक्षेपमें विध्यातभागहारका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतनी पहलेके जघन्य संक्रमस्थानसे दूसरी परिपाटीमें उत्पन्न इस जघन्य संक्रमस्थानकी अधिकता देखी जाती है। ऐसा होता है ऐसा करके सम्यग्दृष्टिके प्रथम समय में प्रथम संक्रमस्थान परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानको अवक्तव्यरूपसे संक्रमाकर पुनः दूसरे समयमें दूसरी संक्रमस्थान परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानके संक्रमित करनेपर जघन्य वृद्धि होती है।
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४०३
To ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
§ ६६८. संपहि जहण्गहाणिसंक मे इच्छिज्जमा पढमसमयम्मि विदियसंकमट्ठाणपरिवाडीए पढमसंकमट्ठाणं संकामिय पुणो विदियसमयम्मि पढमसंकमट्टाणपरिवाडीए जसं मट्ठाणे संका मिंदे जहणिया हाणी होइ त्ति वत्तव्त्रं । पुणो बिदियसमयम्भि अण विहिणा -हाणीणमण्णदरपरिणामं गंतूण तदो तदियसमयम्मि आगम- णिञ्जरावसे तेत्तियं चैव कामेमाणस्स जहण्णमवद्वाणं होदि त्ति दट्ठव्वं । एदं च जहणवडि· हाणि-अवट्ठाणदव्वं पुव्विल्लपरूवणा विसई कयजदण्णवड्डि-हाणि-अवट्ठाणदव्वादो असंखेजहोदि । दस कारणं सुगमं । तम्हा एदम्मि चे। गहिदे सव्वजहण्णवहा अाणि होति त्ति सिद्ध ।
* सम्यत्तस्स जहरिया हाणी कस्स
६६६६. सुगमं ।
* जो सम्माइट्ठो? तप्पा ओग्गजहणणए कम्मेण सागरोवमवे sarastra गालिदु मिच्छत्तं गदो, सव्वमहंत उच्वेल्लएकाले उव्वेल्लेमाणगस्स तस्स दुचरिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमसमए जहरिणया हाणी । § ६७०. जहण्णसामित्तविहारोणागंतून सम्मत्तमुप्पाहय बेछावट्टिसागरोपमाणि सम्मत्तमणुपालिय तदवसाणे परिणामपच्चएण मिच्छत्त मुवणमिय दीहुव्वेल्लणकालेब्वेल्लेमाणयस्स दुचरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए अंगुलस्सा संखेजभागपडिभागेणु
६ ६६८. अब जघन्य हानि संक्रमके लाने की इच्छा होनेपर प्रथम समय में दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी के प्रथम संक्रमस्थानको संक्रमाकर पुनः दूसरे समय में प्रथम संक्रमस्थान परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थान के संक्रमित करने पर जघन्य हानि होती है ऐसा कहना चाहिए। पुनः दूसरे समयमें इस विधि वृद्धि और हानिसम्बन्धी अन्यतर परिणामको प्राप्त होकर तदनन्तर तीसरे समय में आय-व्यय के कारण उतना ही संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य अवस्थान होता है ऐसा जानना चाहिए। यह जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान द्रव्य पहली प्ररूपणा में विषय किये गये जघन्य वृद्ध, स्थान द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन होता है । इसका कारण सुगम है, इसलिए इसीके ग्रहण करने पर सबसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ । * सम्यक्त्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? ९ ६६६. यह सूत्र सुगम है ।
* जो सम्यग्दृष्टि जीव तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मके साथ दो छ्यासठ सागरप्रमाण काल बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, सबसे बड़े उद्व ेलनाकालके द्वारा उद्व ेलना करनेउस जीवके द्विचरम स्थितकाण्डकके अन्तिम समय में जघन्य हानि होती है ।
६६७०. जघन्य स्वामित्व विधिसे श्राकर सम्यक्त्वको उत्पन्न कर तथा दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पोलन कर उसके अन्त में परिणामवश मिध्यात्वको प्राप्त होकर दीर्घ उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करनेवाले जीवके द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका अंगुलके
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४०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे.
[बंधगो६ व्वेन्लणासंकमेण जहण्णहाणिसामित्तमेदं होइ ति सुत्तत्यो। दुचरिमद्विदिखंडयदुचरिमफालिदव्वादो तस्सेव चरिमफालिदव्वे सोहिदे सुद्धसेसमेत्तमेत्थ हाणिपमाणं होइ ।
® तस्सेव से काले जहपिणया वड्डी।
हु ६७१. तस्सेव हाणिसामियस्स तदणंतरसमए जहणिया वट्ठी होइ । कुदो ? तत्थ पलिदोवमासंखेजभागपडिभागियगुणसंक्रमेण जहण्णभावाविरोहेण परिणदम्मि तदुवलद्धीदो।
एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। ६ ६७२. जहा सम्मत्तस्स दुविहा सामित्तपरूवणा कया एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि कायन्वा, विसेसाभावादो। णवरि जहण्णवहिसामित्ते भण्णमाणे दुचरिमुव्वेन्लणकंडयचरिमफालिमुव्वेन्लणभागहारेण संकामिय तदो उवरिमसमयम्मि सम्मत्तमुप्पाइय विज्झादसंकमेण संकामेमाणयस्स जहणिया वही दट्ठव्वा, गुणसंकमजणिदवड्डीदो विज्झादसंकमजणिदवडीए सुटु जहण्णभावोववत्तीदो । तत्थ वि गुणसंकमो अत्थि ति णासंकणिजं, तत्थतणसम्मामिच्छत्तगुणसंकमभागहारस्स अंगुलस्सासंखेजभागपमाणत्तोवएसादो। ण च एसो अत्यो सुत्ते णत्थि, से काले जहणिया वड्डी होइ ति सामण्णसरूवेण पयट्टः सुचम्मि एदस्स अत्थविसेसस्स संभवोवलंभादो। असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके द्वारा उद्वेलना संक्रम होनेसे यह जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका अर्थ है । द्विचरम स्थितिकाण्डकके द्विचरम फालि द्रव्यमेंसे उसीकी अन्तिम फालिके द्रव्यके घटाने पर जो शेष बचे उतना यहाँ पर जघन्य हानिका प्रमाण होता है।
* उसीके अनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है।
६६७१. जो जघन्य हानिका स्वामी है उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है, क्योंकि वहाँ पर जघन्यपनेके अविरोधी. पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण भागहाररूप गुणसंक्रमरूपसे परिणत होनेषर जघन्य वृद्धिकी उपलब्धि होती है।
* इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके भी जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करनी चाहिए ।
६६.२. जिस प्रकार सम्यक्त्वके स्वामित्वकी दो प्रकारकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेष नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य वृद्धिके स्वामित्वका कथन करते समय द्विचरम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिको उद्वेलनाभागहारके द्वारा संक्रमाकर अनन्तर अगले समयमें सम्यक्त्वको उत्पन्न कर विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य वृद्धि जाननी चाहिए, क्योंकि गुणसंक्रमसे उत्पन्न हुई वृद्धिकी अपेक्षा विध्यातसंक्रमसे उत्पन्न हुई वृद्धिका अच्छीतरह जघन्यपना बन जाता है। वहाँ पर भी गुणसंक्रम है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहाँ पर जो सम्यग्मिथ्यात्व का गुणसंक्रम भागहार होता है वह अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है ऐसा उपदेश पाया जाता है। यह अर्य सूत्र में नहीं है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है। इस प्रकार सामान्यरूपसे प्रबृत हुए सूत्र में इस अर्थविशेषकी सम्भावना उपलब्ध होती है।
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गा ५८]
उत्तरपयडिपदेससकमे पदणिक्खेवो * अणंताणुबंधोणं जहणिया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं च कस्स ? ६६७३. सुगमं।
ॐ जहएणगेण एइंदियकम्मेण विसंजोएदूण संजोइदो, तवो ताव गालिदा जाव तेसिं गलिदसेसाणमधापवत्तणिज्जरा जहपणेण एइंदियसमयपबद्धण सरिसी जादा त्ति । केवचिरं पुण कालं गालिदस्स अणंताणुबंधीणमघापवत्तणिज्जरा जहएणएण एइंदियसमयपषद्धण सरिसी भवदि ? तदो पलिदोवमस्स असंखेजविभागकालं गालिदस्स जहणणेण एइंदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा भवदि। जहएणेण एइंदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा प्रावलियाए समयुत्तराए एत्तिएण कालेण होहिदि त्ति तदो मदो एइदियो जहण्णजोगी जावो । तस्स समयाहियावलिय. उववएणस्स अणंताणुबंधोणं जहरिणया वड्डी वा हाणी वा अवठ्ठाणं वा।
६६७४. एदस्स सुत्तस्सत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा--'जहण्गएण एई दियकम्मेणे' ति वुत्ते सुहुमईदिएमु खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्मट्ठिदिमणुपालेमाणेण संचिदजहण्गदव्वस्स गहणं कायव्यं, तत्तो अण्गस्स एइ दियजहण्गकम्मस्साणुवलंभादो । तेण सह
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* अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ६६७३. यह सूत्र सुगम है।
* जो एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर उससे संयुक्त हुआ। अनन्तर उसने गलित शेष उनकी निर्जराके एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान होने तक उन्हें गलाया । कितने समय तक गलाये गये अनन्तानुबन्धियोंकी अधःप्रवृत्त निर्जरा एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके सदृश होती है ? एकेन्द्रियोंमें आनेके बाद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक गलाये गये अनन्तानुबन्धियोंकी निर्जरा एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान होती है । किन्तु एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान यह निर्जरा एक समय अधिक एक आवलि कालके बाद होगी कि वह मरा और जघन्य योगसे युक्त एकेन्द्रिय हो गया उसके उत्पन्न होनेके एक समय अधिक एक आवलिके बाद अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि या जघन्य अवस्थान होता है।
६७४. अब इस सूत्रके अर्थका कथन करते हैं। यथा-'जहण्णएण एइंदियकम्मेण'. ऐसा कहने पर सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें क्षपितकर्मा शिक लक्षणरूपसे कर्मस्थितिका पालन करनेवाले जीवके द्वारा संचित हुए जघन्य द्रव्यका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसके सिवा अन्य जीवके एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्म उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार उस द्रव्यके साथ आकर और
१. आप्रतौ वड्डी कस्स ता०प्रतौ वड्डी [ हाणी अक्वाणं च ] कस्स इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगा ६
आगंतूण पंचिदिए समयाविरोहेणुप्पन्जिय सव्वलहु सम्मत्तं घेत्तणाणताणुबंधीणं विसंजोयणापुव्त्रमंतोमुहुत्तेण पुणो वि संजुत्तो जादो । किमदुमेत्थ विसंजोयणापुत्रं पुणो संतभावो कीरदे ? ण, अनंताणुबंधीणं विसंजोयणाए णिस्तीभावं काढूण पुणो संजुत्तस्स थोरदव्यं घेण जहण्णसामित्तविहाण तहाकरणादो । जइ एवं, एवं दियज हण्णसंतकम्मावलंवणमणत्थयं, विसंजोएदूण विणा सिञ्जमा णाणमणंताणुबंधीणं संतकम्मस्स जहण्णभावे फलविसावलंभादो ? ण एस दोसो, सेसक साएहिंतो अधापवत्तसंकमेण पडिछिनमाण - 'दव्यस्स जहण्णभावविहाणडुमेह' दियजहण्णसंत कम्मावलंबणादो। 'तदो ताव गालिदा ० 'सरिसी जादा' त्ति एदस्सत्थो - तदो विसंजोयणापुव्त्रसंजोगादो अनंतर मेइ दिएस पविसिय तात्र गालिदा अनंताणुबंधिणो जाव तेसिं गलिदावसि । णमधापवत्तणिजरा अधट्ठिदिणिजरा जहण्णेण एइ दियसमयपबद्धेण जहण्णोवबाद जोगपडिबद्धेण समाणा जादा ति । एतदुक्त ं भवति -- विसंजोयणाषु व्वसंजोगेणेइ दिए पविट्ठस्स अणतारणुबंधी - मदिरा एह दियसयपबद्धादो थोत्रयरा होंति ताव गालेयव्त्रा जाव पडिसमयमेइ दियसंचयवसेण अहिकय गोबुच्छाविसये जहण्णएण एवं दियसमयपबद्धेण सरिसत्त' पत्ता
पञ्चेन्द्रियोंमें समय के अविरोध पूर्वक उत्पन्न होकर तथा अतिशीघ्र सम्यक्त्वको ग्रहण कर अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनापूर्वक अन्तर्मुहूर्तमें पुनः उनसे संयुक्त हुआ ।
शंका – यहाँ पर विसंयोजनापूर्वक पुनः संयुक्त किसलिए कराया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना द्वारा उन्हें निःसत्त्व करके पुनः संयुक्त हुए जीवके स्तोकतर द्रव्यको ग्रहण कर जघन्य स्वामित्वका विधान करने के लिए इस प्रकार किया है।
शंका- यदि ऐसा है तो एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मका अवलम्बन करना निरर्थक है, क्योंकि विसंयोजना करके विनाशको प्राप्त होनेवाली अनन्तानुबन्धियों के सत्कर्मके जघन्यपने में विशेष फल नहीं उपलब्ध होता ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि शेष कषायोंमेंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा संक्रमित होनेवाले द्रव्यको जघन्य करनेके लिए एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मका अवलम्बन लिया है ।
'तो ताब गालिदा० सारिसी जादा' इसका अर्थ- 'तदो' अर्थात् विसंयोजनापूर्वक संयोगके बाद एकेन्द्रियों में प्रवेश कराकर अनन्तानुबन्धियोंको तबतक गलाया जब जाकर गलितावशिष्ट उनकी अधःप्रवृत्त निर्जरा अर्थात् अधः स्थितिगलनरूप निर्जरा जघन्य उपपादयोग के सम्बन्धसे एकन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्ध के समान हो गई। इसका यह तात्पर्य है कि विसंयोजना पूर्व संयोग के बाद एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट हुए जीव के अनन्तानुबन्धियोंकी अधः स्थितिगलन रूप निर्जरा एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध से स्तोकतर होती है, इसलिए उन्हें तब तक गलाना चाहिए जब जाकर प्रत्येक समयमें एकेन्द्रियोंमें हुए सञ्चयके कारण अधिकृत गोपुच्छाका आश्रय कर वह एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्ध के समान हो जाती है ।
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गा०५८]
उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो त्ति । किमट्ठमेवं कीरदे चे ?ण, अण्णहा आगम-णिजराणं सरिसत्ताभावेण१ पयदजहण्णसामित्तविहाणाणुववत्तीदो।
६६७५. संपहि एइदिएसु पइट्ठस्स केत्तिएण कालेण आगम-णिजराणं सरिसत्तसंभवो होइ ? एदिस्से पुच्छाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरो सुत्तावयवो–'तदो पलिदोवमस्सासंखेजदिभागकालं गालिदस्स इच्चादि । कि कारणं ? ऐइदिएसु तप्पाओग्गपलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तकालावट्ठाणेण विणा आगम-णिजराणं सरिसत्तविहाणोवायाभावादो। तम्हा तेत्तियमेत्तं भुजगारकालं गालिय अप्पयरकालसंधीऐ वट्टमाणस्स अवद्विदपाओग्गविसऐ सामित्तविहाणमेदमविरुद्धं सिद्धं । एवमवद्विदपाओग्गं जहण्णसंतकम्मं कादण तत्थ जहण्णसामित्ताणुगमे कीरमाणे एसो विसेसो अणुगंतव्यो ति पदुप्पोयणट्ठमुवरि सुत्तावयवकलावो--'जहण्णेण एईदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा आवलियाए समयुत्तराऐ इच्चादि । एदस्सावयवत्थो सुगमो । किमट्ठमेवं जहण्णोववादजोगेण परिणामिज्जदे ? ण, अण्णहा सामित्तसमयभाविणीए जहण्णणिज्जराए सह विवक्खियसमयपबद्धस्स सरिसभावाणुषवत्तीदो। ण च ताणं सबजहण्णभावेण सरिसताभावे पयदजहण्णसामित्तविहाणसंभवो,
शंका-ऐसा किसलिए करते हैं ?
समाधान--नहीं, क्योंकि अन्यथा आप और व्ययके समान न होनेके कारण प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता।
६६७५. अब एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट हुए इस जीवके कितने कालके द्वारा आय और व्ययका सहशपना सम्भव है ऐसी पृच्छा होने पर निर्णयका विधान करनेके लिए आगेका सूत्र अवयव आया है-'तदो पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागं कालं गालिदस्स' इत्यादि । क्योंकि एकेन्द्रियों में तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक अवस्थान हुए बिना आय और व्ययके सहशपनेके विधानका अन्य कोई उपाय नहीं पाया जाता। इसलिए उतने मात्र भजगार कालतक गला कर अल्पतर कालकी सन्धिमें विद्यमान हुए जीवके अवस्थितपदके योग्य द्रव्यके होनेपर यह स्वामित्वका विधान अविरुद्ध सिद्ध होता है। इस प्रकार अवस्थितपदके योग्य जघन्य सत्कर्मको करके वहाँ पर जघन्य स्वामित्वका अनुगम करने पर यह विशेष जानने योग्य है यह कथन करनेके लिए आगेका सूत्रावयवकलाप आया है-'जहण्णण एइंदियसमयपवद्धेण सरिसी णिजरा अवलियाए समयुत्तराए' इत्यादि । इस अवयवका अर्थ सुगम है।
शंका-इस प्रकार जघन्य उपपाद योगरूपसे किसलिए परिणमाया जाता है ?
समाधान--नहीं, क्योंकि अन्यथा स्वामित्वके समयमें होनेवाली जघन्य निर्जराके साथ विवक्षित समयप्रबद्धकी सदृशता नहीं बन सकती, इसलिए इस जीवको जघन्य उपपाद योगरूपसे परिणमाया है । यदि कहा जाय कि उनका सबसे जघन्यरूपसे सदृशपना नहीं होने पर भी प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान सम्भव है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है।
१. आ० प्रतौ सरिसत्ताभागेण ता० प्रतौ सरिसत्ताभागे (वे) ण इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
त्रिप्पडिसेहादो । तदो एवंविण पयत्तविसेसेण तत्थ बंध काढूण बंधावलिया दिक्कतस्स पयद जहण्णसामित्तं होइ । संपहि कथमेत्थ जहण्णत्र-िहाणि-अवट्ठाणाणि जादाणि ति एदस्स णिण्णयकरणडुमिदं बुच्चदे - - एवमवद्विदस कमपाओगे एदम्मि विसये जइ आगमदो णिज्जरा एगस तकम्मपक्खेवेणणा होइ तो जहण्णव डिसा मित्तमेत्थ होइ । जइ पुण आगमदो णिज्जरा एगसंतकम्मपक्खेवमेतेण भहिया होइ तो जहण्णिया हाणी जायदे । एवं वड्डि-हाणोणमण्णदरपज्जाएण परिणदस्स से काले तत्तियं चैत्र संकामेमाणयस्स जहणयमाणं होइ त्ति घेत्तव्धं । एत्थ संतकम्मपक्वपमाणं पुरदो भणिस्सामो । एवमताधणं जहण्णवड्डि-हाणि अवड ( णसामित्तं परूविय संपहि अट्ठकसाय-भयदुछा तप्परूवणमुत्तरमुत्तपबंधमाह -
* अट्टहं कसायाणं भय-दु गुंछाणं च जहरिणया वड्डी हाणी अवहाच कस्स ?
९ ६७६. सुगमं ।
* एइ दियकम्मेण जहणणेण संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो, तेणेव चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइ दिए गदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं कालमच्छिऊण उवसामयसमयपबद्ध गलिदेसु जाघे
४०८
इसलिए इस प्रकार प्रयत्न विशेषसे वहाँ पर बन्ध करके बन्धावलिके बाद उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। अब यहाँ पर जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान कैसे हुए इस प्रकार इस बातका निर्णय करनेके लिए कहते हैं - इस प्रकार अवस्थित संक्रमके योग्य इस विषय में यदि आयकी अपेक्षा निर्जरा एक सत्कर्म प्रक्षेप न्यून होती है तो यहाँ पर जघन्य वृद्धिका स्वामित्व होता है । यदि यकी अपेक्षा निर्जरा एक सत्कर्म प्रक्षेपमात्र अधिक होती है तो जघन्य हानि उत्पन्न होती है । तथा इस प्रकार वृद्धि और हानिमेंसे किसी एक पर्यायसे परिणत हुए. जीवके तदनन्तर समयमें उतना ही संक्रम करनेपर जघन्य अवस्थान होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । यहाँ पर सत्कर्मके प्रक्षेपका जो प्रमाण है वह आगे कहेंगे । इस प्रकार अनन्तानुबन्धियों की जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका कथन कर अब आठ कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका कथन करनेके लिए श्रागेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं—
* आठ कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ?
९ ६७६. यह सूत्र सुगम है
* कोई एक जीव एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त हुआ । उसीने चार बार कषायों का उपशम किया । तदनन्तर एकेन्द्रियों में गया और वहाँ पन्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर उपशामक
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गा० ५८
उत्तरपयडिपदेस कमे पदणिक्खेवो
४०६
बंधेण णिज्जरा सरिसी भवदि ताघे एदेसिं कम्माणं जहण्णिया वड्डी च हाणी च अवद्वाणं च ।
६६७७. एदस्स सुत्तस्सत्थो । तं जहा -- ' जहण्गेणेइ दियकम्मेणे' त्ति जिद्द सो खविदकम् मंसियलक्खणेणागद एइ दियस्स जहण्णस तकम्मगहणफलो । 'स' जमास जमं च बहुसो गदो' त्ति वयणमेइ दिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्मट्ठिदिमणुपालेदूण तत्तो निस्सरिय तसेसुप्पण्णस्स सव्वुक्कस्ससंजमा संजम -संजमपरिणामणिबंधणगुणसे ढिणिञ्जराए जहणे 'दियसंतकम्मस्स सुट्ठ जहण्णीकरणट्टमिदं दट्ठव्वं । एदेण पलिदोवमाणं असंखेजभागमेत संजमा संजम कंडयाणं तप्पा ओग्गसंखेज संजमकंडयाणं च संभवो सूचिदो। एत्थ सम्मत्ताणताणुवं धिविसंजोयणकंडयानं पि अंतब्भावो वत्तव्यो । 'चत्तारि वारे कसाया उवसामिदा' त्तिद्दि सेण उवसामयपरिणामणिबंधणब हुकम्म पोग्गलणिञ्जराए संगहो कओ दट्ठव्वो । एवं पदकम्माणं बहुपोग्गलगालणं काढूण तदो एवं दिए गदो । किमट्ठमेसो एइ दिएस पवेसिदो १ ण, तत्थ पलिदोषमासंखेज़ भागमेत्त अप्पयरका लब्भंतरे चिराणसंतकम्मेण सह उवसामगसमयपबद्धेसु अणागालिदिसु जहण्णयरसंतकम्मारणुप्पत्तीदो। एवमुवसामय समयपबद्धे
अवस्थासम्बन्धी समयप्रबद्धके गली देनेपर जब बन्धसे निर्जरा समान होती है तब इन कर्मो की जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होता है ।
§ ६७७. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। यथा-सूत्र में 'जहोणेइ दियकम्मे ' इस पदक निर्देश क्षपितकर्माशिक लक्षण से आये हुए एकेन्द्रिय जीवके जघन्य सत्कर्मके ग्रहण करनेके लिए किया है । 'संजमा संजमं संजमं च बहुसों गदो' यह वचन एकेन्द्रिय जीवोंमें क्षपितकर्माशिक लक्षण के साथ कर्मे स्थितिका पालन कर फिर वहाँसे निकलकर त्रसोंमें उत्पन्न हुए जीवके सबसे उत्कृष्ट संयमासंयम और संयमरूप परिणामोंके निमित्तसे होनेवाली गुणश्र णिनिर्जराके द्वारा एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मको अच्छी तरह जघन्य करने के लिए जानना चाहिए। इस वचन के द्वारा पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण संयमासंयमकाण्डक और तत्प्रायोग्य संख्यात संयमकाण्डक सम्भव हैं यह सूचित किया गया है । यहाँ पर सम्यक्त्वके काण्डकोंका और अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाकाण्डकों का अन्तर्भाव कहना चाहिए । 'चत्तारि वारे कसाया उबसामिदा' इस वचन द्वारा उपशामक सम्बन्धी परिणामोंके कारण हुई बहुत कर्मोंकी निर्जराका संग्रह किया गया है ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार प्रकृत कर्मोंके बहुत पुद्गलोंको गलाकर उसके बाद एकेन्द्रियों में
गया।
शंका- इसे एकेन्द्रियों में किसलिए प्रविष्ट कराया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि प्रकृतमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अल्पतर कालके भीतर प्राचीन सत्कर्मके साथ उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंके अगालित रहने पर जघन्यतर
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४१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ३ गालिय जत्थ जहण्णएण एइंदियसमयबद्धेण सरिसी णिज्जरा होइ तत्थ जहण्णसामित्तविहासणहमिदमाह--'जाधे बंधेण सरिसी णिजरा हवइ ताधे' इञ्चादि । एदस्सत्थोउवसामयसमयपबद्धेसु गलिदेसु जाधे सामित्तसमयादो समयुत्तरावलियमेत्तमोसक्किऊण बद्धतप्पाओग्गजहण्णेई दियसमयपबद्धेण सामित्तसमकालभाविणी णिजरा सरिसी भवदि ताधे एदेसि पयदकम्माण जहण्णवड्डि-हाणि-अबढाणाणि होति, एगसंतकम्मपक्खेवणिबंधणजहण्णवड्डि-हाणि-अवट्ठाणाणमेत्थ दंसणादो।
* चदुसंजलणाणं जहपिणया वड्डी हाणो अवट्ठाणं च कस्स ? ६ ६७८. सुगमं ।
कसाए अणुवसामेऊण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लडाण एइंदिए गदो। जाधे बंधेण णिजरा तुल्ला ताधे चदुसंजलणस्स जहणिया वड्डी-हाणो अवठ्ठाणं च।
६६७६. किमट्ठमेत्य चदुक्खुत्तो कसायोवसामणं ण इच्छिजदे १ ण, उवसमसेढीए चदुसंजलणाणं बंधसंभवेण सेसाबज्झमाणपयडीणं गुणसंकमपडिग्गहे तत्थ पयदोवजोगि
-
सत्कर्मकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसलिए उक्त जीवको एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट कराया है।
इस प्रकार उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गला कर जहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान निर्जरा होती है वहाँ पर जघन्य स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए यह वचन कहा है-'जाधे बंधेण सरिसी णिज्जरा हवह ताधे, इत्यादि । इसका अर्थ-उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंके गला देने पर जब स्वामित्वके समयसे एक समय अधिकावलि मात्र पीछे जाकर बन्धको प्राप्त हुए एकेन्द्रिय सम्बन्धी तत्प्रायोग्य जघन्य समयप्रवद्ध के समान स्वामित्वके कालमें होनेवाली निर्जरा होती है तब इन प्रकृत कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते हैं, क्योंकि एक सत्कर्मप्रक्षेपनिमित्तक जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान यहाँ पर देखे जाते हैं।
* चार संज्वलनोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ६६७८. यह सूत्र सुगम है।
* कषायोंका उपशम किये विना अनेक बार संयम और संयमासंयमको प्राप्त कर एकेन्द्रिय पर्यायमें मर कर उत्पन्न हुआ। वहाँ जब बन्धक समान निर्जरा होती है तब चार संज्वलनोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है।
६६७६. शंका-यहाँ पर चार बार कषायोंकी उपशमक्रिया किसलिए स्वीकार नहीं की
समाधान-नहीं, क्योंकि उपशमन णिमें चारों संज्वलनोंका बन्ध सम्भव होनेसे नहीं बंधनेवाली शेष प्रकृतियोंका गुणसंक्रमके द्वारा प्रतिग्रह होने पर वहाँ पर प्रकृतमें उपयोगी फलविशेष
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४११ फलविसेसाणुवलद्धीदो । ण तत्थ गुणसेढिणिजराए बहुदव्वविणासो आसंकणिजो, तत्तो गुणसंक्रमेण पडिच्छिन्ञ्जमाणदव्वस्सासंखेजगुणत्तदंसणादो। तदो सई पि कसाए अणुवसामेण सेसगुणसेढिणिजराहिं वहुसो परिणामिऊण पुणो एइदिएसु गदस्स खविदकम्मसियस्स पलिदोवमासंखेजभागमेत्तकालेण गालिदासेसगुणसेढिणिज्जराकालभंतरसंगलिदसमयपबद्धस्स जाधे संकमपाओग्गभावेण ढुक्कमाणतप्पाओग्गजहण्णेइदियसमयपबद्धण सह सरिसी णिज्जरा जादा ताधे चदुण्हं संजलणाणं जहण्णवड्वि-हाणि-अवट्ठाणसामित्ताहिसंबंधो ति सुसंबद्धमेदं सुत्तं ।
* पुरिसवेदस्स जहएिणया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? ६६८०. सुगम ।
® जम्हि अवट्ठाणं तम्हि तप्पाओग्गजहएणएण कम्मेण जहणिया वड्डी वा हाणी वा अवठ्ठाणं वा ।
६६८१. जम्हि विसये पुरिसवेदपदेससंकमस्सावट्ठाणसंभवो तम्हि तप्पाओग्गजहण्णएण कम्मेण सह वट्टमाणयस्स पयदजहण्णवहि:हाणि-अवट्ठाणसामित्तसंबंधो दट्टयो । कि कारणं ? अवविदपाओग्गविसये असंखेजलोगपडिभागेण जहण्णवडि-हाणि-अवट्ठाणाणमुवलंमे विरोहाभावादो । सेसं सुगनं । उपलब्ध नहीं होता और इसलिए वहाँ पर गुणश्रेणि निर्जराके द्वारा बहुत द्रव्यके विनाशकी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे गुणसंक्रमके द्वारा प्रतिग्रहरूपसे प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा देखा जाता है । इसलिए एक बार भी कषायोंको नहीं उपशमा कर तथा शेष द्रव्यको गुणश्रेणि निर्जराके द्वारा बहुत बार परिणमा कर पुनः एकेन्द्रियोंमें मर कर उत्पन्न हुए उस क्षपितकर्मा शिक जीवके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा निर्जीण की गई समस्त गुणश्रेणिनिर्जराओंके कालके भीतर समयप्रबद्धोंको निजीण करने पर जब संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त होनेवाले तत्प्रायोग्य एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धके समान निर्जरा होती है तब चारों संज्वलनोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वका सम्बन्ध होता है इसलिए यह सूत्र सुसम्बद्ध है।
* पुरुषवेदकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ६६८०. यह सूत्र सुगम है।
* जहाँ पर अवस्थान होता है वहाँ पर तत्प्रायोग्य जघन्य कर्मके साथ जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है।
६६८१. जिस विषयमें पुरुषवेदके प्रदेशसंक्रमका अवस्थान सम्भव है वहाँ पर तत्प्रायोग्यजघन्य कर्मके साथ विद्यमान हुए जीवके प्रकृत जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वका सम्बन्ध जान लेना चाहिए, क्योंकि अवस्थितपदके योग्य विषयमें असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके कारण जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं आता । शेष कथन सुगम है।
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ® हस्स-रदोणं जहणिया वड्डी कस्स ?
६६८२. सुगममेदं पुच्छावक । णरि हाणिविसया वि पुच्छा एत्थेव णिलीणा ति दट्ठव्या, दोपणमेगपघट्टएण सामित्तणिद्देसदसणादो।
* एइंदियकम्मेण जहणणएण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लङ्कण चत्तारि वारे कसाए उवसामेऊण एइंदिए गदो, तदो पलिदोवमस्सासंखेजदिभागं कालमच्छिऊण सएणो जादो। सव्वमहंतिमरदि-सोगबंधगड कादूण हस्स-रइओ पषडानो पढमसमयहस्स-रइ-बंधगस्स तप्पाओग्गजहएणी बंधो च भागमो च, तस्स श्रावलियहस्स-रइबंधमाणयसस जहरिणया हाणो।
६६८३. एत्थ जहण्णेई दियकम्मावलंबणे बहुसो संजमासंजमादिपडिलंभे चदुक्खुत्तो कसायोवसामणापरिणामे पुणो एई दिएसु पलिदोवमासंखेजभागमेत्तप्पदरकालावट्ठाणे च पुव्वं व १पयोजणुववण्णणं कायवं, विसेसामावादो । तदो सगी जादो। किमट्ठमेसो पुणो वि सणोसुप्पाइदो ? ण, सव्वमहत्ति पडिवक्खबंधगद्ध तत्थ गालेदण
* हास्य और रतिकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ?
६ ६८२. यह पृच्छावचन सुगम है । किन्तु इतनी विशेषता है कि हानिविषयक पृच्छा भो इसी सूत्र में गर्भित है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि दोनोंका एक ही रचना द्वारा स्वामित्वका निर्देश देखा जाता है। ___* कोई एक जोव एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्मके साथ संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त कर तथा चार बार कषायोंको उपशमाकर एकेन्द्रिय पर्यायमें गया । तदनन्तर पन्यके असंख्योतवें भागप्रमाण कालतक रह कर संझी हो गया । वहाँ अरति शोकके सबसे बड़े बन्धककालको करके हास्य-रतिका बन्ध किया। हास्य और रतिका बन्ध करनेवाले उसके प्रथम समयमें जघन्य बन्ध है और अन्य प्रकृतिथोंमेंसे संक्रमित होनेवाले द्रव्यको आय है। एक आवलि काल तक हास्य-रतिका वन्ध करनेवाले उस जीवके जघन्य हानि होती है।
६६८३. यहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कका अवलम्बन करने पर उसने बहुत बार संयमासंयम आदि की प्राप्ति की, चारबार कषायोंका उपशम किया, पुनः एकेन्द्रियोंमें पल्वके असंख्यातवें भागप्रमाण अल्पतर कालतक अवस्थित रहा इन सबका पूर्वके समान वर्णन करना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विशेषता नहीं है । उसके बाद संज्ञी हो गया।
शंका-इसे पुनः संज्ञियोंमें किसलिए उत्पन्न कराया है ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर सबसे बड़े प्रतिपक्ष बन्धक कालको गलाकर गलकर शष १ आ०प्रतौ पयोजणाणुव- ता० प्रतौ पयोज [ णा ] णुव इति पाठः ।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदक्खेवो गलिदावसेसजहण्णसंतकम्मावलंबणेण पयदसामित्तविहाणहूँ तहा करणादो । एइदिएसु चेत्र पडिवक्खबंधगद्धा किण्ग गालिदा ? ण, एई दियपडिवक्खबंधगद्धादो सण्णि.. पंचिदिए पडिबक्खबंधगद्धाए संखेजगुणत्तवलंभादो। कुदो एदमवगम्मदे ? 'सव्वत्थोवा एई दियाणमरदि-सोगबंधगद्धा । बीइदिय बंधगद्धा संखेजगुणा । एवं तीइदिय०चउरिदिय०-असण्णि०-सण्णिबंधगद्धाओ जहाकम संखेजगुणाओ' ति परूविदद्धप्पाबहुगादो । तदो एवंविहपडिवक्खबंधगद्धं गालेदूण सामित्तविहाणटुं सण्णीसुप्पोइदो त्ति दहव्वं । तदेवाह-'सबमहंतिमरदि-सोगबंधगद्धं कादणे ति । सण्णीसु अरदि-सोगवंधगद्धा जहण्णा वि अस्थि उकस्सा वि अस्थि । तत्थ सव्वुक्कस्राियमरदिसोगबंधगद्ध कादूण हस्स-रदीणं पदेसग्गमधट्ठिदीए गालदि ति बुत्तं होइ । एवं पडिवक्खबंधगद्ध गालिदूणावहिवस्स पुणो वि सगबंधकालभंतरे आवलियमेतकालं गालणसंभवो ति पदुप्पायट्टमाह-'हस्स-रदीओ पबद्धाओ' ति । हस्स रदिबंधे पारद्धे णकवंधवसेण संकमो बहुगो होदि ति णासंकणिजं, बंधावलियमेत्तकालब्भंतरे णवकबंधपदेसाणं संकमपाओग्गताभावादो। ण च सगबंधपारंभे पडिच्छिजमाणदबस्स बहुत्तमासंकणिजं, तस्स वि आवलियमेत्तकालं संकमाभावदसणादो। तदो बचे हुए जघन्य सत्कर्मके अबलम्बन द्वारा प्रकृत स्वामित्वका विधान करनेके लिए उस प्रकारसे किया है।
शंका-एकेन्द्रियोंमें ही प्रतिपक्ष बन्धककालको क्यों नहीं गलाया ?
समाधान नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियों के प्रतिपक्ष बन्धककालसे संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें प्रतिपक्ष बन्धककाल संख्यातगुणा उपलब्ध होता है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-एकेन्द्रियोंमें अरति-शोकका बन्धककाल सबसे स्तोक है । उससे द्वीन्द्रियों में बन्धककाल संख्यातगुणा है । इस प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी जीवों में बन्धककाल क्रमसे संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार कहे गये काल विषयक अल्पबहुत्वसे जाना जाता है ।
इसलिए इस प्रकारके प्रतिपक्ष बन्धककालको गलाकर स्वामित्वका विधान करने के लिए संज्ञियों में उत्पन्न कराया ऐसा जानना चाहिए। यही कहा है-'सव्वमहंतिमदि-सोगबंधगद्धं कादण' । संज्ञियोंमें अरति-शोकका बन्धककाल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उसमेंसे अरतिशोकके सर्वोत्कृष्ट बन्धककालको करके हास्य-रतिके प्रदेशाप्रको अधःस्थितिके द्वारा गलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार प्रतिपक्ष बन्धककालको गलाकर अवस्थित हुए जीवके फिर भी अपने बन्धककालके भीतर एक आवलिकाल तक गलना सम्भव है इस बातका कथन करनेके लिए कहा है ---'हस्य-रदीओ पबद्धाओ।' हास्य-रतिका बन्ध प्रारम्भ होने पर नवकवन्धके कारण संक्रम बहुत होता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि बन्धावलिमात्र कालके भीतर नवकबन्धके प्रदेश संक्रमके योग्य नहीं होते। अपने बन्धका प्रारम्भ होने पर प्रतिग्राह्यमान द्रव्य बहुत होता है ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसका भी एक श्रावलिकाल
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४१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधग ६ सगबंधपारंभादो आवलियचरिमसमये वट्टमाणस्स जहण्णसामित्तविहाणमेदं१ हिरवजं ।
६६८४. तत्थ वि पढमसमयहस्सरदिबंधगम्मि को वि विसेसो अत्थि ति पदुप्पायणट्ठमाह–'पढमसमयहस्स-रदिबंधगस्स' इचादि । किमट्ठमेत्थतणबंधो अधापवत्तसंकमेण पडिच्छिञ्जमाणसेसपयडिदव्वागमो च जहण्णो इच्छिञ्जदे ? ण, अण्णहा वडि सामित्तस्स जहण्णभावाणुववत्तीदो । तदो वड्डिसामित्तं पडुच वुत्तमेदं ति दट्टव्वं । हाणितानित्तावेक्खाए पुण तत्थतणबंधागमाणं जहण्णुक्कस्सभावेण किंचि पयदोवजोगफलमत्थि, तब्बंधावलियचरिमसमए चे हाणिसामित्तस्स जहण्गभावविहाणादो। यदाह-'तस्स
आवलियहस्स-रदिबंधमाणगस्स जहणिया हाणि' ति । किं कारणं ? एत्तो उपरिमसगबंधमाहप्पेण वडिविसये हाणिसामित्तविहाणाणुववत्तीदो।
* तस्सेव से काले जहणिया वड्डी।
६६८५. तस्सेवाणंतरणिहिट्ठहाणिसामियस्स तदणंतरसमए जहणिया वड्डी होइ । कि कारणं १ पुधमादिट्ठजहण्गबंधागमाणं ताघे संकमपाओग्गभावेण ढुक्माणंजहण्णवडिकारणत्तादो। तदो होणिसामित्तसमयभाविसंकमदव्वे वहिसामित्तसमयसंकमदव्वादो तक संक्रम नहीं देखा जाता । इसलिए अपने बन्धके प्रारम्भसे लेकर एक आवलिकालके अन्तिम समय में विद्यमान हुए जीवके यह जघन्य स्वामित्वका विधान निर्दोष है।
६६८४. उसमें भी हास्य-रतिका प्रथम समयमें बन्ध करनेवाले जीवके कुछ विशेषता है इस बातका कथन करनेके लिए कहा है-'पढमसमयहस्स-रदिबंधगस्स' इत्यादि।
शंका _यहाँ होनेवाला बन्ध और अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा प्रतिग्राह्यमान शेष प्रकृतियोंके द्रव्यका आगमन जघन्य क्यों स्वीकार किया गया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्यथा वृद्धिका स्वामित्व जघन्य नहीं बन सकता, इसलिए वृद्धिके स्वामित्वको लक्ष्य कर यह कहा है ऐसा जानना चाहिए।
हानिके स्वामित्वको विवक्षा होने पर तो बहाँ होनेवाले बन्ध और अधःप्रवृत्तसंक्रम द्वारा प्राप्त होनेवाली आयका जघन्य और उत्कृष्टपना प्रकृतमें कुछ भी उपयोगी फलवाला नहीं है, क्योकि उसकी बम्धावलिके अन्तिम समयमें ही हानिके स्वामित्वके जघन्यपनेका विधान किया है। इसलिए कहा है-'तस्स आवलियहस्स-रदिबंधमाणगस्स जहण्णिया हाणी। क्योंकि इसके आगे अपने बन्धके माहात्म्यवश वृद्धिका स्थल प्राप्त होने पर हानिके स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता।
* उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है।
६६८५. जो अनन्तर पूर्व हानिका स्वामी कह आये हैं उसीके तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है, क्योंकि पूर्वमें कहे गये जो बन्ध और आगम द्रव्य हैं जो कि संक्रम प्रायोग्यरूपसे प्राप्त होनेवाले हैं वे उस समय जघन्य वृद्धिके कारण हैं। इसलिए हानिके स्वामित्वके समयमें होनेवाले संक्रमद्रव्यको वृद्धिके स्वामित्वके समयके संक्रम द्रव्यमेंसे घटा देने पर जो शुद्ध शेष बचे
१. आ प्रतौ मेत्त (दं) इति पाठः ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४१५
सोहिदे सुद्धसमेत्तमेत्थ सामित्तविसकयदव्यं होइ । एत्थ चोदगो भणदि -होउ णाम सिमितं चेत्र, तत्थ पयारंतरासंभवादो | डिसामित्तं पुण एइ दिएसु सत्थाणे चैत्र पडिवक्खधगद्धं गालिय सगबंधपारंभादो आवलियादीदस्स कायव्वं, तत्थ संकमपाओग्गभावेण दुकमाणतप्पोओग्गजहण्णेइ दियसमयपबद्धस्स पुव्विलसा मित्तविसय पंचिदियसमयबद्धादो असंखेजगुणहीणस्स गहणे सुट्ठ जहण्णभावोववत्तोदो त्ति ? ण एस दोसो, परिणामं विसेसमस्सिऊणेत्थतणसुद्ध सेससंकमदव्त्रस्स थोवत्तन्भुवगमादो । तं कथं १ एइ दियसंकिलेसादो पंचिदियस्स संकिलेसो अनंतगुणो होइ, तेण सामित्तसमयोदो हेट्ठा समयाहियावलिमेत्तमोसरिदूण जहण्णजोगेण बंधमाणावस्थाए एइ दिएण पडिच्छिखमाणदव्वादो पंचिदिएण पडिच्छिमाणदव्वं थोवयरं चेत्र होदि ति तदनुसारेण सुद्धसेवदिव्यं पि तत्थेव थोत्रयरं होई । ण च णत्रकबंधस्सेत्थ पहाणभावो अत्थि, तत्तो असंखेजगुणं पडिच्छिजमाणदव्वं मोत्तृण तस्स पहाणत्ताणुवलंभोदो | अहवा जहण्णहाणिविसयाचेव जणवडी सुत्तारेणेत्थ विवक्खिया त्तिण किं चि विरुज्झदे ।
* अरदि-सोगाणमेवं चेव । एवरि पुव्वं हस्स-रदीओ बंधावेयव्वाओ । उतना यहाँ पर स्वामित्वरूपसे विषय किया गया द्रव्य होता है ।
शंका—यहाँ पर शंकाकार कहना है- हानिका स्वामित्व रहा आवे, क्योंकि वहाँ पर दूसरा । प्रकार सम्भव नहीं है । वृद्धिका स्वामित्व तो एकेन्द्रियोंके स्वस्थानमें ही ऐसे जीवके करना चाहिए जिसने प्रतिपक्ष बन्धककालको गलाकर अपने बन्धके प्रारम्भ होनेसे लेकर एक श्रावलिकाल बिता दिया है, क्योंकि वहाँ पर संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त होनेवाला एकेन्द्रिय सम्बन्धी तत्प्रायोग्य जघन्य समयबद्ध पूर्व में कहे गये स्वामित्व विषयक पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धसे असंख्यातगुणा ही होता है, इसलिए उसके ग्रहण करने पर उसका अच्छी तरह जघन्यपना बन जाता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि परिणाम विशेषका आश्रयकर यहाँ का शुद्ध शेष बचा हुआ संक्रमद्रव्य स्तोक है ऐसा स्वीकार किया गया है । —वह कैसे ?
शंका
समाधान —क्योंकि एकेन्द्रियजीव के संक्लेशसे पञ्चेन्द्रियजीवका संक्लेश अनन्तगुणा होता है, इसलिए स्वामित्व समय से पूर्व एक समय अधिक एक आवलि पीछे सरक कर जघन्य थोके द्वारा बन्ध होने की अवस्था में एकेन्द्रिय जीवके द्वारा प्रतिग्राह्यमान द्रव्यसे पञ्चेन्द्रिय जीवके द्वारा प्रतिग्राह्यमान द्रव्य स्तोकतर ही होता है अतएव उसके अनुसार शुद्ध शेष वृद्धिरूप द्रव्य भी उस पञ्चेन्द्रियजीवके स्तोकतर होता है और नवकबन्धकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है, क्योंकि उससे असंख्यातगुणे प्रतिग्राह्यमान द्रव्यको छोड़कर उसकी प्रधानता नहीं उपलब्ध होती । अथवा सूत्रकारने जघन्य हानिविषयक ही जघन्य वृद्धि यहाँ पर विवक्षित की है इसलिए कुछ भी विरोध नहीं है ।
* अरति और शोक की जघन्य वृद्धि आदिका स्वामित्व इसी प्रकार है । किन्तु इतनी विशेषता है कि पहले हास्य और रतिका बन्ध करावे । तदनन्तर एक आवलि
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४१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ तदो मावलियअरदि-सोगबंधगस्स जहपिणया हाणी । से काले जहपिणया वड्डी।
६६८६. जहा हस्स-रदीणं जहण्णवहि-हाणिसामित्तपरूवणा कया तहा अरदिसोगाणं पि कायया । णवरि पुवमेत्थ हस्स-रदीओ बंधाविय पडिवक्खबंधगद्धागालणं कादूण तदो आवलियअरदि-सोगबंधगद्धम्मि पयदकम्माणं जहण्णहाणिसामित्तं । से काले च पुव्वुत्तेणेव विहिणा जहण्णवविसामित्तमिदि एसो विसेसो सुत्तेणेदेण णिपिट्ठो ।
एवमित्थिवेद-णQसयवेदाणं । ६६८७. जहा हस्स-रह-अरइ-सोगाणं खविदकम्मंसियस्स पडिवक्खबंधगद्धागालणेण सामित्तविहाणं कयं, एवमेदेसि पि दोण्हं कम्माणं कायध्वं,विसेसाभावादो । णवरि पडिवक्खबंधगद्धागालणाविसये दोण्हं कम्माणं कमविसेसो अस्थि त्ति तप्पदुप्पायणद्वमुत्तरसुत्तद्दयमाह.*णवरि जइ इत्थिवेदस्स इच्छसि, पुव्वं पवु सयवेद-पुरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा इत्थिवेदो बंधावेयव्वो। तदो आवलियइत्थिवेदबंधमाणयस्स इस्थिवेदस्स जहपिणया हाणी । से काले ज हरिणया वड्ढी।
AR
काल तक अरति और शोकका बन्ध करनेवाले जीवके जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है ।
६६८६. जिस प्रकार हास्य और रतिकी जघन्य वृद्धि और हानिका कथन किया है उसी प्रकार अरति और शोकका भी कथन करना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वमें यहाँ पर हास्य और रतिका बन्ध कराकर तथा प्रतिपक्ष बन्ध कालको समाप्त कर तदनन्तर एक आवलि प्रमाण अरति ओर शोकके बन्धककालके अन्तमें प्रकृत कर्मों की जघन्य हानिका स्वामित्व होता है । और तदनन्तर समयमें पूर्वोक्त विधिसे ही जघन्य वृद्धिका स्वामित्व होता है इस प्रकार इतनी विशेषता इस सूत्रके द्वारा निर्दिष्ट की गई है।
* इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुसकवेदके स्वामित्वका कथन करना चाहिए।
६६८७. जिस प्रकार क्षपितकर्मा शिक जीवके प्रतिपक्ष बन्धककाल को बिताने के बाद हास्यरति और अरति-शोकके स्वामित्वका विधान किया है इसी प्रकार इन दोनों कर्मों का भी विधान करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रतिपक्ष बन्धककालके गलानेके विषयमें दोनों कर्मोंके क्रममें कुछ विशेषता है, इसलिए इसका कथन करनेके लिए आगेके दो सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि यदि स्त्रीवेदके स्वामित्व कथनकी इच्छा हो तो पूर्वमें नपुसकवेद और पुरुषवेदका बन्ध कराकर बादमें स्त्रीवेदका बन्ध करावे । इस प्रकार एक आवलिकाल तक स्त्रीवेदका बन्ध करनेवाले जीवके स्त्रीवेदकी जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है।
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गा०५८ उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४१७ ॐज दि पवुसयवेदस्स इच्छसि, पुव्वमित्थिपरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा एवं सयवेदो बंधावयव्व । तदो प्रावलियणवंसयवेदबंधमाणयस्स
एवंसयवेदस्स जहपिणया हाणो से काले जहपिणया वड्ढी। : • ६८८. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एत्थ चोदगो भणइ--होउ णाम ... जहण्णवडिसामित्तमेवं चेत्र, तत्थ पयारंतरासंभवादो। किंतु जहण्णहाणिसामित्तमेदमित्थि. गवूसयवेदपडिबद्धंण घडदे । कुदो ? खरिदकम्मंसियलक्खणेणाणिय बेछावद्विसागरो• वमाणि तिपलिदोवमाहियवेछावद्विसागरोवमाणि च जहाकमेण गालिय गलिदसेसजहण्ण
संतकम्ममधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि विज्झादसंकमेण संकामेमाणयम्मि सामित्तविहाणे .हाणीए सुट्टु जहण्णभावोवलद्धीदो ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-सच्चमेदं, ओघजहण्णसामित्ते . विवक्खिए एवं चेव होदि त्ति इच्छिज्जमाणत्तादो। किंतु आदेसजहण्णसामित्तविवाए पयट्टमेदं सुत्तमिदि ण किंचि विरुज्झदे, अप्पिदाणप्पिदसिद्धीए सव्वत्थ पडिसेहाभावादो। किमिदि तदविवक्खा चे १ जहण्णवडिसंभवविसये चे। जहण्णहाणिसामित्तविहाणाहिप्पाएण
__* यदि नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वको लानेकी इच्छा हो तो पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध कराकर बादमें नपुंसकवेदका बन्ध करावे । इस प्रकार एक आवलि काल तक नपुंसकवेदका बन्ध करनेवाले जीवके नपुंसकवेदकी जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है।
६६८८. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं।
शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि जघन्य वृद्धिका स्वामित्व इसी प्रकार होश्रो, क्योंकि उस विषयमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। किन्तु स्त्रीवेद और नपुंसकवेदसे सम्बन्ध रखने वाला यह जघन्य हानिका स्वामित्व घटित नहीं होता, क्योंकि क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर तथा क्रमसे दो छयासठ सागर और तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर कालको बिताकर गलाकर शेष बचे जघन्य सत्कर्मको अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रमित कराने पर स्वामित्वका विधात करने पर हानिका अच्छी तरह जघन्य स्वामित्व उपलब्ध होता है?
समाधान- यहाँ पर परिहारका कथन करते हैं- यह सत्य है, ओघ जघन्य स्वामित्वकी विवक्षा होने पर इसी प्रकार होता है, क्योंकि यह स्वीकार है। किन्तु आदेश जघन्य स्वामित्वकी विवक्षामें यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिए कुछ भी विरोध नहीं है, क्योंकि अर्पित और अनर्पितकी सिद्धिका सभी जगह निषेध नहीं है ।
१. श्रा०-दि प्रत्योः माणयस्स जहरिणया ता०प्रतौ माणयस्स इति पाठः।
णबुसयवेदस्य ] जहरिणया
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ तविवक्खा ण कया सुत्तयारेण, सेससम्बकम्मेसु तहा चेव जहण्णसामित्तपवुत्तिदंसणादो । एवमोघेण सम्बकम्माणं जहण्णसामित्तं परूविदं । एतो आदेसपरूवणा च जाणिय कायन्वा ।
तदो सामित्वं समत्तं । * अप्पाबहुवे। .६६८६. अहियारपरामरसवक्कमेदं । तं पुण दुविहमप्पाबहुगं जहण्णुकस्समेएण । तत्थुक्कस्सप्पाबहुगं ताव वत्तइस्सामो ति जाणावणहमिदमाह -
ॐ उकस्सयं ताव ।
६६६०. जहण्णुक्कस्सप्पाबहुगाणमकमेण परूवणा ण संभवदि ति उकस्सप्पाबहुअपरूव गाविसयमेदं पइण्णावकं । तस्स दुविहो णिद्देसो ओघादेसमेएण । तत्थोघेण ताव सबकम्माणमप्पावहुअपरूवणमुत्तरसुत्तपबंधमाह
® मिच्छत्तस्स सव्वत्योवमुकस्सयमवहाणं ।
शंका-उसकी अविवक्षा यहाँ पर क्यों की गई है ?
समाधान-क्योंकि जघन्य वृद्धिके सम्भव स्थल पर ही जघन्य हानिके स्वामित्वके कथन करनेके अभिप्रायसे ही सूत्रकारने उसकी विवक्षा नहीं की है तथा शेष सब कर्मों में उसी प्रकारसे जघन्य स्वामित्वकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
इस प्रकार ओघसे सब कर्मो के जघन्य स्वामित्वका कथन किया। आगे आदेशप्ररूपणा जानकर लेनी चाहिए।
- इसके बाद स्वामित्व समाप्त हुआ। * अल्पबहुत्वका अधिकार है।
६६८६. अधिकारका परामर्श करानेवाला यह वचन सुगम है। जघन्य और उत्कृष्ट के भेदसे वह अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। उनमेंसे सर्व प्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वको बतलावेंगे इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह वचन कहा है
* सर्व प्रथम उत्कृष्ट अन्पबहुत्वका अधिकार है।
६६६०. जघन्य और उत्कृष्ट अल्पबहुत्वोंकी प्ररूपणा एक साथ करना सम्भव नहीं है, इसलिए उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाको विषय करनेवाला यह प्रतिज्ञावाक्य है। ओघ और आदेशके भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे सर्व प्रथम ओघ अल्पेबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र प्रबन्ध कहते हैं
* मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है।
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४१६ ६६६१. कुदो १ एयसमयपबद्धासंखेज्जदिभागपमाणत्तादो। तं जहा-गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागदपुवुप्पण्गसम्मत्तमिच्छाइद्विस्स सम्मत्तपडिवण्णस्स पढमावलियविदियसमये वट्टमाणस्स असंकमपाओग्गभावेणुदयावलियं पविसमाणगोवुच्छदव्वं पढमसमयविज्झादसंकमदवसहिदं थोवणमेगसमयपबद्धमेत्तं होइ, तत्थेव संकमपाओग्गभावेण ढुकमाणं सयलेयसमयपबद्धमत्तं होइ । एवं होइ ति कादूण संकमपाओग्गभावेण गददव्यमेत्तं संकमपाओग्गं होणागच्छमाणसमयपपद्धम्मि घेत्तण चिराणसंतकम्मस्सुवरि पक्खिविय विज्झादभागहारेण भाजिदे भागलद्ध पढमसमयसंकामिददव्यमेत्तं चत्र विदियसमयसंकमदव्यं होइ । पुणो सेसमसंखेजदिमागं पि तेणेव भागहारेण संकामेदि त्ति विज्झादभागहारेण भाजिदे भागलद्धमसंखेजदिभागस्स वि असंखेज्जभागमेतं होदूण विदियसमयवडिदव्वं होदि । एवं विदियसमए वड्डिऊण पुणो तदियसमयम्मि तत्तियमेते चेत्र संकामिदे वहिदव्यमेतं चेत्र उकसावट्ठाणविसेसिददव्वं होइ । तदो सव्वत्थोवमेदं ति सिद्ध।
६६६२. अहवा जइ वि एगसमयपबद्धस्सासंखेज्जाणं भागाणमसंखेज्जदिभागमेतमवद्विददव्वं होइ तो वि सव्वत्थोवत्तमेदस्स ण विरुज्झदे। तं कधं ? पुव्वुप्पण्ण
६६६१. क्योंकि वह एक समयप्रबद्धका असंख्यातवें भागप्रमाण है। यथा-जो गुणित कर्मा शिकलक्षणसे आया है और जिसने पूर्वमें सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वको प्राप्त होने पर प्रथम आवलिके दूसरे समयमें विद्यमान रहते हुए असंक्रमके योग्य उदयावलिमें प्रवेश करनेवाला गोपुच्छाका द्रव्य प्रथम समयमें विध्यातसंक्रमके द्रव्यसे युक्त होकर कुछ कम एक समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । तथा वहीं पर संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त होनोवाला द्रव्य सकल एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है । इस प्रकार होता है ऐसा समझकर संक्रमके प्रायोग्यभावसे गत द्रव्य प्रमाण संक्रमप्रायोग्य होकर आनेवाले समयप्रबद्ध मेंसे ग्रहणकर प्राचीन सत्कर्मके ऊपर प्रक्षिप्त कर विध्यातभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उतना प्रथम समयमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य होता है और उतना ही दूसरे समयमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य होता है । पुनः पुनः शेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य भी उसी भागहारके आश्रयसे संक्रमित होता है इसलिए विध्यातभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो भाग लब्ध प्रावे वह असंख्यातवें भागका भी असंख्यातवां भाग होकर दूसरे समयमें वृद्धि रूप द्रव्यका प्रमाण होता है। इस प्रकार दूसरे समयमें वृद्धि करके पुन तीसरे समयमें उतने ही द्र०के संक्रमित करने पर वृद्धि द्रव्यके बराबर ही उत्कृष्ट अवस्थानसे युक्त द्रव्य होता है, इसलिए यह सबसे स्तोक है यह सिद्ध हुआ।
६६६२. अथवा यद्यपि एक समय प्रबद्धके असंख्यात बहुभागोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अवस्थित द्रव्य होता है तो भी यह सबसे स्तोक है यह बात विरोधको नहीं प्राप्त होती ।
शंका-वह कैसे ? समाधान-क्योकि पूर्व में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टिजीवके दूसरे समयमें असंक्रमप्रायोग्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ सम्माइट्ठिविदियसमए असंकमपाओग्गं होदूण गच्छमाणगोवुच्छदव्यमोकड्डणादिवसेण एयसमयपबद्धस्सासंखेज दिमागमेतं होइ । संकमपाओग्गं होदूणागच्छमाणदव्वं पुण सयलमेयसमयपबद्धमेत होइ। एवं होइ ति कट्ट, असंकमपाओग्गभावेण गददव्यमेत्त संकमपाओग्गभावेण ढुक्कमाणस्स समयपबद्धम्मि घेत्तण चिराणसंतकम्मम्मि पक्खिविय भागे हिदे पुबिल्लसमयसंकामिददव्वमेत्तं चैव विदियसमयसंकमद होइ । पुणो सेसअसंखेज्जभागा वि तेणेव भागहारेण संकामिज्जति ति तेसु विज्झादभागहारेणोवट्टिदेसु समयपबद्धासंखेज्जाणं भागाणमसंखे०भागमेतविदियसमयवडिददव्वं होइ । एवं वहिदण तदियसमयम्मि तत्तियमेत्तं चेव संकामेमाणयस्तावद्विदसंकमो होइ त्ति समयपबद्धस्सासंखेजाणं भागाणमसंखेज्जदिभागोत्ति वुत्तं ।
*हाणी असंखेज्जगुणा । ६६६३. किं कारणं ? चरिमसमयसंकमादो विज्झादसंकमम्मि पदिदस्स पढमसमयअसंखेजसमयपबद्धे हाइदूण हाणी जादा । तेणेदं पदेसग्गमसंखेज्जगुणं भणिदं ।
* वड्डी असंखेज्जगुणा । ६६६४. कुदो ? सव्वसंकमम्मि उकस्सवड्डिसामित्तावलंबणादो। ® एवं बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं ।।
होकर जाता हुआ गोपुच्छाका द्रव्य अपकर्षण आदिके वशसे एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। परन्तु संक्रम प्रायोग्य होकर आनेवाला द्रव्य पूरा एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है। इस प्रकार होता है ऐसा समझ कर असंक्रमप्रायोग्यभावसे जानेवाले द्रव्यप्रमाणको संक्रमप्रायोग्यभावसे प्राप्त होनेवाले द्रव्यके समयप्रबद्ध मेंसे ग्रहण कर तथा प्राचीन सत्कर्ममें प्रक्षिप्त कर भाजित करने पर पहले के समयमें संक्रम कराये गये द्रव्यके बराबर ही दूसरे समयका संक्रमद्रव्य होता है । पुनः शेष असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य भी उसी भागहारके द्वारा संक्रमित कराया जाता
उनके विध्यात भागहारके द्वारा भाजित करने पर समयप्रबद्धके असंख्यात बहुभागके वृद्धिद्रव्य होता है। इस प्रकार बढ़ाकर तीसरे समयमें उतने ही द्रव्यका संक्रम करानेवालेके असंख्यातवें भागप्रमाण दूसरे समयका अवस्थितसंक्रम होता है, इसलिए समयप्रबद्धके असंख्यात बहुभागका असंख्यातवां भाग ऐसा कहा है।
* उससे हानि असंख्यातगुणी होती है।
६६६३. क्योंकि अन्तिम समयमें हुए संक्रमसे विध्यातसंक्रममें पतित हुए जीवके प्रथम समयमें असंख्यात समयप्रबद्ध कम होकर हानि हो गई, इसलिए यह प्रदेशाग्र असंख्यात गुणा कहा है।
* उससे वृद्धि असंख्यातगुणी है। ६६६४. क्योंकि सर्वसंक्रममें उत्कृष्ट वृद्धि के स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
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गो० ५८ ]
उत्तरपर्याडपदेससंकमे पदणिक्खेवो
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६ ६६५. जहा मिच्छत्तस्स पयदप्पा बहुअपरूवणा कया एवमेदेसि पि कम्माणं कायन्त्रा, अप्पा बहुगालावगय विसेसाभावादो । संपहि दव्यट्ठियणयमस्सिऊण पयट्टस्सेदस्स अप्पणासुत्तस्स पज्जवट्ठियणयपरूवणा कीरदे । तं जहा - अनंतापु०४ सव्त्रत्थोवमुकस्समाणं । किं कारणं १ एयसमयपत्रद्धा संखेज्जदिभागपमाणत्तादों । एत्थ अवदिदव्वपमा ठाणे समवद्धं ठत्रियं तप्पा ओग्गपलिदोवमा संखेज भागेणोवट्टिदे सुद्ध से सदव्त्रपमाणमागच्छदि, आगमस्स णिजरादो असंखेजदिभागन्महियत्तादो । पुणो तस्स अधापवत्तमागहारे भागहारत्तेण ठविदे तप्पा ओग्गुकस्सएण अधापवत्तसंकमेण वडिदूणावट्टिददव् होदि त्वत्व्वं । हाणी असंखेजगुणा । किं कारणं ? असंखेज्जसमयपबद्धपमाणत्तादो । तं जहा--तप्पाओग्गुकस्सअधापवत्तसंक्रमादो सम्मत्तं पडिवज्जिय विज्झादसंकमेण पदिदस्स पढमसमयम्मि उकस्सहा णिसामित्त जादं । तत्थ सामित्त विसईकयदव्यपमाणे ठर्विज्जमाणे दिवड गुणहाणिगुणिदमुकस्ससमयपबद्धं ठविय अधापवत्तभागहारेणोवट्टिय तत्तो सम्मवइट्ठिपढमसमय विज्झादसंक मदच्चे अवणिदे उकस्सहा णिपमाणमागच्छइ । एदं च दव्यमसंखेज्जसमयपचद्धपमाणं, अधापवत्तभागहारादो दिवड गुणहाणिगुणगारस्सासंखेज्जगुणत्तदंसणादो । वड्डी असंखेज्जगुणा । किं कारणं १ सव्त्रसंकमम्मि तदुक्कस्ससा मित्तपडिलंभादो । एवमदृकसाय-भय-दुगु छाणं पि वत्तव्वं, विसेसाभावादो | णवरि उत्रसामग
६६६५. जिस प्रकार मिथ्यात्व के प्रकृत अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की उसी प्रकार इन कर्मोंकी भी करनी चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्वसे इन कर्मों में अल्पत्व आलापगत कोई विशेषता नहीं है । अब द्रव्यार्थिकनयका आश्रय लेकर प्रवृत्त हुए इस अर्पणासूत्रकी पर्यायार्थिकनय प्ररूपणा करते हैं। यथा--अनन्तानुबन्धीयतुष्कका उत्कृष्ट श्रवस्थान सबसे स्तोक है, क्योंकि वह एक समय प्रबद्धका असंख्यातवें भागप्रमाण है । यहाँ पर अवस्थितद्रव्यके प्रमाणके स्थापित करने पर एक समय प्रबद्धको स्थापित कर तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातव भागसे भाजित करने पर शुद्ध शेष द्रव्यका प्रमाण आता है, क्योंकि श्राय निर्जरासे असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक है । पुनः उसका अध प्रवृत्तभागहारको भागहाररूपसे स्थापित करने पर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा बढ़ाने पर अवस्थित द्रव्य होता है ऐसा कहना चाहिए। उससे हानि असंख्यातगुणी होती है। क्योंकि उसका प्रमाण असंख्यात मयप्रबद्ध है । यथा -- तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधः प्रवृत्त संक्रमके बाद सम्यक्त्वको प्राप्त होकर विध्यात संक्रमके प्राप्त होने पर प्रथम समय में उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व प्राप्त होता है । वहाँ स्वामित्वरूपसे विषय किये गये द्रव्यप्रमाणके स्थापित करने पर डेढ़ गुणहानिगुणित उत्कृष्ट समयप्रबद्धको स्थापित कर उसे अधःप्रवृत्तभागद्दारके द्वारा भाजित कर उसमेंसे सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में विध्यात संक्रमके द्रव्यके कम कर देने पर उत्कृष्ट हानिका प्रमाण आता है। यह द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि अधःप्रवृत्त भागहारसे डेढ़ हानिका गुणकार असंख्यातगुणा देखा जाता है। उससे वृद्धि असंख्यातगुणी है, क्योंकि सर्वसंक्रममें उसका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। इसी प्रकार आठ कषायों, भय और जुगुप्साका
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४२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ चरिमसमयगुणसंकमादो कालं कादूण देवेसुप्पण्णपढमसमये उक्कस्सहाणिसंकमो होइ ति तदणुसारेण गुणगारपरूवणा कायव्वा ।
सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वडूढो । ६६६६. किं कारणं ? उव्वेल्लणकालब्भंतरे गलिदसेसदव्वस्स चरिमुव्वेल्लणकंडदुयचरिमफालीए लढुक्कस्सभावत्तादो । जइ वि सव्वत्थोवमेदं तो वि असंखेज्जसमयपबद्धपमाणमिदि घेत्तव्यं, गुणसंकमभागहारगणिदुव्वेलणकालभंतरणाणागणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासीदो समयपबद्धगुणगारभूददिवडढगुणहाणीए तंतजुत्तिवलेणासंखेजगुणत्तदंसणादो।
* हाणी असंखेनगुणा ।
६ ६६७. कुदो ? मिच्छत्तौं गयस्स विदियसमयम्मि अधापवत्तसंक्रमेण पडिलद्धकस्सभावत्तादो । अधापवत्तभागहारादो उव्वेन्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागअण्णोण्णभत्थरासीए असंखेज्जगुणत्तदंसणादो णेदमेत्यासंकणिज्जं, पढमसमयअधापवत्तसंकमादो विदियसमयअधापवत्तदव्वे सोहिदे सुद्धसेसमेत्तमुक्कस्सहाणिसामित्तविसईकयदव्यं होइ । तं च सुद्धसेसदव्यमेतियमिदि परिप्फुडं ण णञ्चदे । तदो असंखेज्जसमयपबद्धावच्छिण्णपमाणादो पुविल्लादो एदस्सासंखेज्जगुणत्त संदिद्धमिदि । किं कारण ? सुद्धसेसदबम्मि
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भी कहना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उपशामक जीवके अन्तिम समयमें गुणसंक्रमके साथ मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होता है, इसलिए उसके अनुसार गुणकारका कथन करना चाहिए।
* सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक होती है।
६६६६. क्योंकि उद्वेलनाकालके भीतर गलकर शेष बचे हुए द्रव्यका अन्तिम उद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिमें प्राप्त हश्रा उत्कष्टपना प्राप्त होता है। यद्यपि यह सबसे स्तोक है तो भी यह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि गुणसंक्रमभागहार द्वारा गुणित उद्वेलना कालके भीतर नाना गुणहानि शलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे समयप्रबद्धकी गुणकारभूत डेढ़ गुणहानि आगम और युक्तिके बलसे असंख्यातगुणी देखी जाती है।
* उससे हानि असंख्यातगुणी है।
६६६७. क्योंकि मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके दूसरे समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा उत्कृष्टपना प्राप्त होता है। यदि कहो कि अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारसे उद्वेलनाकालके भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी देखी जाती है सो यहाँ पर ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम समयके अधःप्रवृत्तसंक्रममें से दूसरे समयके अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्रव्यके घटाने पर जो शुद्ध शेष रहे उतना उत्कृष्ट हानिके स्वामित्व द्वारा विषय किया गया द्रव्य है और वह शुद्ध शेष बचा हुआ द्रव्य इतना है यह स्पष्टरूपसे नहीं जाना जाता है। अतएव असंख्यात समयप्रबद्धरूपसे अवच्छिन्न प्रमाणवाले पहलेके द्रव्यसे यह असंख्यातगुणा
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो
४२३ वि तत्तो असंखेज्जगुणाणमसंखेज्जसमयपबद्धाण परिप्फुडमेवोपलंमादो। तं जहा
६६६८. दिवडढगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धमेगं ठविय गुणसंकमभागहारेण अधापवत्तभागहारेण च तम्मि ओवट्टिदे पढमसमयअधापवत्तसंकमो होइ । पुणो बिदियसमयअधापवत्तसंकमदयमिच्छिय तस्सेव असंखेज्जे भागे ठविय अधापवत्तभागहारेणोवडिदे विदियसमयअधापवत्तसंकमदयमागच्छदि । एवं हिदि ति पुबिल्लदबादो एदम्मि दधे सोहिदे सुद्धसेसमधापवत्तभागहारवग्गेण गुणसंकमभागहारेण च खंडिद दिवढगणहाणिमेत्तसमयपबद्धपमाणं होइ । जेणेसो अधापवत्तभागहारवग्गो उव्वेल्लणणाणागणहाणिअण्णोण्णभत्थरासोदो असंखेज्जगुणहीणो तेणुकस्सबहोदो उक्कस्सिया हाणी असंखेज्जगुणा ति ण विरुज्झदे। कधमधापवत्तमागहारवग्गादो उव्वेलणणाणोगुणहाणिअण्णोण्णभत्थरासीए असंखेज्जगणतावगमो ति णासंकणीयं, एदम्हादो चे सुत्तादो तदवगमोववत्तीदो।
* सम्मामिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी।
६६६६. कुदो १ अधापवत्तसं कमादो विज्झादसकमे पदिदपढमसमयसम्माइटिम्मि किंचूणअधापवत्तसकमदबमेत्तुक्कस्सहाणिभावेण परिग्गहादो ।
है यह बात संदिग्ध है, क्योंकि शुद्ध शेष द्रव्यमें भी उससे असंख्यातगुणे असंख्यात समयप्रबद्धों की स्पष्टरूपसे उपलब्धि होती है । यथा
६६६८. डेढ़ गुणहानिसे गुणित एक समयप्रबद्धको स्थापित कर गुणसंक्रमभागहार और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा उसे भाजित करने पर प्रथम समयका अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य होता है । पुनः द्वितीय समयके अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्यको लानेकी इच्छासे उसके असंख्यात बहुभागको स्थापित कर अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करने पर द्वितीय समयसम्बन्धी अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य भाता है । इस प्रकार है, इसलिए पहलेके द्रव्यमेंसे इस द्रव्यके घटा देने पर जो शुद्ध रहे उसका प्रमाण अधःप्रवृत्तभागहारके वर्ग और गुणसंक्रम भागहारसे डेढ गुणहानप्रमाण समयप्रबद्धोंके भाजित करने पर जो लब्ध पावे उतना होता है। यतः यह भागहारका वर्ग पहले की नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे असंख्यातगुणा हीन है, इसलिए उत्कृष्ट वृद्धिसे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है यह बात विरोधको प्राप्त नहीं होती। .
