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________________ ४२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ सम्माइट्ठिविदियसमए असंकमपाओग्गं होदूण गच्छमाणगोवुच्छदव्यमोकड्डणादिवसेण एयसमयपबद्धस्सासंखेज दिमागमेतं होइ । संकमपाओग्गं होदूणागच्छमाणदव्वं पुण सयलमेयसमयपबद्धमेत होइ। एवं होइ ति कट्ट, असंकमपाओग्गभावेण गददव्यमेत्त संकमपाओग्गभावेण ढुक्कमाणस्स समयपबद्धम्मि घेत्तण चिराणसंतकम्मम्मि पक्खिविय भागे हिदे पुबिल्लसमयसंकामिददव्वमेत्तं चैव विदियसमयसंकमद होइ । पुणो सेसअसंखेज्जभागा वि तेणेव भागहारेण संकामिज्जति ति तेसु विज्झादभागहारेणोवट्टिदेसु समयपबद्धासंखेज्जाणं भागाणमसंखे०भागमेतविदियसमयवडिददव्वं होइ । एवं वहिदण तदियसमयम्मि तत्तियमेत्तं चेव संकामेमाणयस्तावद्विदसंकमो होइ त्ति समयपबद्धस्सासंखेजाणं भागाणमसंखेज्जदिभागोत्ति वुत्तं । *हाणी असंखेज्जगुणा । ६६६३. किं कारणं ? चरिमसमयसंकमादो विज्झादसंकमम्मि पदिदस्स पढमसमयअसंखेजसमयपबद्धे हाइदूण हाणी जादा । तेणेदं पदेसग्गमसंखेज्जगुणं भणिदं । * वड्डी असंखेज्जगुणा । ६६६४. कुदो ? सव्वसंकमम्मि उकस्सवड्डिसामित्तावलंबणादो। ® एवं बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं ।। होकर जाता हुआ गोपुच्छाका द्रव्य अपकर्षण आदिके वशसे एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। परन्तु संक्रम प्रायोग्य होकर आनेवाला द्रव्य पूरा एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है। इस प्रकार होता है ऐसा समझ कर असंक्रमप्रायोग्यभावसे जानेवाले द्रव्यप्रमाणको संक्रमप्रायोग्यभावसे प्राप्त होनेवाले द्रव्यके समयप्रबद्ध मेंसे ग्रहण कर तथा प्राचीन सत्कर्ममें प्रक्षिप्त कर भाजित करने पर पहले के समयमें संक्रम कराये गये द्रव्यके बराबर ही दूसरे समयका संक्रमद्रव्य होता है । पुनः शेष असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य भी उसी भागहारके द्वारा संक्रमित कराया जाता उनके विध्यात भागहारके द्वारा भाजित करने पर समयप्रबद्धके असंख्यात बहुभागके वृद्धिद्रव्य होता है। इस प्रकार बढ़ाकर तीसरे समयमें उतने ही द्रव्यका संक्रम करानेवालेके असंख्यातवें भागप्रमाण दूसरे समयका अवस्थितसंक्रम होता है, इसलिए समयप्रबद्धके असंख्यात बहुभागका असंख्यातवां भाग ऐसा कहा है। * उससे हानि असंख्यातगुणी होती है। ६६६३. क्योंकि अन्तिम समयमें हुए संक्रमसे विध्यातसंक्रममें पतित हुए जीवके प्रथम समयमें असंख्यात समयप्रबद्ध कम होकर हानि हो गई, इसलिए यह प्रदेशाग्र असंख्यात गुणा कहा है। * उससे वृद्धि असंख्यातगुणी है। ६६६४. क्योंकि सर्वसंक्रममें उत्कृष्ट वृद्धि के स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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