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________________ ३४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * जहण्णेण अंतोमुडुत्तं । ९ ४८६. कुदो ? सव्वोवसामणापडिवाद जहणंतरस्स तप्यमाणोवलंभादो । * उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियहं । [ बंधगो ६ ९ ४८७. कुदो १ तदुक्कस्सविरहकालस्स तप्यमाणत्तोवलंभादो । एवमोघेण सव्त्रपडीणं भुजगारादिपद संकामय जहण्णुकस्संतरपमाणविणिण्णयं काढूण संपहि तदादेस - परूवणाणिबंधणमुत्तरमुत्तपदमाह । * गदीसु च साहेयव्वं । ४८८. एदीए दिसाए गदीसु च णिरयादिसु पयदंतरं विहाण मणुमा थिय दव्यमिदि वृत्तं होइ । ४८६. संपहिएदेण बीजपदेण सूचिदत्थस्स उच्चारणाइरियपरूविद विवरणमणुवत्तसामो । त जहा -- आदेसेण णेरइयमिच्छत्तअनंताणु०४ भुज० अप्प० अवट्टि ० संका० जह० एयस० । अवत्त० जह० अंतोमु० । सम्म० भुज० जह० पलिदो ० असंखे ० भागो । अष्प ० अवत० संका० जह० अंतोमु० । सम्मामि० भुज० अप्प० संका ० जह० एयस० । अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० सव्वेसिं तेत्तीसं सागरोवमाणि * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । § ४८६. क्योंकि सर्वोपशामना के प्रतिपातका जघन्य अन्तरकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण 1 ६ ४८७. क्योंकि सर्वोपशामनाके प्रतिपातका उत्कृष्ट विरहकाल तत्प्रमाण उपलब्ध होता है । इस प्रकार से सब प्रकृतियों के भुजगार आदि पदोंके संक्रामक जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल के प्रमाणका निर्णय करके अब उनकी आदेश प्ररूपणाको बतलाने वाले आगे सूत्रको कहते हैं * इसी प्रकार चारों गतियोंमें अन्तरकाल साध लेना चाहिए । ४८८. इसी दिशासे नारक आदि गतियोंमें प्रकृत अन्तरकालके विधानका अनुमान करके ले जाना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ६४८६. अब इस बीज पदसे सूचित होनेवाले अर्थका उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये विवरणको बतलाते हैं । यथा - आदेश से नारकियोंमें मिध्यास्त्र और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्वके भुजगार संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है तथा अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अत्पतर संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा उक्त सब प्रकृतियोंके अपने अपने सब पदोंके संक्रामक्कोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, पुरुष
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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