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________________ ४१२ जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ® हस्स-रदोणं जहणिया वड्डी कस्स ? ६६८२. सुगममेदं पुच्छावक । णरि हाणिविसया वि पुच्छा एत्थेव णिलीणा ति दट्ठव्या, दोपणमेगपघट्टएण सामित्तणिद्देसदसणादो। * एइंदियकम्मेण जहणणएण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लङ्कण चत्तारि वारे कसाए उवसामेऊण एइंदिए गदो, तदो पलिदोवमस्सासंखेजदिभागं कालमच्छिऊण सएणो जादो। सव्वमहंतिमरदि-सोगबंधगड कादूण हस्स-रइओ पषडानो पढमसमयहस्स-रइ-बंधगस्स तप्पाओग्गजहएणी बंधो च भागमो च, तस्स श्रावलियहस्स-रइबंधमाणयसस जहरिणया हाणो। ६६८३. एत्थ जहण्णेई दियकम्मावलंबणे बहुसो संजमासंजमादिपडिलंभे चदुक्खुत्तो कसायोवसामणापरिणामे पुणो एई दिएसु पलिदोवमासंखेजभागमेत्तप्पदरकालावट्ठाणे च पुव्वं व १पयोजणुववण्णणं कायवं, विसेसामावादो । तदो सगी जादो। किमट्ठमेसो पुणो वि सणोसुप्पाइदो ? ण, सव्वमहत्ति पडिवक्खबंधगद्ध तत्थ गालेदण * हास्य और रतिकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? ६ ६८२. यह पृच्छावचन सुगम है । किन्तु इतनी विशेषता है कि हानिविषयक पृच्छा भो इसी सूत्र में गर्भित है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि दोनोंका एक ही रचना द्वारा स्वामित्वका निर्देश देखा जाता है। ___* कोई एक जोव एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्मके साथ संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त कर तथा चार बार कषायोंको उपशमाकर एकेन्द्रिय पर्यायमें गया । तदनन्तर पन्यके असंख्योतवें भागप्रमाण कालतक रह कर संझी हो गया । वहाँ अरति शोकके सबसे बड़े बन्धककालको करके हास्य-रतिका बन्ध किया। हास्य और रतिका बन्ध करनेवाले उसके प्रथम समयमें जघन्य बन्ध है और अन्य प्रकृतिथोंमेंसे संक्रमित होनेवाले द्रव्यको आय है। एक आवलि काल तक हास्य-रतिका वन्ध करनेवाले उस जीवके जघन्य हानि होती है। ६६८३. यहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कका अवलम्बन करने पर उसने बहुत बार संयमासंयम आदि की प्राप्ति की, चारबार कषायोंका उपशम किया, पुनः एकेन्द्रियोंमें पल्वके असंख्यातवें भागप्रमाण अल्पतर कालतक अवस्थित रहा इन सबका पूर्वके समान वर्णन करना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विशेषता नहीं है । उसके बाद संज्ञी हो गया। शंका-इसे पुनः संज्ञियोंमें किसलिए उत्पन्न कराया है ? समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पर सबसे बड़े प्रतिपक्ष बन्धक कालको गलाकर गलकर शष १ आ०प्रतौ पयोजणाणुव- ता० प्रतौ पयोज [ णा ] णुव इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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