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________________ २७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ . * अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो। २४७. कि कारणं १ विसंजोयणापुव्यसंजोगणवकबंधसमयपबद्धाणमंतोमुहुत्तमेत्ताणमुवरि सेसकसायाणमधापवत्तसंकममुक्कड्डणापडिभागेण पडिच्छिय सम्मत्तपडिलंभेण बेछावहिसागरोवमाणि परिहिंडिय तप्पज्जवसाणे विसंजोयणाए उवविदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए विज्झादसंकमेणेदस्स जहण्णसामित्तं जादं। सम्मामिच्छत्तस्स पुण बे छावद्विसागरोवमाणि सागरोवमपुधत्तं च परिभमिय दीहुब्वेन्लणकालेण उव्वेल्लेमाणस्स दुचरिमविदिखंडयचरिमफालीए उव्वेल्लणभागहारेण जहण्णं जादं । तदो उव्वेल्लणभागहारमाहप्पेणण्णोण्णभत्थरासिमाहप्पेण च सम्मामिच्छत्तदव्वादो एदमसंखेज्जगुणं जादं। • कोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ® मायाए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ। * लोहे जहएणपदेससंकमो विसेसाहिओ। ६२४८. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * मिच्छत्ते जहएणपदेससंकमो असंखेनगुणो। ६ २४६. किं कारण; अणताणुबंधीणं विसंजोयणापुत्रसंजोगेणणवकबंधस्सुवरि अधापवत्तभागहारेण पडिच्छिदसेसकसायदव्वस्सुक्कड्डणापडिभागेण बेछावद्विसागरोवमगालणाए * उससे अनन्तानुबन्धीमानका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यात गुणा है। ६२४७. क्योंकि विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर अन्तमुहूर्त कालके भीतर जो नबकबन्धके समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं उनके ऊपर शेष कषायोंके अधःप्रवृत्तसंक्रमको उत्कर्षणके प्रतिभागरूपसे निक्षिप्त करके सम्यक्त्वकी प्राप्ति द्वारा दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें विसंयोजनाके लिए उपस्थित हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा इसका जघन्य स्वामित्व हुआ है । परन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका दो छयासठ सागर और सागरपृथक्त्व काल तक परिभ्रमण करके दीर्घ उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना करनेवाले जीवके द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके प्राप्त होने पर उद्वेलनाभागहारके आश्रयसे जघन्य स्वामित्व प्राप्त हा है, इसलिए उद्वेलनाभागहारके माहात्म्यवश और अन्योन्याभ्यस्तराशिके माहात्म्यवश सम्यग्मिध्यात्वके द्रव्यसे इसका द्रव्य असंख्यातगुणा हो गया है। * उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीमायाका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। * उससे अनन्तानुबन्धीलोभका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है। ६२४८. ये सूत्र सुगम हैं। * उससे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है। ६२४६. क्योंकि अनन्तानुबन्धियोंका विसंयोजनापूर्वक संयोगद्वारा नवकबन्धके ऊपर अधःप्रवृत्तभागहार द्वारा प्राप्त हुए शेष कषायोंके द्रव्यके उत्कर्षण-अपकर्षणभागहाररूप प्रतिभागके
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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