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________________ २५० जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ बंधगो ६ एवमेकारसक० - पुरिसवे ० -भय-दुगुं ० । $ १७७. इत्थवे ० जह० पदे ० संका० बारसक० - अट्ठणोक० णिय० अजह० असंखे० भाग भ० । एवं वंस० । एवं हस्स० । णवरि रदीए विद्वाणपदि ० । एवं रदीए । एवमरदि- सोगाणं । एवं जाव० । १७८. एदम्मि जहणसण्णियासे कत्थ वि कत्थ वि पदविसेसे विसंवादो अत्थि, तत्थुच्चारणाइरियाहिप्पायमणुमाणिय विवरीयपदेसविण्णा सावलंबणेणाण्णहा वासमत्थणा कायव्त्रा । ९ १७६. संपहि एत्थुद्दे से सुगमत्ता हिप्पाएण चुण्णिसुत्तायारेण परूविदाणं णाणाजीवभंगविचयादी महमणियोगद्दाराणं उच्चारणाबलेण परूवणं वत्तइस्साम । तं जहा - णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो – नह ० उक० च । उक० पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसे ० | ओघे० सव्वपयडी उक्क० पदेसस्स सिया सव्वे असंकामया, सिया असंकामया च संक्रामओ च, सिया असंकामया च संकामया च ३ । अणुक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे संकामया, सिया संकामया च असंकामओ च, सिया संकामया च असं कामया च ३ । एवं चदुसु गदीसु । णवरि मणुस अपज० उक्क० ० नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १७७. स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव बारह कषाय और आठ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेद की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार हास्यकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इसके रतिका द्विस्थानपतित सन्निकर्ष होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । १८. इस जघन्य सन्निकर्ष में कहीं-कहीं पदविशेषमें विसंवाद है सो वहाँ पर उच्चारणाचार्य के अभिप्रायका अनुमान करके विपरीत प्रदेशविन्यास के अवलम्बन द्वारा अन्य प्रकारसे उसकी अवस्थितिका विचार करना चाहिए । § १७६. ‘अब इस स्थल पर सुगम हैं' इस अभिप्रायसे चूर्णिसूत्रकार द्वारा नहीं कहे गये 'नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय' आदि आठ अनुयोगद्वारोंका उच्चारणा के बलसे कथन करते हैं । यथा - नाना जीवों की अपेक्षा भङ्ग विचय दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकार है - श्रघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशों के कदाचित् सब जीव असंक्रामक हैं १, कदाचित् नाना जीव असंक्रामक हैं और एक जीव संक्रामक है २ तथा कदाचित् नाना जीव असंक्रामक हैं और नाना जीव संक्रामक है । ३ अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके कदाचित् सब जीव संक्रामक हैं १, कदाचित् नाना जीव संक्रामक हैं और एक जीव असंक्रामक है। २ तथा कदाचित् नाना जी संक्रामक हैं और नाना जीव असंक्रामक हैं ३ । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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