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________________ २४४ जयधवलास हिदे कषायपाहुडे [ बंधगो ६ तिण्णिसं ज० णिय० अज० असंखे० गुण भ० । एवं सम्म० । णरि सम्मा मि० ० अजह० असंखे ० भागब्भहियं । णिय ० पदे०संका ० मिच्छ०- णत्रक० -अट्ठणोक० सम्माभि० - पुरिसवे० - तिष्णिसंज० णिय० तं तु विद्वाणपदि० अनंतभागन्भ० । $ १५८. अनंताणु० कोधस्स जह० णिय ० अजह ० असंखे० भागब्भहियं । अजह० असंखे० गुणभ० । तिन्हं कसा० शिय० असंखे ० भागभहियं वा । एवं तिहं कसायाणं १५६ अपच्चक्खाणकोह० जह० पदे ० संका ० इत्थवेद - णवुंस०-हस्स-रदिभय-दुगु छ० - लोहसंज० णिय ० असंखे ० भागभ० । पुरिसवे ० - तिष्णिसंज० णिय० अजह० असंखे० गुणग्भहियं । सत्तक ० -अरदि- सोग० णिय० तं तु विट्ठाणपदि ० अनंतभागभ० असंखे० भागब्भहि० वा । एवं सत्तकसाय अरदिसोगाणं । अजह० 8 ९६०. कोहसंज० ० जह० पदे० संका० अट्ठक० पिय० अज० असंखे ० गुणन्भ ० मिच्छ० सिया अस्थि । जदि अत्थि णिय० अजह० असंखे० भागब्भ० । एवं सम्मामि० । वर असंखे ० गुणभ० । एवं माणसंजल० । णवरि पंचक० भाणिदव्वा । एवं माया अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के नियमसे श्रसंख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । § १५=. अनन्तानुवन्धी क्रोध के जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, नौ कषाय और आठ नोकषायके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । सम्यग्मिथ्यात्व, पुरुषवेद और तीन संज्वलनोंके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशों का संक्रामक होता है। तीन कषायोंके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थान पतिता जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता हैं । इसी प्रकार तीन कपायोंकी मुख्यतासे सनिकपं जानना चाहिए। § १५६. अप्रत्याख्यान क्राधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और लोभसंब्वलनके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । पुरुषवेद और तीन संज्ञलनके नियम से असंख्यातगुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सात कषाय, रति और शोकके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्तभाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सात कषाय, अरति और शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । § १६०. क्रोधसंज्वलनके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव आठ कषायके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसके मिथ्यात्व कदाचित् है । यदि है तो नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार अर्थात् मिध्यात्वके समान सम्यग्मिथ्यात्वका सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इसके असंख्यातगुण
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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