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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडि अणुभागसंकमे साण्णियासो ५७ * उक्कस्सेण अतोमुहुत्तं । १८४. सव्त्रोत्रसामणाए सव्वचिरकालमंतरिय पडिघादवसेण पुणो संकामयत्तमुनगयस्स पयदंतर समाणणोवलंभादो । एवमोघो समतो | १८५. आदेसेण सव्त्रणेरइय० सव्यतिरिक्ख-मरणुस अपज ० सव्वदेवा त्तिविहत्ति - भंगो । मणुसतिए दंसणतिय - अनंतागु०४ विहत्तिभंगो । बारसक-गवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जहण्गु० अंतोमु० । एवं जाव० । * सख्णियासी ६ १८६. अहियारपरामरससुत्तमेदं सुगमं । * मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागं संकायेंतो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जह संकामणियमा उक्कस्सयं संकामेदि । 8 १८७. मिच्छत्तुकस्सा णुभागसंकामओ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सिया संतकम्मिओ सिया असंतकम्मिओ | संतकम्मिओ वि सिया संकामओ, आवलियपविट्ठसंतकम्मियस्स वि * उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । $ १८४. क्योंकि सर्वोपशमनाके द्वारा अधिक काल तक अन्तर करके गिरने के कारण पुनः संक्रम करनेवाले जीवके प्रकृत अन्तरकाल पाया जाता है । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । § १८५. आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें अनुभागविभक्तिकेसमान भङ्ग है । मनुष्यत्रिकमें दर्शनमोहनीयत्रिक और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग अनुभागविभक्तिके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागसंक्रमका अन्तरकाल नहीं है । अजधन्य अनुभाग संक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रका अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — जो सूक्ष्म एकेन्द्रिथसम्बन्धी हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ मनुष्यत्रिकमें उत्पन्न होता है उसके मध्यकी आठ कषायका जघन्य अनुभागसंक्रम पाया जाता है। तथा चार संज्वलन और नौ नोकषायका जघन्य अनुभाग संक्रम क्षपकन गिमें उपलब्ध होता है, इसलिए मनुष्यत्रिकमें उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसंक्रमके अन्तरका निषेध किया है । तथा यहाँ पर उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उपशमश्र णिमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष अन्तर अनुभागविभक्तिके समान होनेसे उसके अनुसार जाननेकी सूचना की है। * अब सन्निकर्षका कथन करते हैं । $ १८६. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाला जीव यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करता है तो वह नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है। १८७. मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करनेवाला जींव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कदाचित् सत्कर्मवाला होता है और कदाचित् उनके सत्कर्म से रहित होता है । सत्कर्मवाला भी कदाचित् संक्रामक होता है, क्योंकि जिस जीवके उक्त कर्मोंका सत्कर्म श्रावलिके भीतर ५
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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