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________________ ५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ संभवोवलंभादो । जइ संकामओ णियमा सो उक्कस्सं संकामेइ, दंसणमोहक्खवणादो अण्णत्थ तदकस्णुणसभावाप्पत्तीदो। * सेसाणं कम्माणं उकस्सं वा अणकस्सं वा संकामेदि। 8 १८८. कुदो ! मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंकामयम्मि सोलसक०-णवणोकसायाणमुक्कस्साणुभागस्स तत्तो छट्ठाणहीणाणुभागस्स वि विसेसपच्चयवसेण संभव पडि विरोहाभावादो। * उकस्सादो अणुकस्सं छहाणपदिदं । ६ १८६. उकस्साणुभागसंकम पेक्खिऊण छहाणपदिदमणुकस्साणुभागं संकामेइ त्ति वुत्त होइ । किं कारणं १ णिरुद्धमिच्छत्तुकस्साणुभागं संकामयम्मि विवक्खियपयडीणमणुभागस्स छठाणहाणिबंधसंभवं पडि विप्पडिसेहाभावादो। ए, मिच्छत्तेण सह सेसकम्माणं सण्णियासविहाणं काऊण तेसि पि पादेक्कणिरुंभणेण सणियासविहाणमेवं चेव कायव्वमिदि परूवेदुमुत्तरसुत्तमाह * एवं सेसाणं कम्माणं णादूण णेदव्वं । ६ १६०. एदं संगहणयावलंबिसुत्त'। एदस्स विहासणद्वमुच्चारणाणुगममेत्थ कस्सामो । प्रविष्ट हो गया है ऐसे जीवका भी सद्भाव पाया जाता है। यदि संक्रामक होता है तो वह नियमसे उनके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणको छोड़ कर अन्यत्र उनका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं बनता। * वह शेष कमों के उत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रम करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी संक्रम करता है। ६१८८. क्योंकि जो मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कर रहा है उसके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके विशेष प्रत्ययवश उत्कृष्ट अनुभागके और उससे छह स्थान हीन अनुभागके पाये जानेमें कोई विरोध नहीं पाता। * किन्तु उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट अनुभाग छह स्थानपतित होता है। ६ १८६. उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमको देखते हुए छह स्थानपतित अनुत्कृष्ट अनुभागका संक्रम करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि जो विवक्षित मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कर रहा है उसके विवक्षित प्रकृतियोंके छह स्थानपतित अनुभागबन्धके होनेका कोई निषेध नहीं है। इस प्रकार मिथ्यात्वके साथ शेष कर्मोके सन्निकर्षका विधान करके अब उन कर्मोमेंसे भी प्रत्येकको विवक्षित कर सन्निकर्षका विधान इसी प्रकार करना चाहिए ऐसा कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इसी प्रकार शेष कर्मों की मुख्यतासे भी समिकर्ष जानकर कथन करना चाहिए। ६१६०. यह संग्रहनयका अवलम्बन करनेवाला सूत्र है। इसका व्याख्यान करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणका अनुगम करते हैं। यथा-सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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