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________________ ४०७ गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो त्ति । किमट्ठमेवं कीरदे चे ?ण, अण्णहा आगम-णिजराणं सरिसत्ताभावेण१ पयदजहण्णसामित्तविहाणाणुववत्तीदो। ६६७५. संपहि एइदिएसु पइट्ठस्स केत्तिएण कालेण आगम-णिजराणं सरिसत्तसंभवो होइ ? एदिस्से पुच्छाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरो सुत्तावयवो–'तदो पलिदोवमस्सासंखेजदिभागकालं गालिदस्स इच्चादि । कि कारणं ? ऐइदिएसु तप्पाओग्गपलिदोवमासंखेज्जभागमेत्तकालावट्ठाणेण विणा आगम-णिजराणं सरिसत्तविहाणोवायाभावादो। तम्हा तेत्तियमेत्तं भुजगारकालं गालिय अप्पयरकालसंधीऐ वट्टमाणस्स अवद्विदपाओग्गविसऐ सामित्तविहाणमेदमविरुद्धं सिद्धं । एवमवद्विदपाओग्गं जहण्णसंतकम्मं कादण तत्थ जहण्णसामित्ताणुगमे कीरमाणे एसो विसेसो अणुगंतव्यो ति पदुप्पोयणट्ठमुवरि सुत्तावयवकलावो--'जहण्णेण एईदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा आवलियाए समयुत्तराऐ इच्चादि । एदस्सावयवत्थो सुगमो । किमट्ठमेवं जहण्णोववादजोगेण परिणामिज्जदे ? ण, अण्णहा सामित्तसमयभाविणीए जहण्णणिज्जराए सह विवक्खियसमयपबद्धस्स सरिसभावाणुषवत्तीदो। ण च ताणं सबजहण्णभावेण सरिसताभावे पयदजहण्णसामित्तविहाणसंभवो, शंका-ऐसा किसलिए करते हैं ? समाधान--नहीं, क्योंकि अन्यथा आप और व्ययके समान न होनेके कारण प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान नहीं बन सकता। ६६७५. अब एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट हुए इस जीवके कितने कालके द्वारा आय और व्ययका सहशपना सम्भव है ऐसी पृच्छा होने पर निर्णयका विधान करनेके लिए आगेका सूत्र अवयव आया है-'तदो पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागं कालं गालिदस्स' इत्यादि । क्योंकि एकेन्द्रियों में तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक अवस्थान हुए बिना आय और व्ययके सहशपनेके विधानका अन्य कोई उपाय नहीं पाया जाता। इसलिए उतने मात्र भजगार कालतक गला कर अल्पतर कालकी सन्धिमें विद्यमान हुए जीवके अवस्थितपदके योग्य द्रव्यके होनेपर यह स्वामित्वका विधान अविरुद्ध सिद्ध होता है। इस प्रकार अवस्थितपदके योग्य जघन्य सत्कर्मको करके वहाँ पर जघन्य स्वामित्वका अनुगम करने पर यह विशेष जानने योग्य है यह कथन करनेके लिए आगेका सूत्रावयवकलाप आया है-'जहण्णण एइंदियसमयपवद्धेण सरिसी णिजरा अवलियाए समयुत्तराए' इत्यादि । इस अवयवका अर्थ सुगम है। शंका-इस प्रकार जघन्य उपपाद योगरूपसे किसलिए परिणमाया जाता है ? समाधान--नहीं, क्योंकि अन्यथा स्वामित्वके समयमें होनेवाली जघन्य निर्जराके साथ विवक्षित समयप्रबद्धकी सदृशता नहीं बन सकती, इसलिए इस जीवको जघन्य उपपाद योगरूपसे परिणमाया है । यदि कहा जाय कि उनका सबसे जघन्यरूपसे सदृशपना नहीं होने पर भी प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान सम्भव है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है। १. आ० प्रतौ सरिसत्ताभागेण ता० प्रतौ सरिसत्ताभागे (वे) ण इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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