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________________ गा० ५८ ] उत्तरपर्याडपदेससंकमे सणयासो २४५ संजल ० | र दुविहं लोभं णिय० अजह० असंखे ०गुणन्भ० । लोहसंज० जह० पदे० संका० एक्कारसक० - तिण्णिवे० अरदि-सोग णिय० अजह ० असंखे० गुणभ० । हस्त-रदि-भय-दुगु छ० णियमा ० अजह० असंखे ० भागब्भ० । अज० ० ६१. इथिवे ० जह० पदे ० संका० णवक० सत्तणोक० णिय० अज० असंखे ०भागम० । तिष्णिसंज० - पुरिसवे ० णिय ० असंखे० गुणभ० | एवं णवुंस० । पुरिसवे • कोहसंजलभंगो । णवरि एकारसक० णिय० अजह० असंखे ० गुणन्भ ० । $ १६२. हस्सस्स जह० पदे ० संका ० एक्कारसक० - तिण्णिवे ० -अरदि- सो० णिय ० अज० असंखे० गुणभ० । लोहसंज० णिय अजह • असंखे ० भागब्भ० । रदि०भय-दुगुं० णिय० तं तु विद्वाणपदिदं असंखे ० भागब्भ० । एवं दि. भय-दुगु छ० । ० ० अनंतभागब्भ० जह० $ १६३. आदेसे० णेरइय ० - मिच्छ० अजह॰ असंखे०गुणन्भ० | बारसक० णवणोक० णिय ० पदे ० संका ० सम्मामि ० णिय ० अजह० असंखे ० भागब्भ० । अधिक श्रजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार मानसंज्वलनकी मुख्यता से सन्निकर्ष कहना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इसके आठ कषायोंके स्थानमें पाँच कषाय कहलाना चाहिए। इसी प्रकार मायासंज्वलनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह दो प्रकारके लोभों के नियमसे असंख्यातगुण अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । लोभसंज्वलन के जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, तीन वेद, अरति और शोकके नियमसे असंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । हास्य, रात, भय और जुगुप्सा के नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । १६१. स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव नौ कषाय और सात नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तीन संज्वलन और पुरुषवेद के नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। पुरुषवेद की मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग क्रोधसंज्वलन के समान है । इतनी विशेषता है कि यह ग्यारह कषायोंके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । 8 १६२. हास्यके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, तीन वेद, अरति और शोक के नियम से असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। लोभसंज्वलन के नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है । रति, भय और जुगुप्सा के नियमसे जघन्य प्रदेशों का भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । $ १६३. देशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे श्रसंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । बारह कषाय और नौ कषायों के नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यक्त्वके
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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