शंका–अधःप्रवृत्तभागहारके वगैसे उद्वेलना सम्बन्धी नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है यह फैसे जाना जाता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसी सूत्रसे उसका ज्ञान होता है। * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है।
६.६६६. क्योंकि अधःप्रवृत्तसंक्रमसे विध्यातसंक्रमको प्राप्त हुए प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके कुछ कम अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्यको उत्कृष्ट हानिरूपसे ग्रहण किया है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बधगो ६
* उक्कस्सिया वड्डी असंखेज्जगुणा ।
६७००. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाए सव्वसंक्रमेण तदुक्कस्ससा मित्तपडिलंभादो । * एवमित्थि एवं सयवेद-हस्स' -रह- अरइ - सोगाणं ।
६ ७०१. जहा सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सहाणि - गड्ढोणमप्पाबहुअं कयं एवमेदेसि पि कम्माणं कायन्त्रं विसेसाभावादो । तं जहा -- सन्वत्थोत्रा उक्कस्सिया हाणी । किं कारण, उसाचरिमसमयगुणसंक्रमादो पढमसमयदेवस्स अघापवत्तसंकमदन्ये सोहिदे सुद्धसेपमात्तदो । वरि इत्थि - बुंसयवेदाणं विज्झादसंक्रमदव्त्रं सोहेयव्यं । वही अस खेगुणा । कुदो ? खवगचरिमफालीए सव्त्रस कमेण तदुक्कस्ससा मित्त पडिलंभादो | * कोहसंजलणस्स सव्वोत्थोवा उक्कस्सिया वड्ढी ।
९७०२. तं जहा- चिराणसंत कम्म दुचरिमसमय अधापवत्त संक्रमदव्वे सव्त्रसंकमदव्वादो सोहिदे सुद्धसमेतमुक सबडिविसई कयदव्यं होड़ । एदं सव्वत्थवमिदि भणिदं । * हाणी अवद्वाणं च विसेसाहियौं ।
* उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है ।
९७००, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में सर्वसंक्रमके द्वारा उसका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त
होता है।
* इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
§ ७०१. जिस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट हानि और वृद्धि का अल्पबहुत्व किया है। उसी प्रकार इन कर्मोंका भी करना चाहिए क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । यथा-उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है, क्योंकि उपशामक के अन्तिम समय सम्बन्धी गुणसंक्रमद्रव्यमेंसे प्रथम समवर्ती देवके अधः प्रवृत्तसंक्रम द्रव्यके घटा देने पर जो शुद्ध शेष रहे उतना उसका प्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्री और नपुंसक वेदकी अपेक्षा विध्यात संक्रमके द्रव्यको घटाना चाहिए। उससे वृद्धि असंख्यात गुणी होती है, क्योंकि क्षपककी अन्तिम फालिमें सर्व संक्रमके द्वारा उसका उत्कृष्ट स्वामित्व उपलब्ध होता है ।
* क्रोधस ज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक होती है ।
§ ७०२. यथा—प्राचीन सत्कर्ममेंसे द्विचरम समय सम्बन्धी अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्यको सर्वसंक्रामकद्रव्यमें से घटा देने पर जो शुद्ध शेष बचे उतना उत्कृष्ट वृद्धि के द्वारा विषय किया द्रव्य होता है । यह सबसे स्तोक है यह कहा है ।
* उससे हानि और अवस्थान विशेष अधिक है ।
१. दि० प्रतौ - वेदस्स इस्स - इति पाठः ।
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गा०५८
उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो ६७०३. एत्य कारणं वुच्चदे-सव्वसंकमादो तदणंतरसमयतप्पाओग्गजहण्णणवकबंधसंकमदव्वे सोहिदे सुद्धसेसमुक्कस्सहाणिपमाणं होइ । एदं चेवुक्कस्सावट्ठाणपमाणं पि, से काले तत्तियं चेव संकामेमाणयम्मि तदविरोहादो । एदं च पुचिल्लदव्वादो विसेसाहियं, तत्थ सोहिज्जमाणदुचरिमसमयअधापवत्तसंकमदव्वादो? एत्थ सोहिजणवकबंधसंकमस्स संखेजगुणहीणत्तदंसणादो।
* एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । ६७०४. सुगममेदमप्पणासुत्तं ।
* लोहसंजलणस्स सव्वत्थोवमुक्कस्समवहाणं ।
६७०५. कि पमाणमेदमवट्ठिदद ? असंखेजसमयपबद्धपमाणमेदं । कि कारणं ? तप्पाओग्गुकस्सअधापवत्तसंकमेण वहिदावद्विदम्मि वहिणिमित्तमूलदव्वेण सहावट्ठाणभुवगमादो। तदो दिवड्डगुणहाणिमेतसमयपबद्धाणमधापवत्तभागहारपडिमागेणासंखेअदिभागमेत्तं होदण सब त्योवमेदं ति घेत्तव्वं ।
ॐ हाणी विसेसाहिया।
६७०३. यहाँ पर कारणका कथन करते हैं-सर्वसंक्रममें से तदनन्तर समयमें हुए तत्प्रायोग्य जघन्य नवकबन्ध सम्बन्धी संक्रमद्रव्यके घटाने पर जो शुद्ध शेष बचे उतना उत्कृष्ट हानिका प्रमाण होता है और यही उत्कृष्ट अवस्थानका प्रमाण भी होता है, क्योंकि तदनन्तर समयमें उतने ही द्रव्यका संक्रम कराने पर अवस्थान द्रव्यके उतने ही प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं आता।
और यह पहलेके द्रव्यसे विशेष अधिक है, क्योंकि वहाँ पर घटाये गये द्विचरम समयसम्बन्धी अधःप्रवृत्तसंक्रमद्रव्यसे यहाँ पर घटाये जानेवाले नवकबन्धका संक्रम संख्यातगुणा हीन देखा जाता है।
* इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका अल्पबहुत्व जानना चाहिए।
६७.४. यह अर्पणासूत्र सुगम है। * लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है।
७०५. शंका- इस अवस्थित द्रव्यका क्या प्रमाण है ?
समाधान-इसका प्रमाण असंख्यात समयप्रबद्ध है, क्योंकि तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा वृद्धिकर अवस्थित होनेपर वृद्धि के निमित्तभूत मूलद्रव्यके साथ अवस्थान स्वीकार किया है । इसालए डढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धौंका अधःप्रवृत्त भागहार द्वारा प्रतिभागरूपसे असंख्यातवाँ भाग होकर यह सबसे स्तोक है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
* उससे हानि विशेष अधिक है।
१ आ. प्रतौ-संकमादो दव्वादो इति पाठः ।
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४२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधमा ६ ६७०६. किं कारणं ? उवसमसेढोए सव्वुकस्सगुणसंकमदव्वं पडिच्छिय कालं कादूण देवेसुववण्णस्स समयाहियावलियाए अणूणाहियतकालभावे अधापवत्तसंकमेण हाणिववहारब्भुवगमादो। हीयमाणसंकमदब्बे पमाणत्तेण घेप्पमाणे को एत्थ दोसो चे ? ण, तहावलंबिजमाणे पुचिल्लावट्ठाणदव्यादो एदस्स विसेसाहियत्तं मोत्तणासंखेजगुण. हीणत्तप्पसंगादो । णेदमसिद्धं, हीयमाणदव्यागमणटुं दिवडगुणहाणीए अधापयत्तभागहारवग्गस्स पडिभागदसणादो । तं जहा-उवसामगचरिमसमयसव्वुकस्सगुणसंकमदव्येण सहदिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धे ठविय तेसिमधापवत्तभागहारेणोबट्ठणाए कदाए आवलियोववण्णदेवस्स तप्पाओग्गुक्कस्सअधापयत्तसंकमदधमागच्छदि । पुणो तमेगभागं मोत्तण सेसबहुभागे घेत्तण अण्णेण अधापयत्तभागहारेण भागे हिदे भागलद्धमेत्तं समयाहियावलियदेवस्स हाणिसाभित्तविसयमधापवत्तसंकममदव्वं होइ । पुणो पुबिल्लदव्वादो कय सरिसच्छेदादो एदम्मि दव्वे सोहिदे सुद्धसेसदव्यमागच्छदि । तं पुण पुधसमयसंफमदव्यं अधापवतभागहारेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तं होइ । तदो सुद्धसेसदव्यागमग8 अधापरत्तभागहारवग्गो, दिवगणहाणीए पडिभागो वि सिद्धं । तम्हा सेसदबावलंबणे विरोसाहियत्तमेदस्स ण संभवदि ति अणणाहियसामित्तसमयसंकमदनमेव घेत्तण विसेसाहियत्तमेवमणुगंतव्वं । तं कधं ? अवठ्ठाणसंक्रमो णाम सत्थाणगुणिदकम्मंसियस्स तप्पाओग्गुकस्स
६७०६. क्योंकि उपशम श्रेणिमें सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमद्रव्यको संक्रमित कर तथा मरकर देवों में उत्पन्न हुए जीवके एक समय अधिक एक आवलिकाल होने पर न्यूनाधिकतासे रहित अधा प्रवृत्तसंक्रमके द्वारा हानिव्यवहार स्वीकार किया है।
शंका-हीयमान द्रव्यको प्रमाणरूपसे ग्रहण करने पर यहाँ पर क्या दोष है ?
समाधान-नहीं. क्योंकि प्रमाणके विषयरूपले अवलम्बन करने पर पहलेके अवस्थानद्रव्यसे यह विशेषाधिक न होकर संख्यातगुणा हीन प्राप्त होता है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि हीयमान द्रव्य लाने के लिए डेढ़ गुणहानि अधःप्रवृत्त भागहारके वर्गका प्रतिभाग देखा जाता है । यथा-उपशामकके अन्तिम समयमें सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रम द्रव्यके साथ डेढ़गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंको स्थापितकर उनके अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारसे भाजित करने पर देवों में उत्पन्न होनेके एक प्रावलिके अन्तमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य आता है। पुनः उसमें से एक भागको छोड़कर शेष बहुभागको ग्रहणकर अन्य अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना देवके एक समय अधिक एक आवलिके अन्तमें हानिसम्बन्धी स्वामित्वविषयक अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य होता है। पुनः पहलेके द्रव्य में से समान छेद करके इस द्रव्यके घटाने पर शुद्ध शेष द्रव्य पाता है । परन्तु वह पूर्व समयके संक्रमद्रव्यको अधःप्रवृत्तभाग हारके द्वारा भाजित करने पर वहाँ एक खण्डप्रमाण होता है, इसलिए शुद्ध शेष द्रव्यको लानेके लिए अधःप्रवृत्तभागहारका वर्ग डेढगुणहानिका प्रतिभाग होता है यह सिद्ध हुआ। इसलिए शेष द्रव्यका अवलम्बन करने पर इसका विशेष अधिकपना सम्भव नहीं है, अतः न्यूनाधिकतासे रहित स्वामित्व समयभावी संक्रमद्रव्यको ही ग्रहण कर विशेषाधिकपना ही जानना चाहिए ।
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४२७
गा० ५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो संतकम्मविसयत्तेण पडिलद्धक्कस्सभावो । हाणिसंस्मो पुण गुणिदकम्मंसियसत्थाणुकस्ससंतकम्मादो गणसंक्रमलाहबसेण सिसाहियउवसामसेविणिवंधणुकस्ससंतकम्मपडिवतो। तेण विसेसाहियतमेदस्स तत्तो ण विज्झदे, रिसाहियतकम्मविसयसंकमस्स वि तहाभावसिद्धीए विरोहाभावादो। तम्हा णिजरापरिसुद्धगुणसंकमलाहस्सासंणेजभागमेत्तविसेसाहियपमाणमिदि घेत्तव्यं । संपहि एदमेव णथमस्सिऊग बढीए विसेसाहियत्तपदुप्पायणट्ठभुत्तरसुत्तमाह।
* वड्डी विसेसाहिया।
६७०७. केत्तियमेतो एत्थ विरोसो ? खगगणसंकमलाहस्सासंखेजभागमेतो। कि कारणं ? उभयत्थ अणणाहियअधापयत्तसंकमण सामित्तपडिलंभे : समाणे संते उपसमसेढिगुणसंकमलाहादो असंखेजगणलगसंक्रमलाहमेतेणुकस्सडिविसयसंतकम्मस्स विसेसाहियत्तदंसणादो। ण च विसेसाहियसंतकम्मादो समुप्पण्णसंकमस्स विसेसाहियत्तमसि, कारणाणुसारिकजपवुत्तीए सव्यत्याडिबंधाभावादो। कारणे कजुवयारेणावट्ठाणादिसंकमणिबंधणसंतकम्माणमेवेदमप्पाबहुअमिदि वा पयदत्थसमत्थणा कायद्या, विरोहाभावादो । सव्वत्थ सुद्धसेसदव्यालंबणेणाप्पाबहुअपरूवणं कादूण एत्थ पयारंतरावलंबणे
शंका--वह कैसे ?
समाधान--स्वस्थान गुणितकर्मा शिक जीवके तत्यायोग्य उत्कृष्ट सत्कर्म विषयरूपसे जो उत्कृष्टता प्राप्त होती है वह अवस्थान संक्रम है। परन्तु गुणितकर्माशिकके स्वस्थान उत्कृष्ट सत्कर्मकी अपेक्षा गुणसंक्रमरूप लाभके कारण उपशमणिनिमित्तक विशेष अधिक उत्कृष्ट सत्कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला हानिसंक्रम है, इसलिए उससे इसका विशेष अधिकपना विरोधको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि विशेष अधिकसत्कर्मविषयक संक्रमके भी उस प्रकारसे सिद्ध होने में कोई विरोध नहीं
आता । इसलिए निर्जरा परिशुद्ध गुणसंक्रम सम्बन्धी लाभके असंख्यातवें भागमात्र विरोषाधिकका प्रमाण है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । अब इसी नया आश्रय लेकर वृद्धि के विशेष अधिकपनेका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* उससे वृद्धि विशेष अधिक होती है। ६७०७. शंका -यहाँ पर विशेष प्रमाण कितना है ?
समाधान-क्षपकके गुणसंक्रम सम्बन्धी लाभके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि उभयत्र न्यूनाधिकतासे रहित अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा स्वामित्वकी प्राप्ति समान होने पर उपशम श्रेणिमें प्राप्त हुए गुणसंक्रमविषयक लाभसे क्षपकसम्बन्धी असंख्यातगुणे संक्रमविषयक जो लाभ है उतनी वृद्धिविषयक सत्कर्ममें विशेषाधिकता देखो जाती है : और विशेष अधिक सत्कर्मसे उत्पन्न हुए संक्रमकी विशेष अधिकता असिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि सर्वत्र कारण के अनुसार कार्यकी प्रवृत्ति होनेमें कोई रुकावट नहीं है। अथवा कारणमें कार्यका उपचार कर अवस्थानादि संक्रमकारणक सत्कर्मोंका ही यह अल्पबहुत्व है ऐसा प्रकृत अर्थका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा अर्थ करनेमें विरोधका अभाव है। सर्वत्र शुद्ध शेष द्रव्यका अवलम्बन कर अल्पबहुत्वका
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
पुव्त्रावरविरोहो होह त्तिण पञ्चवट्ठेयं, जत्थ जहावलंविजमाणे सुत्तविरोहो ण होइ, तत्थ ता वक्खाणावलंबणादो। अधवा सुद्ध सेस दव्वावलंबणे वि जहा विसेसाहियत्तं ण विरुज्झदे ता वक्खायन्त्रं, सुहुमदिट्ठीए णिहालिजमाणे तत्थ विसेसाहियत्तं मोत्तण पयारंतरावलंभादो । एसो एत्थ परमत्थो । एवमोघेणुकस्सप्पा बहुअं परूविदं । एदीए दिसाए आदेसपरूवणा वि कायव्त्रा ।
तदो उकस्सप्पा बहुअं समत्तं ।
४२८
* एतो जहण्णयं ।
१७०८. एतो उवरि जहण्णयमप्पा बहुअं वत्तइस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं । तस्स दुविहो णिद्द सो ओघासभेएण । तत्थोघपरूवणा ताव कीरदे, तत्तो चैव देसामा सयमावेणादेस परूवणावगयोववत्तीदो ।
* मिच्छत्तर-सोलसकसाय- पुरिसवेद-भय-दुर्गुछाणं जहरिणया वड्डी हाणी अवद्वाणं च तुल्लाणि ।
९७०६. कुदो ? एदेसि कम्माणमेगसंतकम्मपक्खेवावलंबणेण जहण्गवड्डि- हाणिअडाणा सामित्त पडिलंभादो ।
कथन किया जाता है । किन्तु यहाँ पर प्रकारान्तरका अवलम्बन करने पर पूर्वापरका विरोध होता है सो ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि जहाँ पर जिस प्रकारसे अवलम्बन करने पर विरोध नहीं होता है वहाँ पर उस प्रकारके व्याख्यानका अवलम्बन लिया है। अथवा शुद्ध शेष द्रव्यका अवलम्बन करने पर भी जिस प्रकार विशेषाधिकपना विरोधको नहीं प्राप्त होवे उस प्रकार व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर वहाँ पर विशेपाधिकपनेको छोड़कर दूसरा प्रकार उपलब्ध नहीं होता । यह यहाँ पर परमार्थ है । इस प्रकार ओघ से उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन किया । इसी पद्धतिसे आदेश प्ररूपणा भी करनी चाहिए ।
इसके बाद उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
* आगे जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है ।
§ ७०८. इसके श्रागे जघन्य अल्पबहुत्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है । और देश के भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है । उसमें सर्व प्रथम प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि उसीके द्वारा देशामर्षकभावसे आदेश प्ररूपणाका ज्ञान हो जाता है ।
* मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तुल्य है ।
§ ७०६. क्योंकि इन कर्मों के एक. सत्कर्म प्रक्षेपका अवलम्बन करनेसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका स्वामित्व प्राप्त होता है ।
१ आ. प्रतौ एसोत्थ ता. प्रतौ, एसो [ ए ] स्थ इति पाठः । २. ता० प्रतौ मिच्छत्त [ स ] सोलस - दि० प्रतौ मिच्छत्तस्स सोग्लस - इति पाठः ।
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उत्तरपयडिपदेस कमे पदणिक्खेवो
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी ।
$ ७१०. किं कारणं ? खबिद कम्मं सियदुच रिमुव्वेल्ल णखंडयं चरिमफालीए पडिलद्धभावत्तदो ।
गा० ५८ ]
४२६
* वड्डी असंखेज्जगुणा ।
६ ७११. कुदो ? सम्मत्तस्स चरिमुव्वेन्लणखंडयपढमफालीए गुणसंकमेण जहण्णभावपडिलंभादो । सम्मा मिच्छत्तस्स विदुचरिमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालिं संका मिय सम्मत्तं पडवण्णस्स पढमसमये विज्झादसंकमेण जहण्णसामित्तदंसणादो ।
* इत्थि - णवुंसयवेद-हस्स-रह- अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा जहरिणया हाणी |
९ ७१२. किं कारणं ९ खविद कम्मंसियलक्खणेणागंतूण एइ दिएसु पलिदोवमस्स असंखेअदिभागमेत्तकालं गालिय पुणो सष्णिपंचिदिएसुप्पजिय पडिवक्खबंधगद्ध बोलाविय सगबंधपारंभादो आवलियचरिमसमये वट्टमाणस्स गलिद से सजहण्णसंत कम्म विसय, अधापवत्तसंकमेण पडिलद्धजहण्णभावत्तादो ।
* वड्ढो विसेसाहिया ।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है
1
६७१०. क्योंकि क्षपितकर्माशिक जीवके द्विचरम उद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिसे सम्बन्ध रखनेवाला इसका जघन्यपना है ।
* उससे वृद्धि असंख्यातगुणी है ।
६ ७११. क्योंकि सम्यक्त्वके अन्तिम उद्वेलना काण्डककी प्रथम फालिका गुणसंक्रम आश्रयसे जघन्यपना उपलब्ध होता है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व के भी द्विचरम उद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिको संक्रमा कर सम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें विध्यात संक्रमके द्वारा जघन्यपना देखा जाता है ।
. स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य हानि सबसे स्तोक है।
*.
६७१२. क्योंकि क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर एकेन्द्रियोंमें पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालको गलाकर पुनः संज्ञी पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होकर प्रतिपक्ष बन्धककालको बिताकर अपने बन्धके प्रारम्भ होनेके बाद एक आवलिके अन्तिम समयमें विद्यमान हुए जीवके गलकर शेप बचे जघन्य सत्कर्मविषयक श्रधः प्रवृत्तसंक्रमके आश्रयसे जघन्यपनेका सम्बन्ध पाया जाता है ।
* उससे वृद्धि विशेष अधिक है ।
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४३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ७१३. कि कारण ? पुव्युत्तेणेव कमेणागंतूण सण्णिपंचिदिएसु अप्पप्पणो पडिक्क्वबंधगद्धं गालिय सगधपारंभादो समयाहियावलियाए वट्टमाणस्स पुग्विल्लसंतादो विसेसाहियसंतकम्मविसयत्तेण पडिवष्णजहणभावत्तादो। एवमोघपरूवणा समत्ता एत्तो आदेसपरूवणा च विहासियब्वा ।
तदो पदणिक्खेशे समतो।। * वड्डीए तिरिण अणियोगदाराणि समफित्तणा सामित्तमप्पापहुभं च ।
. ६७१४. एत्तो पदेससंकमस्स. बड्डी कायचा। तत्थ समुक्त्तिणादीणि तिण्णि अणियोगद्दोराणि णादव्याणि भवंति । अण्णस्थ बढीए तेरस अणियोगाद्दाराणि कथमेत्य तेसिमंतब्भावो ? ण, देसामासयमावणेस्थ तेसिमंत भावदसणादो।
* समुकित्तणा।
६७१५. जुगमं वोत्तमसत्तीदो पढम ताव समुक्त्तिणा कायव्या ति भणिदं होइ । तत्थोघादेसमेएण दुविहणिदेससंभवे ओघसमुक्त्तिणं ताव कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ।
8 मिच्छत्तस्स अत्थि असंखेजभागवड्डिहाणी असंखेनगुणवड्डिहाणी श्रवट्ठाणमवत्तव्वयं च ।
६:१३ क्योंकि पूर्वोक्त क्रमसे ही अाकर संज्ञी पञ्चेन्द्रियों में अपने अपने प्रतिपक्ष बन्धक कालको गलाकर अपने बन्धके प्रारम्भ होनेसे लेकर एक समय अधिक एक प्रावलिके अन्तमें विद्यमान हुए जीवके पहले के सत्कर्मसे विशेष अधिक सत्कर्मके विषयरूपप्ले जघन्यपना प्राप्त होता है। इस प्रकार अंवत्ररूपमा समाप्त हुई । श्रागे श्रादेशप्ररूपणाका व्याख्यान करना चाहिए।
इसके बाद पदनिक्षेप समाप्त हुआ। * वृद्धि में तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ।
७१४. श्रागे प्रदेशसंक्रम वृद्धि करनी चाहिए । उसमें समुत्कीर्तना आदि तीन अनुयोगद्वार जानने चाहिए।
शंका-अन्यत्र वृद्धिके तेरह अनुयोगद्वार कहे हैं इनमें उनका अन्तर्भाव कैसे होता है ? समाधान--देशामर्पकभावप्ते इसमें उनका अन्तर्भाव देखा जाता है। * समुत्कीतना करनी चाहिए ।
६७१५. एक साथ सवका कथन करना शक्य न होनेसे सर्व प्रथम समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसका ओघ और प्रादेशसे दो प्रकारका निर्देश सम्भव है, उसमें सर्वप्रथम ओघ समुत्कोतना को करते हुए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं
* मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्यपद होते हैं।
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गा०५८]
उत्तरपडिपदेससंकमे समुक्कित्तणा ६७१६. मिच्छत्तपदेससंकमविसये एदाणि पदाणि संभवंति त्ति समुकितिदं होदि । संपहि एदेसि पदाणं संभवविसयो वुच्चदे । तं जहा पुव्वुप्पण्णसम्मत्तपच्छायदमिच्छाइट्ठिणा वेदयसम्मत्ते पडिवण्णे तस्स पढमावलियाए अवत्तव्यपुरस्सरो असंखेजभागवद्धिसंकमो होइ । अवट्ठाणं पि विसयंतरपरिहारण तत्थेव दट्ठव्यं, मिच्छाइद्विचरिमावलियणवकबंधवसेण तत्थ तदुभयसंभवे विरोहाभावादो। पुणो सम्मत्तं घेत्तण चिट्ठमाणस्स वेदयसम्यत्तकालभंतरे सव्वत्थेवासंखेऊभागहाणी होद्ग गच्छइ जाव दंसणमोहक्खवयअधापवत्तकरणचरिमसमयो ति । तदो अपुयाणियट्टिकरणेसु गुणसंकमवसेणासंखेजगुणवड्डिसंकमो जायदे । अण्णं च उवसमसम्मत्तग्गहणपढमसमए ‘अवत्तव्यसंकमो होदूण पुणो गणसंकमकालभंतरे सव्वत्थेवासंखेजगणवडिसंकमो होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो । पुणो तत्थेव गणसंक्रमादो विज्झादपदिदपढमसमयम्मि असंखेजगुणहाणी जायदे । तत्तो परमसंखेजभागहाणी चेव एवमेदेसि संभवो अस्थि ति कादण तेसिमेत्थ समुक्त्तिणा कदा ।
® एवं बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं ।
६७१७. जहा मिच्छत्तस्स असंखेजभागवतिहाणि-असंखेजगुणवतिहाणिअवट्ठाणाणमवत्तव्यसहगयाणमत्थित्तं समुक्कित्तिदं एवमेदेसि पि कम्माणं समुकित्तेयध्वं, विसेसा
६७१६. मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम होने पर ये पद सम्भव है यह कहा गया है। अब ये पद किस विषयमें सम्भव हैं यह कहते हैं। यथा-जो पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न कर मिथ्यादृष्टि हुया है उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करने पर उसकी प्रथम आवलिमें अवक्तव्य संक्रमपूर्वक असंख्यात भाग वृद्धि संक्रम होता है । विषयान्तरका परिहार कर अवस्थित पद भी वहीं पर जानना चाहिए, क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम आवलिमें हुए नवकबन्धके कारण वहाँ पर उन दोनोंके सम्भव होने में विरोध नहीं है। पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण कर ठहरे हुए जीवके वेदकसम्यक्त्वके कालके भीतर सर्वत्र असंख्यातभाग हानि होकर जाती है जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के अन्तिम समय तक होती है। उसके बाद अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणसंक्रमके कारण असंख्यातगुण वृद्धिसंक्रम होता है। दूसरे उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रम होकर पुनः गुणसंक्रमके कालके भीतर सभी जगह असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । पुनः वहीं पर गुणसंक्रमसे विध्यातसंक्रममें आने पर उसके प्रथम समयमें असंख्यातगुणहानि संक्रम होता है। उसके बाद असंख्यातभाग हानिसंक्रम ही होता है । इस प्रकार ये संक्रम सम्भव हैं ऐसा करके उनकी यहाँ पर समुत्कीर्तना की है।
* इसी प्रकार बारह कपाय, भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए।
६ ७१७. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुण. वृद्धि, असख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके साथ प्राप्त हुए संक्रमोंके अस्तित्वकी समुत्कीर्तना की उसी प्रकार इन कर्मों के उक्त संक्रमांकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए, क्योंकि कोई
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४३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ भावादो । णरि तेसिं विसयविभागो एवमणुगंतव्यो । तं जहा–असंखेजभागवडि-हाणि अट्ठाणाणि सत्थाणे सव्वत्थ चे पयदकम्माणं होंति, तेसिं तत्थ पडिबधामावादो। अणंताणुबंधीणमसंखेजगुणवड्डी विसंजोयणाए अपुवाणियट्टिकरणेसु होइ विज्झादसंकमादो मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए वि असंखेजगुणवढी लन्भदे, तेसिं चेवासंखेजगुणहाणी अधापवत्तसंकमादो सम्मत्तं घेत्तण विज्झादसंक्रमे पदिदपढमसमये होइ, तत्थासंखेजगुणहाणि मोत्तण पयारंतराणुवलंभादो। अवत्तव्यसंकमो वि तेर्सि विसंजोयणापुव्वसंजोगादो आवलियादीदस्स पढमसमये होदि ति वत्तव्वं । अट्ठकसाय-भय-दुगुछाणं चरित्तमोहक्खवणाए कसायोवसामणाए च गुणसंकमण संकामेमाणस्स असंखेजगुणवडी होइ । तेसिं
चेव उवसमसेढीए गुणसंकमादो कालं कादण देवेसुप्पण्णपढमसमये अधापवत्तसंकमेणासंखेजगुणहाणी होइ । अण्णं च अट्ठकसायाणमधापवत्तसंकमादो संजमं संजमासंजमं वा पडिवजिय विज्झादसंकमे पदिदस्स पढमसमये असंखेजगुणहाणी होइ । एदेसि चेव विज्झादसंकमादो हेडिमगुणट्ठाणपडिवादेण अधोपवत्तसंकमण परिणदस्स पढमसमए असंखेजगुणवड्डी होइ ति वत्तव्वं । अवत्तव्यसंकमो पुण सजेसिमेव सयोसामणपडिवादपढमसमए होइ ति घेत्तव्यं ।।
विशेषता नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनका विषयविभाग इस प्रकार जानना चाहिए। यथा-प्रकृत कर्मों के असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थानसंक्रम स्वस्थानमें ही होते हैं, क्योंकि उनके वहाँ होनेमें कोई रुकावट नहीं है। अनन्तानुबन्धियोंका असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम विसंयोजनाके समय अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें होता है। विध्यातसंक्रमसेमिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रथम समयमें भी असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम प्राप्त होता है । तथा उन्हींका असंख्यातगुणहानिसंक्रम अधःप्रवृत्तसंक्रमके साथ सम्यक्त्वको ग्रहणकर विध्यातसंक्रमके प्राप्त होनेके प्रथम समयमें होता है, क्योंकि यहाँ पर असंख्यातगुणहानिको छोड़कर अन्य प्रकार नहीं उपलब्ध होता । अवक्तव्यसंक्रम भी उनका विसंयोजनापूर्वक संयोग होकर जिसका एक आवलिकाल गया है ऐसे जीवके प्रथम समयमें होता है ऐसा करना चाहिए । आठ कषाय, भय और जुगुप्साका चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें और कषायों की उपशामनामें गुणसंक्रमके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है । उन्हींका उपशमश्रेणिमें गुणसंक्रमके साथ मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है। दूसरे अधःप्रवृत्तसंक्रमसे संयम और संयमासंयमको प्राप्त करके विध्यातसंक्रममें पड़े हुए जीवके प्रथम समयमें आठ कषायोंका असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है । तथा इन्हीं का विध्यातसंक्रमसे नीचेके गुणस्थानोंमें गिरनेसे अधःप्रवृत्तसंक्रमरूपके परिणत हुए जीवके प्रथम समयमें असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है ऐसा कहना चाहिए । परन्तु अवक्तव्यसंक्रम सभी कर्मों का सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
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उत्तरपयडिपदेससंकमे समुक्तिणा
* एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि, वरि अवद्वाणं णत्थि ।
७१८. सम्मामिच्छत्तस्स वि एवं चेत्र समुक्कित्तणा कायन्त्रा, असंखेजभाग
- दिपदा मत्थित्तं पडि विसेसाभावादो । विसेसो दु सम्मामिच्छतस्सावट्ठाणकमो णत्थि ति णायव्वो । संपहि एदेसिं पदाणं संभवविसयो परूविजदे । तं जहा - उवसमसम्माइट्ठिम्मि गुणसंकमादो विज्झादे पदिदम्मि तब्बिदियसमयप्यहुडि जाव उवसमसम्मत्तकालो ताव णिरंतरमसंखेज्जभागवडी चैत्र होइ । किं कारणं, वयादो तत्थायाहियत्तदंसणा दो । तं जहा - देवड्डुगुणहाणिमेत्त समयपबद्धेषु गुणसंकमभागहारेण विज्झादभागहारपदुप्पण्णेणोवट्ठिदेसु सम्मामिच्छत्तादो ससम्मत्तं गच्छमाणदव्वं होइ । एसो सम्मामिच्छत्तस्स वयो | आयो वुण एत्तो असंखेजगुणो, विज्झादभागहारेण मिच्छत्तसयलदुव्वे खंडिदे तत्थेयखंडपमाणतादो । जदो एवं तदो आयादो वये परिसोहिदे सुद्ध सेसमेत्तेण सगमूलदव्त्रस्सा संखेञ्ज दिभागभूदेण पडिसमयसम्मामिच्छत्तसंतकम्मस्स तत्थ व होइ ति तदणुसारिणो संकमस्स वि तहाभावोववत्तीदो सिद्धमसंखेज भागवडिविसयो एसो. ति । जइ एवं भुजगाराणियोगद्दारे एसो वि विसयो भुजगार संकमस्स कायव्वो । च सुते तहा परूवणा अत्थि, उब्वेन्ळणाचरिमखंडयसम्मत्तप्पत्तिगुण संकमदंसणमोहक्खागगुणसंकमविसय तेण तत्थ तिसु अद्धासु भुजगारसा मित्तस्स णियामिदत्तादो ।
गा० ५८
४३३
* इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका अवस्था संक्रम नहीं होता ।
७१८. सम्यग्मिथ्यात्वकी भी इसी प्रकार समुत्कीर्तना करनी चाहिए क्योंकि असंख्यात - भागहानि और असंख्यात भागवृद्धि आदि पदों के अस्तित्त्रके प्रति कोई विशेषता नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थानसंक्रम नहीं होता ऐसा जानना चाहिए । अब - इन पदोंका सम्भव विषय कहते हैं। यथा-उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके गुणसंक्रमसे विध्यातसंक्रम में आने पर उसके दूसरे समय से लेकर उपशमसम्यक्त्वके कालतक निरन्तर असंख्यात भागवृद्धिसंक्रम ही होता है, क्योंकि व्ययकी अपेक्षा वहाँ पर आयकी अधिकता देखी जाती है । यथा- विध्यातसंक्रमभागहारसे गुणित गुणसंक्रमभागहारके द्वारा डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंके भाजित करने पर सम्यग्मिध्यात्वमें से वह सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला द्रव्य होता है । यह सम्यग्मिथ्यात्वका व्यय है । परन्तु आय इससे असंख्यातगुणा है, क्योंकि विष्यात भागहारके द्वारा मिथ्यात्व के समस्त द्रव्यके भाजित करने पर वह एक खण्डप्रमाण होता है। यदि ऐसा है तो श्रयमेंसे व्ययके कम कर देने पर अपने मूल द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण शुद्ध शेष द्रव्यके श्राश्रयसे प्रत्येक समयमें वहीँ सम्यग्मिथ्यात्व सत्कर्मकी वृद्धि होती है, इसलिए उसका अनुसरण करनेवाला संक्रम भी उसी प्रकार बन जानेसे असंख्यात भागवृद्धिका विषयभूत यह सिद्ध हुआ ।
शंका- यदि ऐसा है तो भुजगार अनुयोगद्वार में भुजगार संक्रमका यह विषय भी कहना चाहिए। परन्तु सूत्र में उस प्रकारको प्ररूपणा नहीं है, क्योंकि उद्वेलनाका अन्तिम खण्ड, सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय होनेवाला गुणसंक्रम और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के समय होनेवाला
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४३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ तदो पुव्यावरविरुद्धमेदं ति ?ण एस दोसो, असंखेजगुणवडिभुजगारस्स तत्थ पहाणभावेण विवक्खियत्तादो । ण च एसो भुजगारविसयो तत्थ ग विवक्खिओ त्ति एदस्सोभावो वोत्तसकिञ्जदे, अप्पिदाणप्पिदसिद्धीए सव्वत्थ पडिसेहाभावादो । अधवा एदम्मि विसये अप्पयरसंकमो चेवे ति सुत्तयाराहिप्पाओ। कुदो एदं णव्वदे १ सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकमस्स सादिरेयछावहिसागरोवमकालपरूवयसुत्तादो । अण्णहा देसूणछावहिसागरो. वमकालप्पसंगादो। एवं च संते सम्मामिच्छत्तस्सासंखेजभागवहिविसओ का होइ ति पुच्छिदे मिच्छत्तं गंतूण अधापवत्तसंकमं कुणमाणस्स सम्मत्ताहिमुहावत्थाए अंतोमुहुत्तकालभतरे परिणामवसेण असंखेजभागवदिविसयो घेत्तव्यो । तत्थासंखेजभागवड्डी होइ त्ति कुदो णबदे १ सम्मामिच्छत्तकस्सहाणि सामित्तसुत्तादो। एवमेसो असंखेजभागवडिविसयो अणुमग्गिदो। असंखेजभागहाणि-अवत्तव्यविसयो पुण मिच्छत्तभंगेणावगंतव्यो, विसेसाभावादो । णवरि मिच्छाइडिम्मि वि जाव उव्वेन्लणादुचरिमखंडयचरिमफालि ति ताव असंखेजभागहाणिविसयो वत्तव्यो ।
गुणसंक्रम इन तीनोंके विषयरूपसे वहाँ पर तीनों कालोंमें भुजगारके स्वामित्वका नियम किया है। इसलिए यह पूर्वापर विरुद्ध है ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ पर असंख्यातगुणवृद्धि भुजगारकी प्रधान रूपसे विवक्षा की है। यह भुजगारका विषय वहाँ पर विवक्षित नहीं है, इसलिए इसका अभाव कहना शक्य नहीं है, अर्पित और अनर्पित रूपसे सिद्धि होती है इसका सर्वत्र प्रतिषेधका अभाव है । अथवा इस विषयमें अल्पतरसंक्रम ही होता है ऐसा सूत्रकारका अभिप्राय है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतरकाल साधिक छयासठ सागर प्रमाण कथन करने वाले सूत्रसे जाना जाता है। अन्यथा कुछ कम छयासठ सागर कालका प्रसंग प्राप्त होता है।
ऐसा होने पर सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातभागवृद्धिसंक्रमका विषय क्या है ऐसा पूछने पर मिथ्यात्वमें जाकर अधःप्रवृत्तसंक्रम करनेवाले जीवके सम्यक्त्वके अभिमुख होने की अवस्था होने पर अन्तर्मुहूर्तकालके भीतर परिणामवश असंख्यातभागवृद्धिका विषय प्रहण करना चाहिए।
शंका-वहाँ पर असंख्वातभागवृद्धिसंक्रम होता है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान- सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानिका कथन करनेवाले स्वामित्वविषयक सूत्रसे जाना जाता है। . इस प्रकार यह असंख्यातभागवृद्धिका विषय जानना चाहिए । परन्तु असंख्यातभागहानि और अवक्तव्यसंक्रमका विषय मिथ्यात्वके भंगके समान जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें भी जब तक उद्वेलना द्विचरम काण्डककी अन्तिम फालि है तब तक असंख्यातभागहानिका विषय कहना चाहिए।
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गा०५८] ___ उत्तरपयडिपदेससंकमे समुकित्तणा
४३५ ७१६. संपहि असंखेजगुणवडिविसयो वुच्चदे । तं जहा—उव्वेन्लणसंकमादो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमये विज्झादसंकमादो मिच्छत्तं पडिवण्णसम्माइद्विपढमसमये वा सम्वं हि चेत्र चरिमुवेलणखंडए वा सम्मत्तप्पत्तिगुणसंकमकालभंतरे दसणमोहक्खवणगुणसंकमकालभंतरे वा असंखेजगुणवड्डी होइ । गुणसंकमादो विज्झादसंकमे पदिदसम्माइडिपढमसमए अधापवत्तसंकमादो विज्झादे पदिदसम्माइटिपढमसमए उव्वेन्लणाए परिणदमिच्छाइटिपढमसमए वा असंखेजगुणहाणिसंकमो होइ । .
सम्मत्तस्स असंखेजभागहाणि-असंखेनगुणवड्डी हाणो अवत्तव्वयं च अस्थि ।
६ ७२०. उव्वेल्लेमाणमिच्छाइट्ठिम्मि जाव दुचरिमद्विदिखंडयो ति ताव असंखेजभागहाणिसंकमो चरिमुवेल्णखंडए असंखेजगुणवाहिसंकमो अधापवत्तसंकमादो उव्वेन्लणपरिणाममुवगयमिच्छाइद्विपढमसमए असंखेजगुणहाणिसंकमो सम्मत्तादो मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए अवत्तसंकमो ति चउण्हमेदेसि पदाणमेत्थ संभवो ण विरुज्झदे ।
* तिसंजलणपुरिसवेदाणमत्थि पत्तारि वड्ढी चत्तारि हाणीयो प्रवट्ठाणमवत्तव्वयं च ।
६७१६. अब असंख्यातगुणवृद्धिका विषय कहते हैं । यथा-उद्वेलना संक्रमसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अथवा विध्यातसंक्रमसे मिश्यात्वको प्राप्त होनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके प्रथम समयमें अथवा सम्पूर्ण अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें, सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होने पर गुणसंक्रम कालके भीतर अथवा दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें गुणसंक्रम कालके भीतर असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम होता है । तथा गुणसंक्रमसे विध्यातसंक्रममें आये हुए सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें, अधःप्रवृत्तसंक्रमसे विष्यातसंक्रममें आये हुए सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें अथवा उद्वेलनासक्रमरूपसे परिणत हुए मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयमें असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है।
* सम्यक्त्वका असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अबक्तव्यसंक्रम होता है।
६७२०. उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टिके जब तक द्विचरम स्थितिकाण्डक है तब तक असंख्यातभागहानिसंक्रम, अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें असंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम, अधःप्रवृत्तसंक्रमसे उद्वेलनापरिणामको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम समयमें असंख्यातगुणहानिसंक्रम और सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रम होता है इस प्रकार इन चारों पदोंका सम्भव यहाँ पर विरोधको प्राप्त नहीं होता।
___ * तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रम होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६
§ ७२१. एत्थ तिसंजलणग्गहणेण लोहसंजलणवजियानं तिन्हं संजलणाणं गहणं काय, लोहसंजलणस्स उवरिमसुत्ते समुत्तिणादो । एदेसिं तिसंजलण - पुरिसवेदाणमत्थि चव्हाओ वी-हाणीओ अवट्ठाणमवत्तव्त्रयं च । कुदो ? संसारावत्थाए सव्वत्थासंखेजभाग- हाणि अडाणामुवलंभादो | चिराणसंतकम्मचारिमफालीए तदणंतरसमयभाविणवकबंधसंकमे च जहाकममसंखेजगुणवदिहाणिसंकमाणमुवलंभादो । तत्थेव णवकबंधसंकमे वावदस्स जोगविसेसमस्सिऊण संखेजभागवडि-हाणि संखेजगुणव-हाणीणं संभवो वलंभादो | एत्थेव सेसवड- हाणि अवाणाणं पि संभवदंसणादो च । णबरि पुरिसवेदावडाणस्स भुजगारभंग । सव्वोवसामणापडिवादे सव्वेसिमवत्तव्यसंभवो दट्ठव्वो ।
* लोहसंजलणस्स अस्थि असंखेज्जभागवड्डी हाणी अवद्वाणमवतव्वयं च
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§ ७२२. कुदो १ सेसवडि-हाणीणमेत्थासंभवो ९ ण, लोहसंजलणविस अधापवत्तसंकर्म मोत्तणण्णसंकमाभावेण सुद्धणवक बंधसंकमाभावेण च तदभावणिण्णयादो । तम्हा लोहसंजणस्स असंखेजभाणवड्डि- हाणि - अवट्ठाणसंकमा चेत्र, णाण्णो संकमो त्ति सिद्धं । वरि सोवसामणापडिवादम स्सिऊणावत्तव्वसंकमो समुक्कित्तियन्त्रो !
७२१. यहाँ पर तीन संब्वलनोंके ग्रहण करनेसे लोभसंज्वलन को छोड़कर शेष तीन संज्वलनका प्रण करना चाहिए, क्योंकि लोभसंज्वलन की आगे सूत्र में समुत्कीर्तना की है। इन तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी चार प्रकारकी वृद्धियाँ, चार प्रकारकी हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्यपद हैं, क्योंकि संसार अवस्थामें सर्वत्र असंख्यात भागवृद्धि, संभागहानि और स्थान संक्रम उपलब्ध होते हैं । तथा प्राचीन सत्कर्मकी अन्तिम फालिसें और तदनन्तर समयमें होनेवाले नवकबन्धसम्बन्धी संक्रममें क्रमसे श्रसंख्यातगुणवृद्धिसंक्रम और असंख्यातगुणहानि संक्रम उपलब्ध होते हैं । तथा वहीं पर नवकबन्धके संक्रममें व्याप्त हुए जीवके योग विशेषका आश्रय कर संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिसंक्रम सम्भव रूपसे उपलब्ध होते हैं और वहींपर शेष वृद्धि, हानि और अवस्थान संक्रम सम्भव रूपसे देखे जाते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि पुरुष वेदके अवस्थान संक्रमका भंग भुजगारके समान जानना चाहिए । तब सर्वोपशामना से गिरते समय सबका अवक्तव्य संक्रम जानना चाहिए ।
* लोभसंज्वलनकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थान और अवक्तव्य संक्रम है ।
६ ७२२. शंका – यहाँ पर शेष वृद्धियाँ और हानियाँ असम्भव क्यों हैं ?
समाधान — नहीं, क्योंकि लोभसंज्वलन के विषय में अधःप्रवृत्तसंक्रमको छोड़कर अन्यसंक्रम सम्भव न होनेसे तथा शुद्ध नवकबन्धके संक्रमका अभाव होनेसे शेष वृद्धियों और हानियोंके अभाव का निर्णय होता है । इसलिए लोभसंज्वलनके असंख्यात भागवृद्धिसंक्रम, असंख्यात भागहानिसंक्रम स्थानक्रम ही होते हैं, अन्यसंक्रम नहीं होता यह सिद्ध हुआ । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वोपशामना से प्रतिपातका आश्रयकर अवक्तव्यसंक्रमकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे समुक्त्तिणा
४३७. ___ 8 इत्यि-णवुसयवेद-हस्स-रह-अरह-सोगाणमत्थि दो वड्डी हाणीओ प्रवत्तव्वयं च ।
७२३. कुदो ? एदेसु कम्मेसु असंखेजभागवहि-हाणि-असंखेजगुणबड्डि-हाणिअवत्तव्वसंकमाणं चेव संभवदंसणादो । तं कधं, एदेसि कम्माणं सगबंधकाले आवलियादीदस्स असंखेजभागवहिसंकमो चेव जाव पडिवक्खबंधगद्धापढमावलियचरिमसमओ ति । पुणो पडिवक्खबंधकाले सव्वत्थासंखेजभागहाणिसंकमो चेव, तत्थ पयारंतरासंभवादो। खवगोवसमसेढीसु गुणसंकमबसेणासंखेजगुणवहिसंकमो उवसामगस्य गुणसंक्रमादो कालं कादूर्ण देवेसुप्पण्णस्स पढमसमए असंखेजगुणहाणिसंकमो होइ । णवरि इत्थि-णवंसयवेदाणमण्णत्थ वि असंखेजगुणवहि-हाणीओ संभवंति, सम्माइडिम्मि मिच्छत्तं पडिवण्णे मिच्छाइट्ठिम्मि वि सम्मत्तगुणेण परिणदम्मि जहाकम तदुभयसंभवदंसणादो। सबोवसामणापडिवादे च सव्वेसिमवत्तव्यसंभवो दट्ठव्यो । एवं सम्बेसि कम्माणमोघसमुकित्तणा गयो । एत्तो आदेससमुकित्तणा च जाणिय णेयव्वा ।
___ तदो समुक्त्तिणा समत्ता । ® सामित्ते अप्पाषहुए च विहासिदे वड्डी समत्ता भवदि ।
* स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकके दो वृद्धि, दो हानि और अवक्तव्यसंक्रम होते हैं।
६७२३. क्योंकि इन कर्मों में असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, असंख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यसंक्रम ही सम्भव देखे जाते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान -क्योंकि इन कर्मों के नवकबन्धके कालमें एक आवलिके.बाद असंख्यातभागवृद्धिसंक्रम ही होता है जो प्रतिपक्षबन्धक कालकी प्रथम प्रावलिके अन्तिम समय तक होता हैं। पुनः प्रतिपक्ष बन्धक कालके भीतर सर्वत्र असंख्यातभागहानिसंक्रम ही होता है, क्योंकि यहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । क्षपक और उपशमनेणियोंमें गुणसंक्रमके कारण असंख्यात गुणवृद्धिसंक्रम होता है। उपशामक जीवके गुणसंक्रमसे मरकर देवोंमें उत्पन्न होने पर प्रथम समयमें असंख्यातगुणहानिसंक्रम होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके पन्यत्र भी असंख्यातगणवृद्धिसंक्रम और असंख्यातगुणहानिसंक्रम सम्भव है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवके मिश्यात्वको प्राप्त होनेपर तथा मिथ्यादृष्टि जीवके भी सम्यक्त्वगुणरूपसे परिणत होनेपर क्रमसे वे दोनों संक्रम सम्भव देखे जाते हैं। सर्वोपशामनासे गिरने पर सभी कर्मों का अवक्तव्यसंक्रम सम्भव देखा जाता है । इस प्रकार सब कर्मों की ओघसमुत्कीर्तना समाप्त हुई । आगे आदेशसमुकीर्तना जानकर कर लेनी चाहिए।
इसके बाद समुत्कीर्तना समाप्त हुई। * स्वामित्व और अन्पहत्वका व्याख्यान करने पर वृद्धि समाप्त होती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
६७२४. तो समुत्तिणाणुसारेण सामित्ते अप्पा बहुए च विहासिदे तदो बड़ी समपदित्ति भणिदं होइ । जेणेदं देसामासयसुतं तेणेत्थ कालादिअणियोगद्दाराणं पि विहासणा सुतविद्धाति दट्ठव्त्रा । तदो दव्त्रयिणयावलंबणेण पयट्टस्सेदस्स सुत्तस्स पञ्जवट्ठिय परूवणा जाणिदूण दव्त्रा ।
तो वst समत्ता |
४३८
* एन्तो द्वाणाणि ।
१७२५. एतो उवरि पदेससंकमट्टणाणि परूवेयव्त्राणि त्ति भणिदं होइ । संपहि तत्थ संभवताणमणियोगद्दारा णमियत्त । वहा रणदुमुत्तरमुत्तं भणइ ।
* पदेससंकमद्वाणाणं परूवणा अप्पाबहुअं च ।
६ ७२६. एवमेदाणि दोणि आणिओगद्दाराणि । पदेससंकमट्ठा णसरूवजाणावणमेत्थ परूवेयव्त्राणि त्ति भणिदं होइ । समुत्तिणा परूवणापमाणम अप्पा बहुअं चेदि चत्तारि अणियोगाद्दाराणि किमेत्थ ण वृत्ताणि १ ण, समुत्तिणाए परूवर्णतन्भावादो । पमाणाणिओगद्दारस्स वि अप्पा बहुअंतभूदत्तादो । तत्थ परूत्रणा णाम सव्त्रकम्मे पदेससंकमाणामुपपत्तिकमणिरूवणा । तेसिं चेव पमाणविसयणिण्णयजणणङ्कं थोवबहुत्त परिक्खा अप्पा हुमिदि भदे |
६ ७२४. आगे समुत्कीर्तना के अनुसार स्वामित्व और अल्पबहुत्वका व्याख्यान करने पर इसके बाद वृद्धि समाप्त होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यतः यह देशामर्धक सूत्र है अतः यहाँ पर कालादि अनुयोगद्वारोंका भी व्याख्यान सूत्र निबद्ध है ऐसा जानना चाहिए । इसलिए द्रव्यार्थिकनका अवलम्बन कर प्रवृत्त हुए इस सूत्रकी पर्याया थिंक प्ररूपणा जानकर ले जानी चाहिए । । इसके बाद वृद्धि समाप्त हुई ।
* आगे संक्रमस्थानों का प्रकरण है ।
६ ७२५. इससे आगे प्रदेश संक्रमस्थानोंका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस प्रकरण सम्भव अनुयोगद्वारों के प्रमाणका निर्धारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* प्रदेश संक्रमस्थानोंके प्ररूपणा और अल्पबहुत्व इस प्रकार ये दो अनुयोग
द्वार हैं ।
६ ७२६. प्रदेशसंक्रम स्थानोंके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए यहाँ पर कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका - समुत्कीर्तना, प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इस प्रकार चार अनुयोगद्वार यहाँ पर क्यों नहीं कहे ?
समाधान नहीं, क्योंकि समुत्कीर्तनाका प्ररूपणा में अन्तर्भाव हो जाता है । तथा प्रमाण अनुयोगद्वारका भी अल्पबहुत्वमें अन्तर्भाव हो गया है।
1
प्रकृत सब प्रदेश संक्रमस्थानोंकी उत्पत्तिके क्रमका निरूपण करना प्ररूपणा है । उन्हीं के प्रमाणविषयक निर्णयका ज्ञान कराने के लिए थोड़े बहुतकी परीक्षा करना अल्पबहुत्व कहा जाता है।
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गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणं ॐ परूवणा जहा।... ६७२७. परूवणाणिओगद्दारं कथं होइ ति पुच्छा एदेण कदा होइ ।
®मिच्छत्तस्स अभवसिद्धियपाओग्गेण जहएणएण कम्मेण जहएणयं संकमट्ठाणं।
६ ७२८. एदेण सुत्तेण मिच्छत्तस्स जहण्णसंकमट्ठाणपरूवणा कदा । तं जहाअभवसिद्धियपाओग्गजहण्णकम्मेणे ति वुत्ते एईदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्महिदिमच्छिऊण संचिदजहण्णसंतकम्मस्स गहणं कायव्वं, तत्तो अण्णस्स अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मस्साणुवलद्धीदो । एदेण जहण्णकम्मेण सबजहण्णसंकमट्ठाणं समुप्पजदि ति ऐसो विसेसो एत्थाणुगंतव्यो। तं कधं ? एदेण जहण्णकम्मेणागंतूण असण्णिपंचिदिएसुववञ्जिय पजत्तयदो होदूण तत्थ देवाउअंबंधिय सबलहुंकालं कोण देवेसुक्वजिय छहिं पजत्तीहिं पजत्तयदो होदूण पढमसम्मत्तमुप्पाइय तदो वेदयसम्मत्तं पडिवजिय वेछावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिय तदवसाणे अंतोमुहुत्तसेसे दसणमोहक्खवणाए अब्भुट्टिदो जो जीवो तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमये वट्टमाणस्स जहण्णपरिणामणिबंधणविज्झादसंक्रमेण सबजहण्णपदेससंकमट्ठाणं होइ। कधमेसो विसेसो
* प्ररूपणा, यथा । ६७२७. प्ररूपणा अनुयोगद्वार किस प्रकारका है यह पृच्छा इस सूत्र द्वारा की गई है।
* मिथ्यात्वका अभव्योंके योग्य जघन्य कर्मके आश्रयसे जघन्य संक्रमस्थान होता है।
६७२८. इस सूत्र द्वारा मिथ्यात्वके जघन्य संक्रमस्थानकी प्ररूपण की गई है। यथअभव्योंके योग्य जघन्य कर्मके आश्रयसे ऐसा कहने पर एकेन्द्रियोंमें क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे कर्मस्थितिकाल तक अवस्थित रहकर सञ्चित हुए जघन्य सत्कर्मका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उससे अन्य अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म नहीं उपलब्ध होता। इस जघन्य सत्कर्मके आश्रयसे सबसे जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है इस प्रकार इतना विशेष यहाँ पर जान लेना चाहिए।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-इस जघन्य कर्मके साथ आकर, असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर तथा पर्याप्त होकर पुनः वहाँ देवायुका बन्धकर अतिशीघ्र मरकर और देवोंमें उत्पन्न होकर तथा छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर इसके बाद प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर दो छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वका पालन कर उसके अन्तमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर जो जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हा है उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान होने पर जघन्य परिणामनिमित्तक विध्यातसंक्रमरूपसे सबसे जघन्य प्रदेश संक्रमस्थान होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
सुतेावो परिछजदे ?ण, वक्खाणादो विसेसपडिवत्ती होइ ति णायबलेण तदुवलदो | अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णकम्मेणे त्ति ऐदस्स विसेसणस्स उवलक्खणभावेण अवट्ठिदत्तादो च । तम्हा तहाभूदेण जहण्णसंतकम्मेणोवलक्खियस्स जीवस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयजहण्णपरिणामेण मिच्छत्तस्स जहण्णपदेससंक्रमट्ठाणं होइ ति सिद्धों सुत्तत्थो ।
४४०
६७२६. संपहि एवंभूदजहण्गसंतकम्मपडिबद्धजहण्णसंकमट्ठाणस्स पुत्रमवहारिदावा काढूण तो अजहण्णसं कमट्ठाणाणं परूवणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो ।
* प्रतहि चैव कम्मे असंखेज्जलो गभागुत्तरं संकमट्ठाणं होइ ।
९७३०. एत्थ ताव संकमट्ठाणाणं साहणङ्कं तकारणभूद परिणाम णाणं परूवणं कस्साम । तं जहा - अधापवत्तकरणचरिमसमए असंखेज लोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणि अत्थि । ताणि च जहण्णपरिणामप्पहुडि जानुकस्सपरिणामो ति ताव छवडिकमेणावट्टिदाणि सिमाददोपहुड असंखेज लोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणि सव्त्रपरिणामट्ठाणपंतिआयामस्सासंखेज्जभागपमाणाणि परिणमिय जहण्णसंतकम्मं संकामेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणमेवुप्पञ्जदि, विसरिस संक महागुप्पत्तीए तेसिमणिमित्ततादो । तदो एत्थ बिदियादिपरिणामट्ठाणाणमवणवण काढूण जहण्णपरिणामट्ठास्सेव गहणं कायव्वं । पुणो तदणंतरोवरिमपरिणामप्प
शंका- सूत्रमें नहीं कहा गया यह विशेष कैसे जाना जाता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि व्याख्यान से विशेष प्रतिपत्ति होती है इस न्याय के बलसे उसकी उपलब्धि होती है । तथा अभव्योंके योग्य जघन्य कर्मके श्राश्रयसे यह विशेषण उपलक्षणरूपसे अवस्थित है, इसलिए उक्त प्रकारके जघन्य सत्कर्मके युक्त जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में जघन्य परिणाम से मिथ्यात्त्रका जघन्य प्रदेशसंक्रमस्थान होता है यह सूत्रका अर्थ सिद्ध हुआ ।
६७२६. अब जिसके स्वरूपका पहले अवधारण किया है ऐसे जघन्य सत्कर्म से सम्बन्ध रखनेवाले जघन्य संक्रमस्थानका अनुवाद करके आगे अजघन्य संक्रमस्थानोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध श्राया है
* उसी कर्म में असंख्यात लोक प्रतिभाग अधिक दूसरा संक्रमस्थान होता है ।
§ ७३०. यहाँ पर सर्व प्रथम संक्रमस्थानोंकी सिद्धि करनेके लिए उनके कारणभूत परिणाम • स्थानोंका कथन करेंगे । यथा - श्रधः प्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें असंख्यात लोकमात्र परिणामस्थान होते हैं । वे जघन्य परिणामसे लेकर उत्कृष्ट परिणाम तक छह वृद्धिक्रमसे अवस्थित हैं। उनके प्रारम्भसे लेकर जो असंख्यात लोकप्रमाण. परिणामस्थान हैं जो कि सब परिणामस्थान पंक्तिके श्रायामके असंख्यातवें भागप्रमाण है उन्हें परिणमाकर जघन्य सत्कर्मका संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान ही उत्पन्न होता है, क्योंकि वे परिणाम विसदृश संक्रमस्थानकी उत्पत्ति निमित्त नहीं हैं । इसलिए यहाँ पर द्वितीय आदि परिणामस्थानोंका अपनयन कर जघन्य परिणाम स्थानका ही ग्रहण करना चाहिए। पुनः तदनन्तर उपरिम परिणामसे लेकर असंख्यात लोकमात्र
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गा०५८] उत्तरपब्पिदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४४१ हुडि असंखेजलोगमेतपरिणामट्ठाणेहि परिणमिय संकामेमाणस्स अण्णमपुणरुत्तमसंखेजलोगभागुत्तरसंकमट्ठाणमुप्पजदि ति । एत्थ वि पुवं व विदियादि-परिणामपञ्चागेण जहण्णपरिणामट्ठाणस्सेव संगहो कायव्यो । णवरि पुविन्लजहण्णपरिणामट्ठाणादो संपहियजहण्णपरिणामट्ठाणमणंतगुणमहियमसंखेजलोगमेतछटाणाणि, तत्तो समुन्लंघिय एदस्सावट्ठाणदंसणादो। एवमेदेण विहिणा सेसपरिणामट्ठाणेसु असंखेजलोगमेतद्धाणं गंतूण एगेगपरिणामट्ठाणपुणरुत्तसंकमट्ठाणुप्पत्तिणिमित्तमुवलन्मइ ति तहाभूदाणं चेव परिणामट्ठाणाणमुच्चिणिदण गहणं कायव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमयसव्यपरिणामडाणाणि णिट्ठिदाणि ति । एवमुच्चिणिदण गहिदासेसपरिणामट्ठाणाणमण्णोण्णं पेक्खिऊणार्णतगुगब्महियकमेणावहिदाणमवद्विदपक्खेवुत्तरकमेणासंखेज लोगमागुत्तरविसरिससंकमहाणुप्पत्तिणिमित्तभूदाणं पमाणमसंखेजा लोगा।
६७३१. संपहि एदेखि परिणामट्ठाणाणमधापवत्तकरणचरिमसमये कमेण रचणं कादण णाणाकालमस्सिऊण णाणाजीवेहि परिवाडीए परिणमाविय सुत्ताणुसारेण पढमसंकमट्ठाणपरिवाडिपरूवणं कस्सामो । तं जहा–अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि सबजहण्णपरिणामट्ठाणं परिणमिय पुवणिरुद्धजहण्णसंतकम्मं संकमेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । पुणो एदं चेव जहण्णसंतकम्ममधापवत्तकरणचरिमसमयविदियपरिणामट्ठाणेण१ परिणमिय परिणाम स्थानोरूपसे परिणमन कर संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यात लोक भाग अधिक अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । यहाँ पर भी पहलेके समान द्वितीयादि परिणामोंका त्यागकर जघन्य परिणामस्थानका ही ग्रहण करना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वोक्त जघन्य परिणामस्थानसे साम्प्रतिक जघन्य परिणामस्थान अनन्तगुणा अधिक है, क्योंकि उससे .असंख्यात लोकमात्र छह स्थानोंको उल्लघन कर इस स्थानका अवस्थान देखा जाता है । इस प्रकार इस विधिसे शेष परिणामस्थानों में असंख्यात लोकमात्र अध्वान जाकर संक्रमस्थानकी उत्पत्तिका निमित्तभूत एक एक अपुनरुक्त परिणामस्थान उपलब्ध होता है, इसलिए अधःकरणके अन्तिम समयके सब परिणामस्थानोंके प्राप्त होने तक उस प्रकारके परिणामस्थानोंको ही संचय करके ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार एक दूसरेको देखते हुए जो कि अनन्तगुण अधिकके क्रमसे अवस्थित हैं और जो अबस्थित प्रक्षेप अधिकके क्रमसे असंख्यात लोकभाग अधिक विसदृश संक्रमस्थानोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत हैं ऐसे उचलकर ग्रहण किये गये उन समस्त परिणामस्थानों का प्रमाण असंख्यात लोक है।
६७३१. अब इन परिणामस्थानोंकी अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें क्रमसे रचना करके नाना कालका आश्रय लेकर नाना जीवोंके द्वारा क्रमसे परिणमा कर सूत्रके अनुसार प्रथम संक्रमस्थानकी परिपाटीकी प्ररूपणा करेंगे। यथा-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें सबसे जघन्य परिणामस्थानको परिणमा कर पूर्वमें विवक्षित हुए जघन्य सत्कर्मका संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान होता है। पुनः इसी जघन्य सत्कर्मको अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें दूसरे परिणामस्थानके द्वारा परिणमा कर पूर्वमें विवक्षित किये गये जघन्य सत्कर्मका
१. ता प्रतौ 'ट्ठा [णा ] णं णा-' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो पुनणिरुद्धजहण्णसंतकम्मं संकामेमाणस्स विदियमसंखेजलोगमागुत्तरं संकमट्ठाणं होदि, जहण्णसंकमट्ठाणमसंखेजलोगेहि खंडेयूण एयखंडमेत्तेण तत्तो एदस्स अहियत्तदंसणोदो। एदं च विदियसंकमट्ठाणमेदेण सुत्तेण णिहिट्ठमणतम्हि चे कम्मे असंखेजलोगभागुत्तरसंकमट्ठाणं होइ ति एदेण विधिणा तदियादिपरिणामट्ठाणाणि वि जहाकम परिणमिय संकामेमाणाणमसंखेजलोगभागुत्तरकमेणासंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि समुपजंति ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ--
® एवं जहपणए कम्मे असंखेजा लोगा संकमठाणाणि।
६७३२. कुदो ? णाणाकालसंबंधिणाणाजीवेहि तदियादिपरिणामट्ठाणेहिं परिवाडीए परिणमाविय तम्मि जहण्णसंतकम्मे संकामिजमाणे अवविदपक्खेवुत्तरकमेण पुनविरचिदपरिणामट्ठाणमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणमुप्पत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो । एवं पढमपरिवाडीए संकमट्ठाणपरूवणा गया। संपहि विदियपरिवाडीए संकमट्ठाणाणं परूवर्ण कुणमाणो तत्थ ताव तण्णिबंधणसंतकम्मवियप्पगवेसणहमुत्तरं सुत्तपबंधमाह
ॐ तवो पदेसुत्तरे दुपदेसुत्तरे वा एवमणंतभागुत्तरे वा जहण्णए संतकम्मे ताणि चेव संकमट्ठाणाणि।
संक्रम करनेवाले जीवके दूसरा असंख्यात लोक भाग अधिक संक्रमस्थान होता है, क्योंकि जघन्य संक्रमस्थानको असंख्यात लोकसे भाजित कर जो एक भाग लब्ध आवे उतना मात्र पूर्वोक्त स्थानसे यह संक्रमस्थान अधिक देखा जाता है । यह दुसरा संक्रमस्थान इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। पुनः उसी कमेमें असंख्यात लोक प्रतिभाग अधिक अन्य संक्रमस्थान होता है इस प्रकार इस विधिसे तृतीय आदि परिणामस्थानोंको भी क्रमसे परिणमा कर संक्रम करनेवाले जीवके असंख्यात लोक भाग अधिकके क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं इस प्रकार यह बात बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
* इस प्रकार जघन्य कर्ममें असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान होते हैं।
६७३२. क्योंकि नाना काल सम्बन्धी नाना जीवोंके द्वारा तृतीय आदि परिणामस्थानोंके आश्रयसे क्रमसे परिणमाकर उस जघन्य सत्कर्मके संक्रमित करने पर अवस्थित प्रक्षेप अधिकके क्रमसे पूर्व में रचित परिणामस्थानप्रमाण ही संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे उपलब्ध होती है। इस प्रकार प्रथम परिपाटीसे संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब द्वितीय परिपाटीसे संक्रमस्थानोंका कथन करते हुए वहाँ सर्व प्रथम उनके कारणभूत सत्कर्मके भेदोंका विचार करने के लिए
आगे का सूत्रप्रबन्ध कहते हैं____* उससे जघन्य सत्कर्ममें एक प्रदेश अधिक या दो प्रदेश अधिक या इस प्रकार एक एक प्रदेश अधिक होते हुए अनन्त माग अधिक होने पर वे ही संक्रमस्थान होते हैं।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४४३ ___ ७३३. तदो पुव्वणिरुद्धजहण्णसंतट्ठाणादो पदेसुत्तरे संतकम्मे जादे तत्थ वि ताणि चेव पढमपरिवाडीए परूविदाणि असंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि समुप्पछति । कि कारणं १ तहाभूदसंतकम्मवियप्पस्स संकमट्ठाणतरुप्पत्तीए अणिमित्तत्तादो । एवं दुपदेसुत्तरे वा तिपदेसुत्तरे वा चदुपदेसुत्तरे वा पंचपदेसुत्तरे वा संखेजपदेसुत्तरे वा असंखेजपदेसुत्तरे वा अणंतपदेसुत्तरे वा जहण्गए संतकम्मे तोणि चेत्र संकमट्ठाणाणि समुप्पजंति ति घेत्तव्वं । एवमणंतभागवड्डीए गंतूण जहण्णसंतकम्मट्ठाणं जहण्णपरित्ताणतेण खंडेऊण तत्थेयखंडमेत्तपरमाणुसु तत्थ वहिदेसु वि ताणि चे संकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि समुप्पजति त्ति ऐसो एदस्स भावत्थो।
® असंखेळलोगभागे पक्खित्ते विवियसंकमाणपरिवाडी होइ ।
६७३४. एतदुक्तं भवति-जहण्णसंतकम्मट्ठाणं तप्पाओग्गासंखेजलोगेहिं भागं घेतूण मागलद्धे तत्थे पडिरासिय पक्खित्ते जं संतकम्मट्ठाणमुप्पजदि तत्तो परिणामट्ठाणाणि अस्सिऊण पढमसंजमट्ठाणपरिवाडी परिणामट्ठाणमेत्तायामा समुप्पजदि ति एदेण असंखेजभागवविविसए वि अणंताणि संतकम्मड्डाणाणि उज्लंघिऊण तदित्थतिसए पयदसंतकम्मट्ठाणुप्पत्ती होदि त्ति जाणाविदं। संपहि 'असंखेजलोगभागे पक्खित्ते' इच्चेदेण सामण्ण.
