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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ३६३ अवढि० संका० जह० एगस०, उक० आवलि० असंखे० भागो । एवमित्थिवे०-णवुस०चदुणोक० । णवरि अबढि० णत्थि । ६५३७. आदेसेण णेरइय० दंसणतियस्स ओघं । अर्णताणु०४ अवढि० अवत. संका० जह० एगस०, उक्क० आवलि असंखे० भागो। भुज० अप्प० संका० सव्वद्धा । एवं बारसक०-पुरिसवे०-भय-दुगुछ० । णवरि अवत्त० पत्थि । एवमित्थिवेद-णवुस०चदुणोक० । णवरि अवढि० णत्थि । एवं सधणेरइयपंचिंदिय तिरिक्खतिय-देवगदि देवा भवणादि जाव णवगेवजा ति। ६५३८. तिरिक्खा० ओघं। णवरि बारसक०-णवणोक० अवत्त० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज० सम्म०-सम्मामि० णारयभंगो। णवरि अवत्त० णत्थि । सोलसक०-णवणोक० णारयभंणो । णवरि अर्णताणु०४ अवत्त०-पुरिसवे० अवढि० णत्थि । ६५३६. मणुसेसु मिच्छ० भुज० संका० जह. एयस० उक्क० अंतोमुहुतं । अप्प० संका० सम्बद्धा । अवढि० अवत्त० संका० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया । सम्म०-समाम्मि० भुज० अप्प० संका० णारयभंगो। अवत्त० मिच्छत्तभंगो। सोलसक० भय-दुगुंछा० णारयभंगो । णवरि अवत्त० मिच्छत्तभंगो । पुरिसवेद० अवढि० पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थिसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका अवस्थितपद नहीं है। ६५३७. आदेशसे नारकियोंमें दर्शनमोहत्रिकका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतष्कके अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्टकाल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। भुजगार और अल्पतरसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, पन्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, देवगतिमें सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। ६५३८. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका प्रवक्तव्यपद नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद नहीं है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका प्रवक्तव्यपद और पुरुष वेदका अवस्थितपद नहीं है। ५३६. मनुष्योंमें मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। अल्पतरसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। अवस्थित और प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतरसंक्रामकोंक भङ्ग नारकियोंके समान है । अवक्तव्य संक्रामकोंका भङ्ग मिथ्या. त्वके समान है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भङ्ग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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