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________________ ३०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ! बंधगो ६ कालो होइ त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ । अधवा अंतोमुहुत्तं । ६३४७. तं जहा—दसणमोहमुवसामेंतयस्स वा जाव गुणसंकमो ताव णिरंतरं भुजगारसंकमो चेत्र; तत्थ पयारंतरासंभादो । सो च गुणसंकमकालो अंतोमुहुत्तमेतो तदो पयदुक्कस्सकालवलंभो ण विरुद्धो । * अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि? ६३४८. सुगममेदं । * एको वा समयो जाव प्रावलिया दुसमयूणा। ३४६. पुबुप्पण्णसम्मत्तपच्छायदमिच्छाइटि-चर-वेदयसम्माइट्ठि पढमावलियावेक्खाए एसो कालवियप्पो णिट्ठिो। तं जहा-तहाविहसम्माइट्ठिणो पढमसमए अवत्तव्वसंकामगो कादूण विदियसमयम्मि अप्पयरसंकमेण परिणमिय तदणंतरसमए चरिमावलियमिच्छाइटिबंधवसेण भुजगारमवद्विदभावं वा गयस्स लद्धो एयसमयमेत्तो अप्पयरकालजहण्णवियप्पो। एवं दुसमय-तिसमयादिकमेण णेदव्वं जाव आवलिया दुसमयूणा त्ति । तत्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे-पढमसमए अवत्तव्यसंकामगो होदूण विदियादि समएसु अन्तर्मुहर्त प्रमाण होता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * अथवा उत्कृष्टकाल अन्तमुहू त है। ६३४७. यथा-दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके जब तक गुणसंक्रम होता है तबतक निरन्तर भुजगारसंक्रम ही होता है, क्योंकि गुणसंक्रमके समय अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है । और वह गुणसंक्रमका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, इसलिए प्रकृत उत्कृष्ट कालकी प्राप्ति विरोधको नहीं प्राप्त होती। * अल्पतरसंक्रमका कितना काल है ? ६३४८. यह सूत्र सुगम है। * एक समयसे लेकर दो समय कम आवलि तक काल है। ६ ३४६.पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे पीछे आकर जो मिथ्यादृष्टि हुआ है और बादमें जो वेदकसम्यग्दृष्टि हुअा है उसकी प्रथम प्रावलिकी अपेक्षासे यह कालका विकल्प निर्दिष्ट किया है। यथाप्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रामक होकर दूसरे समयमें अल्पतरसंक्रम रूपसे परिणमन कर उसके अनन्तर समयमें अन्तिम आवलिमें हुए मिथ्यादृष्टिके बन्धके कारण भुजगारसंक्रम या अवस्थितसंक्रमको प्राप्त हुए उस प्रकारके सम्यग्दृष्टिके अल्पतरसंक्रमका जघन्य विकल्परूप एक समय काल प्राप्त हुआ । इस प्रकार दो समय और तीन समय आदिके क्रमसे दो समय कम एक आवलिप्रमाण काल तक ले जाना चाहिए। उसमें अन्तिम विकल्पको कहते हैं-प्रथम समयमें अवक्तव्यसंक्रामक होकर द्वितीयादि सब समयोंमें ही अल्पतर संक्रमको करके पुनः प्रथम आवलिके अन्तिम समयमें १. 'होदूण' ताः।
SR No.090221
Book TitleKasaypahudam Part 09
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size19 MB
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