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________________ २८४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * भए जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । ६ २८१. केत्तियमेतेण १ पय डिविसेसमेत्तेण । * माणसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहियो । २८२. केत्तियमेतेण १ चउब्भागमेत्तेण । * कोहसंजलणे जहणपदेससंकमो विसेसाहिओ । * मायासंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहियो । [ बंधगो ६ * लोहसंजलणे जहण्णपदेससंकमो विसेसाहिओ । 1 ९ २८३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं णिरयोघजहण्णप्पाबहुअं गयं । एसो चैव अप्पा बहुआलावा सत्तसु पुढवीसु अणुगंतव्त्रो, विसेसाभावादो | * जहा पिरयगईए तहा तिरिक्खगईए । २८४. सुगममेदमप्पणा सुत्तमप्पा बहुआलावगयत्रिसेसाभावमस्सिऊण पयट्टत्तादो । तदो खेरइयगईए अप्पा बहुगमणूणाहियं तिरिक्खगईए वि जोजेयव्त्रं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए मणुसतिए ओघभंगो | णवरि मरणुस्सिणीसु मायासंजलणस्सुवरि पुरिसवेदजहण्णपदेससंकमो असंखेज्जगुणो । तदो हस्से जहण्णपदेससंकमो संखेज्जगुणो । सेसमोघभंगेण णेदव्वं । पंचिं० तिरि०अपञ्ज • मणुस अपज्जत्तएस एवं दियभंगेणप्पा बहुअ मुवरि कस्सामो | 1 * उससे भयका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । २८१. कितना अधिक है ? प्रकृतिविशेषमात्र अधिक है । * उससे मानसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । § २८२. कितना मात्र अधिक है ? चतुर्थभागमात्र अधिक है । * उससे क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे मायासंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । * उससे लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक है । ६२८३. ये सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार सामान्य नारकियोंका जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । यही अल्पबहुत्वका कथन सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है। * जिस प्रकार नरकगतिमें है उसी प्रकार तिर्यञ्चगतिमें जानना चाहिए । § २८४. यह अर्पणासूत्र सुगम हैं, क्योंकि अल्पबहुत्वगत विशेषता नहीं है इस बातका आश्रय लेकर इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है। इसलिए नरकगतिमें जो अल्पबहुत्व है उसे न्यूनाधिकता के बिना तिर्यञ्चगतिमें भी लगाना चाहिए । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिक के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें मायासंज्वलनके ऊपर पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसंक्रम असंख्यातगुणा है । उससे हास्यका जघन्य प्रदेशसंक्रम संख्यावगुण हैं। शेष घभंगके साथ ले जाना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपया जीवोंमें अल्पबहुत्व एकेन्द्रियोंके समान आगे करेंगे । यतः यह प्ररूपणा तिर्यब्चगति सामान्य
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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