SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६५ गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ® मिच्छत्तस्स भुजगार-प्रवत्तव्व-संकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो? ६५४२. सुगमं । * जहणणेण एयसमझो। $ ५४३. भुजगारसंकामयाणं ताव उच्चदे-एको वा दो वा तिष्णि वा एवमुक्कस्सेण पलिदो० असंखे० भागमेत्ता वा मिच्छाइट्ठी उबसमसम्म पडिवजिय गुणसंकमचरिमसमए वट्ठमाणा भुजगारसंकामया दिट्ठा, गट्ठो च तदणंतरसमए तेसिं पाहो । एवमेय. समयमंतरिदपवाहाणं पुणो वि णाणाजीवाणुसंधाणेणाणंतरसमए समुभवो दिट्ठो विणढमंतरं होइ । एवमवत्तव्यसंकामयाणं वि वत्तव्यं । णवरि सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए आदी कायया । * उक्कस्सेण सत्त राबिंदियाणि।। ६५४४. कुदो १ सम्मत्तग्गाहयाणमुक्कस्संतरस्स तप्पमाणतोवएसादो। * अप्पयरसंकामयाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि । ६५४५. सुगमं । * पत्थि अंतरं। * मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतरसंक्रामक जीवोंका अन्तरकाल कितना है? ६५४२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६५४३. सर्व प्रथम भुजगारसंक्रामकोंका अन्तरकाल कहते हैं-एक, दो या तीन इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर गुणसंक्रमके अन्तिम समयमें रहते हुए भुजगारसंक्रामक देखे गये और तदनन्तर समयमें उनका प्रवाह नष्ट हो गया । इस प्रकार एक समय तक प्रवाहका अन्तर देकर फिर भी नाना जीवोंके प्रवाह रूपसे अनन्तर समयमें उत्पत्ति देखी गयी । तथा इसके बाद वह प्रवाह भी नष्ट हो गया। इस प्रकार भुजगारसंक्रामक नाना जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है। इसी प्रकार प्रवक्तव्यसंक्रामकोंका भी जघन्य अन्तर एक समय कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वको प्राप्त होने के प्रथम समयमें आदि करनी चाहिए। * उत्कृष्ट अन्तरकाल सात रात्रि-दिन है। ६५४४, क्योंकि सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल तत्प्रमाण है ऐसा उपदेश है। * अल्पतर संक्रामकोंका अन्तरकाल कितना है। ६५४५. यह सूत्र सुगम है। * अन्तरकाल नहीं है।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy