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________________ १२४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ वड्डी सामित्तविणिण्णयं काढूण संपहि एत्थ उकस्सावद्वाणस्स वि सामित्तविहाणमुत्तर सुत्तायारो * तस्स चेव से काले उक्कस्सयमवद्वाणं । ९ ५५८. जो उकस्सीए सामित्तेण परिणदो तस्सेव तदनंतरसमए उकस्सयमवट्ठाणं दट्ठव्त्रं । कुदो ? तत्थुकस्सवपिमाणेण संकमडाणावट्ठाणदंसणादो । संपहि उकस्सहाणिविसयसा मित्तगवेसणद्वमुत्तरमुत्तं— * उक्कस्सिया हांणी कस्स ? ६ ४५६. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । * जस्स उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं तेण उक्कस्सयमणुभागखंडयमागाइदं तम्मि खंडये घादिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी । ६ ४६०. जस्स उकस्सयमणुभागसंतकम्मं जादं तेण विसोहिपरिणदेण सव्वुक्कस्सयमरणुभागखंडयमागाइदं तदो तम्मि खंडये घादिजमाणे घादिदे तत्थुक्कस्सिया हाणी होइ, तत्थाणुभागसंतकम्मस्साणंताणं भागाणमसंखेजलोगमेत्तछाणावच्छिणाणमेकवारेण हाणि - दंसणादो | संपहि किमेसा उकस्सिया हाणी उकस्सवपिमाणा, आहो ऊणा अहिया वाि एवंविहसंदेहणिराय रणमुहेण अप्पा बहुअसाहणमेत्थ किंचि अत्थपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भण - उत्कृष्ट वृद्धि स्वामित्वका निर्णय करके अब यहाँ पर उत्कृष्ट अवस्थानके भी स्वामित्वका विधान करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है * तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । ९ ४५८. जो उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी जानना चाहिए, क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट वृद्धिके प्रमाणसे संक्रमका अवस्थान देखा जाता है । अब उत्कृष्ट हानिविषयक स्वामित्वका विचार करनेके लिए श्रागेका सूत्र कहते हैं * उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? ६ ४५६. यह पृच्छासूत्र सुगम है । * जिसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म है वह जब उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको ग्रहण कर उस काण्डका घात करता है तब वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । ९ ४६०. जिसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म विद्यमान है, विशुद्धि से परिणत हुए उसने सबसे उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको ग्रहण किया । अनन्तर जब वह उस काण्डकका घात करते हुए पूरी तरहसे घात कर देता है तब उसके उत्कृष्ट हानि होती है, क्योंकि वहाँ पर अनुभागसत्कर्मके असंख्यातलोकप्रमाण छह स्थानोंसे युक्त अनन्त भागोंकी हानि देखी जाती है । अब यह उत्कृष्ट हानि क्या उत्कृष्ट वृद्धि के बराबर है अथवा उससे न्यून या अधिक है इस प्रकार इस तरह के सन्देहको दूर करने के अभिप्राय से अल्पबहुत्वकी सिद्धि करनेके लिए कुछ अर्थप्ररूपणाको करते हुए आगेकी सूत्रपरिपाटीका कथन करते हैं
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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