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________________ गा ५८] उत्तरपयडिपदेससकमे पदणिक्खेवो * अणंताणुबंधोणं जहणिया वड्डी हाणी अवठ्ठाणं च कस्स ? ६६७३. सुगमं। ॐ जहएणगेण एइंदियकम्मेण विसंजोएदूण संजोइदो, तवो ताव गालिदा जाव तेसिं गलिदसेसाणमधापवत्तणिज्जरा जहपणेण एइंदियसमयपबद्धण सरिसी जादा त्ति । केवचिरं पुण कालं गालिदस्स अणंताणुबंधीणमघापवत्तणिज्जरा जहएणएण एइंदियसमयपषद्धण सरिसी भवदि ? तदो पलिदोवमस्स असंखेजविभागकालं गालिदस्स जहणणेण एइंदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा भवदि। जहएणेण एइंदियसमयपबद्धण सरिसी णिज्जरा प्रावलियाए समयुत्तराए एत्तिएण कालेण होहिदि त्ति तदो मदो एइदियो जहण्णजोगी जावो । तस्स समयाहियावलिय. उववएणस्स अणंताणुबंधोणं जहरिणया वड्डी वा हाणी वा अवठ्ठाणं वा। ६६७४. एदस्स सुत्तस्सत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा--'जहण्गएण एई दियकम्मेणे' ति वुत्ते सुहुमईदिएमु खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्मट्ठिदिमणुपालेमाणेण संचिदजहण्गदव्वस्स गहणं कायव्यं, तत्तो अण्गस्स एइ दियजहण्गकम्मस्साणुवलंभादो । तेण सह w ww - - * अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान किसके होता है ? ६६७३. यह सूत्र सुगम है। * जो एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य सत्कर्मके साथ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर उससे संयुक्त हुआ। अनन्तर उसने गलित शेष उनकी निर्जराके एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान होने तक उन्हें गलाया । कितने समय तक गलाये गये अनन्तानुबन्धियोंकी अधःप्रवृत्त निर्जरा एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके सदृश होती है ? एकेन्द्रियोंमें आनेके बाद पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक गलाये गये अनन्तानुबन्धियोंकी निर्जरा एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान होती है । किन्तु एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य समयप्रबद्धके समान यह निर्जरा एक समय अधिक एक आवलि कालके बाद होगी कि वह मरा और जघन्य योगसे युक्त एकेन्द्रिय हो गया उसके उत्पन्न होनेके एक समय अधिक एक आवलिके बाद अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि या जघन्य अवस्थान होता है। ६७४. अब इस सूत्रके अर्थका कथन करते हैं। यथा-'जहण्णएण एइंदियकम्मेण'. ऐसा कहने पर सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें क्षपितकर्मा शिक लक्षणरूपसे कर्मस्थितिका पालन करनेवाले जीवके द्वारा संचित हुए जघन्य द्रव्यका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसके सिवा अन्य जीवके एकेन्द्रियसम्बन्धी जघन्य कर्म उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार उस द्रव्यके साथ आकर और १. आप्रतौ वड्डी कस्स ता०प्रतौ वड्डी [ हाणी अक्वाणं च ] कस्स इति पाठः ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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