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________________ १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ मिदं वयणं—'सव्वलहुं सम्मत्त पडिवण्णो संजम संजमा जमे च बहुसो लहिदाउगो' ति । एइ दिएहितो आगंतूण मणुस्सेसुप्पज्जिय तस्थ अदुषस्साणमतोमुहुत्तष्महियाणमुवरि सम्मत्तं संजम च जुगवं पडिवन्जिय संजमगुणसेढिणिज्जरं कादण तदो कमेण पलिदो० असंखे०भागमेतसम्मत्त-संजमासंजमाणताण०विसंजोयणकंडयाणि थोषणट्ठसंजमकंडयाणि च कुणमाणो गुणसेढिणिज्जरावावारेण पलिदो० असंखे०भागमेतकालमच्छिदो ति वुत्तं होइ । 'चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता' इथेदेण वि सुत्तावयषेण चउण्हमेव कसायोवसामणवाराणं संभवो णादिरित्ताणमिदि जाणाविदं । एपं च गुणसेढिणिज्जराए जहण्णीकयदव्वस्स पुणो वि पयदसामित्तोबजोगिविसेसतरपदुप्पापणहमिदं वुत्तं छावद्विसागरो० सादिरेयं सम्मत्तमणुपालिदो ति। किमट्ठमेव सादिरेयं वेछावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालाविदो ? ण, तत्तियमेतमिच्छत्तगोपुच्छाणमधडिदिगलणेण णिज्जरं कादूण जहण्णसामित्तविहाणटुं तहाकरणादो। एवं छाबहिसागरोवमाणि परिभमिय तदो मिच्छत्तं गदो ति किमद्वं वुच्चदे १ ण, मिच्छत्तेणाणतरिदस्स पुणो सागरोवमपुधत्तमेत्तकालं सम्मत्तेणावट्ठाणविरोहादो । तदेव प्रदशयमाह-पुणो तेण सम्मत्तं लद्धमिच्चादि । णेदं घडदे, इसी अर्थविशेषका ज्ञान करानेके लिए 'अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनेक बार संयम और संयमासंयमको प्राप्त किया, यह वचन पाया है। एकेन्द्रियोंमेंसे आकर तथा मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वहाँ आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त के बाद सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्तकर तथा संयमगुणश्रेणिनिर्जरा करके अनन्तर क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भाग वार सम्यक्त्व, संयमासंयम और अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनारूप काण्डकोंको करके तथा फल कम आठ संयमकाण्डकोंको करके गुणश्रेणिनिर्जराके व्यापार द्वारा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक स्थित रहा यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'चार बार कषायोंका उपशम किया' इत्यादि सूत्र बचन द्वारा भी कषायोंके चार ही उपशम बार सम्भव हैं अधिक नहीं यह ज्ञान कराया गया है। इस प्रकार गुणश्रेणिनिर्जरा द्वारा जिसने द्रव्यको जघन्य किया है उसके प्रकृत स्वामित्वमें उपयोगी और भी विशेषताका कथन करनेके लिए 'साधिक दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन किया, यह बचन कहा है। शंका-इस प्रकार साधिक दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन किसलिए कराया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वकी तावन्मात्र गोपुच्छाओंकी अधःस्थितिगलनाके द्वारा निर्जरा करके जघन्य स्वामित्वका विधान करनेके लिए वैसा किया है। शंका-इस प्रकार दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करके अनन्तर मिथ्यात्वमें गया ऐसा किसलिए कहते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वके द्वारा अन्तरको नहीं प्राप्त हुए उक्त जीवका पुनः सागरपृथक्त्व काल तक सम्यक्त्वके साथ रहनेमें विरोध आता है। अतः इसी बातको दिखलाते हुए 'पुनः उसने सम्यक्त्वको प्राप्त किया' इत्यादि वचन
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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