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२६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ * एवं सोलसंकसाय-पुरिसवेद-भय दुगुंछाणं ।
६३११.एदेसिं च कम्माणं मिच्छत्तस्सेव भुजगार-अप्पयर-अवट्ठिद-अवत्तव्यसंकामयाणमत्थित्तं समुक्कित्तियबामदि भणिदं होइ। जत्थागमादो णिज्जरा थोवा, तत्थ भुजगारसंकमो, जत्थागमादो णिज्जरा बहुगी एयंतणिज्जरा चेव वा, तत्थ अप्पयरसंकमो। जम्हि विसए दोण्हं पि सरिसभावो, तम्हि अवविदसंकमो । असंकमादो संकमो जत्थ, तत्थावत्तव्यसंकमो त्ति पुव्वं व सबमेत्थाणुगंतव्यं । णवरि अवत्तव्यसंकमो बारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुछाणं सव्योवसामणापडिवादे अणताणुवंधोणं च विसंजोयणा [ण] अपुब्बसंजोगे दट्टव्यो ।
* एवं चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-इत्थिवेद-णबुंसयवेद-हस्स-रह-रहसोगाणं । णवरि अवढिदसंकामगा पत्थि।।
६ ३१२. संपहि भुजगार-अप्पदरावत्तव्बसंकामयसंभवो एदेसु सुगमो त्ति कट्ट अवविदसंकमासंभवे किं चि कारणपरूवणं कस्सामो। सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं ताव गावट्टिदसंकमसंभवो; बंधसंबंधेण विणा तेसिमागमणिज्जराणं सरिसीकारणो वायाभावादो। इत्थिवेदादीणं पि सांतरबंधीणं सगबंधकाले भुजगारसंकमो चेत्र; णिज्जरादो तत्थागमस्स बहुत्तोवलंभादो। अबंधकाले वि अप्पयरसंकमो चेव; पडिसमयं तेसिं पदेसग्गस्स तत्थ
* इसी प्रकार सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए।
६३११. इन कर्मों के मिथ्यात्वके समान भुजगार,अल्पतर,अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकोंके अस्तित्वका समुत्कीर्तन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जहाँपर आगमके अनुसार निर्जरा स्तोक है वहाँ पर भुजगारसंक्रम होता है, जहाँ पर आगमके अनुसार निर्जरा बहुत हैएकान्तसे निर्जरा ही है वहाँपर अल्पतरसंक्रम होता है. जहाँपर दोनोंकी ही समानता है वहाँपर अवस्थितसंक्रम होता है और जहाँपर असंक्रम अवस्थाके बाद संक्रम है वहाँपर अवक्तव्यसंक्रम होता है । इस प्रकार पहलेके समान सब यहाँ पर जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका अवक्तव्यसंक्रम सर्वोपशामनासे गिरने पर और अनन्तानुबन्धियोंका अवक्तव्यसंक्रम विसंयोजनापूर्वक संयोगके होने पर जानना चाहिए।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है इनके अवस्थित संक्रामक जीव नहीं हैं।
६३१२. अब इन प्रकृतियों के विषयमें भुजगार,अल्पतर और अवक्तव्य संक्रामकोंकी जानकारी सुगम है इसलिए अवस्थित संक्रमकी सम्भावनामें जो कुछ कारण है उसका - कथन करते हैंसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका तो अवस्थितसंक्रम इसलिए सम्भव नहीं है, क्योंकि बन्धके सम्बन्धके बिना उनके आगमन और निर्जराको एक समान करनेका कोई उपाय नहीं है । स्त्रीवेद आदि भी सान्तर.बन्ध प्रकृतियोंका अपने बन्धकालमें भुजगारसंक्रम ही होता है, क्योंकि वहाँ पर निर्जराकी अपेक्षा प्रदेशोंका आगमन बहुत देखा जाता है। अबन्धकालमें भी अल्पतरसंक्रम ही होता है, क्योंकि प्रति समय वहाँ पर उनके प्रदेशोंकी निर्जराको छोड़कर सन्चय नहीं पाया जाता।