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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो तदियसमए अप्पदरेणावट्ठिदेण वा अंतरियचउत्थसमए पुणो वि भुजगारसंकामगो जादो लद्धमेगसमयमेत्तं पयदजहणंतरं । दुसमयो वा पुत्रं व आदि काढूण दोसु समएसु विरुद्धपदेणंतरिय पुणो पंचसमयम्मि भुजगारसंकमपरिणदम्मि तदुवलद्धीदो । एवं तिसमय चदुसमयादिकमेणेद मंतरं वड्डाविय दव्वं जाव सम्माट्ठ - पढमावलियबिदियसमए पुव्वं व आदि काढूण पुणो तदियादिसमएस पणिवक्खपदसंकमेणंतरिय पढमा - वलिय चरिमसमए भुजगार संक्रमेण लद्धमंतरं काढूण ट्ठिदो ति । एवं कदे तिसमऊणावलियमेत्ता चैव पयदं तरत्रिया समयुत्तरकमेण लद्धा होंति; एत्तो उवरि लद्धमंतरकरणोवायाभावादो । एवं पुत्रप्पण्णसम्मत्तमिच्छा इट्ठिपच्छायद वेदयसम्माइट्ठिपढमावलियावलंबणेण तिसमऊणावलियमेत्तंतर-वियप्पपदुप्पायणं काढूण एतो अण्णत्थ जहणंतरमंतोमुहुत्तादो हेडा गोलभदि ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ | ३२६ * अधवा जहणणे अंतोमुहुत्तं । § ४२६. तं कथं ? उवसमसम्मा इट्ठिगुणसंकमेण भुजगारं संकममादिं कादूण विज्झादेणंतरिय पुणो सन्चलहु दंसणमोहक्खवणाए अब्भुट्टिदो तस्सापुव्त्रकरण पढमसमए होने पर उसका प्रारम्भ हुआ । अनन्तर तीसरे समय में अल्पतरसंक्रम या अवस्थितसंक्रमके द्वारा अन्तर करके चौथे समयमें फिरसे भुजगार संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया । अथवा दो समय अन्तर है, क्योंकि पहले के समान भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके उसके बाद दो समय तक विरुद्ध पदोंके द्वारा अन्तर करके पुनः पाँचवें समय में भुजगार संक्रमसे परिणत होने पर उक्त दो समय अन्तर कालकी उपलब्धि होती है । इस प्रकार तीन समय और चार समय आदिके क्रमसे अन्तर कालको बढ़ाकर सम्यग्दृष्टिकी प्रथम आवलिके द्वितीय समय में पहले के समान भुजगार संक्रमका प्रारम्भ करके पुनः द्वितीयादि समयोंमें प्रतिपक्ष पदोंके संक्रमण द्वारा उसका अन्तर करके प्रथम आवलिके अन्तिम समयमें भुजगार संक्रमके द्वारा अन्तरको प्राप्त करके स्थित होने तक ले जाना चाहिए। ऐसा करने पर एक एक समय अधिक के क्रमसे तीन समय कम एक आवलि प्रमाण ही प्रकृत अन्तर कालके विकल्प प्राप्त होते हैं, क्योंकि इनसे अधिक अन्तर करनेका अन्य कोई उपाय नहीं प्राप्त होता । इस प्रकार पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्त्रमें आकर पुनः वेदक सम्यग्दृष्टि हुए जीवके प्रथम आवलिके अवलम्बन द्वारा तीन समय कम श्रावलि प्रमाण अन्तर कालके विकल्पोंको उत्पन्न करके इसके सिवा अन्यत्र जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं उपलब्ध होता इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * अथवा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है । ६४२६ शंका - वह कैसे ? समाधान — कोई उपशम सम्यग्दृष्टि जीव गुणसंक्रमके द्वारा भजगार संक्रमका प्रारम्भ करके और विध्यात संक्रमके द्वारा उसका अन्तर करके पुनः अति शीघ्र दर्शनमोहकी क्षपण के लिए उद्यत हुआ । उसके अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुणसंक्रमका प्रारम्भ हो जाने से प्रकृत अन्तर ४२
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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