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गा० ५८ ]
अणुभागसंक मे सामित्त'
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९ ३५ सामित्तं दुविहं – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसो – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० अणुभागसंकमो कस्स १ अण्णदरस्स उकस्सारणुभागं बंधिणावलियादीदस्स अण्णदरगदीए वट्टमाणयस्स । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुभागसंकमो कस्स १ अण्णदरस्स उक्कस्साणुभागं बंधियूणावलियादीदस्स । एवं सव्त्ररइय ० - सव्वतिरिक्ख ० - सन्यमणुस ० - सव्वदेवा त्ति । णत्ररि पंचि ० तिरि० अपज्ज०मणुस अपज्ज० - अणदादि सट्टा त्तिविहत्तिभंगो । एवं जाव० ।
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३६. जहणए पदं । दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागको कस ? अण्णदरस्स खत्रयस्त समया हियावलियचरिमसमयसकसायस्स । एवं मसतिए । सेसमग्गणासु विहतिभंगो ।
है। आदेश से गतिसम्बन्धी सब मार्गणाओं में उत्कृष्ट आदि चारों भंग सादि और अध्रुव होते हैं, क्योंकि सब मार्गणाएँ कदाचित्क हैं, अन्य मार्गणाओं की अपेक्षा यदि विचार करें तो मात्र अचतुदर्शनमार्गणामें ओघ के समान भङ्ग जानना चाहिए तथा भव्यमार्गणा में ध्रुव भङ्ग नहीं होता । कारण स्पष्ट है ।
३५. स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओ और आदेश । श्रघसे मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जिसका एक आवलि काल गया है ऐसा अन्यतर गतिमें विद्यमान जीव उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जिसका एक अवलि काल गया है ऐसा अन्यतर नारकी जीव मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका स्वामी है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्य, सब मनुष्य और सब देवोंतें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेके बाद एक आवलि काल व्यतीत होने पर ही उसका संक्रम सम्भव है, इसलिए यहाँ पर बन्धावलिके बाद ही मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके संक्रमका स्वामित्व दिया है । श्रघसे तो यह बन ही जाता है । किन्तु चारों गतियोंके अवान्तर भेदोंमें जहाँ जहाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है उन मार्गणाओं में भी यह बन जाता है । मात्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनतादि कल्पों के देशों नें यह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें उसे अनुभागविभक्तिके उत्कृष्ट स्वामित्वके समान जाननेकी सूचना की है।
३६. जवन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— श्रघ और श्रादेश । श्रोघसे मोहनीयके वन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी कौन है ? जिसके सकषाय अवस्थामें एक समय अधिक श्रावलि काल शेष है ऐसा अन्तिम समय में विद्यमान अन्यतर क्षपक जीव मोहनीयके जघन्य अनुभागसंक्रमका स्वामी हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। शेष मार्गणाओं में अनुभाग विभक्तिके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - मोहनीयका जघन्य अनुभागसंक्रम क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके कालमें एक समय अधिक एक अवलि काल शेष रहने पर होता है, क्योंकि संक्रमके योग्य सबसे जघन्य अनुभाग यहीं