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________________ ४१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ३ गालिय जत्थ जहण्णएण एइंदियसमयबद्धेण सरिसी णिज्जरा होइ तत्थ जहण्णसामित्तविहासणहमिदमाह--'जाधे बंधेण सरिसी णिजरा हवइ ताधे' इञ्चादि । एदस्सत्थोउवसामयसमयपबद्धेसु गलिदेसु जाधे सामित्तसमयादो समयुत्तरावलियमेत्तमोसक्किऊण बद्धतप्पाओग्गजहण्णेई दियसमयपबद्धेण सामित्तसमकालभाविणी णिजरा सरिसी भवदि ताधे एदेसि पयदकम्माण जहण्णवड्डि-हाणि-अबढाणाणि होति, एगसंतकम्मपक्खेवणिबंधणजहण्णवड्डि-हाणि-अवट्ठाणाणमेत्थ दंसणादो। * चदुसंजलणाणं जहपिणया वड्डी हाणो अवट्ठाणं च कस्स ? ६ ६७८. सुगमं । कसाए अणुवसामेऊण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लडाण एइंदिए गदो। जाधे बंधेण णिजरा तुल्ला ताधे चदुसंजलणस्स जहणिया वड्डी-हाणो अवठ्ठाणं च। ६६७६. किमट्ठमेत्य चदुक्खुत्तो कसायोवसामणं ण इच्छिजदे १ ण, उवसमसेढीए चदुसंजलणाणं बंधसंभवेण सेसाबज्झमाणपयडीणं गुणसंकमपडिग्गहे तत्थ पयदोवजोगि - सत्कर्मकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसलिए उक्त जीवको एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट कराया है। इस प्रकार उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गला कर जहाँ पर एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान निर्जरा होती है वहाँ पर जघन्य स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए यह वचन कहा है-'जाधे बंधेण सरिसी णिज्जरा हवह ताधे, इत्यादि । इसका अर्थ-उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंके गला देने पर जब स्वामित्वके समयसे एक समय अधिकावलि मात्र पीछे जाकर बन्धको प्राप्त हुए एकेन्द्रिय सम्बन्धी तत्प्रायोग्य जघन्य समयप्रवद्ध के समान स्वामित्वके कालमें होनेवाली निर्जरा होती है तब इन प्रकृत कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते हैं, क्योंकि एक सत्कर्मप्रक्षेपनिमित्तक जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान यहाँ पर देखे जाते हैं। * चार संज्वलनोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ६६७८. यह सूत्र सुगम है। * कषायोंका उपशम किये विना अनेक बार संयम और संयमासंयमको प्राप्त कर एकेन्द्रिय पर्यायमें मर कर उत्पन्न हुआ। वहाँ जब बन्धक समान निर्जरा होती है तब चार संज्वलनोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है। ६६७६. शंका-यहाँ पर चार बार कषायोंकी उपशमक्रिया किसलिए स्वीकार नहीं की समाधान-नहीं, क्योंकि उपशमन णिमें चारों संज्वलनोंका बन्ध सम्भव होनेसे नहीं बंधनेवाली शेष प्रकृतियोंका गुणसंक्रमके द्वारा प्रतिग्रह होने पर वहाँ पर प्रकृतमें उपयोगी फलविशेष
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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