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गा० ५८ ]
उत्तरपयडिपदेस कमे संकमद्वारा ि
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६ ७४७. तदो एदेण विहारोणापुत्रकरणं समाणिय अणियट्टिकरणं पविट्ठो । एवं पविट्ठस्स असंखेज्जलोगमेत्तपरिणामट्ठाणा णि णत्थि, अंतो मुहुत्त कालमेक्केको चेव अणि - परिणाम हो । तदो एत्थ वि गुणसेढोए बहुदव्यगालणं काढूण चरिमसमय मिच्छाट्टी जादो । सेकाले उवसमसम्माइट्ठी होदूण तकाले चैत्र सम्मत्तसम्मा मिच्छत्ताणि गुणसंक्रमेण पूरेमाणो सव्वकस्सगुणसंकमका लेण सव्वजहगगुणसंक्रमभागहारेण च पूरे दि त्ति वत्तव्वं मिच्छत्तदव्त्रस्स जहण्णीकरणङ्कं अण्णा तदप्पत्तीदो । एदेण विहिणा गुणसंकमकालं बोलिय विज्झादसंक्रमे पडिय अंतोमुहुत्तेण वेदयसम्मत्तं पडिवण्णो बेछासागरोमाणि परिभमिय अंतोमुहुत्तासे से दंसणमोहक्खवगाए अब्भुट्ठिय अधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि जहण्णपरिणामणिबंधणविज्झादसंक्रमेण संकामेमाणो जहण्णसंकमसामिओ होइ । संपहि एदमादि काढूण असंखेज लोगमेत्तसंक्रमद्वाणाणि पुव्वविहाणेगुप्पा गेहियव्याणि जाव एत्थतणदव्त्रमुकस्सं जादं ति ।
६७४८, दो बेट्टिकालं सव्वं संतकम्मे ओदारिजमाणे अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवीए मिच्छत्तदव्त्रमुकस्सं करेमाणो तत्थेयगोवुच्छदव्वमेत्तमेयसमय मोक. डणाए विणा सिददव्त्रमेत्तमेयसमय विज्झाद संकमदव्यमेत्तं च ऊणीकरियागंतूण असण्णिपंचिदिएस देवेसु च जहा कममुप्पजिय सम्मत्तपडिलंभेण बेछावडीओ भमिय दुचरिमसमय
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९ ७४७. इसलिए इस विधि से अपूर्वकरणको समाप्त कर अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार प्रविष्ट हुए जीवके असंख्यात लोकप्राण परिणामस्थान नहीं हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालतक एक एक ही अनिवृत्ति परिणाम होता है । इसलिए यहाँ पर भी गुणन पिके द्वारा बहुत द्रव्यको गलाकर अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टि हो गया । तथा अनन्तर समय में उपशमसम्यग्दृष्टि होकर उसी समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्त्रको गुणसंक्रमके द्वारा पूरता हुआ सबसे उत्त्कृष्ट गुणसंक्रमके कालके द्वारा और सबसे जघन्य गुणसंक्रमके भागहार द्वारा पूरता है ऐसा यहाँ पर मिथ्यात्व के द्रव्यको जघन्य करनेके लिए कहना चाहिए, अन्यथा वह जघन्य नहीं किया जा सकता | पुनः इस विधि से गुणसंक्रमके कालको बिताकर विष्यातसंक्रम में गिरकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करके अन्त मुहूर्त का शेष रहने पर दर्शन मोहनीयकी क्षपणा के लिए उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें जघन्य परिणामके कारणभूत विध्यातसंक्रमके द्वारा संक्रम करता हुआ जघन्य संक्रमस्थानका स्वामी होता है। अब इस स्थान से लेकर यहाँका द्रव्य उत्कृष्ट होने तक असंख्यात लोकप्रमाण संक्रमस्थान पूर्व विधिसे उत्पन्न करके ग्रहण करने चाहिए ।
६७४८. अनन्तर सम्पूर्ण दो छयासठ सागर कालतक सत्कर्मके उतारने पर जो अन्य एक गुणितकर्माशिक जीव सातवीं पृथिवी में मिथ्यात्व के द्रव्यको उत्कृष्ट करता हुआ वहाँ पर एक गोपुच्छा मात्र द्रव्यको, एक समय तक अकर्षण के द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्य को तथा एक समय तक विषयात संक्रम द्रव्यको कम करके आया और असंज्ञी पञ्च न्द्रियों तथा देवों में क्रमसे उत्पन्न होकर सम्यक्त्वकी प्राप्तिके साथ दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण कर द्विचरमसमयमें अधः