SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ ५३५. देवेसु मिच्छ० सव्वपदे संका० लोग० असंखे० भागो, अट्ट चोइस० देसूणा। सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० सव्वपदसंका० लोग० असंखे०भागो अढ णव चोदस० देसूणी। णवरि अणताणु०-चउक्क०-अवत्त० पुरिसवे० भुज० अवढि० इत्थिवे० भुज० संका० लोग० असंखे भागो अटुचोदस० देसूणा । एवं भवणादि जाव अच्चुदा त्ति । णवरि सगपोसणं जाणियव्वं । उवरि खेतभंगो। ६५३६. कालाणु० दुविहो णिहेसो-ओघे० आदेसे । ओघे० मिच्छ० भुज. संका० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अप्प० संका० सव्वद्धा । अवढि० अवत्त० संका० जह• एयसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। एवं सम्म० । णवरि अवढि० णत्थि । सम्मामि० भुज० जह. एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अप्प० संका० सव्वद्धा । अवत्त० संका० मिच्छत्तभंगो। अणंताणु०४ भुज०अप्प०-अवद्वि० संका० सव्वद्धा । अवत्त० मिच्छत्तभंगो। एवं बारसक०-भय-दुगुछा० । णवरि अवत्त० संका० जह. एयसमओ, उक्क० संखेजा समया । एवं पुरिसवेद० । णवरि ५३५. देवोंमें मिथ्यात्वके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सब पदोंके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य संक्रामके, पुरुषवेदके भुजगार और अवस्थितसंक्रामक तथा स्त्रीवेदके भुजगारसंक्रामक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर अच्युतकल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनाअपना स्पर्शन जानना चाहिए। आगेके देवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-यहाँपर हमने स्पर्शनका विशेष खुलासा नहीं किया है । इसका कारण इतना ही है कि स्वामित्व और अपने-अपने स्पर्शनको ध्यानमें रखकर विचार करने पर यहाँ जिस प्रकृतिके जिस पदकी अपेक्षा जितना स्पर्शन कहा है वह स्पष्ट रूपसे प्रतिभासित होने लगता है। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल ६५३६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण है। अल्पतरसंक्रामकोंका काल सर्वदा है। अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका अवस्थितपद नहीं है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरसंक्रमकोंका काल सर्वदा है। प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy