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________________ ४२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बधगो ६ * उक्कस्सिया वड्डी असंखेज्जगुणा । ६७००. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाए सव्वसंक्रमेण तदुक्कस्ससा मित्तपडिलंभादो । * एवमित्थि एवं सयवेद-हस्स' -रह- अरइ - सोगाणं । ६ ७०१. जहा सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सहाणि - गड्ढोणमप्पाबहुअं कयं एवमेदेसि पि कम्माणं कायन्त्रं विसेसाभावादो । तं जहा -- सन्वत्थोत्रा उक्कस्सिया हाणी । किं कारण, उसाचरिमसमयगुणसंक्रमादो पढमसमयदेवस्स अघापवत्तसंकमदन्ये सोहिदे सुद्धसेपमात्तदो । वरि इत्थि - बुंसयवेदाणं विज्झादसंक्रमदव्त्रं सोहेयव्यं । वही अस खेगुणा । कुदो ? खवगचरिमफालीए सव्त्रस कमेण तदुक्कस्ससा मित्त पडिलंभादो | * कोहसंजलणस्स सव्वोत्थोवा उक्कस्सिया वड्ढी । ९७०२. तं जहा- चिराणसंत कम्म दुचरिमसमय अधापवत्त संक्रमदव्वे सव्त्रसंकमदव्वादो सोहिदे सुद्धसमेतमुक सबडिविसई कयदव्यं होड़ । एदं सव्वत्थवमिदि भणिदं । * हाणी अवद्वाणं च विसेसाहियौं । * उससे उत्कृष्ट वृद्धि असंख्यातगुणी है । ९७००, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में सर्वसंक्रमके द्वारा उसका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। * इसी प्रकार स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका अल्पबहुत्व जानना चाहिए । § ७०१. जिस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट हानि और वृद्धि का अल्पबहुत्व किया है। उसी प्रकार इन कर्मोंका भी करना चाहिए क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । यथा-उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है, क्योंकि उपशामक के अन्तिम समय सम्बन्धी गुणसंक्रमद्रव्यमेंसे प्रथम समवर्ती देवके अधः प्रवृत्तसंक्रम द्रव्यके घटा देने पर जो शुद्ध शेष रहे उतना उसका प्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्री और नपुंसक वेदकी अपेक्षा विध्यात संक्रमके द्रव्यको घटाना चाहिए। उससे वृद्धि असंख्यात गुणी होती है, क्योंकि क्षपककी अन्तिम फालिमें सर्व संक्रमके द्वारा उसका उत्कृष्ट स्वामित्व उपलब्ध होता है । * क्रोधस ज्वलनकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक होती है । § ७०२. यथा—प्राचीन सत्कर्ममेंसे द्विचरम समय सम्बन्धी अधःप्रवृत्तसंक्रम द्रव्यको सर्वसंक्रामकद्रव्यमें से घटा देने पर जो शुद्ध शेष बचे उतना उत्कृष्ट वृद्धि के द्वारा विषय किया द्रव्य होता है । यह सबसे स्तोक है यह कहा है । * उससे हानि और अवस्थान विशेष अधिक है । १. दि० प्रतौ - वेदस्स इस्स - इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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