६७३३. 'तदो' अर्थात् पूर्वमें विवक्षित जघन्य सत्कर्मस्थानसे एक प्रदेश अधिक सत्कर्मके होने पर वहाँ पर भी वे ही प्रथम परिपाटीमें कहे गये असख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उस प्रकारके सत्कर्मके भेदमें अन्य संक्रमस्थानकी उत्पत्तिका नियम नहीं है । इस प्रकार दो प्रदेश अधिक, तीन प्रदेश अधिक, चार प्रदेश अधिक, पाँच प्रदेश अधिक, संख्यात प्रदेश अधिक, असंख्यात प्रदेश अधिक या अनन्त प्रदेश अधिक जघन्य सत्कर्ममें वे ही संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार अनन्त भागवृद्धिके साथ जाकर जघन्य सत्कर्मस्थानको जघन्य परीतानन्तसे भाजित कर वहाँ पर प्राप्त हुए एक खण्डमात्र परमाणु उस जघन्य सत्कर्ममें मिलाने पर भी वे ही पुनरुक्त संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं यह इस सूत्रका भावार्थ है।
* असंख्यात लोकभाग प्रमाण द्रव्यके प्रक्षिप्त करने पर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी होती है।
६७३४. यह तात्पर्य है कि जघन्य सत्कर्मस्थानमें तत्प्रायोग्य असंख्यात लोकका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उसे उसी राशिमें प्रक्षिप्त करने पर जो सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है उससे परिणामस्थानोंका आश्रय लेकर प्रथम संक्रमस्थान परिपाटीके आगे परिणामस्थानप्रमाण आयामवाली दूसरी संक्रमस्थानपरिपाटी उत्पन्न होती है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा असंख्यात भागवृद्धिके विषयमें भी अनन्त सत्कर्मस्थानोंको उल्लंघन कर वहाँ प्राप्त हुए विषयमें प्रकृत सत्कर्मस्थानकी उत्पत्ति होती है यह ज्ञान कराया गया है । अव 'असंखेज्जलोगभागे पक्खित्ते' इस
१. ता० प्रतौ 'टाणतप्पा- इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
वयणेण संतकम्मपक्खेवपमाणविसयो सम्ममवगमो ण जादो त्ति पुणो वि विसेसिऊण संतकम्मपक्खेव पमाणावहारण उवरिमसुत्तायारो
* जो जहण्णगो पक्खेवो जहण्णए कम्मसरीरे तदो जो च जहपणगे कम्मे विदियसंक मट्ठाणविसेसो सो असंखेज्जगुणो ।
९ ७३५. एत्थ जहण्णए कम्मसरीरे ति बयणेण अधापवत्तकरणचरिमसमयजहणसंतकम्मस्स गहणं कायव्यं । कम्मस्स सरीरं कम्मसरीरमिदि कम्मक्खंधस्सेव विवविखयतादो । तत्थ जो जहण्णगो पक्खेवो त्ति कुत्ते बिदियसं कमट्ठाणपरित्राडिणिबंधणसंतकम्मपक्खेवस्स गहणं कायव्वं । किमेसो संतकम्मपक्खेवो बहुओ, किं वा जहण्णए चैत्र कम्मे जं विदियं संकमट्ठाणं तस्स विसेसो बहुगो ति एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणमिदं बुच्चदे - 'तदो जो च जहण्णए कम्मे' इच्चादि । एतदुक्तं भवति - तदो संतकम्मपक्खेवादो जहण्णसंतकम्मस्सा संखेज लोगपडिभागियादो जो जहगए कम्मे संका मिजमोणे विदियसंकमा णस्स विसेसो सो असंखेजगुणो होइ ति । तं जहा-जहण्णसंकमट्ठा णमसंखेज लोगेहि खंडेऊरोग खंडे तत्थेव पडिरासिय पक्खित्ते पढमपरिवा डिबिदिय संक मट्ठाणमुपदि । एत्थ पक्खित्तमेय खंडप माणबिदिय कमाविसेसो णाम । एवंविहसंक मट्ठाणविसेसे पुणो वि तप्पा ओग्गासंखेज लोगमेत्त
सामान्य वचन द्वारा सत्कर्मके प्रक्षेपका प्रमाण कितना है यह ठीक तरहसे नहीं जाना जाता है। इसलिए फिर भी विशेषरूपसे सत्कर्मके प्रक्षेप प्रमाणका निश्चय करने के लिए आगे सूत्रका अवतार करते हैं
जघन्य सत्कर्ममें जो जघन्य प्रक्षेप है, उससे जघन्य सत्कर्म में जो दूसरा संक्रमस्थानविशेष है, वह असंख्यातगुणा है ।
६७३५. यहाँ पर जघन्य कर्मशरीर इस वचनसे अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें प्राप्त हुए जघन्य सत्कर्मका प्रहण करना चाहिए, क्योंकि कर्मका शरीर वह कर्मशरीर इस प्रकार इस पद द्वारा कर्मस्कन्ध ही विवक्षित किया गया है । उसमें जो जघन्य प्रक्षेप है ऐसा कहने पर द्वितीय संक्रमस्थान परिपाटीके कारणभूत सत्कर्मके प्रक्षेपका ग्रहण करना चाहिए। क्या यह संक्रमप्रक्षेप बहुत है या क्या जघन्य कर्ममें ही जो दूसरा संक्रमस्थान है उसका विशेष बहुत है इस प्रकारकी आशंका होने पर उसका निराकरण करनेके लिए यह कहते हैं-तदो जो च जहणए कम्मे इत्यादि । यह उक्त कथनका तात्पर्य है कि उस सत्कर्मप्रक्षेपसे, जघन्य सत्कर्मके असंख्यात लोकभाग अधिक जघन्य सत्कर्मके संक्रमित होने पर जो द्वितीय संक्रमस्थानका विशेष प्राप्त होता है, वह असंख्यात गुणा होता है । यथा - जघन्य संक्रमस्थान विशेषको असंख्यात लोकों से भाजित कर जो एक खण्ड प्राप्त हो उसे उसी जघन्य संक्रमस्थान में मिला देने पर प्रथम परिपाटीका दूसरा संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । यहाँ पर मिलाया गया एक खण्डका प्रमाण द्वितीय संक्रमस्थानका विशेष है । इस प्रकार के संक्रमस्थान विशेषको फिर भी तत्प्रायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण संख्यासे भाजित
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गा० ५८] मत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४४५० स्वेहि भागे हिदे भागलद्धमेत्तो संतकम्मपक्खेवो ति भण्णदे । जइ वि विदियसंकमट्ठाणविसेसस्सासंखेजदिभागो ति सुत्ते सामण्णेण परूविदं तो वि तस्सासंखेजलोगपडिभागिओ ति णबदे वक्खाणादो।
७३६. संपहि जहण्णसंतकम्ममस्सिऊण संतकम्मपक्खेवपमाणमाणिजदे । तं जहाएगमेइ दियसमयपबद्धं ठविय दिवड्डगुणहाणीए गुणिदे एइ दियजहण्णसंतकम्ममागच्छदि । पुणो अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदोकड कडणभागहारो तस्स भागहारत्तेण ठवेयव्यो। एवं ठविदे असण्णिपंचिदिएसु देवेसु च उक्कड्डिददव्वमागच्छदि । एवमुक्कड्डिददव्वं बेछोपट्टिकालब्भंतरे गालेदि ति तत्कालभंतरणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा तम्मि ओवट्टिदे एतियमेत्तकालगलिदावसेसमधापवत्तकरणचरिमसनयजहण्णसंतकम्ममागच्छदि । एत्तो अधापवत्तकरणचरिमसमए संकामिददव्यमिच्छामो ति अंगुलस्सासंखेजभागमेत्तविज्झादमागहारेण तम्मि भागे हिदे जहण्णसंकमट्ठाणमुप्पजदि । पुणो तम्मि तप्पाओग्गासंखेजलोगमेत्तभागहारेणोपट्टिदे विदियसंकमट्ठाणविसेसो होइ । पुणो अण्णेणासंखेजलोगभागहारेण तम्मि भाजिदे संतकम्मपक्खेवपमाणमागच्छदि ति णिच्छओ कायो । तदो एवंविहसंतकम्मपक्खेवे पडिरासिदजहण्णसंतकम्मस्सुवरि पक्खित्ते विदियसंकमट्ठाणपरिवाडिणिमित्तभूदमसंखेजलोगभागुत्तरविदियसंतकम्गट्ठाणमुप्पजदि ति सिद्धं ।
करने पर जो भाग लब्ध प्रावे तत्प्रमाण सत्कर्मप्रक्षेप कहा जाता है । यद्यपि वह द्वितीय संक्रमस्थान विशेषका असंख्यातवां भागप्रमाण है ऐसा सूत्र में सामान्य रूपसे कहा गया है तो भी वह असंख्यात लोकसे भाजित होकर एक भागप्रमाण है यह बात व्याख्यानसे जानी जाती है।
६७३६. अब जघन्य सत्कर्मका आश्रय लेकर सत्कर्मके प्रक्षेपका प्रमाण लाते हैं । यथाएकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको स्थापित कर द्वयर्ध गुणहानिसे गुणित करने पर एकेन्द्रिय सम्बन्धी सत्कम आता है। पुनः अन्तमुहूतेसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारको उसके भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार स्थापित करने पर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें और देवोंमें उत्कर्षणको प्राप्त हुआ द्रव्य आता है। इस प्रकार उत्कर्षित हुए द्रव्यको दो छयासठ सागर कालके भीतर गलाता है इसलिए उस कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके
और विरलित राशिके प्रत्येक एकको दुना करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उससे उसके भाजित करने पर इतने कालके भीतर गलाकर जो राशि शेष बचती है तत्प्रमाण अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य सत्कर्म आता है । अब इसमेंसे अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें संक्रमित होनेत्राला द्रव्म लाना चाहते हैं इसलिए अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण विध्यात भागहारके द्वारा उसके भाजित करने पर जवन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। पुनः उसमें तत्प्रायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण भागहारका भाग देने पर द्वितीय संक्रमस्थानके विशेषका प्रमाण होता है। पुनः अन्य असंख्यात लोकप्रमाण भागहारका उसमें भाग देने पर सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण आता है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए । इस लिए इस प्रकारके सत्कर्मप्रक्षेपको प्रतिराशिभूत जघन्य सत्कर्मके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर द्वितीय संक्रमस्थान परिपाटीका निमित्तभूत असंख्यात लोकसे भाजति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ संपहि एवं विहपक्खेवुत्तरजहण्णसतकम्ममवलंबिय अधापवत्तकरणचरिमसमयजहण्णादिपरिणामट्ठाणेसु जहाकर्म परिणदणाणाकालसंबंधिणाणाजीवस कमवसेण विदियसकमद्वाणपरिवाडिपरूपणा पढमपरिवाडिभंगेणाणुगंतव्वा । णरि पढमपरिवाडिजहण्णसं कमट्ठाणादो असंखेजलोगभागुत्तरं होदूण तत्थतणविदियसकमट्ठाणादो विसेसहीणमसंखेजलोगपडिभागेण संपहियजहण्णस कमट्ठाणमुप्पजदि ति घेत्तव्वं । एवं विदियादो बिदियं तदियादो तदियमिच्चादिकमेण सव्वत्थ णेदव्वं । सपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ
* एत्य वि असंखेजा लोगा संकमट्ठाणाणि।
६७३७. जहा जहण्णए संतकम्मट्ठाणे असंखेजलोगमेताणि संकमट्ठाणाणि परूविदाणि एवमेत्थ वि पक्खेवुतरजहण्णसंतकम्मट्ठाणे तत्तियमेत्ताणि चेव संकमट्ठाणाणि णिरवसेसमणुगंतव्याणि, विसेसाभावादो ति मणिदं होइ । एवं विदियपरिवाडीए सकमद्वाणषरूपणा समता । संपहि एदीए दिसाए तदियादिपरिवाडीणं पि परूषणा कायदा ति समप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* एवं सव्वासु परिवाडोसु।
एक भाग अधिक द्वितीय सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है यह सिद्ध हुआ । यहाँ पर इस प्रकार एक प्रक्षेप अधिक जघन्य सत्कर्मका अवलम्बन लेकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसम्बन्धी जघन्य आदि परिणामस्थानोंमें क्रमसे परिणत हुए नाना कालसम्बन्धी नाना जीवोंके संक्रमके वशसे द्वितीय संक्रमस्थानपरिपाटीको प्ररूरणा प्रथम परिपाटीके समान जान लेना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानसे असंख्यात लोकसे भाजित एक भाग अधिक होकर वहाँ सम्बन्धी द्वितीय संक्रमस्थानसे विशेष हीन असंख्यात भागरूपसे साम्प्रतिक जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार दूसरेसे दूसरा और तीसरेसे तीसरा इत्यादि क्रमसे सर्वत्र जानना चाहिए। अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए भागे का सूत्र कहते हैं
* यहाँ पर भो असख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान होते हैं ।
६७३७. जिस प्रकार जघन्य सत्कर्मस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान कहे हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी एक प्रक्षेत्र अधिक जयन्य सत्कर्मस्थान में उतने ही संक्रमस्थान पूरे जानने चाहिए, क्योंकि यहाँ पर अन्य कोई विशस्ता नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार दूसरी परिपाटीके अनुसार संक्रमस्थानोंको प्ररूपणा समाप्त हुई। अब इसी पद्धतिसे तृतोयादि परिपाटियों की भी प्ररूपणा करनी चाहिए इस प्रकारके कथनकी मुख्यता करके प्रागेका सूत्र कहते हैं
* इसी प्रकार सब परिपाटियों में जानना चाहिए ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याङपदेससंकमे संक मट्ठा ि
४४७
६७३८. संपहिएदेण सुत्तेण समप्पिदतदियादिपरिवाडीणं परूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा -- जहसतकम्मस्सुवरि दोसतकम्मपक्खे पमाणे वदे तदियपरिवाडीए ििमत्तभूदमणं संतकम्मट्ठाणमुप्पजदि । पुणो एवंविहस तकम्ममधापवत्तकरणचरिमसमये जहण्णपरिणामेण सकामेमाणस्स बिदियपरिवाडिजहण्ण संकमद्वाणस्सुवरिमसंखेजलोग भागन्महियं होतॄण तदियसंक्रमट्ठाणपरिवाडीए पढमसंक्रमट्ठाणमुप्पज्जदि । एवं बिदियादिपरिणामेहि मि परिणमिय संकामेमाणाणमवद्विदपक्खेवुत्तरक्रमेण परिणामट्ठाण - ताणि चैत्र संक्रमणाणि समुप्पाएयव्त्राणि । एवमुप्पाइदे तदियपरिवाडीए संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता होइ ।
६७३६. संपहि चउत्थपरिवाडीए भण्णमाणाए जहण्गसंतकम्मस्सुवरि तिन्हं संतकम्मपक्खेवाणं व कादुणागदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णपरिणामेण परिणमिय विज्झादसं कमभागहारेण संकामेमाणस्स तदियपरिवाडिजण्णसंकमट्ठा णस्सुवरि विसेसाहियं होदून चउत्थपरिवाडीए पढमं संकमट्ठाणमुप्पजदि । संपहि एदं सतं कम्मं धुवं काढूण विदियादिपरिणामेहि संकामेमाणणाणाजीचे अस्सिऊण असंखेज लोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि अवद्विदपक्खेवुत्तरक्रमेण पुव्त्रं व समुप्पाइय गेण्हिदव्वाणि । तदो चउत्थपरिवाडी समता होइ । एवमेगेगसंतकम्मपक्खेवमणंतरानंतर संत कम्मट्ठाणादो अहियं काढूण पंचमादिपरिवाडीओ वि दव्वाओ, जत्थ असंखेज लोगमेत्ताणमेत्थतणसन्त्रपरि
६७३८. अब इस सूत्र के द्वारा विवक्षित की गई तृतीय आदि परिपाटियोंका कथन करते हैं । यथा - जघन्य सत्कर्मके ऊपर दो सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणों के बढ़ाने पर तीसरी परिपाटीका निमित्तभूत अन्य सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है । पुनः इस प्रकारके सत्कर्म का अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय में जघन्य परिणामके द्वारा संक्रम करनेवाले जीव के दूसरी परिपाटीसे उत्पन्न हुए जघन्य संक्रमस्थानके ऊपर असंख्यात लोक भाग अधिक होकर तृतीय संक्रमस्थान परिपाटीसे प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । इसी प्रकार द्वितीय आदि परिणामोंके अवलम्बनसे भी परिणमा कर संक्रम करने वाले जीवोंके अवस्थित प्रक्षेप अधिक के क्रमसे परिणामस्थान मात्र ही संक्रमस्थान उत्पन्न करने चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न करने पर तीसरी परिपाटी समाप्त होती है ।
९ ७३६. अब चौथी परिपाटीका कथन करने पर जघन्य सत्कर्मके ऊपर तीन सत्कर्मप्रक्षेपोंकी वृद्धि करके प्राप्त हुए कर्मको अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें परिणमा कर विध्यातसंक्रमभागहार के द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके तृतीय परिपाटी के जघन्य संक्रमस्थान के ऊपर एक विशेष अधिक होकर चतुर्थ परिपाटीके अनुसार प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। अब इस सत्कर्मको ध्रुव करके द्वितीय आदि परिणामोंके आश्रयसे संक्रम करनेवाले नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर उत्तरोत्तर अवस्थित प्रक्षेप अधिकके क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान पहले के समान उत्पन्न करके ग्रहण करने चाहिए । तब जाकर चतुर्थ परिपाटो समाप्त होती है। इस प्रकार अनन्तर प्राप्त हुए सत्कर्मस्थानसे एक सत्कर्मप्रक्षेपको अधिक करके पाँचवीं आदि परिपटियाँ भी ले आनी चाहिए ।
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४४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वधगो ६ वाडीगमच्छिमारिवाडी परिणामट्ठाणमेत्तायामा समुप्पण्णा ति । तत्थ चरिमवियपं वत्तइस्सामो । तं जहा- ७४०. एगो गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमपुढवीए उपजिय तत्य मिच्छत्तदव्यमुक्कस्सं कादूण तत्तो णिप्पिदिय पुणो दो-तिण्णितिरिक्खभवग्गहणाणि अंतोमुहुत्तकालपडिवद्धोणि समणुपालिय तदो समयाविरोहेण देवेसुप्वन्जिय सव्वल सव्वाहि पजत्तीहि पजतयदो सम्मत्तं घेत्तण बेछावहिसागरोवमाणि परिममिय तदवसाणे मणुसेसुवधज्जिय गम्भादिअवस्साणमंतोमुहत्तब्महियाणमुवरि दसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमए जाणाजीवसंबंधिणाणापरिणामणिबंधणचरिमपरिवाडीए दुचरिमादिसम्ववियप्पे उक्कस्सपरिणामेण संकामेमाणो एत्थतणचरिमवियप्पसामियो होइ । एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणपरिवाडीओ असंखेजलोगमेतीओ होति, जहण्णसंतकम्ममुक्कस्ससंतकम्मादो सोहिय सुद्धसेसम्मि संतकम्मपक्खेवपमाणेण कीरमाणे असंखेजलोगमेत्ताणं संतकम्मपक्खेवाणमुवलंभादो । तं जहा
६७४१. जहण्गदबमिच्छिय दिवगुणहाणिगुणिदमेगमेई दियसमयपबद्धं उविय अंतोमुहत्तोवट्टिदोकड कड्डणभागहारपदुप्पण्णेण बेछावद्विसागरो०णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा तम्मि ओवट्टिदे अधापवत्तकरणचरिमसमयजहण्णदव्वं होइ । पुणो
अब जहाँ पर असंख्यात लोकप्रमाण यहाँ सम्बन्धी सब परिपाटियोंकी अन्तिम परिपाटी परिणाम- . स्थान मात्र आयामवाली उत्पन्न होती है। वहाँ पर अन्तिम भेदको बतलाते हैं । यथा
६७४०. गुणितकर्मा शिकलक्षणसे आकर कोई एक जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हो, वहाँ मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट कर फिर वहाँसे निकल कर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर तियश्चोंके दो-तीन भव ग्रहण कर अनन्तर जिससे शास्त्रमें विरोध न आवे इस विधिसे देवोंमें उत्पन्न हो और अतिशीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो तथा सम्यक्त्वको ग्रहण कर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें मनुष्योंमें उत्पन्न हो गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तमुहर्तके बाद दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें नाना जीवोंके सम्बन्धसे नाना परिणामनिमित्तक अन्तिम परिपाटीके द्विचरम आदि सब विकल्पोंको विता कर उत्कृष्ट परिणामसे संक्रमण करनेवाला जीव यहाँके अन्तिम विकस्पका स्वामी होता है। इस प्रकार उत्सन्न हुई समस्त संक्रमस्थानोंकी परिपाटिया असंख्यात लोकप्रमाण होती है, क्योंकि जघन्य सत्कर्मको उत्कृष्ट सत्कर्ममेंसे घटा कर जो शेष बचे उसे सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करनेपर असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मप्रक्षेप उपलब्ध होते हैं । यथा
. ७४१. जघन्य द्रव्यकी इच्छासे डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धको स्थापित कर मन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे उत्पन्न दो छयासठ सागर कालके भीतर प्राप्त नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्यान्याभ्यस्त राशिसे उसके भाजित करने पर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है। पुनः वहीं पर उत्कृष्ट द्रव्य लाना चाहते हैं इसलिए जघन्य द्रव्यके अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे गुणित योगमुणकारके गुणकारभावसे स्थापित करने
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गा०५८] ___ उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४४६ तत्थेवुक्कस्सदव्यमिच्छामो त्ति जहण्णदबस्स ओकडकड्डणभागहारगुणिदजोगगुणगारे गुणगारभावेण ठविदे गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण बेछावहिसागरोवमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणस्स पयदुकस्सदव्यमागच्छदि । एवमेदाणि दोण्णि दव्याणि ठविय एत्थ जहण्णदव्वेणुक्कस्सदव्ये ओवट्टिदे जोगगुगगारपदुप्पण्णोकड्डुक्कड्डणभागहारो आगच्छदि । पुणो एदेण भागलद्धेण जहण्णदधावणयणटुं रूवणीकएण जहण्गदव्ये गुणिदे जहण्णव्वे उक्कस्सदव्वादो सोहिदे सुद्धसेसदव्यमागच्छदि । संपहि एवं दव्यं संतकम्मपक्खेवपमाणेण कस्सामो तं कधमेदस्स हेट्ठा विज्झादमागहारं वेअसंखेजलोगे जोगगुणगारोकड्डक्कड्डणभागहाराणं रूवणण्णोण्णगुणिदरासिं च संवग्गिय विरलेऊण सुद्धसेसदव्वे समखंड कादूण दिण्णे एक्केकस्स रूवस संतकम्मपक्खेवपमाणं पावइ । संपहि एदिस्से विरलणाए जत्तियाणि स्वाणि तत्तियाओ चे एत्थुप्पण्णसंकमट्ठाणपरिवाडीओ हवंति, संतकम्मपक्खेवं पडि एक किस्से चे। संकमट्ठागारिवाडीए समुप्पाइदत्तादो । एदिस्से च विरलणाए आयामो असंखेजलोगमेतो ति णत्थि संदेहो, पुव्वुतपंचभागहाराणमण्गोण्णसंवग्गेणुप्पण्णरासिस्स तप्पमाणत्ताविरोहादो । णारि जहण्णसंतकम्मणिबंधणपढमपरिवाडिसंगहणहमेसा विरलणा रूवाहिया कायया । पुणो एदेणायामेण परिणामट्ठाणमेत्तविक्खंभे गुगिदे सव्यासि
पर गुणितकमा शिकलक्षणसे आकर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान जीवके प्रकृत उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होता है । इस प्रकार इन दोनों द्रव्योंको स्थापित कर यहाँ पर जघन्य द्रव्यका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर योगगुणकारस गुणित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार आता है। पुनः जघन्य द्रव्यके घटाने के लिए इस भागलब्धको एक कम करके उससे जघन्य द्रव्यके गुणित करने पर तथा जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्योंमेंसे घटाने पर शुद्ध शष द्रव्य आता है। अब इस द्रव्यको सत्कर्म प्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-इसके नीचे विध्यात भागहारको तथा दो असंख्यात लोक और योगगुणकार तथा अपकर्षण उत्कर्षणभागहारकी एक कम परस्पर गुणित राशिको परस्पर संवर्गित कर और विरलन कर उस विरलित राशिके प्रत्येक एक पर शुद्ध शेष द्रव्यको समान खण्ड कर देने पर एक एक रूपके प्रति सत्कर्म प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ पर इस विरलनके जितने रूप हैं उतनी ही यहाँ पर उत्पन्न हुई संक्रम परिपाटियाँ होती हैं, क्योंकि सत्कर्म प्रक्षेपके प्रति नियमसे एक एक संक्रमस्थान परिपाटी उत्पन्न की गई है। और इस विरलनका आयाम असंख्यात लोकप्रमाण है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि पूर्वोक्त पाँच भागहारोंके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशि तत्प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं आता । किन्तु इतनी विशेषता है कि जवन्य सत्कर्मनिमित्तक प्रथम परिपाटीका संग्रह करने के लिए यह विरलन एक अधिक करना चाहिए । पुनः इस आयामसे परिणामस्थान मात्र
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કપ૦ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ परिवाडीणं सव्वसंकमट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि होति । किमेत्थ संकमट्ठाणपरिवाडीणमायामो बहुगो कि वा विक्खंभो ति पुच्छिदे विखंभादो आयामो असंखेजगुणो । कुदो एदमवगम्मदे ? पढमपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणादो तत्थेवुकस्ससंकमट्ठाणं विसेसाहियं इदि सुत्ताविरुद्धपुवाइरियवक्खाणादो । तदो एत्थुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणं पमाणमसंखेजा लोगा ति सिद्धं ।
७४२. संपहि एदं चरिमवियप्पपडिबद्धसंतकम्मं समऊणदुसमऊणादिकमेण बेछावटिकालं सव्वमोदारिय गुणिदकम्मंसियस्स कालपरिहाणीए ठाणपरूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा--एगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्यमुक्कस्सं करेमाणो एयगोवुच्छमेत्तेणणं कादण तत्तो णिप्पिडिय दो-तिण्णितिरिक्खभवग्गहणाणि बोलाविय सबलहु देवेसुप्पजिय सम्मत्तपडिलंमेण समऊणबेछावट्ठीओ भमियूण दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि वट्टमाणो सयलबेछावट्ठीओ भमिय अधापवत्तचरिमसमयम्मि पुव्वमुप्पाइदसंक्रमट्ठाणसंतकम्मिएण सरिसो-तं मोत्तण इमं घेत्तूण अप्पणो ऊणीकयदव्यमेत्तमेत्य वडावेयध्वं । तं कधं वड्डाविजदि ति वुत्ते वुच्चदे । ओकड्डक्कडणमागहारं जोगगुणगारं विज्झादसंकमभागहारं बेअसंखेजा लोगे च अण्णोण्णगुणे कादूण
mmm विष्कम्भके गुणित करने पर सब परिपाटियोंके सव संक्रमस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । क्या यहाँ पर संक्रमस्थान परिपाटियोंका आयाम बहुत है या विष्कम्भ बहुत है ऐसा पूछने पर विष्कम्भसे आयाम असंख्यातगुण है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-प्रथम परिपाटीके जघन्य संक्रमस्थानसे वहीं पर उत्कृष्ट संक्रमस्थान विशेष अधिक है इस सूत्रके अविरुद्ध पूर्वाचार्यके व्याख्यानसे जाना जाता है।
___ इसलिए यहाँ पर उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक यह सिद्ध हुआ।
७४२. अब अन्तिम विकल्पसे सम्बन्ध रखनेवाले इस सत्कर्मको एक समय कम, दो समय कम आदिके क्रमसे दो छयासठ सागरके सब कालको उतार कर गुणितका शिक जीवके काल परिहानिसे स्थान प्ररूपणाको बतलाते हैं। यथा-सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट कर तथा उसमेंसे एक गोपुच्छामात्र कम करके और वहाँसे निकल कर तथा दो-तीन तिर्यञ्च भवोंको बिताकर अतिशीघ्र देवोंमें उत्पन्न होकर सम्यक्त्वको प्राप्त कर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर तथा दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान कोई एक गुणित कर्मा शिक जीव पूरे दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें पूर्वमें उत्पादित संक्रमस्थानसत्कर्मके समान है, इसलिए उसे छोड़ कर और इसे ग्रहण कर अपना कम किया गया मात्र द्रव्य यहाँ पर बढ़ाना चाहिए । वह कैसे बढ़ाया जाता है ऐसा पूछने पर कहते हैं-अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, योगगुणकार, विष्यात संक्रमभागहार और दो असंख्यात लोकोंको परस्पर गुणितकर तथा डेढ गुणहानिसे भाजित
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाि
दिगुणहाणी ओट्टिय विरलिऊणेयगोबुच्छदव्त्रं समखंड करिय दिपणे तत्थेगेगरूवस्स एगेगसंतकम् मपक्वपमाणं पावइ । पुणो एत्थेगरूत्रधरिदं घेत्तूण पुव्विल्लसंतकम्मस्सुवरि पक्खित्ते अण्णमपुणरुत्तसंकमणणिबंधणं संतकम्मट्ठाणमुप्पजदि । एदमस्सिदूण पुष्पणसंक्रमणाणमुवरि परिणाम णमेत विक्खंभेणा संखेञ्ज लोग भागबड्डीए अण्णा अपुणरुत्तसंतकम्मट्ठाण परिवाडी समुप्पाएयन्त्रा । एवमुप्पण्णुप्पण्णसंत कम्मस्सुवरि एगेगसंतकम्मपक्खेवं पक्खित्रिय दव्वं जाव विरलणरासिमेत्ता संतकम्मपक्खेवा पट्ठा सि । एवं पविट्ठे पुप्पण्णसंकमट्ठाणाणमुवरि विरलणरा सिमेत्तीओ चेत्र अपुणरुत्तसंकमट्ठाणपरिवाडीओ समुप्पण्णाओ । एवं वड्डाविदे समयूणवे छावट्ठि चरिमसमय अधापवत्तदव्यं पि उकस्सं जादं । णवरि एयसमयमोकड्डिऊण विणा सिददव्यमेत्तमेगसमय विज्झाद संक्रमदव्यमेत्तं च एत्थ अधियमत्थि । तं वि संतकम्मपक्खेवपमाणं काढूण जाणिय वढावेयव्वं । सो विसेस वरिव सव्वत्थ वत्तव्यो ।
४५१
९ ७४३. पुणो अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ सतमपुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमुकस्सं करेमाणो तत्थेयगोवुच्छदव्यमेत्तेणणं काढूण तत्तो णिस्सरिय पुव्त्रविहाणेण सव्वल हु सम्मत्तमुप्पाइय दुसमऊणवेछावडीओ परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय चरिम. समयअधापत्तकरणो होढूण ट्ठिदो । एसो पुव्विल्लेण सरिसो । पुणो तप्परिहारेण इमं घेण पुचविहारोण अपणो ऊणीकयदव्यमेत्तमेत्थ वड्डाविय गेण्हिदव्त्रं । एदेण विधिणा
कर जो लब्ध आवे उसे विरलन कर उस पर एक गोपुच्छामात्र द्रव्यको समान खंड कर देने पर वहाँ एक एक विरलन अंक के प्रति एक एक सत्कर्म प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहाँ पर एक विरलन कके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण कर पहले के सत्कर्मके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर अन्य अपुनरुक्त संक्रमस्थानका कारणभूत सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है । अब इसका आश्रय कर पूर्व में उत्पन्न हुए, संक्रमस्थानों के ऊपर परिणामस्थानमात्र विष्कम्भ के साथ असंख्यात लोक भागवृद्धिसे अन्य अपुनरुक्त सत्कर्मस्थान परिपाटी उत्पन्न करनी चाहिए। इस प्रकार पुनः उत्पन्न हुए सत्कर्मके ऊपर एक एक सत्कर्म प्रक्षेपको प्रक्षिप्त कर विरलन राशिके बराबर सत्कर्मप्रक्षेपों के प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रविष्ट होने पर पूर्व में उत्पन्न हुए संक्रमस्थानोंके ऊपर विरलन राशि प्रमाण ही अपुनरुक्त संक्रमस्थान परिपाटियाँ उत्पन्न हुई हैं। इस प्रकार बढ़ाने पर एक समय कम दो छयासठ सागर कालके अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्त द्रव्य भी उत्कृष्ट हो गया । किन्तु इतनी विशेषता है कि एक समय में अपकर्षित होकर विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य तथा एक समय में विध्यातसंक्रमद्रव्य यहाँ पर अधिक हैं, इसलिए उसे भी सत्कर्मप्रक्षेपप्रमाण करके जानकर बढ़ाना चाहिए । यह विशेष आगे भी सर्वत्र कहना चाहिए ।
९ ७४३. पुनः सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करनेवाला अन्य एक गुणित कर्माशिक जो जीव उसमें एक गोपुच्छामात्र द्रव्यसे न्यून करके और वहाँ से निकल कर पूर्वोक्त विधिसे अतिशीघ्र सम्यक्त्वको उत्पन्न कर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण होकर स्थित है वह पहले जीवके सदृश है । पुनः उसके परिहार द्वारा इसे ग्रहण कर पूर्व विधिसे अपने कम किय
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૪૫ર जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ तिसमऊणचदुसमऊण-पंचसमऊणादिकमेण बेछावद्विकालो सव्वो संधीओ जाणिऊणोदारेयवो जाव चरिमवियप्पं पत्तो ति । तत्थ सबचरिमवियप्पे भण्णमाणे एगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्यमोघुक्कस्सं कादण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि तिरिक्खेसु गमिय तदो मणुसेसुववन्जिय अवस्साणमंतोमुहुत्ताहियाणमुवरि उक्समसम्मत्तं घेत्तण तकालभंतरे चेवाणताणुबंधिचउक्त विसंजोइय तदो वेदयसम्मत्तं पडिवजिय सबजहण्ण्णंतोमुहुतकालेण दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणो एत्थतणसवपच्छिमवियप्पसामिओ होइ। .६७४४. संपहि एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणमायामविक्खंभपमाणं केत्तियमिदि मणिदे असंखेजलोगमेतं होइ । तं कथं ? खविदकम्मंसियजहण्णदव्वं गुणिदुक्कस्सदव्वादो सोहिय सुद्धसेसे जत्तिया संतकम्मपक्खेवा लभंति तत्तियमेत्तमेत्थायामपमाणं होई । तम्मि आणिजमाणो जहण्णदव्यमिच्छिय दिवगुणहाणिगुणिदमेदमेइ दियसमयपबद्धं ठविय अंतोमुहुतोवट्टिदोकडुक्कडणभागहारेण बेछावद्विकालभंतरे जाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णन्मत्थरासिणार तम्मि भागे हिदे अधापवत्तचरिमसमयजहण्णदधमागच्छदि । एदमेवं चेव ठविय उक्कस्सदबमिच्छामो ति दिवड्डगुणहाणिगुणिदमेगमेइ दियसमयपबद्धं
गये द्रव्यमात्रको बढ़ा कर ग्रहण करना चाहिए। इस विधिसे तीन समय कम, चार समय कम
और पांच समय कम आदि क्रमसे पूरा दो छयासठ सागर काल सन्धियोंको जानकर अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए । वहाँ सबसे अन्तिम विकल्पका कथन करने पर जो कोई एक गुणितकर्मा शिक जीव सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वके द्रव्यको ओघ उत्कृष्ट करके तथा तिर्यञ्चोंमें दो-तीन भव बिताकर अनन्तर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त के बाद उपशम सम्यक्त्वको प्रहण कर उस कालके भीतर ही अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके अनन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान है वह यहाँके सबसे अन्तिम विकल्पका स्वामी होता है।।
७४४. अब इस प्रकार उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थानोंके आयाम और विष्कम्भका प्रमाण कितना है ऐसा पूछने पर असंख्यात लोकप्रमाण है।
शंका-वह कैसे?
समाधान-क्योंकि क्षपित कर्माशिक जीवके जघन्य द्रव्यको गुणितकर्मा शिक जीवके उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे घटा कर शेष बचे द्रव्यमें जितने सत्कर्मप्रक्षेप प्राप्त होते हैं उतना यहाँ पर आयाम का प्रमाण होता है। उसके लाने पर जघन्य द्रव्यके लानेकी इच्छासे डेढ़ गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रिय सम्बन्धी एक समयप्रबद्धको स्थापित कर अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारसे तथा दो छयासठ सागर कालके भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे उसके भाजित करने पर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य द्रव्य आता है। पुनः इसे इसी
१ आप्रतौ रासी च ताप्रतो रासी (सिणा ) इति पाठः ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपेदेससंकमे संकमट्ठाणा ि
ठविय जोगगुणगारेण गुणिदे पयदविसयुक्तस्सदन्धं होइ । एत्थ जहण्णदव्वेणुकस्सदव्वे भागे हिदे भागलद्धमोकडकड्डणभागहार० - बेछावट्ठि ० अण्णोष्णन्मत्थरासि जोगगुणगाराणमण्गोण्णसंवग्गमेत्तं होइ । पुणो एदेण भागल द्वेण रूवणेण जहण्णदव्वे गुणिदे जहण्णदव्वकस्सदवादी सोहिय सुद्ध सेसदव्यमागच्छइ ।
४५३
-एय
९ ७४५. संपहि एवं दव्यं संतकम्मपक्खेवपमाणेण कस्सामो । तं जहा - जहण्णसंतकम्ममेत्तदव्वादो जइ विज्झादभागहारबे असंखेज्ज लोगाणमण्णोण्णभासजणिंदरासिमेत्ता संतकम्मपक्खेवा लब्भंति तो ओकडकड्डण ० भागहारवेछावट्ठि- अण्णोष्णन्मत्थरासि जोगगुणगाराणमणोष्णसं त्रग्गज णिद रूवणरा सिमेतजह संत कम्मे केत्तियमेत्ते संतकम्मपक्खेवे लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओबट्टिदाए ओकड्डु० भागहारवेछावसागरोवम अण्णोष्णन्भत्थरा सि- जोगगुणगार - विज्झाव भागहार वेअसंखेज लोगाणमण्णोष्णसंवग्गमेत्ता संतकम्मपक्खेवा लद्धा हवंति । तदो इमे छब्भागहारे अण्णोन=मत्थसरूवे विरलेऊण पुब्बिन्लसुद्ध सेसदन्धे समखंड करिय दिण्णे बिरलणरूवं पडि एगे संत कम्म पक्वपमाणं पावेदि त्ति एत्थुप्पण्णा से ससंतकम्मट्ठाणपरिवाडीणमायामो विरलणरा सिमेत्तो चैव होइ । णवरि जहण्णसंतकम्मविसयजहण्णपरिवाडीसंगहणमेसा
-
प्रकार स्थापित कर उत्कृष्ट द्रव्य लानेकी इच्छा से डेढ़ गुणहानि से गुणित एकेन्द्रिय सम्बन्धी एक समय प्रबद्धको स्थापित कर योगगुणकारके द्वारा गुणित करने पर प्रकृत विषय सम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्य होता है । यहाँ पर जघन्य द्रव्यका उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग देने पर जो लब्ध श्रावे वह अपकर्षणउत्कर्षणभागद्दार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और योगगुणकारके परस्पर संवर्गित प्रमाण होता है । पुनः एक कम इस भाग लब्धसे जघन्य द्रव्य के गुणित करने पर जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्य में से घटा कर शुद्ध शेष द्रव्य आता है ।
९ ७४५. अब इस द्रव्यको सत्कर्म प्रक्षेप प्रमाण करते हैं। यथा- एक जघन्य सत्कर्ममात्र द्रव्यसे यदि विध्यात भागद्दार और दो असंख्यात लोकोंके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशि - प्रमाण सत्कर्म प्रक्षेप प्राप्त होते हैं तो अपकर्षण- उत्कर्षणभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और योगगुणकार के परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई एक कम राशिप्रमाण जघन्य सत्कर्मों में कितने सत्कर्म प्रक्षेप प्राप्त होंगे इस प्रकार फल गुणित इच्छा में प्रमाणका भाग देने पर अपेकर्षण- उत्कर्षणभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, योगगुणकार, विध्यात भागद्दार और दो असंख्यात लोकोंके परस्पर संवर्गमात्र सत्कर्मप्रक्षेप प्राप्त होते हैं । इसलिए परस्पर गुणितरूप इन छह भागद्दारोंका विरलनकर पूर्व के शुद्ध शेष द्रव्यको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक विरलन के प्रति एक एक सत्कर्म प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ पर उत्पन्न हुई समस्त सत्कर्मस्थान परिपाटियोंका आयाम विरलन राशिप्रमाण ही होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य सत्कर्मविषयक जघन्य परिपाटीका संग्रह करनेके लिए यह विरलन एक अधिक करना
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जयधवलासहिदे कसाथपाहुडे . [बंधगो ६ विरलणा रूवाहिया कायया । विक्खंभो पुण परिगामट्ठाणमेत्तो सव्वपरिवाडीसु, तस्सावद्विदसरूवेणु लंभादो । पुणो एदेसि विक्खंभायामाणं संवग्गे कदे एत्थुप्पण्णासेसपरिवाडीणं सव्वसंकमट्ठाणाणि होति । एवं गुणिद०कालपरिहाणीए संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता ।
६७४६. संपहि तस्सेव संतमस्सिऊण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–एगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असण्णिपंचिदिएसु देवेसु च कमेणुप्पन्जिय अंतोमुहुत्तेण सव्वविसुद्धो होदूण सम्मत्तप्पायणटुं तिण्णि वि करणाणि कुणमाणो अधापवत्तकरणमणंतगुणोए विसोहीए बोलिय अपुचकरणं पविट्ठो तत्थ गुणसेढिमाढवेदि । तत्थापुवकरणपढमसमए असंखेजलोगमेत्ताणि गुणसेढिणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि अस्थि । एवं विदियादिसमएसु वि । तेसु पढमसमयजहण्गपरिणामादो तत्थेवुकस्सपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, पढमसमयउकस्सपरिणामट्ठाणादो बिदियसमयजहण्णपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, तत्तो तत्वुक्कस्सपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, विदियसमयउक्कस्सपरिणामादो तदियसमयजहण्णपरिणामट्ठाणमणंतगुणं, तत्थेवुकस्सपरिणामट्ठाणमणंतगुणं । एवमतोमुहुत्तकालं गच्छदि जाव अपुन्नकरणचरिमसमयो त्ति । एत्युकस्सपरिणामेहि चे गुणसेढिमेत्तो करावेयव्बो । किमट्ठमेवं कराविजदे १ ण, अण्णहा मिच्छत्तदव्वस्स जहण्णभावाणुप्पत्तीदो। चाहिए । परन्तु विष्कम्भ परिणामस्थान प्रमाण है, क्योंकि सब परिपाटयोंमें वह अवस्थित रूपसे उपलब्ध होता है । पुनः इन विष्कम्भों और आयामोंका परस्पर संवर्ग करने पर यहाँ पर उत्पन्न हुई सब परिपाटियोंके सब संक्रमस्थान होते हैं। इस प्रकार गुणितकर्मा शिक जीवके काल परिहाणिका आश्रय लेकर संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई।
६७४६. अब उसी जीवके सत्कर्मका आश्रय लेकर स्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं । यथाकोई एक जीव क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें और देवोंमें क्रमसे उत्पन्न होकर तथा अन्तमुतमें सर्व विशुद्ध होकर सम्यक्त्वको उत्पन्न करने के लिए तीनों ही करणोंको करता हुआ अधःप्रवृत्तकरणको अनन्तगुणी विशुद्धिके साथ बिताकर अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुआ और वहाँ गुणश्रोणिरचनाका आरम्भ किया। वहाँ अपूर्वकरणके प्रथम समयमें असंख्यात लोकमात्र गुणश्रोणिके कारणभूत परिणामस्थान होते हैं। इसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी वे होते हैं। उनमें प्रथम समयके जघन्य परिणामसे वहां उत्कृष्ट परिणामस्थान अनन्तगुणा है। तथा प्रथम समयके उत्कृष्ट परिणामस्थानसे दूसरे समयका जघन्य परिणामस्थान अनन्तगुणा है और उससे वहीं पर उत्कृष्ट परिणामस्थान अनन्तगुणा है। दूसरे समयके उत्कृष्ट परिणामस्थानसे तीसरे समयका जघन्य परिणाम स्थान अनन्तगुणा है। वहीं पर उत्कृष्ट परिणामस्थान अनन्तगुणा है। इस प्रकार अपूर्वकरणका अन्तिम समय प्राप्त होने तक अन्तमहतं काल चला जाता है। यहाँ पर उत्कृष्ट परिणागेके द्वारा ही गुणश्रेणिकी रचना करनी चाहिए।
शंका-इस प्रकार किसलिए कराया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योकि ऐसा कराये बिना मिथ्यात्वके द्रव्यका जघन्यपना नहीं उत्पन्न हो सकता।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेस कमे संकमद्वारा ि
પ
६ ७४७. तदो एदेण विहारोणापुत्रकरणं समाणिय अणियट्टिकरणं पविट्ठो । एवं पविट्ठस्स असंखेज्जलोगमेत्तपरिणामट्ठाणा णि णत्थि, अंतो मुहुत्त कालमेक्केको चेव अणि - परिणाम हो । तदो एत्थ वि गुणसेढोए बहुदव्यगालणं काढूण चरिमसमय मिच्छाट्टी जादो । सेकाले उवसमसम्माइट्ठी होदूण तकाले चैत्र सम्मत्तसम्मा मिच्छत्ताणि गुणसंक्रमेण पूरेमाणो सव्वकस्सगुणसंकमका लेण सव्वजहगगुणसंक्रमभागहारेण च पूरे दि त्ति वत्तव्वं मिच्छत्तदव्त्रस्स जहण्णीकरणङ्कं अण्णा तदप्पत्तीदो । एदेण विहिणा गुणसंकमकालं बोलिय विज्झादसंक्रमे पडिय अंतोमुहुत्तेण वेदयसम्मत्तं पडिवण्णो बेछासागरोमाणि परिभमिय अंतोमुहुत्तासे से दंसणमोहक्खवगाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णपरिणामणिबंधणविज्झादसंक्रमेण संकामेमाणो जहण्णसंकमसामिओ होइ । संपहि एदमादि काढूण असंखेज लोगमेत्तसंक्रमद्वाणाणि पुव्वविहाणेगुप्पा गेहियव्याणि जाव एत्थतणदव्त्रमुकस्सं जादं ति ।
६७४८, दो बेट्टिकालं सव्वं संतकम्मे ओदारिजमाणे अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमुकस्सं करेमाणो तत्थेयगोवुच्छदव्वमेत्तमेयसमय मोक. डणाए विणा सिददव्त्रमेत्तमेयसमय विज्झाद संकमदव्यमेत्तं च ऊणीकरियागंतूण असण्णिपंचिदिएस देवेसु च जहा कममुप्पजिय सम्मत्तपडिलंभेण बेछावडीओ भमिय दुचरिमसमय
•
९ ७४७. इसलिए इस विधि से अपूर्वकरणको समाप्त कर अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार प्रविष्ट हुए जीवके असंख्यात लोकप्राण परिणामस्थान नहीं हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालतक एक एक ही अनिवृत्ति परिणाम होता है । इसलिए यहाँ पर भी गुणन पिके द्वारा बहुत द्रव्यको गलाकर अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टि हो गया । तथा अनन्तर समय में उपशमसम्यग्दृष्टि होकर उसी समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्त्रको गुणसंक्रमके द्वारा पूरता हुआ सबसे उत्त्कृष्ट गुणसंक्रमके कालके द्वारा और सबसे जघन्य गुणसंक्रमके भागहार द्वारा पूरता है ऐसा यहाँ पर मिथ्यात्व के द्रव्यको जघन्य करनेके लिए कहना चाहिए, अन्यथा वह जघन्य नहीं किया जा सकता | पुनः इस विधि से गुणसंक्रमके कालको बिताकर विष्यातसंक्रम में गिरकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करके अन्त मुहूर्त का शेष रहने पर दर्शन मोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें जघन्य परिणामके कारणभूत विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रम करता हुआ जघन्य संक्रमस्थानका स्वामी होता है। अब इस स्थान से लेकर यहाँका द्रव्य उत्कृष्ट होने तक असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान पूर्व विधिसे उत्पन्न करके ग्रहण करने चाहिए ।
६७४८. अनन्तर सम्पूर्ण दो छयासठ सागर कालतक सत्कर्मके उतारने पर जो अन्य एक गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्व के द्रव्यको उत्कृष्ट करता हुआ वहाँ पर एक गोपुच्छा मात्र द्रव्यको, एक समय तक अकर्षण के द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्य को तथा एक समय तक विषयात संक्रम द्रव्यको कम करके आया और असंज्ञी पञ्च न्द्रियों तथा देवों में क्रमसे उत्पन्न होकर सम्यक्त्वकी प्राप्तिके साथ दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण कर द्विचरमसमयमें अधः
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो
अवापत करणो होहूण द्विदो एसो पुव्विल्लेण सह सरिसो । संपहि इमं घेत्तूण इमे णीयदव्यमि जावदिया संतकम्मपक्खेवा संभवंति तावदियमेत्तसंक मट्ठाणपरिवाडीओ समुप्पादव्त्राओ । एत्थ संतकम्मपक्खेवबंधणविहाण जाणिय कायव्वं । एवमेदेण विहाणेण संधीओ जाणिऊण ओदारेदव्वं जाव बेछात्रट्टीणमादीए आवलिय वेदगसम्मादिट्ठति । तत्तो हेट्ठा ओदारिजमाणे मिच्छत्तस्स गोवुच्छदव्त्रं णत्थि त्ति विज्झाद संकमदन्यमेतेणणं करियागंतूण हेट्ठिमानंतरसमयम्मि ट्ठिदेण पुव्विल्लं सरिसं कादूण तदूणीकयदत्रं पुणो वि वड्डाविय ओदारेयव्त्रं जाव उवसमसम्मत्तद्धाए संखेज्जे भागे ओयरिय विज्झादं पदिदपढमसमयं पत्तो ति । संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारेदु ण सक्कदे । किं कारणं ? एत्थेव विज्झादसंकमो समत्तो। एत्तो हेट्ठा गुणसंकमविसयो तेोदस्स सरिसकरणोवायाभावाद । एवं गुणिदकम्मं सिय संत मस्सिऊण द्वाणपरूवणा गया ।
1
९ ७४६. संपहि खविदकम्मंसियस्स कालपरिहाणिं काढूणोदा रिजमाणे गुणिदकम्मंयिभंगो चैत्र । वरि जत्थ ऊणं कदं तत्थेगेगगोवुच्छदव्वमेत्तमेगसमयमोकडणाए विणासिददव्यमेत्तं च विज्झादसंकमदव्त्रेण सह उवरिमसमयदव्वम्मि वड्डाविय हेडिमसम दव्त्रेण सरिसं काढूण समऊणादिकमेण संघीओ जाणिऊण ओदारेदव्त्रं जाव अंतोहुतूपढमछाडि सव्वमोइण्णो त्ति । पुणो तत्थ ट्रुविय चत्तारि पुरिसे अस्सिऊण वडावेयन्त्र
प्रवृत्त करण होकर स्थित हुआ वह पहले के जीवके समान है। अब इसे ग्रहण कर इसके द्वारा कम किये गये द्रव्यमें जितने सत्कर्मप्रक्षेप सम्भव हैं उतनी संक्रमस्थान परिपाटियाँ उत्पन्न करनी चाहिए । यहाँ पर सत्कर्मप्रक्षेपकी वृद्धि के विधानको जानकर करना चाहिए। इस प्रकार इस विधि से सन्धियोंको जानकर दो छयासठ सागरके प्रारम्भ में वेदकसम्यग्दृष्टिके एक श्रावलिकाल के होनेतक उतारना चाहिए। उससे नीचे उतारने पर मिथ्यात्वका गो ुच्छद्रव्य नहीं है इसलिए विध्यातसंक्रमप्रमाण द्रव्यसे न्यून कर आकर अनन्तर अधस्तन समय में स्थित हुए जीवके द्वारा पहले द्रव्यको समान कर उस कम किये गये द्रव्यको फिर भी बढ़ा कर उपशमसम्यक्त्वके कालके संख्यात बहुभाग उतारकर विध्यातसंक्रमके प्रथम समय के प्राप्त होनेतक उतारना चाहिए। अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि यहीं पर विध्यातसंक्रम समाप्त हो गया है। इससे नीचे गुणसंक्रमका विषय है, इसलिए इसके सदृश करनेका कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार गुणित कर्माशिक जीवके सत्कर्मका आश्रय कर स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई ।
९७४६. अब क्षपितकर्माशिक जीवके कालपरिहानिको करके उतारने पर गुणित कर्माशिक के समान ही भंग होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पर एक कम किया गया है वहाँपर एक एक गो पुच्छाप्रमाण द्रव्यको और एक समय में अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको विध्यातसंक्रमके द्रव्यके साथ अगले समयके द्रव्यमें बढ़ाकर अधस्तन समय में स्थित द्रव्य के साथ समान करके एक समय न्यून आदिके क्रमसे सन्धियोंको जानकर अन्तर्मुहूर्त कम प्रथम छयासठ सागर के सब द्रव्यके उतरने तक उतारना चाहिए । पुनः वहाँ पर स्थापित कर चार पुरुषोंका आश्रय कर गुणितकर्माशिक जीवके अधः प्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके योग्य उत्कृष्ट संक्रम द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना
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गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
૪૫૭ जाव गणिदकम्मंसियअधापवत्तचरिमसमयपोओग्गुक्कस्ससंकमदवं पत्तं ति । संपहि तस्सेव संतकम्मे ओदारिजमाणे गोवुच्छदव्यं विज्झादसंकमदव्यमेत्तं पुणो एगसमयमोकड्डणाए विणासिददव्यमेत्तं च वड्डाविय द्विदचरिमसमयअधापवत्तकरणो च अण्णेगो पुव्वविहाणेणागंतूण दुचरिमसमए द्विदो च दो वि सरिसा । एवं जाणिऊणोदारेयव्यं जाब विज्झादसंकमपढमसमयो ति । एवमोदारिदे मिच्छत्तस्स विज्झादसंकममस्सिऊण हाणपरूवणा समत्ता होइ।
६७५०. संपहि सुत्तसामित्तमस्सिऊण हाणपरूवणे कीरमाणे बेछावद्विसागरोवमाणि सागरोवमपुधत्तं च पयदपरूवणाए विसयो होइ ? तत्थ कालपरिहाणीए संतकम्मोदीरणाए च एसो चा भंगो णिरवसेसमणुगंतव्यो, विसेसोभावादो। णवरि भज-भागहारविसयं किंचि णाणत्तमत्थि त्ति तं जाणिय वत्तव्यं । एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणमसंखेजलोगमेत्तविक्खंभायामाणं एगपदरागारेण रचणं कादूण एत्थ पुणरुत्तापुणरुत्तभावपरिक्खा कीरदे । तं जहा
६७५१. पढमपरिवाडिजहण्णसंकमट्ठाणमसंखेजलोगेहिं खंडेऊण तत्थेयखंडे तम्मि चेव पडिरासिय पक्खित्ते तत्थेव विदियसंकमट्ठाणं होइ । पुणो एदेण असंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणपरिवाडीओ समुल्लंघिऊणावट्ठिदसंकमट्ठाणपरिवाडीए पढमसंकमट्ठाणं च समाणं
चाहिए । अब उसी के सत्कर्मके उतारने पर विध्यातसंक्रमसम्बन्धी द्रव्यके बराबर गोपुच्छाके द्रव्यको और एक समयमें अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाकर स्थित हुआ अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण जीव तथा पूर्वोक्त विधिसे आकर द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव ये दोनों समान हैं। इस प्रकार जानकर विध्यातसंक्रमके प्रथम समयके प्राप्त होनेतक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर विध्यातसंक्रमके आश्रयसे मिथ्यात्वकी स्थानप्ररूपणा समाप्त होती है।
६७५०. अब सूत्र में निर्दिष्ट स्वामित्वका आश्रय लेकर हानि प्ररूपणाके करने पर दो छयासठ सागर और पृथक्त्व प्रमाणकाल प्रकृत प्ररूपणका विषय होता है । वहाँ पर काल परिहानिके आश्रयसे और सत्कर्मकी उदीरणाके आश्रयसे यही भंग पूरी तरहसे जानना चाहिए, क्योंकि इसमें उससे कोई विशेषता नहीं है । किन्तु भज्यमान-भागहारविषयक कुछ भेद है सो उसे जानकर कहना चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थानोंके असंख्यात लोकप्रमाण विष्कम्भरूप आयामोंकी एक प्रतराकाररूपसे रचना करके यहाँ पर पुनरुक्त और अपुनरुक्तभावकी परीक्षा करते : हैं । यथा
६७५१. प्रथम परिपाटीसम्बन्धी जघन्य संक्रमस्थानको असंख्यात लोकोंसे भाजित कर उसमेंसे एक खण्डके उसीमें प्रतिराशि बनाकर प्रक्षिप्त करने पर वहीं पर दूसरा संक्रमस्थान होता है । पुनः असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान परिपाटियोंको उल्लंघन कर अवस्थित संक्रमस्थान परिपाटीका प्रथम संक्रमस्थान इसके समान होता है।
शंका-वह कैसे ?
