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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ३४७ ४६२. पंचिं० तिरि • अपज० मरणुस-अपज० सम्म० सम्मा मि० भुज० अप्प० णत्थि अंतरं । सोलसक० -भय- दुगु छा० भुज० अप्प० अवट्ठि ० संका ० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । सत्तणोक० भुज० अप्प० संका० जह० एयस० । उक्क० अंतोमु० । ६ ४६३. मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवरि मणुस ० मणुसपञ्ज० - पुरिसवे ०अवडि० तिष्णिपलिदो० पुव्वकोडिपुधत्तेणन्महियाणि । णवरि बार सक०-णवणोक० अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। इतना अवश्य है कि उक्त कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें यथायोग्य इन पदोंकी प्राप्ति करा कर यह अन्तरकाल ले आना चाहिए। इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अल्पतर संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य प्रमाण जिस प्रकार सामान्य तिर्यों में घटित करके बतलाया है उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए । इसी प्रकार अन्य अन्तरकाल भी प्रोघ प्ररूपणा और सामान्य तिर्यों में की गई प्ररूपणाको देख कर घटित कर लेना चाहिए । अन्य कोई विशेषता न होनेसे हम यहाँ पर अलगसे खुलासा नहीं कर रहे हैं। ४२. पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके भुजगार और अल्पतर संक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त है । सात नोकषायों में भुजगार और अल्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — उक्त जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगार और अल्पतर संक्रम उद्वेलना के समय ही सम्भव है और इनकी कायस्थिति मात्र अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके इन पदोंका अन्तरकाल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। शेष प्रकृतियों के यथा सम्भव पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है । ६४६३. मनुष्यत्रिक में पञ्चेन्द्रियोंका तिर्यक्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंमें पुरुषवेदके अवस्थित संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । इतनी और विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ — पुरुषवेदका अवस्थित संक्रम नियमसे सम्यग्दृष्टिके होता है, इस लिए यहाँ पर मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकोंमें पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यद्यपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यनियों में अपनी कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें सम्यक्त्व उत्पन्न करा कर पुरुषवेदके अवस्थितसंक्रमका यह अन्तरकाल प्राप्त करना सम्भव है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चों में शोषके समय यह अन्तरकाल प्राप्त करना सम्भव है, अन्यथा श्रोघप्ररूपणाकी व्याप्ति नहीं बन सकती। फिर भी उसका निर्देश न कर वह कुछ कम तीन पल्य ही क्यों कहा है यह अवश्य ही विचारणीय है। अभी हम इसका निर्णय नहीं कर सके हैं। मनुष्यत्रिकका उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होनेके बाद पुनः मनुष्य होना सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें बारह कषाय और नौ
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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