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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ त्रिप्पडिसेहादो । तदो एवंविण पयत्तविसेसेण तत्थ बंध काढूण बंधावलिया दिक्कतस्स पयद जहण्णसामित्तं होइ । संपहि कथमेत्थ जहण्णत्र-िहाणि-अवट्ठाणाणि जादाणि ति एदस्स णिण्णयकरणडुमिदं बुच्चदे - - एवमवद्विदस कमपाओगे एदम्मि विसये जइ आगमदो णिज्जरा एगस तकम्मपक्खेवेणणा होइ तो जहण्णव डिसा मित्तमेत्थ होइ । जइ पुण आगमदो णिज्जरा एगसंतकम्मपक्खेवमेतेण भहिया होइ तो जहण्णिया हाणी जायदे । एवं वड्डि-हाणोणमण्णदरपज्जाएण परिणदस्स से काले तत्तियं चैत्र संकामेमाणयस्स जहणयमाणं होइ त्ति घेत्तव्धं । एत्थ संतकम्मपक्वपमाणं पुरदो भणिस्सामो । एवमताधणं जहण्णवड्डि-हाणि अवड ( णसामित्तं परूविय संपहि अट्ठकसाय-भयदुछा तप्परूवणमुत्तरमुत्तपबंधमाह - * अट्टहं कसायाणं भय-दु गुंछाणं च जहरिणया वड्डी हाणी अवहाच कस्स ? ९ ६७६. सुगमं । * एइ दियकम्मेण जहणणेण संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो, तेणेव चत्तारि वारे कसायमुवसामिदा । तदो एइ दिए गदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं कालमच्छिऊण उवसामयसमयपबद्ध गलिदेसु जाघे ४०८ इसलिए इस प्रकार प्रयत्न विशेषसे वहाँ पर बन्ध करके बन्धावलिके बाद उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। अब यहाँ पर जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान कैसे हुए इस प्रकार इस बातका निर्णय करनेके लिए कहते हैं - इस प्रकार अवस्थित संक्रमके योग्य इस विषय में यदि आयकी अपेक्षा निर्जरा एक सत्कर्म प्रक्षेप न्यून होती है तो यहाँ पर जघन्य वृद्धिका स्वामित्व होता है । यदि यकी अपेक्षा निर्जरा एक सत्कर्म प्रक्षेपमात्र अधिक होती है तो जघन्य हानि उत्पन्न होती है । तथा इस प्रकार वृद्धि और हानिमेंसे किसी एक पर्यायसे परिणत हुए. जीवके तदनन्तर समयमें उतना ही संक्रम करनेपर जघन्य अवस्थान होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । यहाँ पर सत्कर्मके प्रक्षेपका जो प्रमाण है वह आगे कहेंगे । इस प्रकार अनन्तानुबन्धियों की जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका कथन कर अब आठ कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानका कथन करनेके लिए श्रागेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं— * आठ कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ९ ६७६. यह सूत्र सुगम है * कोई एक जीव एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त हुआ । उसीने चार बार कषायों का उपशम किया । तदनन्तर एकेन्द्रियों में गया और वहाँ पन्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर उपशामक
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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