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________________ ३८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ पढमसमयविज्झादसंकामयस्स। ६६११. जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए णेरइयो अंतोमुहुत्तेण कम्ममुक्कस्सं काहिदि ति विवरीयभावमुवगंतूण सम्मत्तप्पायणाए वावदो तस्स सव्वुक्कस्सेण गुणसंकमेण मिच्छत्तं संकामेमाणयस्स चरिमसमयगुणसंकमादो पढमसमयविज्झादसकमे पदिदस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ। तत्थ किंचूणचरिमगुणसंकमदव्धस्स हाणिसरूवेण संभवदंसणादो। 9 उकस्सयमवहाणं कस्स ? ६६१२. सुगमं । 8 गुणिदकम्मंसिओ पुव्वुप्पएणेण सम्मत्तेण मिच्छत्तादो सम्मत्तं गदो, तं दुसमयसम्माइडिमादि कादूण जाव प्रावलियसम्माइहि त्ति एत्थ अण्णदरम्हि समये तप्पाओग्गउक्कस्सेण वड्डिं कादूण से काले तत्तियं संकममाणयस्स तस्स उकस्सयमवट्ठाणं ।। ६६१३. एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-जो गुणिदकम्मंसिओ सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहु मिच्छत्तं गदो। तत्तो पडिणियत्तिय तप्पाओग्गेण कालेण पुणो वेदयसम्मत्तं पडिवण्णो । तं दुसमयसम्माइट्ठिमादि कादूण जाव आवलियसम्माइहि ति एत्यंतरे समया करके प्रथम समयमें विध्यात संक्रम करता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि होती है । ६६११. जो गुणितकर्माशिक सातवी पृथिवीका नारकी जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मको उत्कृष्ट करेगा, किन्तु विपरीत भावको प्राप्त होकर सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेमें व्याप्त हुआ उसके सबसे उत्कृष्ट गुणसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वका संक्रम करते हुए अन्तिम समयवर्ती गुणसंक्रमसे प्रथम समयवर्ती विध्यातसंक्रममें पतित होनेपर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, क्योंकि वहाँ पर कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम द्रव्यकी हानिरूपसे सम्भावना देखी जाती है । * उत्कृष्ट अवस्थान किसके होता है ? ६६१२. यह सूत्र सुगम है। * जो पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वके साथ रहा है ऐसा जो गणितकर्मा शिक जीव मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, उस सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे लेकर एक आवलि कालके भीतर किसी एक समयमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट वृद्धि करके तदनन्तर समयमें उतना ही संक्रम करने पर उत्कृष्ट अवस्थान होता है । • ६६१३. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-जो गुणितकर्मा शिक जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करके अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । फिर उससे निवृत्त होकर तत्प्रायोग्य कालके द्वारा पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिसे लेकर एक आवलि प्रविष्ट सम्यग्दृष्टि होने तक इस कालके मध्य समयके अविरोध पूर्वक वृद्धिको करके तृतीय आदि किसी
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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