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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ ६ १७०. अणताणुकोध० जह० पदे०संका० बारसक०-णवणोक० णिय० अजह. असंखे० भाग-भ० । सम्म० सम्मामि० णिय० अजह० असंखे० गुणव्म । तिण्हं कसा० णिय० ते तु. विट्ठाणपदि० अणंतभागम० असंखे० भागम्भ० । एवं तिहं कसायाणं ।
६१७१. अपच्चक्खाणकोध० जह० पदे० संका० सम्म०-सम्मामि० अर्णताणु०चउक्कभंगो। अणंताणु०चउ०-सत्तणोक० णिय० अजह० असं भागबभ०-एक्कारसकभय-दुगु णियमा तं तु विट्ठाणपदि० अणंतभागभ० असंखे भागभ० वा । एवमेक्कारसके० भय-दुगुछ०।
६ १७२. इत्थिवेद० जह० पदे०संका० सोलसक० अट्ठणोक० णिय० अजह० असंखे०भागभः। सम्म०-सम्मामि० गिय० अजह० असंखेन्गुणन्भः। एवं पुरसवे० णवंस० । एवं हस्स-रदी० । णवरि रदि विट्ठाणपदि० । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । एवं मणुसअपज्ज।
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६ १७०. अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। तीन कषायोंके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है । यदि अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६१७१. अप्रत्याख्यान क्रोधके जघन्य प्रदेशोंके संक्रामक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिभ्यात्वका भंङ्ग अनन्तानुबन्धीचतुष्कके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंके नियमसे असंख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्साके नियमसे जघन्य प्रदेशोंका भी संक्रामक होता है। यदि अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है तो नियमसे अनन्त भाग अधिक या असंख्यात भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए।
६१७२, स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशोंका संक्रामक जीव सोलह कषाय और आठ नोकषायोंके असंख्यात भाग अधिक अजवन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके नियमसे असंख्यात गुण अधिक अजघन्य प्रदेशोंका संक्रामक होता है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेद की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार हास्यकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है इसके रतिका द्विस्थानपतित सन्निकर्ष कहना चाहिए । इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकष इसी प्रकार कहना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् तिर्यञ्च अपयाप्तकोंके समान मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भी सन्निकर्ष जानना चाहिए।