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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे पदणिक्खेवो ४२३ वि तत्तो असंखेज्जगुणाणमसंखेज्जसमयपबद्धाण परिप्फुडमेवोपलंमादो। तं जहा ६६६८. दिवडढगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धमेगं ठविय गुणसंकमभागहारेण अधापवत्तभागहारेण च तम्मि ओवट्टिदे पढमसमयअधापवत्तसंकमो होइ । पुणो बिदियसमयअधापवत्तसंकमदयमिच्छिय तस्सेव असंखेज्जे भागे ठविय अधापवत्तभागहारेणोवडिदे विदियसमयअधापवत्तसंकमदयमागच्छदि । एवं हिदि ति पुबिल्लदबादो एदम्मि दधे सोहिदे सुद्धसेसमधापवत्तभागहारवग्गेण गुणसंकमभागहारेण च खंडिद दिवढगणहाणिमेत्तसमयपबद्धपमाणं होइ । जेणेसो अधापवत्तभागहारवग्गो उव्वेल्लणणाणागणहाणिअण्णोण्णभत्थरासोदो असंखेज्जगुणहीणो तेणुकस्सबहोदो उक्कस्सिया हाणी असंखेज्जगुणा ति ण विरुज्झदे। कधमधापवत्तमागहारवग्गादो उव्वेलणणाणोगुणहाणिअण्णोण्णभत्थरासीए असंखेज्जगणतावगमो ति णासंकणीयं, एदम्हादो चे सुत्तादो तदवगमोववत्तीदो। * सम्मामिच्छत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी। ६६६६. कुदो १ अधापवत्तसं कमादो विज्झादसकमे पदिदपढमसमयसम्माइटिम्मि किंचूणअधापवत्तसकमदबमेत्तुक्कस्सहाणिभावेण परिग्गहादो । है यह बात संदिग्ध है, क्योंकि शुद्ध शेष द्रव्यमें भी उससे असंख्यातगुणे असंख्यात समयप्रबद्धों की स्पष्टरूपसे उपलब्धि होती है । यथा ६६६८. डेढ़ गुणहानिसे गुणित एक समयप्रबद्धको स्थापित कर गुणसंक्रमभागहार और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा उसे भाजित करने पर प्रथम समयका अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य होता है । पुनः द्वितीय समयके अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्यको लानेकी इच्छासे उसके असंख्यात बहुभागको स्थापित कर अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करने पर द्वितीय समयसम्बन्धी अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्य भाता है । इस प्रकार है, इसलिए पहलेके द्रव्यमेंसे इस द्रव्यके घटा देने पर जो शुद्ध रहे उसका प्रमाण अधःप्रवृत्तभागहारके वर्ग और गुणसंक्रम भागहारसे डेढ गुणहानप्रमाण समयप्रबद्धोंके भाजित करने पर जो लब्ध पावे उतना होता है। यतः यह भागहारका वर्ग पहले की नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे असंख्यातगुणा हीन है, इसलिए उत्कृष्ट वृद्धिसे उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है यह बात विरोधको प्राप्त नहीं होती। . शंका–अधःप्रवृत्तभागहारके वगैसे उद्वेलना सम्बन्धी नाना गुणहानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है यह फैसे जाना जाता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसी सूत्रसे उसका ज्ञान होता है। * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। ६.६६६. क्योंकि अधःप्रवृत्तसंक्रमसे विध्यातसंक्रमको प्राप्त हुए प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवके कुछ कम अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्यको उत्कृष्ट हानिरूपसे ग्रहण किया है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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