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जयधवलासाहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ६ ३२. पुनसुत्तुद्दिद्रुतेवीसमणिओगद्दाराणं चूलियाभूदेहि एदेहि तीहि अणियोगभेदेहि मूलपयडिअणुभागसंकमो अवगंतव्यो, अण्णहा तबिसयविसेसणिण्णयाणुप्पत्तीदो त्ति भणिदं होदि ।
६ ३३. संपहि एदेसि तेवीसमणिओगद्दाराणं सचूलियाणं सुगमत्तादो चुण्णिसुत्तयारेण णामुद्देसमेत्तेणेव परूविदाणमुच्चारणाइरियफ्रूविदविवरणमणुवत्तइस्सामो । तं जहा—मूलपयडिअणुभागसंकमे तत्थ इमाणि २३ तेवीस अणियोगद्दाराणि—सण्णा जाव अप्पाबहुए ति भुज० पदणिक्खेत्रो वड्डी चेदि। तत्थ सण्णा दुविहा–घादिसण्णा ठाणसण्णा च । तदुभयपरूषणाए अणुभागविहतिभंगो । सत्रसंकमो णोसन्धसंकमो उक्कस्ससंकमो अणुकस्ससंकमो जहण्णसंकमो अजहण्णसंकमो इच्चेदेसि च परूषणाए विहत्तिभंगो चेव, विसेसाभावादो।
३४. सादि-अणादि-धुव-अधुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेणय। ओघेण मोह० उक्क० अणुक० जह० अणुभागसंकमो कि सादि० ४ १ सादी अधुवो । अज० कि सादी० ४ १ सादी अगादी धुनो अधुरो वा । सेसासु मग्गणासु उक्क० अणुक० जह० अजह० सादी अद्ध वो च ।
६३२. पूर्व में निर्दिष्ट किये गये तेईस अनुयोगद्वारोंके चूलिकारूप इन तीन अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रमको जानना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक विशेष निर्णय नहीं बन सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
___६३३. अब सुगम होनेसे चूर्णिसूत्रकारके द्वारा केवल नामोल्लेखरूपसे कहे गये चूलिकासहित इन तेईस अनुयोगद्वारोंके उच्चारणाचार्यद्वारा कहे गये विवरणको बतलाते हैं। यथा-मूलप्रकृतिअनुभागसंक्रममें संज्ञासे लेकर अल्पबहुत्वतक ये तेईस अनुयोगद्वार होते हैं। तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ये तीन अनुयोगद्वार और होते हैं। उनमें संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । इन दोनोंका कथन अनुभागविभक्तिके समान है। तथा सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम और अजघन्यसंक्रम इनका कथन भी अनुभागविभक्तिके समान ही है, क्योंकि वहाँसे यहाँ कोई विशेषता नहीं है।
६३४. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे मोहनीयका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग संक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य अनुभागसंक्रम क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि, ध्रुव और अध्रुव है । शेष गतिसन्बन्धी मार्गणाओंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जवन्य और अजवन्य, अनुभागसंक्रम सादि और अध्र व है।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम और अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम कादाचित्क हैं। तथा जवन्य अनुभागसंक्रम क्षपकनोणिमें यथास्थान होता है अन्यत्र नहीं, इसलिए ये तीनों अनुभागसंक्रम सादि और अध्रुव कहे हैं। अब रहा अजवन्य अनुभागसंक्रम सो यह क्षायिकसम्यग्दृष्टिके उपशान्तमोह गुणस्थानमें नहीं होता। किन्तु वहाँसे किरने पर पुनः होने लगता है, इसलिए तो सादि है और उस स्थानको प्राप्त होनेके पूर्वतक अनादि है। तथा भव्योंकी अपेक्षा अध्र व और अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव है । इस प्रकार अजघन्य अनुभागसंक्रम चारों प्रकारका है। यह ओघप्ररूपणा