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________________ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ३६६ ५६०. णेदमुक्कस्संतरविहाणं घडतयमुवसमसम्मत्तग्गाहयाणमुक्कस्संतरस्स सत्तरादिदियपमाणं मोत्तूण सादिरेयचउच्वीसाहोरत्तपमाणताणुवलद्धीदी । एत्थ परिहारो उच्चदे-होउ णामोवसमसमत्तग्गाहीणं सत्तरादिदियमेत्तुक्कस्संतरणियमो, तत्थ विसंघादाणुवलंभादो । किंतु णीसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुवसमसम्मत्तं गेण्हमाणाणमेदमुक्कस्संतरमिह सुत्ते विवक्खियं, ससंत'कम्मियाणमुवसमसम्मत्तग्गहणे अवत्तव्वसंकमसंभवाणुवलंभादो । ॐ अप्पयसंकामयाणं णत्थि अंतरं । ६५६१. कुदो ? सम्मामिच्छत्तप्पयरसंकामयवेदयसम्माइट्ठीणमुव्वेन्लमाणमिच्छाइट्ठीणं च पवाहोच्छेदेण विणा सव्वद्धमवट्ठाणणियमादो।। * अणंताणुबंधीएं भुजगार-अप्पदर-अवट्टिदसंकामयंतरं त्थि । ६५६२. कुदो ? सव्वद्धमेदेसिमवच्छिएणपवाहकमेणावट्ठाणदंसणादो। ® अवत्तव्वसंकामयाणमंतरं केवचिरं ? ६ ५६३. सुगमं । * जहएणेण एयसमो । F५६०. शंका यह उत्कृष्ट अन्तरकालका कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन प्रमाण इसे है, छोड़कर साधिक चौबीस दिन-रात्रिप्रमाण नहीं उपलब्ध होता ? समाधान-यहाँ पर उक्त शंकाका परिहार करते हैं-उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंके सात रात्रि-दिनप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकालका नियम होओ, क्योंकि इसमें कोई विसंवाद नहीं उपलब्ध होता । किन्तु जिन्होंने सम्यग्मिथ्यात्वको निःसत्त्व कर दिया है ऐसे उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले जीवोंका यह उत्कृष्ट अन्तरकाल यहाँ सूत्र में विवक्षित है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व की सत्तावाले जीवोंके उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करने पर अवक्तव्य संक्रम सम्भव नहीं है। * अन्पतर संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है । ६५६१. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर संक्रम करनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टियोंका तथा उसीकी उद्वेलना करनेवाले मिथ्यादृष्टियों के प्रवाहका विच्छेद हुए बिना सर्वदा अवस्थान रहनेका नियम है। * अनन्तानुबन्धियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित संक्रम करनेवालोंका अन्तरकाल नहीं है। ६५६२. क्योंकि इनका सर्वत्र अविच्छिन्न प्रवाहक्रमसे अवस्थान देखा जाता है। * अवक्तव्य संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है ? ६५६३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। १. ता. प्रतौ सत्संत ( तस्संत ) इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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