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जयधवलास हिदे कसायपाहुड़े
[ बंधगो ६
होइ । तं कथं ? संतकम्मपक्खेवागमणणिमित्तभूदमसंखेज लोगभागहारं विज्झादभागहारं च अण्णोष्णगुणं काढूण तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तसंतकम्मपक्खेवेसु पविट्ठेसु जा संकट्ठाणपरिवाडी समुप्पजदि तिस्से पढमसंक्रमट्ठाणं पढमपरिबा डिविदियसंक मट्ठारोण सह सरिसं होदि । किं कारणं ? तत्थ द्विदसंतकम्मपक्खेवेसु विज्झादभागहा रेणोवट्टिदेसु एकमट्ठाणविसे सुप्पत्तीए परि फुड मुवलंभादो ।
६ ७५२. एदस्सेवद्धाणस्स णिरुत्तीकरणङ्कं भज-भागहारमुहेण किंचि परूवणमेत्थ वत्तइस्लामो । तं जहा – जहण्णसंत कम्मठाणम्मि अंगुलस्सा संखेज दिभागभूद विज्झादभागहारेण भागे हिदे भागलद्धं पढमपरिवाडीए जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । पुणो तम्मि चेव जहण्णसंत कम्मे जहण्णसं कमट्ठाणादो असंखेजलोग भागन्भहिय संकमट्ठाणागमणहेदुभूदविज्झादभागहारेण भाजिदे तत्थेव विदियसंकमट्ठाणं होइ । संपहि एत्थ पढमसंक्रमद्वाणादो अब्भहियविदियसंकमद्वाणविसेसं घेत्तण असंखेजलोगे विरलिय समखंड काढूण दि विरणरूवं पsि एगेगसंतकम्मपक्वपमाणं पवादि । तत्थ पढमरूवधरिदं घेत्तण जहण्णसंतद्वाणस्तुवरि पडिरासिय पक्खित्ते विदियसंक मट्ठाणपरिवाडीए णिमित्तभूर्द विदियसंत कम्मट्टाणमुप्पञ्जदि । एत्थ जहण्णसंतट्ठाणादो अहिय विदिय संत द्वाणम्मि पक्खित्त संत कम्म पक्खेवमवणेऊण पुध दुत्रिय पुणो से सदव्वम्मि अंगुलस्सा संखे ० भागेण
समाधान — क्योंकि सत्कर्मसम्बन्धी प्रक्षेपके लानेका निमित्तभूत असंख्यात लोकप्रमाण भागहारको और विध्यात संक्रमसम्बन्धी भागहारको परस्पर गुणित करके वहाँ जितने रूप प्राप्त हों तावन्मात्र सत्कर्मप्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने पर जो संक्रमस्थानपरिपाटी उत्पन्न होती है उसकी प्रथम संक्रमस्थानसम्बन्धी परिपाटी दूसरे संक्रमस्थान के साथ समान होती है, क्योंकि वहाँ पर स्थित सत्कर्म प्रक्षेपों के विष्यातसंक्रम भागहारके द्वारा भाजित करने पर एक संक्रमस्थान विशेषकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे उपलब्ध होती है ।
६ ७५२. अब इसी अध्वानकी निरुक्ति करनेके लिए भव्यमान भागहारके द्वारा कुछ प्ररूपणा यहाँ पर बतलाते है । यथा— जघन्य सत्कर्मस्थानके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहार के द्वारा भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उतना प्रथम परिपाटीका जघन्य संक्रमस्थान होता है । पुनः उसी जघन्य सत्कर्म में जघन्य संक्रमस्थानसे असंख्यात लोक भाग अधिक संक्रमस्थान के लाने हेतुभूत विध्यातभागहारके द्वारा भाग देने पर वहीं पर दूसरा संक्रमस्थान होता है । अब यहाँ पर प्रथम संक्रमस्थानसे अधिक दूसरे संक्रमस्थान विशेषको प्रहण कर उसे असंख्यात लोकका विरलन कर समान खण्ड करके देने पर एक-एक विरलन अंकके प्रति सत्कर्मका एक-एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । उनमेंसे प्रथम अंकके प्रति प्राप्त प्रक्षेप द्रव्यको प्रहण कर जघन्य सत्कर्म स्थानके ऊपर प्रतिरराशि करके प्रक्षिप्त करने पर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटीका निमित्तभूत दूसरा सत्कर्म स्थान उत्पन्न होता है । यहाँ पर जघन्य सत्कमस्थानसे अधिक दूसरे सत्कर्मस्थानमें प्रक्षिप्त किये गये सत्कर्मप्रक्षेपको घटा कर और अलग स्थापित कर पुनः शेष द्रयमें अंगुलके असंख्यातवें भागका भाग
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याडपदेससंकमे संक मट्ठाण ि
भागे हिदे जं भागलद्धं जहण्णसंताणं जहण्णसंकमट्ठाणपमाणं होइ । एवं पुणो अत्रणेद्ण अतिकम वेबस्स वि तेणेव भागहारेण भागो घेप्पदि त्ति अंगुलस्सासंखेज्जदिभागं हेट्ठा विरलिय अहियदव्यं समखंडं काढूण दिण्णे विरलणरूवं पडि संतकम्मपक्खेवस्सा संखेज्जदिभागो पात्रदि । तत्थेयखंड घेत्तण पुव्विल्लदन्यस्सुवरि पक्खित्ते जहण्णसंतट्ठाणं पढमसंकमङ्काणादो असंखेज्जलोगभागुत्तरं होतॄण तत्थेव विदियसंकम
दो विसेसहीणमसंखेज लोगपडिभागेण विदियसंतङ्काणस्स पढमसंक मट्टणमुप्पञ्जदि ।
१७५३. संपहि एवमुपसंकमठाणम्मि संतकम्मपक्खेवमंगुलस्सा संखेज दिभागेण खंडेऊण तत्थेयखंडपमाणं पविई, तदियसंतद्वाणपढमसंकमट्टाणम्मि वारिसाणि दोण्णि खंडाणि पविट्ठाणि चत्थसंतद्वाणपढमसंकमट्ठाणम्मि तारिसाणि तिण्णि खंडाणि पाणि । एदेण कमेण अंगुलस्सा संखेज दिभागमेतद्वाणं गंतूण द्विदसंतद्वाणपढम संकमद्वाणाम्मि तारिसाणि अंगुलस्सा संखेज दिभागमेत्तखंडाणि पविट्ठाणि । संपहि इमाणमंगु लस्सा संखेज्जदिभाग मेत्तखंडाणं पमाणं केत्तियमिदि भणिदे जहण्णसंतद्वाणपढमसंकमडाणादो तस्सेव विदियकमद्वाणम्मि अहियदव्यमसंखेज्जलोगेहिं खंडेद्णेय खंडमेत्तं हो । उवरिमविरलणाए सयलेयरूत्रधरिद संत कम्मपक्वमेत्तमेत्थ संकमसरूवेण पविट्ठमिदि भावत्थो ।
देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना जघन्य सत्कर्मस्थानसम्बन्धी जघन्य संक्रमस्थानका प्रमाण होता है । इस प्रकार पुनः घटाकर स्थापित करने पर अधिक सत्कर्मप्रक्षेपका भी उसी भागहारके द्वारा भाग ग्रहण होता है, इसलिए अंगुल के असंख्यातवें भागको नीचे विरलन कर अधिक द्रव्यको समान खण्ड कर देने पर प्रत्येक विरलनरूपके प्रति सत्कर्मप्रक्षेपका असंख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है। उनमें से एक खण्डको ग्रहण कर पूर्वोक्त द्रव्यके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर जघन्य सत्कर्मस्थान प्रथम संक्रमस्थान से असंख्यात लोक भाग अधिक होकर वहीं पर दूसरे संक्रमस्थानसे विशेष हीन असंख्यात लोक प्रतिभागके श्राश्रयसे दूसरे सत्कर्मस्थानका प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ।
९ ७५३. अब इस प्रकार उत्पन्न हुए संक्रमस्थान में सत्कर्मप्रक्षेपको अंगुलके असंख्य भाग भाजित कर वहाँ पर एक खण्ड प्रमाण प्रविष्ट हुआ है। तीसरे सत्कर्मस्थानमें उस प्रकारके दो खण्ड प्रविष्ट हुए हैं और चौथे सत्कर्मस्थान के प्रथम संक्रमस्थान में उसी प्रकार के तीन खण्ड प्रविष्ट हुए हैं। इस प्रकार इस क्रमसे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण श्रध्वान जाकर स्थित हुए सत्कर्मस्थान के प्रथम संक्रमस्थान में उस प्रकार के अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण खण्ड प्रविष्ट हुए हैं। अब अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण इन खण्डोंका प्रमाण कितना है ऐसा कहने पर जघन्य सत्कर्मस्थान के प्रथम संक्रमस्थानसे उसीके दूसरे संक्रमस्थान में स्थित अधिक द्रव्यको श्रसंख्यात लोकोंसे भाजित कर एक खण्ड प्रमाण होता है । उपेरिम विरलनमें एक रूपके प्रति रखा गया समस्त सत्कर्मप्रक्षेप यहाँ पर संक्रमरूपसे प्रविष्ट हुआ है यह इसका भावार्थ है ।
१ आ० प्रती संतद्वाण ता०प्रतौ संत ट्ठाण ( गं ) इति पाठ:
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
१७५४. संपहि जहण्णसंतद्वाणप्पहुडि अंगुलस्सा संखेज दिमागमेत्तमुवरि चढिदसंतकम्मट्ठाणद्धाणमेगखंडयपमाणं करिय तदो एरिसाणि एक-दो-तिणिआदि जाव असंखेज लोगमेत्तखंडयाणि गंतूणादि संत (म्म पढमपरिवाडिपट मसंकमट्ठाणादो तत्थेव विदियसंक्रमणविसेसमेतदव्वं पवि होइ । विज्झादभागहारेणुवरिमविरलणमोट्टिय तत्थ लद्धरूत्रमे तकंडएस गदेसु जं संतकम्मट्ठाणं तत्थ संकमट्ठाण विसेसमेतदव्वं संतकम्मरूण पट्टमिद जं वृत्तं होइ ।
४६०
९७५५. संपहि एत्तियमेत्तदव्वे पविट्ठे जं संतकम्मट्ठाणं तस्स जहण्णसंकमट्ठाणं जहण्णसंतङ्काणविदियसंकमा रोग सह सरिस होइ, आहो ण होदि ति पुच्छिदेण होदि । किं कारणं ? जहण्णसंतद्वाणादो णिरुद्धसंतट्ठाणम्मि अहियदव्वमवणिय पुध विदू पुणो से सदम्म अंगुलस्सासंखेज दिभागेण भागे हिदे भागलद्धं जहण्णसंतट्ठाण' पढमसंकमट्ठाणं च दो त्रिव सरिसाणि । पुणो अवणिददव्यस्स वि तेणेव मागो घेप्पदि त्ति अंगुलस्सा संखेजदिभागमेत हेट्ठिमविरलणाए तम्मि दव्त्रे समखंड करिय दिष्णे तत्थेयरूत्रधरिदमेत्तमेत्थ संकमसरूवेण वडिददव्त्रं होई । एदं घेत्तूण पडिरा सिदजहण्णसंकमट्ठाणम्मि पक्खित्ते निरुद्धसंतद्वाणपढम संकमट्ठाणमुप्पजदि । एदं च हेट्ठिमट्ठाणेसु विसह सरिसं ण होदि, जहण्णसंकमद्वाणादो संक्रमट्ठाणवि से सस्सा संखेजदिभागमेत्तदव्वेणान्भहियत्तादो |
§ ७५४. अब जघन्य सत्कर्मस्थान से लेकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर प्राप्त हुए सत्कर्मस्थान के अध्वानको एक खण्ड प्रमाण करके वहाँसे इसी प्रकारके एक, दो और तीन से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण खण्ड जाकर स्थित हुए सत्कर्मस्थानमें प्रथम परिपाटी के प्रथम संक्रमस्थानसे वहीं पर दूसरे संक्रमस्थानका विशेषमात्र द्रव्य प्रविष्ट होता है । बिध्यात भागद्दारसे उपरि विरलनको भाजित कर वहाँ पर जितने रूप प्राप्त हों उतने काण्डकोंके जाने पर जो सत्कर्म स्थान है उसमें संक्रमस्थान विशेषमात्र द्रव्य सत्कर्मरूपसे प्रविष्ट हुआ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
७५५. अब इतनेमात्र द्रव्यके प्रविष्ट होनेपर जो सत्कर्मस्थान है उसका जघन्य संक्रमस्थान जघन्य सत्कर्मस्थानके दूसरे संक्रमस्थानके समान होता है या नहीं होता है ऐसा पूछने पर नहीं होता है, क्योंकि जघन्य संत्कर्मस्थानरूपसे विवक्षित सत्कर्मस्थानमेंसे अधिक द्रव्यको घटाकर और पृथक् स्थापित कर पुनः शेष द्रव्यमें अंगुलके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना जघन्य सत्कर्मस्थान और प्रथम संक्रमस्थान होता है, इसलिए ये दोनों समान हैं । पुनः घटाये गये द्रव्यका भी उसी प्रकार भागग्रहण करना चाहिए, इसलिए अंगुल के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण अघस्तन विरलनके ऊपर उसी द्रव्यको समान खण्ड करके देने पर वहाँ एक अंकके प्रतिजितना द्रव्य प्राप्त हो उतना यहाँ पर संक्रमरूपसे वृद्धिको प्राप्त हुआ द्रव्य होता है । इसे प्रहण कर प्रतिराशिरूप जघन्य संक्रमस्थानमें प्रक्षिप्त करने पर विवादित सत्कर्म स्थानका प्रथम संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । और यह अधस्तन स्थानोंमें किसीके भी साथ समान नहीं होता है, क्योंकि जघन्य संक्रमस्थानसे संक्रमस्थानविशेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यरूपसे अधिक होता है ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडपदेससंकमै संकमट्ठाणा ि
४६१
१७५६. पुणो केत्तियमाणं गंतण सरिसं होदि ति भणिदे वुच्चदे – जहण्णसंतद्वाणपहुड असंखेज लोगमेत्तद्वाणमुवरि गंत्तूण दिसंपहियणिरुद्धसंतकम्मट्ठाणादो उवरि सयल हेट्ठिमद्धाणपमाणमेय खंडयं काढूण तारिसाणि विज्झादभागहारमेत्त कंडयाणि गंत्तण जं संतकम्मट्ठाणं तस्स पढमसंक्रमट्ठाणं जहण्णसंतद्वाणविदियसंक्रमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि, उवरिमविरलणरूवधरिदसव्वदव्त्रस्स संक्रमडाणविसेसपमाणस्स णिरवसेसमेत्थ संकमसरूवेण पवेसदंसणादो । एदेण कारणेण विज्झादभागहारमसंखे ० लोग भागहारं च अण्णोण्णगुणं कादूण चंडिदद्वाणपरूवणा कया ।
७५७. संपहि जहणसं तङ्काणत दियसंक्रमणमणं तर णिरुद्धसं तङ्काणविदि यसंकमट्ठाण सह सरिसं होइ । एदेण विधिणा णिरुद्धसंकमट्ठाणपरिवाडीए तदियादिसंक्रमद्वाणाणि पिढमपरिवाडिचउत्थादिसंक मट्ठा रोहिं सह पुणरुत्ताणि होदूण गच्छति जाव पढमसंकमट्ठाणपरिवाडिचरिमसंक्रमट्ठाणेण सह एत्थतणदुचरिमसंकमडाणं पुणरुत्तं होण गिट्टिदं ति । पुणो एत्थतणचरिमसंकमट्ठाणं हेट्ठिमसं कमट्ठारोण केण वि समाणं ण होदि त्ति तदो णियत्तिण बिदियसंकमट्ठाणपरिवाडीए विदियसंकमट्ठाणं घेत्तूण तेण सह पुव्वतसंतकम्मिय पुणरुत्तसंकमट्ठागपरिवाडीदो उवरिमपरिवाडीए पढमसंकमणस्स पुणरुत्तमावो वत्तत्र । पुणो विदियपरिवाडी तदियसंकमट्ठाणेण तत्थतणबिदिय संकमट्ठाणं पुरुतं हो । देण विहिणा सेससंकमट्ठाणाणि वि पुणरुत्ताणि होदूण गच्छति जाव
§ ७५६. पुनः कितना श्रध्वान जाकर सदृश होता है, ऐसा पूछने पर कहते हैं - जघन्य सत्कर्मस्थान से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण अवान ऊपर जाकर स्थित हुए साम्प्रतिक विवक्षित सत्कर्म स्थानसे ऊपर समस्त अधस्तन अध्वान प्रमाण एक खण्ड करके उसके समान विध्यात. भागद्दारप्रमाण काण्डक जाकर जो सत्कर्म स्थान है उसका प्रथम संक्रमस्थान और जघन्य सत्कर्म स्थानका दूसरा संक्रमस्थान ये दोनों समान होते हैं, क्योंकि उपरिम विरलन रूपके प्रति रखे गये संक्रमस्थान विशेषप्रमाण सब द्रव्यका पूरी तरहसे यहाँ पर संक्रमरूपसे प्रवेश देखा जाता है । इसी कारण से विध्यातभागद्दार और असंख्यात लोकप्रमाण भागहारको परस्पर गुणित कर ऊपर चढ़े हुए अध्वानकी प्ररूपणा की है ।
६ ७५७. अब जघन्य सत्कम स्थानका तीसरा संक्रमस्थान अनन्तर विवक्षित सत्कर्म स्थानके दूसरे संक्रमस्थानके समान है। इस विधि से विवक्षित संक्रमस्थान परिपाटीके तीसरे आदि संक्रमस्थान भी प्रथम परिपाटीके चौथे आदि संक्रमस्थानोंके साथ पुनरुक्त होकर तब तक जाते हैं जब तक प्रथम संक्रमस्थानको परिपाटी के अन्तिम संक्रमस्थानके साथ यहाँका द्विचरम संक्रमस्थान पुनरुक्त होकर निष्पन्न हुआ है । पुनः यहाँका अन्तिम संक्रमस्थान किसी भी अन्तिम संक्रमस्थानके समान नहीं है, इसलिए उससे लौटकर दूसरी संक्रमस्थानपरिपाटीके दूसरे संक्रमस्थानको ग्रहण कर उसके साथ पूर्वोक्त सत्कर्म सम्बन्धी पुनरुक्त संक्रमस्थानपरिपाटीसे उपरिम परिपाटीके प्रथम संक्रमस्थानका पुनरुक्तपना कहना चाहिए । पुनः दूसरी परिपाटीके तीसरे संक्रमस्थानके साथ वहाँ का दूसरा संक्रमस्थान पुनरुक्त है । इस विधि से शेष संक्रमस्थान भी पुनरुक्त होकर तब तक जाते हैं जब तक दूसरी संक्रमस्थान
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४६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ विदियसंकमट्ठाणपरिवाडीए चरिमसंकमट्ठाणेण पुव्वुत्तसंतकम्मियादो उपरिमसकमट्ठाणपरिवाडीए दुचरिमसंकमट्ठाणं पुणरुत्त होदण पजवसिदं ति । एत्थ वि गिरुद्धपरिवाडीए चरिमसं कमट्ठाणं हेट्ठा केण वि सरिसण होइ ति तत्तो णियत्तिदण पढमणिवग्गणकंडयतदियसकमट्ठाणपरिवाडीए विदियसकमट्ठाणं घेत्त ण तेण सह पुव्वुत्तसंतकम्मियादो उबरिमतदियसकमट्ठाणपरिवाडीए पढमस कमट्ठाणं सरिस कादण तदो पव्वुत्तकमेण सेसस कमट्ठाणाणं पि पुणरुत्तभावो जोजेयव्यो जाव तत्थतणदुचरिमस कमट्ठाणं हेडिमतदियपरिवाडीए चरिमस कमट्ठाणेण सरिस होदूण परिसमत्तं ति । एत्थ वि चरिमस कमद्वाणं हेट्ठा केण वि सरिसण होदि ति वत्तव्यं ।
७५८. एवमेदेण कमेण पढमणिवग्गणकंडयचउत्थादिपरिवाडीणं पि विदियणिवग्गणकंडयचउत्थादिपरिवाडीहिं पुणरुत्तभावो अणुगंतव्यो जाव दोण्हं णिव्वग्गणकंडयाणं चरिमपरिवाडीओ ति । णवरि सवासि परिवाडीणं पढमस कमट्ठाणाणि ण पुणरुत्तोणि, तेसिं पुणरुत्तभावस्स कारणाणुवलंभादो। विदियणिव्वग्गणकंडयचरिमस कमद्वाणाणि वि अपुणरुत्ताणि णिवग्गणकंडयपमाणं पुण विज्झादभागहारं संतकम्मपक्खेवागमणहेदुभृदमसखेजलोगभागहारं च अण्णोण्णगुणं कादण तत्थ लद्धरूवमेत्तं होइ ति घेत्तव्यं । संपहि एत्थ पढमणिबग्गणकंडयसपरिवाडीणं विदियादिसकमट्ठाणाणि विदियणिव्वग्गणकंडयस कमट्ठाणेहि पुणरुत्ताणि जादाणि त्ति तेसिमवणयणं कायव्वं ।
परिपाटीके अन्तिम संक्रमस्थानके साथ पूर्वोक्त व सत्कर्मकी अपेक्षा उपरिम संक्रमस्थानपरिपाटी का द्विचरम संक्रमस्थान पुनरुक्त होकर अन्तको प्राप्त हुआ है । यहाँ पर भी विवक्षित परिपाटीका अन्तिम संक्रमस्थान नीचे किसीके साथ भी समान नहीं है इसलिए उससे लौटकर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डककी तीसरी संक्रमस्थानपरिपाटीके दूसरे संक्रमस्थानको ग्रहण कर उसके साथ सत्कर्मकी अपेक्षा उपरिम तृतीय संक्रमस्थानपरिपाटीका प्रथम संक्रस्थान सदृश करके अनन्तर पूर्वोक्त क्रमसे शेष संक्रमस्थानोंका भी पुनरुक्तपना तब तक लगा लेना चाहिए जब तक अधस्तन तीसरी परिपाटीके अन्तिम संक्रमस्थानके साथ सदृश होकर परिसमाप्त होता है। यहाँ पर भी अन्तिम संक्रमस्थान नीचे किसीके साथ भी समान नहीं है ऐसा कहना चाहिए।
६७५८. इस प्रकार इस क्रमसे प्रथम निर्गणाकाण्डककी चौथी आदि परिपाटियोंका भी दूसरे निर्वाणाकाण्डककी चौथी आदि परिपाटियोंके साथ पुनरुक्तपना तब तक जानना चाहिए जब तक दो निर्वर्गणाकाण्डकोंकी अन्तिम परिपाटी प्राप्त हो । किन्तु इतनी विशेषता है कि सब परिपाटियोंके प्रथम संक्रमस्थान पुनरुक्त नहीं हैं, क्योंकि उनके पुनरुक्तपनेका कारण नहीं उपलब्ध होता। दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम संक्रमस्थान भी अपुनरुक्त हैं । परन्तु निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण विध्यातभागहारको तथा सत्कर्मके प्रक्षेपोंके आगमनके हेतुभूत असंख्यात लोकमाण भागहारको परस्पर गुणित करके वहाँ जो लब्ध आवे उतना होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब यहाँ पर प्रथम निर्वर्गणाकाण्डककी सब परिपाटियोंके दूसरे आदि संक्रमस्थान दूसरे निर्वर्गणाकाण्डकके संक्रमस्थानोंके साथ पुनरुक्त हो गये हैं, इसलिए उनको अलग कर देना चाहिए। जिस प्रकार
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४६३ जहा पढम-विदियणिधग्गणकंडयाणमण्गोण्णेण पुणरुत्तभावो परूविदो तहा बिदिय-तदियणिब्वग्गणकंडयाणं पि वत्तव्यं, विसेसाभावादो । एत्थ विदियणिव्वग्गणकंडयसवपरिवाडीणं बिदियादिस कमाणाणि पुणस्ताणि ति अबणेयवाणि । एवमणंतरहेट्ठिमणिव्वग्गणकंडयसन्चपरिवाडीणं रिदियादिसकमट्ठाणाणि अणंतरोवरिमणिव्वग्गणकंडयसापरिवाडिसकमट्ठाणेहिं जहोकमं पुणरुत्ताणि कादण णेदवाणि जाव दुचरिमणिवग्गणकंडयसनपरिवाडीणं विदियादिसकमट्ठाणाणि चरिमणिव्वग्गणकंडयस कमट्ठाणेहि सह पुणरुत्ताणि होदण पयदपवणाए पजवसाणं पत्ताणि ति । एवं णीदे चरिमणिव्वग्गणकंडयं मोत्तण दुचरिमादिहेडिमासेप्तणिव्वग्गणकंडयाणं सव्वाणि .. चेव संकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि होदण गदाणि। णवरि सम्बणिव्व- ० ० ० ग्गणकंडयसव्वपरिवाडीणं पढमस कमट्ठाणाणि सव्वाणि चेबापुण- ० ० रुत्ताणि होदण चिट्ठति ।
० ० ० ० ० ७५६. संपहि परिणामट्ठाणविक्खंभस कमाणपरिवाडिमेत्तायामसयस कमट्ठाणपदरादो पुणरुत्तसंकमट्ठाणेसु अवणिदेसु सेसस कमट्ठाणाणि अपुणरुत्तभावेण वीयणाकाराणि होदण चेट्ठति । तेसिमेसा ठवणा । एत्थ दंडपमाणमोकड्ड कड्डणभागहारं विज्झादभागहारं बेछावट्ठि०अण्णोण्णब्भत्थरासिं वेअस खेजा लोगे जोगगुणगारं च एवमेदे छन्भागहारे अण्णोण्णगुणे करिय : लद्धरूवमेत्तं होइ, संकमट्ठाणपरिवाडीणमायामस्स णिरवसेसमेत्थ दंडभावेणावट्ठिदत्तादो। चरिमणिव्वग्गणकंडयस कमट्ठाणाणि पुण / प्रथम और द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकोंका परस्पर पुनरुक्तपना कहा है उसी प्रकार दूसरे और तीसरे निर्बर्गणाकाण्डकोंका भी कहना चाहिए, क्योंकि उनसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। यहाँ पर दूसरे निर्वर्गणाकाण्डककी सब परिपाटियोंके दूसरे आदि संक्रमस्थान पुनरुक्त हैं,इसलिए उन्हें अलग कर देना चाहिए। इसी प्रकार अनन्तर अधस्तन निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके द्वितीय आदि संक्रमस्थानोंको अनन्तर उपरिम निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके संक्रमस्थानोंके साथ क्रमसे पुनरुक्त करके तब तक ले जाना चाहिए जब तक द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके द्वितीय आदि संक्रमस्थान अन्तिम निर्गणाकाण्डकके संक्रमस्थानोंके साथ पुनरुक्त होकर प्रकृत प्ररूपणामें अन्तको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ले जाने पर अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक को छोड़कर द्विचरम आदि समस्त निर्षर्गणाकाण्डकोंके सभी संक्रमस्थान पुनरुक्त होकर जाते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सब निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके सभी प्रथम संक्रमस्थान अपुनरुक्त होकर ही स्थित हैं।
६७५६. अब परिणामस्थानमात्र विष्कम्भयुक्त और संक्रमस्थान परिपाटीमात्र आयाम युक्त सर्व संक्रमस्थान प्रतरमेंसे पुनरुक्त संक्रमस्थानोंके घटा देने पर शेष संक्रमस्थान अपुनरुक्तरूपसे बीजनाकार रूप होकर स्थित होते हैं। उनकी यह स्थापना है। (स्थापना मूलमें देखो।) यहाँ पर
० ००० ०
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४६४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो
परिणामट्ठाण विक्खंभेण पुव्वपरूविदणिव्वग्गणकंडयायामेण च वीयणपदरागारेण चि दट्ठव्वाणि । एवं विज्झादसंकममस्सिऊण मिच्छत्तस्स संक्रमट्ठाणपरूवणा समत्ता ।
§ ७६०. संपहि अपुव्त्रकरणम्मि गुणसंक्रममस्सिऊण मिच्छत्तस्स संक्रमट्ठाणपरूवणं कस्साम । तं जहा — खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुव्त्रविहाणेण देवेसुप्पञ्जिय सव्वल हु सम्म पढिलभेण बेछावट्टिसागरोवमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय अधापवत्तकरणं बोलेदूणापुञ्त्रकरण पढमसमयमहिट्टियस्स तत्थतणजहण्णसंतकम्मं जहण्णपरिणामणिबंधणगुणसं कमभागहारेण संकामेमाणस्स गुणसंकमम स्सिऊण जहण्णसंकमट्ठाणं होई । एदं पुण विज्झादसं कमविसयसबुकस्स संक्रमट्ठाणादो असंखेजगुणं । एत्थ वि जहण्णसंतकम्मस्स संकमपाओग्गाणि असंखेज लोगमेत परिणामट्ठाणाणि अत्थि तेसु सव्वाणि ण घेप्पंति, जहणपरिणामङ्काणादो असंखेजलोगमेत्तद्वाणं गंतूण तत्थेगपरिणामट्ठाणमसंखेज लोगभागुतरपदेस कमस्स कारणभूदमत्थि, तस्स गहणं कायव्यं । एवमवट्ठिदमसंखेजलो गमेत्तद्वाणं गंण एक्केकमपुणरुत्तसंक्रमट्ठाणणिबंधणपरिणामट्ठाणमुवलब्भइ त्ति तहाभूद परिणामट्ठाणेसु सब्बे उच्चिणिण गहिदेसु एदाणि वि असंखेअलोगमेत्ताणि एकमेकदा अनंतगुणाहिय
दण्डका प्रमाणअपकर्षण-उत्कर्षंणभागद्दार, विध्यातभागद्दार, दो छयासठ सागरोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, दो असंख्यात लोक और योगगुणकार इन छह भागहारोंको परस्पर गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना है, क्योंकि संक्रम स्थानोंकी परिपाटियोंका आयाम यहाँ पर पूरी तरह से दण्डरूपसे अवस्थित है । परन्तु अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डकके संक्रमस्थान परिणामस्थानके विष्कम्भ और पहले कहे गये निर्वर्गणाकाण्डकके आयामरूप जो बीजनाका प्रतराकार उस रूपसे स्थित है ऐसा यहाँ पर जानना चाहिए । इस प्रकार विध्यातसंक्रमका आश्रय कर मिथ्यात्वके संक्रमस्थानों की प्ररूपणा समाप्त हुई ।
§ ७६०. अब अपूर्वकररण में गुणसंक्रमका आश्रय लेकर मिध्यात्वके संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा करेंगे । यथा - क्षपितकर्मा' शिकलक्षणसे आकर पूर्वोक्त विधिसे देवोंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त करनेसे दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर तथा दर्शन मोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरणको बिताकर जो अपूर्वकरणके प्रथम समय में स्थित हो वहाँ जघन्य सत्कर्मको जघन्य परिणाम निमित्तक गुणसंक्रमभागहार के द्वारा संक्रम कर रहा है। उसके गुणसंक्रमका आश्रय कर जधन्य संक्रमस्थान होता है । परन्तु यह संक्रमस्थान विध्यात संक्रमके विषयभूत सर्वोत्कृष्ट संक्रमस्थानसे असंख्यातगुणा होता है। यहाँ पर भी जघन्य सत्कर्मके योग्य जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं उनमेंसे सबको ग्रहण नहीं करते हैं । किन्तु जघन्य परिणामस्थानसे असंख्यात लोकप्रमाण श्रध्वान जाकर वहाँ पर एक परिणाम स्थान असंख्यात लोक भाग अधिक प्रदेशसंक्रमका कारणभूत है, इसलिए उसका प्रण करना चाहिए । इस प्रकार अवस्थित श्रसंख्यात लोकप्रमाण घध्वान जाकर एक एक अपुनरुक्त संक्रमस्थानका कारणभूत परिणामस्थान उपलब्ध होता है, इसलिए उस प्रकारके सभी परिणाम स्थानोंको उठा कर ग्रहण करने पर ये भी परस्पर अनन्तगुणे अधिक क्रमसे वृद्धिरूप होकर असंख्यात लोकप्रमाण
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गा० ५८] नत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४६५ कमेण परिवड्डिदसरूवाणि लद्धाणि भवंति, अधापवत्तचरिमसमयम्मि उच्चिणिदूण गहिदपरिणामपंतिआयामादो एत्थतणपरिणामट्ठाणपंतिआयामो उच्चिणिदण रचिदसरूवो असंखेजगुणो।
७६१. संपहि एदस्स किंचि कारणं भणिस्सामो । तं जहा-अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णसंतकम्मं जहण्णपरिणामेण संकामेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणादो तं चेव जहण्गदव्यमुक्कस्सपरिणामेण संकामेमाणस्स उकस्ससंकमट्ठाणमसंखेजलोगभागब्भहियं चेत्र होइ असंखेजगुणब्भहियमण्णं वा ण होइ ति एसो णियमो। कथमेदं परिच्छिण्णमिदि भण्णदे-मिच्छत्तस्स तिसु अद्धासु भुजगारो संकमो पदिदो । उवसमसम्माइट्ठिस्स वा दंसणमोहक्खवणाए वा पुव्वुप्पण्णसम्मत्तमिच्छाइटिणा वा अविणट्ठवेदगपाओग्गेण कालेण सम्मत्ते गहिदे तस्स पढमावलियकालभंतरे भुजगारसंकमो होइ त्ति । एत्थ तदियपयारे मिच्छाइद्विचरिमावलियणवकबंधवसेण. भुजगारप्पयरावद्विदाणं तिण्हं पि संभवो जोजिदो। तत्थ पढमावलियविदियादिसमएसु उदयावलियमणुप्पविसमाणगोवुच्छादो हेट्ठिमसमयम्मि विज्झादेण संकेतदव्वादो च संकमपाओग्गभावेण ढुकमाणणवकबंधस्स केतिएणावि बहुत्तसंभवमस्सिदण भुजगारसंकमो परूविदो, सो च असंखेजभागवड्डीए चेव होदि ति वुत्तं । जइ वुण विज्झादसंकमविसये वि असंखेजगुणवहिणिमित्तपरिणामसंभवो
maaaaamanna
प्राप्त होते है, क्योंकि अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें उठा कर ग्रहण किये गये परिणामस्थानों की पंक्तिके आयामसे यहाँको परिणामस्थानोंकी पंक्तिका आयाम उठाकर रचा गया असंख्यात गुणा होता है।
६७६१. अब इसके कुछ कारणको कहेंगे। यथा-अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें जघन्य सत्कर्मको जघन्य परिणामके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके जो जघन्य संक्रमस्थान होता है उससे उसी जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट परिणामके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट संक्रमस्थान असंख्यात लोकका भाग देने पर मात्र एक भाग अधिक होता है। असंख्यातगुणा अधिक या अन्य नहीं होता यह नियम है।
शंका-यह नियम किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधन कहते हैं-मिश्यात्वका तीन कालोंमें भुजगार संक्रम होता है- एक तो उपशम सम्यग्दृष्टिके, दुसरे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय और तीसरे जिसने पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न किया है ऐसे मिथ्यादृष्टिके द्वारा वेदक सम्यक्त्वके योग्य कालका नाश किये बिना सम्यक्त्व के ग्रहण करने पर उसके प्रथम श्रावलिरूप कालके भीतर मुजगार संक्रम होता है । उनमेंसे यहाँ पर तीसरे प्रकारमें मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम आवलिमें हुए नवकबन्धके कारण भजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों सम्भव हैं। उनमेंसे वहाँ प्रथम श्रावलिके द्वितीयादि समयोंमें उदयावलिमें प्रविष्ट होनेवाली गोपुच्छासे और अघस्तन समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रान्त हुए द्रव्यसे संक्रमके योग्यरूपसे प्राप्त हुए नवकबन्धका कितने ही द्रव्यके द्वारा बहुतपनेका आश्रय कर भुजगार
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ होज्ज तो असंखेजगुणवडीए तत्थ भुजगारसंभवं परूवेज । ण च तहा परूविदं, असंखेजभागवीए चेव पयदविसये भुजगारसंकमो ति णियमं कादूण तत्थ परूविदत्तोदो । तेण जाणामो जहा अधापवत्तचरिमसमयम्मि जहण्गपरिणामेण संकामिदजहण्णदव्वादो तत्थे. वुक्कस्सपरिणामेण संकामिददव्वं विसेसाहियं चेव होइ, दुगुणादिकमेणासंखेजगुणब्भहियं ण होइ ति।
६७६२, अपुचकरणम्मि पुण जहण्णपरिणामेण संकामिदजहण्णसंतकम्मणिबंधणजहण्णसंतकम्मट्ठाणादो तं चेव जहण्णसंस्तकम्ममुक्कसपरिणामेण संकामेमाणयस्स उकस्ससंकमदनमसंखेजगुणं होदि । कुदो एदं परिच्छिादि ति चे ? सुत्ताविरुद्धपुबाइरियवक्खाणादो । तदो उच्चिणिदण गहिदअधापवत्तचरिमसमयपरिणामट्ठाणेहिंतो अपुषः पढमसमयम्मि उच्चिणिदूण गहिदपरिणामट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि त्ति सिद्धं । होंताणि वि अधापवत्तचरिमसमयपरिणामट्ठाणाणि असंखेजलोगगुणगारेण गुणिदमेत्ताणि होति ति घेत्तव्यं ।
७६३. संपहि एवमुच्चिणिदूण गहिदपरिणामट्ठाणाणमपुचपढमसमए परिवाडीए रचणं कादण जहण्णसंतकम्मं धुवभावेणावलंबिय परिणामट्ठाणमेत्ताणि चे संकमट्ठाणाणि असंखेजलोगभागड्डीए समुप्पाएयवाणि । एवमुप्पाइदे पढमपरिवाडी समत्ता। संक्रम कहा है वह असंख्यात भागवृद्धिरूप ही होता है यह कहा है। यदि विध्यातसंक्रमके विषयमें भी असंख्यातगुणवृद्धिका निमित्तभूत परिणाम सम्भव होवे तो असंख्यातगुणवृद्धिके द्वारा वहाँ पर भुजगारसंक्रमकी प्ररूपणा की जाती। परन्तु वैसा नहीं कहा है, क्योंकि असंख्यातभागवृद्धि रूपसे ही प्रकृत विषयमें भुजगारसंक्रम होता है ऐसा नियम करके वहाँ पर प्ररूपणा की है। इससे हम जानते हैं कि अधःप्रवृत्तके अन्तिम समयमें जघन्य परिणामके द्वारा संक्रम कराये गये जघन्य द्रव्यसे वहीं पर उत्कृष्ट परिणामके द्वारा संक्रमित कराया गया द्रव्य विशेष अधिक ही होता है, द्विगुण आदि क्रमसे असंख्यातगुणा नहीं होता।
६७६२. अपूर्वकरणमें तो जघन्य परिणामके द्वारा संक्रमित कराये गये जघन्य सत्कर्मनिमित्तक जघन्य संक्रमस्थानसे उसी जघन्य सत्कर्मको उत्कृष्ट परिणामके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्ट संक्रम द्रव्य असंख्यातगुणा होता है ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-सूत्रके अविरुद्ध पूर्वाचार्योंके व्याख्यानसे जाना जाता है। इसलिए उठाकर प्रहण किये गये अधःप्रवृत्तके अन्तिम समयसम्बन्धी परिणामस्थानोंसे अपूर्वकरणके समयमें उठाकर ग्रहण किये गये परिणामस्थान असंख्यातगुणे होते हैं यह सिद्ध हुआ। ऐसा होते हुए भी अधःप्रवृत्तके अन्तिम समयमें जो परिणामस्थान होते हैं वे असंख्यात लोकप्रमाण गुणकारसे गुणित
ता यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
६७६३. अब इस प्रकार उठाकर ग्रहण किये गये परिणामस्थानोंकी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें रचना करके तथा जघन्य सत्कर्मका ध्रवरूपसे अवलम्बन करके परिणामस्थानप्रमाण हो संक्रमस्थानोंको असंख्यात लोक भागवृद्धिके द्वारा उत्पन्न करना चाहिए । इस प्रकार उत्पन्न करने पर प्रथम परिपाटी समाप्त हुई।
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गा:५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४६७ ६७६४. संपहि जहण्णदबादो एयसंतकम्मपक्खेवमहियं कादूणागदस्स विदियपरिवाडी होदि । एत्थ ताव संतकम्मपक्वपमाणाणुगमो कोरदे-अपुत्रकरणपढमसमयजहण्णदत्याडिबद्धजहण्णसंकट्ठाणे तस्सेव विदियसंकमट्ठाणादो सोहिदे सुद्धसेसो संकमट्ठाणविसेसो णाम । एसो च जहण्णसंकमट्ठाणस्सासंखेजलोगपडिभागिओ । एदम्मि संकमट्ठाणविसेसे अण्णेणासंखेजलोगभागहारेणोवट्टिदे भागलद्धमेतमेत्थ संतकम्मपक्खेवपमाणं होई । जहण्गदव्वे सव्वुकस्सगुणसं कमभागहारेण बेअसंखेजलोगाहिएण भागे हिदे भागलद्धमेतमेस्थतणसंतकम्मपक्खेपमाणमिदि वुत्तं होइ । एवं विहपक्खेवुत्तरजहण्णसंतकम्ममस्सिऊग परिणामट्ठाणमेतसकमट्ठाणेसु णाणाकालसंबंधिणाणाजीबे अस्सिऊग समुप्पाइदेसु विदियसंकमट्ठाणपरिवाडी समप्पदि । एदेण विहिणा एगेगसंतकम्मपक्खेवं पक्खिविय तदियादिसंकमाणपरिवाडीओ च उप्पाइय णेदव्वं जाव गुणिदकम्मंसियुक्कस्स. दव्यं पाविण पढमसमये अपुवकरणसंकमट्ठाणपरिवाडीणमपच्छिमवियप्पो समुप्पण्णो ति । एत्थ सेसविधी जहा अधापवत्तकरणचरिमसमए भणिदो तहा वत्तव्यो, विसेसाभावादो । णवरि जत्थ विज्झादभागहारो तत्थ गुणसंकमभागहारो वत्तव्यो ।
६ ७६५. संपहि अपुब्धकरणस्स संतमोदारेढुंण सकिजदि । किं कारणं १ अधापवत्तचरिमसमयट्ठिदेण सह सरिसं कादूणोदारिजमाणे अपुत्रकरणसंकमट्ठाणपरूवणपइण्णाए
६७६४. अब जघन्य द्रव्यसे एक सत्कर्मप्रक्षेप अधिक करके आये हुए जीवके दूसरी परिपाटी होती है । यहाँ पर सर्व प्रथम सत्कर्मके प्रक्षेपके प्रमाणका अनुगम करते हैं-अपूर्वकरणके प्रथम समयसम्बन्धी जवन्य द्रव्य से सम्बन्धित जयन्य संक्रमस्थानको उसीके दूसरे संक्रमस्थानमेंसे घटा देने पर जो शुद्ध शेष रहे वह संक्रमस्थान विशेष कहलाता है। और यह जवन्य संक्रमस्थानका असंख्यात लोक प्रतिभागी है। इस संक्रमस्थान विशेषके अन्य प्रख्यात लोक प्रमाण भागहारके द्वारा भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना यहाँ पर सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण है । जघन्य द्रव्यके दो असंख्यात लोक भाग अधिक सर्वोत्कृष्ट गुणसंक्रमभागहारके द्वारा भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उतना सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार एक प्रक्षेप अधिक जघन्य सत्कर्मका आश्रय कर परिणामस्थानप्रमाण संक्रमस्थानोंके नाना कालसम्बन्धी नाना जीवोंके आन यसे उत्पन्न करने पर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी समाप्त होती है। इस विधिसे एक एक सत्कर्म प्रक्षेपको प्रक्षिप्त कर तृतीय आदि संक्रमस्थान परिपाटियोंको उत्पन्न कर गुणितकर्मा शिक जीवके उत्कृष्टद्रव्यको प्राप्त कराकर प्रथम समयवर्ती अपूर्व. करणसम्बन्धी संक्रमस्थान परिपाटियोंके अन्तिम विकल्पके उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिए । यहाँ पर शेष विधि जिस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें कही है उस प्रकार कहनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहाँ पर विध्यातभागहार कहा है वहाँ पर गुणसंक्रमभागहार कहना चाहिए।
६७६५. अब अपूर्वकरणके सत्त्वको उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित हुए द्रव्यके साथ समानता करके उतारने पर अपूर्वकरणसम्बन्धी संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणाको प्रतिज्ञा विनाशको प्राप्त होती है। तथा प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण और
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४६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ विणासप्पसंगादो पढमसमयापुचचरिमसमयाधापवत्तकरणाणं संकमदव्यस्स सरिसीकरणोवायाभावादो च । कालपरिहाणीए खविदगुणिदकम्मंसियाणं ठाणपरूबणे कीरमाणे जहा अधापवत्तकरणचरिमसमयं णिरंभिदूण परूविदं तहा परूवेयव्यं ।
७६६. संपहि एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणमेयपदरायारेण रचणं कादूण पुणरुत्तापुणरुत्तपरूवणा अणंतरपरूविदविहाणेणेव कायया । णवरि एत्थ सरिसत्ते कीरमाणे गुणसंकमभागहारं संतकम्मपक्खेवागमणणिमित्तभूदमसंखेजलोगभागहारं च अण्णोणगुण कादूण तत्थ लद्धरूवमेतद्धाणं गंतूण तदित्थसंतकम्मपढमसंकमट्ठाण जहण्णसंतकम्मियविदियस कमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि त्ति वत्त । एवमेत्तियमेत्तं णिव्वग्गणकंडयमवद्विदं गंतूण सरिसत्तं करिय णेदव्वं जाव अपुवकरणपढमसमयसंकमाणाणि समत्ताणि ति । एत्थ पुणरुत्ताणमवणयणे कदे सेसाणमपुणरुत्तसंकमट्ठाणाणमवट्ठाणं पुवं व वीयणाकारेण दट्टव्वं । तत्थ वीयणपदरायामो गुणसंकमभागहारसंतकम्मपक्खेवागमणणिमित्तभूदासंखेजलोगभागहारअण्णोण्णसंवग्गमेत्तो होइ, विक्खंभो पुण परिणामट्ठाणमेत्तो चेव,तत्थ पयारंतरासंभवादो । दंडायामपमाणं पुण ओकड्डक्कड्डणभागहारबेछावद्विसागरोत्रमअण्णोण्णभत्थरासिगुणसंकमभागहारबेअसंखेजलोगजोगगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गजणिद मेत्तं गुणसंकमभागहारो होइ त्ति घेतलं । एवमपुत्रकरणपढमसमए संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता ।
अन्तिम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणके संक्रमद्रव्यको सदृश करनेका कोई उपाय नहीं है। काल परिहानिके आश्रयसे क्षपितकर्मा शिक और गुणितकर्मा शिक जीवोंके स्थानोंकी प्ररूपणा करने पर जिस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयको विवक्षित कर प्ररूपणा की है उस प्रकार यहाँ पर करनी चाहिए।
६७६६. अब इस प्रकार उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थानोंकी एक प्रतराकाररूपसे रचना करके पुनरुक्त और अपुनरुक्त प्ररूपणा अनन्तर कही गई विधिसे ही करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर सदृशता करने पर गुणसंक्रम भागहारको और सत्कमप्रक्षेपको लाने में निमित्तभूत असंख्यात लोक भागहारको परस्पर गुणा करके उससे जितना लब्ध आवे उतने स्थान जाकर वहाँका सत्कर्मसम्बन्धी प्रथम संक्रमस्थान और जघन्य सत्कर्मवाले जीवका द्वितीय संक्रमस्थान ये दोनों ही स्थान समान होते हैं ऐसा कथन करना चाहिए । इसप्रकार इतने मात्रके निर्वर्गणा काण्डक अवस्थित जाकर सदृश करके अपूर्वकरणके प्रथम समयसम्बन्धी संक्रमस्थानोंके समाप्त होने तक लेजाना चाहिए। यहाँ पर पुनरुक्त स्थानोंका अपनयन करनेपर शेष अपुनरुक्त संक्रमस्थानोंका अवस्थान पहलेके समान वीजनाकार जानना चाहिए । वहाँ वीजनाका प्रतरायाम गुणसंक्रम भागहार और सत्कर्मप्रक्षेपको लानेमें निमित्तभूत असंख्यात लोक भागहारके परस्पर संवर्गमात्र है। विष्कम्भ तो परिणामस्थान मात्र ही है, क्योंकि उसमें प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। दण्डायामका प्रमाण भी अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशि, गुणसंक्रमभागहार, दो असंख्यात लोक और योगगुणकारके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई राशिप्रमाण :गुणसंक्रमभागहार है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समयमें संक्रमस्थान प्ररूपणा समाप्त हुई।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४६६ ६७६७. अपुचकरणबिदियादिसमएसु वि एवं चेत्र परूवणा कायव्या जाव अपुल्यकरणचरिमसमओ ति, सम्बत्थ जहावुत्तविक्खंभायामेहिं .संकमट्ठाणपदरुप्पति पडि विसेसाभावादो । संपहि पढमसमयापुरकरणो विदियसमयापुचकरणो च दो वि सरिसाणि कायव्वाणि । तेसिमोवट्टणामुहेण सरिसत्तविहाणं वुच्चदे । तं कधं ? दिवड्डगुणहाणिगुणिदमेगमेइं दियसमयपबद्धं ठविय अंतोमुहुत्तोवट्टिदोकड्डक्कड्डणभागहारपदुप्पण्णवेछावट्टिसागरोवममण्णोण्णब्भत्थरासिणा पढमसमयगुणसंकमभागहारेण च तम्मि ओपट्टिदे पढमसमयापुचकरणस्स जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । बिदियसमयापुत्रकरणजहण्णभागहारे वि एसा चे दुवणा कायया । णवरि पुबिल्लगुणसंकमभागहारादो संपहियगुणसंकमभाग. हारो असंखेजगुणहीणो । एवं ठविय एत्थ हेद्विमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओवट्टिजमाणे गुणगार-भागहारं सरिसम णिय विदियसमयगुणसंकमभागहारेण पढमसमयगुणसंकमभागहारे भागे हिदे भागलद्ध पलिदोवमस्स असंखे भागमेत्तं होइ ।।
६७६८. पुणो एदेण गुणिदजहण्गदव्यमेत्तं वड्डिदूण द्विदपढमसमयापुव्धजहण्ण. संकमट्ठाणं जहण्गसंतकम्मियविदियसमयापुरकरण जहण्णसंकमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । णवरि एत्थ पढमसमयापुधकरणवड्डिददव्यं संतकम्मपक्वपमाणेण कादूग चढिद
६७६७. अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयोंमें भी अपूर्वकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक इसीप्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि सर्वत्र पूर्वोक्त विष्कम्भ और आयामके द्वारा संक्रमस्थान प्रत्तर की उत्पत्तिके प्रति कोई विशेषता नहीं है । अब प्रथम समयका अपूर्वकरण और दूसरे समयका अपूर्वकरण इन दोनोंको ही सदृश करना चाहिए. इसलिए उनका अपवर्तना द्वारा शहशत्वका विधान करते हैं।
शंका-वह कैसे ? . समाधान-डेढ़ गुणहानि गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको स्थापित कर उसमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अषकर्षण उत्पकर्षण भागहार द्वारा प्रत्युत्पन्न दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका और प्रथम समयसम्बन्धी गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जघन्य संक्रमस्थान होता है। द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणक जघन्य भागहारमें भी यही स्थापना करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि पूर्वके गुणसंक्रम भागहारसे साम्प्रतिक गुणसंक्रमभागहार असंख्यातगुणा हीन है। इस प्रकार स्थापित करके यहाँ पर अधस्तन राशिद्वारा उपरिम राशिके भाजित करनेपर गुणकार और भागहारको एक समान निकाल कर द्वितीय समयके गुणसंक्रम भागहारका प्रथम समयके गुणसंक्रम भागहारमें भाग देने पर भाग लब्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है।
६७६८. पुनः इसके द्वारा गुणित जघन्य द्रव्यमात्रको बढ़ाकर स्थित प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जघन्य संक्रमस्थान और जवन्य सत्कर्मवालेका द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जघन्य संक्रमस्थान ये दोनों ही समान हैं। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर प्रथम समयसम्बन्धी
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४७० . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ द्घाणपत्रणा कायवा । एत्तो उवरिमसनसंकमट्ठाणाणि पढमसमयापुव्वपडिबद्धाणि विदियसमथापव्यकरणसंकमट्ठाणेहिं जहाकम सरिसाणि होदण गच्छंति जाव विदियसमयापधकरणास चरिमपरिवाडोदो हेट्ठा पुचिल्लचडिदद्धाणमेत्तमोसरिदण द्विदसंकमटाणपरिवाडी त्ति । एत्तो उपरिमाणि विदियसमयापुरकरणसंकमट्ठाणाणि पढमसमयापञ्चकरणसंकमट्ठाणेहिं ण पुणरुत्ताणि । कुदो ? पढमसमयापुवकरणसंकमट्ठाणाणमेत्थेव णिद्विदत्तादो।
७६६. संपहि पढमसमयापुरकरणो विदियसमयापुत्रकरणो च तदियसमयापत्रकरणेण सह सरिससंकमपज्जाया अस्थि तेसिमोवट्टणाविहाणं पुव्वं व कादूण सरिसभावो दट्टयो । णारि पढमसमयापुरकरणो जेणद्धाणेण तदियसमयापुचकरणेण सरिसो होदि तत्तो बिदियसमयापुव्यकरणस्स चढिदद्धाणमसंखेजगुणहीणं होइ । अणुकट्टिपञ्जवसाणं पि ण दोण्हमकमेण होदि ति दडव्वं । एत्थ कारणं सुगमं ।।
६७७०. एवमेदेण बीजपदेण उपरि वि सरिसत्तं कादण णेदव्वं जाव अपव्वकरणचरिमसमयो ति । एवं कादण जोइदे विदियसमयापुरकरणमादि कादण जाव दुचरिमसमयापुत्रकरणो ति ताव समुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणि पुणरुताणि जादाणि । किं कारणमिदि चे ? पढमसमयापुब्धकरणसंकमट्ठाणेहिं चरिमसमयापुब्धसंकमट्ठाणेहिं य
अपूर्वकरणके बढ़े हुए द्रव्यको सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करके जितने स्थान आगे गये हैं उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। इससे आगे प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणसे सम्बन्ध रखनेवाले उपरिम सर्व संक्रमस्थान द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंके साथ यथाक्रम सदृश होकर द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणकी अन्तिम परिपाटीसे नीचे पूर्वके चढ़े हुए अध्वानमात्र सरक कर स्थित संक्रमस्थान परिपाटीके प्राप्त होने तक जाते हैं। यहाँ से आगेके द्वितीय समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थान प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंसे पुनरुक्त नहीं है, क्योंकि प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंका इन्हींमें निर्देश किया है।
७६६. अब प्रथम समयका अपूर्वकरण और दूसरे समयका अपूर्वकरण तीसरे समयके अपूर्वकरणके साथ सदृश संक्रम पर्यायबाला है, इसलिए उनके अपवर्तना विधानको पहलेके समान करके सहशभाव जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम समयको अपूर्वकरण जिस अध्वानसे तृतीय समयके अपूर्वकरणके साथ सहश होता है उससे द्वितीय समयके अपूर्वकरणका चढ़ा हुआ अध्वान असंख्यातगुणा हीन है। अनुकृष्टिका अन्त भी दोनोंका युगपत् नहीं होता ऐसा जानना चाहिए । यहाँ पर कारण सुगम है ।
६७७०. इस प्रकार इस बीजपेद के अनुसार ऊपर भी सदृशता करके अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। ऐसा करके योजित करने पर द्वितीय समयके अपूर्वकरणसे लेकर द्विचरम समयके अपूर्वकरणके प्राप्त होने तक उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थान पुनरुक्त हो जाते हैं।
शंका-क्या कारण है ?
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गा ५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि जहासंभवं तेसि सरिसभावदसणादो । तेणेदेसि गहणं ण कायव्यं ।
६७७१. संपहि पढमसमयोपुवचरिमसमयापुयाणं पि सरिसीकरणट्ठमोवट्टणविहाणं वुच्चदे । तं जहा—पढमसमयापुचकरणदव्यमिच्छिय दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्धस्स अंतोमुहुत्तोवट्टिदोकड्डक्कड्डएभागहार०बेछावहिसागरोवमअण्णोण्णब्भत्थरासिपढमसमयगुणस कमभागहारेहि ओवट्टणाए कदाए अपुवकरणपढमसमयजहण्णसं कमदव्यं होइ । पुणो अपुब्धकरणचरिमसमयजहण्णव्वमिच्छामो त्ति एवं चेव भज-भागहारविष्णासो कायव्यो । णवरि पुबिल्लगुणसकमभागहारादो असखेजगुण हीणो चरिमसमयगुणस कमभोगहारो एत्थ ठवेयव्यो । एवं ठविय हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिमोवट्टिय तत्थ भागलद्धपलिदोवमासखेजमाणमेत्तगुणगारेण गुणिदजहण्णदव्यमेत्तं वड्डिऊण द्विदपढमसमयापुन्धकरणपढमसंकमट्ठाणं जहण्णसंतकम्मियचरिमसमयापुधकरणजहण्णसंकमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । एत्तो उवरिमपढमसमयापुचकरणसंकमद्वाणाणि पुणरुत्ताणि चेव होदण गच्छंति, तेणेदेसि पि गहणं ण कायव्यं । तदो अपुचपढमसमयम्मि समुप्पण्णासंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणं हेडिमासंखेजभागविसयसंकमद्वाणाणि चरिमसमयापुबसवसंकमट्ठाणाणि च अपणरुत्ताणि होदण चिट्ठति । णवरि
समाधान—क्योंकि प्रथम समय सम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंके साथ और अन्तिम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थानोंके साथ यथा सम्भव उनको सदृशता देखी जाती है । इसलिए इनका ग्रहण नहीं करना चाहिए।
७७१. अब प्रथम समयके अपूर्वकरणके और अन्तिम समयके अपूर्वकरणके भी सदृश करने के लिए अपवर्तना विधानको कहते हैं। यथा-प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरणके द्रव्यको लानेकी इच्छासे डेढ़ गुणहानि गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षण भागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और प्रथम समयके गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर अपूर्वकरणके प्रथम समयका जघन्य संक्रम द्रव्य होता है । पुनः अपूर्वकरणके अन्तिम समयका द्रव्य लाना इष्ट है, इसलिए इसीप्रकार भाज्य-भाजकका विन्यास करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पूर्वके गुणसंक्रमभागहारसे अन्तिम समयका गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा हीन यहाँ पर स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार स्थापित कर अधस्तन राशिसे उपरिम राशिको अपवर्तितकर वहाँ पर भागलब्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकारसे गुणित जघन्य द्रव्यमात्रको बढ़ाकर स्थित जीवके प्रथम समयके अपूर्वकरणके प्रथम संक्रमस्थान और जघन्य सत्कर्मवालेके अन्तिम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणका जधन्य संक्रमस्थान दोनों ही समान है। इससे उपरिम प्रथम समयसम्बन्धी अपूर्वकरणके संक्रमस्थान पुनरुक्त ही होकर जाते हैं, इसलिए इनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए । अतः अपूर्वकरणके प्रथम समयमें उत्पन्न हुए असंख्यात लोकपमाण संक्रमस्थानोंके अधस्तन असंख्यातवें भागके विषयभूत संक्रमस्थान और अन्तिम समयवर्ती अपूर्वकरणके सब संक्रमस्थान अपुनरुक्त होकर स्थित हैं। इतनी विशेषता
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४७२
जयधवला सहिदे कषायपाहुण्डे
[ बंधगो
सत्थाणे तेसिं पुणरुत्तभावो अस्थि त्ति तत्थ पुन्त्रविह। रोण पुणरुत्ताणमवणयणं काढूणापुणरुत्ताणं चैत्र गहणं कायव्यं । एवमपुत्रकरणमस्तिऊण संकमद्वाणपरूवणा समत्ता ।
१७७२. संपहि अणियट्टिकरणनस्सिऊण संकमद्वाणपरूवणे कीरमाणे अणिय ट्टि - कालब्भंतरे थोवराणि चैव संकमट्ठाणाणि लन्मंति । किं कारणं ? अणियट्टिपरिणामो समयं पडि एक को चेत्र होदि ति परमगुरूवएसोदो । तं जहा - खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पढमसम्मत्तमुप्पाइय वेदयसम्मत्तपडिवत्तिपुरस्सरं वेछावट्टिसागरोवमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय अधापवत्तापुव्त्रकरणाणि जहाकमेण बोलाविय अणियट्टिकरणं विस पढमसमए जहण्णस त कम्मणिबंधणगुण संकममस्सिऊण जहण्णसंक मट्ठाणमेक्कं चेत्र समुप्पजदि । एवं बिदियादिसमासु वि जहण्णसंतकम्ममस्सिऊण एक्केक' चैत्र संकमद्वाणमुप्पाइय दव्वं जाव अणियट्टिकरणचरिमसमयो ति । एवमुप्पादे जहण संतकम्ममस्सिऊणा णिय द्विअद्धा मेत्ताणि चैव संकमट्टणाणि अण्णो पेक्खिऊणा संखेजगुणवडीए समुप्पण्णाणि । तदो पढमपरिवाडी समत्ता । ७७३. संपहि एदम्हादो जहण्गसंतकम्मादो एगसंतकम्म पक्खेवमेत्तमहियं कादूणागदस्स ं अणियट्टिपढमसमए : अण्णमपुणरुत्तसंकमा णमसंखेजलोगभागन्भहियदि । पुणो दस चैव विदियसमए असंखेज्जगुणवडीए विदियसंकमट्ठाणमुपञ्जदि ।
A
है कि स्वस्थानमें उनका पुनरुक्त भाव है इसलिए वहाँ पर पूर्व विधिसे पुनरक्त संक्रमस्थानोंका अपनयन करके पुनरुक्त संक्रमस्थानोंका ही ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार अपूर्वकरणका श्राश्रय कर संक्रमस्थान प्ररूपेणा समाप्त हुई ।
७७२. अव अनिवृत्तिकरणका आश्रय कर संक्रमस्थानोंका कथन करने पर अनिवृत्तिकरण के काल के भीतर स्तोकतर ही संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि अनिवृत्तिकरणका परिणाम प्रत्येक समय में एक एक ही होता है ऐसा परम गुरुका उपदेश है । यथा -क्षपित कर्माशिक लक्षण से
कर और प्रथम सम्यक्त्यको उत्पन्न कर वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्ति पूर्वक दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर तथा दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो अधःप्रवृतकरण और पूर्वकरणको क्रमसेविताकर अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुए जीवके प्रथम समय में जघन्य सत्कर्म निबन्धन गुणसंक्रमका श्राश्रयकर एक ही जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार द्वितीयादि समय में भी जघन्य सत्कर्मका आश्रयकर एक एक ही संक्रमस्थानको उत्पन्न कराकर अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार उत्पन्न कराने पर जघन्य सत्कर्मका आश्रय कर अनिवृत्तिकरण के कालप्रमाण ही संक्रमस्थान परस्पर को देखते हुए असंख्यात गुणी वृद्धिरूपसे उत्पन्न होते हैं। इससे प्रथम परिपाटी समाप्त हुई ।
६७७३. अब इस जघन्य सत्कर्मसे एक सत्कर्मप्रक्षेपमात्रको अधिक कर आये हुए जीवके निवृत्तिकरण के प्रथम समय में असंख्यात लोकभाग अधिक अन्य अपुनरुक्त संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । पुनः इसीके दूसरे समय में असंख्यातगुणा वृद्धिरूपसे दूसरा संक्रमस्थान उत्पन्न होता
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४७३ एवं तदियादिसमएसु वि णेदवं जाव अणियट्टिचरिमसमयो ति । तदो एत्थ वि अणियट्टिपरिणाममेत्ताणि चे संकमट्ठाणाणि । एवं तदियादिपरिवाडीओ वि णेदवाओ जाव असंखेजलोगमेत्तपरिवाडीणं चरिमपरिवाडि ति।
७७४. तत्थ चरिमवियप्पो बुच्चदे-गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सव्वलहुं दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तापुरकरणाणि कमेण बोलाविऊण अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स सगद्धामेत्ताणि चे संकमट्ठाणाणि लद्धाणि भवंति । एत्थ सव्वत्थ अणियट्टिचरिमसमयो ति वुत्ते ओघचरिमसमयो ण घेत्तव्यो। किंतु मिच्छत्तक्खवणवावदाणियट्टिचरिमसभयो गहेयव्यो, तेणेत्थ पयदत्तादो।
७७५. संपहि एवमुप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणमुवविक्खंभो अणियट्टिअद्धामेत्तो । तिरिच्छायामो वुण जहण्णदव्वमुक्कस्सदव्वादो सोहिय सुद्धसेसदवम्मि संतकम्मपक्खेवपमाणेण कीरमाणे जत्तियमेत्ता संतकम्मपक्खेवा अत्थि तत्तियमेत्तो होइ । संपहि एत्थ पुणरुतापुणरुत्तपरूवणा इत्थमणुगंतव्वा । तं जहा–अणियट्टिविदियसमयगुणसंकमभागहारेण पढमसमयगुणस कमभागहारमोवट्टिय तत्थ लद्धास खेजरूवेहिं गुणिदजहण्णदबमेत्तं वडाढविऊण हिदपढमसमयाणियट्टिस कमट्ठाणं जहण्णसतकम्मियविदियसमयाणियट्टिपढम
है। इसी प्रकार तृतीयादि समयोंमें भी अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। इसलिए यहाँ पर भी अनिवृत्तिकारणके जितने समय हैं तत्प्रमाण ही संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं। इसीप्रकार तृतीयादि परिपाटियोंको भी असंख्यात लोकप्रमाण परिपाटियोंमें अन्तिम परिपाटीके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए।
६७७४. वहाँ अन्तिम विकल्पको कहते हैं-गुणितकर्मा शिक लक्षणसे आकर अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको क्रमसे विताकर अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके अनिवृत्तिकरणके कालप्रमाण ही संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं। यहाँ सर्वत्र अनिवृत्तिकरणका अन्तिम समय ऐसा कहने पर ओघ अन्तिम समय नहीं लेना चाहिए। किन्तु मिथ्यात्वकी क्षपणामें व्याप्त अन्तिम समय लेना चाहिए, क्योंकि उससे यहाँ प्रयोजन है।
६७७५. अब इस प्रकार उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थानोंका ऊर्ध्व विष्कम्भ अनिवृत्तिकरणके कालप्रमाण है। तिर्यक आयाम तो जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे घटा कर शुद्ध शेष द्रव्यको सत्कर्मके प्रक्षेपप्रमाण करने पर जितने सत्कर्मके प्रक्षेप हैं उतना होता है। अब यहाँ पर पुनरुक्तअपुनरुक्त प्ररूपणा इस प्रकार जाननी चाहिए। यथा-अनिवृत्तिकरणके द्वितीय समयसम्बन्धी गुणसंक्रम भागहारका प्रथम समयसम्बन्धी गुणसंक्रम भागहारमें भाग देने पर वहाँ लब्ध असंख्यात रूपोंसे गणित जघन्य द्रव्यमात्रको बढ़ाकर स्थित प्रथम समयसम्बन्धी अनिवत्तिकरणका संक्रमस्थान और जघन्य सत्कर्मबालेके द्वितीय समयसम्बन्धी अनिवृत्तिकरणका प्रथम संक्रमस्थान दोनों ही समान है। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय समयसम्बन्धी अनिवृत्तिकरणके संक्रमस्थानोका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो। संकमट्ठाणं च दो वि सरिसाणि । एवं विदियतदियसमयाणियट्टीणं पि सरिसत्तं कादण गेण्हियव्वं । एदेण विधिणागंतूण दुचरिमचरिमसमयाणियट्टीणं पि सरिसभावो जोजेयव्यो । एत्थ सरिसाणमवणयणं कादूण विसरिसाणं चेव गहणे कीरमाणे चरिमसमयाणियट्टिसव्वसंकमट्ठाणाणि दुचरिमादिसमयाणियट्टिसंकमट्ठाणाणमादीदो प्पहुडि असंखेजदिभागं च मोत्तण सेसासेससंकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि जादाणि ति तेसिमवणयणं कायव्वं । तदो अणियट्टिकरणमस्सिऊण मिच्छत्तस्स संकमट्ठाणपरूवणा समत्ता ।।
६७७६. संपहि मिच्छत्तस्स अण्णो वि गुणसंकमविसयो अत्थि-उवसमसम्माइट्ठिपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालं सव्वमेयंताणुवड्डिपरिणामेहि मिच्छत्तपदेसग्गस्स सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु गुणसंकमेण संकंतिदंसणादो । तत्थ वि गुणसंकमपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमयो ति संकमट्ठाणपरूवणाए कीरमाणाए अपव्वकरणपरूवणादो ण किंचि णाणत्तमत्थि तदो तेसु सवित्थरं परूविय समत्तेसु गुणसंकममस्सिऊण मिच्छत्तस्स संकमाणपरूवणा समत्ता । तदो एवं सव्वासु परिवाडीसु ति एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणा समत्ता भवदि।
६७७७. संपहि एदेण सुत्तेण सव्वसंकमाणपरिवाडीसु असंखेजलोगमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणमुवएसादो एतो अब्भहियोणि संकमट्ठाणाणि ण संभवंति चेवे ति . विप्पडिवण्णस्स सिस्सस्स तहाविहविप्पडिवत्तिणिरायरणमुहेण सव्वसंकममस्सिऊणाणताणं संकमट्ठाणाणं संभवपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णंभी सदृशपना करके ग्रहण करना चाहिए । तथा इसी विधिसे आकर द्विचरम समय और चरम समयके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी संक्रमस्थानोंका भी सदृशपना लगा लेना चाहिए। यहाँ । सदृश संक्रमस्थानोंका अपनयन करके विसदृशोंका ही ग्रहण करने पर अन्तिम समयके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी सब संक्रमस्थानोंको और द्विचरम आदि समयके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी संक्रमस्थानोंके आदिसे लेकर असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष सब संक्रमस्थान पुनरुक्त हो गये हैं, इसलिए उनका अपनयन करना चाहिए । इसके बाद अनिवृत्तिकरणका आश्रयकर मिथ्यात्वके संकमस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई।
६७७६. अब मिश्यात्वका अन्य भी गुणसंक्रम विषय है, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टि जीवके प्रथम समयसे लेकर अन्तमुहूर्त काल तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके द्वारा मिध्यात्वके प्रदेशोंका सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें गुणसंक्रमरूपसे संक्रम देखा जाता है । वहाँ भी गुणसंक्रमके प्रथम समयसे ले कर अन्तिम समय तक संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा करने पर अपूर्वकरणकी प्ररूपणासे कुछ भी नानात्व नहीं है, इसलिए उनके विस्तारके साथ प्ररूपणा करके समाप्त होने पर गुणसंकमका आश्रय कर मिथ्यात्वकी संक्रमस्थानप्ररूपण समाप्त हुई । इसलिए 'इस प्रकार सव परिपाटियोंमें, इस सूत्रकी अर्थप्ररूपणा समाप्त होती है।
६७७७. अब इस सूत्रसे सर्वसंक्रमस्थानोंकी परिपाटियोंमें असंख्यात लोकप्रमाण ही संक्रमस्थानोंका उपदेश होनेसे इनसे अधिक संक्रमस्थान सम्भव नहीं ही हैं इस प्रकार विवादापन्न शिष्यकी उस प्रकारकी विप्रतिपत्तिके निराकरण द्वारा सर्वसंक्रमका आभयकर अनन्त संक्रमस्थान सम्भव हैं इसका कथन करने के लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
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उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठााणि
* एवरि सव्वसंकमे प्रताणि संकमट्ठाणाणि ।
१७७८. केवलमसंखेज लोगमेत्ताणि चैत्र संक्रमट्ठाणाणि, किंतु सव्त्रसंकमत्रिसए अताणि संकमट्ठाणाणि अभवसिद्धिएहिंतो अनंतगुणसिद्धाणंतिम भागमेत्ताणि लब्भंति त्ति भरिदं होदि । संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदाणं सव्त्रसंकम विसय संकमट्ठाणाणं परूवणं वत्तइस्साम । तं जहा – एगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुव्वत्तेण कमेण सम्मतं पडिवजिय बेळावट्टिसागरोवमाणि परिभमिदूण दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय जहाकममधापवत्तकरणमपुत्रकरणं च बोलिय अणियट्टिकरणद्धाए संखेजेसु भागेसु गदेसु तत्थ मिच्छत्तचरिमफालिं सव्त्रसंकमेण सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खिमाणो सव्त्रसंकममस्सिऊण मिच्छत्तजहण्गसंक्रमट्ठाणसामिओ होइ । पुणो एदम्हादो उवरि परमाणुत्तरदुपरमाणुत्तरादिकमेण खविदकम्मंसियस्स दोबड्डीहिं खविदगुणिदधोलमा णाणं पंचवड्डीहिं गुणिदकम् मंसियस्स वि दुविहाए बीए वाविय दव्वं जाव एत्थतणचरिमविप्पोति ।
गा० ५८ ]
૪૫
६ ७७६. तत्थ सव्यपच्छिम वियप्पो बुच्चदे - एकको गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्यकस्सं करिय तत्तो णिस्सरिऊण तिरिक्खेसु दो-तिण्णिभवग्गहाणि गमिय समयाविरोहेण देवेसुववज्जिय अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवज्जिय बेछावट्टिसागरोवमाणि
* इतनी विशेषता है कि सर्वसंक्रम में अनन्त संक्रमस्थान हैं ।
§ ७७८. केवल असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान नहीं हैं, किन्तु सर्वसंक्रम भव्य अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस सूत्र द्वारा सूचित हुए सर्वसंक्रमविषयक संक्रमस्थानोंका कथन करेंगे । यथा कोई एक जीव क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आकर पूर्वोक्त क्रमसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर तथा दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो क्रमसे अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको विताकर अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग के जाने पर वहाँ मिथ्यात्व की अन्तिम फालिको सर्वसंक्रमके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त करता हुआ सर्वसंक्रमका आश्रय कर मिथ्यात्व के जघन्य संक्रमस्थानका स्वामी होता है । पुनः इसके ऊपर एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक आदिके क्रयसे क्षपितकर्माशिकको दो वृद्धियोंके द्वारा क्षपितगुणित घोलमान जीवों को पाँच वृद्धियोंके द्वारा तथा गुणितकर्माशिक जीवको भी दो वृद्धियोंके द्वारा बढ़ाकर यहाँके अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए ।
७७६. वहाँ सबसे अन्तिम विकल्प कहते हैं - एक गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके फिर वहाँ से निकल कर तिर्यब्चोंमें दो-तीन भवको विताकर यथाशास्त्र देवों में उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो छ्यासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापन कर सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर मिथ्यात्वकी
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४७६
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
परिभमिय दंसणमोहक्खवणं पट्ठविय सम्मामिच्छत्तस्सुवरि मिच्छत्तचरिमफालिं कमेण हिदू द्विदो तस्स पयदत्रिसयचरिमत्रियप्पो हो । संपहि चरिमफालिदव्यमेदं समऊण-बिसमऊणादिकमेण वेछावद्विकालं सव्वमोहारिय गहेयन्त्रं । तं कधमोदारिज दि त्ति भणिदे एगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमुकस्सं करेमाणो तत्थेयगोवुच्छमेत्तेणूणं करियागंतूण समऊणवेछा बट्टीओ परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय मिच्छत्तचरिमफालिं संछुहमाणो पुव्विल्लेण समाणो होइ । एसो परमाणुत्तरकमेण अप्पणो ऊणीकदमे वायव्वो । एवमेदीए दिसाए बेछावट्टिकालो सन्चो परिहावेयत्रो बाव चरिमवियप्पं पत्तोति ।
७८० तत्थ चरिमवियप्पो - जो गुणिदकम्मं सिओ सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमोघुकरसं करियागंतू दो-तिणिभवरगहणागि तिरिक्खेसु गमिय तदो मणुस्सेसुत्रवजिय गन्भादि अवस्सामंतो मुहुत्तन्भहियाणमुवरि दंसणमोहणीयं खवेमाणो मिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकामेदूण ट्ठिदो सो सव्त्रसंकममस्सिऊण मिच्छत्तस्स सव्वपच्छिम वियप्पसामिओ होइ । खविदकम्मंसियस्स वि कालपरिहाणि कादूणेत्रं चैव परूवणा कायन्त्रा । वरि एयगोवुच्छमेत्तमहियं कादूणागदेण हेट्ठिमसमयद्विदो सरिसो त्ति वत्तव्यं । ओदारिय चरिमफालिदव्वे वड्ढाविदे इमाणि सव्वसंकमविसये अणताणि
अन्तिम फालिको क्रमसे संक्रमित कर स्थित है उसके प्रकृत सर्वसंक्रमविषयक अन्तिम विकल्प होता है। अब इस अन्तिम फालिके द्रव्यको एक समय कम, दो समय कम श्रादिके क्रमसे सम्पूर्ण दो छयासठ सागर प्रमाण कालको उतार कर ग्रहण करना चाहिए। उसे कैसे उतारा जाय ऐसा पूछने पर कहते हैं- - एक गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवीं में मिध्यात्व के द्रव्यको उत्कृष्ट करता हुआ वहाँ एक गोपुच्ामात्र न्यून करके और आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत हो मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका संक्रम करता हुआ पूर्वके जीवके समान है । यह एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अपने कम किये गये द्रव्यमात्रको बढ़ावे | इस प्रकार इस दिशासे अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक समस्त दो छयासठ सागर काल घटाना चाहिए ।
७८०. अब वहाँ अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं - जो गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्व के द्रव्यको ओघ उत्कृष्ट करके और आकर दो-तीन भव तिर्यञ्चों में विताकर अनन्तर मनुष्यों में उत्पन्न हो गर्भ से लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष के बाद दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्व के ऊपर संक्रमण कर स्थित है वह सर्व संक्रमको अपेक्षा मिथ्यात्व के सबसे अन्तिम विकल्पका स्वामी होता है । क्षपितकर्माशिककी भी काकी परिहामि करके इसी प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि एक गोपुच्छमात्र द्रव्यको अधिक कर आये हुए जीवके साथ अधस्तन समय में स्थित जीव समान होता है। ऐसा कहना चाहिए । उतार कर अन्तिम फालिके द्रव्यके बढ़ाने पर सर्वसंक्रमकी अपेक्षा ये अनन्त
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४७७ संकमट्ठाणाणि समुप्पण्णोणि हवंति । होताणि वि खविदजहण्णदव्वे गुणिदुक्कस्सदव्वादो सोहिदे सुद्धसेसे ख्वाहियम्मि जत्तिया परमाण अस्थि तत्तियमेत्ता चे संकमट्ठाणवियप्पा सब्बसंकममस्सिऊण समुप्पण्णा हवंति ।
६७८१. एवमेतिएण पबंघेण मिच्छत्तस्स संकमाणपरूषणं काढूण संपहि एदेणेव गयत्थाणं सेसकम्माणं पि पयदत्यसमप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
एवं सव्वकम्माणं । ६७८२. जहा मिच्छत्तस्स संकमट्ठाणपरूवणं कयं तहा सेसकम्माणं पि कायव्यं । कुदो ? सबसंकमे अणंताणि संकमट्ठाणाणि तदो अण्गत्थासंखेजलोगा संकमट्ठाणाणि होति, एदेण भेदाभोवादो । संपहि एदेण सामण्णणिद्दे सेण लोहसंजलणस्स वि सब्यसंकमविसयाणमर्णताणं संकमट्ठाणाणमत्थित्ताइप्पसंगे तप्पडिसेहदुवारेणासंखेज्जलोगमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणं तत्थ संभवं पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
वरि लोहसंजलणस्स सव्वसंकमो पत्थि । ६७८३. किं कारणं १ परपयडिसंछोहणेण विणा खविदत्तादो । तम्हा लोहसंजलणस्सासंखेजलोगमेत्ताणि चेव संकमट्ठाणाणि अधापवत्तसंकममसिऊण परूवेयवाणि त्ति
संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं । होते हुए भी क्षपित कर्माशिकके जघन्य द्रव्यको गुणित कर्मा शिकके उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे कम करने पर एक अधिक शुद्ध शेष में जितने परमाणु हैं उतने ही संक्रमस्थानके विस्प सर्वसंक्रमके आश्रयसे उत्पन्न होते हैं।
६७१. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा मिथ्यात्वके संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणां करके अब इसी पद्धतिसे ही गतार्थ शेष कर्मों के भी प्रकृत अर्थका समर्पण करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं___ * इसी प्रकार सब कर्मों के संक्रमस्थान जानने चाहिए।
६७८२. जिस प्रकार मिथ्यात्वके संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष कर्मों के संक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा भी करनी चाहिए, क्योंकि सर्वसंक्रममें अनन्त संक्रमस्थान होते हैं और उससे अन्यत्र असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान होते हैं इस अपेक्षासे कोई भेद नहीं है । अब इस सामान्य निर्देशसे लोभसंज्वलनके भी सर्वसंक्रमविषयक अनन्त संक्रमस्थानों के प्राप्त होने पर उनके प्रतिषेध द्वारा असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान वहाँ सम्भव हैं ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनका सर्वसंक्रम नहीं होता ।
६७८३. क्योंकि पर प्रकृतिमें संक्रमण हुए बिना उसका क्षय होता है। इसलिए अधःप्रवृत्तसंक्रमके आश्रयसे लोभसंज्वलनके असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान कहने चाहिए यह उक्त कथनका मावार्थ हैं। अब इन दोनों ही सूत्रों द्वारा प्रगट किये गये अर्थका स्पष्टीकरण करनेके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ भावत्थो । संपहि एदेहिं दोहि मि सुत्तेहिं समप्पिदत्थस्स फुडीकरणट्ठमेत्थ किंचि परूवणं कस्सामो । तं जहा-बारसकसाय-इत्थि-णवुसय०-अरदि-सोगाणमप्पप्पणो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण अघापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणस्स जहण्णसंतकम्मेण जहण्णपरिणामणिबंधणविज्झादसंक्रममस्सिऊण जहण्णसंकमट्ठाणमुप्पजदि । पुणो तम्मि चेव असंखेजलोगभागुत्तरं संकमट्ठाण होदि । एवं जहण्णए कम्मे असंखेजा लोगा संक्रमट्ठाणाणि होति । तदो पदेसुत्तरे दुपदेसुत्तरे वा एवमणंतभागुत्तरे वा जहण्णसंतकम्मे ताणि चेव संकमट्ठाणाणि ? कुदो तारिससंतकग्मवियप्पाणमपुणरुत्तसंकमट्ठाणंतरुप्पत्तीए अणिमित्तभावोदो । तदो असंखेजलोगभागे पक्खित्ते विदियसंकमट्ठाणपरिवाडी होइ, एगसंतकम्मपक्खेवमेत्ते जहण्णसंतकम्मादो वहिदे वि सरिससंकमट्ठाणतरुप्पत्तीए णिव्वाहमुवलंभादो । एवं सव्वासु परिवाडीसु णेदव्वमिच्चादिमिच्छत्तभंगेण सव्यमणुगंतव्वं । णवरि अधापवत्तसंकमविसए वि एदेसि कम्माणमसंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि अस्थि, तेसिपि परूवणा जाणिय कावव्या ।
६७८४. एवं हस्स-रइ-भय-दुगुछाणं पि वत्तव्वं । णवरि अपुवकरणावलियपवठ्ठचरिमसमए अधापयत्तसंक्रमेण जहण्गसामित्तमेदेसिं जादमिदि अधापवत्तसंकमणिबंधणागि असंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि तत्थुप्पाइय गेण्हियव्याणि । तदो अणियट्टि
लिए यहाँ पर कुछ प्ररूपणा करेंगे। यथा-नपुंसकवेद, अरति और शोकका अपना अपना जो जवन्य स्वामित्व है उस विधिसे आकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान जीवके जघन्य सत्कर्मके साथ जवन्य परिणाम निमित्तक विध्यातसंक्रमका आश्रय कर जघन्य संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। पुनः उसोमें ही असंख्यात लोक भाग अधिक संक्रम स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार जघन्य कर्ममें असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान होते हैं। इसके बाद एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक इस प्रकार अनन्तभाग अधिक जघन्य सत्कर्ममें वे ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि उस प्रकारके सत्कर्म विकल्प अपुनरुक्त संक्रमस्थानोंकी अनन्तर उत्पत्तिमें निमित्त नहीं हैं। इसके बाद असंख्यात लोक भागके प्रक्षिप्त करने पर दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी होती है, क्योंकि जघन्य सत्कर्मसे एक सत्कर्म प्रक्षेपमात्र बढ़ाने पर भी सदृश संक्रमस्थानकी अनन्तर उत्पत्ति निर्वाध उपलब्ध होती है । इस प्रकार सब परिपाटियोंमें ले जाना चाहिए' इत्यादि मिथ्यात्वके भंगसे सब जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अधःप्रवृत्तसंक्रमके विषयमें भी इन कर्मों के असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान हैं, इसलिए उनकी भी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए।
६७८४. इसी प्रकार हास्य, रति, भय और जुगुप्साका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणके श्रावलि प्रविष्ट अन्तिम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा इनका जघन्य स्वामित्व हो गया है, इसलिए अधःप्रवृत्तसंक्रमनिमित्तक असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थानोंको वहाँ उत्पन्न करा कर ग्रहण करना चाहिए । इसके बाद अनिवृत्तिकरणमें संकमस्थानों के उत्पन्न
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमै संकट्ठा ि
करणम्मि संकमट्ठाणुप्पायणे मिच्छतादो णत्थि किं पि णाणतं, तत्थेदेसिं गुणसंकमसंभवं पडि भेदाभावादो | सव्त्रसंकमेत्रिण किंचि णाणत्तमत्थि । एवं लोहसंजलणस्स वि । रिसको गुणसंकमो च णत्थि । अपुव्यकरणावलियपविट्ठचरिमसमय जहण्णसंकम मादि काढूण जास्ससंक्रमट्ठाणे ति ताव अधापवत्तसंक्रममस्सिऊणासंखेञ्ज लोग मेत्ताणि चैत्र संक्रमणाणि लोहसंजलणस्स समुप्पाइय गेदिव्त्राणि ।
९७८५. पुरिसवेद-कोह- माण-माया संजलणाणमुवसम सेढीए चिराणसंतकम्मं सव्ववसामय वकबंधोवसामणाए वावदस्स चरिमसमए जहण्णसामित्तं होइ त्ति तत्थ - तायिट्टिपरिणाममेयवियप्पमस्सिदूग सेढीए असंखे ० भागमेत्तसंतवियप्पेहिं सेढीए असंखे ० भागमेताणि चैत्र संकमट्ठाणाणि समुप्पाइय गेव्हियन्त्राणि । एवं दुवरिमादिसमसु वि विसेसाहियकमेण संकमट्ठायाणि उप्पाइय ओदारेयव्वं जाव णवकबंधोवसामणाए पढमसमयो ति ।
९ ७८६. एवमुप्पादे जोगट्ठाण द्वाणायामेण समयुणदो आवलियविक्खंमेण ण पदकम्माणं संक्रमट्ठाणपदरमुप्पण्णं होई । एत्थ सेसो विधी पदेसविहत्तिभंगेण वत्तव्वो । धावत्कममस्सिऊदेसि लोभसंजलणसंगेण द्वाणपरूवणा कायव्वा । खवग
कराने में मिथ्यात्वसे कुछ भी भेद नहीं है, क्योंकि वहाँ इनका गुणसंक्रम सम्भव होनेके प्रति भेद नहीं पाया जाता । सर्वसंक्रम में भी कुछ भेद नहीं है । इसी प्रकार लोभसंज्वलन के विषयमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका सर्वसंक्रम और गुणसंक्रम नहीं है । पूर्वकरणके अवलिप्रविष्ट अन्तिम समय में जघन्य संक्रमस्थान से लेकर उत्कृष्ट संक्रमस्थानके प्राप्त होने तक अघः प्रवृत्तसंक्रमका आश्रय कर असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान लोभसंज्वलन के उत्पन्न कर ग्रहण करने चाहिए |
- ७८५ पुरुपवेद, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन और मायासंज्वलन के उपशमश्र गिमें समस्त प्राचीन सत्कर्मको उपशमा कर नवकबन्धकी उपशामना में व्यापृत हुए जीवके अन्तिम समय में जघन्य स्वामित्व होता है, इसलिए वहाँके एक विकल्परूप अनिवृत्तिकरणके परिणामका श्राश्रय कर जग के असंख्यातवें भागमात्र सत्कर्म विकल्पोंसे जगन पिके असंख्यातवें भागमात्र ही संक्रमस्थानोंको उत्पन्न कर ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार द्विचरम आदि समयोंमें भी विशेष अधिक के क्रमसे संक्रमस्थानोंको उत्पन्न कर नवकबन्धकी उपशामनाके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए ।
६ ७८६. इस प्रकार उत्पन्न कराने पर प्रकृत कर्मोंका संक्रमस्थानप्रतर योगस्थानोंके अध्वानके बराबर आयामवाला और एक समय कम दो आवलिप्रमाण विष्कम्भवाला उत्पन्न होता है । यहाँ पर शेष विधि प्रदेशविभक्तिके समान कहनी चाहिए। नीचे भी अधःप्रवृत्तसंक्रमका आश्रयकर इनकी लोभसंज्वलन के समान स्थानप्ररूपणा करनी चाहिए । क्षपकश्र णिमें भी नवक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ सेढोए वि णवकबंधचरिमादिफालीओ संछुहमाणयस्स विहत्तिभंगाणुसारेण संकमट्ठाणपरूवणा णियामोहमणुगंतव्या । सव्यसंकमे च पदेसविहत्तिभंगो।
६७८७. संपहि सम्मत्तसम्मामिच्छात्ताणमप्पप्पणो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण उव्वेन्लणदुचरिमकंडयचरिमसमयम्मि उव्वेल्लणसंकमेण संकामेमाणस्स जहण्णसंकमट्ठाणं होइ । एवमादि? कादूण पक्खेवुत्तरकमेण संतकम्मं वड्ढाविय असंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि तण्णिबंधणाणि समुप्पाइय गहेयव्याणि । सेसो विही जहा मिच्छत्तस्स मणिदो तहा वत्तव्यो । णवरि जम्हि विज्झादभागहारो तम्हि उव्वेल्लणभागहारो उबेल्लण.. णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी च भागहारो ठवेयव्यो । संतकम्मपक्खेव पमाणं च अप्पणो जहण्गदव्वादो साहेयव्यं । पुणो कालपरिहाणीए संतकम्मोदारणाए च मिच्छत्तभंगमणुसंमरिय ओदोरेयव्वं जाव सगगालणकालं सबमोइण्णस्स उबेल्लणापारंभपढमसमयो ति । ऐवमोदारिदे उव्वेल्लणसंकममस्सिऊण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखेजलोगमेत्ताणि संकमट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि भवंति । एत्थ पुणरुत्तापुणरुत्ताणुगमे मिच्छत्तविज्झादसंकमभंगो।
६७८८. पुणो चरिमुवेलणकंडयम्मि दोण्हमेदेसिं कम्माणं गुणसंकमसंभवो ति । तत्थापुरकरणम्मि मिच्छत्तस्स जहा संकमट्ठाणपरूवणा कया तहा कायव्वा । तत्थेव
बन्धकी अन्तिम आदि फालियोंका संक्रमण करनेवाले जीवकी विभक्तिभंगके अनुसार संक्रमस्थान प्ररूपणा विना व्यामोहके करनी चाहिए । सर्वसंक्रममें प्रदेशविभक्तिके समान भंग है।
.६७८७. अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा विचार करने पर अपने अपने जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर उद्वेलनाके द्विचरम काण्डकके अन्तिम समयमें उद्वेलनासंक्रमके द्वारा संक्रम करनेवाले जीवके जघन्य संक्रमस्थान होता है। आगे इसे आदि करके प्रक्षेपोत्तरके क्रमसे सत्कर्मको बढ़ाकर तन्निमित्तक असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थानोंको उत्पन्न करके ग्रहण करना चाहिए । शेष विधि जिस प्रकार मिथ्यात्वकी कही है उस प्रकार कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ विध्यातभागहार कहा है वहाँ उद्वेलनभागहार और उद्वेलनासंक्रमकी नाना गुणहानि शलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि भागहार स्थापित करना चाहिए । तथा सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण अपने जघन्य द्रव्यके अनुसार साध लेना चाहिए । पुनः कालपरिहानि और सत्कर्मके उतारनेमें मिथ्यात्वके भंगका स्मरण कर पूरा अपने गालन का काल उतरे हुए जीवके उद्वेलनाके प्रारम्भ होनेके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर उद्वेलनासंक्रमका
आश्रय कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर पुनरुक्त और अपुनरुक्तके अनुगममें मिथ्यात्बके विध्यातसंक्रमके समान भंग है।
६७८. पुनः अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें इन दोनों कर्मोंका गुणसंक्रम सम्भव है। सो वहाँ अपूर्वकरणमें मिथ्यात्वकी जिस प्रकार प्ररूपणा की है उस प्रकार करनी चाहिए । वहीं पर.अन्तिम
१.ता० प्रती एव (द ) मादि इति पाठः ।
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गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणा।
४८१ चरिमफालिं संकामेमाणस्स सबसंकमो होदि ति तत्थ अणताणं संकमट्ठाणाणं परूवणा जाणिय कायया । अण्णं च मिच्छत्तं पडिवण्णस्स जाव उव्वेन्लणसंकमपारंभो ण होइ ताब अंतोमुहुत्तकालमधापवत्तसंकमो होइ ति । एत्थ वि अधापवत्तसंकमचरिमसमयमादि कादण जाव अधापवत्तसंकमपढमसमयो त्ति ताव समयं पडि पादेकमसंखेजलोगमेत्तसंकमद्वाणाणि संतकम्मभेदं परिणामभेदं च णिवंधणं कादूण परूवेयवाणि । सम्मामिच्छत्तस्स विज्झादसकमेण दंसणमोहक्खायापुवाणियट्टिगुणसंकमेण तत्थतणसव्वसंकमेण उवसमसम्माइट्ठिम्मि गुणसंकमेण च द्वाणपरूवणाए कीरमाणाए मिच्छतभंगो । एवमोघेण सबकम्माणं ठाणपरूवणा समत्ता ।
७८६. आदेसेण मणुसतियम्मि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेदस्स अपुचकरणावलियपविट्ठचरिमसमयम्मि जहण्णसामित्तं होइ ति तमादि कादूण परूवणा कायया । सेसमग्गणासु जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए ति । एवं सगतोक्खित्तपमाणाणुगमं परूवणाणिओगद्दारं समत्तं ।।
६७६०. संपहि एवं परूविदसंकमट्ठाणाणं पमाणविसयणिण्णयुप्पायणट्ठमप्पा बहुअपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* अप्पाबहुअं।
फालिका संक्रम करनेवाले जीवके सर्वसंक्रम होता है इसलिए वहाँ पर अनन्त संक्रमस्थानोंक प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए । और भी मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके जब तक उद्वेलनासंक्रमर्क प्रारम्भ नहीं होता तब अन्तमुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है । यहाँ पर भी अधःप्रवृत्तसंक्रम के अन्तिम समयसे लेकर अधःप्रवृत्तसंक्रमके प्रथम समय तक प्रत्येक समयमें अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान सत्कर्मके भेदको और परिणामभेदको निमित्त कर कहने चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्वकी विध्यातसंक्रमके आश्रयसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणसंक्रमके आश्रयसे, वहाँ सर्वसंक्रमके आश्रयसे और उपशम श्रेणिमें गुणसंक्रमके आश्रयसे स्थानप्ररूपणा करने पर उसका भंग मिथ्यात्वके समान है । इस प्रकार ओघसे सब कर्मों की स्थानप्ररूपणा समाप्त हुई।
६७८६. आदेशसे मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में पुरुषवेदका अपूर्वकारणके श्रावलिप्रविष्ट अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व होता है, इस लिए उससे लेकर प्ररूपणा करनी चाहिए। शेष मार्गणाओंमें अनाहारक मार्गणातक जानकर प्ररूपणा करनी चाहिए। इसप्रकार जिसके भीतर प्रमाणानुगम अन्तलीन है ऐसा प्ररूपणानुयोगद्वार समाप्त हुआ।
६७६०. अब इसप्रकार कहे गये संक्रमस्थानोंका प्रमाणविषयक निर्णय करनेके लिए अस्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अल्पबहुत्वका अधिकार है ।
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४८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो हु ७६१. सुगममेदमहियारसंभालणवक्क । 8 सव्वत्थोवाणि लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि ।
६७६२. कुदो ? लोहसंजलणस्स सव्वसंकमाभावेणासंखेजलोगमेत्ताणं चेत्र संकमट्ठाणाणमुवलंभादो।
® सम्मत्त पदेससंकमठाणाणि अणंतगुणाणि।। ६७६३. किं कारणं ? अभवसिद्धिएहितो अणतगुणसिद्धाणमणंतभागपमाणत्तोदो। णेदमसिद्धं, उव्वेल्लणचरिमफालीए सव्वसंकममस्सिऊण तेत्तियमेत्तसंकमट्ठाणाणं णिप्पडिबद्धमुवलंभादो।
* अपचक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । .
६ ७६४. किं कारणं ? सम्मत्तस्स चरिमुव्वेलणकंडयजहण्णफालीए तस्सेवुकस्सचरिमफालीदो सोहिदाए सुद्धसेसमेत्ता संकमट्ठाणवियप्पा होति । अप्पच्चक्खाणमाणस्स वि सगसबजहण्णचरिमफालीए अप्पणो उकस्सचरिमफालीदो सोहिदाए सुद्धसेसमेत्ता संकमट्ठाणवियप्पा सव्यसंकमणिबंधणा होति । होता वि सम्मत्तसुद्धसेसट्ठाणवियप्पेहितो असंखेजगुणा, मिच्छतादो गुणसंक्रमेण पडिच्छिददधस्स उव्येल्लणकालभंतरगलिदावसिट्ठस्स सम्मत्तचरिमफालिसरूवेणुवलंभादो। अपच्चक्खाणमाणस्स पुण अणणाहियकम्मढिदिसंचएण मिच्छत्तकस्सदवादो विसेसहीणेण खवणाए अब्भुट्ठिदस्स सव्वुकस्स
६७६१. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह वाक्य सुगम है। * लोभसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे थोड़े हैं।
६७६२, क्योंकि लोभसंचलनका सर्वसंक्रम नहीं होनेसे असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान उपलब्ध होते हैं।
* उनसे सम्यक्त्वमें प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणे हैं।
६ ७६३. क्योंकि ये अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उद्वेलनाकी अन्तिम फालिके सर्वसंक्रमके आश्रयसे उतने संक्रमस्थान बिना वाधाके उपलब्ध होते हैं।
* उनसे अप्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं।
६७६४. क्योंकि सम्यक्त्वके अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी जघन्य फालिको तसीके उत्कृष्ट अन्तिम फालिमेंसे घटा देने पर शुद्ध शेषमात्र संक्रमस्थान विकल्प होते हैं । अप्रत्याख्यानावरण मानके भी अपनी सबसे जघन्य अन्तिम फालिको अपनी उत्कृष्ट अन्तिम फालिमेंसे घटा देने पर शुद्ध शेषमात्र सर्वसंक्रमनिमित्तक संक्रमस्थान विकल्प होते हैं। होते हुए भी सम्यक्त्वके शुद्धशेष स्थानविकल्पोंसे असंख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्वमेंसे गुणसंक्रमके द्वारा प्राप्त हुए तथा उद्वेलना कालके भीतर गलकर अपशिष्ट रहे द्रव्यको सम्यख्यकी अन्तिम फालिरूपसे उपलब्धि होती है । परन्तु क्षपणाके लिए उद्यत हुए जीवके अप्रत्याख्यानावरण मानकी सबसे उत्कृष्ट फालि न्यूनाधिकतासे रहित कर्मस्थितिके संचयप्रमाण तथा मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे विशेष हीन हीत।
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गा० ५८ ]
उत्तरपर्याडपदेससंकमे संकमट्ठाणाि
चरिमफाली होइ ति । एदेण कोरणेणा संखेज्जगुणत्तमेदेसिं ण विरुज्झदे ।
* कोहे पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि ।
६ ७६५. केत्तियमेत्तो विसेसो ! अपच्चक्खाणमाणपदेससंक मट्ठाखाणि आवलियाए असंखेज्जभागेण खंडेऊण तत्थेयखंडमेन्तो । तं जहा - अपच्चक्खाणमाणुकस्ससव्वसंकमदव्त्रमपच्चक्खाणकोहस्स सव्वसंकमुकस्सदव्वादो सोहिय सुद्धसेसमेत्तपयडिविसेसदव्वमणिय पुत्र ठवेयव्वं । एवं पुध दुविदे सेसदव्बं दोन्हं पि समाणं होई । एदम्हादो समुपण्णा से सहेट्ठिम संकमट्ठाणाणि दोन्हं पि सरिसाण होंति जइ दोपहं पि चरिमफालीओ जहणीओ सरिसीओ होज । णवरि जहण्णचरिमफालीओ दोन्हं पि सरिसीओ ण होंति, माणजहण्णचरिमफालीदो कोहजहण्णचरिमफालीए पय डिविसेसमेत्तेप सादिरेयत्तदंसणादो । एदेण कारणेण हेडिमसंक मट्ठाणेसु अपच्चक्खाणमाखेण लद्धसंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि भवंति, जहण्णचरिमफालिविसेसमेत्ताणं चैव संकमद्वाणाणमेत्याहियाणमुवलंभादो । तदो पुव्त्रमवणेण पुत्र डुविदपय डिविसेसमेत्तकस्सचरिमफालिविसेसादो एदम्मि जहण्णफा लिविसेसे सोहिदे सुद्धसे सम्मि जत्तिया परमाण तेत्तियमेत्ताणि चैत्र संकमट्ठाणाणि अपच्चक्खाणकोहेणुवरिमपुव्वाणि लद्धाणि, तेत्तिय - मेत्तसंक मट्ठा रोहिं विसेसा हियत्तमेत्थ दट्ठव्वं । एसो अत्थो उवरि पय डिविसेसेण
है । इस कारण इनका असंख्यातगुणापन विरोधको नहीं प्राप्त होता । * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
४८३
७६५. शंका - विशेषका प्रमाण क्या है ?
समाधान—प्रत्यख्यानावरण मानके प्रदेशसंक्रमस्थानोंको आवलिके असंख्यातवें भागभाजित कर वहाँ जो एकभाग लब्ध आवे उतना विशेषका प्रमाण है । यथा -- प्रत्याख्यान मानके उत्कृष्ट सर्वसंक्रमद्रव्यको अप्रत्याख्यान क्रोधके सर्वसंक्रमसम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्यमें से घटाकर शुद्ध शेषमात्र प्रकृति विशेषके द्रव्यको पृथक् स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार पृथक् स्थापित करने पर शेष द्रव्य दोनोंका ही समान होता है तथा इससे उत्पन्न हुए अशेष अधस्तन संक्रमस्थान दोनों ही समान होते हैं, यदि दोनोंकी ही जघन्य अन्तिम फालियाँ सदृश होवें । परन्तु इतनी विशेषता है कि दोनोंकी जद्यम्य जतिन्म फलियाँ सदृश नहीं होतीं, क्योंकि मानकी जघन्य अन्तिम फालिसे क्रोधकी जघन्य अन्तिम फालि प्रकृति विशेषमात्र अधिक देखी जाती है। इस कारण से अधस्तन संक्रमस्थानोंमें अप्रत्याख्यान मानकी अपेक्षा अप्रत्याख्यान क्रोधके प्राप्त हुए संक्रमस्थान विशेष अधिक होते हैं, क्योंकि जघन्य अन्तिम फालिमें विशेषका जितना प्रमाण है उतने ही संक्रमस्थान यहाँ पर अधिक उपलब्ध होते हैं। इसलिए पूर्वके द्रव्यको घटाकर पृथक स्थापित प्रकृतिके विशेष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तिम फालिसम्बन्धी विशेषमेंसे इस जघन्य फालि सम्बन्धी विशेषको घटा देने पर शुद्ध शेषमें जितने परमाणु होते हैं उतने ही संक्रमस्थान अप्रत्याख्यान क्रोधके श्राश्रयसे उपरिम पूर्व होकर प्राप्त होते हैं, इसलिए इतने मात्र संक्रमस्थान विशेष अधिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ विसेसाहियसव्वपयडीसु जोजेयव्यो ।
६७६६. अण्णं च दोण्हमेदेसिं जहण्णदत्राणि उक्स्सदव्वेसु सोहिय सुद्धसेसादो अहियदव्यमवणिय सेसदव्यं विज्झादभागहारबेअसंखेजालोगजोगगणगाराणमण्णोण्णब्भत्थरासिं विलेऊण समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगसंतकम्मपक्खेवपमाणं पावदि। पुणो एत्तियमेत्तसंतकम्मपक्खेवेसु जहण्णदव्बस्सुवरि परिवाडीए पवेसिदेसु एत्युप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणि संतकम्मपक्खेवं पडि असंखेजलोगमेत्ताणि दोण्हं पि सरिसाणि भवति । पुणो पुचमवणेदूण पुध द्वविददव्वे वि संतकम्मपक्खेवपमाणेण केरमाणे असंखेजलोगमेत्ता संतकम्मपक्खेवा होति ति । तत्थ वि असंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि अपच्चक्खाणकोहस्स विज्झादसंकममस्सिऊणं अब्भहियाणि लब्भंति । एवमधापवत्तगुणसंकमे वि अस्सिऊण अहियत्तं वत्तव्वं । तदो एदेहि मि बिसेसाहियत्तमेत्थ दडव्वं ।
ॐ मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ॐ लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * पच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
यहाँ पर जानने चाहिए। यह अर्थ आगे प्रकृति विशेषकी अपेक्षा विशेषाधिक सब प्रकृतियों में लगाना चाहिए।
६७६६. और भी-इन दोनोंके जघन्य द्रव्योंको उत्कृष्ट द्रव्योंमेंसे घटाकर शुद्ध शेषमेंसे अधिक द्रव्यको कम कर शेष द्रव्यके विध्यातभागहार, दो असंख्यात लोक और योग गुणकारोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको विरलन कर उसके ऊपर समान खण्ड करके देने पर एक एक विरलनके प्रति सत्कर्मसम्बन्धी एक एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इतने मात्र सत्कर्म प्रक्षेपोंके जघन्य द्रव्यके ऊपर परिपाटीसे प्रविष्ट करा देने पर यहाँ पर उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थान सत्कर्मप्रक्षेपके प्रति असंख्यात लोकमात्र होते हुए दोनोंके ही समान होते हैं। पुनः पूर्वके द्रव्यको अलगकर पृथक् स्थापित द्रव्यके भी सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करने पर असंख्यात लोकमात्र सत्कर्मप्रक्षेप होते हैं । वहाँ पर भी अप्रत्याख्यान क्रोधके विध्यातसंक्रमके आश्रयसे असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान अधिक उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार अधःप्रवृत्त और गुणसंक्रमके आश्रयसे भी अधिकपनेका कथन करना चहिए। इसलिए इनकी अपेक्षा भी विशेषाधिकता यहाँ जाननी चाहिए।
* उनसे मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे प्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं।
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उत्तरपयडिपदेस कमे संक्रमट्ठायाणि
* मायाए पदेससंकमठाणाणि विसेसाहियाणि । * लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
गा० ५८ ]
* श्रताणुषंधिम। एस्स पदेससंकमद्वाणाणि विसेस | हियाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* मायाए पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* मिच्छत्तस्स पदेससंक मट्टायाणि विसे साहियाणि ।
६७६७. एदोणि सुत्ताणि सुगमाणि, पयडिविसेसमेत्तकारणावेक्खिदत्तादो | * सम्मामिच्छत्ते पदेससंक मट्ट। ए| णि विसेसाहियाणि ।
६ ७६८. किं कारणं ? मिच्छत्तजहण्णचरिमफालिमुकस्सचरिमफालीदो सोहिय सुद्धसेसदव्वादो सम्मामिच्छत्तसुद्ध से सचरिमफलिदव्त्रस्स गुणसंक्रमभागहारेण खंडदेय. खंडमेत्तेण अहियत्तदंसणादो । मिच्छाइट्ठिम्मि वि सम्मामिच्छत्तस्स अनंताणं संकम
महियाणमुत्रलंभादो च ।
* हस्से पदेससंक मट्ठा पाणि अनंतगुणाणि । ७६६. कुदो ? देसघाइत्तादो ।
* उनसे मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे अनन्तानुबन्धी मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
४८५
* उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे मिथ्यात्वमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
६७६७. ये सूत्र सुगम हैं, क्योंकि यहाँ प्रकृति विशेषमात्र कारणकी अपेक्षा है । * उनसे सम्यग्मिथ्यात्व में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
६७६८, क्योंकि मिथ्यात्वकी जघन्य अन्तिम फालिको उसकी उत्कृष्ट न्तिम फालिमें से घटा कर जो द्रव्य शुद्ध शेष रहे उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी शुद्ध शेष अन्तिमफालिका द्रव्य गुणसंक्रमभागहारसे खण्डित करने पर एक खण्डमात्र अधिक देखा जाता है । तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में भी सम्यग्मिथ्यात्व के अनन्त संक्रमस्थान अधिक उपलब्ध होते हैं ।
* उनसे हास्यमें प्रदेश संक्रमस्थान अनन्तगुणे हैं ।
६ ७६६. क्योंकि यह देशघाति प्रकृति है ।
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४८६
चाहिए
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* रवीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ८००. कुदो ? पयडिविसेसादो ।
* इत्थवेदे पदेससंकमट्ठ। पाणि संखेज्जगुणाणि । ८०१. कुदो ? बंधगद्धापा हम्मादो ।
* सोगे पदेससंकमट्ठाषाणि विसेसाहियाणि ।
६ ८०२. एत्थ बंधगद्धा विसेसमस्सिऊण संखेजभागाहियत्तं दट्ठव्वं । * अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ९ ८ ० ३. कुदो ? पयडिविसेसादो ।
* एवं सयवेदे पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । ८०४. एत्थ बिंधगद्धाविसेसमस्सिऊण विसेसा हियत्तमणुगंतव्वं । * दुछाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८०५. कुदो ? धुवबंधित्तेणित्थि - पुरिसवेदबंधगद्धासु वि संचयोवलंभादो । * भए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ९८०६. पय डिविसेसमेत्तेण ।
* उनसे रतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । ६ ८००. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है ।
* उनसे स्त्रीवेद में प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं ।
[ बंधगो ६
§ ८०१. क्योंकि इसका बन्धक काल बड़ा है .
* उनसे शोक में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
८०२. यहाँ पर भी बन्धक काल विशेषका श्राश्रय कर संख्यातवां भाग अधिक जानना
* उनसे अरतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
९८०३. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है ।
* उनसे नपुंसकवेद में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
८०४. यहाँ पर भी बन्धककाल बिशेषका आश्रय कर विशेषाधिकता जाननी चाहिए ।
* उनसे जुगुप्सामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
८०. क्योंकि यह ध्रुवबन्धिनी प्रकृति होनेसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालोंमें भ इसका संचय उपलब्ध होता है।
* उनसे भयमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
६ ८०६. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है ।
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४८७
गा०५८
उत्तरपवडिपदेससंकमे संकनट्ठाणाणि * पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८०७. कुदो ? पयडिविसेसादो।
* कोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । ६८०८ कुदो ? कसायचउभागेण सह णोकसायभागस्स सव्यस्सेव कोहसंजलणचरिमफालीए सव्यसंकमसरूवेण परिणदस्सुवलंभाद ।
* माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । हु८०६. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमोणि, विहत्तीए परूविदकारणत्तादो ।
एवमोघो समप्पो। 5८१०. एत्तो आदेसपरूवणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधी
*णिरयगईए सव्वत्थोवाणि अपचक्खाणमाणे पदेससंकमठाणाणि।
८११. एदाणि असंखेज्जलोणमेत्ताणि होदूण सेससव्वपयडिपदेससंकमट्ठाणेहितो थोवाणि ति भणिदं होइ।।
® कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायाए पदेससंकमठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* उनसे पुरुषवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। ६८०७. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। * उनसे क्रोधसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं।
हु८०८. क्योंकि कषायके चतुर्थभागके साथ नोकषायोंका भाग पूरा ही क्रोधसंज्वलनकी अन्तिम फालिमें सर्वसंक्रमरूपसे परिणत होकर उपलब्ध होता है।
* उनसे मानसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मायासंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। ६८०६. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं, विभक्तिमें इसका कारण कह आये हैं।
इस प्रकार ओघ समाप्त हुआ। ६८१०. अब आदेशका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध बतलाते हैं* नरकगतिमें अप्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे स्तोक हैं ।
६८११. ये असंख्यात लोकमात्र होकर शेष सब प्रकृतियों के प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे स्तोक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं।
* उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मायामें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
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४८८
जयधवला सहिदे कसायपाहुढे
* लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * पच्चक्खाणमाणे पदेससंक मट्ठाणाणि विसे साहियाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाषाणि विसेसाहियाणि ।
* मायाए पदेस संक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* लोह पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ८१२. दाणि सुत्ताणि पयडिबिसेसमेतकारणपडिबद्धाणि सुगमाणि । * मिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।
९८१३ तं जहा - पच्चक्खाण लोभस्स ताव णिरयगइप डिवद्धाणि असंखेज्ज़लोगमेत्ताणि संकमट्ठाणाणि भवंति । तं कथं ? खविदकम्मं सयलक्खणेणागदासष्णिपच्छायदणेरइयपढमसमयम्मि सन्त्रजहण्णसंकमपाओग्गं पच्चक्खाणलोमजहण्णसंत कम्मट्ठाणं होइ पुणो म्हादो उवरि परमाणुत्तरादिकमेण संतकम्मे वड्डाविज्जमाणे जाव गुणिदकम्मंसियस्स / पच्चक्खाण लोभसं कम पाओग्गुकस्ससंत कम्मट्ठाणे ति ताव चत्तारि पुरिसे अस्सिऊण वडिदु संभवों अस्थि ति जहण्णसंतद्वाणमुक्कस्ससंतकम्मट्ठाणादो सोहियं सुद्धसेसद विरलिय संतकम्मपक्खेवभागहास्स समखंड काढूण दिपणे एक कस्स रूवस्स सव्वकम्मपक्खेव
* उनसे लोभमें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे प्रत्याख्यानमान में प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे क्रोधमें प्रदेश क्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे माया में प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे लोभमें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
[ बंधगो ६
६ ८१२. प्रकृति विशेषमात्र कारणसे सम्बन्ध रखनेवाले ये सूत्र सुगम हैं ।
* उनसे मिथ्यात्वमें प्रदेशसं क्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं ।
९८१३. यथा— प्रत्याख्यान लोभके तो नरकगतिसम्बन्धी संक्रमस्थान असंख्यात लोकमात्र होते हैं ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान — पितकर्मा' शिकलक्षण के साथ असंज्ञियोंमेंसे आये हुए नारकी के प्रथम समय सबसे जघन्य संक्रमके योग्य प्रत्याख्यान लोभका जघन्य संत्कर्मस्थान होता है । पुनः इससे ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे सत्कर्मके बढ़ाने पर गुणितकर्माशिक जीवके प्रत्याख्यान लोभके संक्रमके योग्य उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक चार पुरुषोंका आश्रय कर वृद्धि करना सम्भव है, इसलिए जघन्य सत्कर्मस्थानको उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानमेंसे घटाकर शुद्ध शेष द्रव्यका विरलन कर उसके ऊपर सत्कर्मप्रक्षेपभागद्दारके समान खण्ड कर देयरूपसे देने पर एक एक रूपके प्रति सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। सत्कर्मप्रक्षेपभागद्दार तो असंख्यात लोकप्रमाण है,
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संक मट्ठा ि
पाणं पवई । संकखे मागहारो पुग असंखेजलोगमेत्तो, अधापवत्तभागहारवे असंखेञ्ज लोग-रूवणजोगगुणगाराणमण्णोष्णस वग्गज णिदरासिपमाणत्तादो । पुणो एदेसु बिरलणरासिमेचस तकम्म पक्खेवेसु पढमरूवधरिदसंतकम्मपक्खेवपमाणं घेत्तण पडिरासीकयजहण्णसंतकम्मट्ठा णस्सुवरि पक्खित्ते विदियं सतकम्मट्ठा णमस' खेज्जलो गंभागुत्तरमुपदि । पुणो विदियरूबोवरि द्विदसतकम्म पक्खेवे विदियस कमट्ठाणं पडिरासिय पक्ख दियस कम्माणं होई । एवमेदेण विधिणा अस खेज लोगमेत्तस तकम्म पक्खेवे धेत्तणुप्पण्णुकस्सस तकम्म' पडिरासिय परिवाडीए पक्खित्त पच्चक्खाणलोहस्सासंखेज्जलोगेमेतसंतकम्मट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि भवंति । एदेण कमेणुप्पण्णा संखेज्जलोगमेत्तसंतकम्मट्ठाणाणमेगेग संतकम्मम्मि पादेकमसंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि भवंति, सत्थाणमिच्छाइट्ठिम्मि अधापवत्त संकमपाओग्गाणमसंखेञ्ज लोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणमत्थिते पडि - सेहाभावाद । तदो रियगदीए एत्तियमेत्तसंक्रमट्ठाणाणि पंच्चक्खाणलोभपडिबद्धाणि होंति वि सिद्धं ।
४८६
८१४. संपहि मिच्छत्तस्स वि णिरयगइप डिबद्धाणि असंखेज लोगमेत्ताणि चैव संक्रमट्ठाणाणि होंति । तं जहा - खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण वेछावट्ठीओ भभिय मिच्छत्तं गंतूण समयाविरोहेण रइएसुत्रवज्जिय अंतोमुहुतेण पुणो वि सम्मत्तं घेत्तूण तदो अंतो मुहुत्तूणतेत्तीसंसा गरोवमाणि तत्थ भट्ठिदिमणुपालिय अंतोमुत्तसेसे सगाउए
क्योंकि वह अधःप्रवृत्तभागहार, दो असंख्यात लोक और एक कम योगगुणकारके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई राशिप्रमाण है । पुनः इन विरलन राशिप्रमाण सत्कर्मप्रक्षेपोंमेंसे प्रथम रूपके प्रति प्राप्त सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणको ग्रहण कर प्रतिराशिकृत जघन्य सत्कर्मस्थान के ऊपर प्रक्षिप्त करने पर असंख्यात लोक भाग अधिक दूसरा सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है । पुनः विरलन के दूसरे रूपके ऊपर स्थित सत्कर्म प्रक्षेपको दूसरे सत्कर्मस्थानको प्रतिराशि करके उसके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर तीसरा सत्कर्मस्थान होता है । इस प्रकार इस विधि से असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्म प्रक्षेपोंको ग्रहण कर उत्पन्न हुए उत्कृष्ट सत्कर्मको प्रतिराशि कर क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर प्रत्याख्यान लोभके असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं, इस क्रमसे उत्पन्न हुए असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थानोंमें से एक एक सत्कर्म में अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थान होते हैं, क्योंकि स्वस्थान मिध्यादृष्टिके अधःप्रवृत्तसंक्रमके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानों के अस्तित्व में कोई प्रतिषेध नहीं है । इसलिए नरकगतिमें प्रत्याख्यान लोभसे सम्बन्ध रखनेवाले इतने संक्रमस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ ।
९ ८१४ अब मिथ्यात्वके भी नरकगति से सम्बन्ध रखनेवाले असंख्यात लोक प्रमाण ही संक्रमस्थान होते हैं । यथा - क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आकर तथा दो छ्यासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर मिध्यात्वको प्राप्त हो समय के अविरोध पूर्वक नारकियोंमें उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्त में फिर भी सम्यक्त्वको ग्रहण कर फिर अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर काल तक वह भवस्थितिका पालन कर अपनी आयु में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यक्त्व के अन्तिम समय में विद्यमान
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४६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बधगो ६ सम्माइद्विचरिमसमयन्मि वट्टमाणस्स मिच्छत्तजहण्णसंकमपाओग्गं जहण्णसंतकम्मट्ठाण होदि । एदम्हादो उपरि परमाणुतरादिकमेण जाव मिच्छत्तसंकमपाओग्गुकस्ससंतकम्मद्वाणं पावदि ताव वड्डिदु संभवो ति जहण्णदव्यमुक्कस्सदव्वादो सोहिय सुद्धसेसम्मि संतकम्मपक्खेवपमाणाणुगम कस्सामो । तं जहा
६८१५. सुद्धसेसदव्यमोकड्डक्कड्डणभागहार-वेछावद्विसागरोवमकालभंतरणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णबभत्थरासि-तेत्तीस०अण्णोण्णभत्थरासि-विज्झादभागहार-वेअसंखेजलो.. जोगगुणगाराणमेदेसि सत्तण्हं रासीणमण्णोण्णसंवग्गजणिदरासिमसंखेजलोगपमाणं विरलिय समखंडं कादूण दादच्वं । एवं दिण्णे एक कस्स स्वस्स एगेगसंतकम्मपक्खेवपमाणं पावदि।
८१६. संपहि एदे विरलणरासिमेत्तसंतकम्मपक्खेबे घेत्तूण मिच्छत्तजहण्णसंतवाणं पडिरासिय परिवाडीए पक्खित्ते असंखेजलोगमेत्तागि चेव संतकम्मट्ठाणाणि मिच्छत्तपडिबद्धाणि भवंति । एदेहितो समुप्पज्जमाणसंकमट्ठाणाणि वि असंखेजलोगमेत्ताणि होदण पच्चक्खाणलोभसंकमट्ठाणेहितो असंखेजगुणहीणाणि होति । तत्थतणसंकमपाओग्गसंतकम्मवियप्पेहितो एत्थतणसंकमपाओग्गसंतकम्मवियप्पाणमसंखेजगुणत संते कुदो एस संभवो ति णासंकणिजं, संतकम्माणं तहाभावे विज्झादसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणेहितो अधापवत्तसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणमसंखेजगुणाहियत्तब्भुवगमादो । णाब्भुवगममेतउसके मिथ्यात्वका जघन्य संक्रमके योग्य जघन्य सत्कर्मस्थान होता है। इसके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे मिथ्यात्वके संक्रमके योग्य उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ान। सम्भव है, इसलिए जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट द्रव्ममेंसे घटाकर जो शुद्ध शेष रहे उसमें सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणका अनुगम करेंगे। यथा
८१५. शुद्ध शेष द्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, दो छयासठ सागर कालके भीतर उत्पन्न हुई नाना गुणहानिशालाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, तेतीस सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, विध्यातभागहार, दो असंख्यात लोक और योगगुणकार इन सात राशियोंके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई असंख्यात लोकप्रमाण राशिका विरलन कर उस पर समखण्ड करके देना चाहिए। इस प्रकार देने पर एक एक रूपके प्रति एक एक सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है।
८१६. अब इन विरलन राशिप्रमाण सत्कर्मप्रक्षेपोंको ग्रहण कर मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मस्थानको प्रतिराशि कर क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर असंख्यात लोकप्रमाण ही मिथ्यात्वसे सम्बन्ध रखनेवाले सत्कर्मस्थान होते हैं। तथा इनसे उत्पन्न हुए संक्रमस्थान भी असंख्यात लोकप्रमाण होकर प्रत्याख्यान लोभके संक्रमस्थानोंसे असंख्यातगुणे हीन होते हैं।
. शंका-वहाँके संक्रमप्रायोग्य सत्कर्मविकल्पोंसे यहाँके संक्रमप्रायोग्य सत्कर्म विकल्प असंख्यातगुणे होने पर यह सम्भव कैसे है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संक्रमस्थानोंके वैसा होने पर विध्यातसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थानोंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान असंख्यात
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गा ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
४६१ मेबेदं, परमगुरुपरंपरागयविसिट्ठोवएसणिबंधणत्तादो। केरिसो सो गुरुवएसो ति चे ? वुच्चदे-सव्वत्थोवाणि उबेल्लणसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि, विज्झादसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि, अधापवत्तसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि, गुणसंकमणिबंधणपरिणामट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणगारो सबत्थासंखेजा लोगा । तदो संतकम्मट्ठाणगुणगारादो परिणामगुणगारस्सासंखेजगुणत्तेण मिच्छत्तविज्झादसंकमट्ठाणेहितो पच्चक्खाणलोभस्स अधापवत्तसंकमट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तमिदि घेत्तव्वं । जइ एवं; मिच्छत्तसंकमट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तमेदं कथं पयदि ति णास कणिजं, गुणसंकममाहप्पेण तेसिं तहाभावसमत्थणादो। तं जहा
६८१७. पुव्वुत्तमिच्छत्तजहण्णसतकम्मट्ठाणमादि कादूण जाव तस्सेवुक्कस्सस कमट्ठाणे त्ति ताव एदेसिमसखेज लोगमेत्तसतकम्मट्ठाणाणमेगसेढिआयारेण परिवाडीए रचणं कादण पुणो एत्थ गुणस कमपाओग्गजहण्णसतकम्मगवेसणं कस्सामो। तं कधं १ ण ताव एत्थतणसवजहण्णसतकम्मट्ठाणेण गुणसकमसंभवो, खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावद्विसागरोवमाणि परिभमिय मिच्छत्तं गंतूण णेरइएसुववजिय सव्वलहु सम्मत्तं गुणे अधिक स्वीकार किये हैं। और यह माननामात्र नहीं है, क्योंकि परम गुरुका परम्परासे आया हुआ उपदेश इसका कारण है।
शंका-वह गुरुका उपदेश किस प्रकार का है ?
समाधान-कहते हैं, उद्वेलनासंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे विध्यातसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अधःप्रवृत्तसंक्रमके कारणभूत परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे गुणसंक्रमके (कारणभूत परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं। गुणकार सर्वत्र असंख्यात लोक है। इसलिए सत्कर्मस्थानोंके गुणकारसे परिणामस्थानोंका गुणकार असंख्यातगुणा होनेसे मिथ्यात्वके विध्यातसंक्रमस्थानोंसे प्रत्याख्यान लोभके अधःप्रवृत्तसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
शंका-यदि ऐसा है तो मिथ्यात्वके संक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं यह कैसे कहा गया है?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गुणसंक्रमके माहास्यवश उनका इस रूपसे समर्थन किया है । यथा
६८१७. पूर्वोक्त मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मस्थानसे लेकर उसीके उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान तक इन असंख्यात लोकप्रमाण सत्कर्मस्थानोंकी एक श्रेणिके आकारसे क्रमसे रचना करके पुनः यहाँ गुणसंक्रमके योग्य जघन्य सत्कर्मकी गवेषणा करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-क्योंकि यहाँके सबसे जघन्य सत्कर्मस्थानके आश्रयसे गुणसंक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर मिथ्यात्वमें जाकर नारकियोंमें उत्पन्न हो अतिशीघ्र ही सम्यक्त्वको प्राप्त कर उसके साथ अन्त
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
पडिलंभेण तेत्तीस ' सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणाणि गालिय समुप्पा हदजहण्णस तकम्मेण सह माणचरिमसम वेदयसम्माइट्ठिम्मि उवसमसम्मत्तग्गहणस भवादो । तदो एवंभूदGet deम्मेण णिरयादो उच्चट्टिऊण तप्पा ओग्गेण पलिदोवमास खेज्जभागमेत्तका लेण बेद पाओग्गभावं बोलिय तक्कालब्भंतरसंचिद पलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तसमयपबद्धपविद्धदव्यमेत्तेण जहण्णदव्त्रम भहियं कादूणागदस्स रइएसु अंतोमुहुत्तोववण्णल्लयस्स गुणसंकमपाओग्गजहण्णसंतकम्मं होदि । एदं च सव्वजहण्णमिच्छत्तसंतकम्मादो असंखेजभाग भहियं, पलिदो |मासंखेज्जभागमेत्ताणं समयपवद्धाणमेत्थन्भहियाणमुवलंभादो । संचयमाहप्पादो तत्तो असंखेजगुणन्महिय मेदं किण्ण होदि ति १ णासंकणिज्जं, पुव्युत्तकालुब्धंतरे एकिस्से वि गुणहाणीए वि असंभवणियमादो । कुदो एदमवगम्मदे १ परमगुरूवएसा दो । पुव्युत्त सव्वजहण्णमिच्छत्तस तकम्मादो पक्खेवुत्तर कमेणा संखेज लोगमेत्तसंतकम्मवियप्पे समुल्लंघिऊण समुप्पण्णमेदं ति दट्ठव्वं, एकम्मि वि समयपबद्ध संतकम्मपक्खेवपमाणेण कीरमाणे अस खेज्जलोगमेत्तस तकम्मपक्खेवाणमुवलद्धीदो |
४६२
सागर काल बिता कर उत्पन्न किये गये जघन्य सत्कर्म के साथ जो वेदकसम्यग्दृष्टि अन्तिम समयमें स्थित है उसके उपशमसम्यक्त्वका ग्रहण सम्भव है। इसके बाद इस प्रकार के जघन्य सत्कर्मके साथ नरकसे निकल कर तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा वेदकप्रायोग्यभावको बिताकर उस कालके भीतर संचित पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धों से प्रतिबद्ध द्रव्यसे जघन्य द्रव्यको अधिक कर जो आया है और जिसे नारकियोंमें उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त हुआ है उसके, गुणसंक्रमके योग्य जघन्य सत्कर्म होता है । और यह सबसे जघन्य मिध्यात्वके सत्कमेसे असंख्यातवाँ भाग अधिक होता है, क्योंकि इसमें पल्यके असंख्यातवें भागमात्र समयप्रबद्ध संचयके माहात्म्यवश अधिक उपलब्ध होते हैं ।
शंका-उससे यह असंख्यातगुणा अधिक क्यों नहीं होता ?
समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कालके भीतर एक भी हानि सम्भव नहीं है ऐसा नियम है ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- परम गुरुके उपदेशसे यह जाना जाता है ।
पूर्वोक्त सबसे जघन्य मिथ्यात्वके सत्कर्म से एक प्रक्षेप अधिक के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र सत्कर्म विकल्पोंको उल्लंघन कर यह उत्पन्न हुआ है ऐसा यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि एक भी समयप्रबद्धको सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करने पर असंख्यात लोकमात्र सत्कर्म प्रक्षेपोंकी उपलब्धि होती है ।
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४६३
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणणि ६८१८. सपहि एवं विहाणेण परूविदतप्पाओग्गजहण्णसंतकम्मेण णेरइएसुप्पन्जिय अंतोमुहुत्तेण पजत्तीओ समाणिय उवसमसम्मत्तुप्पायणपढमसमए जहण्णपरिणामेण संकामेमाणस्स गुणसंकममस्सिऊण सव्वजहण्णसंकमट्ठाणं होइ । एदं च विज्झादसंकममस्सिऊण पुन्चमुप्पण्णस कमट्ठाणेसु केण वि सह सरिसण होदि । किं कारणं ? तत्थुप्पण्णसव्वुकस्ससंकमट्ठाणादो वि ऐदस्स गुणसंकमभागहारपाहम्मेणासंखेजगुणब्भहियत्तदंसाणादो । पुणो एदं चे णिरुद्धजहण्णसंतकम्मट्ठाणं विदियपरिणामट्ठाणेण संकामेमाणस्स असंखेजलोगभागवड्डीए विदियस कमट्ठाणं होदि । एत्थ परिणामट्ठाणाणमपुब्धकरणभंगेणाणुगमो काययो । एवमेदेण कमेण तदियादिपरिणामे विणाणाकालसंबंधेण गाणाजीवेहिं परिणमाविय उबसमसम्माइट्ठिपढमसमए जहण्णसंतकम्ममेदं धुवं कादणासंखेजलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि समुप्पाएयव्याणि । एवं पढमपरिवाडी समत्ता।
६८१६. संपहि एदं संतकम्ममस्सिऊण पढमसमयम्मि अण्णाणि सकमट्ठाणाणि ण उप्पज्जति ति एत्तो पक्खेवुत्तरसंतकम्मं घेत्त ण एवं चे परिणामट्ठाणमेत्तायोमेण विदियपरिवाडीए संकमट्ठाणाणमुप्पत्ती वत्तव्या । पुवुत्तकालभंतरे एगसंतकम्मपक्खेवमेत्तेणमहियजहण्णदव्यसंचयं कादूणागदस्स उवसमसम्मत्तग्गहणपढमसमए वट्टमाणस्स तदुप्पत्तिदंसणादो । एदेण बीजपदेणेगेगसंतकम्मपक्खेवेणाहियं संचयं कराविय उवसमसम्माइट्ठिपढमसमयम्मि संतकम्मपक्खेवं पडि असंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि णिव्यामोहमुप्पा
६८१८. अब इस विधिसे तत्प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मके साथ नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तमुहूर्तमें पर्याप्तियोंमें पूराकर उपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करने के प्रथम समयमें जघन्य परिणामसे संक्रमण करनेवाले जीवके गुणसंक्रमका आश्रयकर सबसे जघन्य संक्रमस्थान होता है। और यह विध्यातसंक्रमका आश्रय कर पूर्व में उत्पन्न हुए संक्रमस्थानोंमेंसे किसी भी संक्रमस्थानके साथ सहश नहीं होता, क्योंकि वहाँ पर उत्पन्न हुए सबसे उत्कृष्ट संक्रमस्थानसे भी यह गुणसंक्रमके भागहारके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा अधिक देखा जाता है। पुनः इसी विवक्षित जघन्य सत्कर्मस्थानका दूसरे परिणाम स्थानके निमित्तसे संक्रम करनेवाले जीवका असंख्यात लोक भागवृद्धिके साथ दूसरा संक्रमस्थान होता है । यहाँ पर परिणामस्थानोंका अपूर्वकरणके भंगके अनुसार अनुगम करना चाहिए। इस प्रकार इस क्रमसे तृतीय आदि परिणामोंको भी नानाकालके सम्बन्धसे नानाजीवोंके द्वारा परिणमा कर उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें इस जघन्य सत्कर्मको ध्रुव करके असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान उत्पन्न कराने चाहिए । इसप्रकार प्रथम परिपाटी समाप्त हुई।
८१६. अब इस सत्कर्मका आश्रय कर प्रथम समयमें अन्य संक्रमस्थान नहीं उत्पन्न होते, इसलिए एक प्रक्षेप अधिक सत्कर्मको ग्रहण कर इसी प्रकार परिणामस्थानप्रमाण आयामसे दूसरी परिपाटीसे संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति कहनी चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कालके भीतर एक सत्कर्मप्रक्षेपमात्रसे अधिक जघन्य द्रव्यका संचय करके आये हुए जीवके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें विद्यमान रहते हुए उसकी उत्पत्ति देखी जाती है । इस बीजपदके अनुसार एक एक सत्कर्मप्रक्षेपसे अधिक संचय कराकर उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें सत्कर्मप्रक्षेपके
RAAmar
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४६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ एयवाणि जाव गुणिदकम्म सियस्स सव्वुक्कस्सगुणसकमट्ठाणे ति । एवमुवसमसम्माइटि. पढमसमयम्मि समुप्पण्णसकमट्ठाणाणं विक्खंभायामपमाणाणुगमो सुगमो। उबसमसम्माइट्ठिविदियादिसमएसु वि एवं चास खेज्जलोगविक्खंभायामेण सकमट्ठाणपदरुप्पत्ती वत्तव्या जाव गुणसकमचरिमसमयो ति । णवरि सव्वत्थ अधापवत्तपरिणामपंतिआयामादो एत्थतणपरिणामपंतिआयामो असखेज्जगणो, पुव्वुत्तप्पाबहुअबलेण तहाभावसिद्धीदो।
६८२०. एवमुप्पण्णासेसमिच्छत्तगुणसंकमट्ठोणाणि पच्चक्खाणलोभसयलसंकमठाणेहितो असंखेजगुणाणि । गुणगारो पलिदो० असंखे भागो असंखेजा लोगा च अण्णोण्णगुणिदमेतो। किं कारणं ? आयामादो आयामस्स पलिदोवमासंखेजभागमेत्ते गुणगारे संते विक्खंभादो वि विक्खभस्सासंखेजलोगमेत्तगुणगारदसणादो । अहवा जइ वि एत्थ आयाम गुणगारो पलिदोबमासंखेजभोगमेत्तो णाब्भुवगम्मदे, पच्चक्खाणलोभसंकमट्ठाणपरिवाडीणं चेवायामो अधापवत्तभोगहारपाहम्मेणासंखेजगुणो ति इच्छिजदे तो वि असंखेजगुणत्तमेदं ण विरुज्झदे, आयामगुणगारादो परिणामडाणगुणगारस्सासंखेजलोगपमाणस्सासंखेजगुणत्ते संसर्याभावादो। जइ वि उहयत्थ विक्वंभायामा सरिसा ति घेप्पंति तो वि णासखेजगुणपदुप्पायणमेदं वाहिजदे, तहान्भुवगमे
प्रति असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान गुणितकर्मा शिक जीवके सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमस्थानके प्राप्त होने तक व्यामोहके बिना उत्पन्न कराने चाहिए। इसप्रकार उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें उत्पन्न हुए संक्रमस्थानोंका विष्कम्भ और आयामके प्रमाणका अनुगम सुगम है। उपशमसम्यग्दृष्टिके द्वितीयादि समयोंमें भी इसीप्रकार असंख्यात लोक विष्कम्भ-आयामरूपसे संक्रमस्थानोंके प्रतरकी उत्पत्ति गणसंक्रमके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अधःप्रवृत्त परिणामपंक्ति आयामसे यहाँका परिणामपंक्ति आयाम असंख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके बलसे यह बात सिद्ध होती है।
८२०. इसप्रकार मिथ्यात्वके उत्पन्न हुए समस्त गुणसंक्रमस्थान प्रत्याख्यान लोभके समस्त संक्रमस्थानोंसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार पल्यका असंख्यातवा भाग और परस्पर गुणित असंख्यात लोक है, क्योंकि आयामसे आयामका गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होने पर विष्कम्भसे भी विष्कम्भका गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण देखा जाता है । अथवा यद्यपि यहाँ पर आयामका गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण नहीं स्वीकार किया जाता है । किन्तु प्रत्याख्यान लोभकी संक्रमस्थान परिपाटियोंका ही आयाम अधःप्रवृत्त भागहारके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा स्वीकार किया जाता है तो भी इसका असंख्यातगुणा होना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आयामके गुणकारसे परिणामस्थानोंके असंख्यात लोकप्रमाण गुणकारके असंख्यातगुणे होनेमें कोई संशय नहीं है। यद्यपि दोनों जगह विष्कम्भ और आयाम सदृश ग्रहण किये जाते हैं तो भी यह असंख्यातगुणरूप कथन बाधित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार स्वीकार करने
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गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे संकमट्ठाणााण
४६५ वि मिच्छत्तस्स गुणसंकमकालावलंबणेण अंतोमुहुत्तमेत्तगुणगारुप्पत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो।
* हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । .
६८२१. कुदो ? देसघादिपाहम्मादो। कधं पुण देसघादित्तमाहप्पेणाणतगुणत्तसंभवपाओग्गविसए असंखेजगुणत्तमेदं धडदि ति णासंकणिज्जं, सव्वघादीसु देसघादीसु च सव्यसंकमादो अण्णत्थासंखेजलोगमेत्ताणं चेव संकमट्ठाणाणं संभवब्भुवगमादो । कुदो एवं चेव १ सयघादिसंतकम्मपक्खेवादो देसघादिसंतकम्मपक्खेवस्साणंतगुणत्तब्भुवगमादो । जइ एवं, उहयत्थ संकमट्ठाणविक्खंभायामाणमसंखेजलोगपमाणत्ते समाणणे संते कथमेदेसिमसंखेजगुणत्तं जुजदि ति ?ण एस दोसो, तत्थतणविक्खंभायामेहितो एत्थतणविक्खंभायामाणं देसघादिपाहम्मेणासंखेजगुणतावलंबणादो । तं जहा
६८२२. गुणसंकमभागहारपुव्वुत्तण्णोण्णभत्थरासि-बेअसंखेजलोग-जोणगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गमेत्तो मिच्छत्तगुणसंकमट्ठाणवरिवाडीणमायामो होइ । एत्थतणो पुण अधापवत्तभागहार-वेअसंखेजालोगगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गजणिदरासिपमाणो होइ । होतो वि पुबिन्लादो एसो असंखेजगुणो, तत्थतणासंखेजलोगभागहोरादो एत्थतणापर भी मिथ्यात्वके गुणसंक्रमकालके अवलम्बन द्वारा अन्तर्मुहूर्तमात्र गुणकारकी उत्पत्ति परिस्फुट उपलब्ध होती है।
* उनसे हास्यमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगणे हैं। ६८२१. क्योंकि यह देशघाति प्रकृति है । उसके माहात्म्यवश ऐसा है।
शंका देशघातिके माहात्म्यवश अनन्तगुणे होना सम्भव है, ऐसा होते हुए भी यह असंख्यातगुणा होना कैसे बनता है ?
समाधान_ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सर्वघाति और देशघाति प्रकृतियोंमें सर्वसंक्रमके सिवा अन्यत्र असंख्यात लोकप्रमाण ही संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है।
शंका-ऐसा ही कैसे है ? ..समाधान—क्योंकि सर्वघाति सत्कर्मप्रक्षेपसे देशघातिका सत्कर्मप्रक्षेप अनन्तगुणा स्वीकार किया गया है।
शंका-यदि ऐसा है तो उभयत्र संक्रमस्थानोंका विष्कम्भ और आयाम असंख्यात लोकप्रमाण समान होने पर ये असंख्यातगुणे कैसे बन सकते हैं ?
समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँके विष्कम्भ और आयामसे यहाँका विष्कम्भ और आयाम देशघातिके माहात्म्यवश असंख्यातगुणा स्वीकार किया है । यथा
६८२२. गुणसंक्रमभागहार, पूर्वोक्त अन्योन्याभ्यस्तराशि, दो असंख्यात लोक और योग गुणकारका परस्पर संवर्गमात्र मिथ्यात्वके गुणसंक्रमस्थानसम्बन्धी परिपाटियोंका आयाम होता है। परन्तु यहाँ का आयाम अधःप्रवृत्तभागहार, दो असंख्यात लोक गुणकारके परस्पर संवर्गसे उत्पन्न हुई राशिप्रमाण है। ऐसा होता हुआ भी पहलेके आयामसे यह असंख्यातगुणा है,
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४६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडै
[बंधगो६ संखेजलोगभागहारस्स देसघादिविसयत्तेणासंखेजगुणत्तभुवगमादो। एवं विक्खंभादो वि विक्खंभस्सोसंखेजगुणत्तं वत्तव्वं । कथं पुण गुणसंकमपरिणामेहितो अधापवत्तसंकमपरिणामट्ठाणाणमायामस्सासंखेजगुणत्तसंभवो ति णासंका कायव्या, सबघादिविसयगुणसंकमपरिणामट्ठाणेहितो वि देसघादीणमधापवत्तपरिणामपंतीए असंखेजगुणतावलंबणादो । ण च पुवपरूविदप्पाबहुएण सह विरोहो, तस्स सजादीयपयडिविसए पडिबद्धत्तादो । अहवा जइ वि एत्थतणपरिणामपंतिआयामो असखेजगुणहीणो होइ तो वि देसघादिपडिबद्धसतकम्मपक्खेवभागहारमाहप्पणास खेजगुणत्तमेदमविरुद्धं दडव्वं ।
8 रदीए पदेससंकमहापाणि विसेसाहियाणि ६८२३. कुदो ? पयडिविसेसादो। ॐ इत्थिवेदे पदेससंकमठाणाणि संखेजगुणाणि।।
८२४. सुगममेदं ? ओघम्मि परूविदकारणत्तादो। णवरि विज्झादसकमटाणाणि अस्सिऊणास खेजगुणत्तसं भवासकाए मिच्छत्तभंगाणुसारेण परिहारो वत्तव्यो ।
ॐ सोगे पदेससंकमहापाणि विसेसाहियाणि ।
क्योंकि वहाँके असंख्यात लोक भागहारसे यहाँका असंख्यात लोक भागहार देशघातिका विषय होनेसे असंख्यातगुणा स्वीकार किया है । इसी प्रकार विष्कम्भसे भी विष्कम्भ को असंख्यातगुणा कहना चाहिए।
शंका-गुणसंक्रमके परिणामोंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमके परिणामस्थानोंका आयाम असंख्यातगुणा कैसे सम्भव है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सर्वघातिविषयक गुणसंक्रमके परिणामस्थानोंसे नी देशघातियोंको अधःप्रवृत्त परिणामपंक्तिके असंख्यात गुणेपनका अवलम्बन लिया गया है। ऐसा मानने पर पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्वके साथ विरोध होगा यह भी नहीं है, क्योंकि वह सजातीय प्रकृतियोंके विषयमें प्रतिबद्ध है। अथवा यद्यपि यहाँ का परिणामपंक्ति श्रआयाम असंख्यातगुणा हीन है तो भी देशघातिसम्बन्धी सत्कर्मप्रक्षेपके भागहारके माहास्यवश यह असंख्यातगुणा अविरुद्ध जानना चाहिए।
* उनसे रतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं।
८२३. क्योंकि यह प्रकृतिविशेष है। * उनसे स्त्रीवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं।
६८२४. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि ओघमें इसका कारण कह आये हैं। इतनी विशेषता है कि विध्यातसंक्रमस्थानोंका आश्रय कर असंख्यातगुणत्व कैसे सम्भव है ऐसी आशंका होने पर मिथ्यात्वके भंगके अनुसार परिहार कहना चाहिए।
* उनसे शोकमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक है ।
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उत्तरपयडिपदेस कमे संकमट्ठायाणि
* अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसे साहियाणि । * एवं सयवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * दुगंछाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * भए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * पुरिसवेदे पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * कोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायासंजलणे पदेससंकमडाणाणि विसेसाहियाणि । * लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ८२५. दाणि सुत्ताणि सुगमाणि ।
* सम्मन्त पदेससंकमट्ठाणापि श्रणंतगुणाणि ।
गा० ५८ ]
६ ८२६. कुदो ? उब्वेल्लणचरिमफालीए सव्त्रसंकममस्सियुणाणताणं संकमाणामेत्थ संभवादो ।
* सम्मामिच्छन्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।
* उनसे अरतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे नपुंसक वेद में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे जुगुप्सामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं 1 * उनसे भयमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे पुरुषवेद में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे मानसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे क्रोधसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मायासंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
1
* उनसे लोभसंज्वलन में प्रदेशस क्रमस्थान विशेष अधिक हैं । ये सूत्र सुगम हैं।
६ ८२५.
* उनसे सम्यक्त्वमें प्रदेशस क्रमस्थान अनन्तगुणे हैं ।
४६७
§ ८२६. क्योंकि उद्वेलनाकी अन्तिम फालिमें सर्वसंक्रमका आश्रय कर अनन्त संक्रमस्थान
यहाँ सम्भव हैं ।
* उनसे सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रदेशस क्रमस्थान असं ख्यातगुणे हैं ।
६३
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
८२७. किं कारणं ९ दोण्णं उब्वेन्लणचरिमफालीए सव्वसंकमेणाणतसंकमसंभवाविसेसे विदव्वविसेसमस्सिऊण तहाभावोववत्तीदा।
* अताणु बंधिमांणे पदेस संकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।. ६८२८. कुदो ? विसंजोयणाचरिमफालीए सव्वसंक्रमेण समुप्पण्णाणंत संकमट्ठा खाणं दव्वमाहप्पेण पुव्विल्लसंकमट्ठाणेहिंतो असंखेज्ञगुणत्तदंसणादो । एत्थ गुणगारो उव्वेल्लणकालो भत्थरासी गुणसंकमभागहारो च अण्णोण्णगुणिदमेत्तो ।
४६८
* कोहे पदेससंकमट्ठाषाणि विसेसाहियाणि । * मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* लोहे पदेस संकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
८२. दाणि तिणि वि सुत्ताणि पयडिविसेसमेत्तकारणगन्भाणि सुगमाणिः । एवं णिरयोघो समत्तो ।
९ ८३०. एवं चैव सत्तसु पुणवीसु यव्वं, विसेसाभावाद । । एवमेतिएण पण णिरयगइ अप्पा बहुअं समाणिय संपहि तिरिक्ख- देवगईणं पि एसो चैत्र अप्पाबहुआलावो काव्वोत्ति समप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ --
* एवं तिरिक्खगइ-देवगईसु वि ।
६८२७. क्योंकि दोनोंकी उद्वेलनाकी अन्तिम फालिमें सर्वसंक्रमके आश्रयसे अनन्त संक्रमस्थान सम्भव हैं, इसलिए इस दृष्टिसे कोई विशेषता नहीं है तो भी द्रव्य विशेषका श्राश्रय कर यहाँ श्रसंख्यातगुणापना बन जाता है ।
* उनसे अनन्तानुबन्धी मानमें प्रदेशसां क्रमस्थान असं ख्यातगुणे हैं ।
६८२८. क्योंकि विसंयोजनाकी अन्तिम फलिमें सर्वसंक्रमसे उत्पन्न हुए अनन्त संक्रमस्थान द्रव्यके माहात्म्यवश पूर्वके संक्रमस्थानोंसे श्रसंख्यातगुणे देखे जाते हैं । यहाँ पर गुणकार उद्वेलना कालकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और गुणसंक्रमभागद्दार इन दोनोंको परस्पर गुणा करने पर जो राशि लब्ध वे उतना है ।
* उनसे क्रोधमें प्रदेश क्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे मायामें प्रदेशस क्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे लोभमें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । § ८२६. प्रकृति विशेषमात्र कारण अन्तर्गर्भ ये तीनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार नरकौध समाप्त हुआ। ।
६ ८३०. इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर इससे अन्य कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार इस प्रबन्ध द्वारा नरकगतिसम्बन्धी अल्पबहुत्व को समाप्त कर अव तिर्यञ्चगति और देवगतिका यही अल्पबहुत्वालाप करना चाहिए ऐसा समर्पण करते हुए गेका सूत्र कहते हैं
* इसी प्रकार तिर्यञ्चगति और देवगतिमें भी जानना चाहिए ।
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गा० ६२ ]
उत्तरपयडिपदेससंक मे संक मट्ठाारिण
८३१. सुगममेदमप्पणासुत्तं, विसेसाभावमस्सिऊण पयट्टत्तादो । णिरयगइअप्पाबहुअं णित्रयवमेत्थाणुगंतव्त्रं । णवरि अणुद्दिसादि जाव सव्त्रट्ठे ति सम्मत्तपदेससंकमडाणा णि णत्थि । सम्मामिच्छत्तपदेस संकमट्ठा णाणि च सव्वत्थोवाणि कायव्वाणि । तदो मिच्छत्ते पदेस संकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । तसो अपच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्टणाणि असंखेजगुणाणि । तत्तो विसेसाहियकमेण वेदव्वं जाव पच्चक्खाणलोभपदेससंक्रमणाणि ति । तदो इत्थि० पदेससंकमट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि । णवुंसय० पदेससंक्रमणाणि संखेञ्जगुणाणि । हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेञ्जगुणाणि । रदीए पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । एवं जाव० लोहसंजलणे त्ति दव्वं । तदो अर्णताणु०माणे पदेससंक्रमडाणाणि अनंतगुणाणि । कोह-माया लोहेसु नहाकमं विसेसाहियाणि ति एसो विसेसो सुत्ते ण वित्रक्खिओ, गइसामण्णप्पणाए भेदाभावमस्सिऊण सुत्तस्स पयट्टत्तादो । तिरिक्खगईए णत्थि किचि णाणत्तं । णवरि पंचिदियतिरिक्खअपजस उवरि भण्णमाणएइ दियप्पोबहुअभंगो । * मणुसगई ओघभंगो ।
८३२. सुगममेदं, मणुसग इसामण्णप्पणाए ओमंगादो भेदावलंभादो । मणुस अपजत्तसु
एवं गइमग्गणा समत्ता ।
४६६
पञ्जतमणुसिणिविवक्खाए च पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ।
८३१. यह अर्पणासूत्र सुगम है, क्योंकि विशेषाभावका आश्रय कर यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है । नरकगतिसम्बन्धी यह अल्पबहुत्व समस्त यहाँ जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व के प्रदेशसंक्रमस्थान नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेश संक्रमस्थान सबसे स्तोक करने चाहिए। उनसे मिध्यात्व में प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यात - गुणे हैं। उनसे प्रत्याख्यान मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। इससे आगे प्रत्याख्यान लोभके प्रदेशसंक्रमस्थानोंके प्राप्त होने तक विशेष अधिकके क्रमसे ले जाना चाहिए। उनसे स्त्रीवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं | उनसे नपुंसकवेद में प्रदेशसंकमस्थान संख्यातगुणे हैं। उनसे हास्यमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे रतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान • विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार लोभसंज्वलन तक ले जाना चाहिए। उनसे अनन्तानुबन्धी मानमें प्रदेशसंक्रुमस्थान अनन्तगुणे हैं। उनसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, माया और लोभमें क्रम से विशेष अधिक हैं। यह विशेष सूत्र में विवक्षित नहीं है, क्योंकि गति सामान्यकी मुख्यतासे भेदाभावका श्राश्रय कर सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। तिर्यञ्चगतिमें कुछ भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्तकोंमें आगे कहे जानेवाले एकेन्द्रिय सम्बन्धी अल्पबहुत्व के समान भंग है ।
* मनुष्यगतिमें ओघके समान भंग है ।
९८३२. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि मनुष्यगति सामान्यकी विवक्षा में तथा मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंकी विवक्षामें प्रोघभंगसे भेद नहीं उपलब्ध होता । मनुष्य अपर्याप्तकों में पन्चेन्द्रिय तिर्यन, अपर्याप्तकों के समान भंग है ।
इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
८३३. संपहि सेसमग्गणाणं देसामा सियभावेण इंदियमग्गणावयत्रभूदेह दिएसु पयदप्पाबहुअगवेसणट्ट मुवरिमसुत्तपबंधमाह
૫૦૦
* एइदिएसु सव्वत्थोवाणि अपच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* मायाए प्रदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* लोहे पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * पच्चक्खाणमाणे पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * कोहे पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायाए पवेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * लोभे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ताणुबंधिमाणे पदेससंकमद्वाणाणि विसेस हिय. णि । * कोहे पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * मायाए पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
* लोहे पदेससंकमट्ठा णि विसेस हिग्र थि ।
* हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।
§ ८३३. अब शेप मार्गणाओंके दशामर्पकभाव से इन्द्रिय मार्गणा के अवयवभूत एकेन्द्रियोंमें प्रकृत अल्पबहुत्वकी गवेषणा करने के लिए आागेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* एकेन्द्रियों में अप्रत्याख्यान मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान सबसे थोड़े हैं ।
* उनसे क्रोध में प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे मायामें प्रदेश संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे लोभमें प्रदेश संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे प्रत्याख्यान मानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे क्रोध में प्रदेशसंकमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे माया में प्रदेश संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे अनन्तानुबन्धा मानमें प्रदेशसक्रमस्थान विशेष अधिक हैं * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे मायामें प्रदेश संक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
* उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे हास्यमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं । १. ता० प्रतौ० संखेज्जगुणाणि इति पाठः ।
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५०१
गा०५८]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि ॐ रवोए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । 8 इथिवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ।
सोगे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ॐ अरदोए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
वुसयवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ॐ दुगुंछाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ॐ भए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । 8 पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
माणसजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * कोहसंजलणे पदेससंकमाणाणि विसेसाहियाणि । * मायासंजलणे पदेससकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * सम्मत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । * सम्मामिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेनगुणाणि ।
www
* उनसे रतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे स्त्रोवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान संख्यातगुणे हैं। * उनसे शोकमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे अरतिमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे नपुंसकवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे जुगुप्सामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे भयमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे पुरुषवेदमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मानसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे क्रोध संज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे मायासंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे लोभसंज्वलनमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं । * उनसे सम्यक्त्वमें प्रदेशसंक्रमस्थान अनन्तगुणे हैं । * उनसे सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं ।
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जयधवला सहिदे कषायपाहुडे
[ बंधगो ६
९ ८३४. सुगमत्तादो ण एत्थ किंचि वत्तव्यमत्थि । एवमेइ दिएसु समत्तमप्पाबहुअं । बीई दिय-तीइ दिय- चउरिदिए वि एवं चैव वत्तव्वं अविसेसादो । पंचिदियपंचिदियपजत्तसु ओघभंगो । पंचिदिय अपजत्तएस एइ दियभंगो । एवं जाणिऊण दव्यं जाव अणाहारए ति । एवमेदमप्पा बहुअं समाणिय संपहि गिरयगइप डिबद्धप्पाव हुए विपदे कारणपरूवणमुत्ररिमपबंध माह
५०२
* केन कारणेण णिरयगईए पञ्चक्खाणकसायलोभपदेससंकमट्ठाणेहिंतो मिच्छत्ते पदेससंक मट्ठाणाणि श्रसंखेज्जगुणाणि ।
.
९ ८३५. एवं पुच्छंतस्सायमहिप्पाओ, पच्चक्खोणलोभपदेसग्गादो मिच्छत्तस्स पदेसग्गं विसेसाहियं चैव तत्तो समुप्पजमाणसंकमड्डाणाणं पि तहाभावं मोत्तण कथ-मसंखेञ्जगुणत्तं घडदि ति । संपहि एवंविहासंकाए णिरारेगीकरणमुत्तरमुत्तमोइणं* मिच्छत्तस्स गुणसंकमो अत्थि । पञ्चक्खा एकसायलोहस्स गुणसंकमो णत्थि । एदेण कारणेण पिरयगईए पच्चक्खाणकसायलोहपदेससंक मट्ठाणेहिंतो मिच्छत्तस्स पदेससंकमद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।
९ ८३६. गयत्थमेदं सुत्तं, अधापवत्तसंक्रमपरिणामट्ठारोहितो गुणसंक्रमपरिणामसंजगुणत्तमस्ऊिण पुत्रमेत्र समत्थियत्तादो। ण च परिणामट्ठाणाणं तहाभावो
९ ८३४. सुगम होनेसे यहाँ कुछ वक्तव्य नहीं है । इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें अल्पबहुत्त्र समाप्त हुआ । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियोंमें भी इसी प्रकार कहना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है | पञ्चेन्द्रिय और पश्च न्द्रिय पर्याप्तकों में श्रोघ के समान भंग है । पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकों में एकेन्द्रियोंके समान भंग है। इस प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार इस अल्पबहुत्व को समाप्त कर अब नरक - गतिसे प्रतिबद्ध अल्पबहुत्व के किन्हीं पदोंमें कारणका कथन करने के लिए आगे के प्रबन्धको कहते हैं
* नरकगतिमें प्रत्याख्यानकषायके लोभसम्बन्धी प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे मिथ्यात्व में प्रदेशस ंक्रमस्थान असख्यातगुणे किस कारणसे हैं ।
९ ८३५. इस प्रकार पूछनेवालेका यह अभिप्राय है कि प्रत्याख्यान लोभके प्रदेशोंसे मिथ्यात्व के प्रदेश विशेष अधिक ही हैं, इसलिए उनसे उत्पन्न हुए संक्रमस्थान भी उसी प्रकार के न होकर असंख्यातगुणे कैसे घटित होते हैं। अब इस प्रकारकी शंकाको निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है
* मिथ्यात्वका गुणसंक्रम है, प्रत्याख्यान लोभ कपायका गुणसंक्रम नहीं है । इस कारण से नरकगति में प्रत्याख्यान लोभकषाय के प्रदेश संक्रमस्थानोंसे मिथ्यात्वके प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं,
६ ८३६. यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि अधःप्रवृत्तसंक्रमके परिणामस्थानोंसे गुणसंक्रमके परिणामस्थान असंख्यातगुणे हैं इस बातका श्राश्रय कर पूर्वमें ही इसका समर्थन कर आये हैं ।
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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमद्वाराणि
५०३
असिद्धो, एदम्हादो चै सुत्तादो तेसिं तहाभावोवगमादो । एवमेदं परूत्रिय संपि अपि यदप्पा हुअविसय मत्थपदं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* जस्स कम्मस्स सव्वसंकमो पत्थि तस्स कम्मस्स असंखेज्जाणि पदेस संकमद्वाणाणि । जस्स कम्मस्स सव्वसंकमो अत्थि तस्स कम्मस्स अताणि पदेससंकमट्ठाणाणि ।
१८३७. णिरयगदीए सव्वघादिमिच्छत्तपदेस संकमा रोहिंतो देसघादिहस्सपदेससंकमट्ठाणाणमसंखेज्ञगुणत्तं । तत्थ जइ को विदेसघादिपा हम्ममस्तिऊणाणंतगुणत्तं विष्ण होदि ति भणे तदो तस्स तहाविहविप्पडिवत्तिणिराय रणमुहेण देसघादीणं सव्वघादीणं च सव्वसंकमादो अण्णत्थासंखेजा लोगमेत्ताणं चैव संक्रमट्ठाणाणं संभवपदुप्पायणमिदं सुत्तमोइण्णं । ण चासंखेज लोगमेत्तेसु संक्रमट्ठाणेसु अनंतगुणत्त संभवो अस्थि विप्पडिसेहादो । असंखेजगुणतं पुण पुव्वत्तेण कमेणागुगंतव्यमिदि ।
६८३८. अहवा देसघादि लोहसं जलणपदेस संक मट्ठाणेहिंतो सव्त्रघादिमिच्छत्तस्सासंखेज दिभागभूदसम्मत्त पदेसस कमट्ठाणाणमोघपरूवणाए णिरयादिसु चाणंतगुणतं विद, कधमेदं जुञ्जदि ति विप्पडिवण्णस्स सिस्सस्स तहाविहविप्पडिवत्तिणिरायरणदुवारेण तन्त्रिसय णिच्छय समुपायण मेमोइण्णमिदि । एदस्स सुत्तस्सावयारो परूवेयच्यो,
परिणामस्थानोंका इस प्रकारका होना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे उनका उस प्रकारका हो जाना जाता है । इस प्रकार इसका प्ररूपण कर अब अन्य भी प्रकृत अल्पबहुत्व विषयक अर्थपदका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं
* जिस कर्मका सर्वसंक्रम नहीं है उस कर्मके असंख्यात प्रदेदसंक्रमस्थान होते हैं। जिस कर्मका सर्वसंक्रम है उस कर्मके अनन्त प्रदेशसंकमस्थान होते हैं ।
९ ८३७. नरकगतिमें सर्वघाति मिथ्यात्व के प्रदेशसंक्रमस्थानोंसे देशघाति हास्यके प्रदेशसंक्रमस्थान असंख्यातगुणे हैं । वहाँपर यदि कोई भी देशघाति के माहात्म्यका आश्रय कर अनन्तगुणे क्यों नहीं होते ऐसा कहे तो उसकी उस प्रकारकी शंकाके निराकरण द्वारा देशघाति और सर्वघातियों के सर्वसंक्रमके सिवा अन्यत्र असंख्यात लोकमात्र ही संक्रमस्थान सम्भव हैं यह कथन करने के लिए यह सूत्र आया है । और असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थानोंमें अनन्तगुणेपने की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि इसका निषेध हैं। असंख्यात गुणापना तो पूर्वोक्त क्रमसे जान लेना चाहिए ।
८३८. अथवा देशघाति लोभसंज्वलन के प्रदेशसंक्रम स्थानोंसे सर्वघाति मिध्यात्व के असंख्यातवें भागभूत सम्यक्त्वके प्रदेशसंक्रमस्थान ओघप्ररूपणा में और नरकादि गतियोंमें अनन्तगुणे कहे हैं सो यह कैसे बन सकता है इस प्रकार शंकाशील शिष्यकी उस प्रकार की शंकाके निराकरण द्वारा तद्विषयक निश्चयको उत्पन्न करने के लिए यह सूत्र आया है। इस प्रकार इस
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
तो सव्स कमविए परमाणुत्तरकमेण वड्डी लब्भदि ति । तत्थाणंताणि संकमट्ठाणाणि जादाणि तत्तो अण्णत्थ पुण अस खेज लोगपडिभागेणेत्र वडिदंसणा दो । असंखेज लोगमेचाणि चैव स कमाणाणि होंति त्ति एसो एदस्स भावत्थो । संपहि पयडिविसेसण वि साहियपी सकमट्ठाणाणं विसेसाहियत्ते कारणपरूवणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह - * माणस्स जहपणए संतकम्मट्ठाणे असंखेज्जा लोगा पदेससंकमद्वापाणि ।
९८३६. सुगमं ।
* तम्मि चेव जहण्णए माणसंतकम्मे विदियसंकमट्ठाणविसेसस्स 'असंखेज्जलोगभागमेत्ते पक्खित्ते माणस्स बिदियसंकमट्ठाणपरिवाडी |
६ ८४०. मोणजहण्णस तकम्मे अधापवत्तम । गहा रेणावट्टिदे माणजहण्णस कमड्डाणं होइ पुणो तम्मि अस खेजलोगमेत भागहारेण भागे हिदे विदियस कमट्ठा णविसेसो आगच्छइ । तम्मि अण्णास खेज लोग भागहारेण भाजिदे माणस्स सतकम्मपक्खेवपमाणं हो । एदं घेत्तण पडिरासिद जहण्णस तकम्मट्ठोणस्सुवरि पक्खित्चे माणस्स बिदियस कमट्ठा परिवाडी होइ, पक्खेवुत्तरजहण्णस तकम्मादो परिणामट्ठाणमेत्ताणं चेत्र सकमट्टाणा - मुपची निव्वाहमुवलंभादो त्ति एसो अत्थो एयेण सुत्तरेण परूविदो । एवमेदेण
सूत्र का अवतार कहना चाहिए। अतएव सर्वसंक्रमके विषय में एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे वृद्धि प्राप्त होती है, इसलिए उसमें अनन्त प्रदेशसंक्रमस्थान प्राप्त हो जाते हैं। उससे अन्यत्र तो असंख्यात लोक प्रमाण प्रतिभाग से ही वृद्धि देखी जाती है, इसलिए असंख्यात लोकप्रमाण ही संक्रमस्थान होते हैं इस प्रकार यह इसका मावार्थ है । अब प्रकृति विशेषसे विशेष अधिक रूप प्रकृतियोंमें संक्रमस्थानोंके विशेष अधिकपनेमें कारणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध कहते हैं
* मानके जघन्य सत्कर्ममें असंख्यात लाक प्रदेशसंक्रमस्थान होते हैं । ८३. यह सूत्र सुगम है ।
* उसी जघन्य मानसत्कर्म में दूसरे संक्रमस्थानका विशेष असंख्यात लोकभागमात्र प्रचिप्त करने पर मानको दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी होती है ।
६८.४० मानके जघन्य सत्कर्मको अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करने पर मानका जघन्य संक्रमस्थान होता है । पुनः उसमें असंख्यात लोकमात्र भागहारका भाग देने पर दूसरे संक्रमस्थानका विशेष आता है । उसमें अन्य असंख्यात लोकप्रमाण भागहारका भाग देने पर मानके सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण आता है । इसे प्रहण कर प्रतिरा शिरूपसे स्थापित जघन्य सत्कर्मस्थानके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर मानकी दूसरो संक्रमस्थान परिपाटी होती है क्योंकि एक प्रक्षेप अधिक जघन्य सत्कर्म से परिणाममात्र ही संक्रमस्थानोंकी उत्पत्ति निर्वाधरूपसे उपलब्ध होती है। इस प्रकार यह अर्थ इस सूत्र द्वारा कहा गया है। इस प्रकार इस सूत्र से मानसत्कर्मके प्रक्षेपका प्रमाण
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गा ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि
૫૦૧ सुत्तेण माणसतकम्मपक्खेवपमाणं जाणाविय सपहि कोहस्स वि संतकम्मपक्खेवो एत्तिओ चेव होदि ति जाणावणट्ठमुत्तरसु तमाह
* तत्तिमेत्ते चेव पदेसग्गे कोहस्स जहएणसंतकम्मट्ठाणे पक्खित्ते कोहस्स विदियसंकमाणपरिवाडी।
६८४१. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-कोहसतकम्मपक्खेवे समुप्पाइजमाणे माणविदियसकमट्ठाणविसेसस्सासखेजलोगपडिभागिओ ति पुव्वसुत्ते जो परूविदो सो चेवाणणाहिओ एत्थ वि अवलंबेयव्यो, पयडिविसेसण विस साहियकसोयणोकसायपयडिसुत्तस्सावद्विदभावभुवगमादो। अणवट्ठिदसतकम्मपक्खेवन्भुवगमे तत्थतणस कमद्वाणाणं विसेसाहियभावाणुववत्तीदो। तम्हा अवट्ठिदसतकम्मपक्खेवावलंबणेण तेसि विसेसाहियत्तमेवमणुगंतव्वं । तं जहा-अपच्चक्खाणमाणकोहाणं दोण्हं पि जहण्णसतकम्मभप्पप्पणो उकस्सदव्वादो सोहिदसुद्धसेसदचम्मि कोहपयडिविसेसमेत्तदव्वमवणिय पुध दुवेयव्वं । एवं पुध हविदे सुद्धसेसदव्वं दोण्हं पि समाणं होइ । पुणो एदं दव्वमसंखेजलोगमेत्तभागहारमवट्ठिदपमाणं दोसु उद्देसेसु विरलिय समखंडं कादण दिण्णे दोण्हं पि संतकम्मपक्खेवा सरिसा होदूण विरलणरूवं पडि पार्वति । एत्थेगेगसतकम्मपखेक्वं घेत्तण अप्पप्पणो पडिरासिदजहण्णसंतकम्मप्पहुडि परिवाडीए पक्खिविजमाणे दोण्हं पि
जानकर अब क्रोधका भी सत्कर्म प्रक्षेप इतना ही होता है यह जतानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* उतने ही प्रदेश क्रोधके जघन्य सत्कर्मस्थानमें प्रक्षिप्त करनेके लिए क्रोधकी दूसरी संक्रमस्थान परिपाटी होती है।
३१. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-क्रोध सत्कर्मके प्रक्षेपके उत्पन्न करने पर मानके द्वितीय संक्रमस्थान विशेषका असंख्यात लोक प्रतिभाग सम्बन्धी पूर्व सूत्र में जो कहा है उसीका न्यूनाधिकतासे रहित यहाँ पर भी अवलम्बन करना चाहिए, क्योंकि प्रकृत सूत्र प्रकृतिविशेषताके कारण विशेषाधिकरूपसे कषाय और नोकषायोंमें अवस्थितरूपको स्वीकार करता है । अनवस्थित सत्कर्मप्रक्षेपके स्वीकार करने पर वहाँके संक्रमस्थानोंमें विशेषाधिकपना नहीं बन सकता । इसलिए अवस्थित सत्कर्म प्रक्षेपका अवलम्बन करनेसे उनका विशेषाधिकपना ही स्वीकार करना चाहिए । यथा-अप्रत्याख्यान मान और क्रोध इन दोनोंके भी जघन्य सत्कर्मको अपने अपने द्रव्यमेंसे घटाकर जो शुद्ध शेष द्रव्य हो उसमेंसे क्रोध प्रकृतिके विशेषमात्र द्रव्यको निकालकर पृथक स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार पृथक स्थापित करने पर शुद्ध शेष द्रव्य दोनोंका ही समान होता है । पुनः इस द्रव्यको, अवस्थित प्रमाण असंख्यात लोकमात्र भागहारको दो स्थानों पर विरलन कर उस पर समान खण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति दोनोंके सत्कर्मप्रक्षेप सदृश होकर प्राप्त होते हैं । यहाँ एक एक सत्कर्मप्रक्षेपको ग्रहण कर अपने अपने प्रतिराशिरूप जघन्य सत्कर्मसे लेकर क्रमसे प्रक्षिप्त करने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ संकमपाओग्गसतकम्मट्ठाणाणि सरिसाणि होदूण लद्धाणि भवंति । पुणो एत्थेव माणस्स संतकम्मट्ठाणाणि समताणि । कोहस्स पुण ण समप्पंति, पुनमवणेऊण पुधट्टविदपयडिविसेसमेतदव्यस्स बहिब्भावदसणादो। तेण तं पि दव्वं माणसंतकम्मपक्खेवपमाणेण कस्सामो ति पुनविरलणाए पासे अण्णो असखेजलोगभागहारो विरलेयव्यो । एदस्स पमाणं केतियं ? पुचिल्लविरलणरासोऐ असंखेज्जदिमागमेत्त । तस्स को पडिभागो ? आवलियाए असंखेजदिभागो । तदो एवंभूदसं पहियविरलणाए पयडि विसेसदव्यं समखंडं करिय दिण्णे एक कस्स रुवस्साणंतरपरूविदसतकम्मपक्खेवपमाणं पावदि । एत्थेगेगरूवधरिदं घेत्तणमणुकस्ससतकम्मट्ठाणसमाणकोहस कमट्ठाणप्पहुडि परिवाडीए पक्खिविय णेदव्वं जाव संपहिय विरलणरूवमेत्ता संतकम्मपक्खेवा णिद्विदा ति । एवं णीदे माणसंतकम्मट्ठाणेहितो कोहसकमट्ठाणाणि संपहिय विरलणमेत्तसतकम्मट्ठाणेहि क्सेिसाहियाणि जादाणि ति, एदेहितो समुप्पजमाणसंतकम्मट्ठाणाणि विसेसाहियाणि जादाणि। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणहमिदमाह
8 एदेण कारणेण माणपदेससंकमहापाणिं थोवाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
पर दोनोंके ही सक्रमके योग्य सत्कर्मस्थान सदृश होकर प्राप्त होते हैं। पुनः यहीं पर मानके सत्कर्मस्थान समाप्त हो गये, परन्तु क्रोधके समाप्त नहीं हुए, क्योंकि पहले निकाल कर पृथक स्थापित प्रकृतिविशेष मात्र पृथक देखा जाता है। इसलिए उस द्रव्यको भी मानसत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं, इसलिए पूर्व विरलनके पासमें अन्य असंख्यात लोक भागहारका विरलन करना चाहिए।
शंका-इसका प्रमाण कितना है ? समाधान-पहलेकी विरलन राशिका असंख्यातवां भागमात्र है। शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-श्रावलिका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग हैं ।
अतः इस प्रकारके साम्प्रतिक विरलनके ऊपर प्रकृतिविशेषद्रव्यको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति अनन्तर कहे गये सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ पर एक एक रूपके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण कर अनुत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके समान क्रोधसंक्रमस्थानसे लेकर क्रमसे प्रक्षिप्त करके साम्प्रतिक विरलन रूपमात्र सत्कर्मप्रक्षेप समाप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार ले जाने पर मान सत्कर्मस्थानोंसे क्रोध संक्रमस्थान साम्प्रतिक विरलन मात्र सत्कर्मस्थानोंसे विशेप अधिक हो जाते हैं, इसलिए इससे उत्पन्न होनेवाले सत्कर्मस्थान विशेष अधिक हो जाते हैं । अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए यह सूत्र कहते हैं
* इस कारणसे मानप्रदेश संक्रमस्थान थोड़े हैं। * क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं ।
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गा ५८] नत्तरपडिपदेससंकमै संकमट्ठाणाण
५०७ ६८४२. जेण कारणेण दोण्हं पि संतकम्मपक्खेवपमाणं सरिस तेण कारणेण माणसकमट्ठाणेहितो कोहस कमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि जादाणि ति भणिदं होदि । स पहि सेसाणं पि कम्माणमेवं चेव कारणपरूवणा कायव्वा ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
* एवं सेसेसु वि कम्मेसु विणेदव्वाणि ।
६८४३. जहा कोह-माणाणमेसो कारणणिद्देसो कओ तहा सेसकम्माणं पिणेदव्यो त्ति भणिदं होइ। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमेदं संदिट्ठीपरूवणं कस्सामो । तं जहा-णिरयगईए माणादीणं जहण्णसंतकम्मेत्तियमेतमिदि घेत्तव्वं ४, ५, ६, ७। तेसिं चेवुक्कस्ससतकम्मपमाणमेदं २०, २५, ३०, ३५ । एत्थुक्कस्सदव्वादो जहण्णदव्वे सोहिदे सुद्धसेसदव्यपमाणमेत्तियं होइ १६. २०, २४, २८ । सव्वेसिं संतकम्मपक्खेवपमाणं दोरूवमेत्तमिदि घेत्तव्यं २ । एदेण पमाणेण अप्पप्पणो जहण्णदव्वादो उपरि कमेण सुद्धसेसदब्बे पवेसिजमाणे तत्थ समुप्पण्णमाणपरिवाडीओ एदाओ है । कोहपरिवाडीओ ११ । मायापरिवाडीओ १३ । लोहपरिवाडीओ एदाओ १५ । एवमेत्थ दोसंदिट्ठीए च मोणादिसकमट्ठाणेहितो कोहादिसकमट्ठाणाणं विसेसाहियत्तम दिद्धं सिद्धं । एवमप्पाबहुए समत्ते सकमट्ठाणपरूवणा समत्ता तदो पदेसस कमो समत्तो । एवं गुणहीणंवा गुगविसिट्टमिदि पदस्स अत्यविहासाए समत्ताए तदो पंचमीए मूलगाहाए अत्थपरूवणा समत्ता
८४२. जिस कारणसे दोनोंके ही सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण समान है इस कारणसे मानके संक्रमस्थानोंसे क्रोधके संक्रमस्थान विशेष अधिक हो जाते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अब शेष कर्मोकी भी इसी प्रकार कारण प्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार शेष कर्मो में भी ले जाना चाहिए।
६८४३. जिस प्रकार क्रोध और मानके इस कारणका निर्देश किया उसी प्रकार शेष कर्मोंका भी जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए इस संदृष्टिका कथन करेंगे। यथा - नरकगतिमें मानादिकका जघन्य सत्कर्म इतना है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ४, ५, ६, ७ । उन्हींके उत्कृष्ट सत्कर्मका प्रमाण इतना है-२०, २५, ३०, ३५ । यहाँ उत्कृष्ट द्रव्यमेंसे जघन्य द्रव्यके घटा देने पर शुद्ध शेष द्रव्यका प्रमाण इतना होता है१६, २०, २४, २८ । सबके सत्कर्मप्रक्षेपका प्रमाण दो अंक प्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए-२। इस प्रमाणसे अपने अपने जघन्य द्रव्वके ऊपर क्रमसे शुद्ध शेष द्रव्यको प्रविष्ट कराने पर वहाँ पर मानपरिपाटिया इतनो ६ उत्पन्न होती हैं, क्रोध परिपाटियाँ ११ उत्पन्न होती हैं, माया परिपाटियाँ १३ उत्पन्न होती हैं और लोभपरिपाटियों इतनी १५ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार यहाँ पर दो संदृष्टियोंके द्वारा मानादिके संक्रमस्थानोंसे क्रोधादिकके संक्रमस्थान विशेष अधिक असंदिग्ध. रूपसे सिद्ध होते हैं । इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर संक्रमस्थान प्ररूपणा समाप्त हुई।
इसके बाद प्रदेशसंक्रम समाप्त हुआ। इस प्रकार 'गुणहीणं वा गुणविसिद्धं' इस पेदकी अर्थ विभापा समाप्त होने पर पाँचवीं
मूलगाथाकी अर्थप्ररूपण समाप्त हुई।
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१. बंधगयगाहा-चुण्णिसुचाणि चु० सु०-१ बंधगे ति एदस्स वे अणियोगद्दाराणि । तं जहा-बंधो च संकमो च। २एत्थ सुतगाहा । (५) कदि पयडोश्रो बंधदि द्विदि-अणुभागे जहरणमुक्कस्सं ।
संकामेइ कदि वा गुणहोणं वा गुणविसिटुं ॥ २३ ॥
चु० सु०- ३एदीए गोहाए बंधो च संकमो च सूचिदो होइ । पदच्छेदो । तं जहा । कदि पयडीओ बंधइ सि पयडिबंधो । द्विदि अणुभागे ति दिदिबंधो अणुभागबंधो च । ४जहण्गमुक्कस्सं ति पदेसबंधो। संकामेदि कदि वा ति पयडिसंकमो च द्विदिसंकमो च अणुभागसंकमो च गहेयन्यो । गुणहीणं वा गुणविसिट्ठति पदेससंकमो सूचिओ । सो वुण पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधो बहुसो परूविदो। ____संकमे पयदं। ६संकमस्स पंचविहो उवक्कमो- आणुपुत्री णाम पमाणं वतन्वदा अत्याहियारो चेदि । एत्थ णिक्खेवो कायन्यो । णामसंकमो ठवणसंकमो दन्वसंकमो खेलसंकमो कालसंकमो भावसंकमो चेदि । णेगमो सव्वे संकमे इच्छइ । संगह-बवहारा कालसंकममवर्णति । उजुसुदो एदं च ठवणं च अवणेह । सदस्स णाम भावो य ।
___१०णोआगमदो दव्यसंकमो ठवणिज्जो। खेलसंकमो जहा उड्डलोगो संकेतो। कालसंकमो जहा संकतो हेमंतो। ११भावसंकमो जहा संकंतं पेम्मं । जो सो णोआगमदो दनसंकमो सो दुविहो-कम्मसंकमो च णोकम्मसंकनो च । णोकम्मसंकमो जहा कट्टसंकमो। १२कम्मसंकमो चउबिहो । तं जहा-पयडिसंकमो डिदिसंकमो अणुभागसंकमो पदेससंकमो चेदि । १३पयडिसंकमो दुविहो । तं जहा-एगेगपयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो च । पयडिसंकमे पयदं । १४तत्थ तिगि सुत्तगाहाओ हवंति । तं जहा ।
संकम-उवक्कमविही पंचविहो चउव्विहो य णिक्खेवो। णयविही पयदं पयदे च पिग्गमो होइ अहविहो ॥२४॥
(१) पृ० २ । ( २ ) पृ० ३ । ( ३ ) पृ० ४ । ( ४ ) पृ० ५ । (५) पृ० ६ । (६) पृ० ७ । (७) पृ०८ । (८).पृ० ६ । (६) पृ० १० । (१०) पृ० ११ । (११) पृ० १२ । (१२) पृ० १४ । (१३) पृ० १५। (१४)पृ० १६ ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
एक्क्काए संकमो दुत्रिहो संकमविही य पयडीए । संकमपडिग्गहविही पडिग्गहो उत्तम जहणो ॥ २५॥ १पयडि-पयडिट्ठास संकमो असंकमो तहा दुविहो । दुहि पडिग्गहविही दुविहो अपडिग्गहबिही य । २६ ॥
चु० सु० - २एदाओ तिण्णि गाहाओ पयडिसंकमे । एदासिं गाहाणं पदच्छेदो। तं जहा । संकम उवक्कम विही पंचविहो चि ऐदस्स पदस्स अत्थो - पंचविहो उवक्कमो, आणुपुत्री णामं पमाणं वतव्वदा अत्याहियारो चेदि । २चउन्त्रिहो यणिक्खेवो ति णामं वणं वज्जं दव्वं खेत्तं कालो भावी च । ४णय विहि पयदं त्ति एत्थ ओ वाव्वो । पयदे च णिग्गमो होइ अट्ठविहो चि पयडिसंकमो पयडिअसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो पयाड (असंकमो पयडिपडिग्गहो पयडिअपडिग्गहो पयडिट्ठाणपडिग्गहो पयडिट्ठा - अडिगहो ति एसो णिग्गमो अडविहो । एक्केकाए संकमो दुविहो संक्रमविही य पडी ति पदस्स अत्थ कायन्त्रो । ६एक्केकाए ति एगेगपय डिसंकमो, संकमो दुविहो त्ति दुविहो संकमो त्ति भणिदं होइ, संकमविही य त्ति पयडिट्ठाणसंकमो, पयडीए ति पयसिंकमो त्ति भणियं होइ । ७ संकम- पडिग्गहविहि त्ति संक्रमे पयडिपडिग्गहो । पडिग्गहो उत्तम जहण्णो त्ति पयडिडाणपडिग्गहो । पयडि-पर्याडट्ठाणेसु संकमो ति पयडिस्कमो पयडिट्ठाणसंकमो च । असंकमो तहा दुविहो त्ति पयडिअसंकमो पर्याडअसंकोच । दुविहो पडिग्गहविहि त्ति पयडिपडिग्गहो पयडिट्ठाणअपडिग्गहो च । स सुत्तफासो ।
1
rasia पं । १० एत्थ सामित्तं । ११ मिच्छत्तस्स संक्रामओ को होइ ? णियमा सम्माट्ठी | वेदगसम्माइट्ठी सव्वो । उवसामगो च णिरासाणो । १२ सम्मत्तस्स संकामओ को होइ ? णियमा भिच्छाइट्ठी सम्मत्तसंतकम्मिओ | १३णवरि आवलियपविट्ठसम्मत्त संतकम्मियं वञ्ज । सम्मामिच्छत्तस्स संकामओ को होइ ? मिच्छाइट्ठी उब्वेल्लमाणओ । १४ सम्माइट्ठी वा णिरासाणो । मोत्तण पढमसमयं सम्मामिच्छत्तसंत1 कम्मियं । १५ दंसणमोहणीयं चरित्तमोहणीए ण संकमइ । चरित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए
कम । अतानुबंधी जत्तियाओ बंज्झति चरितमोहणीयपयडीओ तासु सव्वासु संकमइ । एवं सव्वाओ चरित्तमोहणीयपयडीओ । १६ताओ पणुवीसं पि चरितमोहणीयपड़ीओ अण्णदरस्स संकर्मति ।
( १ ) पृ० १७ । ( २ ) पृ० १८ । ( ३ ) पृ० १६ । ( ४ ) पृ० २० । (५) पृ० २२ । ( ६ ) पृ० २३ । ( ७ ) पृ० २४ । (८) पृ० २५ । ( ६ ) पृ० २६ । (१०) पृ० २८ । ( ११ ) पृ० २६ । ( १२ ) पृ० ३० ( १३ ) पृ० ३१ | ( १४ ) पृ० ३२ । ( '१५ ) पृ० ३३ | ( १६ ) पृ० ३४ ।
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परिसिट्ठाणि
५११ ऐयजीवेण कालो । मिच्छत्तस्स संकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहु । उकस्सेण छावद्विसोगरोवमाणि सादिरेयाणि। २सम्मत्तस्स संकामो केवचिरं कोलादो होदि १ जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। सम्मामिच्छत्तस्स संकामओ केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ३उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं पि पणुवीसंपयडीणं संकामयस्स तिण्णि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट ।
एयजीवेण अंतरं। मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुँत्त। ६उकस्सेण उवहपोग्गलपरियट्ट। णवरि सम्मामिच्छत्तस्स संकामयंतरं जहण्णेण एयसमओ। अणताणुबंधीणं संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुन् । उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणमेकवीसाए पयडीणं संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण अंतोमुहुतं ।।
___णाणाजीवेहि भंगविचओ ।जेसि पयडीणं संतकम्ममत्थि तेसु पयदं । १० मिच्छत्तसम्मत्ताणं सव्यजीवा णियमा संकामया च असंकामया च । सम्मामिच्छत्त-सोलसकसायणवणोकसायाणं च तिण्णि भंगा कायव्वा ।
११णाणाजीवेहि कालो। सबकम्माणं संकामया केवचिरं कालादो होति ? १२सम्बद्धा । १३णाणाजीवेहि अंतरं । सव्वकम्मसंकामयाणं णत्थि अंतरं ।।
१४सण्णियासो । मिच्छत्तस्स संकामओ सम्मामिच्छत्तस्स सिया संकामओ सिया असंकोमओ। १५सम्मत्तस्स असंकामओ। अणंताणुबंधीणं सिया कम्मंसिओ सिया अकम्मंसिओ । जदि कम्मंसिओ सिया संकामओ सिया असंकामओ । सेसाणमेवधीसाए कम्माणं सिया संकामओ सिया असंकामओ । १६एवं सण्णियासो कायव्यो ।
. १७अप्पावहुअं । सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स संकामया। १८मिच्छत्तस्स संकामया असंखेजगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया । अणंताणुबंधीणं संकामया अणंतगुणा । अट्ठकसायाणं संकामया विसेसाहिया। लोहसेजलणस्स संकामया विसेसाहिया। १६णव॒सयवेदस्स संकामया विसेसाहिया । इस्थिवेदस्स संकामया विसेसाहिया ।
(१) पृ० ३५ । (२) पृ० ३७ । ( ३ ) पृ० ३८ । (४ : पृ० ३६ । (५) पृ० ४६ । (६) पृ० ४७ । (७ )[पृ० ४८ । (८) पृ० ४६ । ( ६ ) पृ० ५२ । (१०) पृ० ५३ । ( ११) पृ० ५६ । (१२) पृ. ६० । (१३) पृ० ६२ । (१४) पृ० ६३ । (१५) पृ० ६४ । (१६) पृ० ६५ । (१७) पृ०७३ । (१८) पृ० ७४ । (१६) पृ० ७५ ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
छष्णोकसायाणं संकामया विसेसाहिया । पुरिसवेदस्स संक्रामया विसेसा हिया । माणसंजलणस्स संकामया विसेसाहिया ।
कोहसंकलणस्स संकामया विसेसाहिया । माया संजलणस्स संकामया विसेसाहिया ।
णिरयगदीए सव्त्रत्थोवा सम्मत्त संकामया । मिच्छत्तस्स संकामया असंखेजगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया । २अणंतारणुबंधीणं संकामया असंखेजगुणा । सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला विसेसाहिया । एवं देवगदीए । अतिरिक्खगईए सव्वत्थोवा सम्मत्तस्स संक्रामया । मिच्छत्तस्त्र संकामया असंखेजगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संक्रामया विसेसाहिया । अनंताणुबंधीणं संकामया अनंतगुणा । सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला बिसेसाहिया । पंचिदियतिरिक्खतिए णारयभंगो । ४ मणुस गईए सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स संकामया । सम्मत्तस्स संक्रामया असंखेजगुणा । सम्मा मिच्छत्तस्स संकामया विसेसाहिया । अनंतारणुबंधीणं संकामया असंखेजगुणा । सेसाणं कम्माणं संकामया ओघो । ५ई दिएसु सन्वत्थोवा सम्मत्तस्स संकामया । सम्मामिच्छत्तस्स संकामया विसेसहिया १ सेसाणं कम्माणं संकामया तुल्ला अनंतगुणा ।
५१२
arit पट्ठासंक्रमो । तत्थ पुव्वं गमणिजा सुत्तसमुक्कित्तणा । तं जहा । अट्ठावीस चवीस सत्तरस सोलसेव परणरसा ।
एदे खलु मोत्तूणं सेसाणं संकमो होइ ॥ २७ ॥ सोलसग बारसट्ठग वीस वीसं तिगा दिगधिगा य । एदे खलु मोत्तूर्णं सेसाणि पडिग्गहा होंति ॥ २८ ॥ छव्वीस सत्तावीसा य संकमो नियम चदुसु ट्ठाणेसु । वावोस पण्णरसगे एक्कारस ऊणवीसाए ॥ २६ ॥ 'सत्तारसेगवीसासु संकमो पियम पंचवीसाए । पियमा चदुसु गदो य पियमा दिट्ठोगए तिविहे ॥ ३० ॥ वावोस परणरसगे सत्तग एक्कारसूणवीसाए । तेवीस संकमो पुण पंचसु पंचिदिएस हवे ॥ ३१ ॥ चोहसग दसग सत्ता अट्ठारसगे व पियम वावीसा । पियमा मणुस गईए विरदे मिस्से अविरदे य ॥ ३२ ॥ तेरसय एवय सत्तय सत्तारग पण्य एक्कवीसाए । गाधिगाए वीसाए संकमो छप्पि सम्मन्ते ॥ ३३ ॥
( १ पृ० ७६ । ( २ ) पृ० ७७ । (३) पृ० ७८ । (४) पृ० ७६ । (५) पृ० ८० । (६) पृ० ८१ । (७) पृ० ८२ ।
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५१३
परिसिहाणि एत्तो अवसेसा संजमम्हि उवसामगे च खवगे च । बोसा य संकम दुगे छक्के पणए च बोडव्वा ॥ ३४ ॥ १पंचसु च ऊणवीसा अट्ठारस चदुसु होंति बोडव्वा । चोद्दस छसु पयडीसु य तेरसयं छक्क-पणगम्हि ॥ ३५॥ पंच-चउक्के वारस एक्कारस पंचगे तिग चउक्के । दसगं चउक-पणगे गवगं च तिगम्हि बोडव्वा ॥ ३६॥ अट्ठ दुग तिग चउक्के सत्त चउके तिगे च बोद्धव्वा । छक्कं दुगम्हि णियमा पंच तिगे एकग दुगे वा ॥ ३७ ॥ चत्तारि तिग चदुक्के तिषिण तिगे एक्कगे च बोडव्या। दो दुमु ए गाए या एगा एगाए बोद्धव्वा ॥३८॥ २अणुपुत्वमणणुपुव्वं झोणमझोणं च दंसणे मोहे । उवसामगे च खवगे च संकमे मग्गणोवाया ॥३६॥ एककेम्हि य द्वाणे पडिग्गहे संकमे तदुभए च । भविया वाऽभविया वा जीवा. या केसु ठाणेसु ॥४०॥ कदि कम्हि होति ठाणा पंचविहे भावविधिविसेसम्हि । संकम पडिग्गहो वा समाणणा वाध केवचिरं ॥४१॥ पिरयगइ-अमर-पंचिंदिएस पंचेव संकमट्ठाणा। सव्वे मणुसगईए सेसेसु तिगं असरणोसु ।। ४२ ॥ चदुर दुगं तेवीसा मिच्छत्ते मिस्सगे य सम्मत्त ।। वावोस पणय छक्कं विरदे मिस्से अविरदे य ॥ ४३ ॥ तेवोस सुक्कलेस्से छक्कं पुण तेउ-पम्मलेस्सासु । पण यं पुण-काऊए बोलाए किएहलेस्साए ॥ ४४ ।। ३अवगयवेद-णवूसय-इत्थी-पुरिसेस चाणुपुव्वोए । अट्ठारसयं वय एक्कारसयं च तेरसया ॥ ४५ ॥ कोहावी उवजोगे चदुसु कसाएसु चाणुपुवीए । सोलस य ऊणवीसा तेवोसा चेव तेवोसा ॥ ४६ ॥ पाणम्हि य तेवीसा तिविहे एक्कम्हि एकवीसा य। अपणाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा ॥४७॥
(१) पृ० ८३ । (२) पृ०८४ । (३) पृ० ८५ ।
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५१४
जयधवलासहिदे फसायपाहुडे आहारय-भविए सु य तेवीसं होति संकमहाणां । अणाहारएस पंच य एक हाणं अभविएसु ॥४८॥ छव्वीस सत्तवीसा तेवीसा.पंचवीस वावीसा।। एदे सण्णहाणा अवगदवेदस्स जीवस्स ॥ ४६ ॥ उगुवीसहारसयं चोइस एक्कारसादिया सेसा। एदे सुषणहाणा णवुसए चोदसा होति ॥ ५० ॥ अट्ठारस चोद्दसयं द्वाणा सेसा य दसगमादीया। एदे सुपणहाणा बारस इत्थीसु बोद्धव्वा ॥५१॥ १चौदसग-णवगमादी हवंति उवसामगे च खवगे च । एदे सण्णट्ठाणा दस वि य पुरिसेसु षोडव्वा ॥ ५३ ॥ णव अट्ठ सत्त छक्क पणग दुगं एक्कयं च बोद्धव्वा । एदे सुपणहाणा पढमकसायोवजुत्तेसु ।। ५३ ॥ सत्त य छकं पणगं च एकयं चेव आणुपुव्वोए । एदे सगणढाणा विदियकसाअोवजुत्तेसु ॥ ५४ ॥ दिह सुण्णासुण्णे वेद-कसाएस चेव हाणेसु । मग्गणगवेसणार दु संकमो आणुपुव्वोए ॥ ५५ ॥ कम्मंसियहाणेस य बंधट्ठाणेस संकमट्ठाणे। एककण समाणय बंधेण य संकमहाणे ।। ५६ ॥ सादि य जहएण संकम कदिखुत्तो होइ ताव एकेके । अविरहिद सांतरं केवचिरं कदिभाग परिमाणं ॥ ५७ ।। एवं दव्धे खेत्ते काले भावे य सरिणवादे य। संकमणयं णयविद् णेया सददेसिदमदारं ।। ५८ ।।
चु० सु०- २सुत्तसमुक्कितणाए समत्ताए इमे अणियोगद्दारा । तं जहा । ठाणसमुक्कितणा सव्यसंकमो पोसव्यसंकमो उकस्ससंकमो ३अणुक्कस्ससंकमो जहण्णसंकमो अजहण्णसंकमो सादियसंकमो अणादियसंकमो धुवसंकमो अद्ध वसंकमो एगजीवेण सोमित्त कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं सण्णियासो अप्पाबहुगं भुजगारो पदणिक्खेको वड्डि त्ति । ठाणसमुकिणा ति जं पदं तस्स विहासा जत्थ एया गाहा ।
४अट्ठावीस चउवोस सत्तरस सोलसेव पण्णरसा। एदे खलु मोत्तणं सेसाणं संकमो होइ ॥ २७ ॥ (१) पृ० ८६ । (२) पृ० ८८ । ( ३ ) पृ० ८६ । ( ४ ) पृ० ६० ।
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परिसिट्ठाणि
५१५
०सु० - एवमेदाणि पंचट्ठाणाणि मोत्तूण सेसाणि तेवीस संकमट्ठाणाणि । १ एत्थ पडिणिसो कायव्वो । अट्ठावीसं केण कारणेण ण संकमइ ? दंसण-मोहणीयचरितमोहणीयाणि एक्केकम्मि ण संकर्मति । तदो चरित्तमोहणीयस्स जाओ पयडीओ बझंति तत्थ पणुत्रीसं वि संक्रमति । दंसणमोहणीयस्स उक्कस्सेण दो पयडीओ संकमंति । २ एदेण कारणेण अट्ठावीसाए णत्थि संकमो । सत्तावीसाए काओ पयडीओ ? पणुवीसं चरित्तमोहणीयोओ दोणि दंसणमोहणीयाओ । छब्बीसाए ३ सम्मत्ते उच्चेन्लिदे । अहवा पढमसमयसम्मत्ते उप्पादे । ४पणुवीसाए सम्मत्त - सम्मोमिच्छत्तेहि विणा सेसाओ । चवीसाए किं कारणं णत्थि ? ५ अनंताणुबंधिणो सव्वे अवणिजंति । एदेण कारण araare त्थि । तेवीसाए अनंतारणुबंधीसु अवगदेसु । वावीसाए मिच्छत्ते खविदे सम्मामिच्छत्ते सेसे । ६ अहवा चउवीस दिसंतकम्मियस्स आणुपुत्रीसंक मे कदे जाव सवेदो अणुसंतो | एकवीस ए खीणदंसणमोहणीयस्स अक्खवग-अणुवसामगस्स । चवीसदिसंतकम्मियस्स वा उ सयवेदे उवसंते इत्थिवेदे अणुवसंते। वीसाए एगवीस दि संतकम्मियस्स आणुपुत्रीसंकमे कदे जाव णवुंसयवेदो अणुवसंतो । चउवीसदिसंतकम्मियरस वा आणुपुत्रीसंकमे कदे इत्थिवेदे उवसंते छसु कम्मेसु अणुवसंतेसु ।
I
गुणी एकवीस दिसंतकम्मियस्स णवुंसयवेदे उवसंते इत्थिवेदे अणुवसंते । अट्ठारहमेकवीस दिकम् मंसियस्स इत्थवेदे उवसंते जाव छण्णोकसाया अणुवसंता । १० सत्ता
सहं के कारण णत्थि संकमो ? खत्रगो एकावीसादो एकपहारेण अट्ठ कसाए अवदि । तदो अटुकसाएस अवणिदेसु तेरसहं संकमो होइ । ११ उवसामगस्स वि एकावीसदिकमंसियस छसु कम्मेसु उवसंतेसु बारसहं संकमो भवदि । चउवीसदिकम्मंसियस्स छसु कम्मेसु उवसंतेसु चोद्दसहं संकमो भवदि । एदेण कारण सत्तारसहं वा सोलसण्हं वा पण्णारसहं वा संकमो णत्थि । १२ चोदसण्हं चवीस दिकम्मंसियस छसु कम्मेसु उवसामिदेसु पुरिसवेदे अणुवसंते । १३ तेरसहं चवीस दिकम् मंसियस्स पुरिसवेदे उवसंते कसाएस अणुवसंतेसु । खत्रगस्स वा अट्ठकसा सुखविदेसु जोव अणाणुपुत्रीसंकमो । १४ बारसहं खागस्स आणपुच्चीसंकमो आदतो जाव णकुंसयवेदो अक्खीणो । एक्कावी सदिकम्मंसियस्स वा छसु कम्मेसु उवसंतेसु पुरिसवे असंते । १५ एकारसहं खरगस्स उ सयवेदे खविदे इत्थवेदे अक्खोणे ।
( १ ) पृ० ६१ । ( २ ) पृ० ६२ । ( ३ ) पृ० ६३ । ( ४ ) पृ० ६४ । (५) पृ० ६५ । (६) पृ० ६६ । ( ७ ) पृ० ६७। (८) पृ० ६६। (६) पृ० १०० । (१०) पृ० १०१ । ( ११ ) पृ० १०२ । ( १२ ) पृ० १०३ ( १३ ) पृ० १०४ | ( १४ ) पृ० १०५ । ( 1 ) पृ० १०६ ।
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५१६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अहवा एकावीसदिकम्मंसियस्स पुरिसवेदे उपसंते अणुवसंतेसु कसाएसु । चउवीसदिकम्मंसियस्स वा दुविहे कोहे उवसंते क्रोहसंजलणे अणुवसंते । १दसण्हं खवगस्स इथिवेदे खीणे छसु कम्मसेसु अक्खीणेसु । अथवा चउवीसदिकम्मंसियस्स कोधसंजलणे उत्रसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । रणवण्हं एकावीसदिकम्मंसियस्स दुविहे कोहे उवसंते कोहसंजलणे अणुवसंते । चउवीसदिकम्मंसियस्स खगवस्स च णत्थि । अट्ठण्हं एकावीसदिकम्मंसियस्स तिविहे कोहे उपसंते सेसेसु कसाए: अणुवसंतेसु । अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहे माणे उवंसते माणसंजलणे अणुवसंते । “सत्तण्हं चवीसदिकम्मंसियस्स तिविहे माणे उपसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । ५छण्हमेकावीसदिकम्मंसियस्स दुविहे माणे उबसंते सेसेसु कसाएसु अणुवसंतेसु । पंचण्हमेकावीसदिकम्मंसियस्स तिविहे माणे उवसंते सेसकसाएसु अणुवसंतेसु । अथवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहाए मायाए उवसंताए' सेसेसु अणुवसंतेसु । ६चउण्हं खवगस्स छसु कम्मेसु खीणेसु पुरिसवेदे अक्खीणे । अहवा चउग्रीसदिकम्मंसियस्स तिविहाए मायाए उवसंताए सेसेसु अणुवसंतेसु । तिहं खरगस्स पुरिसवेदे खोणे सेसेसु अक्खीणेसु । ७अथवो एकावीसदिकम्मंसियस्स दुविहोए मायोए उबसंताए से सेसु अणुवसंतेसु । दोण्हं खबगस्त कोहे खविदे सेसेसु अक्खीणेसु । अहवा एकावीसदिकम्मंसियस्स तिविहाए मायाए उपसंताए सेसेसु अणुवसंतेसु । अहवा चउवीसदिकम्मंसियस्स दुविहे लोहे उवसंते। सुहमसापराइयउवसामयस्स वा उबसंत. कसायस्स वा । एक्किस्से संकमो खवगस्स माणे खविदे मायाए अक्खीणाए ।
६एत्तो पदाणुमाणियं सामित्तं णेयव्यं । १०एयजीवेण कालो । सत्तावीसाए संकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि तिपलिदोवयस्स ११असंखेजदिमागेण । छब्बीससंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण एगसमओ १२उक्कस्सेण पलिदोवमस्त असंखेजदिभागो। पगुवीसाए संकामए तिण्णि भंगा । १३तत्थ जो सो सादिओ सपञ्जवसिदो जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण उघडपोग्गलपरियट्ट । १४तेवीसाए संकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण अंतोमुहुत्त एयसमओ वा । १५उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । वावीसाए वीसाए एगूणवीसाए अट्ठारसण्हं तेरसण्हं
(१) पृ० १०७ । (२) पृ० १०८ । (३) पृ० १०६ । (४) पृ० ११० । (५) पृ० १११ । (६) पृ० ११२ । (७) पृ० ११३ । (८) पृ० ११४ । (६) पृ० १७६ । (१०) पृ० १८६ । (११) पृ० १८२ । ( १२ ) पृ० १८३ । (१३) पृ० १८४ । ( १४ ) पृ० १८५ । (११) पृ० १८६ ।
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परिसिहाि
बारसह एकारसह दसहं अट्टहं सत्ताहं पंचहं चउन्हें तिन्हं दोन्हं पि कालो जह एयसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्त । १ एकवीसाए संकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेणेयसमओ । उकस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चोद्दसण्हं णवण्हं छण्हं पि कालो जहणेणेयसमओ । ३ उकस्सेण दो आवलियाओ समयृणाओ । अथवा उकस्से अंतोमुहुत्त ओयरमाणस्स लग्भइ । एकिस्से संकोमओ केाचिरं कालादो होइ ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।
५१७
४ तो एयजीवेण अंतरं । सत्तावीस छन्त्रीस तेवीस - इगिवीससं का मगंत रं केवचिरं कालादो होदि ९ जहण्ोण एयसमओ, उक्करसेण उवडपोग्गलपरियदृ । वीस कामयतरं केवचिरं कालादो होइ ? जहण्ोण. अतो मुहु', उकस्सेण वेछावसिागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६वावीस-वीस चोदस- तेरस एकारस-दसअ- सत्त-पंच चदु- दोण्णिसंकामयतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्रोण अतो मुहुत, उकस्सेण उपोग्गलपरियडौं । एकिस्से संकामयस्स णत्थि अंतरं । सेसाणं संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण अतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
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I
णाणाजीवेहि भंगविचओ । जेसिं पयडीओ अत्थि तेसु पयदं । सव्त्रजीवा सत्तावीसा छत्रीसा पणुवीसाए तेत्रीसाए एकवीसाए एदेसु पंचसु संकमट्ठाणेसु नियमा कामगा | सेसेसु अट्ठारससु संकमट्ठाणेसु भजियन्त्रा ।
१० णाणाजीवेहि कालो । पंचण्डं द्वाणाणं संक्रामया सव्वद्धा । १९ सेसाणं द्वाणानं कामया जहण एगसमओ, उक्कस्सेण अतोमुहुत्तं । णवरि एकिस्से संक्रामया जहण्णुकस्से तो मुहुतं ।
१२णाणाजीवेहि अंतरं । वावीसाए तेरसहं बारसहं एकारसहं दसण्हं चदुण्हं for दोमेकिस्से देसि णवण्हं ठाणाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहोण एयसमओ, उकस्सेण छम्मासा | १३ सेसाणं णवहं संक्रमणाणमंतरं केवचिरं कालादो ? जण एयसमओ, उकस्सेण संखेजाणि वस्त्राणि । १४ जेसिमविरहिदकालो तेसिं णत्थि अंतरं ।
सण्यासोत्थि ।
( १ ) पृ० १६१ । ( २ ) पृ० १६२ । (३) पृ० १६३ । ( ४ ) पृ० १६४ | ( १६ ) पृ० १६८ । (५) पृ० २०२ । (६) पृ० २०३ । ( ७ ) पृ० २०६ । (८) पृ० २१० । ( ६ ) पृ० २११ । (१०) पृ० २१६ | ( ११ ) पृ० २१७ | ( १२ ) पृ० २१८ | (१३) पृ० २२० । (१४) पृ० २२१ ॥
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५१८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १अप्पाबहुअं । सव्वत्थोवा णवण्हं संकामया। छण्हं संकामया तत्तिया चेव । चोदसण्ह संकामया संखेजगुणा । २पंचण्हं संकामया संखेजगुणा। अट्ठण्हं संकामया विसेसाहिया । अट्ठारसण्हं संकामया विसेसोहिया । एगूणवीसाए संकामया विसेसाहिया । ३चउण्हं संकामया संखेजगुणा । सत्तण्डं संकामया विसेसाहिया । वीसाए संकामया विसेसाहिया । एकिस्से संकामया संखेजगुणा । दोहं संकामया विसेसाहिया । दसहं संकामया विसेसाहिया । एकारसहं संकामया विसेसोहिया । वारसहं संकामया विसेसाहिया। तिण्हं संकामया संखेजगुणा । तेरसण्हं संकामया संखेजगुणा। यावीससंकामया संखेजगुणा । छब्बीसाए संकामया असंखेजगुणा । एक्कवीसाए संकामया असंखेजगुणा । तेवीसाए संकामया असंखेजगुणा । ६सत्तावीसाए संकामया असंखेजगुणा । पणुवीससंकामया अणंतगुणा ।
२ हिदिसंकमो अत्याहियारो द्विदिसंकमो दुविहो-मूलपयडिडिदिसंकमो उत्तरपयडिट्ठिदिसंकमो च । तत्थ अट्ठपदं-जा द्विदी ओकड्डिजदि वा उक्कड्डिज दि वा अण्णपयाङि संकामिजइ वा सो द्विदिसंकमो । सेसो ट्ठिदिअसंकमो। ८ओकड्डित्ता कधं णिक्खिवदि द्विदि ? उदयावलियचरमसमयअपविट्ठा जा ट्ठिदी सा कधमोकड्डिजइ १ तिस्से उदयादि जाव आवलियतिभागे ताव णिक्खेवो, आवलियाए वेतिभागा अइच्छावणा । ६उदए बहुअं पदेसग्गं दिजइ । तेण परं विसेसहीणं जाव आवलियतिभागो ति । तदो जा विदिया द्विदी तिस्से वि तत्तिगो चेव णिक्खेवो । अइच्छावणा समयुत्तरा । १०एवमइच्छावणा समयुत्तरा । णिक्खेवो तत्तिगो चेव उदयावलियबाहिरादो ओवलियतिभागंतिमद्विदि त्ति । ११तेण परं णिक्खेवो वडइ । अइच्छावणा आवलिया चेव । १२वाघादेण अइच्छावणा एका जेणावलिया अदिरित्ता होइ । तं जहा । द्विदिघादं करतेण खंडयमागाइदं । १३तत्थ जं पढमसमए उकीरदि पदेसग्गं तस्स पदेसग्गस्स आवलियाए अइच्छावणा । एवं जाव दुचरिमसमयअणुक्किण्णखंडगं ति । चरिमसमए जो खंडयस्स अग्गद्विदी तिस्से अइच्छावणा खंडयं समयूर्ण । १४एसा उक्कस्सिया अइच्छावणा वाधादे । १५तदो सव्वत्थोवो जहण्णओ णिक्खेवो । जहणिया अइच्छावणा दुसमयूणा दुगुणा । १६णिव्याघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा
(१) पृ० २२२ । (२) पृ० २२३ ! ( ३) पृ० २२४ । (४) पृ० २२५ । (५) पृ० २२६ । (६) पृ० २२७ । (७)पृ० २४२ । (८) पृ० २४३ । (६) पृ० २४४ । (१०) पृ० २४५ । ( ११) पृ० २४६ । (१२) पृ० २४८ । (१३) पृ० २४६ । (१४) पृ० २५०। ( १५ ) पृ० २५१ । (१६) पृ० २५२।
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परिसिट्ठाणि
५१६
