SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे निरंतरबंधेण विणा अवदिसंकमसामित्तविहाणसंभवो विरोहादो । * इत्थि एवं सयवेद-हस्स-रह- अरइ- सोगाणं भुजगार - अप्पदर अवत्तव्व संकमो कस्स ? [ बंधगो ६ ९३३८. सुगमं । * पणदरस्स । 1 ९ ३३६. एत्थण्णदरणिद्द सेण मिच्छाइट्ठि-सम्माइट्ठीणं गहणं कायन्त्रं भुजगारप्पदरसामित्ताणमुहत्थ वि संभवे विरोहाभावादो । तं जहा - मिच्छाइट्ठिम्मि तात्र अप्यप्पणी बंधगद्धामेत्तकालं भुजगार संकमो होइ; तत्थागमादो णिज्जराए थोवभावोवलंभादो । तं कथं ? इत्थवेद-हस्सरीणं तक्कालबंधावलिया दिक्कतणवकबंधो संपुण्णसमयपत्रद्धमेत्तो णिञ्जरागोबुच्छा वुण समयपबद्धस्स संखेज्जभागमेत्ती चैव बंधगद्धानुसारेण सव्वत्थ संचयसिद्धीदो । णवुंसयवेदारइसोगाणं पि णत्रकबंधागमादो तक्कालभाविगोवु च्छणिज्जरा संखेजभागहीणा । एदस्स कारणं बंधगद्धाणुसरणेण वत्तन्वं । एवं च संते भुजगार संकमसा मित्तमेत्था - विरुद्धं सिद्धं । बंधविच्छेदकाले पुण अप्पयस्संकमो चैत्र दोह; तत्थागमामावेणेयं त निरन्तर बन्धके बिना अवस्थित संक्रमके स्वामित्वका विधान करना सम्भव नहीं है, क्योंकि उसमें विरोध आता है । * स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य संक्रम किसके होता है ? ९३३८. यह सूत्र सुगम है । * अन्यतर जीवके होता है । ३३. यहाँ पर अन्यतर पदका निर्देश करनेसे मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि भुजगार और अल्पतर संक्रमका स्वामित्व उभयत्र ही सम्भव होने में कोई विरोध नहीं आता । यथा - मियादृष्टिके तो अपने - अपने बन्धककालप्रमाण काल तक भुजगार संक्रम होता है, क्योंकि वहाँ पर आयसे निर्जरा स्तोक उपलब्ध होती है । शंका- वह कैसे ? समाधान — क्योंकि स्त्रीवेद, हास्य और रतिका बन्धावलिके बाद तात्कालिक जो नवकबन्ध है वह सम्पूर्ण समयबद्ध प्रमाण है । परन्तु निर्जरासम्बन्धीगोपुच्छा समय प्रबद्ध के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण ही है, क्योंकि बन्धककाल के अनुसार सर्वत्र सञ्चयकी सिद्धि होती हैं । नपुंसक वेद, और शोकके नवकवन्धके आयसे तत्कालभावी गोपुच्छाकी निर्जरा संख्यातवें भागहीन है । इसका कारण बन्धककालके अनुसार कहना चाहिए और ऐसा होने पर भुजगार संक्रमका स्वामित्व यहाँ पर अविरोध रूपसे सिद्ध होता है । बन्धविच्छेदके कालमें तो अल्पतरसंक्रम ही होता है, क्योंकि
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy