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________________ ० ० ० ० ०० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ०० ० ० ० ० ० ० ० ० ० गा०५८] उत्तरपयडिपदेससंकमे संकमट्ठाणाणि ४६३ जहा पढम-विदियणिधग्गणकंडयाणमण्गोण्णेण पुणरुत्तभावो परूविदो तहा बिदिय-तदियणिब्वग्गणकंडयाणं पि वत्तव्यं, विसेसाभावादो । एत्थ विदियणिव्वग्गणकंडयसवपरिवाडीणं बिदियादिस कमाणाणि पुणस्ताणि ति अबणेयवाणि । एवमणंतरहेट्ठिमणिव्वग्गणकंडयसन्चपरिवाडीणं रिदियादिसकमट्ठाणाणि अणंतरोवरिमणिव्वग्गणकंडयसापरिवाडिसकमट्ठाणेहिं जहोकमं पुणरुत्ताणि कादण णेदवाणि जाव दुचरिमणिवग्गणकंडयसनपरिवाडीणं विदियादिसकमट्ठाणाणि चरिमणिव्वग्गणकंडयस कमट्ठाणेहि सह पुणरुत्ताणि होदण पयदपवणाए पजवसाणं पत्ताणि ति । एवं णीदे चरिमणिव्वग्गणकंडयं मोत्तण दुचरिमादिहेडिमासेप्तणिव्वग्गणकंडयाणं सव्वाणि .. चेव संकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि होदण गदाणि। णवरि सम्बणिव्व- ० ० ० ग्गणकंडयसव्वपरिवाडीणं पढमस कमट्ठाणाणि सव्वाणि चेबापुण- ० ० रुत्ताणि होदण चिट्ठति । ० ० ० ० ० ७५६. संपहि परिणामट्ठाणविक्खंभस कमाणपरिवाडिमेत्तायामसयस कमट्ठाणपदरादो पुणरुत्तसंकमट्ठाणेसु अवणिदेसु सेसस कमट्ठाणाणि अपुणरुत्तभावेण वीयणाकाराणि होदण चेट्ठति । तेसिमेसा ठवणा । एत्थ दंडपमाणमोकड्ड कड्डणभागहारं विज्झादभागहारं बेछावट्ठि०अण्णोण्णब्भत्थरासिं वेअस खेजा लोगे जोगगुणगारं च एवमेदे छन्भागहारे अण्णोण्णगुणे करिय : लद्धरूवमेत्तं होइ, संकमट्ठाणपरिवाडीणमायामस्स णिरवसेसमेत्थ दंडभावेणावट्ठिदत्तादो। चरिमणिव्वग्गणकंडयस कमट्ठाणाणि पुण / प्रथम और द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डकोंका परस्पर पुनरुक्तपना कहा है उसी प्रकार दूसरे और तीसरे निर्बर्गणाकाण्डकोंका भी कहना चाहिए, क्योंकि उनसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। यहाँ पर दूसरे निर्वर्गणाकाण्डककी सब परिपाटियोंके दूसरे आदि संक्रमस्थान पुनरुक्त हैं,इसलिए उन्हें अलग कर देना चाहिए। इसी प्रकार अनन्तर अधस्तन निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके द्वितीय आदि संक्रमस्थानोंको अनन्तर उपरिम निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके संक्रमस्थानोंके साथ क्रमसे पुनरुक्त करके तब तक ले जाना चाहिए जब तक द्विचरम निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके द्वितीय आदि संक्रमस्थान अन्तिम निर्गणाकाण्डकके संक्रमस्थानोंके साथ पुनरुक्त होकर प्रकृत प्ररूपणामें अन्तको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ले जाने पर अन्तिम निर्वर्गणाकाण्डक को छोड़कर द्विचरम आदि समस्त निर्षर्गणाकाण्डकोंके सभी संक्रमस्थान पुनरुक्त होकर जाते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सब निर्वर्गणाकाण्डकोंकी सब परिपाटियोंके सभी प्रथम संक्रमस्थान अपुनरुक्त होकर ही स्थित हैं। ६७५६. अब परिणामस्थानमात्र विष्कम्भयुक्त और संक्रमस्थान परिपाटीमात्र आयाम युक्त सर्व संक्रमस्थान प्रतरमेंसे पुनरुक्त संक्रमस्थानोंके घटा देने पर शेष संक्रमस्थान अपुनरुक्तरूपसे बीजनाकार रूप होकर स्थित होते हैं। उनकी यह स्थापना है। (स्थापना मूलमें देखो।) यहाँ पर ० ००० ०
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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