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________________ ४८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ विसेसाहियसव्वपयडीसु जोजेयव्यो । ६७६६. अण्णं च दोण्हमेदेसिं जहण्णदत्राणि उक्स्सदव्वेसु सोहिय सुद्धसेसादो अहियदव्यमवणिय सेसदव्यं विज्झादभागहारबेअसंखेजालोगजोगगणगाराणमण्णोण्णब्भत्थरासिं विलेऊण समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगसंतकम्मपक्खेवपमाणं पावदि। पुणो एत्तियमेत्तसंतकम्मपक्खेवेसु जहण्णदव्बस्सुवरि परिवाडीए पवेसिदेसु एत्युप्पण्णासेससंकमट्ठाणाणि संतकम्मपक्खेवं पडि असंखेजलोगमेत्ताणि दोण्हं पि सरिसाणि भवति । पुणो पुचमवणेदूण पुध द्वविददव्वे वि संतकम्मपक्खेवपमाणेण केरमाणे असंखेजलोगमेत्ता संतकम्मपक्खेवा होति ति । तत्थ वि असंखेज्जलोगमेत्तसंकमट्ठाणाणि अपच्चक्खाणकोहस्स विज्झादसंकममस्सिऊणं अब्भहियाणि लब्भंति । एवमधापवत्तगुणसंकमे वि अस्सिऊण अहियत्तं वत्तव्वं । तदो एदेहि मि बिसेसाहियत्तमेत्थ दडव्वं । ॐ मायाए पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ॐ लोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * पच्चक्खाणमाणे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । * कोहे पदेससंकमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । यहाँ पर जानने चाहिए। यह अर्थ आगे प्रकृति विशेषकी अपेक्षा विशेषाधिक सब प्रकृतियों में लगाना चाहिए। ६७६६. और भी-इन दोनोंके जघन्य द्रव्योंको उत्कृष्ट द्रव्योंमेंसे घटाकर शुद्ध शेषमेंसे अधिक द्रव्यको कम कर शेष द्रव्यके विध्यातभागहार, दो असंख्यात लोक और योग गुणकारोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको विरलन कर उसके ऊपर समान खण्ड करके देने पर एक एक विरलनके प्रति सत्कर्मसम्बन्धी एक एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इतने मात्र सत्कर्म प्रक्षेपोंके जघन्य द्रव्यके ऊपर परिपाटीसे प्रविष्ट करा देने पर यहाँ पर उत्पन्न हुए समस्त संक्रमस्थान सत्कर्मप्रक्षेपके प्रति असंख्यात लोकमात्र होते हुए दोनोंके ही समान होते हैं। पुनः पूर्वके द्रव्यको अलगकर पृथक् स्थापित द्रव्यके भी सत्कर्मप्रक्षेपके प्रमाणसे करने पर असंख्यात लोकमात्र सत्कर्मप्रक्षेप होते हैं । वहाँ पर भी अप्रत्याख्यान क्रोधके विध्यातसंक्रमके आश्रयसे असंख्यात लोकमात्र संक्रमस्थान अधिक उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार अधःप्रवृत्त और गुणसंक्रमके आश्रयसे भी अधिकपनेका कथन करना चहिए। इसलिए इनकी अपेक्षा भी विशेषाधिकता यहाँ जाननी चाहिए। * उनसे मायामें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे लोभमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे प्रत्याख्यानमानमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं। * उनसे क्रोधमें प्रदेशसंक्रमस्थान विशेष अधिक हैं।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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