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३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ३२५. एदम्मि चेत्र पुव्वुप्पाइदसम्मत्तमिच्छाइद्विपच्छायदवेदगसम्माइडिपढमावलियविसयमिच्छाइट्ठिचरिमावलियणकबंधसंबंधेणागमणिज्जराणं सरिसत्तावलंबणेणावढिदसंकमसंभवो गाण्णत्थे ति सुत्तत्थ समुच्चयो।
* सम्मत्तस्स भुजगारसंकामगो को होदि ? ६३२६. सुगमं ।
* सम्मत्तमुव्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे द्विविखंडए सव्वम्हि चेव भुजगारसंकामगो।
६३२७. कुदो ? तत्थगुणसंकमणियमदंसणादो।
* तव्वदिरित्तो जो संकामगो सो अप्पयरसंकामगो वा अवत्तव्वसंकामगो वा।
६ ३२८. किं कारणं १ उव्वेल्लणचरिमट्ठिदिखंडयादो अण्णत्थ जहासंभवमप्पदरावत्तव्वसंकमाणं चेव संभवदंसणादो।
ॐ सम्मामिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो को होइ ? ६३२६. सुगमं ।
* उच्वेल्लमाणयस्स अपच्छिमे द्विविखंडए सव्वम्हि चेव ।
६३२५. जिसने पहले सम्यक्त्वको उत्पन्न किया वह मिथ्यादृष्टि होकर जब पुनः वेदकसम्यदृष्टि होता है तब उसके प्रथम आवलिमें मिश्यादृष्टिकी अन्तिम श्रावलिके नवकबन्धके सम्बन्धसे आय और निर्जराकी सदृशताका अवलम्बन लेनेसे अवस्थित संक्रमकी सम्भावना जाननी चाहिए अन्यत्र नहीं यह सूत्रका समुच्चय अर्थ है।
* सम्यक्त्वका भुजगारसंक्रामक कौन है ? ६३२६. यह सूत्र सुगम है।
* सम्यक्त्वकी उद्वलना करते हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकमें सर्वत्र ही जीव भुजगार संक्रामक है।
६३२७. क्योंकि वहाँ पर नियमसे गुणसंक्रम देखा जाता है।
* इसके सिवा जो संक्रामक है वह या तो अन्पतरसंक्रामक है या अवक्तव्य. संक्रामक है।
३२. क्योंकि उद्वेलनाके अन्तिम स्थितिकापडकके सिवा अन्यत्र यथासम्भव अल्पतर संक्रम और अवक्तव्य संक्रमकी ही सम्भावना देखी जाती है।
* सम्यग्मिथ्यात्वका भुजगारसंक्रामक कौन है ? ६ ३२६. यह सूत्र सुगम है।
* उद्घलना करते हुए अन्तिम स्थितिकाण्डकमें सर्वत्र ही सम्यग्मिध्यात्वका भुजगारसंक्रामक है।