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________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६११५. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सम्मामि० उक्क० पदे०संक० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सम्म०-अणंताणु०४ । णवरि अणु० जह० अंतोमुहुत्तं । बारसक०-णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक्क० एयसमओ । एवं सचणेरइय०। णवरि सगहिदी देसूणा । विशेषार्थ--सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्षपणाके समय होता है इससे यहाँ पर उनके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरकालका निषेध किया है। अब रहा अनुत्कृष्टके अन्तरकालका विचार सो सादि मिथ्यादृष्टिका मिथ्यात्वमें रहनेका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी दर्शनमोहनीयका संक्रमण नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे भी मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त ले आना चाहिए। कोई सादि मिथ्यादृष्टि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक उसकी सत्तारहित रहता है। तथा कोई सादि मिथ्या दृष्टि प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वका सर्वसंक्रम द्वारा अभाव करके और दूसरे समयमें उपशम सम्यग्दृष्टि होकर तीसरे समयमें पुनः उसका संक्रम करने लगता है, इसलिए यहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। सम्यक्त्वका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है यह स्पष्ट ही है। मात्र यहाँ पर सम्यक्त्वकी सत्तावाले सादि मिथ्यादृष्टिको अन्तमुहूर्त तक सम्यक्त्वमें रख कर मिथ्यात्वमें ले जाकर जघन्य अन्तर घटित करना चाहिए। तथा उत्कृष्ट अन्तर उद्वेलनाके बाद उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक मिथ्यात्वमें रखकर तदनन्तर उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कराके पुनः मिथ्यात्वमें ले जाकर लाना चाहिए। विसंयोजनापूर्वक सम्यक्त्वका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है यह देखकर अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण कहा है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंका उपशम श्रेणीमें मरणकी अपेक्षा एक समय और चढ़कर उतरनेकी अपेक्षा अन्तमुहूर्त संक्रमका अन्तर बन जाता है, इसलिए यहाँ पर इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त ६११५. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। बारह कषाय और नौ नोकपायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ—सामान्य नारकियों और प्रत्येक पृथिवीके नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमका अन्तरकाल न होनेका कारण यह है कि इनमें दो बार इनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सम्भव नहीं। इसी प्रकार आगेकी मार्गणाओंमें भी जानना चाहिए। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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