विसेसाहिया | वाघादेग उक्कस्सिया अइच्छावणा असंखेजगुणा । उक्कस्सयं ट्ठिदिखंडयं विसेसाहियं । उकस्सओ णिक्खेव विसेसाहिओ । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ।
१ जाओ बञ्झति द्विदीओ तासिं द्विदीर्ण पुव्वणिबद्धट्ठिदिमहिकिच्च णिव्वाघादेण उकडुगाए अइच्छावणा आलिया । २दिस्से अइच्छावणाए आवलियाए असंखेज दिमागमादि काढूण जाव उक्कस्सओ णिक्खेवो ति णिरंतरं णिक्खेवट्ठाणाणि ।
कस्सओ पुण णिक्खेवो केतिओ ? जत्तिया उक्कस्सिया कम्मट्ठिदी उकस्सियाए आहा समयुत्तरावलियाए च ऊगा तत्तिओ उक्कस्सओ णिक्खेवो । ४ वाघादेण कथं ? जइ संतकम्मादो बंधो समयुत्तरो तिस्से ट्ठिदीए णत्थि उक्कडगा । जइ संतकम्मादो बंधी दुसमयुत्त तिस्सेवि संतकम्मअग्गहिदीए णत्थि उकडणा । एत्थ आवलियाए असंखेजदिभागो जहण्णिया अइच्छावणा । जदि जत्तिया जहणिया अइच्छावणा तत्तिएण अन्महिओ संतकम्मादो बंधो तिस्से वि संतकम्मअग्गहिदीए णत्थि उकड्डणा । अण्णो आवलिया असंखेज्जदिभागो जहण्णओ णिक्खेवो । ६ जड़ जहण्णियाए अइछावणाए जहण्गएण च णिक्खेवेण एत्तियमेत्तेण संतकम्मादो अदिरित्तो बंधो सा संतकम्म अग्गहिदी उकड्डिजदि । तदो समयुत्तरे बंधे णिक्खेव तत्तिओ चैत्र, अइच्छावणा
दि । एवं ताब अइच्छात्रणा वड्ढद्द जाव अइच्छावणा आवलिया जादा ति । तेण परं furaat ass जाव उकस्सओ णिक्खेवो त्ति । उक्कस्सओ णिक्खेवो को होइ ? जो उक्कस्सियं ठिदिं बंधियूणावलियमदिक तो तमुक्कस्सय ट्ठिदिमोकड्डियूण उदयावलियवाहिराए विदियाए ठिदीए णिक्खिवदि । चुण से काले उदयावलियबाहिरे अनंतर ठिदि पावेहिदि ति तं पदेसग्गमुकड्डियूण समयाहियाए आवलियाए ऊणियाए अग्गट्ठिदीए णिक्खिवदि । एस उकस्सओ णिक्खेवो । एवमोकड्ड कड्डणाणमट्ठपदं समत्तं ।
एतो अद्धाछेदो । जहा उकस्सियाए हिदीए उदीरणा तहा उकस्सओ ट्ठिदिकमो |
१० एतो जहण्णयं चत्तहस्सामा | १२ मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसाय- इत्थिसवेदाणं जहडिदिसंकमो पलिदोत्रमस्स असंखेजदिभागो । सम्मत्त - लोहसंजलणाणं जडिदिसंकमो एया द्विदी । कोहसंजलणस्स जण्णडिदिसंकमो वे मासा अंतोमुहुतूणा । ४ मागसंजलणस्स जहडिदिसंक्रमो मासो अंतोमुहुत्तूणो । मायासंजलणस्स
( १ ) पृ० २५३ । (२) पृ० २५५ । (३) पृ० २५६ । ( ४ ) पृ० २५७ । (५) पृ० २५८ । (६) पृ० २५६ । (७) पृ० २६० । (८) पृ० २६१ । ( ६ ) पृ० २६२ । (१०) पृ० ३०५ | ( ११ ) पृ० ३०६ | ( १२ ) पृ० ३०७ |
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
जहण्णडिदिसंकमो अद्धमासो अंतोमुहुत्तणो । पुरिसवेदस्स जहण्णडि दसकमो भट्टवस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि । उष्णोकसायाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो संखेजाणि वस्त्राणि । गदीसु अणुमन्मियो ।
५२०
तस्स
१ सामित्तं । उकस्स डिदि संकामयस्स सामितं जहा उकस्सियाए द्विदीए उदीरणा तहा दव्वं । २जहण्गयमेयजीवेण साभित्तं कायन्त्रं । मिच्छत्तस्स जहण्णओ ट्ठिदिसंकमो कस्स ? मिच्छत्तं खवेमाणयस्स अपच्छिमडिदिखंडय चरिमसमयसंका मयस्स जहण्णयं । ३ सम्मत्तस्स जहण्णयद्विदिसंकमो कस्स ? समयाहियावलिय अक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्माच्छित्तस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो कस्स ? अपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स जहण्णयं । अनंतायुबंधीणं जहण्गट्ठिदिसंक्रमो कस्स० ? विसंजोएंतस्स तेसिं चैव अपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमय संका मयस्स । ४ अङ्कुरहं कसायाणं जहणट्ठिदिसंकमो कस्स ? खत्रयस्स तेसिं चेत्र अपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमय संकुहमाणस जहण्यं । कोहसंजलणस्स जहण्गट्ठिदिसंक्रमो कस्स ? खायस्स को संजलणस्स अपच्छिमट्ठिदिबंधचरिमसमयसंहमाणयस्स तस्स जहण्णयं । ५एवं माण- मायासंजल - 1 पुरिसवेदा | लोहसंजलणस्स जहण्णट्टिदिसंकमो कस्स १ आवलियसमया हियसकसा यस्स खवयस्स । ६ इथिवेदस्त जहण्णट्टिदिसंकमो कस्स । इस्थिवेदोदयक्खवयस्प तस्स अपच्छिम दिखंडयं संहमाणयस्स तस्स जहण्णयं । ७ सयवेदस्स जहणडिदिकमो कस ? सयवेदोदयक्खवयस्स तस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयं संकुहमाण्यस्स तस्स जहण्यं । गोकसायाणं जहण्गट्ठिदिसंकमो कस्स १ खवयस्स तेसिमपच्छिमडिखिंड यं संहमाणयस्स तस्स जहण्णयं ।
यजीवेण कालो । जहा उक्कस्सिया डिदिउदीरणा तह। उक्कस्सओ हिदिकम | १० तो जहणट्ठिदिसंकमका लो । ११ अट्ठावीसाए पयडीणं जहण्णट्ठिदि संकमकालो hari कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । णवरि इत्थि णवुंसयवेद - छण्णोकसायाणं जहण्णट्ठिदिसं कम हालो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुतं । १२ तो अंतरं । उक्कस्य द्विदिसं कामयंतरं जहा उक्कस्सट्ठिदिउदीरणाए अंतरं तहा कायन्त्रं । १२ तो जहणयंतरं । १४ सव्वासि पयडीणं णत्थि अंतरं । णवरि अनंताणुबंधीणं जहण्णट्ठिदिसंकामयंतरं जहण्ोण अंतोमुहुतं, उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियडौं ।
( १ ) पृ० ३११ । ( २ ) पृ० ३१२ । ( ३ ) पृ० ३१३ | ( ४ ) पृ० ३१४ | (५) पृ० ३१६ | ( ६ ) ४० ३१७ । ( ७ ) पृ० ३१८ । (८) पृ० ३१६ । ( ६ ) पृ० ३२३ । (१०) पृ० ३२६ । ( ११ ) ५० ३२७ | ( १२ ) ५० ३३२ । (१३) ५० ३३३ | (१४) ५० ३३४ ।
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परिसिहाणि
५२१ रणाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-उक्कस्सपदभंगविचओ च जहण्णपदभंगविचओ च । तेसिमट्ठादं काऊण उकस्सओ जहा उकस्सहिदिउदरिणा तहा कायया । २एत्तो जहण्णपदभंगविचओ । सव्वासि पयडीणं जहण्णढिदिसंकामयस्स सिया सव्वे जीवा अस कामया, सिया असं कामया च संकामओ च, सिया असकामया च संकामया च । ३सेसं विहत्तिभंगो।
जाणाजीबेहि कालो । सबासि पयडीणमुक्कस्सटिदिसंकमो केवचिरं कोलादो होइ ? जहण्णेग एयसमओ। उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभोगो । ४णपरि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सटिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ, उकस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। एत्तो जहण्णयं । सव्वासि पयडीणं जहण्णद्विदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि । जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेण संखेना समया । ५णरि अणंताणुबंधीणं जहण्गढिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि.१ जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिमागो । इत्थि-णqसयवेद-छण्णोकसायाणं जहण्णढिदिसंकमो केवचिरं कालादोहोदि ? जहण्णुकस्सेणतोमुहुत्तं ।
६एत्थ सण्णियासो कायव्यो।
७ अप्पाबहुअं । सव्वत्थोवो णवणोकसायाणमुक्कस्सडिदिसकमा। सालसकसायोणमुक्कस्सद्विदिसकमा विसेसाहिओ। सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिसकमा तुल्लो विसेसाहिओ। मिच्छत्तस्स उकस्सटिदिसकमा विसेसाहिओ । एवं सव्वासु गईसु । एत्तो जहण्यं । सबथोवो सम्मत्त-लोहसंजलणाणं जहण्णढिदिसकमा । जट्ठिदिसंकमा अखेजगुणे।। मायाए जहणहिदिसंकमा संखेजगुणे । जढिदिसंकमो विसेसाहिओ । माणसंजलणस्स जहण्गहिदिसंकमा घिसाहिओ । जट्ठिदिसंकमा विसेसाहिओ । १ कोहजलणस्स जहण्गहिदिसंकमा विसेसाहिओ । जहिदिसंकमो विसेसाहिओ। पुरिसवेदस्स जहण्णढिदिसंकमा संखेजगुण । जट्ठिदिसंकमा विसेसाहिओ । छण्णाकसायाणं जहण्गढिदिसंकमा संखेजगुणे । इथि-णqसयवेदाणं जहण्गहिदिसकमा तुल्लो असंखेजगुणो । अट्ठण्हं कसायाणं जहण्णढिदिसंकमो असंखेजगुणे । ११सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिसंकमा असंखेजगुणे । मिच्छत्तस्स जहण्गहिदिसंकमा असंखेज्जगुणा । अणंताणुबंधीणं जहण्गढिदिसंकमा असंखेज्जगुणे ।
१२णिरयगईए सबत्योवो सम्मत्तस्स जहण्गढिदिसंकमो । जट्ठिदिसकमा अस खेज्ज
(१) पृ० ३३६ । (२) पृ० ३३७ । (३) पृ० ३३८ । (४) पृ० ३३६ । (५) पृ० ३४० । (६) पृ० ३४२ । (७) पृ० ३४६ । (८) पृ० ३४७ । (६) पृ० ३४८ । (१०) पृ० ३४६ (११) पृ० ३५०। (१२) पृ० ३५१ ।
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५२२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे गुण । अणंताणुबंधीणं जहण्णद्विदिसकमा असखेज्जगुणे । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो असंखेज्जगुणो। पुरिसवेदस्स जहण्णढिदिसंकमो असंखेज्जगुणो १इस्थिवेदे जहण्णद्विदिसंकमो विसेसाहिओ। हस्स-रईणं जहण्गढिदिसंकमो विसेसाहिओ । रणqसयवेदजहण्णट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ। अरेइ-सोगाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ । भय-दुगुछाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ। बारसकसायोणं जहण्णविदि. संकमो विसेसाहिओ। ३मिच्छत्तस्स जहण्गट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ। विदियाए सव्वत्थोवो अणंताणुबंधीणं जहण्णढिदिसंकमो। सम्मत्तस्स जहण्णढिदिसंकमो असंखेज्जगुणो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओ। बारसकसाय-णवणोकसायाणं जहण्णढिदिसंकमो तुन्लो असंखेज्जगुणो । मिच्छत्तस्स जहण्णट्ठिदिसंकमो विसेसाहिओं।
६भुजगारसंकमस्स अट्ठपदं काऊण सामित्तं कायव्यं । "मिच्छत्तस्स भुजगारअप्पयर-अद्विदसंकामओ को होदि ? अण्णदरो। ८अत्तव्यसंकामओ णस्थि। एवं सेसाणं पयडीणं । णवरि अवत्तव्यया अस्थि ।
कालो। मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्ोण एयसमओ। उक्कस्सेण चत्तारि समया । १०अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसद सादिरेयं ।११अद्विदसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेणंतोमुहु तं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगारअवविद-अवत्तव्यसंकामया केवचिरं कालादो होति ? जहण्णुक्कस्सेणेयसमओ । १२अप्पदरसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । १३सेसाणं कम्माणं भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेण एगूणवीसममया। १४सेसपदाणि मिच्छत्तभंगो। १५णवरि अवत्तव्यसंकामया जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ।
१६एत्तो अंतरं । १७मिच्छत्तस्स भुजगार-अद्विदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण तेवडिसोगरोवमसदं सादिरेय । अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मोमिच्छत्तवज्जाण । १८णवरि अणताणुबंधीणमप्पयरसंकाययंतरं जहपणेणेयसमओ, उकस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि। सव्वेसिमवत्तव्यसंकाययंतरं
- (१) पृ० ३५२ । । (२) पृ० ३५३ । (३) पृ० ३५५ । (४) पृ० ३५६ । (५) पृ० ३५७ । (६. पृ० ३५६ । (७) पृ० ३६० । (८) पृ० ३६१ । (६) पृ० ३६२ । (१०) पृ०३६३ । (११) पृ० ३६६ । ( १२ ) पृ० ३६७ । ( १३.) पृ० ३६८ । (१४ ) पृ. ३६६ । ( १५) पृ० ३७० । (१६) पृ० ३७२ । (१७) पृ० ३७३ । (१८) पृ० ३७४ ।
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परिसिट्टाणि केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेग तोमुहुत्त', उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूण। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण भुजगार-अवविदसंकाययंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणतोमुहुत्त । १अप्पयरसंकामयंतरं जहणणेणेयसमयो। अवत्तव्यसंकामयंतरं जहणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । उक्कस्सेण सव्वेसिमद्धपोग्गलपरियट्ट देसूण।
२णाणाजीवेहि भंगविचओ । मिच्छत्तस्स सव्वजीवा भुजगारसंकामगा च अप्पयरसंकामया च अद्विदसंकामा च । ३सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताग सत्तोवीस भंगा। सेसाण मिच्छत्तभंगो । परि अवत्तव्यसंकामया भजियव्या ।
___ ४णाणाजीवेहि कालो। मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अअद्विदसंकामया केचिरं कालादो होति ? सम्बद्धा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण भुजगार-अवविद-अवत्तव्यसंकामया केवचिरं कालादो होति ? जहणणेणेमयमओ। उक्कस्सेण आलियाए असंखेज्जदिभागो। ५अप्पदरसंकामया सम्बद्धा । सेसाणं कम्माणं भुजगार-अप्पयर-अद्विदसंकामया केचिरं कालादो होति ? सबद्धा । अतञ्चसंकामया केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेणेयसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जा समया। णरि अणंताणुबंधीणभवत्तव्यसंकामयाणं सम्मत्तभंगो।
६णाणाजीवेहि अंतरं । मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अद्विदसंकामयंतरं केचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवत्तासंकामयंतरं केचिरं कालादो होदि ? जहण्णणेयसमओ। उकस्सेण चउवीसमहोरते सादिरेये । अप्पयरसंकोमयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णस्थि अंतरं । अबढिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेयसमओ । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेजदिभागो। अणंतागुबंधीणमवत्तव्यसंकामयंतरं जहणणेणेयसमओ, उकस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये । सेसाणं कम्माणमवत्तव्यसंकामयंतरं जहण्णेणेयसमओ, उकस्सेण संखेजाणि वस्ससहस्सागि । सोलसकसोय-गवणोकसायाणं भुजगार-अप्पदर- अबढिदसंकामयाणं णत्थि अंतरं।
अपाबहुअं । सव्वत्थोवा मिच्छत्तभुजगारसंकामया । अवविदसंकामया असंखेजगुणा । अप्पयरसंझामया संखेजगुणा । १०सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवविदसंकामया। भुजगारसंकामया असंखेजगुणा । ११ अयत्तव्यसंकामया असंखेजगुणा । अप्पयरसमामया असंखेजगुणा। अणंताणुपंधोणं सबथोवा अवतासंकामया ।
(१) पृ० ३७५ । (२) पृ० ३७६ । ( ३) पृ० ३७७ । (४) पृ० ३७६ । (५) पृ० ३८० । ( ६ ) पृ० ३८१ । (७) पृ० ३८२ । (८) पृ० ३८३ । (६) पृ० ३८४ । (१०) पृ० ३८५ । (११) पृ० ३८६ ।
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૫૨૪
जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे
भुजगार संकामया अनंतगुणा । अवट्ठिदसंकामया असंखेजगुणा । अप्पयरसंकामया संजगुणा । १एवं साणं कम्माणं ।
पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि - समुत्तिणा सामित्तमप्पाबहु च । तत्थ समुत्तिणा सव्वासि पयडीणमुकस्सिया वड्डी हाणी अवद्वाणं च अत्थि । एवं जहष्णयस्स वि दव्वं ।
1
सामित्तं । मिच्छत- सोलसकसायाणमुकस्सिया वड्डी कस्स ? जो चउट्ठाणियजत्रमज्झरस उवरि अतो कोडा कोडि डिदि मंतो मुहुत्तसंकामेमाणो सो सव्यमहंतं दाहं गदो तदो कट्टिदं पद्धो तस्सावलियादीदस्स तस्स उकस्सिया वड्डी । ४ तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्टणं । ५ उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जेण उकस्सट्ठिदिखंडयं घादिदं तस्स उक्कस्सिया हाणी । जं उकस्सट्ठिदिखंडयं तं थोवं । जं सव्वमहंतं दाहं गदो त्ति भणिदं तं विसेसाहियं । ६९दमयाबहुअस्स साहणं । एवं णत्रणोकसायाणं । णारि कसायाथमात्र लियूणमुकस्सट्ठि दिपडि च्छिदुणावलियादीदस्स तस्स उक्कस्सिया वड्डी से काले उकस्सयमत्राणं । ७सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? वेदगसम्मत्तपाओग्गजगडिदिसंतकम्मियो मिच्छत्तस्स उकस्सट्ठिदि बंधियूण द्विदिघादमकाऊण अतोमुहुत्ते सम्म पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइ डिस्स उक्कस्सिया वडी | -हाणी मिच्छत्तभंगो | उकस्सयम त्राणं कस्स ? पुव्वुप्पण्गादो सम्मत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तदिसंतकम्पिओ सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइट्ठिस्स उकस्सयमत्राणं ।
तो जहणियाए । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तवजाणं जहण्णिया वड्डी कस्स ? अष्पष्पणो समयूणादो उकस्सट्ठि दिसंक्रमादो उकस्सडिदिसंकामेमाणयस्स तस्स जहण्णिया बडी | १० जहणियो हाणी कस्स १ तप्पा ओग्गसमयुचरजहण्णडिदिसंकमादो तप्पा ओग्गजगट्ठिदि संका मेमाणस्स तस्स जहण्णिया हाणी । एयदरत्थमवट्ठाणं । ११ सम्मत्तसम्मामिच्छताणं जहगिया बड्डी कस्स ९ पुव्युप्पणसमत्तादो दुसमयुत्तर मिच्छत्तसंतकम्मओ सम्मत्तं वडिवो तस्स विदियसमयसम्माइट्ठिस्स जहणिया बड्डी । हाणी कम्मभंगो | अणमुकरसभंगो ।
1
१२ अप्पा बहुअ' । मिच्छत्त-सोलसकसाय- इत्थि - पुरिसवेद-हस्स-रदीणं सव्वत्थोवा उक्कसिया हाणी | वड्डी अवद्वाणं च दो वि तुम्लाणि विसेसाहियाणि । सम्मत्त सम्मा
।
( १ ) पृ० ३८७ । (२) पृ० ३८८ । (३) पृ० ३८६ ३६१ । ( ६ ) पृ० ३६२ । (७) पृ० ३६३ । (८) पृ० ३६४ । ३ε६ | ( ११ ) पृ० ३६७ । ( १२ ) पृ० ४०० |
( ४ ) पृ० ३६० । (५) पृ० (६) पृ० ३६५ ( १० ) पृ०
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परिसिद्वाणि
५२५
मिच्छत्ताणं सव्वत्थोवो अवट्ठाणसंक्रमो । हाणिसंकमो असंखेञ्जगुणो । १ वड्डिसंकनो विसेसाहिओ । सवेद - अरइ- सोग - मय- दुगु छाणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी aagri च । हाणिसंकमो विसेसाहिओ । एतो जहण्णयं । सव्वासि पयडीणं जहण्णिया डी हाणी अवद्वाणं द्विदिसंकमो तुल्लो ।
aste तिणि अणिओगद्दाराणि । २समुक्कित्तणा परूत्रणा अप्पाबहुए ति । तत्थ समुत्तिणा । तं जहा - मिच्छत्तस्स असंखेजभागवद्वि-हाणी संखेज भागवड्डि-हाणी संखेज गुणाड्डि-हाणी असंखेजगुणहाणी अट्ठाणं च । ४ अवत्तव्त्रं णत्थि । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं चउत्रिहा वड्डी चउव्विहा हाणी अवट्ठाणमत्रत्तव्त्रयं च । ५सेसक्रम्माणं मिच्छतभंगो । ६णवरि अवाव्त्रयमत्थि |
त्रणा । एदासि विधिं पुध पुध उवसंदरिसणा परूवणा णाम । पाहुअ' । सव्वत्थोत्रा मिच्छत्तस्स असंखेजगुणहाणिसंकामया । संखेअगुणहाणिसंकामया असंखेजगुणा । संखेजभागहाणिसंकामया संखेजगुणा । संखेजगुणवड्डिसंकामया असंखेञ्जगुणा । संखेज भागवड्डिसंका मया संखेजगुणा । १० असंखेज भागकाम अतगुणा । अवट्ठिदसंकामया असंखेजगुणा । असंखेजभागहाणिसं कामया संखेजगुणा । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेञ्जगुणहाणिसंकामया । अत्रट्टिदकामया असंखेञ्जगुणा । ११ असंखेज भागवड्डिसंकामया असंखेज्जगुणा । असंखेजगुण
1
कामया असंखेगुणा । संखेजभागवड्ढि संकामया असंखेजगुणा । १२ संखेजगुणवड्डिकामया संखेजगुणा । संखेज्जगुणहाणिसंकामया संखेजगुणा । १२ संखे अभागहा:कामया संखेजगुणा । अवतन्त्रसंकामया असंखेजगुणा । असंखेजभागहाणिसंकामया असंखेजगुणा । १४सेसाणं कम्माणं सव्वत्थोवा अवतन्त्र संकामया । असंखेज्जगुणहाणि - कामया संखेrगुणा । सेससंकामया मिच्छत्तभंगो ।
1
३. अणभागसंकमो अत्थाहियारो
१५ अणुभागको दुविहो - मूलपय डिअणुभागसंकमो च उत्तरपयडिअणुभागसंकमो च । १६तत्थ अट्ठपदं | अणुभागो ओकड्डिदो वि संक्रमो, उक्कडियो वि संकमो, अण्णपर्याड णीदो विसंक्रमो । १० ओकडणाए परूत्रणा । पढमफडुयं ण ओकडिज्जदि । विदियफद्दयं ण ओकड्डिज्जदि । एवमताणि फद्दयाणि जहणिया अइच्छावणा, तति
( १ ) पृ० ४०१ । ( २ ) पृ० ४०२ । (३) पृ० ४०३ । ( ४ ) पृ० ४०५ । (५) पृ० ४०८ | (६) पृ० ४०६ । (७) पृ० ४१० । (८) पृ० ४२० । ( ६ ) पृ० ४२१ । (१०) पृ० ४२२ । ( ११ ) पृ० ४२३ । ( १२ ) पृ० ४२४. । ( १३ ) पृ० ४२५ । ( १४ ) पृ० ४२६ । (१५) पृ० २ । (१६) पृ० ३ । (१७) पृ० ४ ।
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५२६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे याणि फद्दयाणि ण ओंकड्डिजति । १अण्णाणि अणंताणि फद्दयाणि जहण्णणिक्खेवमेत्ताणि च ण ओकड्डिज्जंति । जहण्णओ णिक्खेवो जहण्णिया अइच्छावणा च तेत्तियमेवाणि फद्दयाणि आदीदो अधिच्छिद्ण तदित्थफद्दयमोकड्डिज्जइ । रतेण परं सव्वाणि फद्दयाणि ओकड्डिज्जंति । एत्थ अप्पाबहुआ। ३सव्वत्थोवाणि पदेसगुणहाणिट्ठाणतरफद्दयाणि । जहण्णओ णिक्खेवो अंणतगुणो। जहणिया अइच्छावणा अणंतगुणा । उक्कस्सयमणुभागकंडयमणंतगुण । उक्कस्सिया अइच्छावणा एगाए वग्गणाए ऊणिया । ४उक्कस्सणिक्खेवो विसेसाहियो । ५उक्स्सो बंधो विसेसाहिओ।
६उक्कड्डणाए परूवणा। चरिमफद्दयं ण उक्कडिज्जदि । दुचरिमफद्दयं ण उक्कड्डिअदि । एवमणंताणि फद्दयाणि ओसक्किऊण तं फद्दयमुक्कड्डिजदि । सव्वत्थोवो जहण्णओ णिक्खयो । जहणिया अइच्छावणा अणंतगुणा । उक्कस्सओ णिक्खेवो अणंतगुणो। उक्स्सओ बंधो विसेसाहिओ। ७ओकड्डणादो उक्कड्डणादो च जहणिया अइच्छोवणा तुल्ला । जहण्णओ णिक्खवो तुल्लो।
__एदेण अट्ठपदेण मूलपयडिअणुभागसंकमो। तत्थ च तेवीसमणिओगदौराणि सण्णा जाव अप्पाबहुए ति २३ । भुजगारो पदणिक्खेवो वढि ति भाणिदव्यो ।
दो उत्तरपयडिअणुभागसंकमं चउवीसअणिओगद्दारेहि वत्तइस्सामो । तत्थ पुज्यं गमणिज्जा घादिसण्णा च ठाणसण्णा च । सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं मोत्तण सेसाणं कम्माणमणुभागसंकमो णियमा सव्वघादी वेढाणिओ वा तिहाणिओ वा चउद्याणिओ वा । १०णवरि सम्मामिच्छत्तस्स वेढाणिओ चे । अक्खवग-अणुवसामगस्स चदुसंजलण-पुरिसवेदाणमणुभागसंकमो मिच्छत्तभंगो। ११खवगुवसामगाणमणुभागसंकमो सव्वघादी वा देसघादी वा वेढाणिओ वा एयट्ठाणिओ वा । सम्मत्तस्स अणुभागसंकमो णियमा देसघोदी । १२एयट्ठाणिओ वेढागिओ वा ।
१३सामित्तं । मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकमो कस्स ? उकस्साणुभागं बंघिदगावलियपडिभग्गस्स अण्णदरस्स । १४एवं सन्चकम्माणं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकमो कस्स १ १५दंस गमोहणीयक्खवयं मोत्तण जस्स संतकम्ममत्थि तस्स उकस्सोणुभागसंकमो।
(१) पृ० ५। (२) पृ० ६ । (३) पृ०७। (४) पृ०८ । (५) पृ०६ । (६) पृ० १० । (७) पृ० ११ । (८) पृ० २० । (६ ) पृ०२१ । (१०)१३ पृ० २२ । (११) पृ० २३ । (१२ पृ० ( २४ । ( १३ ) पृ० २७ । (१४) पृ० २८ । (१५) पृ० २६ ।
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परिसिट्ठाणि
५२७ १एत्तो जहण्णयं । मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? सुहुमस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण अणदरो । २एइंदिओ वा वेइदिओ वा तेइंदिओ वा चउरिदिओ वा पंचिंदिओ वा । ३एवमट्टगं कसायाणं । सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीओ । ४सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? चरिमाणुभागखंडयं संछुहमाणओ। अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? विसंजोएदूण पुणो तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण संजोएगावलियादीदो । ५कोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? चरिमाणुभागबंधस्स चरिमसमयअणिल्लेवगो । एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । लोहसंजलणस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? समयाहियावलियचरिमसमयसकसाओ खरगो। इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? इत्थिवेदक्खवगो तस्सेव चरिमाणुभागखंडए वट्टमाणओ । ७णसयवंदस्स जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? णqसयवेदक्खवगो तस्सेव चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणओ । छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होइ ? खरगो तेसिं चेय छण्णोकसायवेदणीयाणं चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणओ।
एयजीवेण कालो। मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकामओ केत्रचिरं कालादो होदि ? जहण्णु कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणुकस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा। एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं। सम्मत्त-सम्माच्छित्तोणमुक्कस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । १०उक्कस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणुकस्साणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
११एत्तो एयजीवेण कालो जहण्णओ। मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । १२अजहण्णाणुभागसंकाम। केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण असंखेजा लोगा । एवमट्टकसायाणं। सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? १३जहणुकस्से एयसमओ । अजहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण वेछावहिसागरोबमाणि सादिरेयाणि । एवं सम्मामिच्छत्तस्स । १४णवरि जहाणाभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणंतागणुरंधीणं जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण एयसमओ । अजह
(१) पृ० ३० । (२) पृ० ३१ । (३) पृ० ३२ । (४) पृ० ३३ । (५) पृ० ३५ । (६) पृ०३६ । (७) पृ० ३७ । (८) पृ० ३६ । (६) पृ० ४० । (१०) पृ० ४१ । (११) पृ. ४२ । (१२)पृ० ४३ । (/१३) ० ४४ । (१४) पृ० ४५ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ण्णाणुभागसंकामयस्स तिण्णि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट। चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । अजहण्णाणुभागसंकामओ अणंताणुबंधीणं भंगो । इत्थि-णवुसयवेद-छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? २जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुतं । अजहण्णाणुभागसंकामयस्स तिण्णि भंगा । तत्थ जो सो सादिओ सपअबसिदो सो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उवहपोग्गलपरियट्ट।
___ ३एत्तो एयजीवेण अंतरं । ४मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुतं । उकस्सेण असंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्कस्सोणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं सोलसकसाय-णवणोकसाय.णं । णवरि बारसकसाय-णवणोकसायाणमणुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं जहण्णेण एयसमओ। अणंताणुबंधीणमणुकस्साणुभागसंकामयंतर जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ६उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केबचिरं कालादो होदि ? जहण्णणेयसमओ। ७उक्कस्सेण उवठ्ठपोग्गलपरियट्ट । अणुक्कस्साणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतर ।
एतो जहाणयंतरं । मिच्छत्तस्स जहणाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण असंखेजा लोगा। अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्त । ६एवमट्टकसायाणं । णवरि अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । सम्मतसम्मामिच्छत्ताणं जहणणाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? पत्थि अंतरं । अजहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । १०अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण उघडपोग्गलपरियट्ट। अजहण्णाणुभागसंकामयंतर केवचिरं कालादोहोदि ११जहण्णेण अंतोमुहुत्त । उक्कस्सेण वेछावद्विसोगरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं कम्माणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? पत्थि अंतर अजहष्णाणु भागसंकामयंतर केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । १२उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।
(१) पृ० ४६ । (२)पृ० ४७ । (३) पृ० ४८ । (४) पृ० ४६ । (५) पृ० ५० । (६) पृ० ५१ । (७) पृ० ५२ । (८) पृ० ५३ (६) पृ० ५४ । (१०) पृ० ५५ । (११) पृ० ५६ । (१२) पृ० ५७।
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परिसिहाणि
પર साण्णियासो मिच्छत्तस्स उक्सस्साणुमागं संकामेंतो समत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जइ संकामओ णियमा उक्कस्सयं संकामेदि । सेसाणं कम्माणं उक्कस्सं वा अणुक्कस्सं वा संकामेदि । उक्कस्सादो अणुक्कस्सं छहाणपदिदं । एवं सेसाणं कम्माणं णादण णेदव्वं ।
१जहण्णओ सणियासो । मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागं संकामेंतो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जइ संकामओ णियमा अजहण्णाणुभागं संकामेदि । जहण्णादो अजहण्णमणंतगुणब्भहियं । अट्ठण्णं कम्माणं जहण्णं वा अजहण्णं वा संकामेदि । २जहण्णादो अजहणं छट्ठाणपदिदं । सेसाणं कम्माणं णियमा अजहण्णं । जहण्णादो अजहण्णमणंतगुणब्भहियं । ३एवमट्ठकसायाणं । सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागं संकामेंतो मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणमकम्मंसिओ । सेसाण कम्माण णियमा अजहण्ण संकामेदि । जहूण्णादो अजहण्णमणतगुणब्भहियं । ४एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । णवरि सम्मत्तं बिजमाणेहि भणियव्वं । पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागं संकातो चदुण्डं कसायाण णियमा अजहण्णमणतगुण. ब्भहियं । कोधादितिए उवरिल्लाण संकामओ णियमा अजहण्णमणतगुणब्भहियं । ५लोहसंजलणे णिरूद्ध णत्थि सण्णियासो।
६णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-उक्कस्सपदभंगविचजो जहण्णपदभंगविचओ च । तेसिमट्ठपदं काऊण । ७मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा उकस्साणुभागस्स असंकामया । सिया असंकामया च संकोमओ च । सिया असंकामया च संकामया च । एवं सेसाण कम्माण । ८णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण संकामगा पुव्वं ति भाणिव्वं ।
जहण्णाणुभागसंकमभंगविचओ। मिच्छत्त-अट्ठकसायाण जहण्णाणुभागस्स संकामया च असंकामया च । सेसाण कम्माण जहण्णाणुभागस्स सव्वे जीवा सिया असंकामया । सियो असंकामया च संकामया च ।
१•णाणाजीवेहि कालो। मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवसस्स असंखेन्जदिभागो। ११अणुक्कस्साणुभोगसंकामया सनद्धा । एवं सेसाण कम्माण । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताण. मुक्कस्साणुभागसंकामया सव्वद्धा । अणुक्कस्साणुमागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
१२एत्तो जहण्णकोलो । मिच्छत्त-अट्ठकसायाण जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होति ? सम्बद्धा । सम्मत्त-चदुसंजलण-पुरिसवेदाण जहण्णाणुभागसंकामया कवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेणेयसमओ । १३उक्कस्सेण संखेजा समयो । सम्मा
(१) पृ० ६१ । ( २ ) पृ० ६२ । ( ३ ) पृ० ६३ । ( ४ ) पृ० ६४ । (५) पृ० ६५ । (६) पृ० ६८ । (७) पृ० ६६ । (८) पृ० ७० । (६) पृ० ७१ । (१०) पृ० ७३ । (११) पृ. ७४ । (१२) पृ० ७५ । (१३) पृ० ७६ ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
मिच्छत्त-अद्वणोकसायाण' जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अण'ताणुबंधीण जहण्णाणुभागसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्ण एयसमओ । 'उक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । एदेसिं कम्माणमजण्णाणुभागकामया केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा ।
राणोजीवेहि अंतरं । मिच्छत्तस्स उकस्सारणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेयसमओ । उकस्सेण असंखेजा लोगा । अणुकस्सारणुभागसं कामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं । एवं सेसाणं कम्माणं । णरि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुकस्सरणुभागसं कामयं तरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्थि अंतरं । अरणुकस्सारणुभागसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्ोग एयसमओ । उकस्सेण छम्मासा । एतो जहण्णयंतरं । ४मिच्छत्तस्स अडकसायस्स जहण्गाणुभागसंकामयाणं केवचिरं अंतरं ? णत्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मामिच्छत्त चदुसंजलण-णवणोकसायाणं जहण्णाणुभागसंकामयंतरं केव चिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेयसमओ | उकस्सेण छम्मासा | णवरि तिष्णिसं जलण-पुरिसवेदा णमुकस्सेण वासं सादिरेय । प्रणवुंसयवेदस्स जहण्णाणुभाग संका मयंतर मुकस्सेण संखेआणि वासाणि । अणताणुबंधीण जहण्णाणुभागकामयतरं चिरं कालादो होदि ? जहण्ोण एयसमओ । उक्कस्सेण असंखेजा लोगा । ६ देसि सव्वे सिम जहण्णाणुभागस्स केव चिरमंतरं १ णत्थि अंतरं ।
I
७ अप्पा बहुअं । जहा उकस्साणुभागविहत्ती तहा उकस्साणु भागसंकमो । एत्तो जहण्यं । सव्वत्थोवो लोहसंजलणस्स जहण्णाण भागसंक्रमो । मायासंजलणस्स जहण्णा - भागसंकमो अनंतगुणो । माणसंजलणस्स जहण्णाण भागसंक्रमो अणतगुणो । कोहसंजणस्स जहण्गो भागसंकमो अनंतगुणो । सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंक्रमो अनंतगुणो । पुरिसवेदस्स जहण्णाण भागसंकमो अनंतगुणो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाण भागसंक्रमो अण'तगुणो । `अण'ताणु बंधिमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अतगुणो । कोस जहण्णाण भागसंकमो विसेसोहिओ । मायाए जहण्णाण भागसंक्रमो विसेसाहिओ । लोभस जहणाण भागसंकमो विसेसाहिओ । हस्सस्स जहण्णाण भागसंकमो अनंतगुणो । १० दीए जहण्णाण भागसंकमो अण तगुणो । दुगु छाए जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो । भयस्त जगाणु भागसंकमो अनंतगुणो । सोगस्स जहण्णोण भागसंकमो अनंतगुणो । अरदीए जहण्णाण भागसंकमो अनंतगुणो । इत्थवेदस्स जहण्गाणुभाग संक्रमो अनंतगुणो । 'सयवेदस्स जहण्णाणु भागसंकमो अनंतगुणो । ११ अपञ्चकखाणमाणस्स जहण्णाण -
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G
( १ ) पृ० ७७ । ( २ ) पृ० ७८ । (३) पृ० ७६ । (४) पृ० ८० । ( ५ ) पृ० ८१ । (६) पृ० ८२ । (७) पृ० ८३ । (८) पृ० ८४ । ( ६ ) पृ० ८५ । (१०) पृ० ८६ । (११) पृ० ८७ ।
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परिसिट्ठाणि
५३१ भागसंकमो अणतगुणो । कोहस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णाण - भागसंकमो बिसेसाहिओ। लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । पच्चक्खाणमाणम्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो। कोहस्स जहण्णाणु भागसंकमो विसेसाहिओ । १मायाए जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । लोभस्स जहण्णाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । मिच्छत्तस्स जहण्णणुभागसंकमो अणतगुणो। __णिरयगईए सव्वत्थोवो सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणतगुणो। अणताणुबंधिमाणस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणतगुणो । कोहस्स जहण्णोण भागसंकमो विसेसाहिओ । २मायाए जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ। लोभस्स जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ । हस्सस्स जहण्णाणुभागसंकमो अणतगुणो। रदीए जहण्णाणाणु भागसंक्रमों अणतगुणो । पुरिसवेदस्स जहण्णाणु भागसंकमो अण'तगुणो । इस्थिवेदस्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो । २दुगु छाए जहण्णाणु भागसंकमो अणतगुणो। भयस्स जहण्णाणु भोगसंकमो अणतगुणो। सोगस्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो । अरदीए जहण्णाण भागसंकमों अणतगुणो । णवुसयवेदस्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो। अपच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणु भागसंकमो अणतगुणो । कोधस्स जहण्णाणु भागसंकमो विसेसाहिओ। मायाए जहण्णाणु भागसंकमो विसेसाहिओ । लोभस्स जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ । ४पच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो। कोहस्स जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्गाणुभागसंकमो विसेसाहिओ । लोभस्स जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ। माणसंजलणस्स जहण्णाण. भागसंक्रमो अणतगुणो। कोहसजलणस्स जहण्णाण भागसंकमो विसेसाहिओ। माया. संजलणस्स जहण्णाणु भागसंकमो विसेसाहिओ । लोभसंजलणस्स जहण्णाणु भागसंकमो विसेसाहिओ। मिच्छत्तस्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो । ५जहा णिरयगदीए तहा सेसासु गदीसु। ____ एइदिएसु सव्वत्थोवो सग्मत्तस्स जहण्णाणु भागसंकमो। सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणु - भागसंकमो अणतगुणो। हिस्सस्स जहण्णाण भागसंकमो अणतगुणो। सेसाण जहा सम्माइटिबंधे तहा कायव्यो ।
भुजगारे ति तेरस अणिओगद्दाराणि । तत्थ अट्ठपदं । तं जहा । जाणि एण्हिं फद्दयाणि संकामेदि अणंतरोसक्कानिदे अप्पदरसंकमादो बहुगाणि ति एस भुजगारो। ओसक्कोविदे बहुदरादो एण्हिमप्पदराणि संकामेदि ति एस अप्पदरो। ६ओसक्काविदे एण्हिं च तत्तियाणि संकामेदि त्ति ऐस अवट्ठिदसंकमो। ओसकाविदे असंकमादो एण्हिं संकामेदि ति एस अवत्तव्वसंकमो । एदेण अट्ठपदेण सामित्तं । १०मिच्छत्तस्स भुजगार
(१) पृ० ८८ । (२) पृ० ८६ ! (३) पृ० ६०। (४) पृ० ६१ । (५) पृ० ६२ । (६) पृ० ६३ । (७) पृ० ६४ । (८) पृ० ६५ । (६) पृ०६६ । (१०) पृ० ६७ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
संकामगो को होइ ? मिच्छाइट्ठी अण्णदरो । अप्पदर - अवट्टिदसंकामओ को होइ ? १ अण्णदरो | अवत्तव्वसंकामओ णत्थि । एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । वरि अवतव्यगो च अस्थि । २सम्मत सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार संकामओ णत्थि । अप्पदर - अवत्तव्य संकामगो को होइ ? सम्माइट्ठी अण्णदरो । अवट्टिद संकामओ को हो ? ३अणद ।
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तो एयजीवेण कालो | मिच्छत्तस्स भुजगार संकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण समओ । ४उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अप्पयरसंकामओ केवचिरं कालादो हो ? जहण्णुक्कस्से एयसमओ । अवट्ठिदसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जहोण एयसमओ । उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । सम्मत्तस्स अप्पयरसंकामओ केवचिरं कालादो होदि १ ६ जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । अडिदकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ७ अवतन्त्रसंकामओ केवचिरं कालादों होइ ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । सम्मामिच्छत्तस्स अप्पयर- अवत्तव्वसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? जणु से समयं । अवट्ठिदसंकामओ केविचरं कालादो होइ ? जहण्ण अंत । उक्कस्से वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं कम्माणं भुजगारं जहणेण एयसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । अप्पयरसंकामओ केविचिरं कालादों होइ ? जहण्गुक्कस्सेण एयसमओ । ध्वरि पुरिसवेदस्स उकस्सेण दोआवलियाओ माओ । चदुहं संजलणाणमुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अट्ठिदं जहण्गेण एयसमओ । उक्कस्त्रेण तेवट्टिसागरोत्रमसदं सादिरेयं । अत्तव्यं जहगुक्कस्सेण एयसमओ ।
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१० एत्तो एयजीवेण अंतरं । मिच्छत्तस्स भुजगोरसंकामयं तरं केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण तेत्रट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । ११ अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ १ जहण्ोण अतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । अत्रदिसंकामयतरं केवचिर कालादो होइ ? जहणेण एयसमओ । उक्कस्से अतोमुहुत्तं । १२ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामयं तर केवचिर ं कालादोहो ? जहण्णुक्कस्से अतोमुहुतं । अव हृदसंकामय' तर केवचिर कालादो होह ? जो एसओ । उक्कस्सेण उवडपोग्गलं परियदृ । १३ अवत्तव्त्रसंकामय' तर केवचिरं दो हो ? जो पलिदोवमस्स असंखेजदिभ.गो । उकस्सेण उवडपोग्गलपरियडू ।
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(१) पृ० ६८ । ( २ ) पृ० ६६ । ( ३ ) पृ० १०० । ( ४ ) पृ० १०१ । ( ५ ) पृ० १०२ । ( ६ ) पृ० १०३ । (७) पृ० १०४ । (८) पृ० १०५ । ( ६ ) पृ० १०६ । ( १० ) पृ० १०७ । ( ११ ) पृ० १०८ । ( १२ ) पृ० १०६ । (१३ ) पृ० ११० ।
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परिसिट्ठाणि
५३३ सेसाण कम्माण मिच्छत्तभंगो। १णवरि अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिर कालादो होइ ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उवड्पोग्गलपरियट्ट। २अणताणुबंधीणमवट्ठिदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण एयसमओ । उक्स्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
___णाणाजीवेहि भंगविचओ। मिच्छत्तस्स सव्वे जीवा भुजगारसंकामया च अप्पयरसंकामया च अवट्ठिदसंकामया च । ३सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णव भंगा । सेसाणं कम्माणं सव्वजीवा भुजगार-अप्पयर-अवट्ठिदसंकामया । सिया एदे च अवत्तव्यसंकामओ च, सिया एदे च अवत्तव्यसंकामया च । ___ ४णाणाजीवेहि कालो । मिच्छत्तस्स सव्वे संकामया सव्वद्धा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पयरसंकामया केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण संखेजा समया । ५णवरि सम्मत्तस्स उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अवद्विदसंकामया सम्बद्धा । अवत्तव्यसंकामया केवचिरं कालादा होति ? जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । अणताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयर-अवट्ठिदसंकामया सव्वद्धा । ६अवत्तव्य संकामया केवचिरं कालादा होंति ? जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । एवं सेसाणं कम्माणं । णवरि अवत्तव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण संखेजा समया।
एतो अंतरं । ७मिच्छत्तस्स. णाणाजीवेहि भुजगार-अप्पयर-अवविदसंकामयाणं णस्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । अवविदसंकामयाणं गस्थि अंतरं । अवत्तव्यसंकामयंतरं जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण चउवीसमहारत्ते सादिरेगे । ८अणंताणुबंधीणं भुजगारअप्पयर-अवद्विदसंकामयाणं णत्थि अंतरं। अवत्तव्यसंकामयंतरं जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण चउवीसमहारत्ते सादिरेये । एवं सेसाणं कम्माणं । णबरि अवत्तव्यसंकामयाणमंतरमुक्कस्सेण संखेजाणि वस्साणि ।।
___६अप्पाबहुअ। सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अप्पयरसंकामया । भुजगारसंकामया असंखेजगुणा । अद्विदसंकामया संखेजगुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अप्पयरसंकामया । अवत्तव्यसंकामया असंखेजगुणा ।१०अवडिदसंकोमया असंखेजगुणा । सेसाणं कम्माणं सव्वत्थावा अप्रत्तव्यसंकामया । अप्पयरसंकामया अणतगुणा । भुजगारसंकामया असंखेजगुणा । अवट्ठिदसंकामया संखेजगुणा ।
(१) पृ० १११ । (२) पृ० ११२। (३) पृ० ११३। (४) पृ० ११४ । (५) पृ० ११५ । ( ६ ) पृ० ११६ । (७) पृ० ११७ । (८) पृ० ११८ । (६ ) पृ० ११६ (१०) पृ० १२० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदणिक्खेवे ति तिणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा । परूवणा सामित्तमप्पाबहुअं च। परूषणाए सव्वेसि कम्माणमत्थि उकस्सिया बढी हाणी अवट्ठाण । जहणिया वड्डी हाणी अवष्ठाण । वरि सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं वीणस्थि ।
सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? सिण्णिपाओग्गजहण्णएण अणुभागसंकमेण अच्छिदो उकरससंकिलेसं गदा तदा उकस्सयमणुभागं पबद्धो तस्स आवलियादीदस्स उक्कस्सिया वड्डी । तस्स चेव से काले उकस्सयमवट्ठाण । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? जस्स उकस्सयमणुभागसंतकम्मं तेण उकस्सयमण भागखंडयमागोइदं तम्मि खंडये घादिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी । 'तप्पाओग्गजहण्णाण भागसंकमादो उक्स्ससंकिलेसं गंतूण जं बंधदि से बंघो बहुगो । जमण मागखंडयं गेहइ तं विसेसहीण। एदमप्पाबहुअस्स साहणं । एवं सोलसकसाय-णवणाकसायाण। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी कस्स १ ६दंसणमोहणीयक्खवयस्स विदियअणु भागखंडयपढमसमयसंकामयस्स तस्स उकस्सिया हाणी । तस्स चे से कोले उक्कस्सयमवट्ठाण।।
मिच्छतस्स जहणिया वड्डी कस्स ? सुहुमेइंदियकम्मेण जहण्णएण जो अणंत. भागेण वहिदो तस्स जहणिया वड्डी । जहणिया हाणी कस्स ? जो चड्ढाविदो तम्मि घादिदे तस्स जहणिया हाणी । एगदरत्थमवट्ठाणं । एवमट्ठकसायाणं । सम्मत्तस्स जहणिया हाणी कस्स ? दसणमोहणीयक्खवयस्स समयाहियावलियअक्खीणदंसणमोहणीयस्स तस्स जहणिया हाणी । जहण्णयमवट्ठाण कस्स ! तस्स चेव दुचरिमे अण भागखंडए हदे चरिमअण भागखंडए वट्टमाणखवयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया हाणी कस्स ११०दसणमोहणीयक्खवयस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहणिया हाणी । तस्स चेव से काले जहण्णयमवहाणं । अणताणुबंधीण जहणिया वड्डी कस्स ? विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण तप्पाओग्गविसुद्धपरिणामेण विदियसमए तप्पाओग्गजहण्णाणुभागं बंधिऊण आवलियादीदस्स तस्स जहणिया वड्डी ११जहणिया हाणी कस्स ? विसंजोएऊण पुणो मिच्छत्तं गंतूण अतोमुहुत्तसंजुत्ते वि तस्स सुहुमस्स हेढदो संतकम्मं । १२तदो जो अंतोमुहुत्तसंजुत्तो जाव सुहुमकम्मं जहण्णयं ण पावदि ताव घादं करेज । १३तदो सम्बत्योवाणुभागे धादिङमाणे तस्स जहणिया हाणी । तस्सेव से कोले जहण्णयमवट्ठाण । कोहसंजलणस्स जहणिया वड्डी मिच्छत्तभंगो। जहणिया हाणी कस्स ? १४खवयस्स चरिमसमयबंधचरिमसमयसंकामयस्स । जहण्णयमवट्ठाण कस्स ? तस्सेव चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स । १५एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । लोह
(.)पृ० १२१ । (२) १२२ ( ३ ) पृ० १२३ । (४) पृ० १२४ । (५) पृ० १२५ । (६) पृ. १२६ । (७) पृ० १२७ । (८)पृ० १२८ । (६) पृ० १२६ । (१० ) पृ० १३० । (११) पृ० १३१ । (१२) पृ० १३२ । (१३) पृ० १३३ । ( १४ ) पृ० १३४ । ( १५) पृ० १३५ ।
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परिसिहाणि
પરૂ. संजलणस्स जहणिया वड्डी मिच्छत्तभंगो। जहणिया हाणी कस्स १ खवयस्स समयाहियावलियसकसायस्स । जहण्णयमवट्ठाण कस्स ? दुचरिमे अणुभागखंडए हदे चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स । इथिवेदस्स जहणिया वड्डी मिच्छत्तभंगो । जहणिया हाणी कस्स ? चरिमे अणुभागखंडए पढमसमयसंकामिदे तस्स जहणिया हाणी । तस्सेव विदियसमए जहण्णयमवट्ठाणं । १एवं णqसयवेद-छण्णोकसायाणं ।
२अप्पाबहुअं । सबथोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया हाणी । ३बड्डी अवट्ठाणं च विसेसाहियं । एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सिया हाणी अवट्ठाणं च सरिसं । जहण्णयं । मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणसंकमो च तुन्लो । एवमट्टकसायाणं । सम्मत्तस्स सव्वत्थोवा जहणियो हाणी । जहण्णयमवट्ठाणमणंतगुणं । ५सम्मामिच्छत्तस्स जहणिया हाणी अवट्ठाणसंकमो च तुल्लो । अणंताणुबंधीणं सम्बत्थोवा जहणिया वड्डी । जहण्णिया हाणी अवट्ठाणसंकमो च अणंतगुणो। चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणो। जहण्णयमवट्ठाणं अणंतगुणं । ६जहणिया वड्डी अणंतगुणा । अट्ठणोकसायाणं जहणिया हाणी अवठ्ठाणसंकमो च तुल्लो थोत्रो । जहणिया वड्डी अणतगुणा । ___वड्डीए तिण्णि अणिओगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पोबहुअंच । समुक्कितणा । मिच्छत्तस्स अस्थि छबिहा वड्डी छबिहा हाणी अवट्ठाण च । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमथि अणतगुणहाणी अबहोणमवत्तव्ययं च । ६अणताणुबंधीणमत्थि छबिहा वड्डी. छबिहा हाणी अवट्ठाणमवत्तव्ययं च । एवं सेसोण कम्माण।
१०सामित्तं । मिच्छत्तस्स छविहा वड्डी पंचविहाँ हाणी कस्स १ मिच्छाइहिस्स अण्णयरस्स । अणतगुणहाणी अवद्विदसंकमो कस्स १ ११अण्णयरस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमणतगुणहाणिसंकमो कस्स १ दंसणमोहणीय खर्वतस्स । अवट्ठाणसंकमो कस्स ? अण्गदरस्स। अबत्तव्यसंकमो कस्स ? विदियसमयउवसमसम्माइद्विस्स । १२सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो । णवरि अणंताणुबंधीणमवत्तव्यं विसंजोएदूण पुणो मिच्छत्तं गंतूण आवलियादीदस्स । सेसाण कम्माणमवत्तनमुवसामेदूण परिवदमाणस्स ।
१३अप्पाबहुअं । सम्बत्थोवा मिच्छत्तस्स अणंतभागहाणिसंकामया । १४असंखेजभागहाणिसंकामया असंखेजगुणा । संखेजभागहाणिसंकामया संखेजगुणा। संखेजगुण
(१) पृ० १३७ । (२) पृ० १३८ । (३) पृ० १३८ । (४) पृ० १४० । (५) पृ० १४१ । (६) पृ० १४२ । (७) पृ० १४३ । (८) पृ० १४५ । (६) पृ० १४६ । (१०) पृ० १४७ । (११) पृ० १४८ । (१२) पृ० १४६ । (१३) पृ० १५० । (१४) पृ० १५१ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हाणिसंकामया संखेजगुणा । १असंखेजगुणहाणिसंकामया असंखेजगुणा । अर्णतभागवद्विसंकामया असंखेजगुणा । असंखेजभोगवडिसेकामया असंखेजगुणा । २संखेजभागवतिसंकामया संखेजगुणा । संखेजगुणवहिसंकामया संखेजगुणा । असंखेज्जगुणवंहिसंकामया असंखेज्जगणा । अणंतगुणहाणिसंकामया असंखेजगुणा । ३अणतगुणवड्डिसंकामया असंखेजगुणा । अवट्ठिदसंकामयो संखेजगुणा । सम्मत्तसम्मामिच्छात्ताण सम्बत्थोवा अणतगुणहाणिसंकामया । अवत्तव्यसंकामया असंखेजगुणा । अवढिदसंकामया असंखेजगुणों । ४सेसोण कम्माण सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया । अणतभागहाणिसंकामया अणतगुणा । सेसाण संकामया मिच्छत्तभंगो। . ___एत्तो हाणोणि कायव्याणि । जहा संतकम्मट्ठोणाणि तहा संकमट्टोणाणि । तहा वि परूवणा कोयना । ६उक्कस्सए अणुभागबंधट्ठोणे एगं संतकम्मं तमेगं संकमट्ठाण । दुचरिमे अणुभोगबंधट्ठाणे एवमेव । एवं ताव जाव पच्छाणुपुबीए पढममणतगुणहीणबंधट्ठाणमपत्तो त्ति । पुव्वाणुपुवीए गणिजमाणे जं चरिममणंतगुणं बंधट्ठाणं तस्स हेट्ठा अणतरमणतगुणहीणमेदम्मि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । प्ताणि संतकम्महाणाणि ताणि चेव संकमट्ठाणाणि । तदो पुणो बंधहाणाणि संकमट्ठाणाणि च ताव तुल्लागि जाव पच्छाणुपुबीए विदियमणतगुणहीणबंधाणं। विदियअणतगुणहीणबंधट्ठाणस्सुवरिल्ले अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एवमणतगुणहीणबंधट्ठाणस्सुवरि अंतरे असंखेचलोगमेत्ताणि घादवाणाणि ॥१०एवमणंतगुगहीणबंधट्ठाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि भवंति णत्थि अण्णम्मि । एवं जाणि बंधट्ठोणाणि ताणि णियमा संकमट्ठाणाणि । जाणि संकमट्ठाणाणि ताणि बंधट्ठाणाणि वा ण वा ।११तदो बंधट्ठाणाणि थोवाणि। संतकम्मट्ठाणाणि असंखज्जगणाणि। जाणि च संतकम्मट्ठाणाणि ताणि संकमट्ठाणाणि । अप्पाबहुअं जहा सम्माइट्ठिगे बंधे तहा।
पदेससंकमो अत्थाहियारो १२पदेससंकमो । तं जहा । मूलपदेससंकमो णत्थि । उत्तरपयडिपदेससंकमो। अट्ठपदं । १३ पदेसग्गमण्णपयडि णिजदे जत्तो पयडीदो तं पदेसग्गं णिजदि तिस्से पयडीए सो पदेससंकमो । जहा मिच्छत्तस्स पदेसग्गं सम्मत्ते संछुहदि तं पदेसग्गं मिच्छत्तस्स पदेससंकमो । एवं सम्वत्थ । १४एदेण अट्ठपदेण तत्थ पंचविहो संकमो । तं जहा । उव्वेल्लण
(१) पृ० १५२ । (२) पृ० १५३ । ( ३) पृ० १५४ । (४) पृ० १५५ । (५) पृ० १५६ । (६) पृ० १५७ । (७) पृ० १५८ । (८) पृ० १५६ । (६) पृ० १६० । (१०) पृ० १६१ । (११) पृ० १६२ । ( १२ ) पृ० १६८ । (१३) पृ० १६६ । (१४) पृ०१७० ।
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परिसिद्वाणि
संकमो विज्ज्ञादसंक्रमों अधोपवत्तसंकमो गुणसंकमो सव्त्रसंकमो च । १ उबेल्लणसंकभे पदेसगं थोवं । २ विज्झादसंक मे पदेसग्गमसंखेजगुणं । अधापवत्तसंकमे पदेसग्गमसंखेजगुणं । गुणसंकमे पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । सव्वसंकमे पदेसग्गमसंखेजगुणं ।
३तो सामित्तं । ४ मिच्छत्तस्स उकस्सय पदेससंकमो कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उच्चट्ठिदो । दो तिण्णि भवग्गहण | णि पंचिदियतिरिक्खपञ्जत एसु उबवण्णो । अंतोमुहुत्तेण मणुसेसु आगदो । सन्वलहु दंसणमोहणीयं खवेदुमाढत्तो । जाघे मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते सव्त्रं संकुभमाणं संकुद्धं ताधे तस्स मिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । सम्मत्तस्स उकस्सओ पदेससंकमो कस्स ? ६ गुणिदकम्मंसिएण सत्तमाए पुढत्री रइएण मिच्छत्तस्स उकस्सपदेससंतकम्ममंतो मुहुत्तेण होहिदि त्ति सम्मत्तमुप्पा इदं, सव्युकस्सियाए पूरणाए सम्मत्तं पूरिदं तदो उवसंतद्धाए पुण्णाए मिच्छत्तमुदीरयमाणस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो । सो वुण अधापवत्तसंक्रमो । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जेण मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसग्गं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तेणेव जाधे सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते संपक्खित्तं ताधे तस्स सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो | अणतारणुबंधीणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? सो चेव सत्तमाए पुढवीए रइयो गुणिदकम्मंसिओ अंतोमुहुत्तेणेव तेसिं चेव उक्कस्सपदेस संतकम्मं हो हिदि त्ति उस्सजोगेण उकस्ससंकिलेसेण च णीदो, तदो तेण रहस्सकाले सेसे सम्मत्तमुप्पाइयं । पुगो सो चैत्र सबल हुमणं तारणुबंधीण विसंजोएदुमाढत्तो तस्स चरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तेसिमुकस्सओ पदेस संक्रमो । १० अट्ठण्हं कसायाणमुक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स १ गुणिदकम्मंसिओ सव्वलहु मणुसगइमागदो, अट्ठवस्सिओ खखणाए अन्भुट्ठिदो, तदो अट्टहं कसायाणमपच्छिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमय संछुहमाणयस्स तस्स अट्टहं कसायाणमुकस्सओ पदेस संक्रमो एवं छण्णोकसायाणं । ११ इत्थिवेदस्स उक्कस्सओ पदेस संक्रमो कस्स १ गुणिदकम्मंसिओ असंखेज वस्सा उएस इत्थिवेदं पूरेण तदो कमेण पूरिदकम्मंसिओ खवणाए अन्भुट्टिदो, तदो चरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयसंकुहमाणयस्स तस्स इत्थवेदस्स उकस्सओ पदेससंकमो । १२ पुरिसवेदस्त उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स १ गुणिदकम् मंसिओ इत्थि - पुरिस-बुंसयवेदे पूरेण तदो सव्बलहु खत्रणाए अन्धुट्ठिदो पुरिसवेदस्स अपच्छिमडिदिखं 'डयं चरिमसमयसंहमाणयस्स तस्स पुरिसवेदस्स उकस्सओ पदेससंकमो | णवुंसयवेदस्स उस्सओ पदेससंकमो कस्स १ १ ३ गुणिदकम्मंसिओ ईसाणादो आगदो सम्बलहु
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( १ ) पृ० १७२ । ( २ ) पृ० १७३ । (३) पृ० १७६ (४) पृ० १७७ । (५) पृ० १७८ । (६) पृ० १७६ ! ( ७ ) पृ० १८० । (८) पृ० १८१ । ( ६ ) पृ० १८२ १० ) पृ० १८३ । ११ ) पृ० १८४ । ( १२ ) पृ० १८५ । (१३) पृ० १८६ |
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे खवेदुमाढतो, तदो गवुसयवेदस्स अपच्छिमद्विदिखडयं चरिमसमयसंछुहमाणयस्स तस्स णqसयवेदस्त उकस्सओ पदेससंकमो। कोहसंजलणस्स उकस्सओ पदेससंकमो कस्स ? जेण पुरिसवेदो उकस्सओ संछुद्धो कोधे तेणेव जाधे माणे कोधो सव्वसंकमेण संछुभदि ताधे तस्स कोधस्स उकस्सओ पदेससंकमो । १एदस्स चेव माणसंजलणस्स उक्स्स ओ पदेससंकमो कायव्यो । णवरि जाधे माणसंजलणो मायासंजलणे संछुभइ ताधे । एदस्स चेव मायासंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कायव्यो । णवरि जाधे मायासंजलणो लोभसंजलणे संछुब्मइ ताधे । लोभसंजलणस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो कस्स ? २गुणिदकम्मसिओ सव्वलहुँ खवणाए अब्भुद्विदो अंतरं से काले कादण लोहस्स असंकामगो होहिदि ति तस्स लोहस्स उक्कस्सओ पदेससंकमो।
___ ३एतो जहण्णयं ? मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? ४खविदकम्मंसिओ एई दियकम्मेण जहण्णएण मणुसेसु आगदो, सव्वलहु चेव सम्म पडिवण्णो, संजमं संजमासंजमं च बहुसो लभिदाउगो, चत्तारि वारे कसाए उत्सामित्ता वेछावहिसागरो० सादिरेयोणि सम्मत्तमणुपालिदं, तदो मिच्छत्तं गदो, अंतोमुहुत्तेण पुणो तेण सम्म लद्धं, पुणो सागरोवमपुधत्तं सम्मत्तमणुपालिदं, तदो दंसणमोहणीयक्खबवणाए अब्भुट्टिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणस्स मिच्छत्तस्स जहण्णओ पदेससंकमो। ५सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एसो चेव जीवो मिच्छत्तं गदो, तदो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागं ६गंतूण अप्पप्पणो दुचरिमट्ठिदिखंडयं चरिमसमयउव्वेल्लमाणयस्स तस्स जहण्णओ पदेससंकमो । ७अणंताणुबंधीणं जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एह दियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो, संजमं संजमासंजमं च बहुसो लद्धण चत्तारि वारे कसाए उत्सामित्ता तदों एइंदिऐसु पलिदोवमस्स असंखे०भागमच्छिदों जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलिदा ति । तदो पुणो तसेसु आगदो, सव्वलहु समम्तं लद्धं, अणंताणुबंधिणो च विसंजोइदा, पुणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्तं संजोएदूण पुणो तेण सम्मत्तं प्लद्ध, तदो सागरोवमवेछावट्ठीओ अणुपालिदं, तदो विसंजोएदुमाढत्तो तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए अणंताणुवंधीणं जहण्णओ पदेससंकमो। ६अट्टण्हं कसायाणं जहण्गओ पदेससंकमो कस्स ? १०एइंदियकम्मेण जहण्णएण तसेसु आगदो, संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो, चत्तारि वारे कसाए उत्सामित्ता तदो एइदिएसु गदो, असंखेजाणि वस्माणि अच्छिदो जाव उवसामयसमयपबद्धा णिग्गलंति । तदो तसेसु आगदो, संजमं सबलहुँ लद्धो, पुणो कसायक्खवणाए उबढिदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए अट्ठण्हं
(१) पृ० १८७ । (२) पृ० १८८ । ( ३) पृ० १६४ । (४) पृ० १६५ । (५) पृ० १६८ । (६) पृ० १६८ । (७) पृ० २०० । (८) पृ० २०१ । (६) पृ० २०२। (१०) पृ० २०३ ।
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परिसिहाि
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कसायाणं जहण्णओ पदेस संकभो । १ एवमरइ-सोगाणं। हस्स- रइ-भय-दुगु छाणं पि एवं चेत्र । णवरि अपुव्त्रकरणस्साब लियपविट्ठस्स । २कोहसंजलणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? उवसामयस्स चरिमसमयपबद्धो जाधे उवसामिजमाणो उवसंतो ताधे तस्स कोहसंजणस्स जहण्णओ पदेससंकमो । एवं माणमाया संजलण - पुरिसंवेदाणं | ३ लोह -- संजणस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एइ दियकम्मेण जहपणएण तसेसु आगदो, संजमासंजमं संजमं च बहुसो लडूण कसाएस किं पि गोउवसामेदि । दीहं संजमद्धम गुपा लिदूण खत्रणाए अब्भुट्ठिदो तस्स अपुव्वकरणस्स आवलियपविट्ठस्स लोहसंजलणस्स जहओ पदेससंकमो । ४ सयवेदस्स जहण्णओ पदेससंकमो कस्स ? एइ दियकम्मेण जहण्णएण तसे आगदो, तिपलिदोवमिएस उववण्णो, तिपलिदोवमे अंतोमुहुत्ते सेसे सम्म तमुप्पाइद तो पाए सम्मत्तेण अपडिवदिदेण सागरोवमछावट्ठिमणुपालिदेण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धो, चत्तारि वारे कसाए उवसामिदा । तदो सम्मामिच्छत्तं गंतूण पुणो अंतोमुहुत्ते सम्मत्तं घेत्तण सागरो मछावट्टिमणुपालिण मणुसभवग्गणे सव्चचिरं संजम - म पालिदूण खत्रणा उबद्विदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए णवुः सयवेदस्स जहणओ पदेससंक्रमो । ५एवं चेव इत्थिवेदस्स वि । णवरि तिपलिदोव मिस न अच्छिदाउगो ।
