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________________ गा०५८] उत्तरपडिपदेससंकमे एयजीवेण अंतरं ૨૨૫ कादण अंतरिय अणुकस्सपरिणामेसु असंखे०लोगपमाणेसु तेत्तियमेत्तकालमच्छिऊण पुणो सव्वलहुँ गुणिदकिरियासंबंधमुवसामिय पुव्वुत्तेणेव कमेण पडिवण्णतब्भावम्मि तवलंभादो। * उकस्सेण उवड्डपोग्गलपरियह । १११३. पुव्वुत्तविहाणेणेवादि करिय अंतरिदस्स देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालं परिममिय तदवसाणे गुणिदकम्मंसिओ होदूण सम्मत्तमुप्पाइय पुव्वं व पडिवण्णतब्भावम्मि तदुवलद्धोदो। ६११४. एवमोघेणुकस्सपदेससंकामयंतरसंभवासंभवणिण्णयं कादण संपहि एदेण सूचिददेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-अंतरं दुविहं जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मिच्छ०-सम्मामि० उक्क० पदे० संका० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क. उवड्वपोग्गलपरियट्ट। णवरि सम्मामि० अणु० जह० एयस० । सम्म० मिच्छत्तमंगो। अणताणु०४ उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह० अंतोमु०, उक्क० वेछावद्विसागरो० सादिरेयाणि । बारसक०-णवणोक० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० ।' प्रदेशसंक्रमके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंमें उतने ही काल तक रहकर पुनः अतिशीघ्र गुणितक्रियाविधिको उपशमा कर पूर्वोक्त क्रमसे हो उक्त कर्मों के उत्कृष्ट भावके प्राप्त होने पर उक्त अन्तर प्राप्त होता है। * उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। ६ ११३. पूर्वोक्त विधिसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमके अन्तरका प्रारम्भ करके तथा कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें गुणित कर्मा शिक होकर तथा सम्यक्त्वको उत्पन्नकर पहिलेके समान उत्कृष्ट भावके प्राप्त होने पर उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है। ६११४. इस प्रकार ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकके अन्तरसम्बन्धी सम्भवासम्भव भावका निर्णय करके अब इससे सूचित होनेवाले आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । ओघसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है । सम्यक्त्यका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमहर्स है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। १ ता० प्रतौ 'अणु० जह• अंतोमु• एयस०' इति पाठः । २६
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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