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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ १४४६. तं जहा - पंचिदिए भुजगार संकमस्सादि कादूई दिएस पलिदोवमासंखेजमागमेत्तप्पयर कोलेणंतरिय पुणो असष्णिपंचिदिएस देवेसु च समयाविरोहेण जाकममुपजय तदो सम्मत्तं घेत्तण बेछावट्टिसागरोवमाणि परिभमिय तदवसाणे मिच्छत्तं गंतूण भुजगार संकामगो जादो लद्धमंतरं पयदभुजगारसंक्रामयस्स पलिदोवमस्सा. संखेदिभागेण सादिरेयवेछा वहिसागरोवममेतमुकस्सेण संपहि अप्पयर संकमस्स उच्चदे । तं जहा – एक्को मिच्छाइट्ठी उवसमसम्मत्तं घेत्तण तक्कालब्भंतरे चैव विसंजोयणाए अमुट्ठिदो । तत्थापुत्रकरणपढमसमए पयदंतरस्सादि काढूण कमेण वेदयसम्मत्त' पडि - वजय पढम बिदियछावट्ठीओ सम्मामिच्छत्तंतरिदाओ जहाकममणुपालिय तदवसाणे परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गदो तत्थ वि पलिदोवमासंखेज भागमेत्तकालं भुजगारसंकाओ होण तदो अप्पयर संकामओ जादो लद्धमंतरमुकस्सेण पदयप्पयरसंकामयस् पुव्विल तोमुहुत्ते पच्छिल्ल पलिदोवमा संखेज्जदिभागेण च सादिरेयबेछावट्टिसागरोवममेत्तं । * अवद्विदसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ३३६ ४५०. सुगमं । * जहणणेणेयसमचो । § ४५१. तं जहा – अबट्ठिदसंकमादो भुजगारमप्पदरं वा एयसमयं काढूण तदणंतरसम पुणो वि अवदि संकामओ जादो लद्धमंतरं । ६४४६. यथा - - कोई एक जीव पञ्चेन्द्रियोंमें भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके एकेन्द्रियोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रह कर पुनः असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों और देवोंमे यथाविधि क्रमसे उत्पन्न होकर अनन्तर सम्यक्त्वको ग्रहण कर दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर भुजगारसंक्रामक हो गया। इसप्रकार प्रकृत भुजगार संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छ्यासठ सागर प्रमाण प्राप्त हो गया । अब अल्पतरसंक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहते हैं । यथा— कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण कर उस कालके भीतर ही विसंयोजना के लिए उद्यत हुआ । वहाँ पर वह अपूर्व - करण के प्रथम समय में प्रकृत संक्रमके अन्तरकालका प्रारम्भ करके तथा क्रमसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर सम्यग्मिथ्यात्वसे अन्तरित प्रथम और द्वितीय छयासठ सागर कालका क्रमसे पालन करके उनके अन्तमें परिणामवश मिध्यात्व में जाकर वहाँ पर भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक भुजगार संक्रामक होकर अनन्तर अल्पतर संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत अल्पतर संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल पहलेका अन्तर्मुहूर्त और बादका असंख्यातवाँ भाग अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण प्राप्त हो गया । * अवस्थितसंक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६४५०. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल एक समय है । ६ ४५१. यथा— अवस्थित संक्रमके बाद एक समय तक भुजगार या अल्पतर संक्रम करके उसके अनन्तर समयमें फिर भी अवस्थित संक्रामक हो गया। इस प्रकार जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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