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६यजीवेण कालो | सव्वेसिं कम्माणं जहष्णुकस्सपदेस संकमो के चिरं कालादो हो ? जहण्णुकस्से एयसमओ ।
अंतरं । सव्वेसि कम्माणमुकस्सपदेससंकामयस्स णत्थि अंतरं । ध्अधवा सम्मत्ताबंधी उक्करसंकामयस्स अंतरं केवचिरं ? जहण्ोण असंखेजा लोगा | १० उक्कस्सेण उपोग्गल परियहं । ११ एतो जहण्णयं । कोहसंजलण- माणसंजलण-माया संजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णपदेससं कामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ १२जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उवडपोग्गल परियङ्कं । सेसाणं कम्माणं जाणिऊण दव्वं ।
१३ सण्णियासो | मिच्छत्तस्स उकस्सपदेससंकामओ सम्मत्ताणताणुबंधीणमसंकामओ । सम्मामिच्छत्तस्स नियमा अणुक्कस्तं पदेस संक्रामेदि । उक्कस्सादो अणुकस्समसंखेञ्जगुणहीणं । १४ सेसा कम्माणं संक्रामओ णियमा अणुकस्सं संक्रामेदि । उक्कस्सा दो अणुकरसं नियमा असंखेजगुणहीणं । वरि लोभसंजलणं विसेसहीणं संकामेदि । सेसाणं कम्माणं साहेयव्वं । १५ सव्वेसि कम्माण जहण्णसण्णियासों वि साहेयव्वो ।
(१) पृ० २०४ । (२) पृ० २०५ । (३) पृ० २०६ । ( ४ ) पृ० २०७ । (५) पृ० २०८ । (६) पृ० २११ । ( ७ ) पृ० २१२ । (८) पृ० २२३ । ( ६ ) पृ० २२४ । ( १० ) पृ० २२५ । ( ११ ) पृ० २३० । ( १२ ) पृ० २३१ | ( १३ ) पृ० २३७ । (१४) पृ० २३८ । (१५) पृ० २४३ ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
१ अप्पा बहुअं । सव्वत्थोवो सम्मत्ते उकस्सपदेस संक्रमो । अपच्चक्खाणमाणे उकस्सओ पदेससंकमो असंखेजगुणो । कोहे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । पच्चक्खाणम। ये उकस्सपदेससंकमो विसेसा हिओ । कोहे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसा हिओ । लोभे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । अणंताणुबंधिमाणे उकस्सपदेस संक्रमो विसेसाहिओ । कोहे उकस्सपदेस संकमो विसेसाहिओ । मायाए उकस्तपदेस संकमो विसेसाहिओ । लोभे उकस्सपदेस संकमो विसेसाहिओ । मिच्छत्तस्स कस्सप देसको विसेसाहिओ । सम्मामिच्छत्ते उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभसंजलणे उकस्सपदेससंकमो अनंतगुणो । ३हस्से उकस्सपदेससंकमो असंखेजगुणो । रदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । इत्थवेदे उक्कस्सपदेससंकमो संखेजगुणो । सोगे उकस्सपदेस संक्रमो विसेसाहिओ । अरदीए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । यत्रेदेउकस्सप देसकमो विसेसाहिओ । ४ दुगु छाए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । भए उकस्स पदेस संकमो विसेसाहिओ । पुरिसवेदे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसा हिओ । कोहसंजलणे उकस्सपदेससंकमो संखेञ्जगुणो । माणसं जणे उकस्सपदेसस कमो विसाहिओ | मायास' जलणे उकस्सपदेसस कमों विसेसाहिओ ।
५४०
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रियईए सव्वत्थोवो सम्म उकस्सपदेसस कमो सम्मामिच्छत्ते उक्कस्सपदेसकम सगुण । अपच्चक्खाणमाणे उकस्सपदेसस कमो अस खेजगुणो । कोधे उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । मायाए उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । लोहे उकस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । पच्चक्खाणमाणे उकस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । कोहे उकस्सपदेस कमो विसेसोहिओ । मायाए उकस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । लोहे उकस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । मिच्छते उकस्सपदेसस कमो अस खेजगुणो । धिमा कस्सपदेसस कमो अस खेज्जगुणो । कोधे उक्कस्सपदेसस कमो बिसेसाहिओ । मायाए उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । 'लोभे उक्कस्सपदे सस कमो विसेसाहिओ । हस्से उक्कस्सपदेसस कमो अनंतगुणो । रदीए उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । इत्थवेदे उक्कस्सपदेसस कमो संखेज्जगुणो । सोगे उवकस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ | अरदीए उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । णवुंसयवेदे उक्कस्सपदेस
कमो विसेसाहिओ । दुगु छाए उकस्सपदेससंकमो विसेसा हिओ । भए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । पुरिसवेदे उकस्सपदेससंकमो विसेसा हिओ । माणसंजलणे उकस्सपदेससंकमो
( १ ) पृ० २६५ । ( २ ) पृ० २६६ । (३) पृ० २६७ । ( ४ ) पृ० २६८ । ( ५ ) पृ० २६६ | (६) पृ० २७० । (७) पृ० २७१ । (८) पृ० २७२ ।
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परिसिट्ठाणि
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विसेसाहिओ । कोहसंजलणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । मायासंजलणे उकस्सपदेसकमो विसेसाहिओ । लोहसंजलणे उक्कस्तपदेस संक्रमो बिसेसाहिओ । एवं सेसासु गदीसु दव्वं ।
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'दो एइ दिए सव्वत्थोवो सम्मत्ते उकस्सपदेससंकमो । सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेसको असंखेजगुणो । अपच्चक्खाणमाणे उकस्सपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । कोहे उकस्सपदेस संकमो विसेसाहिओ । मायाए उक्कस्सपदेससंक्रमो विसेसाहिओ । लोहे उकस्सपदेसको विसेसाहिओ । पच्चक्खाणमाणे उकस्सषदेस संकमो विसेसाहिओ । कोहे उस्सपदेसको विसेसाहिओ । २मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । अनंतारबंधिमाणे उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । को उकस्सप देसको विसेसाहिओ । मायाए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे कस्सपदेसको विसेसा हिओ । हस्से उकस्सपदेस संक्रमो अण तगुणो । रदीए उकस्सप्रदेससंक्रमो विसेसाहिओ । इत्थिवेदे उकस्सपदेससंकमो संखेजगुणो । सोगे उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । अरदीए उकस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । णव सयवेदे उकस्सपदेसको विसेसाहिओ । दुर्गां छाए उकस्सप देससंकमो विसेसाहिओ । भए उक्कस्सपदेससंकमो विसेसाहिओ । पुरिसवेदे उक्कस्सप्रदेससंकमो विसेसाहिओ । माणसंजलणे कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । कोहस जलणे उक्कस्सपदेसस क्रमों विसेसाहिओ । मायास जलणे उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ । लोभस जलणे उक्कस्सपदेसस कमो विसेसाहिओ ।
1
तो देस कमदंडओ | सन्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णपदेसस कमो । सम्मामिच्छत जहण्णपदेसस कमो अस खेज्जगुणो । ४अणताणुबंधिमाणे जहण्णपदेसस कमो अस' खेज्जगुणो । कोहे जहण्णपदेसस कमो त्रिसेसाहिओ । मायाए जहण्यापदेसस कमो विसेसाहिओ । लोहे जहण्णपदेसस कमो विसेसा हिओ | मिच्छत्त े जहण्णपदे ससंक मो अस खेजगुणो । 'अपच्चक्खाणामागे जहण्गपदेसस कमो असंखेजगुणो । कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसा हिओ । मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । पच्चक्खाणामागे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे जहण्णापदेससंक्रमो विसेसा हिओ । णवुंसयवेदे जहण्णपदेससंकमो अनंतगुणो । इत्थवेदे जहण्णपदेसकमो असंखेजगुणो । ६ सोगे जहण्णपदेस संकमो असंखेजगुणो । अरदीए जहण्णपदेस
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( १ ) पृ० २७३ । ( २ ) पृ० २७४ । (३) पृ० २७५ । (४) पृ० २७६ । (५) पृ० २७८ । ( ६ ) पृ० २७६ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
संकमो विसेसाहिओ । कोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो असंखेजगुणो । माणसंजलणे जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । पुरिसवेदे जहण्णपदेस संकमो विसेसा हिओ । १ माया संजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । हस्से जहण्णपदेससंकमो असंखेञ्जगुणो । रदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसोहिओ । दुगु छाए जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । भए जहणपदेसको विसेसाहिओ । लोभसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ ।
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२रियईए सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णपदेससंकमो । सम्मामिच्छत्ते जहण्णपदेससंकमो असंखेजगुणो । अनंताशुधिमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । कोहे जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसोहिओ । लोभे जहणपदेस संकमो विसेसाहिओ । मिच्छत्ते जहण्णपदेससं कमो असंखेज्जगुणो । ३ अपच्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेजगुणो । कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ | माया जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ | पञ्चक्खाणमाणे जहण्णपदेस संकमो विसेसोहिओ । कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसा हिओ । मायाए जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । लोमे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । इत्थवेदे जहणपदेससंकमो अनंतगुणो । ४णवंसयवेदे जहण्णपदेससंकमो संखेञ्जगुणो । पुरिसवेदे जहणपदेसको असंखेजगुणो । हस्से जहण्णपदेससंकमो संखेजगुणो । रदीए जहणपदेसको विसेसाहिओ । सोगे जहण्णपदेससंकमो संखेजगुणो । अरदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । दुगु छाए जहण्णपदेस संकमो विसेसाहिओ । भए जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । मोणसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । कोहसंजलणे जहण्णादेससंकमो विसेसाहिओ । माया संजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसा हिओ । जहा णिरयगईए वहा तिरिक्खगईए । ६ देवगईए णाणत्तं, णवुंसयवेदादो इत्थिवेदो असंखेजगुणो ।
ए दिए सव्वत्थोवो सम्मत्ते जहण्णपदेस संकमो । सम्मामिच्छते जहण्णपदेस संकमो असंखेञ्जगुणो । अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेजगुणो । कोहे जहण्णपदेसकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोहे जहण्णपदेससं कमो विसेसाहिओ | अपच्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंक्रमो असंखेजगुणो । कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे जहण्णपदेसirat विसेसाहिओ । पच्चक्खाणमाणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । कोहे जहण्णपदेसकमो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । लोभे जहण्णपदेससंकमो
( १ ) पृ० २८० । ( २ ) पृ० २८१ । (३) पृ० २८२ । ( ४ ) पृ० २८३ । (५) पृ० २८४ | (६) पृ० २८५ । (७) पृ० २८६ । (८) पृ० २८७ ।
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परिसिट्ठाणि
५४३ विसेसाहिओ। पुरिसवेदे जहण्णपदेससंकमो अर्णतगुणो। इथिवेदे जहण्णपदेससंकमो संखेजगुणो । हस्से जहण्णपदेससंकमो संखेजगुणो । रदीए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। १सोगे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। अरदीए जहण्णपदेससंकमो संखेजगुणो । णवंसयवेदे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । दुगुछाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। भए जहण्णादेससंकमो विसेसाहिओ। माणसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । कोहे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। २मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। लोहे जहण्गपदेससंकमो विसेसाहिओ।
भुजगारस्स अट्ठपदं । एहि पदेसे बहुदरगे संकामेदि त्ति उस्सक्काविदो अप्पदरसंकमादो एसो भुजगारसंकमो। ३एण्हि पदेसअप्पदरगे संकामेदि ओसकाविदे बहुदरपदेससंकमादो एस अप्पयरसंकमो। ओसकोविदे एण्हिं च तत्तिगे चेत्र पदेसे संकामेदि त्ति एस अवविदसंकमो। असंकमादो संकामेदि ति अवत्तव्यसंकमो। ४एदेण अट्ठपदेण तत्थ समुकित्तणा। मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवट्टिद-अवत्तव्यसंकामया अस्थि । एवं सोलसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुछोणं । एवं चेत्र सम्मत-सम्मामिच्छत्त-इत्थिवेद-णवंसयवेदहस्स-रइ-अरइ-सोगाणं । णवरि अपट्टिदसंकामगा णस्थि ।
६सामित्तं । मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामओ को होइ ? पढमसम्मत्तमुप्पादयमाणगो पढमसमए अवत्तव्यसंकामगो । सेसेसु समएसु जाव गुणसंक्रमो ताव भुजगारसंकामगो।
जो वि दंसणमोहणीयक्खवगो अपुचकरणस्स पढमसमयमादि कादण जाव मिन्छन् सव्यसंकमण संछुहदि त्ति ताव मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो। जो वि पुषुणपोषण समत्तेण मिच्छत्तादो सम्पत्तमागदो तस्स पढमसमयसम्माइद्विस्स जं बंधादो आवलियादी मिच्छत्तस्स पदेसग्गं तं विज्झादसकमेण संकामेदि । आवलियचरिमसमयमिच्छाइहिनादि कादूण जाव चरिमसमयमिच्छाइट्टि ति एत्थ जे समयपबद्धा ते समयपबद्धे पढमसमयसम्माइहि ति ण संकामेइ । सेकालप्पहुडि जस्स जस्स बंधावलिया पुण्णा तदो तदो सो संकामिजदि । एवं पुव्वुप्पाइदेण सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवजह तं दुसमयसम्माइद्विमादि कादूण जाव आवलियसम्माइट्ठि त्ति ताव मिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो होज्ज । ६ण सव्वत्थ आवलियाए भुजगारसंकमो जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेणावलिया समयूणा । १०एवं तिसु कालेसु मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो । तं जहा । उवसामगदुसमयसम्माइट्टिमादि कादूण जाव गुणसंकमो ति ताव णिरंतरं भुजगारसंकमो । खवगस्स वा जाव
(१) पृ० २८८ । (२) पृ०८८८ । (२) पृ० २६० । ( ४ ) पृ० २६१ । (५) पृ० २६२ (६) पृ० २६४ । (७) पृ० २६५ । (८) पृ० २६६ । (६) पृ० २६७ ! (१०) पृ० २९८ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
गुणकमेण खविजदि मिच्छत्तं ताव णिरंतरं भुजगार संकमो । पुष्पादिदेण वा सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवजदि तं दुसमयसम्माइट्टिमादि काढूण जाव आवलियसम्माि एत्थ जत्थ वा तत्थ वा जहणेण एयसमयं, उक्कस्सेण आवलिया १समयूणा भुजगार संकमो sha | rai fry कालेसु मिच्छत्तस्स भुजगार संकमो । सेसेसु समएस जइ संकामगो अप्पर संकामगो वा अवत्तव्त्रसंकामगो वा । अवद्विदसंकामगो मिच्छत्तस्स को होइ ? पुव्युप्पादिदेण सम्मत्तेण जो सम्मत्तं पडिवजदि जाव आवलियसम्माइट्टि ति एत्थ होज्ज अवदिसंकामगो अष्णम्मि णत्थि । २ सम्मत्तस्स भुजगारसकामगो को होदि ? सम्मत्तमुव्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे ट्ठिदिखंड सव्त्रम्हि चेत्र भुजगार संकामगो । तव्यदिरित्तो जो संकामगो सो अध्ययर संकामगो वा अत्तव्त्रसंकामगो वा । सम्नामिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो को होइ ? उब्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे डिदिखंडए सव्वम्हि चेव । खवगस्स वा जाव गुणकमेण संहदि सम्मामिच्छत्तं ताव भुजगारसंकामगो । पढमसम्मत्तमुप्पादयमाण्यस्स वा तदियसमय पहुड जाव विज्झादसं कम पढमसमयादो त्ति । ४तव्यदिरित्तो जो संकामगो सो अप्पदरसंकामगो वा अवत्तव्त्रसंकामगो वा । सोलसकसायाणं भुजगार संकामगो अप्पदरकाम अकामगो अवतन्त्रसंकामगो को होदि ९ अण्णदरो । ५एवं पुरिसवेदभय-दुगु छाणं । वरि पुरिसवेद अवद्विदसं कामगो णियमा सम्माइट्ठी । इत्थि - णवुंसयवेदइस-र-अरइ- सोगाणं भुजगार - अप्पदर अवत्तव्त्रसंकमो कस्स ? अण्णदरस्स ।
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tat aatara | मिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्ण एयसमओ । उक्कस्सेण आवलिया समयुणा । अधवा अंतोमुहुत्तं । अप्पयरसंकमो hari कालादो हो १ एक्को वा समओ जाव आवलिया दुसमयूणा । १० अधवा. अंतोमुहु । तदो समयुत्तरो जाव छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ११ अवट्ठिद संकमो
चिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण संखेजा समया । १२ अवत्तच्चकम चिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । सम्मत्तस्स भुजगार संकमो चिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । अप्पयरसंकमो चिरं कालादो होदि १ १३ जहण्ोण अंतोमुहुत्त । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेअ दिभागो । अवतव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । सम्मा
( १ ) पृ० २६६ ( २ ) पृ० ३०० । ( ३ ) पृ० ३०१ । ( ४ ) पृ०३०२ । ( ५ ) पृ० ३०३ । (६) पृ० ३०४ । ( ७ ) पृ० ३०६ । (८) पृ० ३०७ । ( ६ ) पृ० ३०८ । (१०) पृ० ३०६ | ( ११ ) पृ० ३१० । ( १२) पृ० ३११ | (१३) पृ० ३१२ ।
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परिसिहाणि
५४५ मिच्छत्तस्स भुजगारसंकमो केत्रचिरं कालादो होदि ? एक्को वा दो वा समया एवं समयुत्तरो उक्कस्सेण जाव चरिमुवेलणकंडयुक्कीरणा ति। अथवा सम्मत्तमुप्पादेमाणयस्स वा तदो खवेमाणयस्स वा जो गुणसंकमकालो सो वि भुजगारसंकामयस्स काययो । अप्पदरसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । २एयसमयो वा। उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ३अत्रत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । अणंताणुबंधीणं भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। ४ अप्पदरसंकमो केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण वेछावट्ठिसागरोधमाणि सादिरेयाणि। अबढिदसकमो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एयसमओ । ५उक्कस्सेण संजो समया । अवत्तवस कामगो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण एयसमओ । बारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुछाणं भुजगार-अप्पदरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेय समओ। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ६अवविदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण संखेज्जा समया । अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । इथिवेदस्स भुजगारसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अप्पयरसंकमं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण वेछावट्ठिसागरोवमाणि संखेजवस्सब्भहियाणि । ८अवत्तव्यसंकमो केवचिरं कालादोहोदि ? जहण्णुकस्सेण एयसमओ । णवुसयवेदस्स अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि तिगि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणि इथिवेदभंगो । हस्स-रह-अरइ-सोगाणं भुजगार-अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । १०उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । अत्तबसंक्रमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । एवं चदुगदीसु ओघेण साधेदूण णेदव्यो।
११एईदिएसु सव्वेसि कम्माणमवत्तव्यसंकमो णत्थि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगारसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । १२उक्कस्सेण अंतोमुहुतं । अप्पदरसकामगो केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो। सोलसकसाय-भय-दुगुछाणमोघअपच्चक्खाणावरणभंगो । १३सत्तणोकसायाणं ओघहस्स-रेदीर्ण भंगो।
(१) पृ० ३१३ । (२) पृ० ३१४ । (३) पृ० ३१५ । (४) पृ० ३१६ । (५) पृ० ३१७ । (६) पृ० ३१८ । (७) पृ० ३१६ । (८) पृ० ३२० । (६) पृ. ३२१ । (१०) पृ० ३२२ । (११) पृ० ३२६ । (१२) पृ० ३२७ । (१३) पृ० ३२८।
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जयधवलासहिदेकसायपाहुडे एयजीवेण अंतरं । मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामयंतरं केत्रचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ वा दुसमओ वा, एवं णिरंतरं जाव तिसमयूणावलिया । १अधवा जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । २उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरिय। एवमप्पदरावट्ठिदसंकामयंतरं। ३अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणंतोमुहुत्त । उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । सम्मतस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागो। ४उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट। अप्पदरावत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । ५उक्कस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । सम्मामिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादोहोदि ? ६जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । अत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट । अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि। अबढिदसंकामयंतरं केवचिर कालादो होदि जहण्णेणेयसमओ । ६उकस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट। १°वारसकसाय-पुरिसवेद-भयदुगुछाणं भुजगारप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । अहिदसंकामयंतरं केाचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओं ।११उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा। णरि पुरिसवेदस्स उबड्डपोग्गलपरियट्ट । सम्वेसिमवत्तसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण उबड्डषोग्गलपरियÉ । १२इत्थिवेदस्स भुजगारसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि?जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण वेछावद्विसागरोवमाणि संखेज्जवस्सब्भहियाणि। अप्पयरसंकामयंतरं केत्रचिरं कालादो होदि १ जहण्णेणेयसमओ। उकस्सेण अंतोमुहुत्त । अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १३जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । वुसयवेदभुजगारसंकामयंतरं केवचिरकालादो होदि ? जहणणेण एयसमओ । उकस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अप्प. यरसंकामयंतरं केविचरकालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उकस्सेण अंतोमहत्त। अवत्तव्यसंकामयंतरं केवचितरं कालादो होदि ११४जहण्णेण अंतोमुहुत्त । उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरियट्ट । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं भुजगार-अप्पयरसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
(१) पृ. ३२६ । (२) पृ० ३३० । (३) पृ० ३३१ । (४) पृ० ३३२ । (५) पृ० ३३३ । (६) पृ० ३३४ । (७) पृ० ३३५ । (८) पृ० ३३६ (६) पृ० ३३७ । (१०) पृ० ३३८ । (११) पृ० ३३६ । (१२) पृ० ३४० । (१३) पृ० ३४१ । (१४ ) पृ० ३४२ ।
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परिसिहाणि
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जहण्णेण एयसमओ । उकस्सेण अंता मुहुत्त । कथं ताव इस्सरह -अरदि-सोगाणमेयसमयमंतरं ? 'हस्स-रदि-भुजगार संकामयंतरं जइ इच्छसि अरदि- सोगाणमेय समय बंधावेदव्वो । जइ अप्पयर संकामय' तर मिच्छसि हस्स-रदीओ एयसमय बंधावेयव्त्राओ । अत्तव्त्रसंकामतरं वचिरं कालादो हादि ? २जहण्गेण अंतोमुहुत्त । उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरिय । गदीसु च साहेयव्वं ।
२एइ दिए सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि किंचि वि अंतरं । सोलसकसाय-भयदुगु छाणं भुजगोर- अप्पयरसंकामयतरं केवचिर ं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ४ अवट्ठिदसंक्रामयं तरं केवचिरं कालादो होदि ९ जहण एयसमओ । उकस्सेण अनंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सेसाणं सत्कायाणं भुजगार अप्पयर संकामयंतरं केवचिर ं कालोदो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त ।
५.४७
५णाणोजीवेहिभंगविचयो । अट्ठपदं कायव्वं । जा जेसु पयडी अत्थि तेसु पयदं । सव्वजीवा मिच्छत्तस्स सिया अप्पयरसंकामया च असंकामया च । ६सिया एदे च भुजगार संक. ओ च अवद्विदसंकामओ च अवत्तव्त्रसंकामगो च । एवं सत्तावीसभंगा । समत्तस्स सिया अध्ययरसंकामया च असंकामया च णियमा । सेससंकामया भजियव्त्रा । 1 सम्मामिच्छत्तस्सं अप्पयरसंकामया नियमा । सेससंकामया भजियव्त्रा । सेसाणं कम्माणं अवत्तव्त्रसंकामगाच असं कामगा च भजिदव्या । सेसा णियमा । णवरि पुरिसवेदस्सकामया भजियव्वा । ध्णाणाजीवेहि कालो दाणुमाणिय वेदव्वो । १० णाणाजीवेहि अंतरं । ११ मिच्छत्तस्स भुजगार - अवत्तव्वसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालाद होदि ? जहण एयसमओ । उक्कस्सेग सत्त रादिदियाणि । अप्पयर संकामयाणमंतरं केवचिरं कोलादो होदि ? णत्थि अंतरं । १२ अवट्ठिद संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ९ जहण्गेण एयसमओ । उक्कस्सेण असंखेजा लोगा । सम्मत्तस्स भुजगार संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ । १३ उक्कस्सेण चवीसमोर ते सादिरेये । अप्पयरसंकामयाणं णत्थि अंतरं । अवत्तव्त्रसंकामयंतरं केवचिरं कलादो हो ? जहण एयसमओ । उकस्सेण सत्त रादिदियाणि । १४ सम्मामिच्छतस्स भुजगोर - अवत्तव्त्रसंकामयंतरं केाचिरं कालादो होदि ? जहण्ोण एयसमओ ।
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( १ ) पृ० ३४३ । ( २ ) पृ० ३४४ । ( ३ ) पृ० ३४६ ( ४ ) पृ० ३५० | ( ५ ) पृ० ३५१ । (६) पृ० ३५२ । (७) पृ० ३५३ । (८) पृ० ३५४ । ( ६ ) पृ० ३५६ । (१०) पृ० ३६४ । ( ११ ) पृ० ३६५ | ( १२ ) पृ० ३६६ | ( १३ ) पृ० ३६७ । ( १४ ) पृ० ३६८ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि। णवरि अवसव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेये। अप्पयरसंकामयाणं णथि अंतरं। अणंताणुबंधीणं भुजगार-अप्पदरअवट्ठिदसंकामयंतरं णत्थि । अवत्तव्यसंकोमयाणमंतरं केवचिरं ? जहण्णेण एयसमओ । २उक्कस्सेण चवीसमहोरत्ते सादिरेगे । एवं सेसाणं कम्माणं । णवरि अवत्तव्यसंकामयाणमुक्कस्सेण वोसपुधत्तं । पुरिसवेदस्स अवविदसंकामयंतरं जहण्णेण एयसमओ । उक्स्से ण असंखेज्जा लोगा।
३अप्पाबहुअं । सम्वत्थोवा मिच्छत्तस्स अवद्विदसंकामया अवतन्त्रसकामया असंखेजगुणा । भुजगारसंकामया असंखेजगुणा। ४अप्पयरसंकोमया असंखेजगुणा । समत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया। भुजगारसंकामया असंखेजगुणो । अप्पयरसंकामया असंखेजगुणा । सोलसकसाय-भय-दुगुछाणं सबथोवा अवत्तव्यसंकामया। अवहिदसंकामया अणंतगुणा। ५अप्पयरसंकामया असंखेजगुणा । भुजगारसंकामया संखेजगुणा । इथिवेद-हस्स-रदीणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया । भुजगारसंकामया अणंतगुणा । अप्पयरसंकामया संखेजगुणा । ६पुरिसवेदस्स सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकोमया । अवडिदसंकामया असंखेजगुणा । भुजगारसंकामया अणंतगुणा । अप्षयरसंकामया संखेजगुणा । णवंसयवेद-अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा अवत्तव्यसंकामया । अप्पयरसंकामया अणंतगुणा । भुजगारसंकामया संखेजगुणा।
एतो पदणिक्खेवो। तत्थ इमाणि तिष्णि अणियोगद्दाराणि । परूवणी सामित्तमप्पाबहुगं च । ८परूवणा । सव्वासि पयडीणमुक्कस्सिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च अस्थि । एवं जहण्णयस्स वि णेदव्वं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-इत्थि-णqसयवेद-हस्स-रहअरइ-सोगोणमवट्ठाणं णत्थि।
सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स १ गुणिदकम्मंसियस्स मिच्छत्तक्खवयस्स सव्वसंकामयस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स १ गुणिदकम्मंसियस्स सम्मत्तमुप्पाएदूण गुणसंकमेण संकामिदूण १०पढमसमयविज्ज्ञोदसंकामयस्स । उक्कस्सयमवहाणं कस्स ? गुणिदकम्मंसिओ पुव्वुप्पण्णेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्त गदो, तं दुसमयसम्माइटिमादि कादण जाव ओवलियसम्माइडि ति एत्थ अण्णदरम्हि समये तप्पाओग्गउक्कस्सेण वढेि कादण से काले तत्तिय संकममाणयस्स तस्स उकस्सयमवट्ठाणं । ११सम्मत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? उव्वेल्लमाणयस्स चरिमसमए । १२उक्कस्सिया हाणी कस्स ?
(१) पृ० ३६६ । (२) पृ० ३७० । ( ३ ) पृ० ३७३ । (४) पृ० ३७४ । (५)पृ० ३७५ । (६) पृ० ३७६ । (७) पृ० ३७६ । (८) पृ० ३८० । (६) पृ० ३८१ । (१०) पृ० ३८२ । (११) पृ० ३८३ । (१२) पृ० ३८४ ।
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परिसिहाणि गुणिदकम्मंसियो सम्मत्तमुप्पाएदूण लहुमिच्छत्तं गओ तस्स मिच्छाइद्विस्स पढमसमए अवत्तव्यसंकमो । विदियसमये उक्कस्सिया हाणी ।
सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? उप्पादिदे सम्मत्ते सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्ते जं संकामेदि तं पदेसग्गमंगुलस्सासंखेजमागपडिभाग । तदो उक्कस्सिया हाणी ण होदि ति । गुणिदकम्मंसिओ सम्मत्तमुप्पाएदूण लहुचे मिच्छत्तं गदो, जहणियाए मिच्छत्तद्धाए पुण्णाए सम्मत्त पडिवण्णो तस्स पढमसमयसम्माइद्विस्स उक्कस्सिया हाणी।
३अर्णताणुबंधीणमुक्कस्सिया वड्डी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसंकामयस्स । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? "गुणिदकम्मंसिओ तप्पाओग्गउक्कस्सियादो अधापवत्तसंकमादो सम्मत्त पडिवजिऊण विज्झादसंकामगो जादो तस्स पढमसमयसम्माइहिस्स उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्सयमबहाणं कस्स ? जो अधापवत्तसं कमेण तप्पाओग्गुकस्सएण वडिदण अवविदो तस्स उकस्सयमवट्ठाणं ।
५अट्ठकसायाणमुक्कसिया वड्डी कस्स ? गुणिदकम्मंसियस्स सव्वस कामयस्स । उकस्सिया हाणी कस्स ? गुणिदकम्मंसियो पढमदाए कसाय उवसामणद्धाए जाधे दुविहस्स कोहस्स चरिमसमयसकामगो जादो, तदो से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी । ६एवं दुविहमाण-दुविहमाया-दुविहलोहाणं । प्रणवरि अप्पप्पणो चरिमसमयसंकामगो होदण से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी। ___अट्ठण्हं कसायाणमुक्कस्सयमवट्ठाणं कस्स ? अधापवत्तसंकमेण तप्पाओग्गउकस्सएण वड्डिदूण से काले अवट्ठिदसंकामगो जादो तस्स उकस्सयमवट्ठाणं । कोहसजलगस्स उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? जस्स उकस्सओ सबस'कमो तस्स उक्कस्सिया वट्ठी । प्तस्सेव से काले उक्कस्सिया हाणी । णवरि से काले संकमपाओग्गा समयपबद्धो जहण्णा कायया। तं जहा । जेसि से काले आवलियमेत्ताणं समयपबद्धाणं पदेसग्गं सकामिजहिदि ते समयपबद्धा तप्पाओग्गजहण्णा। एदीए परूवणाए सव्वस कम संकुहिदूण जस्स से काले पुवपरूविदो संकमो तस्स उकस्सिया हाणी कोहस जलणस्स । तस्सेव से काले उकस्सयमवट्ठाणं । जहा कोहसजलणस्स तहा माण-मायास जलण-पुरिसवेदाणं ।
(१) पृ० ३८५ । (२) पृ० ३८६ । (३) पृ० ३८७ । (४) पृ० ३८८ । (५) पृ० ३८६ । (६) पृ० ३६० । (७) पृ० ३६१ (८) पृ० ३६२ । (६) पृ० ३६३ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे लोहसजलणस्स उक्कस्सिया वही कस्स १ गुणिदकम्मसिएण लह चत्तारि वारे कसाया उपसामिदा, अपच्छिमे भवे दो वारे कसाए उवसामेऊण खवणाए अन्भुट्टिदो जाघे चरिमसमए अंतरमकदं ताधे उक्कस्सिया वड्डी । उक्कस्सिया हाणी कस्स १ २गुणिदकम्मसियो तिण्णि वारे कसाए उक्सामेऊण चउत्थीए उवसामणाए उवसामेमाणो अंतरे चरिमसमयअकदे से काले मदो देवो जादो तस्स समयाहियावलियउववण्णयस्स उक्कस्सियो हाणी । उकस्सयमवट्ठाणमपच्चक्खाणावरणभंगो । भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया बड्डी कस्स ! ३गुणिदकम्मंसियस्स सव्वसं कामयस्स । उक्कसिया हाणी कस्स । गुणिदकर्मसिओ पढमदाए कसाए उवसामेमाणो भय-दुगुंछासु चरिमसमयअणुवसतासु से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्कस्सिया हाणी। उकस्सयमवाणमपच्चक्खाणभंगो । ४एवमिथि-णव॑सयवेद-हस्स-रइ-अरह-सोगाणं णवरि अवद्वाणं णस्थि ।
मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी कस्स ? जस्स कम्मरस अवविदसकमो अत्थि तस्स असखेजा लोगपडिभागो वड्डी वा हाणी वा अवठ्ठाणं वा होइ । ५जस्स कम्मस्स अवडिदसंकमो णत्थि तस्स वड्डी वा हाणी वा असंखेजा लोगभागो ण लब्भइ । एसा परूवणा अट्ठपदभूदा जहणियाए वड्डीए वा हाणीए वा अवट्ठोणस्स वा । ६एदाए परूवणाए मिच्छत्तस्स जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाण वा कस्स ? जम्हि तप्पाओगाजहण्णगेण संकमण से काले अवविदसंकमो संभवदि तम्हि जहणिया वड्डी वा हाणी वा से काले जहण्णयमवट्ठाणं ।
सम्मतस्स जहणिया हाणी कस्स ? जो सम्माइट्ठी तप्पाओग्गजहण्णएण कम्मेण सागरोवमवेछावट्ठीओ गालिदूण मिच्छत्तं गदो, सव्वमहंतउव्वेलणकालेण उव्वेल्लेमाणगस्स तस्स दुचरिमट्ठिदिखंडयस्स चरिमसमए जहणिया हाणी । प्तस्सेव से काले जहणिया वही । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि । ६अणताणुबंधीणं जहणिया वड्डी हाणी अबढाणं च कस्स ? जहण्णगेण एई दियकम्मेण विसंजोएदण संजोइदो, तदो ताव गालिदा जाव तेसिं गलिदसेसाणमधापवत्तणिजरा जहण्णेण एई दियसमयपबद्धण सरिसी जादा त्ति । केवचिरं पुण कालं गालिदस्स अणताणुबंधीणमधापवत्तणिजरा जहण्णएण एह दियसमयपबद्धेण सरिसी भवदि १ तदो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागकालं गालिदस्स जहण्णेण एई दियसमयपबद्धण सरिसी णिजरा भवदि । जहण्णेण एईदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा आवलियाए समयुत्तराए एत्तिएण कालेण होहिदि ति तदो मदो एइंदियो जहण्णजोगी जादो तस्स समयाहियावलियउववण्णस्स अणंताणुबंधीणं जहणिया बड्डी वा हाणी वा अवट्ठाणं वा ।
() पृ०३६४ । (२) पृ० ३६५ । (३) पृ० ३६६ । (४) पृ० ३६७ । (५) पृ० ३६८ । (६) पृ० ३६६ । (७) पृ० ४०३ । (८) पृ० ४०४ । (६) पृ० ४०५ ।
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परिसिद्वाणि
५५१
अहं कसायाणं भय-दुगु छाणं च जहण्गिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? एइ दियकम्मेण जहण संजमा संजमं संजमं च बहुसो गदो, तेणेत्र चत्तारि वारे कसायमुसामिदा । तदो ए दिए गदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं कालमच्छिऊण वसामयसमय बद्धेषु गलिदेसु जाधे बंधेण णिज्जरा सरिसी भवदि ताधे एदेसिं कम्माणं जहणिया बड्डी च हाणी च अट्ठाणं च । श्चदुसंजलणाणं जहण्णिया बड्डी होणी अट्ठाणं च कस्स १ कसाए अणुवसामेऊण संजमा संजमं संजमं च बहुसो दिए गो । जाधे बंधेण णिज्जरा तुम्ला ताधे चदुसंजलणस्स जहणिया वड्डी अट्ठा च ।
रिसवेदस्स जहणिया वड्डी हाणी अवद्वाणं च कस्स ? जम्हि अद्वाणं तम्हि तप्पा ओग्गजहणण कम्मेण जहण्णिया वड्डी वा होणी वा अडाणं वा । हस्स-रदीगं जहणिया बड्डी कस्स ? एइ दियकम्मेण जहण्णएण संजमा संजमं संजमं च बहुसो लडूण चारि वारे कसा उवसामेऊण एइ दिए गदो, तदो पलिदोवमस्सा संखेज्जदिभागं कालमच्छिऊण सण्णी जादो । सव्वमहंतिमर दिसोगबंधगद्ध काढूण हस्स रईओ पद्धाओ, पढम समयहस्सरइयंधगस्त तप्पा ओग्गजहण्णओ बंधो च आगमो च तस्स आवलियहस्स-रइ-बंधयमाणयस्स जहणिया हाणी । ६ तस्सेव से काले जहणिया बढी । अरदिसो गाणमेवं चैव । णरि पुत्रं हस्स-रईओ बंधावेयव्त्राओ । प्तदो आवलिय- अरदिसोधस्स जहणिया हांणी । से काले जहण्णिया वड्डी । एवमित्थिवेद व सय वेदाणं । वरि जइ इथिवेदस्स इच्छसि पुत्रं णबुंसयवेद- पुरिसवेदे बंधावेण पच्छा इत्थवेदो वायव्त्र । तदो आवलियइत्थिवेदबंधमाणयस्स इत्थवेदस्स जहणिया हाणी । से काले जहणिया वडी । जदि णबुंसयवेदस्स इच्छसि पुन्नमित्थि - पुरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा णवुंसयवेदो 'बंधावेयव्वो । तदो आवलियणवंसयवेदबंधमाणयस्स णवुंसयवेदस्स हणिया हाणी | से काले जहण्णिया वही ।
I
1
1
१० अप्पा बहुअं । उक्कस्सयं ताव | मिच्छत्तस्स सव्त्रत्थोवमुक्कस्सयमवणं । ११२ हाणी असंखेज्जगुणा । वढी असंखेज्जगुणा । एवं बारसकसाय-भय-दुगु छाणं । १२ सम्मतस्स सव्त्रत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । हाणी असंखेजगुणा । १३ सम्मामिच्छत्तस्स सव्वत्थोत्रा उकस्सिया हाणी | १४उक्कस्सिया वड्डी असंखेज्जगुणा । एवमित्थि - णवु सयवेद - हस्स-रह
( १ ) पृ० ४०८ । ( २ ) पृ० ४०६ । (३) पृ० ४१० । (४) पृ० ४११ । ( ५ ) पृ० ४१२ । ( ६ ) पृ० ४१४ । (७) पृ० ४१५ । (८) पृ० ४१६ । (६) पृ० ४१७ I (१०) पृ० ४१८ । ( ११ ) पृ० ४२० । ( १२ ) पृ० ४२२ । (१३) पृ० ४२३ । ( १४ ) पृ० ४२४ ।
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५५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अरइ-सोगाणं । कोहसंजलणस्स सम्बत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी। हाणी अवट्ठोणं च विसेसा. हियं । १एवं माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाणं । लोहसंजलणस्स सव्वत्थोवमुक्कस्समवट्ठाणं। हाणी विसेसाहिया । वही विसेसाहिया ।
___ ३एत्तो जहण्णयं । मिच्छत्तस्स सोलसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं जहणियो वड्डी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लाणि। ४सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा जहणिया होणी। वड्डी असंखेज्जगुणो । इत्थि-णवुसयबेद-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । वड्डी विसेसाहिया। ___बड्डीए तिण्णि अणिओगद्दाराणि समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं च । समुकित्तणा । मिच्छत्तस्स अत्थि असंखेज्जभागवहि-हाणी असंखेज्जगुणवडिहाणी अवट्ठाणमवत्तव्वयं च । एवं बारसकसाय-भय दुगुछाणं । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। णवरि अवट्ठाणं पत्थि । सम्मत्तस्स असंखेज्जभागहाणी असंखेजगुणवड्डि-हाणी अवत्तव्ययं च अस्थि । तिसंजलण-पुरिसवेदाणमत्थि चत्तारि वड्ढी चत्तारि हाणीओ अवट्ठाणमवत्तन्वय च । लोहसंजलणस्स अत्थि असंखेज्जभागवडढी हाणी अवट्ठाणमवत्तव्ययं च । १०इत्थिणव॒सयवेद-हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमत्थि दो वड्ढी हाणीओ अवत्तब्धय च ।
सामित्ते अप्पाबहुए च विहासिदे वडढी समत्ता भवदि ।
११एत्तो हाणाणि । पदेससंकमट्ठाणं परूवणा अप्पाबहुअं च। १२परूवणा जहा। मिच्छत्तस्स अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण जहण्णय संकमट्ठाणं । १३अण्णं तम्हि चेव कम्मे असंखेजलोगमागुत्तरं संकमट्ठाणं होइ । १४एवं जहण्णए कम्मे असंखेजा लोगा संकमट्ठाणाणि । तदो पदेसुत्तरे दुपदेसुत्तरे वा एवमणंतभागुत्तरे वा जहण्णए संतकम्मे ताणि चे संकमट्ठाणाणि । १५असंखेजलोगभागे पक्खित्ते विदियसंकमट्ठाणपरिवाडी होइ । १६जो जहण्णगो पक्खेवो जहण्गए. कम्मसरीरे तदो जो च जहण्णगे कम्मे विदियसंकमट्ठाणविसेसो सो असंखेजगुणो। १७एत्थ वि असंखेजा लोगा संकमडाणाणि । एवं सव्वासु परिवाडीसु । ८णवरि सबसंकमे अणंताणि संक्रमट्ठाणाणि । १६एवं सनकम्माण। णवरि लोहसंजलणस्स सव्वसंकमो णस्थि ।
(१) पृ० ४२५ । (२) पृ० ४२७ । ( ३) पृ० ४२८ । (४) पृ० ४२६ (५) पृ० ४३० । (६) पृ० ४३१ । (७) पृ० ४३३ । (८) पृ० ४३५ । (६) पृ० ४३६ । (१०) पृ० ४३७ । (११) पृ० ४३८ । (१२) पृ० ४३८ । (१३ ) पृ० ४४० । (१४) पृ० ४४२। (१५) पृ० ४४३ । (१६) पृ० ४४४ । (१७) पृ० ४४६ । (१८) पृ० ४७५ । ( १६ ) पृ० ४७७ ।
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परिसिहाणि
પારૂ १अप्पाबहुअं। २सव्वत्थोवाणि लोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि । सम्मत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । अपच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठागाणि असंखेजगुणाणि । ३कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ५मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । अणंताणुबंधिमाणस्स पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मायाए पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोभे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
मिच्छत्तस्स पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । सम्मामिच्छत्ते पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि अणंतगुणाणि । ६रदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । इथिवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । सोगे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । णवुसयवेदे पदेससंकम. द्वाणाणि विसेसाहियाणि । दुगुंछाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि। भए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पुरिसबेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । कोहसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । माणसंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मोयासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।।
णिरयगईए सव्वत्थोवाणि अपच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि । कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । प्लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
. मिच्छत्ते पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । हस्से पदेससंकमट्ठाणाणि असंखेज. गुणाणि । १रदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । इथिवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि संखेजगुणोणि । सोगे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ११अरदीए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । णव सयवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । दुगुंछाए पदेससंकमढाणाणि विसेसाहियाणि । भए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पुरिसवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि।
(१) पृ० ४८१ । (२)पृ० ४८२ । (३) पृ० ४८३ । (४) पृ० ४८४ । (५) पृ० ४८५। (६) पृ० ४८६ । (७) पृ० ४८७ । (८) पृ० ४८८ (६) पृ० ४६५ । (१०) पृ. ४६६ । (११) पृ० ४४७ ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
माणसंजलणे पदेससंक मट्ठाणाणि विसेसोहियाणि । कोहसं जलणे पदेसंसंक्रमट्टणाणि विसेसाहियाणि । मायासंजलणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोहसंजलणे पदेससंक्रमणाणि विसेसाहियाणि । सम्मत्ते पदेससंकमट्ठ (णाणि अनंतगुणाणि । सम्मामिच्छत्ते पदेससंकभट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । १ अनंताणुबंधिमाणे पदेस संक मट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । कोहे पदेससंकमट्टाणाणि विसेसाहियाणि । मायाए पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेस संक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
एवं तिरिक्खगइ - देवगईसु वि । २मणुसगई ओघभंगो । ३ए६ दिएसु सव्वत्थोवाणि अपच्चक्खाणमाणे पदेससंक्रमट्ठाणाणि । कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मायाए पदेससंकमड्डाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पच्चक्खाणमाणे पदेस संक्रमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । कोहे पदेस संक्रमट्ठाणाणि विसेसा - हियाणि । मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसा - हियाणि । अनंताणुबंधिमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । कोहे पदेससं कमट्ठाणाणि साहियाणि । मायाए पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । लोहे पदेससंकमट्ठाणा णिविसेसाहियाणि ।
हस्से पदेस संक्रमणाणि असंखेजगुणाणि । ४रदीए पदेससंक्रमट्ठाणाणि विसेसा हियाणि । इत्थवेदे पदेस कमट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । सोगे पदेस संकमट्ठाणाणि विसेसा हियाणि । अरदीए पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । णः सयवेदे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । दुगु छाए पदेससंकमद्वाणाणि विसेसाहियाणि । भए पदेस संक्रमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । पुरिसवेदे पदेससंकमट्टाणाणि विसेसाहियाणि । माणसंजलणे पदेससंक्रमणाणि विसेसाहियाणि । कोहसंजलणे पदेससंक मट्ठाणाणि विसे साहियाणि । माया संजलणे पदेससंकमाणाणि विसेसाहियाणि । लोहसंजलणे पदेससंक्रमणाणि विसेसाहियाणि । सम्मत्ते पदेससंकमाया णि अनंतगुणाणि । सम्मामिच्छत्ते पदेससंक्रमणाणि असंखेजगुणाणि ।
in
के कारण णिरयगईए पच्चक्खाणकसायलोभपदे ससं कमट्ठाणेहिंतो मिच्छत्ते पदेस कमट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । मिच्छत्तस्स गुणसंकमो अत्थि । पच्चक्खाणकसायलोहस्स गुणसंकमो णत्थि । एदेण कारणेण णिरयगईए पच्चकखाण कसायलोहपदे ससं कमडाणेहिंतो मिच्छत्तस्स पदेससंकमा णाणि असंखेजगुणाणि ।
६ जस्स कम्मस्स सव्त्रसंकमो णत्थि तस्स कम्मस्स असंखेजाणि पदेससंकमट्ठाणाणि । जस्स कम्मस्स सत्रको अस्थि तस्स कम्मस्स अनंता णि पदेस संक्रमणाणि ।
(१) १० ४६८ । ( २ ) पृ० ४६६ । (३) पु० ५०० । ( ४ ) पृ० ५०१ । (५) पृ० ५०२ ( ६ ) ५०३ ।
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५५५
परिसिहाणि १माणस्स जहण्णए संतकम्मट्ठाणे असंखेजा लोगा पदेससंकमट्ठाणाणि । तम्मि चेव जहण्णए माणसंतकम्मे विदियसंकमट्ठाणविसेसस्स असंखेअलोगमागमेत्ते पक्खित्ते माणस्स विदियसंकमाणपरिवाडी। रतत्तियमेचे चेव पदेसग्गे कोहस्स जहण्णसंतकम्महाणे पक्खित्ते कोहस्स विदियसंकमट्ठाणपरिवाडी। ३एदेण कारणेण माणपदेससंकमद्वाणाणि थोवाणि । कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ४एवं सेसेसु कम्मेसु वि णेदवाणि। एवं गुणहीणं वा गुणविसिट्ठमिदि अत्यविहासाए समत्ताए पंचमीए मूलगाहाए
अत्थपरूवणा समता। तदो पदेससंकमो समतो।
(१) पृ० ५०४ । (२) पृ० ५०५ । (३) पृ० ५०६ । (४) पृ० ५०७ ।
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८०
AAAAP
२. कषायमाभृतगाथानुक्रमणिका
पुस्तक ८ क्र० सं० गाथा
क्र० सं० गाथा ३७ अट्ठ दुग तिग चदुक्के
३२ चोदसग दसग सत्तय ५१ अट्ठारस चोदसयं
४६ छव्वीस सत्तवीसा तेवीसा २७ अट्ठावीस चउवीस ८१-६० २६ छन्बीस सत्तवीसा य ३६ अणुपुव्वमणणुपुवं ८४
५३ णव अट्ट सत्त छक्क ४५ अवगयवेद-णवुसय
४७ णाणम्हि य तेवीसा ४८ आहारय-भविएसु
४२ णिरयगइ-अमर-पंचिदिएसु ५० उगुवीसहारसयं
त० ३३ तेरसय णवय सत्तय ४० एक्के कम्हि य ठाणे
४४ तेवीस सुक्कलेस्से २५ एक्केकाए संकमो
द० ५५ दिढे सुण्णासुण्णे ३४ एत्तो भवसेसा संजमम्हि ,
२६ पयडि-पमडिहाणेसु ५८ एवं दव्वे खेत्ते
३६ पंच-चउक्के बारस क० ४८ कदि कम्हि होति ठाणा
३५ पंचसु च ऊरणवीसा २३ कदि पयडीओ बंधदि | व० ३१ वावीस पण्णरसगे ५६ कम्मंसियट्ठाणेसु य
५४ सत्त य छक्क पणगं ४६ कोहादी उवजोगे
३० सत्तारसेगवीसासु च० ३८ चत्तारि तिग चदुक्के
५७ सादि य जहण्णा संकम ४३ चदुर दुगं तेवीसा
२८ सोलसग बारसट्ठग ५२ चोइसग-णवगमादी
२४ संकम-उवक्कमविही ३. अवतरणसूची
पुस्तक ८ क्रमसं.
पृ. | य. यदस्ति न तद्वयमतिलंध्य । अ १८ अवगयणिवारणटुं
८ वर्तत इति नैकगमो नैगमः। ४. ऐतिहासिकनामसूची
पुस्तक ८ ग. गुणहराइरिय ३ । स. सुत्तयार
७,२६ पुस्तक आ. प्राचार्य ३६५ | च.. चूर्णिसूत्रकार १२,२२४ ] स. सूत्रकार १२,६६ उ. उच्चारणाचार्य १२,२५० य. यतिवृषभाचार्य
२०२,२५०,४३४ ग. गुणधरभट्टारक २ प. व्याख्यानाचार्य ६७
FT
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ढ. उच्चारणा ३४, ४०, ५०, ५.३ ६०, ६६, १६४, २०८, २१३ ३०८, ३११, ३२६, ३३२, ३३७, ३४२, ३५५, ३७०, ३७७, ३७६, ३६७, ४०६, ४२६,
२५०, ३३७, ३४४, ३५६,
३७१,
१५६.
अ. अनुभागविभक्ति उ. उच्चारणा २४, ५८, ६५, ६३, १८६, २०८, २४३, प.
अ. अइच्छावणा २४३, २४५
कम्मंसि
अक्खवण
अक्खी
दि
अण्णसंक्रम
श्रमीण
अट्ठपद
अणुपुव्व
पुवी संकम श्रादियकम
अणाहार श्रणियोगद्दार अणुक्कसक
अणुपु व्व
अणुभाग
श्रणुभागबंध
अणुभाग संकम
នី ៖ ដំ ៖ 1 ជិះ ៖ ផិ ៖ ម ៥ ៥ ៥
६४
१०५, १०६ २४६
कसाय ७४, १०१
६७
८४
५ गाथा - चूर्णिसूत्रगतशब्दसूची
पुस्तक ८
२४२
८४
१०४
පුද
८५
परिसिद्वाणि
४. अन्थनामोल्लेख
पुस्तक ८
कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र ४,१६,११४,३४२
२, ८८
क.
च.
८४ ३, ४
४, ६
५, १४
पुस्तक ह
उच्चारणाप्रन्थ
च. चूर्णिसूत्र
प्राभृतसूत्र
अणुवसामग
वसंत
• श्रांतगुण श्रतरद्विदि
तबंधि
७
अप्पा बहुच श्रभविय
१८६
२०.८
अमर
अवयवेद
२ | स
६७
६७, ६६
७४, ७८
अण्णाण
१८, २२
पत्थ अथाहियार
७, १८
अदिक्कत
२६०
अदिरित्त
२४८
श्रद्धाच्छेद
२६२
अद्भुवसंकम ३१ अपच्छिमट्ठिदिखंडय ३१२ अपच्छिमट्ठिदिबंध ३१४ अपडिग्गहविही १७, २५
७३,८६
८४,८५
८४
८५
२६१
३३, ४८
८५
म. महाबन्ध सूत्राभिप्राय
क्
परमाचार्य उपदेश
श्रविरद
श्रविरहिद अविरहिदकाल
असण
अण्ण
असंकम
आ. आगाइद
હ
१३१
१५३
२३६
८२, ८४ ८६
२२१
८४
८६
१७, २५
असं कामय
५३, ६३
श्रसंखेज्जगुण ७४, ७६ श्रसंखेज्जदिभाग ३७, १८२ अहोर
३८२
२४८
चाणुपुव्वी ७, १८ श्रणुपुव्वीसंकम ६६, ६६
श्रबाहा २५६ श्रावलियतिभाग २४४ श्रावलियतिभागं
तिमट्ठिदि २४५ श्रावलियपविट्ठसम्मत्तसंतकम्मिय
३१
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ક
श्रावलियसमयाहिय
सकसाय आवलिया
आहारय
३. इत्थिवेद
७५, ८५
इत्थवेदोदयक्खवय ३१७
उ. उक्कड्डुण
अंतोमुहुत्त
२६२ क. कटुसंकम
२५३
३, ५
उक्कस्सट्ठिदिसंकामय ३११ उक्कस्सपदभंगविचय ३३६
उक्कस्ससंकम
දි
उक्कड्डणा
उजुसुद उडलोग
उत्तम
उदार
उदीरणा
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
घोष
३१६ भोरमाण १६३ नं. अंगुल
८५
अंतर
१६, २४
उत्तरपयडिट्ठिदिसंकम २४२ उदयावलियबाहिर
२६१
उवक्कम
उवजोग
उवसामग
वसा मिद
ह
वसंत उवसंतकसाय उवसंदरिसणा उव्वेल्लमा
११
ए. एइ दिय
तोकोडा कोडि
कम्म
कम्मट्ठदि
कम्मसंकम
कम्मंसि
कम्मसियट्ठा
कसाध
काउ
कारण
काल
कालसंकम
किण्हलेस्सा
८६
२६२, ३११
७, १८ ८५
पोग्गल परियट्ट ३६,४७ स्व. खबग
२६,८२
खविद
खीण
खीणदंसणमोहणीय
खेत
खेत संकम
कोह
कोहसं जल
कोहादि
७८ चरितमोहणीय १९३ छ. छष्णोकसाय ३८२ छबी कामय छावट्टिसागरोवम
४६,६२
३८ ज. जट्ठिदिसंकम
३५,३७
जहण्ण
१२,१४
६४,६६
२५६
खंडय
१२,१४
जीव
६४ झ. मीण
८६ ८. ट्ठवण
८५,८६
८४
६१,६२
१६, ३५
5,ε
८४
१०३
६७, ६६
२०
४११
३१
ΤΟ
ग. गदि
गावा
एक्कपदार १०१ एक्कवीसदिसंतकम्मिय ६६ एक्कवीसदिसंतकम्मं सिय
गु
३५.
गुणही
३,५.
१०० च. चउट्ठाणियजव मण्फ ३८६ एक्कावीसदिकम्मंसिय १०२ एगेगपेयडिसकम १५, २३ एयजीव
३५, ४६
चवीसदिकम्मंसिय १०२ चवीसदिसंतकम्मिय ६६, ६७ चरितमोहणीय ३३,३४ चरिमसमयसंकामय ३१२ चरिमसमय संक्रुद्दमाण्य ३१३ |
४७, १८२
एयसमय श्रो. श्रोकड्य
२६२
१०६,१०८
७५, १०८
대
८२,८४
१०४, १०६
११२
६७
१६,८६
८, ११
२४८
८२
४,८६
३, ५.
जहाद्विदिसंकमकाल ३१७ जहण्णपदभंगविचय ३३६ जहण्णसंकम
८६
8
८४
१६
डा
हिदि
हिउदीरणा
हिदिघाद
द्विदिबंध
हिदिसंकम
उठवण
ठवणसंकम
ठाणसमुक्तिणा
ए. एअ
बिदू
यविही
णामसंकम
णारयभंग
गाणाजीव
णिक्खेव
३३,३४ ७६, १००
१८२ ३५, १८६
३४८
क्षा
णिग्गम
रियदि
गिरासा
व्त्रिाघाद
पीला
८२,८४
३,४
३२३
२४८
१६,२०
वेद ७५,८ वु सवेदोदयक्खवय ३१८
पाण
८५
णाम
४,६
५, १४
६
८
55
२०
८६
७,१०
G
७८
५२,५६
८,१६
२५५
१६, २०
७६,८४
२६,३२
२५३
८४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिसिठ्ठाणि
४,६
विरद
तुल्ल
८६
८,११
पेम्म
वेद
सह
६२
णेगम पयडिहाणअसंकम २०,२५ | वहिसंकम
२३६ पोआगम
पयडिहाणपडिग्गह २०,२४ वत्तव्वदा णोप्रागमदब्बसंकम १२ पयडिट्ठाणसंकम १५,२० ववहार पोकम्मसंकम १२ पयडिणिसह. वाघाद २४८,२५० पोसव्वसंकम
पयडिपडिग्गह २०,२४ विदियकसाअोवजुत्त ८६ त. तिपलिदोवम
१८१ पयडिबंध
८२,८४ तिरिक्खगइ ७८ पयडिसंकम ५,१४
विसेसहीण
२४४ ७७,७८ परिमाण
विसेसाहिय ७४,७५ तेत्तीससागरोवम १६२ पलिदोवम
३७ विसंजोएं। ३१३ द. दव १६,८६ पुरिसवेद
विहासा दबसंकम
१२ वेछावहिसागरोवम ३८,४८ दिट्ट
पंचिंदिय दिट्ठीगय
पंचिंदियतिरिक्खतिय ७८ वेदगसम्माइट्टि २६ दुचरिमसमयअणुक्षिण्ण
पंचविह
स. सण्णियास ६५,म: खंडग २४६ ब. बंध
२,४
सण्णिवाद देवगदि
बंधग दसणमोह
बंधट्ठाण
८६ सपज्जवसिद ३६,१८४ दसणमोहणीय ३३,६१ | भ. भविय
८४,५ समयाहियावनियअक्खीण. प. पडिग्गह १६,२४ भाव
१०,१६ दंसणमोहणीय ३१३ पडिग्गहविहि १७,२५ भावविधिविसेस
समयूण
२४६ पढमकसायोवजुत्त ८६ भावसंकम
८१२
समाणणा पढमसमयसम्मत्त ६३ भुजगार ८६,९२६
समाणय पढमसमयसम्मामिच्छत्त- भंग
३८,५३ सम्मत्त
३०,३७ संतकम्मिय ३२ भंगविच ५२,८६ सम्मत्तसंकामय ७६ पणुवीसपयडि म. मग्गणगवेसणा
सम्मत्तसंतकम्मिय ३० पदच्छेद ४,१७ मगणोवाय.
सम्माडि ..२६,३२ पदणिक्खेव ६,२२६ मणुसगइ ७६,८२
सम्मामिच्छत्त.... ३१,३७ .पदाणुमाणिय १७६ माण
१०६ पदेसग्ग माणसंजलण ७६,१०६
र व्वकम्म पदेसबंध
माया
१११ सव्वजीव
२१० पदेससंकम ५,१४ मिच्छत्त २६,३५
सव्वत्थोष ७३,७८ पमाण
७,१८ मिच्छाइट्टि ३०,३१
सव्वद्धा ६०,२१६ पम्मलेस्सा
८२,८४
सव्वसंकम ३,४,१६ मिस्सग
सादि पयडिअपडिगगह २०,२५ / मूलपयडिटिदिसंकम २४२ सादिय ३६,१८४ पयडिअसंकम २०,२५ . लोभसंजलण
७४ सादियसंकम पयडिट्ठाण १७,२४, लोह
११३ सादिरेय ३८,१८१ पयडिहाणपडिग्गहर०,२५] व. वडि
८६,२२६ । सामित्त
२८-६
४
३८
सव्व
६५
२६१
मिस्स
पयडि
८६
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________________
साहरण सुक्कलेस्स सुण्ण सुण्ण्हाण सुत्तगाहा सुत्तफास सुत्तसमुक्कित्तणा ८१,८८ सुददेसिद सुहुमसापराइय
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सेस ७८८० संकाम
२६, ३० सेसकसाथ १११ संकामयंतर ४६, ४७ सोलसकसाय ५३ संखेज्जगुण २२२, २२३ संकम
२,४,६ संकमउवक्कमविही १६,१८ संजम संकमट्ठाण ८४, ८६ संतकम्म संकमणय
संतकम्मअग्गहिदि संकमपडिग्गहविही १६, १८ | सांतर संकमविही २२, २३ | ह. हेमंत
संगह
८६
११४
२२
१७८
३.
पुस्तक अ. अइच्छावणा
असंखेजवस्साउन १८४ गदि अक्खवग
अहोरत्त ११८, ३६७ गलिदसेस अट्ठपद ३, ११ | आ. आगाइद १२४ |
गुणसंकम
१७० अणिप्रोगहार ६४, १२१ आढत्त
गुणिदकम्मंसिन १७६,१८२ अणुपालिद २०१ / आवलियपडिभग्ग २७ घ. घादट्ठाण १५८, १६० अणुभाग
आवलियसम्माइटि ३८२ घादिसण्णा २१ अणुभागकंडय .
आवलियादीद २६५ | छ. छट्ठाणपदिद ५८, ६२ अणुभागखंडय ३७, १२४ | ई. ईसाण
१८६
छम्मास अणुभागसंकम २ उक्कस्सजोग १८२ | ज. जहण्णणिक्खेवमेत्त ५ अणुभागसंतकम्म १२४ उक्कस्सणिक्खेव ८ | जहण्णपदभंगविचत्र ६८ अणुवसामग २२ उक्कस्सपदभंगविचत्र ६८ जीव
१८ अणंतगुणब्भहिय ६१, ६३ उक्कस्ससंकिलेस १२३,१२५ | ट. ट्ठाण १५६, ४३८ अणंतगुणहाणि १४५ उत्तरपयडिअणुभागसंकम २ ठाणसण्णा अणंतगुणहाणिसंकम १४८ उत्तरपयडिपदेससंकम १६८ | ण. णिक्खेव अणंतरोसक्काविद ६५ उप्पादयमाणय २६४ णिग्गलिद २०० अण्णपयडि ३ उवहिद
णिरयगइ
८८ अधापवत्तसंकम
उवसामयसमयपबद्ध २०० णेरइय अप्पदर
हप उवसंतद्धा १७६ त. तप्पाओग्गविसुद्धपरिणाम३३ अप्पदरसंकम ६५, २६० उज्वेल्लणसंकम १७० तिहाणिन अप्याबहुश्र ६,१२१ उव्वेल्लमाणय ३०० तेइंदिर अभवसिद्धियपाओग्ग ४३६ उस्सक्का विद २८६ | द. दुचरिमफदय अवठ्ठाण १२२, १४५ | ए० एइदिय ३१,६२ देसघादि अवट्ठिदसंकम ६६, १४७ एण्हिं १५, २८६ पक्खित्त अवत्तव्वय १४५ | प्रो. ओसक्काविद ६५, २६० पच्छाणुपुवी १५७ अवत्तव्वसंकम ६६, २६० | क. कम्मसरीर
४४४
पढमफद्दय असंकम
२६० | ग. गणिजमाण १५.८ पदणिक्खेव ११, १२१
२१
२१
my wr
१८१
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________________
२१
४४६
व.
परिसिठ्ठाणि
३६१ पदेसगुणहाणिट्ठाणंतर ७ भुजगारसंकम. २८६ | समुक्कित्तणा ५४३ पदेसग्ग १७२ | म. मणुस
सम्माइट्टिग १६२ पदेससंकम १६८, १६६ मणुसगइ
१८३ सव्वघादि पदेससंकमट्ठाण ४३८ मूलपदेससंकम १६८ सव्वसंकम १७० परिवाडी
मूलपयडिअणुभागसंकम२११ सादिश्र ४५,४७ परिवदमाण १४६ र. रादिदिय ३६५ सादिरेय परूवणा ४, १२१ वग्गणा
सामित्त १२१, १४३ पुढवी
वट्टमाण
३७
सुहुमकम्म १३२ पुव्वाणुपुव्वी वडि ११, १२२
सुहुमैइदियकम्म १२७ पुरणा
वस्स
११८
संकम पूरिद
१७६ वास विज्झादसंकम
संकमट्ठाण पंचिंदिन
१५६, १५६ विदियफद्दय
संकमट्ठाणपरिवाडी ४४३ पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तअ१७७ विसुद्धपरिणाम
संछुद्ध
१७८ फ. फदय
४,६ वेईदित्र
३१
संछुहमाणत्र ३३, १४८ ब. बहुदर
६५. वेढाणि
२१ संतकम्मट्ठाण १५६, १५६ बंधट्ठाण
स० सण्णिपाओग्गजहण्ण १२३ । संक्खित्त भ. भवग्गहण
सण्णियास ५७, ६१ ह. हदसमुप्पत्तियकम्म ३० भुजगार ११, ६४ सपज्जवसिद ४५, ४७ । हाणि
१२२
१५८ १७६
८०
१७०
१८१
६ जयधवलागतविशेषशब्दसूची
पुस्तक
णेगम
अ. अइच्छावणा २४४ । ट. हिदिअलंकम २४३ ।। पयडिट्ठाणसंकम अकम्मबंध
हिदिसंकम २४२ पयडिपडिग्गह २१ अणुगम १४ ए. णिक्खेव २४३, २४४ पयडिसंकम
१४, २० आ. आगमदव्वपयडिसंकम १६ णिव्याघाद २४७ ब. बंध
२ उ. उजुसुद
भ. भावसंकम
२० उत्तरपयडिटिदिसंकम २४२
पोआगमदवपयडिसंकम१६ म. मूलपयडिटिदिसंकम २४२ कट्ठसंकम
पोकम्मदव्वपयडिसंकम १९ व. ववहार कदजुम्म
२४४ द. दव्वट्टियणय २० वाघाद
२४८ कम्मदव्यपयडिसंकम१६,२० प. पडिग्गह
संकम २, १३, १४ कम्मबंध २,३ पडिअसंकम
संगह कम्मववएस पयडिट्ठाणअपडिग्गह
सद्दणय कालसंकम पयडिहाणपडिग्गह
सव्वपडिसंकम
क.
२०
१४
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________________
५६२
जयधवलासहिदेकसायपाहुडे
३१
।
पुस्तक अ. अइच्छावणा ४,५| उस्सक्काविद २८६ | भ. भागहार १७१ अणुभागविहत्ति १५६ | ए. एई दिय
भुजगारसंकम ६५, २६० अणंतरोसक्काविद १५ एण्डिं
६५,६६
विज्झादसंकम १७१ अधापवत्तसंकम १७१ | ओ. ओसक्काविद ६५,६६ विज्झादसंकमदव्य१७४,१७५ अधापवत्तसंकमदव्व १७५ ग. गुणसंकम
१७२ स. सव्वसंकम
१७२ अप्पदरसंकम ५ गुणसंकमदव्व १७५
सव्वसंकमदव्व १७४, १७५ अल्पतरसंक्रम ६६,२०० गुणहाणिहाणंतर ७
सुहुम प्रवक्तव्यसंक्रम ६६,२०० घ. घादिसण्णा
संकम अवस्थितसंक्रम ६६, २०० ट. ठाणसण्णा
संगहणयावलंबिसुत्त ५८ प्रा. श्रावलियपडिभग्ग २७ | प. पदेसगुणहाणिहाणंतर ह. हदसमुष्पत्तिय उ. उव्वेल्लणसंकम १७० पदेससंकम १६६
उव्वेल्लणसंकमदव्व १७१ पुव्वाणुपुव्वी १५८
२१
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