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________________ ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [बंधगो६ ४६१. पंचिंदिय तिरिक्खतिए मिच्छ० भुज० अप्प० अववि० संका० जह. एयस० । अवत्त० जह• अंतोमु० । सम्म० भुज० जह० पलिदो० असंखे०मागो । अप्प० अवत्त० जह. अंतोमु० । सम्मामि० भज० अप्पयर०संका० जह० एयस० । अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० सव्वेसि तिणिपलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणन्महियाणि । अणताणु०४ भुज० अवढि० अवत्त० मिच्छतभंगो। अप्प०संका० जह• एयस० । उक्क० तिणिपलिदो० देसूणाणि । बारसक०-भय-दुगु भुज० अप्प०संका० ओघं० । अवढि०संका० मिच्छत्तभंगो, पुरिसवे. भज. अप्पसंका० ओघं। अवढि० जह० एयस०उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणां । इस्थिवे०-णस०-चदुणोक० तिरिक्खोघं । विशेषार्थ-यहाँपर अन्य सब प्ररूपणा ओघके समान होनेसे उसे देखकर घटित कर लेना चाहिए। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भजगार संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य कहनेका कारण यह है कि संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें इनका भुजगार करके बादमें अन्तर करके यथा योग्य तिर्यश्च सम्बन्धी पर्यायोंमें उत्पन्न होकर तथा अन्तमें तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर जीवनके अन्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्वानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करते हुए गुण संक्रम द्वारा पुनः मुजगारसंक्रम करनेसे यह अन्तरकाल साधिक तीन पल्य बन जाता है, इसलिए उक्त अन्तरकाल कहा है। उत्तम भोगभूमिके तिर्यचोंमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कराके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कराते समय अल्पतर संक्रम करावे। उसके बाद जीवनके अन्तमें संयुक्त होनेके बाद पुनः अल्पतर संक्रम करावे। इस प्रकार अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होनेसे उक्त प्रमाण कहा है। इसमें पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य कहा है सो विचार कर लेना चाहिए। भोगभूमिज पर्याप्त तियञ्चोंमें नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होता इसलिए इनमें भुजगारसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६४६१. पन्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, सम्यक्त्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और इन सब प्रकृतियोंके उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य संक्रामकका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । बारह कषाय. भय और जुगुप्साके भजगार और अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके.समान है। अवस्थित संक्रामकका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। पुरुषवेदके भजगार और अल्पतर संक्रामकका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए यहाँ पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिन्यात्वके उक्त तिर्यञ्चोंमें सम्भव पदोंका
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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