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________________ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे सण्णियासो , २४६ ६१७३. मणुसतिए ओघं। णवरि भणुसिणी० पुरिस० जह० पदे०संका० एक्कारसक०-इत्थिवेदणस०-अरदि-सोगाणं णिय० अजह० असंखेन्गुणब्भ० । लोभसंज० हस्स-रदि-भय-दुगुछा० णिय० अजह० असंखे भागब्भ० । ६१७४. देवेसु तिरिक्खभंगो । एवं सोहम्मादि णवगेवजा ति । भवणवाणजोदिसि० णारयभंगो । अणुदिसादि सबट्ठा ति मिच्छ० जह० पदे०संका० सम्मामि० णिय० तं तु विट्ठाणपदि० अर्णतभागभ०, असंखे०भागम० । बारसक०-णवणोक० णिय० अज० असंखेमागभ० । एवं सम्मामि० । ६१७५. अणताणु०कोध० जह० पदे०संका० मिच्छ० सम्मामि०-बारसक० णवणोक० णिय. अजह. असंखे भागभ० । तिण्डं क. णिय. तं तु विट्ठाणपदि० । एवं तिण्हं क०। ६ १७६. अपचक्खाणकोह. जह० पदे०संका० एकारसक०-पुरिसवे०-भयदुगुछा० णिय० तं तु विट्ठाणपदिदं। छण्णोक० णिय० अजह. असंखे०भागब्भ० । ६ १७३. मनुष्यत्रिकमें श्रोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोकके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। लोभसंज्वलन, हास्य, रति, भय और जुगुप्साके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। ६१७४. देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर नौमे वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में नारकियोंके समान भङ्ग है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्बकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६१७५. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तीन कषायोंके जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६१७६. अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है और अजघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। छह नोकषायोंके ३२
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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