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________________ गा०५८ उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो ४१७ ॐज दि पवुसयवेदस्स इच्छसि, पुव्वमित्थिपरिसवेदे बंधावेदूण पच्छा एवं सयवेदो बंधावयव्व । तदो प्रावलियणवंसयवेदबंधमाणयस्स एवंसयवेदस्स जहपिणया हाणो से काले जहपिणया वड्ढी। : • ६८८. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एत्थ चोदगो भणइ--होउ णाम ... जहण्णवडिसामित्तमेवं चेत्र, तत्थ पयारंतरासंभवादो। किंतु जहण्णहाणिसामित्तमेदमित्थि. गवूसयवेदपडिबद्धंण घडदे । कुदो ? खरिदकम्मंसियलक्खणेणाणिय बेछावद्विसागरो• वमाणि तिपलिदोवमाहियवेछावद्विसागरोवमाणि च जहाकमेण गालिय गलिदसेसजहण्ण संतकम्ममधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि विज्झादसंकमेण संकामेमाणयम्मि सामित्तविहाणे .हाणीए सुट्टु जहण्णभावोवलद्धीदो ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-सच्चमेदं, ओघजहण्णसामित्ते . विवक्खिए एवं चेव होदि त्ति इच्छिज्जमाणत्तादो। किंतु आदेसजहण्णसामित्तविवाए पयट्टमेदं सुत्तमिदि ण किंचि विरुज्झदे, अप्पिदाणप्पिदसिद्धीए सव्वत्थ पडिसेहाभावादो। किमिदि तदविवक्खा चे १ जहण्णवडिसंभवविसये चे। जहण्णहाणिसामित्तविहाणाहिप्पाएण __* यदि नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वको लानेकी इच्छा हो तो पहले स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध कराकर बादमें नपुंसकवेदका बन्ध करावे । इस प्रकार एक आवलि काल तक नपुंसकवेदका बन्ध करनेवाले जीवके नपुंसकवेदकी जघन्य हानि होती है और तदनन्तर समयमें जघन्य वृद्धि होती है। ६६८८. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि जघन्य वृद्धिका स्वामित्व इसी प्रकार होश्रो, क्योंकि उस विषयमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। किन्तु स्त्रीवेद और नपुंसकवेदसे सम्बन्ध रखने वाला यह जघन्य हानिका स्वामित्व घटित नहीं होता, क्योंकि क्षपितकर्मा शिकलक्षणसे आकर तथा क्रमसे दो छयासठ सागर और तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर कालको बिताकर गलाकर शेष बचे जघन्य सत्कर्मको अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रमित कराने पर स्वामित्वका विधात करने पर हानिका अच्छी तरह जघन्य स्वामित्व उपलब्ध होता है? समाधान- यहाँ पर परिहारका कथन करते हैं- यह सत्य है, ओघ जघन्य स्वामित्वकी विवक्षा होने पर इसी प्रकार होता है, क्योंकि यह स्वीकार है। किन्तु आदेश जघन्य स्वामित्वकी विवक्षामें यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिए कुछ भी विरोध नहीं है, क्योंकि अर्पित और अनर्पितकी सिद्धिका सभी जगह निषेध नहीं है । १. श्रा०-दि प्रत्योः माणयस्स जहरिणया ता०प्रतौ माणयस्स इति पाठः। णबुसयवेदस्य ] जहरिणया ५३
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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