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________________ २५ गा० ] उत्तरपयडिपदेससंकमे भुजगारो ६ ४६०. भुजगारप्पदराणमण्णदरसं क्रमेणेयसमयमंतरिदस्स तदुवलद्धीदो । * उक्कस्सेण अणतकालसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ३३६ ९ ४६१. सुगममेदं; अणंताणुबंधीणमवद्विदुकस्संतरपरूवणाए समाणत्ता दो । संपहि एदेण सुत्ते पुरिसवेदस्स वि असंखेजपोग्गलपरियट्टमेत्तावट्ठिदसंकमुकस्संतरावि१प्पसंगे तदसंभवपदुपायगदुवारेण तत्थ देगद्ध पोग्गल परियट्टमेनंतर विहासणमुत्तरमुत्तं भणइ । * णवरि पुरिसवेदस्स उचदुपोग्गलपरियहं । ६ ४६२. कुदो १ सम्माइट्ठिम्मि चेत्र तदवट्ठिद संक्रमस्स संभवणियमादो । * सव्वेसिमवत्तव्वसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ९ ४६३. सुगममेदं पुच्छावक ं । * जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ४६४. सव्वासामणापडिवाद जहणंतरस्स तप्यत्तोवलं भादो । * उक्कस्सेण उवठ्ठपोग्गलपरियहं । ९ ४६५. अद्धपोग्गलपरियट्टा दिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय सामणापडिवादेणादि कादूणंत रिसस्स पुण्णो तदवसाणे अंतोमुहुत्तसेसे सन्त्रोवसामणा सलहु सव्त्रोव - ६४६०. क्योंकि भुजगार और अल्पतर संक्रमके द्वारा एक समय के लिए अन्वर को प्राप्त अवस्थित संक्रमका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है । ४६१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि यह अनन्तानुबन्धियोंके अवस्थित संक्रमके उत्कृष्ट अन्तरके कथन के समान है। अब इस सूत्र द्वारा पुरुषवेदके भी अवस्थित संक्रमका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होने पर वह असम्भव है इसके कथन द्वारा उसमें कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण अन्तरका कथन करनेके लिए आागेका सूत्र कहते हैं. * इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका उक्त अन्तरकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । ६ ४६२. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके ही पुरुषवेदके अवस्थित संक्रमकी सम्भावनाका नियम है । * उक्त सब कर्मों के अवक्तव्य संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? ६ ४६३. यह पृच्छा वाक्य सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । ६ ४६४. क्योंकि सर्वोपशामना के प्रतिपातके जघन्य अन्तरकाल प्रमाण वह उपलब्ध होता है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्श्वपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । ६४६५. अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके अतिशीघ्र सर्वोपशामनासे गिरनेके कारण अवक्तव्य संक्रमका प्रारम्भ करके उसके अन्तरको प्राप्त हुए जीवके पुनः अर्धपुद्गल परिवर्तनके अन्त में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रहने पर सर्वोपशामना के प्रतिपात १. राई, ता० ।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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